Thursday, December 31, 2015

नारी अंतरंगता


नारी अंतरंगता
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 हर  हृदय में  अच्छा बहुत  कुछ  रहता है
 खींचा  गया  चित्र वह  अच्छाई  कहता है
 पीढ़ी  तुमने कैसी  लगाई है चित्र प्रदर्शनी
 नारी अंतरंगता ही क्यों? चित्र-चित्र कहता है
#गर्लफ्रेंड
 माँ  है , बहन  है , बेटी  है , 'हे पुरुष '
 गर्लफ्रेंड के  आकर्षण में क्यों खोता है
 अगर जीवन में यह प्रधान बात है तो
 बहन बने गर्लफ्रेंड क्यों गुस्सा होता है
#गरिमा
चित्रकार हैं मित्र  मेरे , प्रकृति चित्र  उकेरते हैं
चित्रों के माध्यम  से , वे जीवनशैली  कहते हैं
कहीं नहीं  बैर , कोई अश्लीलता  उन चित्रों में
गरिमा-सभ्यता ही उनका चित्र-चित्र कहता है
--राजेश जैन
31-12-2015
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Tuesday, December 29, 2015

क्या ये जीवन है ?

क्या ये जीवन है ?
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खुशियाँ दिलाते अब रूपिये
ये क्या ज़माना आया है
अभाव में टूटते नाते-रिश्ते
कैसा विकास हमने पाया है
 
वृध्द माँ-पिता हैं उपेक्षित
रूपये लगते उनके उपचार में
उपचार अभाव में चल देते जब
कोसते स्वयं को हम मलाल में
 
सुधारो यह उपचार पध्दति
लाओ सेवा भाव अस्पताल में
बच्चे फर्ज न निभा सके
क्या ये जीवन है ? ऐसे विकास में
--राजेश जैन
30-12-2015



Monday, December 28, 2015

वर्ष 2015 विदा हो रहा है ,पर पहले ही इसमें एक महापुरुष विदा हो गया


वर्ष 2015 विदा हो रहा है ,पर पहले ही इसमें एक महापुरुष विदा हो गया
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जो हम चाहते मानवता पर चलना
कुछ अलग तरह से हमें जीना होगा
बदलना चाहते जग को ,नेतृत्व हेतु
नस्ल ,देश ,जाति से ऊपर उठना होगा
             जाति , नस्ल आधारित ये विश्व बना
             भाषा एवं देश की सीमाओं में ये बँटा
             सुख नहीं दिया इन सबने जीवन को
             हमने इसमें बदलाव का दायित्व चुना
तोड़ देनी होगीं ये भ्रम की सीमायें
सुख समृध्दि एक सी करनी होगी
वेदना क्या होती दूसरे के तन मन की
अपने पर बिता ये कल्पना करनी होगी
           अपने लिए भोग-उपभोग की प्रवृत्ति
           मान सफलता की अपनी जीवनशैली
           ये तारीफ़ नहीं ,ये हैं अपनी कमजोरी
           नई आधुनिक शैली ये बदलनी होगी
--राजेश जैन
29-12-2015

Sunday, December 27, 2015

युवा काल

युवा काल
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बीत रहा है युवा काल , लौट फिर कभी न यह आएगा
ग्लैमर बिकता अभिनेत्री का ,न उनका भी रह पाएगा
बदलता मौसम , वैसा बदल नया जीवन मौसम आएगा
सदकर्म हैं करने को करें ,अन्यथा शेष करना रह जाएगा

चिरकाल न रहती युवावस्था ,न रखें चाहत ,बने रहने की
बेचें जो ग्लैमर ,उनके लिए छोड़ें चाहत युवा बने रहने की
हम अर्जित करते थोड़ा कुछ ,आजीविका चलाये रखने को
हमें नहीं चाहत अरबों की ,करें भलाई ,जरूरत है करने की 

यह देश हमारा ,समाज हमारा ,हमारे अपने सब देशवासी
भला अपना ,हो भला सबका भी ,खुश रहें सब भारतवासी
--राजेश जैन
28-12-2015
 

