Sunday, June 29, 2014

सुखी जीने की कला

सुखी जीने की कला
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जीवन में बहुत कुछ ना पाकर भी
और बहुत अधिक कुछ खोकर भी
सुखी जीने की कला सीखी जिसने
गया वह सार्थक जीवन जीकर ही

ज्यों जीवन है बढ़ता जाता
त्यों अंग प्रत्यंग खोता जाता *
यों तो अर्जित करता ज्ञान धन
किन्तु आयु कर्म घटता जाता

रूप मिला वह नहीं सधता कभी
जब उपाय साधने के करते सभी
ज्यों ज्यों जीवनक्रम बढ़ता जाता
पाना-खोना सब यों ही चलता है

आयु साथ जो बढ़ती है
मित्र, वह एक ही वस्तु है
परोपकार करने की आदत
मनुष्य जीवनभर सजती है

खूब करें हम नेकी सब
जीवन ख़ुशी बाँटे सब
बुराई समाज घटाने को
संकल्प सभी अब लेलें सब

जीवन में बहुत कुछ ना पाकर भी
और बहुत अधिक कुछ खोकर भी
सुखी जीने की कला सीखी जिसने
गया वह सार्थक जीवन जीकर ही

--राजेश जैन
30-06-2014

Saturday, June 28, 2014

स्वयं बनो तुम आसमान सा

स्वयं बनो तुम आसमान सा
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उड़ चुके अनेकों ,  
थक लौटे सब धरती पर  
न टिक सके आसमान पर  
तब भी शुभकामनायें मेरी    
तुम टिको आसमान पर

सूरज आता नित
छा जाता आसमान पर
अस्त होता वह थककर
चन्द्रमा पखवाड़े भर दिखता
फिर ओझल रहता आसमान पर

गर बुलंद हैं अपने संकल्प
जा सकते हो आसमान पर
आओगे तुम थक लौटकर

इसलिए छोड़ो चाहत
उड़ने की आसमान पर
और उठना चाहो ऊँचा तो
कद  बढ़ाओ अपना ऊँचा और
स्वयं बनो तुम आसमान सा

-- राजेश जैन
29 06 -2014

Friday, June 27, 2014

नारी क्या चाहती है ?

नारी क्या चाहती है ?
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"नारी चेतना और सम्मान रक्षा "  यद्यपि नारी देह के चित्रों की प्रदर्शनी नहीं होने से इसका प्रसारण क्षेत्र इतना विस्तृत नहीं है , जितना ऐसी प्रदर्शनी वाले पेजेस को मिलता है , किन्तु डेढ़ वर्ष की इसकी यात्रा में कुछ प्रबुध्द व्यक्तियों ने इसमें रूचि ली है। लेखक के नारी सम्मान के लिए लिखे लेखों पर कुछ अच्छी टिप्पणियाँ आती रही हैं हैं , कुछ प्रश्न भी आये हैं।  एक प्रश्न पर आज का आलेख लिखूंगा , प्रश्न है ?

नारी क्या चाहती है ?

अनुमान से उत्तर है . सर्वोपरि इस देश की नारी अपने आचरण (चरित्र) को उसी मानकों पर परखा जाना चाहती है जिस पर पुरुष को परखा जाता है।  हमारी संस्कृति में नारी और पुरुष दोनों की समान सद्चरित्रता के आदर्श कहे गए हैं किन्तु हमारे समाज में पुरुष चरित्रहीनता को बहुधा अनदेखा या ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता , जबकि नारी से आदर्श चरित्र की अपेक्षा की जाती है।

मानकों की समानता दो तरह से संभव होती है …

1 - नारी और पुरुष दोनों आदर्श चरित्र को निभायें , और दोनों की ही चरित्रहीनता को एक ही सामाजिक सजा प्राप्त हो।
2 - पुरुष जैसी नारी को भी स्वच्छंदता की अनुमति हो जाये।

पहले दूसरी को क्यों अस्वीकार्य किया जाना चाहिये ? इस पर उल्लेख करें।  पुरुष और नारी दोनों को लगभग एक जैसी स्वच्छन्दता पाश्चात्य देशों में मिली है .वहाँ पर पारिवारिक अस्थिरता की घटनायें आम हैं। परिवार टूटते जुड़ते रहते हैं। बच्चे कभी अपनी माँ और  अन्य पिता के साथ या पिता और  अन्य माँ के साथ पलने को विवश होते हैं।  अपने वास्तविक माता पिता के साथ लालन-पालन से वंचित उच्च संस्कारों से वंचित होते हैं।  वहाँ धन और सुविधाओं से भले ही जीवन सुगम होता हो किन्तु मानसिक सुख जो एक परिवार जुड़ाव से भारतीयों को मिलता है/था।  वह उस समाज में उपलब्ध नहीं होता है। इसलिये चरित्र मानक हम पाश्चात्य जैसे शिथिल (रिलैक्स) नहीं कर सकते।  वहाँ पोर्नस्टार को भी धिक्कारा नहीं जाता , उसे प्रोफेशन जैसा महत्व ही दिया जाता। लेकिन कम से कम भारत की इस पीढ़ी तक कोई माँ-पिता  अपने पुत्र -पुत्री को या भाई -बहन अपने बहन-भाई को इस पेशे में देखना पसंद नहीं करता।

अब पहले मानक पर आते हैं , जो इस देश की संस्कृति है।  भारतीय नारी यही चाहती है कि चरित्र की जिन  सीमांओं  में भारतीय परिवार पुत्री -बहन या पत्नी को देखना चाहता है , उन्हीं सीमाओं में पुत्र -भाई और पति को भी रखा जाये।  पुरुष जब इस तरह से मर्यादित होगा तो घर में और घर से बाहर के विचरण में वह वातावरण मिलेगा जिसमें नारी सुरक्षित होगी और उसको भी यथोचित सम्मान मिल सकेगा।

नारी और क्या चाहती है , लेखक तो आगे लिखेगा ही लेकिन पुरुष होने से वह एक अनुमान ही होगा। इसलिए अनुरोध है कि इस लेख को पढ़ने वाली नारी अपनी लेखनी से लिख कुछ पोस्ट या कमेंट करें , या लेखक को मैसेज करें , ताकि वह अनुमान से बढ़कर यथार्थ बन सके।  

--राजेश जैन
28-06-2014

Thursday, June 26, 2014

यथोचित संभाल

यथोचित संभाल
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सिने जगत अस्तित्व में आने के बाद हर दौर में वहाँ की कुछ नारियाँ और पुरुष को वह लोकप्रियता प्राप्त हुयी है , वह आकर्षण उनका रहा है कि अभिनेत्री हो तो देश की पुरुष बाँहें और अभिनेता है तो नारी बाँहें फैलकर उनसे आलिंगनबध्द होने को बेताब हुई। यह एक तरह का सम्मोहन होता है , जो फिल्मों के व्यापक प्रसारण होने से पैदा किया जा सकता है।  सिने जगत के अस्तित्व में आने के बाद पत्र-पत्रिकाओं और उपन्यास या जीवनी तरह के साहित्य में अन्य लोगों (महान) को पढ़ने की प्रवृत्ति भी जाती रहीहै. अधिकांशतया इन्हीं लोगों को पढ़ा देखा जाने लगा है। ऐसी सफलतायें किसी और क्षेत्र के व्यक्तियों को प्राप्त करने में पूरा जीवन समर्पित करने पर भी नहीं मिल पाती है , जो इन्हें कुछ फिल्म या कुछ ही वर्षों की फिल्मों से मिलती है।

लेखक पिछले कई लेखों में देश के सामाजिक वातावरण और नारी शोषण में फिल्मों और वहाँ की हस्तियों को कारण उल्लेख कर कोसता रहा है . अधिकाँश नई उत्पन्न सामाजिक बुराइयों के लिए दोषारोपण उन पर करता रहा है। ऐसा इस लेखक ने ही किया हो यह भी नहीं है।  इस लेखक के लेख के अंश तो फिल्म से जुड़े किसी छोटे व्यक्ति तक भी नहीं पहुँचा होगा , किन्तु अन्य प्रसिध्द और दक्ष लेखकों, साहित्यकारों की आलोचनाएं फ़िल्मी लोगों तक पहुँचती रही होंगी ,फिर क्या कारण है कि सिने जगत ने अपने सामाजिक सरोकारों को नहीं समझा , और उनके प्रति उदासीनता बरतते रहे।

यह प्रश्न लेखक के विवेक के समक्ष उपस्थित हुआ तो वहाँ से उत्तर मिला कि सफलता भी महान व्यक्ति को जब मिलती है तो वह उसे भलीभाँति संभाल पाता है , लेकिन जो इन सफलताओं का पात्र नहीं होता वह सफलता की चकाचौंध में अहंकारी हो सकता है , अनैतिक हो सकता है ,व्यभिचारी बन सकता है और अन्याय कर सकता है।

अहंकारी - विज्ञापन , स्वयं को अवार्ड लेते देते कार्यक्रमों इत्यादि में फिल्मी सफल लोगों की बॉडी लैंग्वेज पर अगर हम गौर करें तो उसमें झलकता पायेंगे कि वे दर्शक को मूर्ख मान रहे हैं।
व्यभिचारी - बड़ी बड़ी उम्र तक विवाह ना करके दैहिक संबंधों और विवाहित होकर भी विवाहेत्तर संबंधों का फ़िल्मी इतिहास व्यभिचार का प्रत्यक्ष पुष्टि करता है , जिसकी प्रवृत्ति देख देख और पढ़ पढ़ कर देश और समाज में फ़ैल रही है।
अनैतिक - धन संग्रहण और कमाने की प्रवृत्ति यहाँ आम है , किन्तु लेन देन और टैक्स पेमेंट आय नियमों अनुसार ना करना , अनैतिकता को पुष्ट करता है।
अन्याय - देश जब आर्थिक रूप से कमजोर है , तब गरीब के पैसे खर्च करवा कर बदले में उसको पथभ्रष्ट करने की दुष्प्रेरणा देना यह सामाजिक अन्याय भी सिने जगत करता है।

वस्तुतः कम उम्र में अथाह सफलता वह मनोवैज्ञानिक कारण है ,वह परिस्थितियाँ हैं जो यहाँ के सफल व्यक्ति की सुई सिर्फ व्यभिचार,अनैतिकता ,आडम्बर ,अन्याय और अभिमान  पर अटका देती  है जिससे आजीवन वह उभर नहीं पाता है. वह एक तरह के अंधत्व का शिकार होता है जिसके प्रभाव में उसमें अपनी बुराई , बुरे आचरण -कर्म नहीं दिखते। वह उस दया-करुणा भाव को भी नहीं समझता जिससे देश और समाज में दुःख और गरीबी देख कर एक स्वस्थमना व्यक्ति पसीजता है और फिर अपने सामाजिक दायित्व के प्रति चेतन होता है    .

