Friday, August 31, 2012

सर्वकालिक महान

अभिनेता



                                     एक अभिनेता जब कुछ वर्षों में सिनेमा में सक्रिय और सफल रहते बहुत धन और प्रसिध्दी बटोर चुका , तब एक रात उसे विचार कौंधा क्यों ना मै सर्वकालिक महान बनने के लिए कुछ करूँ ? ऐसे विचार के साथ अगली सुबह वह अपने गुरु के पास पहुंचा. उनसे इस हेतु क्या करना चाहिए पूँछा   . उन्होंने  कहा आज के समाज में बहुत खराबियां हैं , उन्हें दूर करने के लिए मेहनत करो.   अभिनेता को सूझ मिल गयी थी . वापस आया विचार किया उसके पास लोकप्रियता थी . जहाँ चाहे भीड़ खड़ी  कर सकता था . उसके पास प्रसार तंत्र और उसमें बहुत परिचय था . उसके पास धन था . किन्ही की भी सेवा खरीद सकता था . तुरंत उसने विशेषज्ञों की टीम इकठ्ठी कर ली .
                              विशेषज्ञों ने देश में सर्वे कर डाला . दस-पंद्रह सामाजिक समस्याएँ ला बताई . तुरंत स्क्रिप्ट लिख वाली  गयी . कुछ  विशेषज्ञों का परिचर्चा बना ली गयी .कुछ पीड़ितों के घावों को उनसे उल्लेखित करवा लिया गया . कुछ कर्मठों के संघर्ष और सफलता की कथा चित्रित करवा ली गयी . हॉल  में तथाकथित आधुनिक और विचारकों को दर्शक बना बैठा लिया गया . अभिनेता को संचालक और अध्यक्ष सी कुर्सी दिला दी गयी . कहीं करुणा दर्शाना , कहीं हास्य उत्पन्न करना और कहीं चुटकियाँ लेते डायलाग्स उनके लिए लिख दिए गए  .इस तरह सब सम्पादित करते हुए कुछ दूरदर्शन धारावाहिक साप्ताहिक प्रसारण को तैयार कर लिए गए . विज्ञापनों के माध्यम से पहले से ही दर्शकों में जिज्ञासा उत्पन्न करवा ली गयी . ये सब अभिनेता के लिए आसान ही था . नियत दिनों में बारी बारी साप्ताहिक एक एक प्रसारित किये गए.
                                    हम सभी में (चिकित्सक ,कृषक ,पुरुष और नारी के प्रति अत्याचारी की बुराई ) उन्होंने देखी /दिखलाई .और व्यस्त इस समाज से खूब प्रशंसा बटोर ली . व्यस्तता वश हम विचार नहीं कर पाते थे कि जो बुराइयाँ चित्रित कीं गयीं उसकी जड़ कहाँ हैं . सतही इस प्रदर्शन के सतही समाधान में हम सबने सहमती जतला दी .
                                     बुद्धिजीवी वर्ग को जिस विषय के प्रसारण  की उनसे आशा थी उसके प्रसारण के बिना धारावाहिक समाप्त हो गया था. बुद्धिजीवी ठगा सा प्रतीक्षारत रह  गया था . अभिनेता ने और उनके विशेषज्ञों ने हमारी बुराइयाँ देख ली थी . हमें ही उसपर हंसवा लिया था ,धिक्कार दिलवा दिया था . लेकिन जब आशा यह थी की अस्सी साल के सिनेमा ने क्या बुराई लाई उसपर कोई प्रदर्शन आएगा , वह नहीं आया अभिनेता अपने गिरेबान में झांक ने में असमर्थ रहा था .
                                 वह सिनेमा और (सिने कर्मी ) जिसने  सारी प्रसिध्दी अपनी और खींच ली थी , जिन्होंने   सच्चे नायकों (सच्चे गुरु, सच्चे धर्मगुरु , उच्च  विचारक , महान वैज्ञानिक , महान साहित्यकारों इत्यादि ) के अनुशरण करने वालों को उनसे दूर अपनी छद्मता की ओर   आकर्षित कर लिया था . और इस स्थिति में आकर प्रचार और सिने माध्यम के उपयोग से अपसंस्कृति के विष से सामान्य व्यक्ति के ह्रदय पर छिडकाव किया था .जिससे देश की उर्वरा शक्ति बुरी तरह प्रभावित हो गयी और सच्चे नायकों की उत्पत्ति को बाधक बन गयी .  हर ह्रदय का सपना आलीशान बंगला , चमचमाती कार और आकर्षक लिबास और अथाह वैभव होने लगे थे . फिर यह गौड़ था कि इसके लिए किस तरह से धनार्जन उचित था . ग्राम का युवा ग्राम छोड़ महानगरों के तरफ भागने लगा था . ग्रामीण जन घनत्व घट  गया था . देश में पतिव्रता , और एक जीवनसंगिनी का आदर्श प्रश्न चिन्हित हो गया था . नारी शोषण   धारावाहिक के माध्यम से कुछ और कारणों पर आरोपित था , पर सिने परदे और उसके पीछे नारी शोषण को बढ़ावा देते कारण उनके इस धारावाहिक में लाये जा सकते थे . जो दूरदर्शन पर छिपा लिए गए थे . कहा जाता है दिन में इन्सान और रात्रि में शैतान जागता है . सिने देर रात्रि पार्टियों ने देश की जल्दी सोने और सुबह जल्दी जागने की संस्कृति की बलि ले ली थी . रात्रि पार्टियाँ चलन बन गया . जहाँ कब किसी की किस तरह की नियत डोल जाये कहना आसान  ना था .
                             वे महान बनने में विफल हो गए थे .वे अच्छा अभिनय जानते थे ,उन्होंने महान का अच्छा  
अभिनय कर  दिखा दिया था वे अभिनेता  थे ,  जो ही सिध्द  हो सका था        