Wednesday, December 23, 2015

एसिड अटैक (लघुकथा) Acid attack

एसिड अटैक  (लघुकथा)
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किशोर , अपने ऊपर लगे आत्महत्या के प्रयास के आरोप की सुनवाई में  न्यायालय के समक्ष ,अपना पक्ष रखते हुए कह रहा था।  जज साहब , उस रात मैं एक भयानक सपना देख रहा था , जिसमें मैंने एक लड़की जो मेरा प्रेम आग्रह ठुकरा गई थी के मुख पर एसिड फेंक दिया था। मेरे इस कृत्य पर उसके घर वाले इतने कुपित हुये कि उन्होंने बदला लेने के लिए मेरे ऊपर भी एसिड डाल दिया। जज साहब , इस अटैक के बाद मेरा जला हुआ कुरूप चेहरा , आईने में देख मैं सपने में इतना निराश हुआ कि नींद में ही चल कर मैं ,कुयें में कूद गया था ।
जज , आरोपी की सफाई बड़े अचरज के भाव से सुन रहे थे , एक पॉज , के बाद किशोर ने आगे कहना जारी किया .. जजसाहब , निवेदन है कि मुझे सजा से मुक्त किया जाये।  मैं आगे के जीवन में किसी लड़की पर ऐसा अमानवीय एसिड अटैक न हो इसके लिए काम करना चाहता हूँ।  और जहाँ भी किसी पुरुष ने यह कायराना अपराध , नारी पर किया उसका मुहँ मैं एसिड से बिगाड़ने की शपथ उठाता हूँ।
जज ने किशोर को आगे कहने से रोकते हुए , अपना फैसला सुनाया , किशोर तुम्हें आरोप मुक्त किया जाता है।  तुम एसिड अटैक रोकने हेतु मानवीय और सामाजिक कार्य अपने जीवन में करोगे ,इस भावना की प्रशंसा की जाती है।  लेकिन तुम्हें आगाह किया जाता है कि  एसिड अटैकर के ऊपर एसिड डालने का कार्य तुम नहीं करोगे , ऐसे किसी भी अपराध का न्याय करने की जिम्मेदारी देश के न्यायालयों की है।
--राजेश जैन
24-12-2015
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ज्योति सिंह (निर्भया)

नारी चेतना और सम्मान रक्षा
ज्योति सिंह (निर्भया)
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ज्योति तुम अत्याचार से असमय बुझ गईं
 भारत की सँस्कृति में निर्भया बन जुड़ गईं
 नारी संघर्ष राह में ये बलिदान न व्यर्थ होगा
 नारी चेतना के लिए ज्योत तुम जगा गईं
कैसी है विडंबना तुम ,तुम्हारे अपराधी को
अवयस्क अतः सख्त सजा नहीं दिला गईं
पर अपराध घटे नारी पर ,मरणोपरांत तुम
किशोर कानून बदले  जाने का श्रेय पा गईं
जी जीकर जो कार्य करना हो रहा था दुष्कर
अत्याचार पीड़ा झेल मर के तुम वह कर गईं
तुम्हें खोया माँ ने ,उनके नेत्र भरे अश्रुओं से 
पर राष्ट्र की युवतियों का सम्मान जगा गईं
--राजेश जैन
23-12-2015
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Monday, December 21, 2015

जीवनचक्र और आधुनिकता

जीवनचक्र और आधुनिकता
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भारतीय परिवेश में आज , एक दंपति के जब बच्चे होते हैं , वे तीस के आसपास होते हैं। उनकी 45-50 की आयु तक ,बच्चे लगभग सारी तरह से उन पर निर्भर होते हैं। साफ है , लाड़-दुलार , मार्गदर्शन और भोजन वस्त्र की व्यवस्था , धन और सामर्थ्य से माँ-पापा करते ही हैं। दो और बात होती हैं  , जो दया-त्याग कहलातीहैं ,भी बच्चे के लालन-पालन में आवश्यक होती हैं । हममें यथोचित दया-त्याग होने पर , अपने निर्भर बच्चे को हम ज्यादा पीटते नहीं हैं। यह दया-त्याग भी एक इन्वेस्टमेंट होता है।  पचपन-साठ के होते होते ये बच्चे , तीस  के हो जाते हैं। और तबके आश्रयदाता पापा-माँ , अब धीरे धीरे बच्चे के आश्रित होते जाते हैं। अब समय पलटा होता है , अब दया की जरूरत इन माँ-पापा को होती है। अगर लालन-पालन के समय दया और त्याग हमने लगाया होता है , तो प्रतिफल में ये एक संस्कार बनते हैं , जिसके होने पर बड़े हुए बच्चे अपने वृध्द पेरेंट्स की देखरेख अपनी व्यस्तता में भी दया और त्याग से करते हैं।
लेखक एक कथन और करना चाहता है कि लाड़-दुलार का अतिरेक भी दयाहीनता की श्रेणी में आ जाता है , जब बच्चे इसमें बिगड़ कर उस समर्थता के लिए तैयार नहीं हो पाते , जिससे वे अपने वृध्द माँ-पापा की जिम्मेदारी सरलता से वहन कर सकें। 
--राजेश जैन
22-12-2015
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क्या कहेंगे इसे , आप ? "शीला की जवानी .... "


