Wednesday, December 31, 2014

नारी चरित्र - एवं डॉक्टरेट

नारी चरित्र - एवं डॉक्टरेट
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गंभीर विषय की पोस्ट पर कमेंट , कभी कभी हँसी में टालने का या दिशा मोड़ने वाला होता है। इसलिए उत्तर संतुलित रखना बेहद आवश्यक होता है। ऐसी एक पोस्ट पर  1 Comment ऐसा आया -
--  जैन साहिब नारी चरित्र पे डाक्टरेट कर रहे हैं?
December 30, 2014 at 9:59pm · Unlike · 1
Rajesh Jain सर , thanks , पुरुष - नारी चरित्र भारतीय रखने का प्रयास कर रहा हूँ
December 30, 2014 at 11:45pm · Edited · Like
लेखक ने प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर कमेंट किया , डाक्टरेट पर उत्तर अब है। लेखक समझता है औपचारिक डाक्टरेट ,  , हमारे चिंतन और लक्ष्य को व्यक्तिगत उपलब्धि में सीमित करने वाला हो सकता है। इस उपलब्धि के बाद कोई डॉक्टर इसे कितना अपने व्यक्तिगत प्रगति के लिए , और कितना समाज , राष्ट्र या मानवता के पक्ष में प्रयोग करता है वह उस डॉक्टर पर निर्भर होता है।
हँसी के लिये किया कमेंट ,एक आदरणीय की हाजिरजबाबी है, लेकिन लेखक में यह मनन को ट्रिगर करता है। इसका व्यक्तिगत स्पष्टीकरण लेखक देना चाहता है। इसे कमेंट में लिखने की अपेक्षा इसी पेज से शेयर करना उचित है। लेखक का प्रयोजन , जी हाँ डाक्टरेट ही है , फॉर्मल नहीं। ऐसा डाक्टरेट जो व्यक्तिगत उपलब्धि के लिये नहीं अपितु सामाजिक उपलब्धि के लिए हो। इस डाक्टरेट में "नारी चरित्र " अकेला नहीं बल्कि पुरुष चरित्र भी सामानांतर रखा गया हो। इस तरह हमारे इस पेज के शोध का विषय है।
 "नारी का यथोचित सम्मान एवं  नारी (और पुरुष) में चेतना सुनिश्चित करना ,जिससे वे आपसी प्रतिद्वंदी होकर न दिखें। एक साथ सुखद जीवन यापन कर सकें "  
इस शोध में बुध्दिजीवी पुरुष और नारी शोधार्थी सम्मिलित हो रहे हैं , पेज उनका आदर करता है।
वास्तव में पहले , रक्षा के तर्क पर नारी ,घरों में सीमित थी।  अब समानता के तर्क पर घर के बाहर आ रही है। नारी अति आक्रामकता भी प्रदर्शित कर रही है। उसे पुरुष धूर्तता (एवं नारी मनोविकृति भी) उकसा कर गलत दिशा भी दे रही है।  इसे निष्पक्षता से देखें तो नारी पहले कई प्रकरणों में शोषण से पीड़ित थी। अब अति स्वछंदता को की ओर इस तरह बढ़ती /बढ़ाई जा रही है। ऐसे में वह फिर शोषण की ओर ही उन्मुख हो रही है। इस लेखक द्वारा इस अति स्वछंदता को  "नारी देह का घिनौना जूलूस " से निरूपित किया गया है। यह कथन ,इसे देख लेने पर सिध्द होता है। अति आक्रमकता की ऐसी प्रतिक्रिया नारी (और पुरुष को ) धन से तोल क्रय करने वाली वस्तु सा बना के रख देने वाली है। अभी शुभ संकेत यही है , इसे कुछ नारी और कुछ पुरुष ही कर रहे हैं। ऐसा न हो इस दिशा और गति से वर्ष 2315 में , कुछ ही इस विकृति के अपवाद रह जायें। इस पीढ़ी को यह चुनौती भी है और सुअवसर भी है , जिसको भलि-भाँति निबट कर वह मनुष्य सभ्यता इतिहास में एक मील का पत्थर जोड़ दे सकता है ।और समाज का मुख आदर्शों की तरफ मोड़ दे सकता है ।
ऐसा लिखने का प्रयोजन कहीं भी नारी को नीचा दिखाने का नहीं है और ना ही पुरुष को षणयंत्रकारी कहने का है।  बल्कि वह दर्पण सभी के समक्ष उपस्थित करने का है  जिसमें मनुष्य मन (पुरुष और नारी दोनों ) में विकसित होती विकृति को देखा जा सके। जिससे मनोग्रंथियाँ  -मनोविकृतियों का दोष मिटाया  जा सके। जिस की सहायता से अकेले तन का नहीं अपितु मन का भी सौंदर्यीकरण किया जा सके। ऐसा सौंदर्य प्रसाधन प्रस्तुत किया जा सके जिस के प्रयोग /आश्रय से पुरुष या नारी , बाल अवस्था से लेकर वृध्दावस्था तक भी किसी भी अन्य को सुंदर या भला लगता रह सके।
आयें हम समाज दायित्व को इस तरह निभा कर इनफॉर्मल डॉक्टर की डिग्री लें।
--राजेश जैन
01-01-2015

नववर्ष '2015' मंगलमय हो

नववर्ष '2015' मंगलमय हो
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सम्पूर्ण चेतना में उर्जित हो उठो
जीवन आज नवप्रभात ले आया है
सम्पूर्णता अपने जीवन की निहारो
नववर्ष आज नवप्रकाश ले आया है 

शुभ अपने लिए शुभ सबके लिये
करने हेतु शुभकामना हम ले रहे हैं
शुभ अपने लिए शुभ सबके लिए
आप करें शुभकामना हम दे रहे हैं

वर्ष 2015  पूरे देश के लिए शुभ हो
शुभकामना हार्दिक मन में आई है
जिस समाज में निवास रत हम सभी
आज शुभकामना उसके लिए छाई है 

सम्पूर्ण चेतना में उर्जित हो उठो
जीवन आज नवप्रभात ले आया है
सम्पूर्णता अपने जीवन की निहारो
नववर्ष आज नवप्रकाश ले आया है 

राजेश जैन
01-01-2015

Tuesday, December 30, 2014

अच्छाई का साथ

अच्छाई का साथ
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गरिमा , कम्पनी द्वारा आयोजित "न्यू ईयर सेलिब्रेशन " में रिलैक्स फील नहीं कर रही थी।  चारों तरफ , म्यूजिक शोर , थिरक रहे लोग और ड्रिंक्स सुनाई-दिखाई पड़ रहे थे , ऐसे में उसे पापा याद आये , थोड़े कम शोर-शराबे वाली जगह से उसने पापा को मोबाइल किया।
पापा की कुछ उनींदी सी आवाज सुनाई पड़ी -कैसी हो बेटे ? क्या कर रही हो?
गरिमा -पापा अकेली होने का डिप्रेशन हो रहा है , नए वर्ष पार्टी ,कंपनी के द्वारा की गई है , सब तरफ नशा और जश्न है , मुझे रुच नहीं रहा है।
पापा - तुम बिलकुल अकेली नहीं हो , कभी रहोगी भी नहीं , तुम्हारे साथ अच्छाई ,हमेशा है , मुझे विश्वास है , है न बेटे ?
गरिमा -मेरे अच्छे पापा , आप हमेशा मेरा मनोबल हैं , आपके सोने का समय है ,सो जाइये ,बाय पापा।
पापा -बाय बेटा।
अब आत्मविश्वास से भरी गरिमा ,वापस आकर , प्लेट में खाना ले ,एक टेबल पर आ बैठती है, कुछ चुगना आरम्भ करती है ,तब , एक सीनियर  , आकर पूछ कर सामने बैठते हैं  .
बोलते हैं , हाय स्वीटी , आई एम सुदृढ़ , आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। इजाजत हो तो कहूँ।
गरिमा , सर ,कहिये , मै गरिमा हूँ , मै आपको जानती हूँ।
सुदृढ़ - मै देर नहीं करना चाहता ,कंपनी में मेरा पैकेज 60 लाख है , आपको मंजूर हो तो ,आपको विवाह का प्रस्ताव कर रहा हूँ।
गरिमा (कुछ सोचते हुए ) - सर क्या आप कल ,दिन में बात कर सकते हैं।  सुदृढ़ - ओके , कल मिलता हूँ।  कहते हुए उठता है।
दूसरे दिन लंच के समय , सुदृढ़ आता दिखाई देता है , दूसरे साथियों को संकेत करते , गरिमा अलग टेबल पर ,सुदृढ़ के साथ बैठती है।
गरिमा , हेलो सर , कल आप ड्रिंक्स के प्रभाव में थे।  सुदृढ़ - था , लेकिन आपको ,जैसे बैठा देखा ,ड्रिंक्स उतर गई थी , अपने जीवन संगिनी का सपना ,आप में साकार होता दिखा था , कल का प्रस्ताव पूरे होश में था , आज भी वही लाया हूँ , क्या कहती हैं ,आप ?
गरिमा - सर , मुझे ड्रिंक्स/स्मोक से एलर्जी है।
सुदृढ़ - वह ,मैंने कल रात आखिरी बार ले चुका , विश्वास करती हो ? अब क्या कहती हो?
गरिमा -पापा का मोबाइल मिलाती है , कहती है पापा ,हमारे सीनियर , सुदृढ़ जी आपसे कुछ कहना चाहते हैं , फिर मोबाइल सुदृढ़ की ओर बढाती है।
सुदृढ़ उसे ऐसे थामता है , जैसे पत्नी का हाथ हो , गरिमा सोच में डूबती है , सुदृढ़ मोबाइल पर कह रहा है - अंकल ……
--राजेश जैन
31-12-2014

Monday, December 29, 2014

"बॉयफ्रेंड" एक चरित्र चित्रण

"बॉयफ्रेंड" एक चरित्र चित्रण
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हम युवाओं में से लाखों (शायद करोड़ों हों ) किसी युवती /युवतियों के बॉयफ्रेंड हैं। जो नहीं हैं उनमें से भी अधिकाँश बॉयफ्रेंड होना चाहते हैं। पिछले आलेख में बॉयफ्रेंड के कर्तव्य परिभाषित करने का उल्लेख था। इतने बॉयफ्रेंड हैं , लेकिन बिरले ही कुछ कमेंट कर सके , लेख हिंदी का था , इसलिए अनेकों ने पढ़ा नहीं।
कुछ पढ़ना /ना पढ़ना या किसी प्रश्न का उत्तर देना /ना देना वह व्यक्तिगत रूचि और इच्छा की बात है , इस पर लेखक की ऒर से कोई बाध्यता कभी नहीं है।  जो कुछ अच्छा कभी पढ़ लेते हैं , अपना व्यू स्पष्ट करें न करें , कभी उस पर विचार कर लेते हैं यह , अच्छाई के प्रसार/संचार के लिये पर्याप्त होता है ।
अब हम शीर्षक पर आते हैं , चूँकि कर्तव्य के बारे में कुछ ज्यादा नहीं कहा गया ,अतः "बॉयफ्रेंड एक चरित्र चित्रण"  में कर्तव्य क्या होते हैं उस पर चर्चा स्थगित रखते हुए , कौन बॉयफ्रेंड नहीं है , क्या उसके कर्तव्य नहीं हैं ,  शैली का सहारा लेते हैं।  इसमें उन बातों का उल्लेख रखते हैं , जो देश/समाज में आज सामान्यतः समाचार बनते हैं।
1 .  जो अपनी नारी का अन्य से विवाह होने पर , उसे पूर्व सबंधों के आधार पर ब्लैकमेल करता है , वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
2.   जो ऑफिस /कॉलेज में नारी को सहारा ,सहायता करने के बदले में उससे दैहिक संबंध चाहता है, वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
3.   जो दैहिक संबंध बना कर नारी के गर्भ और बाद में एबॉर्शन के लिए जिम्मेदार होता है ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
4.   जो बिना विवाह किये नारी -को माँ बना दे , ऐसी अविवाहिता को नवजात की हत्या को बाध्य करे ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
5.   जो कुलीग/क्लासमेट या अन्य गर्ल्स  के mms या फेसबुक पर देह प्रदर्शन के रूप में चित्र/वीडिओ लगाता है ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
6.  जो गर्ल्स को स्मोक /ड्रिंक्स के लिए उकसाता है , वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
7.  जो उपहारों के बदले में , नारी से फ़्लर्ट की इक्छा रखता है ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
8.  जो गर्ल्स का मोबाइल /चित्र कॉलगर्ल के रूप में फेसबुक पर लगा देता है ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
9.  जो गर्ल्स की फेक आईडी उसके पिक का उपयोग कर बनाता है ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
10. जो मित्र होता है , किन्तु विवाह का दबाव डालने पर ना सुनने पर चेहरा बिगाड़ देता है ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है।
11. जो शोषण बाद धोखा दे किसी युवती को सुसाइड को बाध्य करता है ,वह बॉयफ्रेंड नहीं होता है। 
(चरित्र चित्रण में संशोधन या और बातें सम्मिलित करने के सुझाव , स्वागत योग्य हैं )
यह आलेख बेशक मेरे युवा साथी , लाइक ,कमेंट या शेयर न करें , लेखक को दुःख नहीं होगा , किन्तु जो पढ़ रहे हैं , वे कुछ क्षणों को विचार न करें , लेखक नहीं एक मनुष्य अवश्य दुखी होगा।
--राजेश जैन
30-12-2014

बॉयफ्रेंड के कर्तव्य क्या होते हैं ?

बॉयफ्रेंड के कर्तव्य क्या होते हैं ?
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नारी में चेतना के अभिलाषी
नारी के सम्मान के अभिलाषी
हम प्रश्न का उत्तर खोजते हैं ...
क्या ,बॉयफ्रेंड के कर्तव्य होते हैं ?


जी हाँ , बॉयफ्रेंड -गर्लफ्रेंड यह टर्म हमारी संस्कृति के लिए नई है। इसलिए भारत का युवा , इसका यथोचित उत्तर हमारे साहित्य में एवं हमारे धर्म ग्रंथों में नहीं खोज सकता है।
बॉयफ्रेंड कौन होता है ?
या गर्लफ्रेंड कैसी होती है ?
पेज से सतर्क होकर प्रश्न इस रूप में रखा है , ताकि उत्तर शिष्टाचार के दायरे में रहें। पेज एडिटर्स प्रबुध्द नारी भी हैं , उनके समक्ष या इस पेज पर कोई लज्जाजनक दृश्य नहीं उत्पन्न हो। इसकी पाठिका , हो सकता है ,हमारी ही माँ ,बहन या बेटी या पत्नी हो इस का भी ख्याल रख शिष्टाचार की सीमाओं में उत्तर रखें।
गर्लफ्रेंड कौन होती है ? प्रश्न इस रूप में भी रखा जा सकता था। लेकिन इसके संभावित उत्तर में कोई पोर्नस्टार या कॉलगर्ल की घिनौनी सी तस्वीर डालकर उसे गर्लफ्रेंड बताने की कोशिश कर सकता था। इसलिए प्रश्न इस रूप में प्रस्तुत किया गया है। तब भी यदि कोई शिष्टाचार की सीमा लाँघता है ,तब बाध्यता में पेज को वह करना पड़ेगा जो पेज नहीं करना चाहता , उसे ब्लॉक करना होगा। जबकि पेज के स्कोप में वही ज्यादा क्वालीफाई करता है जिसके मन में ऐसी ग्रंथि है। जिससे नारी शोषित होती है ,नारी छली जाती है। बराबर की मनुष्य होने पर भी वह पुरुष जैसे सम्मान को और उनके जैसे अवसर पाने को तरसती है , जबकि कई अर्थों में वह पुरुष से श्रेष्ठ ,सहनशील और ज्यादा दयावान है।
कृपया ध्यान रखें ,यह प्रश्न उठाने का आशय और लक्ष्य यह है कि "नारी चेतना और सम्मान रक्षा " की दृष्टि से हमारे युवाओं को मार्गदर्शन दिया जा सके। जिससे हमारी (पढ़ने वाले सभी की ) ही बहन ,होने वाली पत्नी या बेटी लाभ लेकर , किसी छलिये से छले जाने से बच सके। वे कहीं "नारी देह के घिनौने जूलूस " अनजाने में ना बन जायें ।
--राजेश जैन
28-12-2014

Saturday, December 27, 2014

गर्लफ्रेंड और पत्नी

गर्लफ्रेंड और पत्नी
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एक ग्रुप पर, जिसे बेटी के होने के  अच्छे पक्ष की चर्चा के उद्देश्य से निर्मित किया गया है। पर कल एक पोस्ट थी , गर्लफ्रेंड और पत्नी में क्या अंतर है? उस पोस्ट में लेखक का कमेंट था --
"हमारी संस्कृति में पत्नी ही गर्ल फ्रेंड होती है" -' हमारे यहाँ कुछ रसिक रखैल (Kept) रखते थे , निंदनीय था। पाश्चात्य संस्कृति में कुछ ऐसी मिलती -जुलती चीज  (Kept ) को गर्ल फ्रेंड कहते हैं '.
बाद में सैकड़ो कमेंट और लाइक उस पर चल रहे थे। अचानक एक कमेंट आया , जिसमें लेखक द्वारा पूर्व लेखों में निरूपित किये गए , तथालेखित "नारी देह के घिनौने जुलूस " में से एक वीभत्स सी तस्वीर निकालकर एक कमेंटकर्ता ने लगाई और लिखा गर्लफ्रेंड यह होती है। अप्राकृतिक रूप से अभिसाररत जोड़े की यह तस्वीर आपत्तिजनक थी। कमेंट, प्रश्न का अत्यंत ही कड़वा उत्तर था। जो युवतियाँ अपने को गर्लफ्रेंड जानती हैं , ने स्वयं को अपमानित ही अनुभव किया होगा । अभी सच से अवश्य दूर ये उत्तर , जैसा चारित्रिक पतन दिखाई देता है उसमें शीघ्र ही सच जैसा ही बन जाएगा । हालाँकि पोस्ट लगाने वाली नारी अनुमान से भारतीयता से नाता जोड़ी हुई थी , जिसने इस कमेंट के बाद उत्पन्न लज्जाजनक दृश्य पर अपने कमेंट बंद कर दिए थे।और लेखक ने उस कमेंट को स्पैम रिपोर्ट किया था।
पूर्व आलेखों में नारी की सयंत प्रतिक्रिया पर लेखक जोर (स्ट्रेस) देता आया है।  वस्तुतः जिस शोषण के शिकार होने से नारी अपने को छला और पराजित मानकर , आज आक्रामक उत्तर प्रस्तुत कर रही है , प्रचारित आधुनिकता और अपने विद्रोही तेवर में वह जो कर रही है , उससे उसे प्राप्त कुछ नहीं होने वाला है। अगर अब के पूर्व यह मानती आई है कि नारी ,पुरुष से हारती रही है।  तो पुरुष पर जीतने का यह अभियान ,पहले की हार से ज्यादा और लज्जाजनक हार ही दिखायेगा। (उस नारी देह के घिनौने जूलूस से ये सिध्द होता है। )
वास्तव में नारी गरिमा से पुरुष को जीतती है।  माँ के रूप में सम्मान अर्जित करती है . पत्नी की सदाशयता से पति पर रानी बन राज करती है।  बेटी , छोटी होती तब भी पुरुष पिता को झुकाती है। नारी इस रूप में पुरुष से कभी नहीं हारी थी , अभी भी नहीं हारती और कभी भी नहीं हारेगी। जहाँ पुरुष से हार का राज छिपा है , पुरुष मन से वह ग्रंथि भी , नारी , भारतीय गरिमा और त्याग से निकाल सकती है।
लेखक जब लिखता है तो उस चेतना के लिए  लिखता है , जिससे नारी , सम्मान सुनिश्चित होता है , उस विचार से लिखता है , जो पुरुष को भी न्यायवान होने को प्रेरित करता है। इस चेतना और इस विचार का कोई लिंग नहीं होता है , इसलिए इस पेज को लाइक कर इसके नाम में निहित लक्ष्य की प्राप्ति में सहयोग करें , यह विनम्र अनुरोध है। लाइक करने का कहीं भी अर्थ नारी या पुरुष का मित्र होना नहीं है , यह मानवता को पोषण है, मानवता से मित्रता है , जिसमें समाज हित निहित है।
इस पेज पर हमेशा "चेतना -माँ ,रुपी और विचार पिता रुपी" , आदर्श  सभी को अनुभव होंगे। यह लेखक की शपथ है।
--राजेश जैन  
28-12-2014