अंततः यही लिखा जाना उचित है सिने जगत की बुराई बढ़ाने में कुछ हद तक हम सामान्य लोग जिम्मेदार हैं , जो अपात्र को इतना पैसा ,सम्मान और लोकप्रियता देते हैं , जो सफलता की यथोचित संभाल भी नहीं जानते।

--राजेश जैन
27-06-2014

   

एक जोड़ी कपड़े और एक आदर्श चरित्र

एक जोड़ी कपड़े और एक आदर्श चरित्र
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टीवी पर एक चैनल पर एक फिल्म का एक दृश्य कल देखने में आया ,जिसमें गरबा उत्सव में गईं तीन युवतियाँ वाश रूम में हैं उनमें से दो के बीच वार्तालाप हो रहा है , तीसरी श्रोता बस है। वार्तालाप कुछ इस प्रकार है -

एक युवती : तू क्या अकेली आई है?
दूसरी : नहीं आई तो किसी के साथ हूँ , पर जिसके साथ आई हूँ , वापिस उसके नहीं किसी दूसरे के साथ जाऊँगी ?
पहली : क्यों ?
दूसरी : क्या एक जोड़ी कपड़े तू जीवन भर पहन सकती है ?
पहली : नहीं।
दूसरी : इसी तरह पूरा जीवन एक ही के साथ कैसे निकाल सकती है ?

 शब्द ठीक वही ना होंगे , जो फ़िल्मी दृश्य में थे , किन्तु आशय यही था  . फिर चैनेल बदल दिया। लेकिन मन में यही वार्तालाप पर अटक गया। आगे फिल्म देखता तो शायद दूसरी युवती के पात्र को फिल्म में ख़राब बताया और सिध्द कर दिया गया देखता , क्योंकि फिल्म भारतीय दर्शक के समक्ष जानी होती है , इसलिये परम्परागत सोच से तारतम्य मिलाने की बाध्यता निर्माता की होती है। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में इस कुतर्क को ही जीवनशैली बनाने वालों की संख्या बहुत है। फिल्मों से प्रसिध्द व्यक्ति लोकप्रिय हो जाते हैं। उनके जीवन ,गतिविधियाँ और कर्मों के चर्चे प्रसारित होते रहते हैं। और अनेक  प्रशंसक उन जैसा सोचने और करने की दुष्प्रेरणा ग्रहण करते हैं। इस तरह फिल्म इंडस्ट्री से गंदगी ही प्रमुखतः हमारे समाज में पहुँचती है।

अब दृश्य में कारण की चर्चा करता हूँ , जिसने ह्रदय वेदना दी है। भारतीय नारी (और पुरुष का ) प्रमुख अच्छाई में से एक उसका चरित्रवान होना रहा है। यहाँ उस आदर्श चरित्र को एक जोड़ी कपड़े जैसा बताकर तारतार कर दिया गया है। हमारा फ़िल्मी दर्शक बहुत परिपक्व मानसिक सोच वाला नहीं है। वह निश्चित ही कुतर्क से दुष्प्रभावित और दुष्प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। ऐसी बहुत से ख़राब घटनायें देश में घटित हुईं हैं , जिसकी पृष्ठभूमि में दुष्प्रेरणा फिल्मों से पाई गई है।

लेकिन धिक्कार पैसा कमाने की सिध्दांत रहित आज की रीति को जो इस तरह के अंधत्व को उत्पन्न करती है जिसमें ना तो dialague लिखने वाले को , ना अभिनीत करने वाले पात्र को ,ना ही फिल्माने वाले फिल्म निर्माता को और ना ही सेंसर बोर्ड को इसमें (ऐसे हलके और पथ भटकाने वाले वाक्य में ) कोई आपत्ति दिखती है।

हम दर्शक भी अब ऐसी आदत बना चुके है की फिल्म में वल्गर तो होता ही है , देख के अनदेखा करना ही ठीक है। लेकिन सभी की यह उदासीनता ,नारी शोषण और परिवार और दाम्पत्य सम्बन्धो को कमजोर करने के अपरोक्ष कारण बन रही है। अंत में हम सिर्फ एक उश्वांस भर कहते हैं , क्या करें बुराइयाँ इतनी बड़ गई हैं , इसे अकेले हम कैसे कम कर सकते हैं। क्या चुनौतियों के समक्ष हमारी पीढ़ी के इस तरह घुटने टेक देने को इतिहास काले अक्षर में नहीं लिखेगा ?

--राजेश जैन
26-06-2014

Tuesday, June 24, 2014

मनोरंजन और जीवन महत्व

मनोरंजन और जीवन महत्व
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जब हम कोई बुराई /समस्या समाप्त करना चाहते हैं तो यह जानना होता है कि वह कहाँ से फैलती/निर्मित होती है ,वास्तव में उसे समाप्त करने नहीं लिए हमें  उसके जड़/उद्गम पर प्रहार करना होता है। भारतीय सामाजिक परिवेश में बहुत सी पश्चिमी बातों को बुराई जैसा देखा जाता रहा है। और यह माना जाता रहा है कि इनके संस्कृति पर हमले से हमारी भव्य संस्कृति , हमारे ही देश से लुप्त होती जा रही है। जब हमें ये बातें बुराई या समस्या रूप दिखती हैं तो हमें इसके जड़ पर प्रहार करना चाहिए। किन्तु बहुधा बुराई में हम जड़ को तो सींचते है , और ख़राब प्रतिफल को ठिकाने लगाने की कोशिश करते हैं ।

सभी जानते हैं वृक्ष रहेगा तो फल देगा। अगर फल विषाक्त है तो , वृक्ष और जड़ को मिटा देना ही स्थायी निदान हो सकता है। पश्चिमी (या पाश्चात्य ) बातें वहाँ के समाज को प्रिय हैं तो उसे वे निभाते रहें। लेखक को कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु उन्हीं बातों को यदि हमारे समाज में निंदनीय माना जाता है तो हमें उन्हें इस देश में बढ़ावा नहीं देना चाहिए। अपने अभिप्राय को स्पष्ट करते हुये उल्लेख करूँगा कि इस देश में दैहिक स्वच्छंद आचरण को चरित्रहीनता कहा जाता रहा है ,धिक्कारा जाता रहा है। जब तक चरित्र के भारतीय मानक (मर्यादा ) को हम निभाते रहे ,तब तक हमारे समाज में वैवाहिक जीवन स्थायी और कम आंतरिक कलह के होते थे। लेकिन पाश्चात्य प्रभाव में पिछली कुछ पीढ़ियों से हमारे युवाओं के आचार-विचार ज्यादा स्वच्छंद होते गये फलस्वरूप देश में परिवार टूटने की प्रवृत्ति बढ़ गई है । युवाओं की ऐसी स्वच्छंदता से पूर्व पीढ़ियाँ अचंभित हुई है । वे नए आचार -व्यवहार से सामंजस्य (असहमति के कारण ) नहीं बिठा पा रहे हैं । इसलिए युवाओं द्वारा उपेक्षित से कर दिए जा रहे हैं।  बड़े-बुजुर्गों के आदर और सम्मान की  अच्छी परम्परा हमारे समाज में थी। वह ख़त्म होती जा रही है।

इन बातों का प्रभाव उपेक्षित और अनादर अनुभव करते बड़े-बुजुर्ग की मौत  साथ उस परिवार में मिट जाती है। जीवन की  आज की आपाधापी में अपने किये को बुरा समझ जाने का समय वर्तमान  युवा को  नहीं मिल पाता है। शीघ्र ही वह बड़ा-बुजुर्ग होकर फिर उस उपेक्षा का अनुभव स्वयं करता है , जो कोई 20 वर्षों पहले उसने अपने बड़ों के प्रति की होती है।  आज के दर्पण में कल की छाया ना देख पाने का दुष्परिणाम देखते अब जीवन समाप्ति पर अप्रियता सहन करने की बारी उसकी होती है। भव्य संस्कृति से विमुख हो जाने से यह अप्रियता ,आधुनिक जीवन शैली की नियति हो गई है.