क्या कहेंगे इसे , आप ?  "शीला की जवानी .... "
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स्वतंत्रता के बाद देश और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाये जा सकते थे , यदि देश में फिल्म इंडस्ट्रीज ने अपने सामाजिक दायित्व निभाये होते।
* दुर्भाग्य इस प्रचार माध्यम ने जो घर-घर ,धीरे-धीरे पैठ बढ़ाता गया , में अय्याश प्रवृत्ति के व्यक्तियों का बोलबाला रहा।
धार्मिक गुरु ,सच्चे सामाज सुधारक और स्वतंत्रता संग्राम के हीरो पृष्टभूमि में धकेल दिए गए और फ़िल्मी लोग हीरो बन सामने हो गए। घर-घर पहुँचे इनके हल्के आचरण कर्म और विचारों ने , हमारी भव्य संस्कृति और भारतीय संस्कारों की धवलता और प्रखरता को गँदला और निस्तेज कर दिया। फिल्मों से देश में नारी और पुरुष को सिर्फ लड़का और लड़की या प्रेमी और प्रेमिका से देखे जाने की दृष्टि में सीमित कर दिया।  आडंबर और धन को देशवासियों का ध्येय और सपना बना दिया।
*दुर्भाग्य यह रहा , कहाँ से विषधारा प्रवाहित हो रही है , या तो हम समझ नहीं पाये , किन्हीं किन्ही ने समझा भी तो वे विषधारा की तीव्रता पर लगाम नहीं कस पाये।
* दुर्भाग्य एक और , यह भी रहा जो थोड़ी अच्छी और आदर्श बातें फिल्मों में रखना फिल्मकारों की लाचारी थी , उसे देख कर भी हम अपने पारिवारिक ,सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्यों की प्रेरणा नहीं ले सके। फिल्मों से हमने सिर्फ "शीला की जवानी .... " तरह का मनोरंजन , दृष्टिकोण और जीवनशैली ग्रहण की।
* दुष्परिणाम यह रहा चारों और भ्रष्टाचार , गद्दारी , निर्भया के तरह के रेप केस की विषबेल पनपते गई। नारी तो असुरक्षित हुई ही , सद्पुरुषों सज्जनता और देश की प्रतिभा का सर्वाइवल देश में कठिन हो गया
--राजेश जैन
21-12-2015

Thursday, December 17, 2015

मन लुभावन

मन लुभावन
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जिन्हें जैसा दिखने में अच्छा लगता है
वैसे श्रृंगार में वह सजता और सँवरता है
वह करता इसे अपनी खुशियों के लिए
क्यों कोई उस ख़ुशी में खलल करता है ?

देख लो किसी का बना सवँरा रूप तुम
यदि वह मन लुभावन तुम्हें लगता है
स्वयं को रोक लो जबरदस्ती करने से
उनके अपनों के लिए ही कोई सजता है

क्यों परेशान पहने -ना पहने ,क्या कोई
इसका विवेक किसी का अपना अपना है
क्षति न पहुँचाता जब तक कोई किसी को
मन की करने की वह स्वतंत्रता रखता है 

लालसाओं वासना पर नियंत्रण रखो अपनी
अन्यथा तुम खुद बुरे ,दूसरा न बुरा लगता है
--राजेश जैन
18-12-2015
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Tuesday, December 15, 2015

हार्दिक कामना -नारी सम्मान

हार्दिक कामना -नारी सम्मान
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आगरा से ए सी क्लास में  पति-पत्नी (थरटीज़ में) लड़ते हुए सवार हुए थे , किसी बात पर पंकज द्वारा  संतोष के गाल पर थप्पड़ मारने को हाथ उठाते देख लेखक (मैं) ने उसे , भैय्या .. नहीं !  .. कह कर रोका था। तमतमाये पंकज ने इसका लिहाज किया था और हाथ रोक लिया था। तब मैंने संतोष को बैठ जाने के लिए कहा था। संतोष , के आँखे अपमान के आंसुओं से भरी हुई थी। मैं और रचना ने बाद के सफर में उन्हें समझाया था। दोनों सुंदर भी थे , देखने से पढ़े लिखे और अच्छे घर के होने का इम्प्रैशन भी देते थे। उनके विवाह को 15 वर्ष हो चुके हैं , बाद के सफर में उनमें प्यार भी अनुभव किया था। दोनों ने एक ही टिफिन में परस्पर आग्रह से खाना भी खाया था। देख कर हम दोनों को अच्छा लगा था। हम तो कटनी आने पर उतर गए थे , उनका आगे का सफर बाकि था। लेकिन लेखक के मन में फिर कई प्रश्न उमड़ आये थे।
निर्भया पर हिंसा अपराध के आज तीन वर्ष होने पर उल्लेख करना आवश्यक है कि घर से बाहर की नारी से दुर्व्यवहार और अपमान ही हमारे देश में समस्या नहीं ,अपितु हमारी अपनी नारी से सम्मान से व्यवहार ,हमारे समाज में उतना नहीं जितना होना नारी-पुरुष के तनाव रहित सुखी जीवन के लिए होना चाहिए। यात्रा में हम भले ही अपरिचित थे कुछ समय में साथ छूट भी जाना था लेकिन पंकज को इसकी परवाह तो करनी चाहिए थी कि संतोष पर हाथ उठा कर किये जाने वाले अपमान से अकेली संतोष ही नहीं , उन दोनों के परिवार का सम्मान कम हो रहा था।वास्तव में पुरुष का दायित्व है अपने परिवार का समाज में यथोचित सम्मान बनाये रखे यह सम्मान तभी बनाया रखा जा सकता है जब वह नारी का सम्मान करे।
और जब प्रश्न हमारे देश और समाज के सम्मान का आता है तब यह आवश्यक होता है हम घर और बाहर की नारी को भी यथोचित सम्मान और सुरक्षा दें। जिस दिन हम यह सीख लेंगे कोई दुर्भाग्यशाली निर्भया नहीं होगी , और सब वह सुखद जीवन जी सकेंगी , जैसा जीना हर मन ,हृदय की कामना होती है।
आइये हम निर्भया की स्मृति में शपथ लें कि "अपनी माँ -बेटी ,बहन ,पत्नी ,सभी संबंधी नारी सहित अन्य घर परिवार की नारी से ,हम सम्मान से पेश आयेंगे , उनके सुरक्षित जीवन की सुनिश्चितता को अपना कर्तव्य मानेंगे।
--राजेश जैन   
16-12-2015
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Thursday, December 10, 2015