 

Friday, December 26, 2014

सतर्क एवं संयत प्रहार


सतर्क एवं संयत प्रहार
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यह लेखक सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग में थोड़ा पारंगत है। सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल'स को सरलता से समझ आएगी कि वायरस प्रोग्राम'स , किसी सिस्टम में एग्जीक्यूटिव'ल फाइल्स पर अटैक कर उसमें कुछ ख़राब कोड जोड़ देते हैं।  जो किसी कंप्यूटर सिस्टम के ओएस और एप्लीकेशन'स को करप्ट कर उस सिस्टम को तथा उससे इंटरैक्ट करते , क्लाइंट सिस्टम और प्रोग्राम को भी करप्ट करते हैं। वायरस से उत्पन्न करप्शन सिस्टम रिसोर्सेज को मेलफंक्शनिंग में उलझा कर उसे स्लो करता है। कई बार सिस्टम को बूट तक नहीं होने देता है।
एंटी वायरस प्रोग्राम ,जब किसी सिस्टम पर चलाया जाता है तब वह वायरस प्रोग्राम'स द्वारा डाले गए मेलाफायड कोड को सभी एक्सिक्यूटिव'ल फाइल्स से डिलीट करता है। एंटी वायरस प्रोग्राम जब किसी सिस्टम पर इंस्टॉल'ड होता है तब  फायर वाल , प्रोवाइड करता है। जो वायरस प्रोग्राम के अटैक को निष्प्रभावी करता है और सिस्टम को करप्ट होने से बचाता है.
स्पष्ट है , प्रोग्राम्स , ओएस और एप्लीकेशन'स -सुविधा ,प्रगति की दृष्टि से , वायरस ,बुराई की दृष्टि से और  एंटी वायरस ,सुरक्षा की दृष्टि  निर्मित होते हैं।
ठीक उसी तरह , मनुष्य जन्म , उनका जीवन , मनुष्य मनोमस्तिष्क और उनके बीच विभिन्न तरह का शिष्टाचार और सम्बन्ध होना सुविधा और मानवता प्रगति है।
बुराई मनुष्य मन में लगने वाला (वायरस ) है।
और व्यवस्था और समाज मर्यादा , एंटीवायरस है , जो मनुष्य जीवन को सुरक्षित और उसके मन को निश्छल रखता है।
अच्छा साहित्य , अच्छी प्रस्तुतियाँ और अच्छे व्यक्ति ,हमारे समाज और राष्ट्र की दृष्टि से एंटीवायरस होते हैं।  जिस समाज में एवं राष्ट्र में इन्हें प्रोन्नत नहीं किया जाता। वहाँ बुराइयाँ वायरस की तरह उन्नति को शिथिल करती हैं और उससे राष्ट्र ,समाज अस्तित्व की समाप्ति की आशंका होती है। ऐसे वायरस ग्रस्त समाज एवं राष्ट्र के सम्पर्क में रहने वाला समाज और राष्ट्र भी इन्फेक्टेड हो जाता है।इस खतरे से यदि सभी सतर्क नहीं रहते हैं ,तो समग्र मानव अस्तित्व पर विनाश का खतरा हो जाता है।
वायरस का उपचार वायरस नहीं करता है , उसी तरह बुराई का उपचार "अच्छा साहित्य , अच्छी प्रस्तुतियाँ  और अच्छे व्यक्ति " करते हैं।
बुराई पर सतर्क और संतुलित प्रहार ही बुराई मिटाता है। एक्यूरेसी ना होने पर अन्य बुराई उत्पन्न होने खतरा होता है।
सभी मनुष्य अच्छे हैं , जो बुरे कहे जाते हैं उनके मन पर हुए वायरस अटैक (बुराई) को सतर्क प्रहार कर  बुरे विचारों को मिटाया जाए तो वे बिल्कुल निश्छल हो सकते हैं।
लेखक के आव्हान , ब्लॉग पर , फेसबुक पर और  फेसबुक पेज पर इसी सतर्क प्रहार की दृष्टि से होते हैं।  सभी प्रबुद्ध साथियों से अपेक्षा और आग्रह भी बुराई पर सतर्क एवं संयत प्रहार का ही होता है.
--राजेश जैन
27-12-2104

भारत रत्न

भारत रत्न
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जिसने जीवन में कभी एमपी , मंत्री या प्रधानमंत्री होने के लिए काम नहीं किया। एमपी , मंत्री या प्रधानमंत्री हुए तब भी वही काम किया जो वे यह न होकर करते थे , अर्थात "देश और समाज भलाई को सुनिश्चित करती हमारी व्यवस्था " के लिए समर्पित हो काम। उन्होंने कभी "भारत रत्न " भी न चाहा। स्वयं प्रधानमंत्री थे तब इस प्रश्न पर भी आदर्शपूर्ण परम्परा के लिए कहा "मै स्वयं के लिए भारतरत्न को कैसे स्वीकृति दे सकता हूँ ?" . पूरे जीवन में त्याग और आदर्श के अनेकों उदाहरण देने वाले , शत्रु राष्ट्र को भी , और विरोधी राजनेता को भी भले लगने वाले ,भारत रत्न से अब विभूषित किये जाने वाले हमारे पूर्व प्रधानमंत्री , ज्यादा प्रसन्न शायद तब होते जब उन्हें इस सम्मान के लिए , पूर्व की अन्य पार्टी की सरकार चयनित करती। हमारे देश में ऐसी आदर्श परम्परा रही थी। लेकिन अब उसका निर्वाह नहीं होता । पूर्व सरकार ने उन्हें भारत रत्न नहीं दिया। पूर्व सरकार ने एक खिलाड़ी को "भारतरत्न" दिया जिसने राष्ट्र -या समाज के भलाई के लिए विशेष कुछ नहीं किया था।
उनके तरफ से ये नहीं कहा गया कि इस सम्मान के लिए मै ,जीवन में ये कार्य करने के उपरान्त प्राप्त करने का धैर्य रखता हूँ , इसके लिए मेरे पास अभी लगभग आधा जीवन शेष है।  ना ही उन्होंने यह कहा कि "अटल जी" को नहीं दिए गए इस सम्मान को मै ग्रहण नहीं कर सकता। अगर ऐसा वे कहते और करते तब वे भारत रत्न के लिए ज्यादा पात्र होते।
भारत रत्न , अत्यंत पात्र रहे भारतीयों  को नहीं मिल सका, ये सच है , और अपात्र को भी मिला ये भी सच है।  अटल जी को दिया गया "भारत रत्न " भूल सुधार है। मालवीय जी को दिया (मरणोपरांत 68 वर्ष बाद ) "भारत रत्न " सम्मान की गरिमा बढ़ाने की एक अच्छी शुरुआत है।
अटल जी का विध्वंस पर यह वाक्य ही भारत रत्न है "पार्टी जीत गई , मै हार गया " . वास्तव में ऐसा कोई भी कार्य जो सैकड़ों निर्दोषों के मौत का कारण बनता है , 25 -30 करोड़ नागरिकों के मन में असुरक्षा उत्पन्न करता है , भारत के लिए रत्न नहीं हो सकता। अटल जी को इस हादसे ने व्यथित किया था। हर अहिंसावादी को हिंसा के ऐसे प्रसंग मानव सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह लगते हैं। फिर चाहे हिंसा प्रतिक्रिया में क्यों ना की गई हो।
'हिंसा करने वाले' या 'प्रतिक्रिया में हिंसा करने वाले' दोनों में से किसी भी पक्ष के किसी परिवार से कोई  मुखिया (या बच्चा -अभी का हादसा) प्राण गँवाता है , ऐसे परिवार जश्न नहीं , वहाँ मातम होता है।प्रतिक्रिया में अति दुरावेग में , विरोधी पक्ष की नारियों पर आतताई दुराचार करते हैं , ऐसी दुष्टता पूर्ण घटनायें सदियों के लिए परिवार के ह्रदय को पीड़ाकारी घाव देते हैं। प्रेम नहीं वैमनस्य का संचार करते हैं।  तब कोई पक्ष कभी विजेता हो नहीं सकता सभी पराजित होते हैं। अटल जी के सम्मान के अवसर पर विश्व को यही सबक लेना चाहिये।  ऐसा कोई कार्य , कभी कोई नहीं करे जिसमें सभी पराजित हो जाते हैं। अटल जी , को विलम्ब से दिए सम्मान के लिए स्वयं "भारत रत्न  परम्परा" को पछतावा अनुभव होता होगा .इसलिए भी कि आज उनको जिस स्वास्थ्य स्थिति में विभूषित किया जा रहा है उसमें वे इस सम्मान के गौरव को भी ठीक तरह से अनुभूत करने में समर्थ नहीं हैं.

--राजेश जैन
26-12-2014

Wednesday, December 24, 2014

एक ही पल

एक ही पल
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एक ही पल होता है , एक जगह कुछ दुष्ट एक नारी के शोषण पर उतारू होते हैं। कहीं ओर उसी क्षण में भला एक, किसी नारी की कठिनाई में सहारा बनता है।
पुरुष दोनों स्थान पर हैं। किसी के मन पर दुष्टता और कहीं किसी के मन में सज्जनता धारण है। दो काव्य पँक्तियों के बाद निष्कर्ष निकालेंगे -
                                  "रूप पर पहरे न हुए कामयाब  न कामयाब होंगें
                                    विचारों में न्याय ही रूप के सच्चे पहरेदार होंगे "
वास्तव में विचार हैं जो मन को गिरफ्त में जकड़े रखते हैं। आज साधन हैं ,जो बुरे विचारों की ओर उन्मुक्त करते हैं। अच्छे विचारों का प्रसार नहीं हो पा रहे है। बुराई के प्रवर्तन में ऐसा आकर्षण लपेटा हुआ है कि सब उसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं। बुराई के प्रवर्तक स्टार कहलाते हैं ,धन वैभव और प्रसिध्दि अर्जित करते हैं। जबकि अच्छाई के प्रवर्तक ,हाशिये पर सिमटें हुए हैं।
उन्ही दुष्ट पुरुष के मन में जो नारी के शोषण में उस क्षण उतारू हैं , उस कलंकित पल के पूर्व वे क्षण आये होते जिनमें उन्हें अच्छे विचारों की प्रेरणा मिलती तो वे निश्चित है वह जबरदस्ती किसी कमजोर या अकेली पड़ गई नारी पर ना करते। वे भी वही करते जो उसी क्षण में कहीं और दूसरा एक पुरुष नारी के लिए कर रहा था , कठिनाई में पड़े किसी की सहायता।
स्पष्ट है ,नारी पर शोषण की रोकथाम के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता अच्छे विचारों का और अच्छे कर्मों का सामाजिक वातावरण में निरंतर प्रसारण या प्रवाह का होना है।
जो लोग और जो सामग्री बुराई को प्रवृत्त करती हैं , वह प्रसारण तंत्रो पर से हटें ,तो शोषण और बुराई मिटेगीं।
अन्यथा प्रवर्तन तो बुराई का होगा , अभिनय शोषण मुक्ति की उक्ति का करते हुए , प्रतिष्ठा और धन कमाते हुए सबको बेवकूफ भी बनायेंगे और स्टार कहे जाते रहेंगे।
हम जिन्हें अपना आदर्श बनाते हैं , उस पर हमारा समाज निर्भर करता है। यदि आदर्श , ढोंगी और कामभोगी बनते हैं ,तब कितने भी आयोजन करलें ,आंदोलन करलें और आव्हान करलें , साथ ही नारी कितनी भी पढ़ लिख लें , कितनी भी आर्थिक समर्थता बना ले, नारी पर शोषण -उत्पीड़न के सिलसिले थम सकेंगे -संभव नहीं होगा।
--राजेश जैन
25-12-2014

Tuesday, December 23, 2014

गरिमा


गरिमा
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गरिमा कहती, तुम नाम के सुदृढ़ हो
तुम में ना गरिमा ना ही तुम दृढ हो


निभा ना सकते सुदृढ़ होकर साथ
छलने के भाव से मुझे ना दो हाथ


सुदृढ़ , मै बहुत विपत्ति में ना हूँ
प्रेम रखते गर अकेला मुझे छोड़ दो


मुझे विश्वास अकेली भी मै भली हूँ 
मै योग्य ,भला अपना कर सकती हूँ


पाली गई लाड़दुलार संस्कारों में मै
ये मुझे सिध्द करने के लिए छोड़ दो


गरिमा नाम मुझसे गरिमा सीख लो
रहो सुपथ पे तुम ,मुझे सुदृढ़ रहने दो


--राजेश जैन
23-12-2014

Monday, December 22, 2014

एमपी साइड की लड़की


एमपी साइड की लड़की
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सुदृढ़ को पापा का फ़ोन , गरिमा के सामने होने के कारण अखर रहा था। वह उन्हें कम से कम कहकर टालना चाहता था। किन्तु , एक गलती उससे हो ही गई। पापा को वह कह बैठा …
"लेकिन पापा यहाँ मुझे पसन्द नहीं आती , लड़कियाँ यहाँ ड्रिंक-व्रिन्क,स्मोक सब करती हैं। एमपी साइड की ही देखिये। "
वह मन ही मन खीझ रहा था , ये शब्द और मुख पर के भाव गरिमा ,देख -सुन चुकी थी।
वहाँ पापा का अचरज भरी आवाज ,सुनाई दे रही थी.…  कैसी बात करता है बेटा , लड़कियाँ ड्रिंक-व्रिन्क करती हैं ?
सुदृढ़ - पापा , आप के समय में नहीं ,अब करने लगीं हैं।
पापा -ठीक है , बेटा ! लेकिन ऐसा है  तो मै या तुम्हारी मम्मी को भी मालूम करना कठिन होगा न , कौन लड़की नहीं करती है?
आखिर में सुदृढ़ ने व्यस्तता का बहाना कर बाद में बात करता हूँ ,कहकर बात खत्म की थी । जब तक गरिमा उस पर तमतमाई बैठी थी। फोन बंद होते ही गरिमा ने ,सुदृढ़ पर चढ़ाई कर दी।
तुम्हें , मै कॉलेज समय से देख रही हूँ , जो लड़की या लड़का , ड्रिंक नहीं करता था उसे ताने -उलाहने और दबाव देकर तुम पीने को उकसाते रहे हो।  आज तक किसी ड्रिंक -स्मोक करने वाले को तुमने न करने को समझाया नहीं है। अब प्रश्न आया है स्वयं के विवाह का तो पापा से कहते हो , यहाँ की लड़कियाँ ड्रिंक -स्मोक करती हैं।  फिर कुछ रुककर कहती है  …
एमपी से नहीं पीने वाली लड़की को शादी कर ले आओगे तो उसे भी ड्रिंक-स्मोक करवाने लगोगे ना ?
सुदृढ़ बगले झाँक रहा है।
उसे गरिमा गुस्से में बाहर जाते हुये दिखती है।

--राजेश जैन
23-12-2014

Sunday, December 21, 2014

भाई सही रास्ता बताना , जरा भटक गया था ?