आसपास के अस्वच्छता के कारण जब हमारा या परिजनों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है तो झाड़ -पुछाई की जाती है , नालियां साफ़ करवाई जाती है ,नालियों का कूड़ा दूर फिंकवाया जाता है।  खुली नालीयों को ढकवाया जाता है। और स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जाता है। क्योंकि स्वस्थ रहकर ही मनुष्य जीवन के आनंद हम उठा  सकते हैं। जीवन सार्थक कर सकते  हैं।

एक खुला नाला , जहाँ से पूरे देश और  समाज में बुराइयों का फैलाव हुआ है वह है देश की फिल्म इंडस्ट्री।  इसमें खराबियों का अम्बार लगा हुआ है।  नाला खुला है (ढका  नहीं है ) , इसलिए दुर्गन्ध /सड़ांध सब और फ़ैल रही है। सामाजिक स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित करती इस जड़ /बुराई के उद्गम को हम पहचान ही नहीं सके हैं।****

उलटे उस बुराई के वाहक ख़राब लोगों को अपनी प्रोफाइल पिक बनाते हैं , ड्राइंग रूप में वॉलपेपर  सजाते हैं। उन्हें आदर्श मानकर उसकी नक़ल कर ,बुराई के कीटाणु स्वयं में  विकसित करते हैं।  जिन्होनें आजीविका का साधन इस इंडस्ट्री से चुना उससे कम शिकायत हमें है। लेकिन उनके छलावे में जो पूरा समाज आया उससे शिकायत ज्यादा है।  उनको दोष देना अपनी कमी पर पर्दा डालना होगा। हम विवेक से काम लेते तो किसी छलिये से ठगे नहीं जाते।

आखिर देश और समाज को क्या ऐसा दिया इन लोगों ने जिस कारण सारे देश में इनके फैंस (प्रसंशकों) की सँख्या करोड़ों में हो गई। इन्होने हमसे ही धन कमाया , हमसे ही सम्मान पाया। और बदले में हमारी संस्कृति को मिटा देने वाला विष इन्होंने समाज को दे दिया।
  1.  दैहिक व्यभिचार जिसमें एक एक के अनेकों से संबंध रहे इस चलन को बढ़ावा ( चलन नहीं बनाया ) दिया। ऐसे अवैध संबंधों को चटकारे और कहीं प्रशंसा के साथ परोसा हमारे प्रसारण तंत्र ने।
  2.   बिना विवाह के लिव इन रिलेशनशिप की नई परम्परा देश में इन्होंने डाली।
  3.   अटाटूट काले धन का संग्रहण /चलन और उस पर टैक्स चोरी के प्रकरण यहाँ आम हुए।
  4.   चमत्कृत देश की नारियां इस इंडस्ट्री का हिस्सा बनने देश के सभी हिस्से से पहुँचती रही। उनका शोषण इस सुनियोजित तरीके से यहाँ होता रहा कि शोषित नारी मुहँ भी ना खोल सकी , और घर वापस जाने का साहस भी नहीं कर सकी। मालूम नहीं अपने आकर्षक जिस्म को जब तक आकर्षण रहा किस किस तरह प्रदर्शित करने की पीड़ा और अपमान सहने वह विवश हुई।

ऐसी कितनी  ख़राब परम्परा /शर्मनाक कारनामे इस इंडस्ट्री के हिस्से में आये लेकिन हमारी उस विवेकहीनता को धिक्कार है जिस में हम इन्हें नायक मानते हैं।  अपना बेशकीमती समय /धन इन पर खर्च करते हैं। इनका अनुशरण करते हैं। इन जैसा बनने के यत्न में अपनी संस्कृति /समाज ,परिवार और स्वयं की जीवन संभावनाओं को क्षति पहुँचाते हैं।
हम अब तक नहीं चेते ,क्या अब भी नहीं चेतेंगे?  बुराई की जड़  पर प्रहार ना कर ,फैले विष बीज को बटोर कर बुरा-बुरा कब तक कहते रहेंगे?  लेख विचार करने हेतु प्रस्तुत है ।

किसी फ़िल्मी हस्ती ने कोई व्यक्तिगत क्षति लेखक को नहीं पहुंचाई है , उनके विरुध्द हिंसक होने का कोई आव्हान यह लेख नहीं करता . जिन्होंने ग्लैमर को अपनी आजीविका बनाया है वह उनका व्यक्तिगत फैसला है . हम अपने सामाजिक /पारिवारिक और जीवन दायित्वों को समझें , उन्हें नायक ना माने . उनका अनुशरण ना करे. फ़िल्मी इंडस्ट्री नामक नाली का मलवा/गंदगी ना फैलने दे . उसे ढक दुर्गन्ध /सड़ांध से अपनी संस्कृति /समाज की रक्षा करें.  इस भावना से यह प्रस्तुति है ।
लेख में उल्लेखित किसी भी बात का कोई साक्ष्य लेखक के पास नहीं है। इसलिये किसी व्यक्तिविशेष के नाम के उल्लेख बिना लेख किया गया है।  जो फिल्म में रहते हुए इस तरह के दोषों से मुक्त हैं वे लेख के प्रहार से भी  मुक्त हैं , जो सच्चाई से अपना अप्रिय योगदान  मानते हैं , वे आत्मावलोकन करें। यह मानें की भारतीय होने से संस्कृति /समाज रक्षा का दायित्व उनका भी है।

जो फिल्मों में नहीं है वे फिल्मों को मनोरंजन से ज्यादा ना मानें।  फ़िल्मी कहानियाँ और चित्रण तो बाध्यता में कहीं समाज भावना को सशक्त भी करता है। लेकिन इस इंडस्ट्री में सफल हुए लोगों का अभिमान ,अय्याशी और आडम्बर का आचरण गन्दी नाली की तरह होता है , उसे ढंके जाने की आवश्यकता है ,नाली की गंदगी को हम घर में नहीं सजाते हैं , प्रोफाइल पिक नहीं  बनाते हैं। या उसे लेकर सभी दिशा में नहीं फैलाते हैं.  

****(हालांकि फिल्म इंडस्ट्री से अभिनय कला के कुछ महान विभूतियाँ , महान गीतकार,कहानीकार  , कुछ गायकी की महान हस्तियां भी मिली हैं किन्तु इनके होते हुए भी कुलमिलाकर समाज में पाश्चात्य उन बुराइयों का फैलाव इसी इंडस्ट्री से मिला है,जो भारतीयता के विपरीत थीं ।  इन पाश्चात्य बुराइयों ने हमारी संस्कृति और स्वस्थ परम्पराओं को क्षति पहुँचाई है )

--राजेश जैन
25-06-2014

Sunday, June 22, 2014

आधुनिक चलन में हानि

आधुनिक चलन में हानि
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कहासुनी , अपशब्द या सचमुच छेड़छाड़ की एक घटना एक सेलेब्रिटी के साथ हुई। उसे नारी से छेड़छाड़ बताकर मीडिया घंटों , करोड़ों व्यक्तियों के ख़राब करने में लगा हुआ है। नारी विरुध्द इससे गंभीर हजारों अपराध /घटना इस समाज में हो रही हैं। जिसमें नारी को जागरूक करना (नारी चेतना ) आवश्यक है। पुरुष को नारी सम्मान की प्रेरणा दिया जाना आवश्यक है। दुर्भाग्य मीडिया ऐसी कोई जिम्मेदारी गंभीरता से नहीं निभाता। जिस छोटी सी घटना को जानना कहीं किसी के लिए लाभकारी नहीं है trp बढ़ाने के लिये उसे इस तरह दिखाया , रटाया जा रहा है जैसे इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के छात्र के लिए "किरचॉफ'स करंट लॉ " का जानना आवश्यक हो।

कब तक सामाजिक सरोकारों से उदासीन हमारा मीडिया सिर्फ एक स्वार्थी व्यापारी की तरह व्यवहार करता रहेगा जिसे सिर्फ अपने लाभ की परवाह होती है। जबकि एक अच्छा व्यापारी अपने ग्राहक को विक्रित सामग्री की गुणवत्ता की चिंता भी करता है . ग्राहक को लाभकारी सामग्री बेची जाने पर उसका व्यापारिक प्रतिष्ठान दीर्घ समय तक चलता और प्रतिष्ठित रहता है। मीडिया को व्यापारी ही बनना है तो कम से कम वह एक अच्छे व्यापारी की तरह व्यवहार करे। कम से कम करोड़ों ग्राहकों का समय और चरित्र ना बिगाड़े।

जिन तथाकथित सेलेब्रिटी'स ने देश की सँस्कृति ही बदल दी है (खराबी पैदा कर दी है ) उनको महिमामंडित करते हुए युवाओं को ख़राब राह पर चलने को दुष्प्रेरित ना करे। जिम्मेदारी निभायें , नहीं तो छोड़ दे जिम्मेदार बनने का ढोंग। जिन दिनों 24 घंटे का टेलीकास्ट नहीं होता था , बच्चे ज्यादा पढने में मन लगाते थे। युवा ऐसे कोई काम करते थे जो घर और परिवार के समस्याओं को कम करते थे। नहीं कोई जानता था किसी फिल्म वालों के जीवन की दैनिक घटना तो , किसी का पेट ख़राब नहीं होता था।

मीडिया सच्चे मायने में नारी की दुर्दशा से सहानुभूति रखता है तो देश की भव्य रही सँस्कृति की क्या अच्छाइयाँ थी यह दिखलाये। नारी को आधुनिक होने के साथ किन आधुनिक चलन में उनकी हानि है उसे रेखांकित करे। उन पुरुषों की दृष्टि ठीक करने के उपाय करे जो नारी को सिर्फ भोग्या (वस्तु) की दृष्टि से देखते हैं।

जिस नारी सेलिब्रिटी की छेड़छाड़ को राष्ट्रीय विपदा सा कवरेज दिया जा रहा है , उससे निबटने में वह(सेलिब्रिटी )  स्वयं सक्षम है। वह उस पर छोड़े और देश के कामकाजी व्यक्ति को जो थोड़ा मनोरंजन को टीवी देखता है , उसे लाभकारी घुट्टी की तरह जबरदस्ती यह ना दिखाए (पिलाये ).

राजेश जैन
23-06-2014

Friday, June 20, 2014

जोसेफाइट

जोसेफाइट
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बेटी को बैंगलोर से जबलपुर आना था , मुंबई में फ्लाइट बदलनी थी। प्लेन की खराबी के कारण आफ्टरनून की मुंबई-जबलपुर फ्लाइट कैंसिल हो गई , घंटों एयरपोर्ट पर बैठे रहने के बाद ,रात्रि में होटेल में रूम दिया गया। रूम शेयर किया बेटी ने  सीनियर "जोसेफाइट" (सेंट जोसेफ कान्वेंट पढ़ी ) ऑन्टी के साथ। वे ऑस्ट्रेलिया से अपनी माँ से मिलने जबलपुर आ रही थी। माँ रिज रोड ,जबलपुर में निवासरत हैं।  रात्रि दोनों  जोसेफाइटस  के बीच चर्चा होती रही।

सुबह जबलपुर एयरपोर्ट पर बेटी को रिसीव करने मै गया था। डुमना एयर स्ट्रिप से बाहर आते बेटी के साथ उन्होंने मुझे देखा , बेटी से पूछा- योर फादर ? बेटी के हाँ कहने पर मुझसे मुखातिब हुईं ,  कहा, यू आर वेरी लकी , बहुत अच्छी है आपकी बेटी , बहुत सुलझी सोच और कितने सुन्दर जीवन लक्ष्य हैं इसके।

एक पिता का सीना कितना फूलता है , बच्चे की प्रशंसा अपरिचित से सुनकर, यह अनुभूति बहुत निजी और आनंददायी थी। आपमें से अनेकों ने अवसरों पर ऐसा अनुभव किया होगा।

उन आदरणीया से वार्तालाप बहुत संक्षिप्त था , उन्हें सिर्फ धन्यवाद ही कह सका था।  लेकिन बिना पैसे खर्च किये किसी को हम कितना आंनद दे सकते हैं , सिर्फ सच्ची थोड़ी सी प्रशंसा करने से , यह हमें उन जैसे उदारमना व्यक्ति से सीखना चाहिए। (वैसे उन्होंने सीनियर जोसेफाइट होने से एयरपोर्ट पर रिफ्रेशमेंट का पेमेंट स्वयं किया था , बेटी (उनकी वर्षों जूनियर ) को नहीं करने दिया था ) .