हमारी लाचारियाँ

हमारी लाचारियाँ
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हम ,अच्छा देश के लिए
अच्छा समाज के लिए
अच्छा अन्य के लिए
करने की भावना रखते हैं

भावना होती फिर भी ,ऐसा
लाचारियों से ना कर पाते हैं 
परिवार दायित्व ,अपने हित
के लिए जीवन जीते जाते हैं

जीवन में समय आता जब
लाचारियों से मुक्ति पाते हैं
ऐसी सद्भावनाओं अनुरूप फिर
क्यों ना परोपकार कर पाते हैं ?

परीक्षा है मानव जीवन जिसमें ,हम
स्वहित ,परोपकार कितना कर जाते हैं
--राजेश जैन
11-12-2015
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Wednesday, December 9, 2015

पुरुष ताँक झाँक ...(लघुकथा )

पुरुष ताँक झाँक ...(लघुकथा )
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एक धार्मिक आयोजन में , आयोजकों ने , बाहर के आमंत्रित धर्मालुओं के लिए एक धर्मशाला में व्यवस्था की थी ,निहारिका ,इस हेतु जयपुर सुबह साढ़े सात बजे पहुँची थी। उसे बताया गया की धर्मशाला के रूम सारे भर गए हैं , एक रूम जिसमें एक 55 वर्षीय सज्जन रुके हैं , आप चाहें तो उस रूम का उपयोग , सामान रखने , नहाने और तैयार होने में कर सकती हैं। निहारिका ने , दिन की ही बात है , और शेयर किये जा रहे रूम में , सज्जन की वय 55 की है सोचकर हामी भर दी।
रूम में पहुँची तो , सज्जन उसे अपने पापा जैसे लगे , सामान्य बात में उन्होंने आत्मीयता दर्शाई। निहारिका आश्वस्त हो गई। थोड़ी देर बाद वह जब वॉशरूम में थी उसे , लगा दरवाजे के बाहर तरफ कुछ हलचल है , लगा दरार से कोई झाँकने की कोशिश में है। बाहर से सामान्य दिखाते हुए , कुछ अपने कपड़े व्यवस्थित कर निहारिका ने अचानक दरवाजा खोल दिया। बाहर अंकल झेंपते खड़े दिखाई दिए। निहारिका ने ऐसा व्यक्त किया , जैसे उसे कोई संदेह नहीं। प्रकट में कहा - अंकल मैं कँघी भूल गई थी , अपने सामान के पास जा , झूठे ही कंघा लेने का उपक्रम किया फिर अंदर वॉशरूम में गई। इस बार जो दरार थी , टॉवल इस तरह डाला की बाहर से कुछ न देखा जा सके , फिर आराम से तैयार हुई।
रूम में आ अपने पास रखे चाय के सामान से चाय तैयार की और बिस्कुट एक प्लेट में रखने के बाद अंकल को साथ लेने का आग्रह किया। अंकल साथ आ बैठे , तब निहारिका ने सहज कहना शुरू किया। अंकल - आदिमानव के पास कपड़े नहीं थे , वह जानवर की तरह रहता था। मनुष्य ने विकास किया और तन पर कुछ धारण करना आरंभ किया ... कहते हुए रुकी और दृष्टि डाली तो अंकल के चेहरे पर असमंजस के भाव दिखे , फिर कहना आगे जारी रखा - पुरुषों ने नारी पर ज्यादा कपडों की परत तय कर दी। जब नारी में कुछ नहीं दिखता तो कभी उसे नहाते समय , कभी शौच जाते समय और कभी कमरों में अपने पति के संग अंतरंग संबधों में होते हुए , पुरुष ताँक झाँक करने लगा। दो तरह के यह पुरुष व्यवहार बड़े विचित्र है , नारी जब कपड़े में है तो उसे नग्न देखने के प्रयास होते हैं और जब वह नग्न थी तो उसे कपड़ों की परतों में लादा गया। अब अंकल के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी , ग्लानिवश सिर्फ इतना कह सके क्षमा करना ,बेटी और फिर रूम खाली कर चले गए।
--राजेश जैन
10-12-2015
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Tuesday, December 8, 2015

हमारी ख़ुशी क्या है , क्या हम जानते हैं ?