भाई सही रास्ता बताना , जरा भटक गया था ?
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भला पुरुष घर में माँ , बहन ,पत्नी और बेटी का फ्रेंड है। सब से फ्रेंडशिप निभाकर , बाहर की खराबियों से कैसे बचना है उन्हें बताता है। घर की संस्कारवान नारी बाहर विश्व और समाज की कई बुराई को नहीं जानती , नहीं देखती उन्हें भी वह बताता और सावधान कर देता है।  यध्यपि उन्होंने प्रत्यक्ष देखी नहीं है , ना ही इन बुराइयों को देखना ही उचित है। किन्तु ऐसी भी बुराई होती है ,आ गईं हैं , जानकारी हो जाने से छलिये द्वारा बिछाये छलावे में आने से बच स्वयं का और परिवार का भला कर लेती हैं। वह भला पुरुष , आसपास कुछ नारियों को छलावे में फँसा भी देखता है। छलावे से मुक्त करने के लिये आंतरिक रूप से छटपटाहट भी अनुभव करता है . सहायक नहीं हो पाता क्योंकि प्रत्यक्ष सहारा बनने का प्रयास
1. छली जाती उस नारी के मन में , इसे भले पुरुष के मंतव्य पर शंका उत्पन्न कर सकता है।
2. सहारा देने की स्थिति में उसे यह संदेह घेरता है , कहीं नारी उस पर ही कोई आरोप ना मढ़ दे , जिसमें स्वयं का बचाव और सत्यता सिध्द करना उसके लिए ही कठिन हो जाये।
नारी और पुरुष के उठ गये परस्पर विश्वास से यह स्थिति निर्मित हुई है कि कोई कहीं छला जा रहा है . वहीँ "भला" साक्षी भी हो रहा है , किन्तु छले जाने वाले को "भले" की सहायता नहीं मिल पाती है। यह स्थिति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थकर नहीं है। तब भला पुरुष क्या करता है ? फेसबुक पर चेतना और प्रेरणा के लिए नितदिन लिखना आरम्भ करता है। यहाँ भी उसे पढ़ने वाले नहीं मिलते हैं।  वह मार्गदर्शन को उपलब्ध है , गलत राह पर जाते व्यक्ति उसके सदमार्ग के संकेत को नहीं पहचान कर अपने बुरे मार्ग को अच्छा समझने का अति विश्वास ले आगे बढ़ते जाते हैं।
भला वह पुरुष वहीं हताश खड़ा रहता है।  तमाशबीन उसकी इस हालत में सहानुभूति रखते हैं।
भला अकेला और बुराई अनेकों इस तरह चलती जाती हैं। भले को तब भी आशा है , भटका कोई तो वापस आ पूंछेगा - भाई सही रास्ता बताना , जरा भटक गया था ?
--राजेश जैन
22-12-2014

 

Saturday, December 20, 2014

Gender Equality - 3

Gender Equality - 3
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प्रस्तुत किया गया "2075 में समाज -मॉडल" वास्तव में एक निराशाजनक तस्वीर है।  जो यथार्थरूप में निश्चित ही इसलिए नहीं बन पायेगी , क्योंकि मनुष्य मस्तिष्क अपने अस्तित्व पर आये संकट को टाल सकने में सक्षम होता है। हालांकि दूरदर्शिता के ना होने पर कभी -कभी संकट सिर पर आ जाये तब पहचाना जाता है।  अतः दूरदर्शिता आवश्यक होती है। जिससे ज्यादा क्षति उठाने के पहले ही संकट सम्भावना को नष्ट किया जा सके।  वस्तुतः आज का चलन तो उसी तस्वीर की ओर बढ़ा रहा है। यह कल्पना आज कर लेने में हम निश्चित ही 2075 में अब तक के सबसे अच्छे समाज का चित्र साकार करना सुनिश्चित कर सकेंगे.
इसी पेज पर प्रस्तुत आलेख "क्या घिनौने जूलूस में जाना जरुरी है ?" में घिनौना शब्द , देह को ,तस्वीरों को , परिधान में लिपटी नारी - पुरुष सुंदर चित्रों को अपने में सम्मिलित नहीं करता है। वे वीडियो , वे चित्र ,वे अश्लील कथायें और अश्लील विचार -टिप्पणियाँ इसमें सम्मिलित हैं , जिसको संस्कारित नारी ( प्रौढ़ ,युवा या किशोरी ) ने तो देखा तक नहीं है या देखा भी है तो किस वॉल्यूम (कितनी मात्रा) में यह विष फ़ैल गया है उसका सही अनुमान उसे नहीं है।
लेखक उनका उल्लेख सिर्फ संकेतों में और प्लेन text में इसलिये करता है , कि उस विष में स्वयं का योगदान नहीं जोड़ना चाहता। उल्लेख इसलिए करता है कि चिंताजनक स्तर तक पहुँच गए इस संकट को सभी देख और समझ सकें ताकि उस संकट से निकलें और उसे विनाश के रूप में परिवर्तित होने से रोका जाए।
समानता के नाम पर पाश्चात्य विश्व ने नारी को इस तरह उकसाया है , जिससे यह घिनौना जूलूस निकला हुआ है।  कहते हैं वहाँ कानून व्यवस्था प्रभावी होता है। ऐसे में इस घिनौने जूलूस का उद्गम पाश्चात्य देश ही बने हैं . तब यह कहने में लेखक को संकोच नहीं है इस पर रोकथाम न कर वे बहाई इस मैली गंगा में हमारी भव्य संस्कृति को डुबा देना चाहते हैं। सिर्फ व्यभिचार और भोगलिप्सा की गंगा में स्वयं डूब कर पूरी मानव सभ्यता को डुबा देना चाहते हैं।
नारी , पुरुष से श्रेष्ठ है.नारी को पुरुष की समानता की नहीं अपितु पुरुष को नारी जैसी श्रेष्ठता करने की आवश्यकता है। सिर्फ धन अपेक्षा से समानता भ्रामक है , दो चार सदियों में सभ्यता का यह भ्रम मिट जाने वाला है।
"Gender Equality" के नाम पर पाश्चात्य विश्व में नारी को किस भद्दे रूप में लाकर नारी स्वीकृति से ही उस पर शोषण किया है , इस षड्यंत्र को हम समझ लें। हमारी नारी पर अवश्य कुछ विपत्ति हैं , हम आपस में उसे सुलझाएंगे।  नारी, शोषण से बचने के लिए अतिवादी प्रतिक्रिया से बचें ।  अन्यथा इधर कुआँ और उधर खाई ही चरितार्थ हो जाएगा।  नारी, शोषण से मुक्ति के नाम पर आव्हान और प्रतिक्रिया में संयत रहें । प्रबुध्द नारी स्वयं तो समझने और बचाव में सक्षम है। किन्तु "नारी संघर्ष " स्टेज करते हुए उसे यह विचार में रखना होगा - हमारी गृहस्थ और ग्रामों में रहने वाली नारी अभी विश्व का बहुत कम एक्सपोज़र रखती है , वह भोली है , धूर्त  उसे भटकावा दे सकते हैं। आव्हान और प्रतिक्रिया को गलत समझ वह "घिनौने जूलूस" का कहीं अंग नो हो जाये।

पुरुष साथियों को भी ध्यान देना है ,

गर्लफ्रेंड -बॉयफ्रेंड चक्कर गजब न कर जाये 
घिनौने जूलूस का दायरा न इतना फ़ैल जाये
कि माँ -बहन भी उस जूलूस में शामिल और
होने वाली पत्नी हमारी उस जूलूस में से आये

--राजेश जैन  
21-12-2014




 

2075 के समाज का उभरता चित्र


2075 के समाज का उभरता चित्र
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किसी से रार नहीं मै ठानूँगा
अपमान बुरा न मै मानूँगा
न होता इक्छा अनुरूप उसे
भगवान की इक्छा मै मानूँगा


घिनौने जुलूस को मै रोकूँगा
दिशा को उसकी मै मोडूँगा
जुलूस निकाल सर्वहित का
सभी को उसमें मै जोडूँगा

बनती तस्वीर मै दिखाऊंगा
उसमें से गंदगी मै हटाऊँगा
अकेले को करना मुश्किल अतः
साथ आपको भी मै बुलाऊँगा


कवि अभी न बन सका पूरा हूँ
काव्यरूप चित्र न दे सकता हूँ
2075 में बनते समाज का अतः
गध्य रूप-चित्र मै खींचता हूँ


--राजेश जैन
20-12-2014

एक समाज मॉडल

एक समाज मॉडल
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आज का ट्रेंड देखकर 2075 में होने वाले समाज की तस्वीर कुछ इस तरह उभरती दिखाई दे रही है-
समाज में चार तरह के घर होंगे।
(1) पहला - जिसमें या तो पुरुष या नारी निवास कर रही होगी - वे या तो कभी विवाहित रहे होंगे (जो पूर्व पतियों /पत्नियों से एकाधिक बार डिवोर्स लेकर अब  अकेले होंगे ) या अविवाहित ही होंगे। पूर्व डिवोर्सी सिंगल होने पर उस घर में सम्भव है , कोई बच्चा भी अन्य कमरे में रहता होगा। इनके घर अक्सर कुछ या किसी युवक /युवती का आना जाना हो रहा होगा।  जो मौज मजे के साधन , खानपान के साथ दैहिक संबंध स्थापित करते होंगे।  कभी कुछ घंटों में और कभी कुछ दिनों में चले जाते होंगे। यह क्रम निवासरत पुरुष या नारी के शिथिल अवस्था आने या मरने तक जारी रहेगा।
(2) दूसरा - इस घर में ऐसा पुरुष या नारी रहती है , जिसने कुछ बार अपने पहले के विवाहितों से डिवोर्स लिया है और अब वर्तमान विवाहित साथी के साथ रह रहे हैं। पूर्व विवाह से जन्मे छोटे बच्चे भी साथ हो सकते हैं . जो बड़े हो गये हैं वो साथ छोड़ दूसरे तीन तरह में से किसी एक घर में रहने जा चुके होंगे. इस घर की मुखिया नारी या पुरुष जब तक पटती है , वर्तमान विवाहिता के साथ होंगे. ना पटने वाली स्थिति बनने पर उससे डिवोर्स ले अगले किसी साथी से फिर संबंध आजमाएंगे.
(3) तीसरा- इस घर में एक विवाहित परिवार बच्चों के साथ रह रहा होगा। घर की स्त्री पति के एब्सेंस में या पुरुष , पत्नी की एब्सेंस में , किसी किसी युवक /युवती को घर बुलाकर छिपे तौर पर रंगरेलियाँ किया करेंगे।  कभी उजागर होने पर पति-पत्नी के बीच खटपट होते रहेगी , किन्तु घर परिवार ऐसे चलता रहेगा।
(4) चौथा - कुछ घर आज के तरह के बचे रहेंगे।  जिनमें पति -पत्नी अपने बच्चों के साथ आजीवन सुखी रह रहे होंगे।
स्वच्छंदता और उपभोग प्रमुखता की यह तस्वीर उस समाज की होगी , जिसमें इस जनरेशन के पौत्र /पौत्री या प्रपोत्र /प्रपौत्री निवासरत होंगी।
उत्पन्न प्रश्न -"यह जनरेशन बताये हमें की अपने पौत्र /पौत्री या प्रपोत्र /प्रपौत्री  का घर, कौनसा पसंद करेंगे" ?


Note-इसमें घर के वैभव /सुविधा का उल्लेख नहीं है , आलेख दैहिक /प्रणय सबंध अपेक्षा से लिखा है।


--राजेश जैन
20-12-2014

Thursday, December 18, 2014

क्या घिनौने जुलूस में जाना जरुरी है

क्या घिनौने जुलूस में जाना जरुरी है
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Gender Equality के नाम पर , पश्चिम में शायद वहां की नारी नहीं कोई अति धूर्त पुरुष रहा होगा जिसने गलत प्रतिक्रिया के लिए नारी को उकसाया। जिससे कुछ वर्षों में ही ,नारी की गलत और अति प्रतिक्रिया में वहाँ "नारी देह का वह घिनौना जुलूस" निकला हुआ है। जो फिल्मों , इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , नेट ,मैग्जीन्स और लगभग हर जगह गाजर घास सा फ़ैल और पनप रहा है। नारी किस तरह उस षणयंत्र की शिकार हुई है इसे भारत में सयंत ...और शांत होकर समझना है. लेखक के पास नारी के कोमल मन मस्तिष्क में व्याप्त कोमल भावनाओं का अनुभव है। लेखक ने घर में माँ ,बहन ,पत्नी और बेटी सभी में इसे अनुभव किया है। अतः नारी पर कोई लेखनी चलाने के पहले बहुत नरम शब्द ही प्रयुक्त करता है। ताकि उसके कोमल मन पर कोई चोट ना लग जाये। किन्तु उक्त कड़े रूप में उल्लेख , भले ही वह पाश्चात्य नारी (परायी) की दुर्दशा है ,नहीं करना चाहता था। किन्तु जब ऐसा लगता है उसी धूर्त पुरुष मानसिकता के चंगुल में भारतीय नारी भी फँस रही है तब ,नारी चेतना देने उसका सम्मान सुनिश्चित करने के लिए इस रूप में प्रस्तुति देना पढ़ रही है।
वास्तव में उग्र ,अतिवादी प्रतिक्रियायें हमारे समाज में नारी की ओर से देखने मिल रही हैं। जिसकी एक बानगी , एक नारी प्रस्तुति में यह वाक्य है -
"फिर क्यों न लांघें हम घर की चौखट? क्यों न निकलें हम रात में? क्यों न फेंक दें उतारकर तुम्हारे झूठे आदर्शों और इज्ज़त का बोझ हम अपने सर से?"
किसी विकृत मनोवृत्ति से बचाव में उसकी प्रतिक्रिया में ,हम अपनी मनोवृत्ति में विकृत्ति लायें यह अनुचित है
नारी -पुरुष समानता इस तरह सुनिश्चित नहीं होती। नारी , पुरुष से श्रेष्ठ है उसे कहाँ पुरुष से समानता करने की आवश्यकता है। हम सभी पुरुष धूर्त नहीं हैं। नारी श्रेष्ठता को समझ रहे हैं , उसे सम्मान भी दे रहे हैं, कुछ उदाहरण देखें …
-वर्किंग नारी के पति , किचन और गृहस्थी में उसका हाथ बराबरी से बँटा रहे हैं.
-समाज में पहले जिन भी वजह से नहीं था , लेकिन अब उसे शिक्षा के अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। नारी भी शिक्षित हो ,जॉब कर पुरुष का कंधा मिला घर -परिवार सुखदता के लिए पूर्ण सहयोग कर रही है।
कई परिवार में संतान सिर्फ पुत्री या 2 पुत्रियाँ हैं। उनके पिता पुरुष ही हैं , नारी नहीं। कहाँ , वे पिता पुरुष , बेटे के होने को महत्त्व दे रहे हैं।
-पुरुष अपने को नारी बिना अधूरा मान रहा है।
ना जायें कुछ धूर्त और अज्ञानी पुरुष की हरकत में असंतुलित और विकृति युक्त प्रतिक्रिया में , ना शामिल हों उस घिनौने जुलूस में। रोक दें उस जुलूस को और विकराल होने से। बनें नारी आदर्श की प्रति मूर्ती , तब नारी नहीं , पुरुष नारी समान श्रेष्ठता को पाने को लालायित होगा।
--राजेश जैन
19-12-2014

Wednesday, December 17, 2014

16 दिसम्बर

16 दिसम्बर
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हाल ही में उपमहादीप में दो बार दुःखद हादसों के लिए "16 दिसम्बर " चर्चित हुआ है।
* 16 दिसम्बर 2012 - दिल्ली में कुत्सित कामवासना और चरम दुष्टता की शिकार हो एक युवती अंततः जीवन संघर्ष में हारती है.
* 16 दिसम्बर 2014 - पेशावर पाकिस्तान में डेढ़ सौ से अधिक मासूम, स्वयंभू एक धर्म अतिवादी संगठन के हमले में प्राण गँवाते हैं.
यों तो कैलेंडर अस्तित्व में आने के बाद हर दिन इतिहास पृष्ठों पर कुछ अच्छी और कुछ कड़वी घटनाओं के साथ दर्ज हुआ है।  लेकिन
बेचारे "16 दिसम्बर" ने उपमहादीप में डेढ़ अरब लोगों को 2 वर्ष में 2 बार हिला देने का दुर्योग पाया है।
किन्तु लेखक कहता है "16 दिसम्बर " तुम दुर्दिन नहीं हो।  यह तुम्हारी नहीं मनुष्य के अंदर बैठे जानवर की कारगुजरी है जो तुम्हारे निंदा के प्रसंग बनाती है।
"16 दिसम्बर " तुम धीरज रखो तुम नींव के पत्थर साबित होने जा रहे हो उस मानव सभ्यता के भव्य महल की जिसमें मानव सुखद जीवन सुनिश्चित होता है.
"16 दिसम्बर ", तुम्हारे सीने पर घटित इन दो दुष्टतापूर्ण घटनाओं से निश्चित ही पूरे विश्व के मनुष्यों के ह्रदय में मानवता की शुध्द भावना जागृत कर दी है. जिससे वे स्वयं भले बनेंगे। ऐसी व्यवस्था और उपाय कर लेंगे जिससे निकट भविष्य से ही
1. नारी पर होने वाले शोषण के किस्से इतिहास हो जाएंगे. ..
2. उस उन्माद का अंत हो जायेगा जिसमें अपने धर्म के अनुयायी बनाने की जिद का भूत , मनुष्य सिर से उतर कर पाताल में समा जाएगा।
फिर "16 दिसम्बर " तुम मनुष्य नहीं "एक दिन" होगे,  जिसे विश्व शांति का नोबल दिया जाएगा।
"16 दिसम्बर" हार्दिक शुभकामनायें …
--राजेश जैन
18-12-2014

Tuesday, December 16, 2014

जबलपुर- रिज रोड में उठते प्रश्न


जबलपुर- रिज रोड में उठते प्रश्न
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ज्ञानी जैलसिंग को जेड सिक्यूरिटी की क्या जरुरत है ?
लेखक को आपत्ति नहीं किसी की सिक्यूरिटी पर। सभी सुरक्षित हों यही अभिलाषा है।






बच्चे जाते स्कूल भविष्य बनाने
क्यों वे जीवन वहाँ गवाँ देते हैं ?
बच्चों में जीवन जीते माँ -पिता को 
क्यों जीवन भर का दुःख देते हैं ?






लिखने को बहुत कुछ होता है किन्तु लिखा इसलिये कि
उपरोक्त प्रश्न जबलपुर रिज रोड पर भ्रमण में अपने सिक्ख मित्र से सुनना अच्छा लगा।
जो स्वयं सिक्ख होते हुये सिक्ख राष्ट्रपति को गैरजरूरी लाभ पर प्रश्न करते हैं।
मेरे ये मित्र संप्रदाय संकीर्णता से उठ बेहद अच्छा सोचते हैं।
समाज में निश्चित ही प्रबुध्दता सिध्द होती है।
आज के पीढ़ी में जो अस्तित्व में ऐसे सारे प्रबुध्द व्यक्तियों को लेखक का साधुवाद।
हमें इन निम्न प्रश्नों के उत्तर खोजने और उसके क्रियान्वयन का दायित्व अपने सिर रखना है  -






क्यों पाकिस्तान बैर भाव की सीमा के नीचे ही सिमटा हुआ है ?
क्यों संप्रदाय विशेष के उत्थान की भावना इतनी संकीर्ण है कि मासूम तक की हिंसा वहाँ और विश्व में ,उन्हें धर्म के नाम पर उकसाती है ?
क्यों हम व्यापक हित की ना सोचकर देश में , राजनीति को सत्ता सुख की सीढ़ी रूप में उपयोग कर ,मात्र स्वहित की शर्मिंदगी की परंपरा पोषित करते हैं?
क्यों हम भ्रम मानसिकता में नारी को अपने नीचे ही कुचले रखनी की कुटिलता करते हैं ?