वास्तव में यह प्रशंसा, अनुमोदन है सच्ची राह का, जो हमारे युवाओं और बच्चों को नेक राह का पथगामी बने रहने का मनोबल देता है।

--राजेश जैन
21-06-2014

Friday, June 13, 2014

भारतीय चरित्र

भारतीय चरित्र
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चैतन्य , अपने बड़े होते बेटे को , महापुरुषों के सद्कर्मों की और उनके जीवन में घटे सद्प्रेरणा (देने) वाले प्रसंग बताया करता था , जिससे बेटा 'उचित ' , की मानसिक जीवन बुनियाद आदर्श बन सके।
आज चैतन्य , अपने बेटे उचित के साथ बैठा था तब उसने पूछा , बेटे उचित,  क्या तुम जानते हो एक महापुरुष इस देश में राष्ट्रपिता कहे जाते हैं ?
उचित … जी हाँ पापा जानता हूँ।
अब चैतन्य उस महापुरुष के बारे में एक सच्चाई  उचित को बताने लगता है।
बेटे , उस महापुरुष ने अपनी माँ से किये वादे के कारण आजीवन देश और विदेश में रहते कभी शराब का सेवन नहीं किया था  , जबकि उन्हें ऐसे कई कार्यक्रम (अवसरों पर) में रहना होता था जहाँ शराब का सेवन अनेकों लोग करते थे।  जानते हो उनके परिवार की ही विडंबना के बारे में ?
उचित --- क्या पापा ?
चैतन्य -- बेटे , वह महापुरुष सभी को तो शराब छोड़ने की प्रेरणा देता लेकिन उनका स्वयं का बेटा अत्यधिक शराब सेवन करता था।  बेटे, देश लिए संघर्ष करते उन्होंने प्राण तक गवायें , किन्तु अपने बेटे को ही व्यस्तता के कारण वे खानपान की अच्छी प्रेरणा दे सकने में असमर्थ रह गये थे।
उचित -- तब तो पापा , यह अत्यंत  दुर्भाग्य पूर्ण था , जिसे राष्ट्र ने पिता माना वे , घर में अपनी संतान से ही पिता का आदर नहीं पा सके ।
चैतन्य -- हाँ बेटे , तुम मेरा पिता होने का एक सम्मान ,मुझे दे सकोगे ?
उचित -- पापा , अवश्य बताईये कैसे मै , यह सम्मान आपको दे सकूँगा ?
चैतन्य -- बेटे तुम  जीवन में उच्च सिद्धांतों का निर्वाह करना , आदर्शों की मिसाल पेश कर  "भारतीय चरित्र " का एक आइकॉन बनना। जो आज भारत की पवित्र माटी से विलीन होने की कगार  पर है।
उचित -- जी पापा , मै अवश्य यह करूँगा।  यह कहते हुये उचित की आँखों में संकल्प के भाव दृष्टव्य थे।

लेखक ने उपरोक्त लघु कथा में तो पात्र चैतन्य से सच्चा "भारतीय चरित्र "  बनने की प्रेरणा अपने बेटे(उचित)  को ही दिलवाने का अपेक्षा उल्लेखित की है।  लेकिन कथा के बाहर लेखक यह अपेक्षा सम्पूर्ण आज के समाज से करता है , कोई चाहे पुरुष हो अथवा नारी और युवा हो या वरिष्ठ  वह भारतीय होने से जीवन में  "भारतीय चरित्र " चरितार्थ करे।

राजेश जैन
13-06-2014

 

Wednesday, June 11, 2014

माँ की आज्ञापालन का यह कैसा दंड

माँ की आज्ञापालन का यह कैसा दंड
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उस काल में विलायत से शिक्षा प्राप्त करने जाना , इसका मतलब पाँच सात वर्षों तक अपनी जन्मभूमि से कट जाना होता था।  समाचारों का परिवार आदान -प्रदान पत्रों (डाक) के माध्यम से होता था। विलायत में पढ़ाना अत्यंत खर्चीला था अतः भारत से बिरले ही शिक्षा को जाया करते थे। हालाँकि "फॉरेन रिटर्न्ड" की एक बहुत ही सम्मानीय पहचान आजीवन एक बड़ी उपलब्धि होती थी।

ऐसे में उसे विलायत भेजा जा रहा था। माँ का दुःख अवर्णीय था। उन्हें सबसे ज्यादा चिंता इस बात की थी , बेटे का खानपान बिगड़ जायेगा। उन्होंने जाते हुये बेटे को शिक्षारत रहते शराब ना पीने की आज्ञा दी। बेटा भी माँ भक्त था। माँ की इस आज्ञा का विलायत में भी और आजीवन पालन किया।

नाम लिखने की आवश्यकता नहीं , वह इस माटी का ऐसा सपूत था। जो विश्व में सर्वाधिक जाना जाने वाला भारतीय रहा है और शायद रहेगा भी। उनके किसी कर्म या योगदान पर लेख में कोई टिप्पणी ना करते हुये लिखूँगा। ( विवाद अनेकों खड़े किये जाते हैं , यह लेखक इस लेखनी को विवादों से परे रखना चाहता है ).

कृतज्ञ राष्ट्र ने उन्हें सम्मान दिया। वे भारतीय करेंसी पर छपते हैं। उस करेंसी का प्रयोग शराब के विदेशी ब्रांड के देश में प्रमोशन के लिये , उसके व्यवसाय पर और उसके ख़रीदे जाने पर बहुत अधिक होता है। क्रिकेट टीम अपनी जीत पर शैम्पेन खोल सेलिब्रेशन करती है।

देर रात्रि चलने वाली पार्टी में उसी करेंसी से मदिरा का दौर चलता है। बच्चों के लिये कुछ अच्छा घर तक ले जाये या नहीं , मुखिया कमाई (करेंसी ) का बड़ा हिस्सा उस पर खर्च कर लड़खड़ाता घर पहुँचता है।

बात , लड़खड़ाते घर पहुँचने या पार्टी में मौज मस्ती पर ही रुक जाती शायद कम चिंताजनक थी। पी गई शराब से नीयत और दृष्टि ख़राब कर भारतीय नारी की लाज भी तार तार करने के अनेकों केस हो रहे हैं। उसके प्रभाव में दिमाग पर नियंत्रण खोकर अनेकों दुर्घटनायें सड़कों पर होती हैं।

यही नहीं आज कॉलेज में पढ़ती और शिक्षित हो निकलती (कुछ ) नारी भी भारतीयता छोड़ शराब और सिगरेट में अपनी आधुनिक पहचान मानती है।

माँ की आज्ञा मान उनने अपने कर्म और आचरण से जो उत्कृष्ट योगदान राष्ट्र को दिया , उसके एवज में उन्हें मरणोपरांत करेंसी पर विराजित कर दिया गया। जो शराब के सिलसिले को भारत में बढ़ाने के लिए बहुत अधिक मात्रा में प्रयोग की जा रही है।

वह माँ कैसा अनुभव करती , अगर अपने निष्ठावान बेटे को उस मुद्रा पर छपा देखती , जिसका प्रयोग भारतीय संस्कृति के तिरस्कार में ज्यादा होने लगा है।

माता निष्ठ उस बेटे , और उस माँ के सम्मान लिए क्या देश में आगामी "मदर्स डे " से नई छपने वाली करेंसी से उनका फोटो अलग करना चाहिए ? इस पर हम विचार करें .......

राजेश जैन
11-06-2014

Tuesday, June 10, 2014

फेसबुक- एक उत्कृष्ट माध्यम

फेसबुक- एक उत्कृष्ट माध्यम 
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अगर हमारी कला , लेखन , 'उपचार जानकारी' या कोई और विशिष्टता , हमारी आजीविका का जरिया नहीं है तो फेसबुक वह माध्यम है जिससे उसका प्रसार हम पूरी दुनिया में त्वरित और उसके मूल रूप में कर सकते हैं।

इसका प्रसार समाजहित और मानवता को पुष्ट कर सकेगा। हम बहुत उपयोगी या दुनिया के लाभ का कुछ प्रस्तुत करते हैं , तो उसकी कॉपी कई स्थानों पर यूजर कर
ते हैं। इसे चुराया जाना ना कह कर इसे प्रसार ही कहा जाना उचित होगा। क्योंकि इसमें हमारा नाम या ख्याति ना फैलता हो विशेष अंतर नहीं करता , वास्तविक समाजहित या मानवता निज अपेक्षा विहीन होती है। 

अश्लील प्रदर्शन और सामग्री यद्यपि ज्यादा कॉपी और लाइक किये जा रहे हैं .हालाँकि यह फेसबुक की खराब प्रयोग है। इससे हित किसी का नहीं होता। बल्कि यह समाज में अनाचार ,व्यभिचार और दुष्कर्मों को उकसा कर पावन भावना को क्षति पहुंचा रहा है . 
यह उस अनुकरणीय भावना के विपरीत है जिसमें सामाजिक सौहाद्र और परस्पर महीन सूत्र से बंधकर मानव सयुंक्त प्रयासों से "आदि मानव" के जानवर तुल्य स्तर से आज की मानव प्रगति साकार कर सका था। 

हमारे सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल निश्चित ही शीघ्रता से इसकी रोकथाम करने में सफल होंगे। उसके लिए उन्हें आर्थिक लाभ के मोह से छुटकारा प्राप्त कर मानव सभ्यता को सशक्त और पवित्र करने को प्रधानता देना होगा।

इस पीढ़ी को त्याग का उत्कृष्ट उदाहरण रखना होगा , जिसका प्रतिफल समाज की देश की आगामी पीढ़ियों को मिल सकेगा। आगामी पीढ़ियाँ कोई और नहीं हमारे बच्चे और उनके बच्चे (हमारे अपने ) ही होंगे.