हमारी ख़ुशी क्या है , क्या हम जानते हैं ?
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पिछली रेल यात्रा में  ए सी 2 में टीसी साहब मेरे सामने की बर्थ पर थे। वे खुशमिजाज थे और देखने में उनका ,यात्रियों से भला व्यवहार देखने मिल रहा था। फिर ए सी 3 वेटिंग लिस्ट के एक सज्जन को उन्होंने एक बर्थ अलॉट की। डिफरेंस चार्जेज की स्लिप बन गई तब सज्जन ने उनसे पूछा , सर कितना दे दूँ ?
सुंदर दंत पँक्तियों की झलक दिखलाकर टीसी साहब ने कहा - मुझे ,क्या पता ,आपका ख़ुशी क्या है ? सज्जन ने पेमेंट किया , मुझे नहीं पता कितना। लेकिन अगर चार्जेज से अलग उन्होंने कुछ दिया , तो क्या वह ख़ुशी से दिया होगा ?
हमारे , मकान मालिक ने सर्वेंट क्वार्टर में एक माली रखा , उसने , 25 दिनों पहले थोड़ी बड़ी उम्र में एक तलाकशुदा से विवाह किया। उसकी विवाहिता 20 दिन उसके साथ रही , फिर पता चला वह चली गई। कहाँ गई ? सुनने में आया , उसका कोई चक्कर था , उसके साथ चली गई।  20 दिन पहले वह किसी से विवाह रचाती है , फिर 20 दिनों बाद छोड़ , पूर्व प्रेमी के साथ चली जाती है। निश्चित ही उसे ठीक से मालूम नहीं उसकी ख़ुशी किस बात में है ?
इस भूमिका के साथ यह लिखना उचित होगा कि हम सभी को अपनी ख़ुशी की भलीभाँति जानकारी ही नहीं है। कभी , जिस बात में ख़ुशी मानते हैं , उसी में दुःख भी कर लेते हैं। वास्तव में ख़ुशी की संभावना जिन कारणों में बनती है , उन बहुत सी बातों के होते हुए भी हम खुश नहीं रहते हैं, क्योंकि उन बातों में से ख़ुशी ले लेने की कला हमें नहीं आती है।
जीवन में अनेकों साधारण बातों में हमें ख़ुशी मिल सकती है , अगर ख़ुशी ग्रहण करने का कौशल हम बना लें !
--राजेश जैन
09-12-2015
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Monday, December 7, 2015

कॉमेडियन

कॉमेडियन
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फिल्मों ,टीवी कमेडी सीरियलों में कॉमेडियन और सर्कस में जोकर अपनी अभिनय कला से दर्शकों को हँसाया करते हैं। इन्होंने हास्य को अपना व्यवसाय बनाया होता है। व्यवसायिकता के इस दौर में ,इन्होंने फूहड़ता और अश्लीलता पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया है। जो कम प्रयासों और कम समय में दर्शकों को ज्यादा लोटपोट करता है। दुर्भाग्य यह है कि व्यस्त ज़माना भी ऐसे हास्य को पसंद कर लेता है। परिणाम यह होता है , जो फूहड़ता और अश्लीलता समाज में से कम की जानी चाहिए वह समाज में धीरे-धीरे बढ़ती जाती है , ज्यादा व्यापक होती जाती है।
आलेख का उद्देश्य थोड़ा अलग है। लेखक प्रमुख रूप से यह प्रश्न करना चाहता है कि क्या हास्य भी धन के बदले लिया और दिया जाना चाहिए?  क्या , हम स्वयं बिना धन अपेक्षा के गरिमापूर्ण ढंग से किसी को हँसा भी नहीं सकते हैं? लेखक मानता है , बिना अलग से समय खर्च किये , बिना फूहड़ता के अपने दैनिक कार्यों में घर , कार्यालय और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में अपने व्यवहार और शब्दों से आसपास परिचितों या अपरिचितों को हम हँसा सकते हैं। इसके लिए हमें थोड़ा प्रयास करना होता है , हम मिलनसार और थोड़ा हँसमुख होना अपना स्वभाव और आदत बना सकते हैं।
उदाहरण के लिए , एक दस वर्षीय पड़ोस की बच्ची है , नफीसा , मूक बघिर है। लेखक नफीसा को , किसी भी दिन दैनिक क्रम में जब  पहली बार देखता है , जयहिंद की मुद्रा में में उसे अभिवादन करता है।  बोलने में असमर्थ वह बेटी , हँसते हुए इसका प्रतिउत्तर इसी मुद्रा में देती है। कहाँ , पैसा लगा , कहाँ फूहड़ता लगी ? शब्द भी नहीं फिर भी  कुछ क्रियाओं में एक असमर्थ बच्चे को थोड़ा हास्य का अवसर मिला।
--राजेश जैन  
08-12-2015
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Sunday, December 6, 2015