समय की जरूरत है तमाम इन संकीर्ण सीमाओं में दबे अपने विचार और कर्म से हम ऊपर उठें. और समवेत प्रयासों से वह अच्छा करें , जो सभी देश ,सभी धर्मावलम्बी और सभी मनुष्य (नारी -पुरुष दोनों ) के लिए हितकारी और सुखद हो।


(लेखक  के मन में  रिज रोड पर भ्रमण में लिखने के विषय विचार लेते हैं , इसलिये शीर्षक यह दिया है ।
लेकिन आशा है , ये प्रश्न लगभग पूरे भारतीयों के विचार में आज होंगे )
--राजेश जैन
17-12-2014

Monday, December 15, 2014

निर्भया के साथ गया देश को मिलता एक नोबेल

निर्भया के साथ गया देश को मिलता एक नोबेल
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आज 16 दिस. है. दो वर्ष पहले की अप्रिय घटना का स्मरण और विरोध प्रदर्शन को हमें प्रेरित करता है। जिससे हम नारी पर शोषण मुक्त समाज और व्यवस्था को सुनिश्चित कर सकें. पुरुष कुकृत्य और दुष्टता की शिकार जिन नारियों के प्राण अकाल ही चले जाते हैं। लेखक समझता है सारे में नोबेल जीतने की संभावना होती थी। इस तरह भारत में कई नोबेल संभावना का अंत प्रतिदिन हो रहा है.
नारी शोषण मुक्त व्यवस्था के लिये आज एकत्रित आन्दोलनरत नारियों में यह उत्कंठा प्रतीत होती है कि वे ठोस कुछ कर गुजरें। लेकिन ऐसे अनेक अवसर के परिणाम ये प्रदर्शित करते हैं कि ऐसे प्रदर्शन से राजनैतिक , प्रसिध्दि ,प्रतिष्ठा या एक इम्प्रैशन का लाभ ले वे संतुष्ट हो जाती हैं. और ऐसे प्रदर्शन मात्र औपचारिकतायें बन रह जाते हैं. लेखक जब यह मानता है कि हादसे के शिकार हो प्रतिदिन कई नोबेल संभावना ख़त्म होती है। तब यह भी मानता है कि सौभाग्यशाली जो हादसे के शिकार होने से बची हैं , वे भी नोबेल जीतने की क्षमता रखती हैं।  क्या वजह है ऐसी क्षमता होते हुए वे यह उपलब्धि नहीं पा लेती हैं।
ताजा उदाहरण में एक युवा नारी को नोबेल मिला है। इसलिए की उसके समक्ष चुनौती थी , जिसका उसने साहस और उचित प्रेरणा से सफलता से मुकाबला किया। हर नारी के सामने इतनी उस जैसी प्रत्यक्ष चुनौती अवश्य नहीं है। किन्तु अप्रत्यक्ष चुनौतियाँ अनेक उन्हें हैं। बस उसे अपनी मानने की देर है. जब विरोध प्रदर्शन के लिए वह खड़ी है तो यह तो साफ है कि स्वयं और दूसरी नारी को वह सुरक्षित और सम्मान से जीते देखने के लिए कुछ करना चाहती है। ऐसे में उसके समक्ष निम्न चुनौतियाँ हैं.
समाज और व्यवस्था में जो भी कमी हैं उसमें वे स्वयं अपने को सुरक्षित कैसे रखें ? क्योंकि अन्य का सहारा बनने के लिए सर्वप्रथम जरुरी , स्वयं समर्थ और सुरक्षित रहना है। नारी के स्वयं सुरक्षित रहने के लिए समाज और देश का वातावरण जो चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रहा है उनमें
1. पुरुष उस मनोग्रंथि को निकाल फेंकना है जो स्वयं को कामदेव मानने का भ्रम देती है. और यह भ्रम उत्पन्न करती है कि नारी पर जबरदस्ती नारी की जरूरत है। ऐसा मानने वाला पुरुष अनेकों पर कुकृत्य कर बचता है तब किसी एक बार साहसिक प्रतिक्रिया के बाद अपराधी कहलाता है। नारी की उचित प्रतिक्रिया के अभाव में उसके भ्रम को बल मिलता है और उसमें मनोग्रंथि विकसित हो जाती है। ऐसे मनोग्रंथि वाले पुरुष अनेक हैं उनमें कई उच्च पदस्थ और समाज में प्रतिष्ठित भी हैं। नारी अपनी बुध्दिमत्ता से उनसे बचाव करे ही साथ ही उनकी मनोग्रंथि निकालने के लिए मनोवैज्ञानिक सोच से उनसे व्यवहार करे और उचित प्रेरणा दे.
2. पाश्चात्य नारी जिनमें से कई इस तरह बेशर्म हुईं हैं कि चंद सिक्कों के लालच में सबकुछ उघाड़ समाज के सम्मुख खड़ी हो गईं , और उसे प्रोफेशन की जरूरत बना जस्टिफाई कर रही है। यह सोच भारतीय नई पीढ़ी में पनप रही है कैसे अपने घर-बाहर उचित प्रेरणा से नारी अपने अपने परिवार को इस रोग से मुक्त रखे? पाश्चात्य चरित्र स्वछंदता का है. हमारा मर्यादा का है।  कैसे हम उनका चरित्र ना अपना कर , अपना मर्यादित नारी -पुरुष चरित्र विश्व को मनवायें ? अगर उनका हम मानते हैं तो हमारी हार है। जबकि हमारा हम उन्हें अपनाने को मनायें और प्रेरित करें तो यह मानवता  की जीत है।
अगर इतना ही आज की पीढ़ी की नारी कर दिखाए तो वह नोबेल जीते नहीं जीते। मानवता को जीत सकती है।
पुरुष से इस लेख में आव्हान ना करने का अर्थ यह नहीं कि उसे कुछ नहीं करना है। उसे भी सब कुछ करना है जिससे नारी में चेतना आती है और उसका सम्मान सुनिश्चित होता है. यह अनिवार्य इसलिए है कि सभ्य मनुष्य परिवार में नारी -पुरुष  साथ रहता है .और स्वयं पुरुष , नारी का यथोचित सम्मान करता है।
--राजेश जैन
16-12-2014

प्रार्थना पत्र

प्रार्थना पत्र
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रात्रि अचानक उसकी नींद खुल गई थी। और उसे लगा जैसे धुंधलापन उसकी स्मृति से छँट गया है।  स्पष्ट सा सब दिख और समझ आ रहा था।  उसे याद आ गया कैसे सीढ़ियों से गिर वह कूल्हों की हड्डी तोड़ बैठी थी। कैसे ऑपरेशन के कष्ट और पिछले लगभग तीन माह से आधे होश आधी निद्रा में उसकी रात -दिन बीतती थी। तभी उसे अपना चेहरा देखने का विचार कौंधा। पास की टेबल पर पड़े मिरर तक उसने अपनी पूरी शक्ति बटोर कर हाथ पहुँचाया। कम रोशनी के नाईटलैंप में उसमें देखते ही उसे अपना चेहरा अत्यंत डरावना दिखा।
बाल जिन्हें बार बार डाई कर , चेहरे पर झुर्रीयाँ दूर करने के इंजेक्शन लेकर और प्लास्टिक सर्जेरी से अंगों को आकर्षक दिखाने के उपाय कर उसने सत्तर वर्ष की उम्र में भी कैसे सभी को अपने रूप से रिझाया हुआ था। पिछले तीन महीनों में मिलने वाले परिचित -रिश्तेदारों ने उसका ये कुरूप देख लिया है , आह
उसने पास पड़ी पेन और डायरी उठाई जो अवसाद मन में उठा लिखने लगी .... फिर अचानक सीने में तीव्र पीड़ा हुई , चेतना सारी लुप्त हुई।
सुबह उसके बेटे और बहु ने उसे मृत पाया। पलंग से गिरी डायरी देख, उठाई।  खुले पेज पर  लिखा हुआ पढ़ा। लिखा था …   
ये रूप हो गया मेरा , इसे सुन्दर रखने के सारे जतन के बाद इस रूप में संसार से जाउंगी मै ? ये क्या ले जा रही हूँ मै दुनिया से ऐसा कुरूप हुआ शरीर और चेहरा ? आह ! काश - मैंने रूप चमकाने में लगाया समय और धन , "नारी चेतना और सम्मान रक्षा " के लिए लगाया होता ! कम से लाभान्वित हुई कुछ नारियों ने उसे अच्छे भलाई के रूप में तो स्मरण रखा होता  .... 
पढ़ कर बहु -बेटे के नयन अश्रुपूरित हुए।  उन्हें लगा जैसे मम्मी , भगवान से अगले जन्म के लिए इसका विवेक प्रदान करने के लिए प्रार्थना पत्र लिख रही थीं।
--राजेश जैन
15-12-2014

Sunday, December 14, 2014

जबलपुर की कुहासे भरी आज सुबह में कुछ क्षणिकायें

जबलपुर की कुहासे भरी आज सुबह में कुछ क्षणिकायें
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पेड़ से गिरती पत्ती
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दृश्य
मेरे भ्रमण में आगे देखी गिरती पेड़ से पत्ती थी
थामने की कोशिश लेकिन गिरी वह धरती पर थी

विवेक
गिरने से पेड़ की पत्ती के नहीं कुछ घट जायेगा
थामे हम संस्कृति को गिरी गर कुछ न रह जायेगा 

नीबू की सड़क पर रखी फाँकें
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दृश्य

आगे कदम के सामने कागज़ में
रखी हुई एक नीबू की फाँके थी
अपनी विपत्ति अन्य पर टालने
एक दुखियारे की वह कोशिश थी
विवेक
विपत्ति अगर टली इस हिकमत से
किसी अपने पर ही आ गिर जायेगी
पाश्चात्य संस्कृति लेती आगोश में
पीढ़ी पर विपत्ति कैसे बच पाएगी ?

कार पर ओस परत
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दृश्य

घर आया मैंने कार ओस परत से मढ़ी देखी
कपडे से जो पोंछी नई सी उभरी चमक देखी
विवेक
लापरवाही समाज-संस्कृति पर गंदगी मढ़ गई है
चमकायें साहस से पोंछकर समय की ये जरूरत है 

--राजेश जैन
15-12-2014


 

Gender Equality -once again

Gender Equality -once again
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देश के समुद्री तट पर भीषण तूफान आने वाला है। आज शांत हमारा शहर आने वाले चार -पाँच दिन में इससे बुरी तरह प्रभावित होगा इस तरह का समाचार हमें कुछ उपाय को बाध्य करता। 
वैसे ही
आज परिवार में पले -बड़े हुए बच्चे अपनी उम्र के प्रभाव में अति स्वछंदता को बढ़ रहे हैं। जिनमें कुछ परिवार संस्था के महत्व से ही सरोकार नहीं मानते। और कुछ परिवार के मह्त्व को तो इंकार नहीं करते लेकिन ऐसे रास्ते और आचरण पर बढ़ रहे हैं , जिनमें उनका पारिवारिक जीवन संकट में दिखता है. अभी की अति स्वछंदता की परछाई और बिगड़ी आदतों के कारण परिवार में अपेक्षित विश्वास और प्रेम की कमी आगामी समय में उनके परिवार को अस्थिर करेगी .
इसके परिणाम स्वरूप बच्चे माँ -और पिता के सयुंक्त देखरेख में पलने से वंचित होंगे. जब परिवार में लालन -पालन के बाद आज के युवाओं का यह हाल है। तब वे युवा जिनका लालन -पालन टूटे परिवारों में होगा , वे कितने जिम्मेदार हो सकेंगे ?
यह समाज के सागर तट पर भीषण तूफान का आगमन है  . जिसके प्रकोप में निश्चित ही समाज का वह हिस्सा भी अगली दो -तीन पीढ़ी में आने वाला है। जिसमें हमारा सुखी परिवार आज निवास करता है।
परिवार पर आशंकित इस विपत्ति से वे भी सुरक्षित नहीं हैं , जिनकी संतान, पुत्र हैं। अगर माना जाए कि किसी भी परिवार के टूटने से प्रभावित होने वाला पक्ष नारी होता है तो यह गलत है।  अगर बहु भी या पत्नी भी ठीक ना मिली हो तो हमारा पुत्र , बुरे जीवन के कगार पर होता है।  अतः सभी परिवार का आज दायित्व है कि वे अपने पाल्य को चाहे पुत्री या पुत्र।उचित जिम्मेदारी की प्रेरणा दें। यही आगामी समाज पर आसन्न संकट से बचाने में सहायक होगा।
आज के युवा जिनके आगे परिवार और बच्चे होने हैं वे भी भविष्य की इबारत को पढ़ने की कोशिश करें।  हमारा किया सिर्फ हमें प्रभावित करता हो तो निश्चित ही हम कुछ भी करने को स्वतन्त्र होते हैं। लेकिन जो किया हमारे समाज को बुरे रूप में प्रभावित करता है उसे करने से पहले हमें गंभीरता से  समझने का सामाजिक दायित्व अपने पर लेना होगा।  यह दायित्व पुरुष और नारी पर समान ही है।  कम से कम यहाँ नारी को अपने समान मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
पाश्चात्य समाज बिखरा समाज है।  वहाँ सुविधा और व्यवस्था जरूर हम से परिष्कृत है। उससे कुछ लेना और सीखना है तो यही 2 चीज उचित है।  किन्तु भोग विलासिता और अति स्वछंदता से बेहतर जीवन सुख भारतीय पारिवारिक अनुशासन , परस्पर- प्रेम ,विश्वास और त्याग में ही है।
--राजेश जैन
15-12-2014

Saturday, December 13, 2014

Gender Equaliti

Gender Equaliti
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कपोल कल्पित मानव इतिहास क्रम 2 पोस्ट में लिखे थे। पूर्व इतिहास में क्या था उसको कहते भूमिका बड़ी करना उपयुक्त नहीं है। संक्षिप्त में कहें तो नारी स्थिति से उत्पन्न नारी मन में बैचैनी और कुछ न्यायप्रिय पुरुषों ने सयुंक्त प्रयास जारी रखे। जिससे प्राचीन समय में उत्पन्न हुई सामाजिक बुराइयों को मिटाया भी गया।
हर शताब्दी या हर मनुष्य पीढ़ी के समक्ष नई आवश्यकतायें और सामाजिक बुराई  रह गई और नई उत्पन्न हो गई बुराइयों के उन्मूलन की दिशा में कार्य करने की चुनौती रहती है। हर पीढ़ी अपना योगदान देकर मानव सभ्यता यात्रा को आगे बढाती है। हर शताब्दी को यह चिंता और तनाव होता है कि अगली शताब्दी को मानवीय समाज में बुराइयाँ बढ़ा देने का कलंक ना दे दे।
इक्कीसवीं सदी ने उन्नत प्रसारण क्षमता की विरासत बीसवीं से पाई है जिसकी नींव पर फेसबुक एक उन्नत साधन निर्मित हो गया और इस आलेख का लेखक जैसा साधारण व्यक्ति अपनी बात दुनिया के किसी भी कोने में बैठे व्यक्तियों तक पहुँचाने में घर बैठे समर्थ हो गया। इक्कीसवीं  सदी निश्चित ही क्रमशः कई उन्नत तकनीक विकसित करेगी जिससे चिकित्सा और जीवन सुलभता के नए साधन भी मिलेंगे. इन सुविधाओं के होते हुए भी मनुष्य समाज तभी सुखी होगा जबकि पिछली सामाजिक बुराइयों का समाप्त किया जाए और यह पीढ़ी नई सुविधाभोग अतिरेक की जीवनशैली पर अंकुश करे।
आलेख नारी चेतना विषयक पेज से है अतः अन्य विश्व समस्या और समाज बुराइयों का उल्लेख लेखक स्थगित रखेगा और नारी सम्मान के प्रश्न को ही आगे रेखांकित करेगा। प्रश्न शताब्दी के समक्ष ये हैं.
1. नारी शोषण का विस्तृत इतिहास रहा है पिछली कई शताब्दियों ने आंशिक समाधान देने के उपरांत शेष चुनौतियाँ अगली शताब्दी पर टाली है क्या यह शताब्दी इस प्रश्न का सर्वथा हल करने में समर्थ होगी ?
2. नारी अब शिक्षित है , चतुराई वह भी सीख रही है , प्रतिक्रिया में पुरुष से समानता सिध्द करने के प्रयास कर रही है। लेकिन लगता है पुरुष अभी भी ज्यादा चालाकी से पेश आने में सफल होकर नारी शोषण को नए प्रचारित "आधुनिका नारी" के आवरण के भीतर अंजाम दे रहा है। नारी को ज्यादा स्वछंद बनाकर उसका दैहिक शोषण कर रहा है। फिल्म -इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , पत्र पत्रिकाओं , विज्ञापन और व्यवसाय लगभग सारी जगह नारी को अश्लील ढंग से पेश कर अपनी पिपासा तृप्ति कर रहा है। क्या प्रतिक्रिया देती आधुनिक नारी अपनी प्रतिक्रियाओं को अपने हित में संयत रख पाएगी ? या पहले अन्य तरह से और अब अन्य तरीके से शोषित होती चली जायेगी।
लेखक समझता है , नारी शोषण को अभिशप्त नहीं है। शोषण मुक्त होने में समर्थ है। पुरुष साथ छोड़ना या उसे प्रतिव्दंदी सा देखना उपाय नहीं है। अपनी बुध्दिमानी से पुरुष को उस सीमा में रोकना आवश्यक है। नारी आधुनिक और इतनी स्वछंद रहे जितने में उसका नुक्सान नहीं है। वास्तव में धन के वे टुकड़े जो उसके अश्लील प्रदर्शन से उसके हाथ में पकड़ाये जाते हैं वह जीवन भर उसके सम्मान को सुनिश्चित करने में सहायक नहीं हो सकते हैं।  नारी का जीवन कहीं ज्यादा होता है , जबकि नारी के इस उल्लेखित रूप का पराये पुरुष दृष्टि में महत्व लगभग चालीस वर्ष तक होता है। नारी को सतर्क रहना है उसे पुरुष से इस रूप में साथ देना लेना है ताकि पूरे जीवन वह एक महत्व और सम्मान से समाज में रह सके।  जिस दिन उसमे चेतना आ जाये इस पेज "नारी चेतना और सम्मान रक्षा " को महासागर में डुबा देना . उस दिन के पहले तक इस पेज को आसमान में फहराना चाहिए।  आओ प्रबुध्द नारी-पुरुष इस फहराने को अपना हाथ और साथ दो।
इस लेखक की माँ ,बहन ,पत्नी और बेटी , नारी है.  वह इन्हें ऐसे समाज में देखना चाहता है जिसमें उसके बिना भी वे सुरक्षित और सम्मानित हों .
--राजेश जैन
14-12-2014