धन मूर्च्छा , भोग मूर्च्छा और सुविधा मूर्च्छा से हमें निकलना होगा। हमें जागृत होना होगा।

राजेश जैन
11-06-2014

Monday, June 9, 2014

परिष्कृत

परिष्कृत
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हम में शायद सभी , इन अपने परिजनों को चरित्रवान ही देखना चाहते हैं  ……

भाई ,बहन , माँ ,पिता

और विवाह हो चुका हो तब  ……

पति/पत्नी (स्पाउस) , बेटा और बेटी

अगर सहमत हैं , तो हमें स्वयं को भी चरित्रवान होना चाहिये , क्योंकि हम दूसरे अपने परिजनों से इनमें से कोई ना कोई रिश्ता रखते हैं।

जब तक दूसरे के दृष्टिकोण से हम अपने को नहीं निहारेंगे , अपने दायित्वों को नहीं समझ सकेंगे ……

कुछ समय निकालें प्रतिदिन , थोड़ा आत्मावलोकन करें , तो हम स्वयं  को परिष्कृत (Sophisticated) कर सकेंगे।  और इस तरह अपने समाज और व्यवस्था को सुधारने की अपनी और सब की अपेक्षा (expectation) पर न्याय कर सकेंगे , (आशाओं पर खरा उतर सकेंगे ).

--राजेश जैन
10-06-2014

Sunday, June 8, 2014

नारी सही अर्थों में आधुनिक बने


नारी सही अर्थों में आधुनिक बने
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धन के लिये निर्भरता , पुरुषों पर थी। अकेली बाजार नहीं जा सकती थी। नारी के ऐसे दिन अब नहीं रहे हैं। पढ़-लिख कर नारी इस योग्य हुई है। धन अर्जित स्वयं करने लगी है। और धन पास हुआ तो बाजार जाने का आत्म-विश्वास भी जागृत हो गया है। ऐसा अच्छा हमें प्रसन्न करता है लेकिन ना मालूम अच्छे के साथ बुरा भी क्यों कुछ रहता है।

हमारी फिल्में, उसमें नायक /नायिका (रहे) की व्यक्तिगत जीवन में की खल( नायक /नायिकायें) वाली हरकतें , और उनका मीडिया और पत्रिकाओं द्वारा धन कमाने की लालच में (दुष्) प्रचार , नारी की उन्नति के लिए भी अभिशाप साबित हो रही हैं।

देखा देखी के चलन में पढ़ी-लिखी आज की नारी भी देर रात्रि पार्टियों में जाने लगी है। जो फिल्मों ने और वहाँ की तथाकथित सेलेब्स ने भारतीय समाज को दीं हैं। वहाँ (देर रात्रि पार्टियों ) मौजमस्ती साथ ड्रिंक्स के दौर चलते हैं। आधुनिक कहलाने के लिए रात्रि कालीन पार्टियों में ड्रिंक्स भी वह लेने लगी है। कुछ पुरुष उस ड्रिंक्स में मादक पदार्थ मिलाकर उसे सर्व कर रहे हैं। जिसके प्रभाव में नारी उसके साथ होने वाली वासना पूर्ती की हरकतों का विरोध नहीं कर पाती है। पुरुष के छल से ठगे जाने की कुछ घटनायें तो न्यूज़ बनती हैं , कुछ में दोषी पुरुष दंड पाता है (अभी ताजा ऐसी खबर जयपुर की है ) . अनेकों नारी शोषण की ऐसी घटनायें प्रकाश में नहीं आ पाती हैं क्योंकि बदनामी का डर और ब्लैकमेलिंग का शिकार हो कोमलकाया छली गई नारी हिम्मत नहीं करती और स्वयं अपराधबोध से ग्रसित होती है। हालाँकि दोष ज्यादा पुरुष का है ,कानून से सजा भी पुरुष को मिलती है किन्तु आजीवन अभिशाप नारी के हिस्से आता है।

पढ़ी लिखी नारी जाने क्यों स्वयं को आधुनिक दिखाने की कोशिश करती है , और पुरुष के पैतरों में आकर पुरातन काल से जैसी छली जाती रही वैसी छली जाती है , आधुनिक नहीं पुरानी नारी का परिचय भी नहीं ( जो कम से कम अपना सम्मान तो रख पाती थी ) दे पाती है। आधुनिक नारी कहेंगे , जो पढ़ लिखकर अपने भले को भली-भाँति समझती है। ऐसी राह चलती है जो अच्छी उपलब्धियों की ओर ले जाती है। अनुशरण करती नारी को ही नहीं ,समाज में भी सुखद वातावरण और परिस्थितियाँ निर्मित करती है।

महानगरों और अन्य बड़े नगरों का जो फैशन गया है इन देर रात्रि की पार्टियों में , आधुनिक दिखने नाम पर नारी स्मोकिंग को भी दुष्प्रेरित हो रही है। ताजा सर्वे कहता है नारी में धूम्रपान की प्रवृत्ति 1980 की तुलना में आज बढी है जबकि इसी अवधि में यह पुरुष में कम हुई है। बदली हुई जीवन शैली तथा मिलावटी खाद्य सामग्री (एडिबल्स) का बुरा प्रभाव पुरुष की तुलना में शारीरिक बनावट के कारण नारी पर अधिक हैं कैंसर के खतरे नारी के अंगों पर अधिक हैं ही धूम्रपान जो कैंसर सबसे बड़ा कारण है नारी में आशंकाओं का इजाफा करता है । साथ ही बच्चा नारी के शरीर के अंदर पनपता है, वह जन्मजात खतरों के साथ दुनिया में आता है जिससे समाज पर कैंसर की भयावहता आशंकित है।

नारी को आधुनिकता क्या है यह समझना होगा। वास्तव में जो उपलब्धियों की ओर ले जाये , जो सुखद परिस्तिथियाँ और वातावरण निर्मित कर सके वैसा गुण आधुनिकता है। जिससे नारी भी सुखी होती है समाज भी सुखी बनता है। आधुनिक कहलाने के नाम पर अगर नारी कुटिल चालों की शिकार होकर अपना तथा परिजनों का जीवन कष्टमय करती है तो यह ठेठ पुरातन पंथी (आधुनिकता नहीं ) है , जिसमें नारी ठगी जाती रही है।
पढ़ने लिखने के अवसर नारी ने लिये हैं , ज्यादा स्वाधीन आज वह है तो इस अवसर का लाभ उठाये , उसे व्यर्थ ना गवायें। "नारी सही अर्थों में आधुनिक बने" , स्वयं का जीवन खुशहाल करे।  नारी के साथ ही परिवार में जीवन यापन करने वाले पुरुष लेखक की यही हार्दिक कामना है।


राजेश जैन
09-06-2014



 

मनुष्य भी एक विचार है

मनुष्य भी एक विचार है
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विचार , निराकार वह वस्तु है जो मनुष्य मन / ह्रदय में उत्पन्न हो बहुत  सी भौतिक वस्तुओंं को उत्पन्न करने का कारण बनती है।

उदहारण - आज के सुविधा संपन्न घर और उनमें उपयोग आती बहुत सी (लगभग सभी, प्राकृतिक वस्तुओं को छोड़कर ) सामग्री , किसी दिन मनुष्य मन में विचार रूप उत्पन्न हुईं और कालांतर में उसने मूर्तरूप लिया।

हर मनुष्य , जो जीव रूप आज अस्तित्व है अगली सदी तक (या अगली सदी में ) अस्तित्व विहीन हो जाएगा , और तब अगर किसी के स्मरण में आएगा तो एक विचार ही बन रह जाएगा।

हाँ , मनुष्य , दूसरी मनुष्य सृजित वस्तु से थोड़ा भिन्न है।  दूसरी वस्तु अस्तित्व में आने के पहले विचार में आती हैं ,जबकि मनुष्य अस्तित्व में होता है , उपरान्त विचार में रह जाता है।

जिस तरह विचार , हर मनुष्य के जीवन में अनेकों आते हैं , चले जाते हैं।  उस तरह मनुष्य भी अनेकों आते हैं ,चले जाते हैं। विचार जैसे अनेकों होते हैं , स्मरण में कुछ ही रह जाते हैं।  मनुष्य भी अनेकों हुए खो गए , कुछ ही स्मरण किये गए, शेष आरम्भ /अंत हीन काल चक्र में कहीं विलीन हो गए।

अब जब मनुष्य विलीन ही हो जाता है तो फिर आज उसका  अच्छा या बुरा रहना क्या अंतर करता है ? लोग कुछ भी कहें , चाहे बुरा कहलें वह अपनी मनमानी करले तो क्या अंतर पड़  जाएगा ?