स्वप्न और न्याय का साकार होना

स्वप्न और न्याय का साकार होना


                                एक दूरस्थ ग्राम में रहते कृषक पुत्र ने किशोर वय में एक अभिनेता की फिल्म देख इस तरह दीवाना हुआ कि इस ख्याल से कि उसके यहाँ माली का कार्य कर लूँगा ग्राम छोड़ा और मुंबई आ पहुंचा .अभिनेता के यहाँ कड़ी चौकसी से वह कई दिनों घूमता रहने पर भी बंगले में झांक तक न सका .फुटपाथ पर पुड़ी भाजी की दूकान पर किसी तरह नौकरी करता वहीँ  पेट भर लेता और जो कुछ नगद हासिल होता उससे उसी अभिनेता की फ़िल्में कई कई बार देखता .अलग अलग मौसम के अनुसार कभी फुटपाथ तो कभी उसी दूकान और कभी अन्यत्र नींद आने पर सो जाता . दिन व्यतीत हो रहे थे . एक रात्रि दूसरा शो देख कर सिनेमा घर से बाहर आ अभिनेता की चमचमाती गाडी में साथ बैठ उसके साथ तेज गति से लम्बी ड्राइव पर जाने के सपने के साथ गर्मी का मौसम होने से...एक फूटपाथ पर जा लेटा.

                            रात्रि में ना जाने कब उसी अभिनेता की अनियंत्रित गाड़ी की चपेट में आ गया . उसका सपना थोड़े अंतर से साकार हो गया .गाड़ी के अन्दर अभिनेता का तो नहीं गाड़ी के चकों का साथ मिला .गति इतनी ज्यादा उसे मिली कि एक लोक से दूसरे लोक की अनंत दूरी कुछ ही क्षणों में तय हो गयी . अभिनेता पर प्रकरण दर्ज हुआ प्रथम द्रष्टया अपराध लगता प्रकरण वकील की इस दलील से कि अभिनेता की गाड़ी की चपेट में आने से वह स्वर्ग वासी हो गया , न्यायाधीश को अपराध न लगा उसे लगा की फुटपाथ के नरक से स्वर्ग वासी होना गति सुधरना है .फिर भी न्यायाधीश मजबूर था संविधान की धाराओं से बंधा था . अभिनेता को पांच हजार रूपये दंड सुनाया गया . लापरवाही से कार चलाने के लिए . स्वप्न और न्याय इस तरह साकार हो जाते हैं ............