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1 . हम किसीके पीठ पीछे सम्मान से उन्हें विक्रम जी इत्यादि  आदरणीय ढंग से कहते चर्चा करते हैं या 2. विक्रम के साथ अपमानजनक कुछ प्रयुक्त करते हैं .
1 अनुपस्थिति में किसी के हम प्रशंसनीय गुण  कहते हैं या 2. उसकी बुराई ले बैठते हैं।
1 किसी से व्यवहार में हमारे मन में उससे हो सकने वाले स्वार्थ सिध्द या लाभ के विचार रहते हैं , अथवा 2. उसको हम क्या लाभ दे सकते हैं ये विचार करते हैं।
अगर उत्तर 1 हैं  तो हम स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक नहीं हो सकते। यही नहीं हम दूसरे की छोड़ दें स्वयं का भला भी  नहीं कर सकते।  क्योंकि अपने पीठ पीछे हम अपना सम्मान और अपने हितैषी रखने में असमर्थ होंगे.
अपने हितैषी और हित सुनिश्चित करना है तो हमें 2 जैसी पध्दति अपनानी होगी तब समाज में मानवता और सुख प्रवाहित होते रह सकता है
--राजेश जैन
१४-१२-२०१४

Friday, December 12, 2014

अनुभूति में पिता का जीता रहना

अनुभूति में पिता का जीता रहना
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सुनो बेटे ,पिता तुम्हारा मै क्या कहता हूँ
भलाई जो करते तुम उसमें मै रहता हूँ
तुम जन्में लालन को तुम्हारे मै जीता था
सुयोग्य तुम्हारे भले भाव से अब जी लेता हूँ

भलाई जो त्यागी तुमने जीते जी मर जाऊँगा
जारी रखी भलाई तुमने मरकर भी जी जाऊँगा

तुम जो करते अपने लिए उसमें तुम रहते हो
सद्कर्म जब करते भीतर तुम्हारे हम रहते हैं

बेटे हमें दीर्घायु देखना तुम चाहते हो
नहीं सामर्थ्य तुम्हारा ये मै समझता हूँ
आयु होगी सब जैसे मै भी चला जाऊँगा
तब तुम्हारे भले भाव में बस रह जाऊँगा 

बेटे शरीर का चिरकाल रहना नहीं संभव है
तुम्हारे में मेरी आत्मा की अनुभूति संभव है
पिता को सम्मानीय तुम कहते मै भी कहता हूँ
अपने पिता का नाम बढ़ाने भले कार्य करता हूँ

पिता और माँ का रिश्ता गजब बताया है
बच्चों के लिए करनी ने उन्हें पूज्य बनाया है

बेटे मालूम क्यों? समाज में बुराई यों बढ़ रही है
माँ -पिता के त्याग भुला संतान अति कर रही है
न जाना उन रास्तों पर मदहोशी में जो बन रहे हैं
दृढ़ता से बने रहना सदमार्ग पर जिसमें बढ़ रहे हो

सुनो बेटे पिता तुम्हारा चुनौतियों से न घबराया है
उत्साह भलाई का कायम रखना कहने ये आया है

आती नहीं थी कविता तुम्हारे लाड़ को कर लेता है
संभव है सब प्रमाणित ऐसे तुम्हारा पिता करता है
कहते हैं बुराई थामना एक के सामर्थ्य में असंभव है
स्मरण में मुझे रख कर तुम्हारे लिए करना संभव है

--राजेश जैन
13-12-2014

Flop show


Flop show
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जिन थीम पर नहीं चलती उन पर फिल्म प्रदर्शित करते हो
क्यों मेरी फिल्म न चलती फिर मासूम बन मुझसे पूछते हो
क्या तुम कहते अनर्गल राजनीति पे ?
या बॉलीवुड बेशर्मी की चर्चा लिखते हो ?
क्या इश्क पर कविता लिखते या
क्या क्रिकेट देखने लिखने को ललायित रहते हो ?
ये सब तो न लिखते तुम  न नारी चित्र लगाते हो
नारी चेतना और सम्मान रक्षा की ही बातें करते हो
इसमें न मसाला मिलता न होता कुछ मनोरंजन ही 
भूला भटका पढ़ लेता उसमें दायित्वबोध जगाते हो
मनोरंजन को एफबी करने सब ,इस खातिर ही आते हैं
मनोरंजन में विघ्न डालकर तुम उनका तनाव बढ़ाते हो
खबरदार अब न पूछना मुझसे खरी खरी ये सुनलो तुम
दायित्वों की बात करके सबका समय ख़राब ही करते हो
--राजेश जैन 
12-12-2014

Wednesday, December 10, 2014

प्रतिक्रिया को विवश -नारी

प्रतिक्रिया को विवश -नारी
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जो सद्कर्म नहीं करते उनको स्वयं पर विश्वास ना होना तो उचित और स्वाभाविक ही होता है। किन्तु जो अच्छा आचरण और कर्म करते हैं उनका आत्मविश्वास डिगना उसके लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी चिंता का विषय होता है। 

पिछले लेख का समापन वाक्य यह था -"समतुल्य होने का नारी आत्मविश्वास ही खो दिया। "

नारी , परिजन पुरुषों की आज्ञाकारी हो गृहकार्य में तल्लीन थी। जितनी क्षमता थी उससे ज्यादा शारीरिक श्रम कर रही थी। परिजन जिन आभूषणों या परिधानों में उसे देखना चाहते वह पहन रही थी। परिवार मुखिया की उदरपूर्ती के बाद स्वयं भोज्य ग्रहण करती थी। संक्षिप्त में लिखें तो "जिन सीमाओं में उसे रखा  जा रहा था उसमे जीवन यापन कर रही थी "।  बदले में रक्षक पुरुष से  मिले  प्रेम में  ही अभिभूत रह लेती थी। इसकी पुष्टि वे रूढ़ियाँ करती हैं जिनके अंतर्गत विवाह पूर्व और विवाह उपरान्त नारी अनेक व्रत -उपवास और पूजा- भक्ति तो अपने पति को कई -कई जन्मों में पति रूप पाने लिए करती रही हैं ।

इतनी परोपकारी इतनी सहनशील और त्याग की प्रतिमूर्ति यह नारी आत्मविश्वास ना खोती तो अच्छा था। वह मनुष्य जनसंख्या का आधा हिस्सा थी।  आधी जनसँख्या में स्वयं की इक्छा अनुरूप जीवन यापन का सामर्थ्य और आत्मविश्वास ना होना समाज हितकारी बात नहीं थी। समाज व्यवस्था  सुदृढ़ की जानी चाहिए थी। परिवार ,समाज और धर्म निर्णय पुरुष आधीन थे लेकिन या तो पुरुष  की दृष्टि इतनी वृहद नहीं थी या कुछ अपने स्वार्थ भ्रम ने पुरुष  में यह दोष पैदा किया था, जिससे आधी आबादी के दैनिक विचरण और स्व-निर्णय के अधिकार सीमित थे .पुरुष ऐसी समाज संरचना में सुधार के प्रति उदासीन बना रहा था। जिससे नारी -

शिक्षा अवसर में कमी से पिछड़ती रही और मानसिक तौर पर सशक्त ना रही । शारीरिक शक्ति कम होने से आत्मरक्षा को पूरी तरह समर्थ नहीं थी। असुरक्षा और आशंकाओं में जीवन को विवश रही । जबकि ऐसे में नये आविष्कार और सुविधा  उपाय करने से पहले वे उपाय किये जाते जिससे पुरुष आश्रिता यह नारी स्वतंत्र रूप में भी सुरक्षित हो पाती और समान मस्तिष्क क्षमताओं के कारण शिक्षा के भी समान अवसर प्राप्त करती,  तो वे दूरगामी दृष्टि में पुरुष -नारी के दीर्घ और मधुर संबंध सुनिश्चित करने में सहायता मिलती ।  

पुरुष संकीर्ण सोच और दृष्टि ने इन सामाजिक उपायों को प्रधानता नहीं दी। ऐसा न होने पर भी नारी मन विद्रोह ना करता। लेकिन पुरुष स्वार्थलिप्सा ने नारी को वो कारण दिए या कहिये वे घाव दिए जिनकी पीड़ा सहते उसके मन में विद्रोह बीज शताब्दियों पल्लवित होते रहे।

पुरुष नारी पर तो पतिव्रता अपेक्षा रखता , स्वयं बहुविवाह करता।
विधुर हो जाये तो पुनर्विवाह पुरुष करता , किन्तु विधवा के पुनर्विवाह के उपाय ना करता।
पुरुष ने फुसलाया उसे क्षमा थी , किन्तु फुसलावे में आई नारी के लिए विकट भर्त्सना थी। जबकि फुसलाना ज्यादा निंदनीय होता है।

खेदजनक बात यह भी रही कि पुरुषों ने नारी को माँ ,कुछ हद तक बहन और बेटी  के रूप में यथोचित मान देने का प्रयास तो किया किन्तु नारी के अन्य रूप और रिश्ते को अपनी पिपासा और बुरी दृष्टि से कलंकित करने के यत्न किये ।  पत्नी , जो माँ और पिता जैसी ही निशंक हितैषी होती है,  उसे पुरुष ने उपहास का लक्ष्य बनाया ।

नारी प्रतिक्रिया को विवश हुई , लेकिन उसमें रही आत्मविश्वास की कमी से प्रतिक्रिया में उठे कदम नारी भलाई सुनिश्चित नहीं करते हैं।

लेखक की कपोल कल्पित मनुष्य प्रगति क्रम के आलेख आगे की प्रस्तुतियों में जारी रहेगा  (जिन नारी -पुरुष के अहं को ठेस लगी उनसे क्षमा सहित ) .......

-- राजेश जैन
10-12-2014



Tuesday, December 9, 2014

नारी आश्रिता या आश्रयदात्री ?

नारी आश्रिता या आश्रयदात्री  ?
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नारी पर बाहरी पुरुषों के यौन आक्रमण से बचाने के लिए , नारी से अपेक्षाकृत अधिक बलशाली पुरुष ने , परिवार का मुखिया बन उसे अपने पीछे रखा। पुरुष की यह सोच निश्चित ही उसके अच्छी सोच और उद्देश्य की परिचायक थी। नारी मन ने अपने से इस पुरुष अनुराग को बिना शाब्दिक अभिव्यक्ति के समझकर , प्राचीन काल में पुरुष की पारिवारिक मुखिया होने को सहर्ष सहमत किया। नारी शारीरिक बल से यद्यपि कम शक्तिशाली रही , लेकिन उसका आत्मिक बल , पुरुष से बीसा रहा है। शारीरिक पीड़ा वह तब भी और आज भी पुरुष से अधिक सहनशीलता से झेलती रही है। नारी ही जीवन में कई कई बार मौत और जीवन के बीच संघर्ष करने वाली प्रसव वेदना सहते , मनुष्य नस्ल को बनाये रखने और बढ़ाने में सहयोग देते आई है। यही नहीं पुरुष अनुरक्ति को अपने पर अहसान मानते हुए स्वाभिमानी इस मनुष्य संगिनी ने अपने सामर्थ्य से अधिक घरेलु कार्य अपने जिम्मे कर उस अहसान का उस से बढ़कर बदला पुरुष को देने का यत्न किया है।
बाहरी आक्रमण और दुष्टता को सहने से बचाने के लिए पुरुष ने घर की चाहर दिवारियों में नारी को जब सीमित किया तब नारी ने अपने प्रति इस पुरुष अनुराग को निशंक स्वीकार किया और इस तरह आश्रित होना पसंद किया। लेकिन घर की सीमाओं में उसने दैनिक आवश्यकताओं के लिए सश्रम वे कार्य किये जिन्हें पुरुषों ने उसे करने के निर्देश दिए। धीरे धीरे पुरुष इन घरेलु कार्यों के लिए नारी आश्रित होता गया।यह पूरी व्यवस्था परस्पर आश्रित और आश्रयदाता होने की कहानी है। इस व्यवस्था में पुरुष विशेषताओं का लाभ नारी को और नारी क्षमताओं का लाभ पुरुष उठाकर परिवार और समाज उन्नति का उपाय करते रहे हैं .

फिर मानव विकास यात्रा सभ्यता की नई मंज़िल पर पहुँची जहाँ मनुष्य ने भाषा बोलना -लिखना आरम्भ किया , धर्म ,गणित -विज्ञान और अन्य कई क्षेत्र में ज्ञान अर्जित करना आरम्भ किया। तब तक नारी घर में रहने की अभ्यस्त हो चुकी थी । ज्ञान अर्जन के लिए बाहर निकलना था। नारी का बाहर निकलना तब सुरक्षित नहीं समझा गया। ज्ञान प्राप्ति के अवसर अतः पुरुष ने ज्यादा प्राप्त किये । ज्ञान प्राप्त कर वह ज्ञानी तो हुआ किन्तु चतुराई भी करने लगा।
अभी तक पुरुष नारी को आश्रय देकर नारी से आश्रय पाना भी मानता आया था किन्तु पुरुष को चतुराई आ जाने के कारण आश्रित (और आश्रय दात्री भी ) अपनी परिवारजन नारी के मन में उसे अपनी आश्रिता का बोध कराने लगा।वह समय भी आया जब सहस्त्रों वर्ष इस आश्रिता होने की बात ने समतुल्य होने का नारी आत्मविश्वास ही खो दिया।
लेखक की कपोल कल्पनीय मनुष्य प्रगति क्रम के आलेख आगे की प्रस्तुतियों में जारी (जिनके पुरुष अहं को ठेस लगी उनसे क्षमा सहित ) रहेगा .......


-- राजेश जैन
10-12-2014

Gender Equality

Gender Equality
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अभी हमारी दृष्टि में क्षमता विकसित होनी शेष है।
पुरुष दृष्टि अभी नारी देह को निहारने तक सीमित हो रही है।
जिस दिन नारी मन तक वह दृष्टि पहुँचने लगेगी।
उस दिन उसे अपने और नारी में समानता दिख सकेगी।
तब पुरुष नारी को वस्तु नहीं एक मनुष्य मानेगा।

नारी संघर्ष में विकसित दृष्टि वाले पुरुष का सहयोग मिलता रहा है।
जब यह संघर्ष सही दिशा और लक्ष्य पा लेगा तब नारी -प...ुरुष का पूरा समाज मनुष्य हो जायेगा।
नारी पुरुष दैहिक भिन्नता का अपना अपना महत्व है। नारी और पुरुष दैहिक संरचना में भिन्न होते हुए भी ,
एक जैसे और प्रमुखता से मनुष्य कहे जायेंगे। अभी मनुष्य में जानवर के गुण की विद्यमानता भी है।
जानवर से गुण लोपित होंगे तब पूर्ण मनुष्य हम होंगे और उस दिन से ही मानव सभ्य कहलायेगा।


--राजेश जैन
09-12-2014

माँ -और नारी लाज

माँ -और नारी लाज
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एक राज्य में बढ़ती घटनाओं के बीच , एक युवती पर बलात्कार का अपराधी पकड़ा गया।  राजा ने उसका दंड अपराधी के मुख से सुनकर ही दंड देने का निर्णय किया।  और अपराधी से तीन दिन में अपने दंड हेतु विचार कर बताने को कहा।
माँ को अपने पुत्र की करतूत सुन गहन क्षोभ हुआ। उसे अपने संस्कारों की कमी पर क्रोध आया।  वह राजा से मिली और उनसे कुछ प्रार्थना की। राजा ने विचारोपरान्त उस माँ से सहमति जताई।
दूसरे दिन एक मैदान में एक वृक्ष से उस अपराधी को बाँधा गया फिर अकेला छोड़ दिया गया। कुछ देर बाद मैदान में उसकी माँ आई पुत्र से कुछ बात कर ही रही थी तब एक दुष्ट किस्म का व्यक्ति आया. पुत्र को बँधा देख और अधेड़ स्त्री को अकेला देख वह उससे दुराचार का प्रयास करने लगा , वह माँ गिड़गिड़ाते और रोते इधर उधर भागती रही। उस दुष्ट को नारी लाज की दुहाई दे अनुनय करती रही। दुष्ट ने कोई दया नहीं दिखाई। उसे एक वृक्ष के पीछे खींच ले गया।  दृश्य देख अपराधी पुत्र की आँखे झुक गई , क्रोध और विवशता से वह कांपने लगा ।
कुछ देर में राजा के सैनिक आये जिन्होंने , दुष्ट को काबू किया और माँ को वापिस घर भेजा।
तीसरे दिन राजा ने दरबार लगा कर उसके किये अपराध की सजा पूछी , माँ पर हुए शोषण के साक्षी उस पुत्र ने , अपने लिए मौत की सजा माँगी।
पड़ोसियों ने माँ से पुत्र के समक्ष किये स्टेज में स्वयं के स्थान पर अपनी बेटी को क्यों नहीं भेजा पूछा तो -उस वीर नारी ने कहा , बहन पर यह दुराचार देख , पुरुष समाज अपनी बहन -बेटी का हत्यारा बनता।
लेकिन माँ - पुत्र के पहले होती है इसलिए उसने स्वयं उस स्टेज को अंजाम दिया।
--राजेश जैन
09-12-2014

Sunday, December 7, 2014

Candy Crush

Candy Crush
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candy crush गेम खेलते और वर्ग पहेली (cross word puzzles ) हल करते भी समय निकाला जा सकता है ,यह तब उचित है जब समक्ष कोई समस्या नहीं है। किन्तु यदि समक्ष समस्यायें हैं तो इनसे बेहतर उन life puzzles (जीवन पहेली ) सुलझाने में समय लगाना है।

समाज समस्यायें किसी पहेली या गेम से कम मनोरंजक नहीं हैं। इन्हें play (खेलने) करने या solve (हल ) करने में entertainment (मनोरंजन) और satisfaction (संतोष )  इन गेम या पज़ल्स से कम नहीं ज्यादा मिलता है।

हर जगह धन से ही कुछ किया जा सकता है ऐसा भी नहीं है . निःसंदेह प्रत्यक्ष सहायता धन से सरल है . किन्तु अप्रत्यक्ष सहायता समाज और देश में (बल्कि विश्व में भी ) सच्ची वैचारिक क्षमता बनाना है। सही सोच सभी में प्रेरित करने से जब अधिसंख्य सही तरह से समझने के योग्य होंगे तो स्व-अनुशासित होंगे और बुराइयों को बढ़ाने में नहीं अपितु कम करने में योगदान देंगे . जिससे अनेकों समस्याओं और बुराइयों का स्वतः ही अंत होता है। इसमें धन नहीं खर्च होता है लेकिन सहायता का क्षेत्र विस्तृत होता है। अरबपति भी चाहें तो कुछ हजार पीड़ितों की ही सेवा सहायता कर सकते हैं , जबकि ऐसी वैचारिक प्रेरणाओं से जब दृष्टिकोण सुधरता है तब हित - अनेकों का होता है , कई पीढ़ियों का होता है।

आप चाहें तो solve करें या खेलें निम्न प्रश्नों को गेम या puzzle रूप में , कि कैसे आये /हो सके ?