वास्तव में बुरा क्या है , हम इसे समझें . अति कई  चीज की बुराई हो जाती है।
उदाहरण-  नारी पुरुष संसार में हर जगह मिल जाते हैं , नोंक झोंक इत्यादि सहज चलती रहती है।  उसमें अति हो जाये बुराई बन जाती है।  पति -पत्नी का रिश्ता एक बार बनता है ,एक से बनता है अच्छा होता है।  अनेकों से ऐसा रिश्ता (अति) बनाने का क्रम बुरा होता है। (एक से विवाह और उससे आजीवन साथ को संस्कृति या परम्परा बनाया गया है।  हम इसे बदलने का प्रयास ना करें )

जब मनुष्य विचार रूप ही रह जाने वाला है , वह भी कभी बिल्कुल ही विलीन हो जाने वाला है। तो क्यों ना हम मन की ही पूरी कर लें , बुरा लगे किसी को तो लगता रहे।  ऐसा भी (कु)तर्क हो सकता है।

इसका समाधान हम ऐसा करलें ।  अगर हम किसी को एक थप्पड़ मारने का मन होने पर उसे मार दें।  अगर इसे हम बुरा ना कहें तो बिना हमारी गलती पर कोई हमारे मुख पर तमाचा जड़ दे तो फिर हमें इसको भी बुरा नहीं कहना चाहिए। अगर हम अपने पर हिंसा जबरदस्ती को बुरा कहते हैं , तो हमें भी किसी के साथ हिंसक नहीं होना चाहिए। किसी पर जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए।

इसलिये , भले ही हम इक विचार जैसे ही साधारण हैं , अस्तित्वहीन हो जाने वाले हैं  लेकिन हमारे कर्म ,आचरण और व्यवहार अच्छे होने चाहिये।  क्योंकि बुराई को हम बुरा कहते हैं।  इसलिये हममें भी बुराई नहीं होनी चाहिए।

अपनी बुराई हम जिस दिन कम कर लेंगे।  देश /समाज से बुराई स्वतः कम हो जायेगी  ।

--राजेश जैन
08-06-2014

Friday, June 6, 2014

जबलपुर - संस्कारधानी ?

जबलपुर - संस्कारधानी ?

जबलपुर को संस्कारधानी विशेषण कब ,किसने और क्यों दिया , यह किसी को ज्ञात हो तो कमेंट्स में बता दीजियेगा।
किन्तु यह तो तय की जबलपुर की किसी पीढ़ी ने ऐसा कुछ किया होगा जिसने शेष भारत को प्रभावित किया होगा और "संस्कारधानी" जैसा सुन्दर शब्द हमारे जबलपुर को मिला होगा , जो शायद किसी अन्य नगर के नाम के साथ नहीं जुड़ता है।

जबलपुर में आजकल हमारे बच्चों के पढाई का माध्यम इंग्लिश है अतः उनको संस्कारधानी शब्द का अर्थ बताया जाना उचित होगा , जिससे वे इस शब्द में समाहित गौरव (बोध) अनुभव कर सकें।

संस्कार उन गुणों का किसी व्यक्ति में होने का नाम है , जिससे उसके आचार ,विचार ,व्यवहार और कर्म ऐसे होते हैं , जो स्वयं उसका ही नहीं अपितु अन्य का जीवन भी सहज , सुखी और सार्थक करता है।  और जहाँ से ऐसे अच्छे गुण या संस्कार मिलते हैं , उस स्थान ,धर्म , समाज , विद्यालय या शास्त्र (बुक) को संस्कारधानी कहा जाता है।

जबलपुर की किसी या कुछ पीढ़ी (यों)  ने उच्च संस्कार देने की एक अच्छी परम्परा रखी होगी , हमें इस परम्परा को आगे बढ़ाने का दायित्व है , जबलपुर में होने से हमें इस कर्तव्य के साथ न्याय करना चाहिए।

हिंदी भाषी क्षेत्रों के अलावा , यहाँ देश के अन्य भाषा प्रदेशों (महाराष्ट्र ,गुजरात , पंजाब , आंध्र ,केरल ,कर्नाटक इत्यादि )से आकर बस गए परिवार भी  इस सुन्दर सुरम्य नगर में सुखद जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन कुछ घटनायें , यहाँ भी ऐसी हो जाती हैं , जो इस नगर की गौरवशाली परम्परा पर प्रश्न चिन्ह अंकित कर देती है। हमें विचार और उपाय करने चाहिये जिससे हमारा नगर गरिमा बरकरार रख सके।

थोड़ा सा अन्य विषय इस लेख में लेते हैं।

आकर्षण की भावना
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 जानवरों में भी होता है , लेकिन मनुष्य में तो लगभग सभी में होता है वे अन्य को प्रभावित कर अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं।  आकर्षित करने का लक्ष्य मनुष्य में एकमात्र काम अपेक्षा से ही नहीं होता , बल्कि जीवन के अलग अलग अवस्था में अलग अलग अपेक्षा से आकर्षित करने का होता है।  और आकर्षित करने के अलग अलग साधन भी उपयोग किये जाते हैं।
ज्ञान , कला ,व्यवहार , रूप और वस्त्रों इत्यादि से  आकर्षित करने की चेष्टा होती है।  तब भी किन्हे आकर्षित करने का किसी का लक्ष्य होता है , उसे जाने समझे बिना अन्य भी उसकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं।  तब उसे (आकर्षित करने वाले को ) यह अच्छा नहीं लगता है। विशेषकर रूप , वस्त्र और एक्सेसरीज से आकर्षित करने वाले व्यक्ति की अपेक्षा कुछ अपने प्रियजनों से रहती है।  लेकिन इन उपायों से आकर्षण जो उनमें होता है , कोई भी आकर्षित होता है। और कुछ दुर्गुणी, अवांछित चेष्टा भी करते हैं। कोई मदिरा या अन्य नशे में रहकर भी ऐसा कर देता है , जबकि सामन्यतः वह अच्छा भी होता है।

तब हम सहज नहीं रह पाते हैं।  अतः हमारे वस्त्र कहाँ हम जा रहे हैं , किन लोगों के बीच से जाना है , किन के साथ हमें होना है आदि पर विचार कर हमारे वस्त्र का चयन होना उचित होता है।  किसी भी तरह के वस्त्र में लेखक कोई खराबी नहीं मानता अगर वे आसपास के व्यक्तियों और अवसर को मैच करते हों।

थोड़ा शरीर झलकते वस्त्र जहाँ पति -पत्नी के बीच अच्छे हो सकते हैं , वही भाई -बहन माँ -पिता को असहज करते हैं।  ऐसे वस्त्र अनायास ही उनकी आँखें नीचे करते हुए हम से बात करने को विवश करते हैं।  हम स्वयं भी ऐसी ही हालत में होते हैं। वस्त्र आधुनिक भी हों ,सुविधा पूर्ण भी हों और रूप में चार चाँद लगाते हों सभी अच्छे होते हैं , लेकिन अवसर और स्थान अनुरूप ही हम पर सजते हैं।  हम सब्जी बाजार में तो निश्चित ही वाटर पार्क वाले वस्त्रों में नहीं जा सकते हैं।

अब शारीरिक और मानसिक दोनों के स्वास्थ्य लाभ के लिए आव्हान
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आयें , रिज रोड (जबलपुर )पर वाक करने . स्वस्थ भी बनें , जबलपुर की संस्कारधानी होने की परंपरा भी चर्चा के साथ पुष्ट करें।  और समाज में सुख का संचार करें।

राजेश जैन
07-06-2014

Thursday, June 5, 2014

दामाद के गुणों की चर्चा

दामाद के गुणों की चर्चा
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                      "सामाजिक अपेक्षाओं को चलो छोड़ते हैं
                       राष्ट्रीय अपेक्षाओं से मुक्त चलो होते हैं
                       परिवार तो अपना समझते हैं ना हम ?
                      चलो आज परिवार दायित्वों की कहते हैं"

पुत्री का विवाह तय करते समय माँ-पिता की मुख्य चिताओं में से , सामने परिवार का प्रतिष्ठित और बनने जा रहे दामाद का चरित्रवान (या सुशील ) और मृदुभाषी होना प्रमुख रहता है।

इन चीजों के होने से अपनी प्रिय बेटी को नये परिवार में भेजते हुए , उनके (पुत्री और दामाद ) के सुखद जीवन की सुनिश्चितता लगती है।  इससे सहमत होने के उपरान्त हम विचार करें कि पुत्री के माँ-पिता की यह खोज और पुत्री सरल कैसे होगी?
निश्चित ही जब नवयुवकों में /परवारों में इन गुणों का होना व्यापक होगा। पश्चिमी चलन का अनुशरण करने की अंधी-प्रवृत्ति में भारतीय समाज में भी चरित्रवान रहना दिनोदिन जीवन आदर्शों में से लुप्त सा होता जा रहा है।  इस मानव नस्ल का संरक्षण हमारे स्वयं के ऊपर है। हम चरित्रवान रहेंगे तो यह नस्ल लुप्त ना हो सकेगी।  और तब हम अपनी पुत्री का विवाह करने जायेंगे तो मनोरुप वर ढूंढ पाएंगे।

आवश्यकता है पच्चीस -तीस वर्ष के बाद हम जिस बात को शीर्ष महत्व देंगे , उसे पच्चीस -तीस वर्ष पहले (आज ) समझ सकें।  अगर उस वक्त की हमारी अपेक्षाओं को दूरदर्शिता से आज समझ लेंगे तो हम स्वयं चरित्रवान होंगे। जब ऐसा होगा तब हम पत्नी -बच्चे और परिवार के प्रति अपने दायित्वों का कुशल निर्वहन कर सकेंगे।  इस तरह हमारा परिवार सुखी और सफल हो सकेगा।  ऐसे परिवारों से बनता हमारा समाज सुखी होगा।  शिकायतों , समस्याओं ,बुराइयों और दुष्कर्मों पर  व्याप्त विलाप तभी विराम पा सकेगा।

हम नारी के प्रति विनम्र हो सकेंगे।  उसे पत्नी रूप में भी उचित सम्मान और सुरक्षा दे सकेंगे।  चरित्रवान हम होंगे तो घर के बाहर नारियों से छिछोरी हरकतों से भी बाज आयेंगे।  इस तरह नारी का हमारे परिवार को मजबूत करने के योगदान की दृष्टि से घर के बाहर का विचरण ( मूवमेंट्स) खतरों और अपमान रहित होगा।

सुखी समाज , हमारी संस्कृति रही है।  जिस के कारण ही बाहर लोग भारत के प्रति आकर्षित हुए थे , फिर कुटिलताओं से उन्होंने इसे क्षति पहुँचाई।  इस संस्कृति क्षति के लिये उन्होंने सिनेमा और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को अपना दूत नियुक्त किया। और हमारे ही समाज में से कुछ लोगों को सम्मोहित कर उनका प्रयोग देश और समाज की बरबादी के लिए किया .