Monday, August 13, 2012

ज्यादा ज्ञान-पर अशांति ज्यादा

ज्यादा ज्ञान-पर अशांति ज्यादा 


                                                पहले शिक्षा प्राप्त करने के अवसर कम मनुष्यों को ही मिल पाते थे . तब विज्ञान और गणित  इतना उन्नत नहीं हुआ था . संसार का भूगोल की कम जानकारी थी . पढने के लिए नीति ,युध्द विद्या और व्यवहारिक और धर्म के प्रमुख विषय होते थे . इसलिए मनुष्य में  चरित्र , सामाजिक मर्यादाओं और न्यायिक सिध्दांतों का पालन ज्यादा देखने में आता था . ऐसे उदाहरण भी थे जब खुद को दोषी अनुभव होने पर व्यक्ति स्वयं को दण्डित भी कर लेता था.  यह नैतिक साहस समाज को सच्ची प्रेरणा भी देता था . इससे परस्पर विश्वास और सामाजिक वातावरण सुखमय भी होता था.
                      गणित और विज्ञान धीरे धीरे निरंतर उन्नत होता गया . और आज दुनिया भर में यात्रा , वार्तालाप और प्रचार-प्रसार के तीव्र साधन उपलब्ध हुए हैं . अब संसार तो सिमट ही गया है . एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक 2-3 दिनों में पंहुचा जा सकता है ( यद्यपि आर्थिक समर्थता शर्त है ) . हर पल एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक सन्देश और फोटो इत्यादि का आदान प्रदान हो सकता है (नेट ,sms इत्यादि से ) . समाचार पलक झपकते मिलने लगे हैं . गंभीर रोगों से भी प्राण बचाये जा सकते हैं . मनुष्य प्रथ्वी तो क्या अन्तरिक्ष और अन्य ग्रहों के बारे भी अपना ज्ञान बढ़ा रहा है. ज्ञान तो अनंत है और कभी पूरा प्राप्त कर पाना लगभग असंभव ही होगा .
                                इस तरह विज्ञान और गणित के ज्ञान से जीवन सुविधा जनक हुआ है .दिनों में जो काम नहीं होते थे स्वचालित मशीनों से तीव्रता से होने लगे . गुणवत्ता बेहतर होती गई उत्पाद आकर्षक और सुन्दर होते चले गए  और तो और रसोई में तक बिजली आधारित स्वचालित उपकरण पहुँच गए . और दिन भर सिर्फ भोज्य तैयार में लगे रहने के स्थान पर अब दो चार घंटों में विभिन्न व्यंजनों को बना लेना आसान हो गया.  ज्यादा ऐसे उदाहरण लक्षित विषय की चर्चा के लिए अनावश्यक है .
                              ज्यादा पढ़ा लिखा ,ज्यादा विषयों का ज्ञान अर्जित कर क्या मनुष्य पहले से ज्यादा सुखी और कार्य बोझ से हल्का हो सका है ? ऐसा लगता है कि इन सब सुविधा साधन और ज्ञान से कुछ ही ज्यादा तसल्ली   और जीवन सुख प्राप्त करने में सफल हो पा रहे हैं  .जबकि अधिकांश इन सब को जुटाने के फेर में ज्यादा व्यस्त और अशांत (मानसिक दबावों से ) हो रहे हैं. इस दिनचर्या में जीवन के 80-100 वर्ष का समय ऐसे निकलता है जैसे बंद मुठ्ठी से रेत .और एक बड़ी उम्र में पहुचने पर कोई ऐसा सोच स्वयं आश्चर्य अनुभव करता है कि इतना बड़ा सा लगने वाला एक अरसा कैसे बीत गया पता न चला . जिन जीवन स्वप्न के लिए उसके प्रयत्न और कर्म चल रहे थे . वह स्वप्न तो साकार होने भी न पाए थे और अब कम जीवन शेष दिखाई पढता है .