1. नारी चेतना और सम्मान रक्षा
2. प्रेरणा मानवता और समाज हित
3. कैसे हों सभी -"सम्भ्रांत "

बहुत समय निकलेगा स्कोप अनन्त है , मनोरंजन और संतोष बहुत है। बस आवश्यकता अपने को समस्या-मुक्त (बुराई मुक्त भी ) मानने की नहीं है . बुराई और समस्या से घिरा यह समाज है उसी समाज के हम अंग हैं।यदि हमारी स्थिति अच्छी है जिससे हम सुरक्षा और बुराई से रक्षा करने में समर्थ अनुभव करते हैं तो ऐसी हमारी स्थिति तो हमारा सौभाग्य है जब हम सरलता से इन दायित्वों को निभा सकते हैं।

--राजेश जैन
07-12-2014

Saturday, December 6, 2014

विचारणीय प्रश्न
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एक आदरणीय ने कुछ दिन पूर्व चर्चा में कहा …आपको क्या लगता है आप सबको बदल सकते हो?
इस सीधे प्रश्न को मै तैय्यार न था .... हड़बड़ा कर कहा - नहीं !

प्रश्न विचारणीय था , विचार किया , उत्तर तब भी यही है - "नहीं" , कोई सभी को अपने तरह से नहीं बदल सकता।

लेकिन
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आठ अरब जीवन में से एक जीवन का महत्व नगण्य (negligible) ही होता है , ऐसे में एक मनुष्य जीवन इस असंभव प्रयास में जाया हो भी जाए तो क्या अंतर पड़ता है। लेकिन ऐसा विफल प्रयास भी तब ही उचित है जबकि वह मानवता और समाज हित के प्रयोजन में लगाया जाये।

--राजेश जैन
07-12-2014

Friday, December 5, 2014

5 Dec.

 5 Dec.
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आज 5 Dec. है , मेरे एक फ्रेंड की पत्नी का जन्म दिन , लगभग 15 वर्ष की पत्नी द्वारा स्मोकिंग पर आपत्ति और रोकटोक के बीच मेरे फ्रेंड ने पिछले वर्ष स्मोकिंग छोड़ने का प्रण कर अपनी पत्नी को बेशकीमती उपहार दिया था। प्रसन्नता में इस पर ऐसा एक आलेख भी मैंने इसी पेज पर लिखा था।
कुछ दिनों पूर्व उन्होंने मुझे सखेद बताया था , वे निभा नहीं सके हैं ,उन्होंने स्मोकिंग पुनः आरम्भ कर दी है। मैंने मन में बुरा माना किन्तु प्रत्यक्ष में मुस्कुराकर कहा 5 Dec. इस वर्ष भी आएगा ,भूल सुधार का अवसर ना चूकना।
आज 5 Dec. है ,आशा है फिर एक बार मेरा मित्र अपनी पत्नी को यह बेशकीमती उपहार अवश्य दे पायेगा।
लिखने का दूसरा अभिप्राय भी है , थोड़ा भी भला कर पाना और भला को निभा पाना कितना दुरूह (कठिन) हो गया है।  इसको ध्यान में रख बुरा कुछ करने के पहले हमें अनेकों बार सोचना चाहिए।  बुरा किया तो आसानी से जाता है , लेकिन जब उसे मिटाने का और भला करने की बारी आती है तो वह कितना कठिन हो जाता है।
स्मोकिंग एक अस्वास्थ्यकारी बुराई है जो स्वास्थ्य हानि के साथ अनावश्यक व्यय का कारण होती है और पति -पत्नी के बीच अनुराग के समय के बीच व्यर्थ तकरार के कारण उत्पन्न करती है।
--राजेश जैन 
05-12-2014

नारी चेतना और सम्मान रक्षा

नारी चेतना और सम्मान रक्षा
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सभ्यता की ओर बढ़ती मानव यात्रा कभी ना समाप्त होने वाली यात्रा है। 
हम अभी भले सभ्य कहला रहे हैं , लेकिन बहुत कम ही सभ्य हैं.
जितने सभ्य हैं उतने उच्च सभ्य थोड़े कुछ ही हैं। अधिकाँश उससे समय पैमाने पर शताब्दियों वर्ष पिछड़े हैं।
जिन्होंने धन और प्रभाव की शक्ति किन्ही कारणों से प्राप्त करलीं हैं , वे मानव सभ्यता यात्रा में दिशा भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं.
वे अपने प्रभाव में उन कर्मों और आचरण की तरफ ही अन्य सभी को हाँकने का प्रयास कर रहे हैं।
ऐसा सदाकाल से होते आया है कोई नई बात नहीं है।
सभ्यता के मार्ग पर बढ़ते सच्चे सभ्य ,सभ्यता के पथ निरंतर निर्मित करते आगे बढ़ते जाते हैं.
और सभ्यता के भ्रम पैदा करते छद्म-सभ्य उन पथ पर  छूट पीछे रह जाते हैं , एक धुरी पथ में घूम वहीँ थम जाते हैं.
दिशा भ्रम के जिन कर्मों और आचरण का उल्लेख ऊपर किया है वह अति स्वच्छंदता का है।
जिसमें प्राणी अपनी 1.) मनमानी ही करने को प्रवृत्त रहता है और 2.) उदर पिपासा और 3.) काम पिपासा में अत्याचारी होता है।
यदि गौर किया जाए तो ऐसा जानवर का स्वभाव होता है.यदि ऐसी स्वच्छंदता की तरफ कोई बढ़ता है तो कैसे सभ्य हो सकता है ?
जबकि जानवरों सा रहकर क्रमशः स्वच्छंदता छोड़ न्याय और दया पर बढ़ता मानव सभ्य कहलाया है।
लेखक ने इस पेज ("नारी चेतना और सम्मान रक्षा ") के माध्यम से "सभ्यता की ओर बढ़ती मानव यात्रा कभी ना समाप्त होने वाली " क्यों बताया है उसका लेख अभी
अति संक्षेप में ऐसा है -
"सभ्यता की मंज़िल दूर है , जिस दिन तक स्थूल दृष्टि रख पुरुष ,नारी में उसके तन और रूप तक ही निहारेगा
(ऐसा दूसरे पक्ष से भी पढ़ा -समझा जाए ) उसकी मन की थाह पाने में विफल रहेगा।
उसमें तन की कुछ भिन्नता के अतिरिक्त मन की समस्त अपेक्षाओं में अपनी जैसी समानता नहीं दिखने लगेगी
उस दिन तक वह मानव सभ्यता के उत्कर्ष पर नहीं कहलायेगा। जिस दिन पुरुष दृष्टि इतनी समर्थ हो जायेगी वह नारी मन में भी
-सम्मान की अपेक्षा देख लेगा वह क्रमशः न्यायप्रिय होने लगेगा दिन से नारी पर पुरुष शोषण के किस्सों पर स्वतः विराम लग जाएगा (इसे भी दूसरे पक्ष से पढ़ा -समझा जाए )।
उस दिन नारी को समान अधिकार देने उसे अपने समान मानने में उसे कोई झिझक नहीं होगी।
जब तक वह दिन नहीं आएगा, मानव कमतर सभ्य ही माना जाएगा। "
नारी -पुरुष रिश्तों से अलग उदरपूर्ती , स्वास्थ्य सुविधा , मूल भूत अन्य आवश्यकतायें भी विषय हैं , जिनकी अपूर्णता और अपर्याप्तता  असभ्यता ही है।
उन पर चर्चा किसी और समय "प्रेरणा -मानवता और समाजहित " पेज से की जायेगी। 


--राजेश जैन
04-12-2014

Wednesday, December 3, 2014

नारी पुरुष सदैव परस्पर पूरक हैं

नारी पुरुष सदैव परस्पर पूरक हैं
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बेशक बेटे की कामना छोड़ो
बेशक भाई को भी तुम भूलो
पुरुष छल से व्यथित हे नारी 
पिता पुरुष तुम्हारा ना भूलो


मै पुरुष चाहो मेरा
विश्वास ना करना
धोखा खाये हमसे
विश्वास ना करना


संस्कारों पर अपने
तुम विश्वास करना
पुत्र न छले नारी को
उसे संस्कार दे देना


नारी पुरुष प्रकृति से बने पूरक हैं
जुदा नहीं हो सकते ऐसे पूरक हैं
अविश्वास के कुकृत्य मिटा डालो  
नारी पुरुष सदैव परस्पर पूरक हैं


सतर्कता रख न तुम छली जाओ
नई संतति में नई चेतना लाओ
नारी कृतज्ञ अभी पुरुष जीवित हैं
साथ उनके नई बुनियाद बनाओ


नारी गर अलग तुम हो जाओगी
न सृजक विध्वंसक कहलाओगी
सृष्टि में मानव प्रजाति के लिए
लुप्तता की दोषी बन जाओगी


सहनशीलता तुम्हारी इतिहास कहता है
वीरता बखान तुम्हारी इतिहास करता है
रच सकती हो तुम नया समाज इतिहास 
मानना अवश्य मेरा विश्वास कहता है


-- राजेश जैन
03-12-2014

Tuesday, December 2, 2014

प्रोफाइल पिक में बुर्के और मुँह ढके लम्बे घूँघट

प्रोफाइल पिक में बुर्के और मुँह ढके लम्बे घूँघट
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"रुग्ण पुरुष मानसिकता फेसबुक खूबियों पे पानी ना फेर दे
कुप्रवृत्ति ये प्रगति पथ पर बढ़ती नारी का साहस ना हेर दे
जिन अपने चित्रों को अपनों की प्रशंसा ख़ुशी को रखती नारी
गन्दी दृष्टि व कमेंट्स मुखड़ा वह वापिस घूँघट में ना घेर दे"


 आज की पुरुष पीढ़ी को सोचना है क्या वह नारी को बुर्के /घूँघट या घर की चारदीवारियों/जनानखाने में सीमित देखना चाहती है अथवा जीवन मोर्चे पर संघर्ष में उन्हें अपने कंधे से कन्धा मिला साथ का आव्हान करती है?
यदि प्रगति वादी नारी उन्हें पसंद है तो उसे यथोचित सम्मान दिया जाना होगा। उसे अपने जीवन स्वप्न भी साकार करने के अवसर देने होंगें। हम मानव सभ्यता की उस मंज़िल पर हैं जहाँ ज्ञान और न्याय से व्यवस्था चलनी है। वह मंज़िल मानव सभ्यता की यात्रा में पीछे छूट चुकी है जहाँ बाहुबल से समाज व्यवस्था चलती थी। पुरुष ज्यादा सबल था तो नारी पर मनमानी और उसे अपनी खींची सीमाओं में रहने को विवश करता था।
नारी शारीरिक बल से पुरुष से कम थी किन्तु आत्मिक बल से पुरुष से श्रेष्ठ रही है। जिन जीवन चुनौतियों में उसने शताब्दियों सफल जीवन संघर्ष दिखाया है ,सबल पुरुष के लिए वह कुछ वर्ष ही लड़ लेना अग्निपरीक्षा में सफल होना हो सकता है। आज के पुरुष घरों /चौकों और पर्दों में 10 -20 वर्षों जीकर दिखा सकें तो अग्निपरीक्षा में सफल कहे जायेंगे। लेकिन पढ़ने वाले मेरे साथी पुरुष इस कल्पनामात्र से मेरे जैसे सिहर जायेंगे।
अभिप्राय लेख का यह स्पष्ट करना है कि आज यह समाज सभ्य है। समझना होगा जैसा सम्मानपूर्ण जीवन आकांक्षी पुरुष है वैसी ही आकांक्षा नारी की है। फेसबुक पर मिली नारी तस्वीरों पर गंदे कमेंट्स और उन्हें अश्लील पृष्ठों पर प्रदर्शित कर भद्दी भाषा लिखना सभ्यता के विपरीत है , मानसिक रुग्णता है , जिससे पुरुष , उस नारी समाज को कष्ट देता है , जिसमें से एक ने प्राणों की चिंता किये बिना पुरुष को जन्मा और पाला पोसा होता है।
हमारी नारी के प्रति अमर्यादित ओछी हरकतें जिसमें उसके सम्मान को ठेस पहुँचती है , कहीं उसे पुरानी उन विवशताओं को ओढ़ने को विवश ना करदे। सभ्यता की और बढ़ते मानव का ऐसा "यू टर्न " क्या हमें पसंद होगा? जब फेसबुक की नारी (id) आइडियों पर प्रोफाइल पिक में बुर्के और मुँह ढके लम्बे घूँघट ही दिखने लगेंगे।


--राजेश जैन
02-12-2014

Monday, December 1, 2014

हम साबित करें - मूर्ख नहीं हैं

हम साबित करें - मूर्ख नहीं हैं
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फेसबुक पर ऐसी एक पोस्ट देखी


"पत्नी ओर पति सो रहे थे?
अचानक ?
पत्नी सपना देख के चिल्लाई ?
उठो भागो मेरा पति आ गया है....
पति भी उठा और खिङकी से कूद गया"


लेखक को स्मरण है , किसी बुरी बात की चर्चा जब बचपन में करता तो माँ कहतीं ऐसी बात बार-बार कहने की नहीं होती। कारण पूछता तो टाल कर कहतीं , ऐसी ख़राब बात की चर्चा करने से अच्छी बात कहने ,सुनने और समझने के लिये समय कम हो जाता है। उपरोक्त पोस्ट पढ़कर , बचपन की माँ द्वारा कही यह बात याद आ गई। सरकार द्वारा विभिन्न टैक्स लिए जाते हैं , आयकर भी उनमें से एक है , पहले शायद कुछ ही व्यक्ति होंगे जो टैक्स भरने में बेईमान रहे होंगे। अब कुछ ही व्यक्ति होंगे जो टैक्स भरने में ईमानदार रह गए हैं। जब तक टैक्स भरने में बेईमानी कुछ तक सीमित थी और उस बेईमानी का उल्लेख कम था , दूसरे टैक्स चुकाने में सच्चे थे। टैक्स में बेईमानी की जाती है ,ऐसी चर्चा अधिक होने लगी तो सच्चे व्यक्ति भी यह करने लगे ,क्यों ? उन्हें ज्ञात हो गया ऐसा भी किया जा सकता है और धन बचाया जा सकता है। 


आज , कई तरह की बुराई ही समाचारों और मीडिया पर छाई रहती हैं। इसके बुरे प्रभाव में सर्वप्रथम यह है कि राष्ट्र और समाज में विध्यमान अच्छाइयों को इन पर स्थान नहीं मिलता है। जिससे अच्छाई ना तो प्रचारित हो रही है ना ही प्रसारित हो रही है। दूसरे जो उन बुराइयों में लिप्त नहीं है , उसकी जानकारी में बुराई आ रही है। बुराई से बचाव से के लिए जानकारी रखना अच्छा है , लेकिन हर समय और अति चर्चा हमें बुराई में घसीट लेती है। जीवन में अनेकों परिस्थिति और मन चंचलता के पल आते हैं , जो व्यक्ति को कमजोर कर उन्हें बुराई के रास्ते की जानकारी होने पर उसमें धकेल सकते हैं। जैसे शराब की दुकान होने की जानकारी किसी व्यक्ति को नहीं है तो वह ढूंढेगा नहीं। किन्तु कहीं है यह मालूम है तो कमजोर क्षण में उसके , उसे ढूंढ कर उसमें पहुँचने की संभावना होती है।



फेसबुक की उक्त पोस्ट के बारे में लेखकीय तर्क यह है कि , कम से कम भारत में ऐसे पति -पत्नी कम हैं जो परस्पर निष्ठ नहीं हैं। लेकिन ऐसी पोस्ट अधिकता में पढ़ी - लिखी जा रही हैं जो ऐसा भ्रम उत्पन्न करती हैं कि पति -पत्नी ऐसे ही होते और रहते हैं।ऐसे में आ रही नई पीढ़ी (युवा) इस गंदगी पूर्ण प्रचार आधारित मानसिकता के हो गए तो क्या होगा भारतीय सामाजिक परिदृश्य ?


वास्तव में जोक्स और कॉमेडी पावर स्टेयरिंग जैसा काम करते हैं , इनके प्रयोग से थोड़े से प्रयास में समाज की दिशा बहुत मोड़ दी जा रही है। मीडिया और समाचारों में जोक्स और कॉमेडी के माध्यम से ऐसी अपसंस्कृति और गंदगी परोसी जा रही है। जिसका सेवन युवाओं का दिमाग और चरित्र बिगाड़ रहा है। आपत्ति की जाए तो कहेंगे- यार , ये तो कॉमेडी है , हँसने के लिए इस पर गंभीर होने की जरुरत नहीं।


एक और बात लेख अप्रासंगिक नहीं है। कॉमेडी के नाम पर घर घर पहुँचे टेलीविजन के माध्यम से रही प्रस्तुतियों में इन हलकी और फूहड़ कॉमेडी पर प्रस्तुतकर्ता तथाकथित सेलिब्रिटी ऐसे पेट पकड़ के हँसते हैं जैसे हास्य की उत्कृष्टता उन्होंने पेश कर दी हो। उनका हँसना तो शायद उनके लिए ठीक भी हो उससे उन्हें धन और (भ्रम) प्रसिध्दि मिलती है। लेकिन उन प्रस्तुतियों पर हमारा हँसना क्या उचित है जबकि हम इसके लिए 1. धन व्यय 2. समय ख़राब और 3. अपनी संस्कृति विस्मृत करते हैं।
हमारा इन पर हँसना हमें क्या सिध्द करता है ?