अधेड़ द्वारा छेड़छाड़

अधेड़ द्वारा छेड़छाड़  (लघुकथा)
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भीड़भरी बस में गरिमा के साथ अभिषेक , खड़े खड़े यात्रा कर रहा था। एक अधेड़ संभ्रांत से दिखते व्यक्ति जो गरिमा और उसके साइड में खड़े थे।  अधेड़ के हाथ और शरीर की हरकत , बस के ब्रेक एवं हिचकोले के बहाने कुछ आपत्ति जनक थी। इसका प्रतिरोध गरिमा उनसे दूर होने के प्रयास और अपने हाथों के द्वारा बचाव से करते , अभिषेक को दिखाई दे रही थी। 15 मिनट के बाद ग्रीन पार्क स्टॉप आ जाने पर अभिषेक और गरिमा उतरे। उसी स्टॉप पर वे अधेड़ भी पीछे उतरे तो गरिमा को जब आश्चर्य हुआ जब उसने अभिषेक को कहते सुना , अंकल आइये एक कप चाय साथ लेते हैं। उनकी सहमति के बाद ,चाय पीते हुए अभिषेक ,उन्हें बता रहा था ...  मैं 15 वर्ष का था , तब मेरे पापा ने किसी युवती से छेड़छाड़ की थी , युवती के चिल्ला पड़ने से , आसपास की भीड़ ने , मेरे पापा की पिटाई कर दी थी। उस पिटाई , अपमान और पछतावे का सदमा पापा को ऐसा बैठा कि उसके बाद ढाई महीने में ,सिर्फ 45 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गई।  मेरे माँ वैधव्य और मैंने पितृछाया विहीन अभिशप्त जीवन ,पिछले 17 वर्ष में अनेक कठिनाइयों में जिया है। यह एक बेहद कटु अनुभूति है , इसलिए अंकल मेरी आप से रिक्वेस्ट है , जैसी हरकत आप मेरी पत्नी गरिमा के साथ कर रहे थे , वैसी आगे किसी के साथ न करें , आपका परिवार होगा , आपकी ऐसी गलती से जो प्रतिष्ठा हानि और जीवन विपरीतताओं को अभिशप्त हो सकता है। अधेड़ व्यक्ति का सर ग्लानि से झुका हुआ था। यहाँ ,गरिमा को भी अभिषेक के विचित्र व्यवहार का कारण समझ में आ चुका था , कि क्यों बस में अभिषेक , इस व्यक्ति की हरकत पर प्रतिक्रिया नहीं दे रहा था। आज ,अभिषेक के लिए गरिमा के मन में श्रध्दा और बढ़ गई थी ..
-- राजेश जैन
07-12-2015
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Saturday, December 5, 2015

जीवन चलता रहा

जीवन चलता रहा
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चलती रही पग पग परीक्षायें , इनमें जीवन चलता रहा
परिणाम मिला कभी अच्छा कभी बुरा ,जीवन चलता रहा

अनेक जीवन मोर्चों पर हम हारे , कुछ पर हम जीत सके 
जीने की दुनिया में बहुत ,प्रेरणायें ,ग्रहण कर हम जीते रहे

हार से नहीं खोया विश्वास , जीतने से नहीं हुए अति उत्साही
हार-जीत परीक्षाओं के सिलसिले चले और जीवन चलता रहा

अनेक रही निज जीवन अपेक्षायें , कई रहे जीवन सपने अपने
अन्य की अपेक्षायें भी समझे और न बने अन्य के सपनों में रोड़े

कुछ से पाया प्यार , सबको सुरक्षा ,आदर ,प्यार हम देते रहे
कुछ ने समझा , कुछ ने न समझा हमें और जीवन चलता रहा
--राजेश जैन
06-12-2015
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Friday, December 4, 2015

निर्भया-निर्दया ..... निरंतर

निर्भया-निर्दया ..... निरंतर
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16 दिस. 2012 को निर्भया पाशविक हादसे की शिकार हुई ...... देश ,इस पीढ़ी पर लगे कलंक की एक क्षोभनीय समाज तस्वीर , और
लेखक ने पिछली कुछ पोस्ट में सृजन चौक , जबलपुर की एक तस्वीर , जिसमें एक लाचार नारी दिखलाई है ('निर्दया' नाम दिया) ...... दूसरी क्षोभनीय समाज तस्वीर है ।
यह निर्दया 2 दिस. के बाद सृजन चौक पर दिखलाई नहीं पड़ रह है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसे पाशविक कृत्य हमारे समाज में खत्म हो गए हैं। निर्भया के बाद भी ,समय स्थान और थोड़े प्रकार अंतर से ,निर्भया के ऊपर किये पाशविक कृत्यों की निरंतरता जारी है। और 'निर्दया' भी प्रकारांतर से हर शहर में , कई स्थलों पर भटकती , ठिठुरती विद्यमान है।
भारतीय समाज , जिसमें दया , परोपकार और संवेदनशीलता रही है। यह कहीं लुप्त होती लग रही है। हम भारतीय अपनी इस भव्य धरोहर को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी हैं। हमें इस धरोहर को लुप्त नहीं होने देना है , बल्कि वैचारिक प्रेरणा , सदाचार और परोपकारों से निर्भया -निर्दया तरह के दुष्टता के पाशविक कृत्यों को वर्तमान से और भविष्य के लिए लुप्त कर देना है। हम अपने अपने स्तर से अपनी अपनी क्षमता से जितना भी इस दिशा में कर्म करते हैं , वह समय , इतिहास ,देश और मानवता को हमारा ,अनमोल योगदान होगा।
हम स्वयं नारी सम्मान करें , नारी सुरक्षा करें , नारी को जीवन और प्रगति के अवसर उपलब्ध करायें और दूसरों में अपने भले विचार प्रसारित करें , अपने भले कर्मों से इसके लिए प्रेरित करें।
"हमारा जीवन गौरव का विषय होना चाहिये
इस सोच की जागृति रख हमें जीना चाहिये"
--राजेश जैन
05-12-2015