हम सजग हो इसे समझें और अपना बचाव करें। अन्यथा जीवन संध्या पर अपनी लापरवाहियों पर पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं रहेगा। ऐसी आत्मग्लानि अनुभव होगी जिससे मुक्ति जीवन में संभव नहीं होगी।
    " भविष्य की बातों का पूर्वानुमान बुध्दिमानी है , जो हमें ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ भी बनाती है। "
राजेश जैन
06-06-2014

Wednesday, June 4, 2014

कन्यादान?

कन्यादान?
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दान तो किसी वस्तु का मालिक अन्य किसी को वह वस्तु दे दे उसे कहते हैं।

क्या बेटी के माँ अथवा पिता , उसके मालिक होते हैं जो उसे दान करते हैं ? और क्या विवाह के बाद पति या ससुराल पक्ष उस पत्नी/बहु  (जो कल तक बेटी थी ,अब यह भी होती है ) का मालिक हो जाता है ?

अगर ऐसा है तब हमारी मान्यता अनुचित है। और नहीं तो  यह कन्यादान शब्द का गलत संधि विग्रह मात्र है।

कन्यादान निश्चित ही उस विवाह रस्म का नाम है , जिसमें अपनी प्रिय बेटी को , उसके सम्मान ,सुरक्षा और उससे पुत्रीवत स्नेह  और धर्मपत्नी के सभी अधिकार देने के लिए वधुपक्ष (सामान्यतः पिता ) , वर के माँ-पिता / वर को सौंपता है।

दहेज़ भी बाध्यता में देना या बाध्य कर लेना , अनुचित प्रचलन है।  आवश्यकता रीति रस्मों में आई खराबियों के  सुधार के साथ ,नारी-पुरुष दोनों के चरित्रवान होने की है।  और सुरक्षित सेक्स के नाम पर विज्ञापनों में दुष्प्रेरित करते प्रचार के झाँसे में नहीं आने की है।
ये स्वछंदता वास्तव में भारत के बाहर की खराबी है, छूत का रोग है जो पाश्चात्य समाज को दीमक की भाँति चट कर रहा है ,जिसे आधुनिक (MODERN ) कहलाने के नाम पर हम अंगीकार कर रहे हैं।

भारतीय संस्कृति और समाज के लिये यह आत्मघाती सिध्द होगा। हम अपनी भारतीय पहचान रखना चाहते हैं और इस भव्य अपनी संस्कृति का लाभ शेष विश्व को भी दिलाना चाहते हैं , तो हमें उनकी अपसंस्कृति को नहीं अपनाना होगा . अपितु अपने आत्मविश्वास और समाज हित कारी दृढ आचरण से उन्हें प्रभावित करना होगा।

राजेश जैन
05-06-2014

Tuesday, June 3, 2014

वास्तविक और वर्चुअल संसार

वास्तविक और वर्चुअल संसार
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सुबह हुई , स्वमेव कुछ तैयारी के बाद कदम प्रातः कालीन भ्रमण के लिए घर के बाहर को उठ जाते . उसकी नियमित दिनचर्या 14 वर्षों से ऐसी बन गई थी।  प्रायः  अकेला कभी सपत्नीक भ्रमण में रिज रोड पर पहुँच जाया करता , पत्नी को रसोई के कार्य होते अतः कुछ दूर साथ जाकर बीच से लौट जाया करती।  तब शेष भ्रमण में अकेला वह चलता फुटपाथ पर कुछ दृष्टि बाहर रख प्रायः अपने मन की गहराइयों में उतर जाया करता।

यहाँ उसे विवेक (स्व ) और कामना नाम का पति -पत्नी का जोड़ा मिलता।  विवेक वह अपने विचार क्षमता को कहता और कामना ,सभी जीवन लालसाओं ,चाहतों का नाम होता।  पत्नी की भाँति कामना उसे जीवन पथ पर प्रगति की ओर अग्रसर करती ( चलने को उकसाती )  . विवेक (पति) कामना को नैतिकता और न्यायसंगत शैली में नियंत्रित करता।

विवेक और कामना इस जोड़ी का साथ अनुभव करता उसका भ्रमण 6 कि मी का कब पूरा होता उसे पता नहीं होता और उसके कदम गृह में प्रवेश कर जाते। पिछले 2 वर्षों के ऊपर से उसने एक नई हॉबी बना ली थी।  पूर्व में फेसबुक को समय की व्यर्थता मानता था , अब उसको उसने उपयोगिता में शामिल कर लिया था।

पति -पत्नी द्वय (विवेक और कामना ) का साथ कर उसकी लेखनी कुछ लिपिबध्द कर देती।  और वह उसे फेसबुक पर पोस्ट कर देता।  कुछ उसके तरफ से पहल से और कुछ उसकी पोस्ट से आकृष्ट हो उसके मित्र बन गये थे। उनमें अधिकाँश वास्तविक संसार में उसके अपरिचित थे लेकिन इस वर्चुअल वर्ल्ड में उसके करीबी थे।

वह पूरे दिन वास्तविक और वर्चुअल संसार में स्विच करता रहता।  सुबह के किये विवेक और कामना के साथ से फेसबुक के मित्रों के साथ का संसार वर्चुअल था।  और कार्यालीन और परिवार दायित्व वास्तविकता थी।

आरम्भ में जिन बातों से शिकायत जिन व्यवहार को मूर्खता पूर्ण मान उत्तेजित हो , क्रोध में प्रतिक्रिया प्रगट करता और स्वयं और दूसरों को अप्रियता बाँटता था. अब अपने वर्चुअल संसार में जा वापस आकर उन्हीं परिस्थितियों में धीर गंभीर और संयत रहता , अब आवेशित अपने व्यवहार को ही मूर्खता मान स्वयं पर हँस लेता।

लोग कहते क्या जरुरत है 6 कि मी चल , एक  घंटे प्रतिदिन ख़राब करने , बच्चे सोचते क्या जरुरत बिना लाभ के घंटे -दो घण्टे फेसबुक पर व्यर्थ करने की। वह सोचता धूम्रपान में नहीं ,मदिरा सेवन में नहीं ,फ्यूल व्यर्थ करने में नहीं खर्च किये पैसे , इस वर्चुअल संसार से अपरोक्ष धन अर्जन ही था।

वह ,विवेक -कामना के बीच के मंथन से मिला इसे अमृत मानता था। जिसको बाँट मानवता और समाज हित पोषित करना अपना सामाजिक दायित्व मानता था। इसमें कोई जबरदस्ती ना कर वह इसे इंडिविसुअल की इक्छा पर छोड़ता।  इसे ग्रहण करे या ना करें .

मॉर्निंग वॉक से इस तरह शारीरिक और मानसिक फिटनेस के लाभ को अनुभव करता था।  अब दो संसार में जीता था।  एक संसार से सृजन की प्रेरणा लेता और दूसरे (वास्तविक ) संसार में उसे क्रियान्वित करता जीवन पथ पर क़दमों के कुछ निशान छोड़ता वह निरंतर चला जाता था।

इस लाभान्वित व्यक्ति की तरह नहीं भी तो अन्य तरह से नियमित वॉक करने से सभी को कुछ अवश्य अच्छा हासिल हो सकता है। दिनचर्या में शामिल कर देखिये इसे।

राजेश जैन
04-06-2014

Monday, June 2, 2014

वृक्ष


वृक्ष
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पौधा छोटा होता है , अपने फल ,फूल और शीतलता छोटे दायरे में उपलब्ध करा पाता है। वृक्ष बड़ा होता है उसका दायरा बड़ा होता है।

हम घर में पपीता का पौधा लगायें तो उसके फल हमें ही उपलब्ध होते हैं , किन्तु यदि आम का वृक्ष हमारे घर में हो तो उसकी बयार , फल पास पड़ोस में दूसरों को भी मिलते हैं।

हम अपने परिवार के लिये अच्छा करते हैं तो यह पौधे वाला गुण है , हमारे सद्कार्य और गुणों का लाभ हमारे परिवार तक सीमित होते हैं।  लेकिन हमारे सद्कार्य और गुणों का दायरा हम विस्तृत कर सकें तो उसका लाभ घर -परिवार के अतिरिक्त समाज तक पहुँचता है। जिस तरह वृक्ष विस्तृत दायरे में अपने फलों का लाभ प्राणियों को देते हैं।  उसी तरह यदि हम गुणवान हैं तो हमें घर-परिवार की परिधि में ही नहीं सिमट जाना चाहिये। हमें सद्कार्य समाज में भी करना चाहिए , जिससे ये संचारित होकर पूरे देश में फैल सकें और उससे हमारा देश समाज स्वस्थ हो सके।

और अगर हम में अवगुण हैं ,तो हमें स्वयं में सिमट जाना चाहिए , परिवार तक को उससे बचाना चाहिए ताकि वह उसकी चपेट में ना आयें।

हमारे दादाजी , स्मोकिंग किया करते थे , उन्हें इसकी खराबी का ज्ञान था , इसलिए वे बच्चों से छिप कर ऐसा करते थे। हम बच्चे अपनी मम्मी से जब पूछते तो वे कहती यह बुरी चीज होती है इसलिए छिपते हैं।

हमने स्मोकिंग को बुरा माना /जाना और इस लत से मुक्त रहे।

अपनी बुराई को अपने में सिमट पहचान कर उससे मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। यत्न करने से सभी कार्य किये जा सकते हैं। बुराई मिटा लें तो अच्छाई तो सभी में जन्मजात  होती है , उसका लाभ परिवार समाज तक पहुँचायें।

हमारा सामाजिक दायित्व अच्छाई का प्रचार -प्रसार है और बुराई का उन्मूलन है  ....  स्वयं में बुराई मिटाते हुये समाज में कम करें , देश समाज व्यवस्था से जो हमें शिकवे /शिकायतें हैं स्वयं कम होगीं