--राजेश जैन
01-12-2014

Sunday, November 30, 2014

गौरवशाली जीवन

गौरवशाली जीवन
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जन्मा था माता पिता की आशा बन कर
जिया कर्तव्य पूर्तियों में ही लीन रह कर
अंत हुआ गौरवशाली मेरे इस जीवन का
आजीवन समाज परिवार रक्षक रह कर

त्रियासी वर्ष जीवनयात्रा दीर्घ होती है
कामना तब भी जीने की शेष होती है
बच्चों ,समाज के लिए और करने की
अपूर्ण इक्छा बीच मेरी मृत्यु होती है

चार महीने शरीर और मानसिक वेदना में
देखा सेवारत पत्नी व बच्चों को संवेदना में
संतोष मुझे यद्यपि उनका साथ छूट रहा है
अश्रु विलाप से उनके डूबता ह्रदय वेदना में

हितैषी आ आकर सहानुभूति जतलाते रहे
उदबोधनों से श्रध्दांजलि अर्पित करते रहे
गौरवशाली मेरे जीवन के बखान में लगता
मृत्यु पर समुचित शब्द न उन्हें सूझते रहे

न्याय नैतिकता और करुणा से भरपूर जीवन
देश समाज परिवार को समर्पित मेरा जीवन
अनुभव करते तसल्ली और गंभीरता से यदि
वे शीर्षक रचते एक काव्य गौरवशाली जीवन

आज जिनकी वासनाओं का अंत नहीं है
आज जिनकी कामनाओं की सीमा नहीं है
सब स्वार्थी ऐसे प्रचारित हो रहे राष्ट्र गौरव
आज सादे जीवन में गौरव देखें मंशा नहीं है

दीर्घ जीवन में परिवर्तन की कहानी देखी
उत्कृष्ट से पराभव की बनती कहानी देखी
स्वार्थ और संकोचों में मुझे मिला न साथ
तजना वह रीत बनी घिनौनी कहानी देखी

अनेक जीते ख़ामोशी में गौरवशाली जीवन
न है दुःख न समझा मेरा गौरवशाली जीवन
दुःख है निर्मम और व्यभिचार के प्रतीकों का
प्रचलन अब बताया जाता गौरवशाली जीवन

अनेक गए वैसी चिरनिद्रा में मै चला गया
साथ मेरा अपूर्ण वह सुस्वप्न चला गया
जिसमें सजता था एक सर्वसुखी समाज
स्मरण रखना एक और बुजुर्ग चला गया

आभार सभी का दिया साथ दृढ रह कर
क्षमा सभी से कभी कष्ट हुआ साथ दे कर
अंत हुआ गौरवशाली मेरे इस जीवन का
आजीवन समाज परिवार रक्षक रह कर

--राजेश जैन
30-11-2014

Friday, November 28, 2014

ज़िंदगानी

ज़िंदगानी
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दिखते जरूर तनहा हैं हम मगर
विचारों के जलसे करना आता है


दिख सकते हैं उदास कभी हम मगर
पीड़ितों की उदासी दूर करना भाता है


ना जाना उदासी या तन्हाई पर मेरी
ख़ुशी निकालना ऐसे ही मुझे आता है


फटेहाल गर दिख जाऊं न गम करना
भीतर मानवता ऊपरी से नहीं नाता है


न करना ऐतबार कहा जाऊँ असफल मैं
ऐसा असफल जीवन सार्थकता लाता है


सात हजार दिन ज़िंदगानी बची मेरी
दिल नारी चेतना के ही गीत गाता है


--राजेश जैन
28-11-2014

Tuesday, November 11, 2014

ऐसी पत्नी पाई जाती है , भाई

ऐसी पत्नी पाई जाती है , भाई
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"परफेक्ट पत्नी
ना कभी झूठ बोलती है।
ना कभी तंग करती है।
ना कभी धोखा देती है।
ना कभी शक करती है।
ना कभी शॉपिंग को जाती है।
ना कभी पैसे मांगती है।
और ना  ही दुनिया में पाई जाती है …… "

उपरोक्त एक ऐसी पोस्ट पर लेखक ने विचार किया फिर कमेंट लगाया , जो इस लेख की हैडिंग है।

आज जैसे मशीन से वुडेनवर्क से पहले के समय में , कारपेंटर लकड़ी को स्मूथ करते थे .जिससे यह कार्य किया जाता था , हमारे यहाँ उस टूल को कारपेंटर "रंदा" कहते थे।  वह एक स्मूथ लकड़ी और बीच में पैनी मेटल से निर्मित होता था।  जिन्होंने कारपेंटर को काम करते देखा है जानते हैं , जिस लकड़ी पर यह चलता है उसे छीलते हुए ,स्मूथ करता जाता है।
स्पष्ट है लकड़ी की सरफेस को स्मूथ करने के लिए , उपकरण (टूल्स) का भी स्मूथ होना आवश्यक होता है , जिसके संपर्क ,प्रेशर और श्रम से लकड़ी स्मूथ शेप लेते जाती है।

यहाँ पति या पत्नी को लकड़ी और "रंदा" के स्थान पर रखा जा सकता है , जिस तरह रंदा वाली क्षमता से रफ़ सरफेस ,स्मूथ की जा सकती है। वैसे ही पति या पत्नी किसी एक में रंदा जैसी क्षमता (या गुण ) की विद्यमानता से संपर्क में रहने वाला पति या पत्नी दूसरे में स्मूथनेस (अच्छे गुणों को ) तराश देता है।

अतः जैसा परफेक्ट पत्नी में उल्लेख किया है,  भी दुनिया में हो सकती है, जबकि पति में भी इसी तरह परफेक्ट पति वाले गुण और क्षमता हों।
यह पेज नारी सम्मान की बात करता है , अतः नारी पक्ष से लेखक यही कहेगा , अगर कोई यह मानता है कि  "परफेक्ट पत्नी  दुनिया में नहीं पाई जाती है " तो उसके लिए पत्नी अकेले पर दोषारोपण न्यायोचित नहीं है , अगर पत्नी की यह नस्ल लुप्तप्रायः है तो इसके लिए पति भी दोषी है , जो स्वयं परफेक्ट नहीं रह गया है।

अगर हम पति हैं , पत्नी में परफेक्शन देखना चाहते हैं तो हम अपने में परफेक्शन लायें अर्थात
"परफेक्ट पति बनें .....
ना कभी झूठ बोलें ।
ना कभी तंग करें ।
ना कभी धोखा दें ।
ना कभी शक करें।
साथ ही शॉपिंग को जायें ।
परिवार व्यय के लिए आवश्यक पैसे न्याय से अर्जित और उपलब्ध करायें।
तब  परफेक्ट पत्नी  इसी दुनिया में ही हमें मिलेगी  …… "

--राजेश जैन
12-11-2014

Monday, November 10, 2014

गर्ल्स -बॉयज समान क्षमतावान हैं

गर्ल्स -बॉयज समान क्षमतावान हैं
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अपने भाई -बहन , माँ -पिता , पति/पत्नी , पुत्र -पुत्री या अन्य परिजन और घनिष्ठ मित्रों सभी में जो बात हम देखना चाहते हैं वह होती है  .... "उनका अच्छा चरित्र" .  अपवाद ही कोई होगा जो इस बात से असहमति जताएगा। जब हमारे सभी प्रियजनों से हमारी ऐसी अपेक्षा होती है तब क्यों हम स्वयं चरित्रवान रहने में यथोचित गंभीरता नहीं रखते? जबकि हम स्वयं भी किसी के भाई /बहन , माँ /पिता , पति/पत्नी या  पुत्र/-पुत्री होते हैं।

जब हम अपनी संस्कृति , चरित्र और अपेक्षित मर्यादा खोते हैं तो अपने परिजनों और घनिष्ठ मित्रों को निराश और दुःखी करते हैं. जब हम अमर्यादित आचरण करते हैं तब अपने चपेट में ले दूसरों के चरित्र और संस्कृति से पतन के लिये जिम्मेदार हो जाते हैं। उनके चारित्रिक पतन से उनके परिजन दुःखी और निराशा में जीने  को बाध्य होते हैं।  अनायास ही हम अनेकों को दुःखी करने के दोषी होते हैं।  एक दूसरे से इस तरह प्रभावित हो यह निराशा और दुःख हमारे समाज में फैलता है। 

समाज में दुःख और निराशा का वातावरण हमें दुःखी करता है। इस सामाजिक स्थिति के लिए हम कई तरह दोषारोपण अन्य पर करते हैं। और परस्पर आलोचना का सिलसिला चला कर आपसी वैमनस्य उत्पन्न करते हैं। हम इस तरह के अंधत्व का परिचय देते हैं जिसमें हम स्वयं भी सामाजिक बुराइयों का कारण हैं , अपने में निहार नहीं पाते हैं।

हम अन्याय भी करते हैं . जिस अपराध के स्वयं दोषी होते हैं , उसका दंड दूसरे पर थोपते हैं।  कहीं हम पुरुष ग्रुप बन सारी समस्या के लिये नारी व्यवहार , आचरण या उनके परिधानों को जिम्मेदार बताते हैं। कहीं हम धर्मविशेष का समूह बन अन्य धर्मावलम्बियों पर प्रहार करते हैं।  कहीं भाषा और क्षेत्र की सीमा रेखा खींच अन्य को आधिपत्य में लेने की चेष्टा करते हैं।

आवश्यक होता है आत्मनियंत्रण, और इससे अपनी अपेक्षाओं , आचरण और कर्म पर मर्यादित सीमा रेखा खींचना।  दूसरे क्या कर रहे हैं , वैसा ही करना ना तो किसी के लिए आवश्यक है ना ही आधुनिकता है।  सच्ची आधुनिकता वह होती है जो पूर्व समय की बुराइयों से वर्तमान को मुक्त कराती है।  हम सद्चरित्रता ,अच्छे आचरण और कर्म में विश्वास रखते हुये इसे अपने में लायें और इसका प्रवर्तन करें यही कई सामाजिक बुराई और समस्या का समाधान हो सकता है। यही आधुनिकता है।  प्रचारित आधुनिकता जिसमें हम ज्यादा स्वच्छंद हो व्यवहार और दुष्कर्म करते हैं , कतई आधुनिकता नहीं है एक मनोरोग है। पाश्चात्य मनोरोगियों से हमारे समाज और देश में फैला एक इन्फेक्शन है।

हम दोषारोपण और पर-आलोचना पर ना जाकर स्वयं सच्चे और अच्छे बने।  हमने अब तक क्या ख़राब कर लिया है इस की चिंता भी छोड़ें . अभी से भी हम अच्छा करना आरम्भ करें तो स्वहितकारी और सर्वहितकारी हो सकता है।  अच्छा करने की क्षमता और वैचारिकता के लिए गर्ल्स -बॉयज सभी समान हैं ,समान प्रतिभावान भी हैं।  अपनी प्रतिभा (टैलेंट) को समाज हित मानवता हित में लगा कर स्वयं अपने पर,  अपने जीवन पर गौरव बोध अनुभूत कर सकते हैं ।  लेखक की यही शुभकामना है .यही लेख का उद्देश्य है।  "आओ हम आज से आधुनिक बनें। "
--राजेश जैन
11-11-2014

Tuesday, November 4, 2014

फेसबुक और नारी

फेसबुक और नारी
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फेसबुक एक ऐसा अनुपम बैठे बिठाये नई जनरेशन को दुनिया से इंटर - एक्टिवली जुडने का साधन मिला है. इसने बड़ी सी इस दुनिया को छोटा कर दिया है।
विज्ञान के दिए हर आविष्कार और साधन मनुष्य सुविधा और जीवन आनंद के लक्ष्य से लाये जाते हैं।  फेसबुक भी इसका अपवाद नहीं है.

लेकिन जिस दुनिया में आठ अरब से अधिक मनुष्य रहते हैं।  उसमें अच्छी वस्तु के भी हानिकारक प्रयोग के रिवाज हो जाते हैं।  रचनात्मक उपलब्धियों के लिए विशाल स्कोप जिस फेसबुक में है। उसका प्रयोग एक दूसरे के अहित के लिए भी किया जा रहा  है। दूसरा हमारे अहित का प्रयास करे यह तो होता है , किन्तु अनजाने में हम  स्वयं ही अपना अहित कर रहे हैं। पेज नारी चेतना का है इसलिए नारी किस तरह फेसबुक से स्वयं के लिए समस्यायें बढ़ा रही हैं उस पर छोटी  एक चर्चा इस लेख के माध्यम से रखने का प्रयास है।

1. फेसबुक पर नये -नये फोटो अपलोड कर गर्ल्स अपनी प्रशंसा से खुश होती हैं। जबकि उन्हें मालूम नहीं कि मानसिक ग्रंथि के शिकार फोटोशॉप से चेंज कर कहाँ कहाँ उसे प्रदर्शित करते हैं और उनपर किन किस्मों के घटिया कमेंट्स दर्ज किये जाते हैं।

2. फेक id के साथ गर्ल्स से संपर्क बढ़ा कर , रोगी मानसिकता वाले उनसे प्यार का स्वांग कर ब्लैकमेल भी करने लगते हैं।

3. बेकार की बातों पर चर्चा में पड़ गर्ल्स अपना समय और दिमाग (घटिया कमेंट्स से आहत हो ) ,ख़राब करती हैं। जिससे उनकी पढाई प्रभावित होती है।

सारी ये बातें लेखक के अपने अनुमान हैं जो फेसबुक प्रयोग के बीच ही समझे गए हैं । अब  फेसबुक के प्रयोग का एक दशक बीत रहा है। नारी ने स्वयं कई तरह के छल इस पर निश्चित अनुभव किये हैं. फेसबुक के प्रयोग में थोड़ा चेंज लाकर गर्ल्स यदि फोटो और हलके हँसी -मजाक की पोस्ट के स्थान पर अपने अनुभवों के आधार पर इस तरह की पोस्ट लाएं , जिससे नई आ रही गर्ल्स को सतर्क कर उन पर आशंकित छल और शोषण से बचाया जा सके तो यह अच्छी वस्तु का अच्छा प्रयोग सिध्द हो सकता है।

ऐसा करने पर नारी शोषण की घटनाओं में कमी लाई जा सकती है।  साथ ही घर बैठे ही परोपकार का पुण्य भी अर्जित किया जा सकता है।  वास्तव में नारी में  चेतना और उनका सम्मान , नारी के स्वयं के महत्वपूर्ण योगदान के बिना हासिल नहीं हो सकता है।

नारी जब अपने अनुभव आधारित कुछ पोस्ट करें तो एक संभावना को ध्यान में अवश्य रखे जिससे कोई उन्हें ही बदनाम करने का प्रयास ना कर सके।  अतः स्व-अनुभव में अपनी कल्पनाशक्ति से पोस्ट को लघुकथा और लेखकीय या काव्यात्मक रूप में रखे तो बेहतर रहेगा। इससे नारी चेतना  जागृति के साथ ही स्वयं में सृजनशीलता गुण विकसित हो सकता है।

--राजेश जैन
04-11-2014

Friday, October 31, 2014

गर्लफ्रेंड - अच्छी ?

गर्लफ्रेंड - अच्छी ?
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विवाह करने की आयु ज्यों-ज्यों बड़ी हुई। गर्लफ्रेंड- बॉयफ्रेंड शब्द और ऐसे व्यक्ति अस्तित्व में आये।
आज  गर्लफ्रेंड पर लेख है।
फ़िल्मी लोगों ने गर्लफ्रेंड बनाने की प्रवृत्ति बढाने में समाज में दुष्प्रेरणा दी।
बिना साथ निभाने की गंभीरता से गर्लफ्रेंड बनाना (flirt)  एक रिवाज हो गया।
गंभीर होते तो गर्लफ्रेंड ही जीवन संगिनी बन जाया करती।
किन्तु गर्लफ्रेंड मन-बहलाव का साधन बनी रह गई। और फिर कई कई गर्लफ्रेंड बनाना एक होड़ हो गई।
निश्चित ही मनोविज्ञान में इस प्रवृत्ति के लिए कोई psychological disorder टर्म उपयोग होती होगी।
जब कई कई गर्लफ्रेंड एक ही समय में या अलग अलग समय में बनाने के यत्न किये जाते हैं ,
जिसके लिए पढाई - चरित्र और व्यवसायिक भविष्य तक की चिंता नहीं रहती है।
चिंता सिर्फ कैसे गर्लफ्रेंड बनायी जाए यह रहती है तब लगता है ....
जो लड़की गर्लफ्रेंड होती है वह अच्छी होती है।

लेकिन गर्लफ्रेंड बनाने के जैसे यत्न हम करते हैं वैसे ही अन्य युवक जब करते हैं और
हमारी बहन को गर्लफ्रेंड बनाते हैं तब हम क्या सोचते और करते हैं ?
दोनों ही दृष्टिकोण से विचार कर इस प्रश्न का उत्तर स्वयं से लें ,

क्या गर्लफ्रेंड - अच्छी होती है ?

-- राजेश जैन
01-11-2014

Thursday, October 30, 2014

स्लो पॉइज़न

स्लो पॉइज़न
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जिनका प्रसार जितना ज्यादा होता है वे चीज ज्यादा क्षेत्र में प्रभाव डालती हैं।  जल संसार के बहुत हिस्से में और वायु हर हिस्से में व्याप्त होती है। अतः यदि कोई रोग के रोगाणु इन के द्वारा फैलने वाले हों तो वे रोग ज्यादा प्राणियों को अपने घेरे में लेते हैं।


फिल्मों ने जब अस्तित्व लिया तब से उसका प्रसारण क्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया।  ऐसे में फिल्मों में अच्छाइयाँ होती तो देखने वाले व्यक्तियों (और समाज) में अच्छाइयाँ क्रमशः बढ़ती जाती। किन्तु फिल्मों ने , और उससे जुड़े लोगों ने बुराइयाँ ही समाज को दीं। कह सकते हैं फिल्मों ने धीमा विष (स्लो पॉइज़न) वाला प्रभाव समाज और संस्कृति पर डाला , जिससे मनुष्य की दृष्टि ,सोच और कर्म दुष्प्रेरित हुये।


मनुष्य के अंग -प्रत्यंग की पूर्णता उसके स्वास्थ्य , सौंदर्य और शक्ति के रूप में देखी जाती थी।  स्लो पॉइज़न के तरह फिल्मों ने ( अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , नेट भी) मानव दृष्टि को खराब किया। इन पर  अंग -प्रत्यंगों को बेहद घिनौने और वीभत्स ढंग से दिखाया गया।


आज स्थिति यह है कि अंग -प्रत्यंगों को सिर्फ वासनामयी दृष्टि से देखा जाने लगा है।  जिनकी पूर्णता देखे जाने पर साहित्यकार वीर और श्रृंगार रस के साहित्य की रचना करते थे। साहित्य में श्रृंगार रस के माध्यम से भी नारी -पुरुष के प्रेम प्रसंग वर्णित होते थे , जिसमें इन्हें गरिमामय आवरण में प्रस्तुत किया जाता था। इस तरह
साहित्य समाज में सुख सुनिश्चित करता था। बुराइयाँ प्रसारित नहीं करता था  .