Thursday, December 3, 2015

निर्दया-निर्भया

निर्दया-निर्भया
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कैसा लगता है , जब कभी इतनी बड़ी दुनिया में हम पर विपत्ति होती है जिसमें हमें ऐसा लगता है , कोई भी हमारा साथ नहीं दे रहा है। जीवन में ,बहुत समय तो ऐसा नहीं होता है। लेकिन जब कभी ऐसा होता है , विचित्र लगती है दुनिया , जिसमें हम 8 अरब मनुष्यों के बीच , नितांत अकेले होते हैं।
कुछ दुर्भाग्यशाली जीवन ऐसे होते हैं , जो हमेशा विपत्ति में होते हैं , और 8 अरब में पूरे जीवन , नितांत अकेलेपन से जूझते हैं। कुछ तो ख़राब , उनकी स्व-करनी के कारण होता है। कुछ को ऐसी अवस्था में धकेलने के कारण , अन्य होते हैं।
 'निर्भया' , 'निर्दया' को देख पढ़ दुःख सभी को होता है। सोचता हूँ  निर्दया-निर्भया के साथ जिन्होंने बुरा किया और इन्हें इतनी भयानक मौत , भयानक जीवन को विवश किया , क्या उन्हें यह दुःखद परिणीति पर , स्वयं पर क्षोभ - पछतावा , दुःख नहीं होता होगा , मुझे लगता है , जरूर होता होगा। विचार करें , न करें ऐसे अत्याचार , घिनौने कर्म हम किसी के साथ। हमारा जीवन , गौरव का विषय होना चाहिए , क्षोभनीय या पछ्तावों का नहीं होना चाहिए।
--राजेश जैन
04-12-2015
https://www.facebook.com/narichetnasamman

जाती बिरिया ...

जाती बिरिया ...
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इतनी बड़ी सबकी दुनिया पराई सी होती है
एक छोटी दुनिया इसमें अपनी सी होती है
बड़ी एवं छोटी में ,पराई एवं इस अपनी में
मन की ज़िंदगी जीना बड़ी चुनौती होती है

पुरुष अपेक्षा नारी की समस्या बड़ी होती है
उनकी यह बड़ी दुनिया तो पराई ही होती है 
छोटी अपनी लगती भी उन्हें पराई होती है
पैदा हुई वहाँ पराई ससुराल में पराई होती है

अच्छी सिर्फ इतनी बात है ,जैसी है वैसी भी
ज़िंदगी सबको अपनी अपनी प्रिय होती है
तमाम समस्याओं और चुनौती के बाद भी
जाती बिरिया बड़े साहस की जरूरत होती है
--राजेश जैन
04-12-2015
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Wednesday, December 2, 2015