                            बच्चा अबोध ही होता है ढाई -तीन वर्ष का स्कूल भेजा जाने लगा है. एक ठीक सी समझी जाने वाली शिक्षा हासिल करते 22-23 वर्ष का हो जाता है . शिक्षा धनार्जन और अपनी सामाजिक प्रतिष्टा और पहचान बढ़ाने के उद्देश्य से प्राप्त की होती है . अतः शिक्षा पूरी करते करते अपने लिए उचित व्यवसाय और नौकरियों कि संभावनाएं तलाश करने में व्यस्त होता है . तय हो जाने पर अपने क्षेत्र में ज्यादा उन्नति का विचार हावी होता है . इस बीच विवाह ,परिवार , एक आशियाना   और बच्चे  क्रम बध्द आते जाते हैं . इनके बीच समन्वय बनाने में भी व्यस्तता और मानसिक दबाव ही बढती है . सब कुछ करते हुए भी जीवन्तता अनुभव नहीं कर पाता है और उम्र होने लगती है पचास -साठ .  तीन वर्ष कि अबोध उम्र से पहले शिक्षा और फिर व्यवसाय में तरक्की की द्रष्टि से निरंतर व्यस्तता और मानसिक दबाव और असंतुलित शैली तथा खानपान अब कई रोगों के साथ उस पर आ पड़ते  हैं . और अब व्यस्तता उनसे बचाव के लिए उपाय ,चिंता और अस्पतालों के चक्करों में हो जाती है . जीवन बचाए रखने में सफल रहे भी और 70-75 वर्ष के हुए तो परिवार के युवाओं से अपने साथ वार्तालाप की कमी अनुभव करते हैं .वस्तुतः 2-3 पीढ़ी बाद के मनुष्य को पहले की पीढ़ी से ज्यादा व्यस्त जीवन शैली और महत्वाकांक्षा मिली होती है . युवाओं की इस बाध्यता को न समझ पाता है .     विपरीत समय में हमारे   बच्चे हमारी सेवा करेंगे ऐसी आशा उनके जन्म और उनके लालन -पालन के समय से ह्रदय में बनी होती है उस अपेक्षित  सेवा भाव में उनके तरफ से कमी अनुभव कर अब समय उपेक्षा से दुखी होने का होता है . अन्य शारीरिक प्रतिकूलताएं तो साथ होती ही हैं.
                                   जीवन मोह टूटता है कई अपनी मौत ही स्वयं चाहने लगते हैं . और मौत भी यहाँ धोखेबाज सा व्यवहार करती है . जो जीना चाहते हैं उन्हें चटपट जाती है . और जो मरना चाहते हैं उन्हें वर्षों (स्वयं पर भी ) आश्रितों  पर अभिशाप बन टंगाये रखती है .  यद्यपि इस बात की चिंता निरथर्क होती है.  इससे कोई मदद नहीं मिलती है .लेकिन जीवन में कर सकने योग्य नियंत्रण अपने पर लागू न कर सकना , और फिर जीवन पर से इस तरह नियंत्रण खो स्वयं और समाज को क्षति पहुचना कोई बुद्धिमानी नहीं है. सबकी क्षमता अलग अलग होती हैं . अपनी क्षमताओं  को न पहचान दूसरे क्या कर रहे ( विशेष कर समर्थ ) उससे होड़ करना अनुचित  है . इस प्रयास में हमें सिध्दांतों से समझौता करना होता है . कभी हम बुराई का सहारा ले प्रतिस्पर्धा में विजेता होने के यत्न करते हैं . इन प्रयत्नों में सफल हुए या नहीं यह तो गौड़ होता है .पर हम बुराई में पड़ना  आरम्भ कर चुके होते हैं . एक  बार सिध्दांतों से समझौता फिर अनेक अवसरों पर हमारी हिचक मिटाता है.   यह स्थिति कतई पश्चाताप न देती यदि हम आम मनुष्य जीवन से अलग कुछ जीवन सार्थक कर पाते. 