अब धन लोलुप उनको वीभत्स रस का उदाहरण बनाकर दर्शकों को परोसते हैं। दर्शकों में आये दृष्टि दोष के कारण अब हर मनुष्य एक दूसरे को सिर्फ नारी और पुरुष की दृष्टि से देख रहा है। एक दूसरे में दिखने वाला भाई -बहन या अन्य रिश्तों का सम्मान दृष्टि से हट रहा है।


क्या हमें यह दृष्टि दोष दूर करने के लिए काम नहीं करना चाहिए ?


--राजेश जैन
30-10-2014

Saturday, October 25, 2014

रेप -कौन जिम्मेदार ?

रेप -कौन जिम्मेदार ?
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राजनीतिज्ञ या अन्य चर्चित व्यक्तियों के वक्तव्य और टिप्पणियों में अनेकों बार रेप के लिये पीड़िता को  जिम्मेदार बता दिया जाता है। साधारण व्यक्ति की हजार भली बातें ,भले आचरण या कर्म मीडिया के कवरेज से चूक जाते हैं , किन्तु किसी राजनीतिज्ञ या अन्य चर्चित व्यक्तियों की ऐसी बातें चैनलों पर विस्तार से चर्चा पाती हैं . जिसमें ठंडा होने की परिणिति पर पहुँचने के पहले तक श्रोता और दर्शक का बहुत समय, बिना समस्या के समाधान किये व्यर्थ किया जाता है।
चर्चित व्यक्तियों का ऐसा कहने के पीछे अपने तर्क और पारम्पारिक पुरुष प्रधान सोच होती है। कहीं-कहीं चर्चा में बने रहना या उभरना भी लक्ष्य होता है।  नारी संगठनों में और मीडिया पर हर ऐसी टिप्पणी पर बवाल मचता है। फिर नारी पर अगले किसी अत्याचार के चर्चित होने तक के लिये शांति छा जाती है। जबकि नारी के अत्याचारों की विडंबना यह है कि हर मिनट कहीं ना कहीं , किसी ना किसी तरह का अत्याचार उस पर होता है। लेकिन किसी की वेदना से भी लाभ अर्जित कर लेने की आज की दुष्प्रवृत्ति के चलते , इनमे से बिरले ही कुछ मीडिया पर चर्चित होते हैं , जिनसे मीडिया को आर्थिक लाभ मिलने की संभावना होती है।
रेप क्या है? और कौन जिम्मेदार हैं ?
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लेखक की दृष्टि में पति -पत्नी के रिश्ते में (वह भी परस्पर सहमति से ) को छोड़ कर किया गया हर सेक्स , रेप होता है। जिस सम्बन्ध को समाज में सार्वजानिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता ऐसे संबंध में नारी की तात्कालिक सहमति से किया सेक्स भी रेप ही होता है , क्योंकि इन संबंधों की जानकारी समाज में हो जाने पर  कठिन और विपरीत प्रभाव नारी जीवन पर ही पड़ता है, लिप्त पुरुष  पर नहीं पड़ता है।
जहाँ नारी सहमति ना हो वहाँ किया गया सेक्स तो निश्चित ही रेप है और इसके लिए जिम्मेदार, करने वाला पुरुष है . क्योंकि यह अत्याचार है जो पुरुष के द्वारा किया गया है। किन कारणों से पुरुष इस अत्याचार को प्रेरित हुआ है यह विचारणीय कतई नहीं है , क्योंकि अत्याचार हर परिस्थिति में निंदनीय है।  और मानव सभ्यता पर कलंक है।  पुरुष अपने अनियंत्रित होने का दोष किसी भी तर्क पर नारी पर डाले यह न्यायोचित नहीं है।
निहत्थे पर हथियार से वार जिस तरह न्याय नहीं माना जाता , उसी तरह नारी को सम्मान और सुरक्षा (सुरक्षा बोध ) नहीं दिलाते किया गया संबंध रेप है। नारी इन  संबंधों के साथ तब ही सुरक्षित और सम्मानित है जबकि वे विवाह उपरान्त पति -पत्नी के बीच हैं।
यद्यपि पीड़ित नारी को सुरक्षा और सम्मान , समाज में होना चाहिये। क्योंकि ऐसा शोषण एक बलवान का शक्तिहीन पर होता है। शक्तिहीन से संवेदना  और क्षमा होनी चाहिये। और बलवान का अपराध अक्षम्य होना चाहिये , किसी भी तर्क से बचाने की चेष्टा ही अपराध का दुस्साहस बढ़ा देता है।


--राजेश जैन
25-10-2014

Wednesday, October 22, 2014

हमारी आधुनिक दीपावली


हमारी आधुनिक दीपावली
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दीपावली में प्रज्वलित दीप श्रृंखला मनभावन होती हैं। पटाखों की रंग-बिरंगी प्रकाश की छटा लुभावनी होती है।
 लेकिन सभी आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं होते हैं कि दीप श्रृंखला और रंग-बिरंगी पटाखों की छटा अपने द्वार -आँगन पर सजा सकें. उनकी लाचारी की अनुभूति तब और बढ़ती है , जब किसी को इन पर (डेकोरेशन पर) अति धन -व्यय करते देखते हैं।  हमारे निर्धन देशवासियों की इस वेदनाकारी अनुभूति को हम कम कर सकते हैं। अपने दीपावली मनाने के ढंग में न्यायिकता लाकर।

आधुनिक समय की हमारी दीपावली ऐसी मननी चाहिए -
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घर द्वार में साफ़ सफाई और पुताई की जानी चाहिए। दीप कम से कम (हो सके तो एक प्रति द्वार) प्रज्वलित किये गये हों। हर द्वार का एक दीप भी ग्राम -नगर में सयुंक्त रूप से दीप श्रृंखला बना देता है। अन्धकार कम कर देता है। कम आवाज वाले और कम मात्रा में पटाखें फोड़े जाने चाहिए। ना फोड़े जायें तो और भी प्रशंसनीय होगा। घर घर में ही परंपरागत पकवान बनाये जाने चाहिए। इस तरह दीपावली मन जायेगी।

धन लाभ (लक्ष्मी वृध्दि )
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दीप में जल जाने वाला तेल-घी बचेगा जिसे अन्य उपयोगी कार्य में लगाया जा सकेगा । जीव -हिंसा कम होगी . बारूद बरबादी कम होगी। मिलावटी मिठाई के स्वास्थ्यगत बुरे प्रभाव से बचेंगे।  (इन व्यवसाय से जुड़े व्यक्तियों से क्षमा सहित ) . और सबसे बड़ा पुण्य दीन-हीनों की मानसिक पीड़ा बढ़ने से बचाने का मिलेगा।

पर्व उपयोगिता
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यही भाईचारा है , जो समाज को खुशहाल बनाता है। दीपावली पर्व से सामाजिक खुशहाली बढ़नी चाहिए। यही उत्सवों की उपयोगिता होती है।

--राजेश जैन
21-10-2014
 

Monday, October 20, 2014

हम पर है ..

हम पर है ..
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मल्टी नेशनल कम्पनीज और कॉल सेंटर में आज युवाओं को जॉब के अवसर ज्यादा हैं।  देश के कुछ महानगर में इनके ऑफिस ज्यादा हैं। इनमे ऐसे युवाओं की जिनमें अधिकाँश अविवाहित हैं बहुसंख्या हैं। ज्यादातर ऐसे युवा फ्लैट्स किराये पर लेकर चार छह की सँख्या में इनमें रहते हैं। इन कम्पनीज में वीक-एंड दो दिनों का होता है। शुक्रवार की रात से संडे तक युवा मौज -मजे , पार्टी पीने खाने में समय बिताते हैं। उम्र ऐसी होती है , जिसमें दैहिक संबंधों का आकर्षण भी मन -मस्तिष्क पर छाया रहता है। कुछ युवा जीवन भर निभाने की गंभीरता के बिना इस तरह के संबंधों में लिप्त हो जाते हैं।  ये कृत्य ना तो उनके माँ -पिता के घर को और ना ही भविष्य में बनने वाले स्वयं उनके परिवारों में सुखदता के लिए अनुकूल नहीं होते हैं।  बिगड़ी ये नीयत , दृष्टि , कर्म और चरित्र उनके परिवार की शांति और प्रगति पर ग्रहण बन लगता है। परिवार और सपने बिखरने के कारक इकठ्ठे होते हैं।

मनुष्य जीवन सामान्यतः 70 वर्ष अधिक का होता है।  दो -चार वर्ष की यह स्वछँदता अगर सुख भी देती हो (लेखक के अनुमान में सुख की शंका है) , तब भी वह अनुशंसनीय नहीं है। हमारी संस्कृति भी ऐसा चरित्र अनुमोदित नहीं करती है।  सामाजिक बुराइयाँ और समस्या भी इससे बढ़ रही हैं। पाश्चात्य इस जीवन शैली में जीवन के 20 -30 वर्ष अवसाद , चिंता और कई तरह के रोगों के कष्ट में बिताने पड़ते हैं। परिवार बिखरने के बुरे प्रभाव मासूम बच्चों पर पड़ते हैं।  

आज पाश्चात्य देशों में कम ही परिवार हैं, जिनमें बच्चे अपने सगे माँ -पिता की छत्रछाया में पल-बढ़ रहे हैं। पाश्चात्य प्रौढ़ इस जीवन शैली के बुरे परिणामों को जान कर अपने बच्चों लिये भारतीय संस्कृति के निर्वहन होते देखना चाहता है।  लेकिन सामाजिक यह रोग वहाँ नासूर बन गया है। जिसका उपचार कठिन है। वह गहन पछतावे की मानसिकता में जीवन बिताने की लाचारी भोग रहा है।
हमारे देश में सामाजिक यह रोग नया ही है। इसका उपचार अभी संभव है। हम पढ़े -लिखे हैं , दो प्रश्नों के उत्तर स्व-विवेक से प्राप्त कर सकते हैं --

1. क्या दो -चार वर्ष के सुखभ्रम के लिए आगामी 30-40 वर्ष के जीवन सुख को दाँव पर लगा देना बुध्दिमानी होगी ?
2. हमारे समाज में नासूर से रोग के खतरे के लिए स्वयं जिम्मेदार बनना क्या उचित है ? क्या हमारे राष्ट्रीय ,सामाजिक और पारिवारिक दायित्व की दृष्टि से ऐसा आचरण उचित है?

हम पर है , हम चिंतनीय पाश्चात्य सामाजिक परिदृश्य से चेत सकते हैं , या स्वयं ठोकर खाने के बाद हानि उठा कर समझने पर छोड़ते हैं। आशंका है , दूसरी स्थिति में समझना अपूरणीय क्षति सिध्द होगा।

--राजेश जैन
20-10-2014 

Saturday, October 18, 2014

आज

आज
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लिखती बहुत वजनी लेखनी मेरी
विचार आया लिखूँ हल्का सा आज

पल पल बीतता व्यस्तताओं में गुँथकर
भूल उन्हें हर पल में जियें खुशियाँ आज

खुशियाँ कुछ जी लें अपने लिये हम
बाँटे कुछ खुशियाँ वंचितों में भी आज

नित नहीं तो मिल पायेंगे वे और हम
जो संयोगों से मिल रहे सभी हैं आज

हम हैं वे न होंगे या वे होंगे हम कल नहीं
सहारा दे-ले कर खुशी के पल जियें आज

--राजेश जैन

बचपन

बचपन
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घर आँगन और पास पड़ोस ही
मेरे बचपन की पूरी दुनिया थी

माँ आँचल और पापा गोद में
सुखद बीतती सुबह शाम होती थी

माँ -पापा ही रहे भगवान मेरे
टीचर महान बचपन के सच होते थे

जन्मी कहीं पली जबलपुर में
नहीं कोई जीवन सपने तब सजे थे

छोटे से मन और हाथ पाँव के
चंचल छोटे छोटे खेल होते थे

माँ आँचल पापा हाथ सिर पर मेरे
कटु जीवन यथार्थ से परे रखते थे

माँ खिलाती गोद बिठाकर वही
सबसे स्वादिष्ट और मीठे लगते थे

बीत रहा है अब बचपन मेरा
संसार जीवन बड़ा दिख रहा है

सच्चाई ,निर्मलता जो बचपन सी
मन में मेरे जीवन मै रखना चाहूंगी

आ बसा जो सपना अब मन में
भारत नाट्यम में दक्षता दिखाऊँगी

-- राजेश जैन
18-10-2014

Thursday, October 9, 2014

परिवार


परिवार
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टैक्सी से उतरते हुये रीतेश , भाड़ा भुगतान करते हुए सौ रुपये टिप देते हुए ड्राइवर से कहता है , भाई न्याय और परिश्रम से कमाता हूँ। ये टिप के पैसे अपने परिवार पर होने वाले खर्चे में कटौती कर तुम्हें दे रहा हूँ , इसे अपने परिवार की ख़ुशी पर खर्च करना। महेंद्र (ड्राइवर) कुछ विचित्र सी दृष्टि से रीतेश को निहार कर रुपये ले लेता है।
शाम को फल की दुकान पर वह कुछ फल खरीद कर वापिस टैक्सी की तरफ बढ़ता है।  तब उसका साथी राम पूछता है , क्या पैक करवाया है , आज क्या घर पर पियेगा -खायेगा ? महेंद्र - मुस्काते और बचते हुए टैक्सी में आ बैठता है।
घर पर पहुँच द्वार खटखटाने पर पत्नी निशा  पति को जल्दी लौटा देख आश्चर्य मिश्रित भय से पूछती है -क्या हुआ जी , तबियत ठीक नहीं है क्या ? प्यार से निहारते जब महेंद्र कहता है , नहीं आज ज्यादा ठीक है।  पति के स्वर में नशे की हालत का अभाव उसे हर्षित करता है।
निशा के प्रसन्न मुखड़े को देख महेंद्र सोचता है बिना पैसे से भी परिवार खुश रहता है क्या ? अभी तो दो घंटा का समय अधिक ही देता देखा है , निशा ने।
अंदर सात साल की आरु , पापा को देख उससे गले आ लगती है। महेंद्र ,उसे लिफाफे में से निकाल फल देता है।  कहता है ले इसे खाकर देख कैसा है ?
आरु - आश्चर्य से महेंद्र को देखती है , मम्मी की तरफ देख शिकायती स्वर में कहती है - मम्मी , पापा कच्चा आलू खाने कह रहे हैं ?
निशा को बात समझने में समय लगता है , आरु से कहने के पहले , महेंद्र की ओर नयनों में प्यार भर देखती है।  महेंद्र को शादी के बाद इन आँखों में ऐसा भाव पहली बार अनुभव होता है। वह मन से रीतेश को दुआ देता है , उसके कान में स्वर सुनाई देता है , आरु -खा कर देख मीठा है ,आलू नहीं है ……

--राजेश जैन
10-11-2014

कंप्यूटर साइंस की भाषा में

कंप्यूटर साइंस की भाषा में
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सॉफ्टवेयर (Software )
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संस्कृति और संस्कार उस सॉफ्टवेयर(एप्लीकेशन)  जैसे होते हैं  जिसके होने से कंप्यूटर इनपुट पढता है , प्रोसेस करता है और आउटपुट देता है ।
सॉफ्टवेयर में बग होने पर प्रोसेसिंग और रिजल्ट त्रुटिपूर्ण (इन-करेक्ट) होते हैं। इसलिए जिस प्रकार सॉफ्टवेयर की उत्कृष्टता , सही परिणाम की गॉरंटी सुनिश्चित करती है उसी तरह 'संस्कृति और संस्कार' में उत्कृष्टता के होने से सुखमय जीवन सुनिश्चितता का परिणाम प्राप्त होता है।
हार्डवेयर (Hardware)
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"व्यवस्था और बाह्य वैभव" उस कंप्यूटर हार्डवेयर जैसे होते हैं , जिसमें सॉफ्टवेयर इंस्टालेशन के बाद कंप्यूटर की तीव्रता का लाभ मिल सकता है।  जब हार्डवेयर  सॉफ्टवेयर दोनों ही उत्कृष्ट होते हैं तब ही मानवता और सभ्यता विकसित होती है।
बाह्य वैभव की अति होने से पाश्चात्य देशों में सुविधा और भोग लोलुपता बढ़ गई है . कह सकते  हैं , हार्डवेयर डिफेक्टिव हो चला है या अति एडवांस  हो गया है । वहाँ पारिवारिक प्रेम समाप्त होता जा रहा है। जिससे व्यक्ति कई अवसरों पर बिलकुल एकाकी अनुभव करता है , उसे निस्वार्थ चाहने वाला अपना कोई आसपास नहीं दिखता है।
ऐसे में भारतीय संस्कृति की उत्कृष्टता उन्हें स्मरण में आती है। जिसमें परस्पर त्याग -दया का भी फ्लेवर होने से भाईचारा और आपसी प्रेम (अनेकों रिश्तों में ) प्रवाहित रहता है। जिसमें मुश्किल की घड़ियों में भी जीवन में कोई असहाय अकेला अनुभव नहीं करता है।
बैकवर्ड कम्पेटिबिलिटी (Backword Compatibility)
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पाश्चात्य देशों में उल्लेखित हार्डवेयर एडवांसमेंट के कारण , बैकवर्ड कम्पेटिबिलिटी इशू होने से भारतीय संस्कृति रूपी सॉफ्टवेयर इंस्टालेशन संभव नहीं रह गया है।
वायरस अटैक ((Virus Attack)
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हम  उत्कृष्टता का लाभ लेते रह सकें इसके लिए आवश्यक है कि अपने पास उपलब्ध सॉफ्टवेयर ( भारतीय संस्कृति ) में बाह्य ख़राब प्रभाव का आक्रमण (वायरस अटैक) ना होने दें।
अन्यथा वहां हार्डवेयर डिफेक्टिव और यहाँ सॉफ्टवेयर डैमेज। सच्चा जीवन सुख कहीं भी न रहेगा। तब -
"कहाँ रहने की सलाह देंगे हम , अपनी नई (आने वाली ) पीढ़ी को ?"
--राजेश जैन
09-10-2014