राजेश जैन
03-06-2014

Sunday, June 1, 2014

मँझधार में जाने से कतराती कश्तियाँ

मँझधार में जाने से कतराती कश्तियाँ
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लेखक , प्रशंसक शीर्षक से लिखे लेख में ही यह लिखना चाहता था , लेकिन हमारे पढ़ने के धैर्य से लंबा लेख ना हो जाये। इसलिये पृथक लिखना उचित था।

बहुत तीव्र मस्तिष्क , जानकार , प्रतिभा के धनी बच्चे और बड़े देखने मिलते हैं।  उन्हें कहीं सफलता के कठिन स्तर को छूते देखा जाता है।  लेकिन अंततः एक खुशहाल परिवार और पूर्व-अपेक्षा ज्यादा धन वैभव की मंजिल पर थमते उन्हें देखा है।

बच्चे मेहनत करते हैं , अनेकों आई आई टी , आल इंडिया पी एम टी , या ऐसी ही कुछ चुनौती पूर्ण प्रवेश परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते हैं, शीर्षस्थ शिक्षा संस्थानों में पहुँचते हैं।  फिर अब तक किये कड़ी मेहनत और रहे अनुशासन के जीवन से उकता कर ना तो मेहनत के उस भाव को कायम रख पाते हैं ना ही अनुशासन की अब तक की जीवन शैली को आगे बढ़ाते हैं।  यहाँ पहुँच जाना उनका अच्छी जॉब और एक धन वैभव युक्त जीवन प्रायः सुनिश्चित  कर देता है इसलिए। कुछ फिर भी मेहनत करते हैं , उन्हें एक और मंज़िल पानी होती है. यू एस ए या यूरोप में जॉब चाहिये होता है। वहां उनका जीवन बहुत ही सुविधाजनक हो जाने वाला होता है , वहाँ का स्वच्छंद सा जीवन युवा उम्र में और सिस्टम पूरे जीवन के लिए उन्हें सरस लगता है।

जिस कश्ती की क्षमता बहुत जूझते की होती है , बहुत दूर तक चली जाने की होती है , सागर के शाँत से स्थान पर पहुँच अनुकूलताओं का अनुभव पाकर सिर्फ वहीँ वहीँ चक्कर लगाने लगती है।  छोटी किसी मंजिल पर पहुँच थम सी गई ज़िन्दगी ,एक सम्भावनाशील प्रतिभा और व्यक्ति का जीवन सुख तो सुनिश्चित कर देती है।  लेकिन इतना प्रदर्शन ( परफॉरमेंस ) लेखक को अपर्याप्त लगता है , क्योंकि समाज  और एक सिस्टम ने उनमें ये गुण विकसित किये होते हैं , इस प्रदर्शन से उसे (समाज या सिस्टम को ) समुचित प्रतिफल कुछ नहीं मिल पाता है ।

क्यों ये धन को जीवन सफलता मानने की भूल करते हैं ? इससे ज्यादा धन और सुविधा तो कहीं कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी कुछ कुछ उपायों से अर्जित करता है (उनकी बुराई नहीं प्रशंसा है क्योंकि वे परिवार अपेक्षा को अपनी मानी गई योग्यता से बढकर पूरी करते हैं ) . लेखक ये प्रश्न नहीं उठाता यदि हमारा देश या समाज सुखी होता।

जब वातावरण और परिस्थितियां प्रतिकूल हैं तब ही प्रतिभा संपन्न से अपेक्षा होती है , वे चुनौती उठा उन्हें बदल दे।  ऐसे में ऐसे अनेकों सपूत हमारे हैं , जो समाज और देश के पीछे आने वाले युवाओं को सच्चा नेतृत्व और मार्गदर्शन दे सकते हैं।उस अभिशाप से भी पीढ़ियों को मुक्त कर सकते हैं , जिसमें दुष-प्रेरणा घटिया सिने जीवन से मिलती है।    ऐसी देश और समाजहित की सुन्दर मिसाल और परम्परा कायम कर सकते हैं जिससे सद्प्रेरणा ही एकमात्र ग्रहण करने वाली वस्तु हो सकती है। जो आज की बुराई से निपटने के लिये बहुत ही प्रासंगिक जीवन है।

पूरा लेख पढ़कर उन्हें भी निराश होने की आवश्यकता नहीं जो किसी उच्च संस्थानों में शिक्षा पाने से किन्हीं भी कारणों से विफल रहे हैं , पिछले लेख में साधारण से लगने वाले व्यक्ति की जूझने की प्रवृत्ति से देश के शिखर तक की  यात्रा का वृतांत और  सभी के " आशा की किरण " के रूप में स्थापित होने का उल्लेख किया गया है।  प्रेरणा ग्रहण करने और हरेक को कुछ कर गुजरने की हिम्मत कर लेने के लिए वह उल्लेख ही पर्याप्त है।

राजेश जैन
 02-06-2014



प्रशंसक

प्रशंसक
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हम जीवन में अनेकों तथाकथित सफल व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं जिनके फैन (प्रशंसक) हो जाते हैं।  आज जिनके प्रशंसक होने का रिवाज चला है  वे लोग फिल्म या स्पोर्ट्स के ज्यादा हैं.  स्पष्ट है यह ग्लैमर निहारने और मनोरंजन उठाने में मुख्यता की आज की पीढ़ी की प्रवृत्ति को दर्शाती है। पढ़ने वाले हमारे मित्र इसे व्यक्तिगत मान सकते हैं। मोटे तौर पर इसे लेखक भी हरेक का व्यक्तिगत विचार मानता है । किन्तु लेख में  जब इनका प्रशंसक होना देश और समाज के लिए अहितकर बताया जाना है तो इसे व्यक्तिगत अधिकार अंशतया ही माना जा सकता है।  इनका (फिल्म या स्पोर्ट्स के लोगों का ) प्रशंसक होने से नागरिक ऐसा कुछ नहीं सीखता या प्रेरणा लेता है जो देश या समाज का भला करती हो। पहले दार्शनिकों , धर्म विद्वानों , अपने गुरुओं ,साहित्कारों , देश की रक्षा में लगे वीरों और समाज निर्माण से जुड़े विद्वानों , का प्रशंसक होने का चलन था। जिनका अनुशरण कर प्रशंसक ऐसी सद्प्रेरणा पाता था जो उनमें समाज और देश हित की भावना उत्पन्न करती थी।
धिक्कार ऐसे प्रसारण तंत्र का है जो वह बात प्रसारित करता  है जिससे उनके व्यावसायिक हित सधते हैं। ये उन लोगों की छवि बनाते हैं जो अहितकारी हमारी कमजोरी हो गए हैं। देश का मीडिया जब इस देश और समाज के हित के प्रति इतना बेपरवाह हो गया है तो हमारे जैसे लेखक  का धर्म है कि वे  ही अपने क्षीण सामर्थ्य में जितना हो सके सही नायकों को समझने की आवश्यकता को प्रस्तुत करते रहें। अब इसे किसी को महिमा मंडित करने का प्रयास के रूप में ना देखा जाये आगे जो लेख है।
एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मा एक व्यक्ति किशोर आयु में ही वैराग्य अनुभव कर दुनिया से दूर निर्जनों में भटकता है , कुछ वर्षों में वापस तो समाज में लौटता है किन्तु अपने जीवन के लिए सारी इक्छाओं को मार ,अन्यों  के लिए (देश और समाज ) जीने की भावना के साथ।  इसी जन्म में नये अवतरण के साथ उसको हर उम्र पड़ाव पर ऐसी सफलता और चर्चा मिली होती है जिनकी तुलना वह अपनी बचपन की परिस्थितियों से करता तो संतोष कर उसकी सफलता की यात्रा उस जगह तक जाकर ही थम सकती थी। लेकिन जन्म से जितना कम भाग्यशाली वह लगता था ,उतना कम नहीं बल्कि ऐसा भाग्यशाली वह था जैसे बिरले ही होते हैं। देश और समाज के लिये ठोस कुछ कर गुजरने की भावना ने उसे ऐसे किसी मुकाम पर थम जाने नहीं दिया। आज वह देश की आशा का किरण बन देश के उच्चस्थ स्थान पर विराजित है।  बहुत अरसे बाद किसी राजनेता के इतने अधिक प्रशंसक हमें देखने मिले हैं।
देश के लिए वह कुछ करे इस हेतु करोड़ों की  अपेक्षा उस व्यक्ति के ऊपर पहले ही बहुत अधिक हो गयी है इसलिए इस लेख में भी ऐसी कोई अपेक्षा जोड़ कर उसके कंधे पर यह बोझ लेखक नहीं बढ़ायेगा बल्कि क्रियान्वयन को भविष्य के ऊपर छोड़ेगा। यहाँ जिनसे अपेक्षा होगी वह करोड़ों उसके प्रशंसक से होगी।  अपेक्षा चूँकि करोड़ों में बँट जायेगी इसलिए उसका बोझ भी अत्यंत कम ही आएगा।
प्रशंसक अपने इस नायक से यह प्रेरणा और सीख अवश्य लें कि सफलता की मंजिल जीवन भर बदलती जाती है। अपनी किसी वय के लिए निर्धारित सफलता पर पहुँच वहाँ थम जाना उचित नहीं है।  बल्कि उस मुकाम पर पहुँच जाने के बाद अगली मंजिल निर्धारित करते हुए उस पर पहुँचने के क्रम को दोहराते जाना है। इस नायक से यह भी सीखा जा सकता है कि परिवार का हितैषी होते हुये भी अपने हितों के लिये संघर्ष का अवसर अपने परिवार के समर्थ सदस्यों को ही देना है। जिससे जीवन में वे निठ्ठल्ले ही ना रह जायें। इस नायक से यह भी सीखा जाना चाहिए की सफलता का पैमाना सिर्फ धन को ना रखा जाए।
अगर प्रशंसक ऐसी सही प्रेरणा उस जननायक से लेता  है तो उसका काम सरल करता  है , जिसे अपनी आशा की किरण प्रशंसकों ने स्वयं बनाया है      ……
--राजेश जैन
01-06-2014