                           बहुत ही उच्च कोटि का पौष्टिक , महंगा , स्वादिष्ट भोज्य का निरंतर जीवन भर सेवन हमें सौ सवा सौ वर्ष पूर्ण स्वस्थ अवस्था में जिलाये रख पाता . हमारा  रूप और यौवन और शारीरिक शक्ति जीवन भर कायम रहती . हमारे सुन्दर और महंगे परिधान हमें जीवन अंत के समय कफ़न से अलग कुछ दिलाते . और विलासिता पूर्ण हमारे भवन और महल प्रथ्वी पर बना लेने से स्वर्ग में हमारे लिए कोई अच्छा कमरा आवंटित करा पाते तो मै मुक्त कंठ इस दिशा में किये जाने वाले प्रयासों की प्रशंसा करता .लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता है . तो फिर यह चिंतन उचित ही है .ये सभी बातें जीवन में न्यायपूर्ण साधनों से मिले तो सब अच्छी हैं . उपभोग भी करें . पर ऐसी आसक्ति इनके प्रति तब निंदनीय है जब हम दूसरों को धोखा दे , उनके अधिकारों का हनन करते और बुरे तरीकों से अपने लिए प्राप्त करते हैं . जो अंततः स्वयं खो भी देते हैं.
                            हमें भौतिक आडम्बरों को अपने पर इतना हावी नहीं होने देना चाहिए. इनसे बच सके तो सामाजिक न्याय हम अनायास ही करने लगते हैं . संवेदना और दया भाव हम में सृजित होते जाते हैं . न्याय प्रियता हमारा स्वभाव हो जाता है. बेकार  अहम्  हम में पनपता नहीं , अहम् न हो तो हममे   बडबोलापन नहीं होता , दूसरा हमसे बिना कारण अपमानित भी नहीं होता है और सभी के मन में आपसी बैर के स्थान पर एक अपनापन की मधुरता ही होती है .ऐसे हमारे जीवन से दूसरे सच्ची प्रेरणा प्राप्त करते हैं और जब वे भी ऐसा ही बनना आरम्भ करते हैं तो समाज में अशांति और खराबियां स्वतः कम होती चली जाती हैं . 
                                         ऐसा अगर हम कर रहे हैं तो साधुवाद के पात्र हैं . नहीं करते हैं तो भूल जितनी जल्दी सुधारेगें उतना अपने पर ही न्याय कर सकेंगे . परलोक सुधारने को तो हम व्यग्र हैं पर जिस लोक में हमें 80-100 वर्ष और हमारी संततियों को सदा ही (अपने अपने क्रम ) जीना है . उसके लिए हमारा ऐसा करना अपेक्षित है .
                        हमें एक उचित संतुलन अपने ज्ञान अर्जित किये जाने वाले विषयों में लाना है . हम चाहे जिस क्षेत्र का जितना अच्छा ज्ञान अर्जित करे लेकिन उसके साथ मानवीय मूल्यों और नीतिगत व्यवहारिक ज्ञान और उस अनुरूप  आचरण नितांत और नितांत हमारे उत्तरदायित्व हैं . अगर किसी भी जगह हम किसी के दायित्व निर्वहन न करते देख उसे निंदनीय मानते हैं तो हमारे अपने  उत्तरदायित्व के साथ भी न्याय न कर पाना भी निंदनीय ही होगा . 

हम मानदंडों का  दोहरापन  मिटायें . जो दूसरे के आचरण में अनुचित है वह अपने आचरण में भी साफ़ करें.

                    यह कहानी अनंत बार लिखी गयी है आज मेरे शब्दों में पुनः आपके सामने है . क्योंकि यह मनुष्य जाति के प्रथम अस्तित्व से उसके शेष रहते तक हमेशा प्रासंगिक रहने वाली है .

Friday, August 10, 2012

सुविधा लालसा

सुविधा लालसा


                                     मनुष्य तरह तरह की परिस्थिति में जीवन व्यतीत कर रहा है . एक सुविधा पूर्ण स्थिति में रहते वह  अपनी इस स्थिति से एक लगाव रखता है . यह लगाव उसे ऐसा कोई खतरा उठाने से रोकता है जिससे उसके सुविधाओं में कमी की आशंका होती है. इस मनोदशा में वह अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए उचित - अनुचित तर्क देते अपनी कुछ खराबियों का भी बचाव करने का प्रयास करता रहता है .इसे सामान्य मनोविज्ञान कहा जा सकता है.
                                         समाज में ऐसा वर्ग जो धनाभाव , व्यवहारिक ज्ञान और विज्ञान की कम जानकारी से जीवन में मूलभूत सुविधा के लिए संघर्षरत होता है , सुविधामय जीवन व्यतीत करते वर्ग के तर्कों से असहमत होता है. इनकी कहीं संख्या दूसरे वर्ग से अधिक भी होती है तब भी इस असहमति के शब्द और स्वर दबे रहते हैं , जहाँ कम हैं वहां तो स्वाभाविक यह होता ही है.
                                           यद्यपि वंचित इस वर्ग से यदा कदा कुछ सशक्त स्वर भी सुनाई देते हैं . इस वर्ग के लिए न्याय के प्रयत्नों ने कुछ व्यक्तियों के कर्म और जीवन को महानता भी दी है.पर ऐसे उदहारण  बिरले और दूसरे ज्यादा मिलते हैं , जब संघर्षों के बीच सुविधाविहीन से सुविधाजनक वर्ग में उन्नति के साथ मनुष्य सुविधापूर्ण अपनी स्थिति के बचाव में व्यस्त होकर अपनी पिछली स्थिति जैसे वर्ग के लिए न्यायपूर्ण स्थिति तक पहुँचाने के लिए संघर्ष से विमुख हो जाता है.  मनुष्य में सुविधा लालसा की वर्णित भावना ही आज की स्थिति तक उन्नत भौतिक जीवन स्तर तक इस समाज को पहुँचाने में सफल हुयी है . ऐसे में सुविधा लालसा को अनुचित बताना अनुचित होगा .दूसरे शब्दों में इसे ही सारे मानवीय आविष्कारों और खोजों का मूल कारण बताना समुचित होगा . " आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है ."
                                        लेकिन सुविधा लालसा का उचित स्तर के बारे में सोचा जाना भी उपयुक्त होगा . क्योंकि सुविधाओं में जरा सी कमी या त्याग अब हमें पसंद नहीं होता. और हमारे प्रयास निरंतर इन्हें बढाने के होते हैं.   अतएव हासिल भौतिक उन्नति और सुविधाओं की मात्रा और उपलब्धता सारे मनुष्य समाज में बेहद ही असमान है . यह असमानता 100 और 10 तक भी सीमित हो  तो भी चिंता की बात नहीं थी . समाज इतनी विषमता को सहज झेल जाता . पर विषमता तब चिंताजनक है जब काफी तो 1000 के स्तर पर उपभोग करते हों और उनसे बहुत बहुत अधिक 1 को भी वंचित हो जाते हों .  ये असमानता मनुष्य समाज में अशांति उत्पन्न करती है . और सामाजिक वातावरण सुखमय नहीं रह जाता है. मनुष्य के चरित्र , स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति इससे बुरी तरह प्रभावित होती है. जो परस्पर वैमनस्य   मनुष्य ह्रदय में छिपी अवस्था में होता है अशांति की  बड़ी वजह होता है. प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष संघर्ष और ईर्ष्या भी उत्पन्न होती है . स्वार्थ प्रेरित तत्व नस्ल ,राष्ट्र , भाषा और धर्म भेद का भ्रम फैलाकर मूल समस्या कारकों से जन सामान्य का ध्यान बटाने को सक्रीय रहते हैं. प्रत्यक्ष और छिपे तरीकों से फिर इन्ही भेद को लक्ष्य कर कुछ हमले एक दूसरे पर बोले जाते हैं . बड़ी जन-हानि जब हो जाती है तब सदमे में कुछ समय का संघर्ष विराम हो जाता है फिर नए साधनों और योजनाओं के सहारे वर्चस्व हेतु संघर्ष  पुनः आरम्भ होता है .

                                शांति और सुखमय समाज के समर्थक प्रबुध्द जन जब तब हिंसा और संघर्ष की आलोचना करते हैं और उनसे बचाव के उपाय करते हैं . संसार अब कई महाद्वीप और राष्ट्रों में विभक्त है और हर राष्ट्र में शांति कायम रखने के संविधान , नियम , व्यवस्था और न्याय पालिकाएं हैं . जहाँ व्यवस्था और आर्थिक सम्पन्नता पर्याप्त है वहां सतही सामाजिक शांति दिखती है . लेकिन पिछड़ गए राष्ट्र और आर्थिक विपन्नता के कारण अधिकांश राष्ट्र  सतही सामाजिक शांति भी कायम नहीं रख पाते हैं .वंचित  मनुष्य ह्रदय में असंतोष आंतरिक अशांति का कारण हर समाज में बन रहा है.
                                           हर जगह तुलनात्मक ज्यादा सहज और सुविधा की स्थिति में जी रहा वर्ग अपनी प्रिय इस स्थिति में से कुछ भी त्याग को तैयार नहीं है . शिक्षा और संस्कारों की दुहाई देते हुए वंचित वर्ग को ही दोषी बताने के तर्क और शब्दजालों से स्वयं और दूसरों को संतुष्ट करने की चेष्टा निरंतर प्रक्रिया हो गयी है. सुविधा वाली स्थिति से जब कोई जीवन के दौरान किन्ही कारणों से गिर सुविधा विहीन हो जाता है तो  उसके स्वर  और तर्क बदल जाते हैं . मनुष्य जीवन इतना सिध्दांत हीन तो नहीं होना चाहिए . हम जैसे ही सुविधा साधन  संपन्न हो जाते हैं वैसे ही सम्पूर्ण समाज के हितैषी और तत्सम्बंध के उपदेश अभिनीत करते हैं . लेकिन   वंचित वर्ग में शिक्षा और उन्नति के अवसर मिल जाने से उन्नत हो गए व्यक्ति भी पूर्व स्थिति के साथियों को इसी अभिनय से संतुष्ट रखने की कोशिश आरम्भ कर देते हैं और उनके स्तर को ऊँचा उठाने में आवश्यक रूचि नहीं लेने से समाज की भलाई नहीं करते हैं .
                                            "सम्पूर्ण परिद्रश्य वैयक्तिक भोगवाद की कहानी कहता है".हमारी  इस प्रवत्ति को जब कोई रेखांकित करता है तो अहम् आहत होता है और अनर्गल तर्कों और शब्दजाल से हम उस पर प्रहार आरम्भ करते हैं . प्रत्यक्ष संज्ञान ले रहे अन्य अपनी अपनी सुविधाओं और धारणाओं के अनुसार दो वर्ग में विभाजित होते हैं . कुछ उदासीनता में अपनी सुविधा पाते हैं . 
                                                हम अभिनय ना करें समाज भलाई के लिए वास्तव में अग्रसर हों , फिर भले मीलों न बढ़ सकें चार कदम ही सकरात्मक दिशा में चलना ही सफलता हो सकती है , जब इस दिशा में ये चार कदम वर्तमान कुछ और आगामी संतति को समुचित प्रेरणा दे सकने में सहायक हो जायेंगे. अगर मनुष्य जीवन के इस कर्तव्य को हम ना समझ सकें हो तो इसे समझें और फिर इससे विमुख न हों. 
                                          मनुष्य जीवन और ऐसी समझ हर कोई नहीं प्राप्त कर सकता . अपना आत्मबल संचित रखें समाज हमारे से किये अपने अहसानों के बदले में अपने लिए इस  अपेक्षा के साथ  हमारे सम्मुख उपस्थित  है .  अपने से अच्छाई के लिए अपेक्षाकर्ता को निराश करना अन्याय है . अपेक्षा समर्थ से होती है , अपेक्षा कर कोई हमें समर्थता का बोध करा रहा है क्या कम है ?