'निर्दया' - उपाय

'निर्दया' - उपाय
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तस्वीर में दिखाई 'निर्दया' समाज संवेदनाहीनता की नारी तस्वीर है , पुरुष और विकलाँग भी गंदे चीथड़ों में , बिन स्नान ,रोगी हो घूमते , फुटपाथों में पड़े दिखाई पड़ते हैं। कारण पूर्व लेखों में उल्लेखित किया गया है " . वह परिवार जिसका यह जन्मा सदस्य है , जीवन सुखी जी सकने के सँस्कार ,शिक्षा देने में असमर्थ रहा है ". विशेषकर नारी प्रकरणों में देश के अन्य परिवारों की सँस्कार हीनता और गहन स्वार्थी प्रवृत्ति भी 'निर्दया' की अवस्था के लिए जिम्मेदार है। जिसके कारण असहाय , अकेली नारी के साथ उसका कोई सदस्य दैहिक शोषण करता है। ऐसी भटकी नारी के साथ यह सिलसिला कई कई बार दोहराया जाता है , फिर वह रोग ग्रस्त हो ऐसे बदरूप रहते रोग की पीड़ा भोगते कई साल सड़कों पर जीते , किसी दिन दम तोड़ देती है। एक 'निर्दया' ही अगर देश समाज में ऐसी हो तो उसकी मौत के साथ समस्या खत्म हो जाती है लेकिन दुर्भाग्य ऐसी अनेकों हैं।  उससे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि नई 'निर्दया' बनने के कारण बने रहने वाले हैं ( "माँ-पिता बनने के पात्र बने बिना , हमारे देश में बच्चे पैदा करने का क्रम जारी रहेगा ") . और एक दुर्भाग्य यह भी है देश -समाज पर जब  यह समस्या आती है तो ऐसी कोई व्यापक व्यवस्था नहीं , जिसमें ये स्वच्छ रहे सकें , साफ़ कपड़े पहन सकें , पेट भर भोज्य पा सकें और रोगों का उपचार पा सकें।
स्पष्ट है कारण खत्म करने और समस्या होने पर निबटने दोनों के लिए जागृति बढ़ाने की आवश्यकता है।  ना तो समस्या कोई एक या कुछ से उत्पन्न हो रही है , ना ही कोई एक या कुछ के सीधे करने से (किसी एक दो को भोजन करवा देना ,उसका इलाज करवा देना , उसे वस्त्र दे देना या आश्रय दे देना ) से समाधान है .
उपाय यही है , जनचेतना बढ़ाने के लिए , मंचन , चर्चा , इस पर लिखना और पढ़ना समाज में बढ़ाया जाए। ताकि जिन बातों के लिए परिवार की और अन्य की उदासीनता से समस्या इस विकट रूप में आती है , वे - भुगतने वाले के तन मन और जीवन के दुःखद पक्ष को जानें-समझें । मन और कर्म में दया रख न तो किसी की ऐसी अवस्था के लिए कारण बनें। और जहाँ ऐसी 'निर्दया' है उसका स्थाई हल (एक दो दिन का नहीं ) करने के लिए आगे आयें .
दुर्भाग्य , धर्म तो दया की सीख देते थे , लेकिन धर्म अंधविश्वासों और पाखंड में घिर जाने से नई पीढ़ी उससे विमुख हो रही है। और देश की फ़िल्में , मीडिया और समाचार माध्यम जिनकी घर घर पैठ है , उनकी प्राथमिकतायें कुछ और हैं। समाज और देश सुधार की उनकी भाव भंगिमा सिर्फ छलावा है ( दिखाने के दाँत हैं , मगरमच्छी आँसू हैं).
--राजेश जैन   
03-12-2015
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Tuesday, December 1, 2015

'निर्दया' ... निरंतर

'निर्दया'  ... निरंतर
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आधुनिकता , विकास , उन्नति , और सुविधा संपन्नता ,क्या मनुष्य क्षमता को कमजोर करती है ? लेखक को लगता है , पुरातन , पिछड़ा और जीवन विकटताओं से जूझता मानव ज्यादा शक्तिशाली और विशाल हृदय होता था। उसके घर-परिवार की चाहरदीवारियाँ तो कम मजबूत थी , लेकिन वह स्वयं ज्यादा मजबूत था। चाहरदीवारियाँ कमजोर होने की अनुभूति उसे थी , इसलिए अन्य कोई उसके घर-परिवार के सुख से ईर्ष्या न करे  इस हेतु  अपनी चाहरदीवारियाँ के बाहर भी खुशहाली के उपाय और व्यवस्था वह करता था। जीवन में सुख पाने की भावना सिर्फ अपने तक सीमित नहीं रहती थी , बल्कि इस मानसिक संकीर्णता से उपर उठ वह अपने साथ ही ,अड़ोस-पड़ोस और समाज में अन्य के सुख प्रबंधों में भी सक्रिय रहता था।
'निर्दया' की जो तस्वीर पिछले तीन दिनों से लेखक देख और दिखाना चाह रहा है , उस प्रसंग में ही आज की आलेख की यह भूमिका है।
दरअसल ,सृजन चौक , सदर , कैंट जबलपुर का वह क्षेत्र है , जिसके आसपास जबलपुर के प्रतिष्ठित , उन्नत और संपन्न परिवार निवासरत हैं , आर्मी ऑफिसर्स के बँगले हैं , नर्मदा क्लब और टैगोर गार्डन में संभ्रांतों का आना जाना है , सदर में शॉपिंग परपोज़ से , विद्या अर्जन के लिए , सेंट अलोयसिस , सेंट थॉमस और सेंट जोसेफ कान्वेंट में बच्चे और उनके पेरेंट्स इस चौक से जाते-आते हैं।
लेकिन हम सब अपनी अपनी मजबूत चाहरदीवारियाँ के अंदर अपने सुख और सुरक्षा से संतुष्ट , बाहर सुंदर सृजन चौक पर 'निर्दया' के विद्रूप दृश्य के प्रति उदासीन हैं । निश्चित ही यह तर्क सही है , इस एक अभागी की सहायता से , समाज का कोढ़ नहीं मिट सकेगा , ना ही कुछ दान से उसका जीवन बन सकेगा।
पर क्या जबलपुर का संभ्रांत अपने भोग विलासिता में से कुछ समय निकाल , समाज और देश के सही प्रेरणाओं के लिए कोई मंचन , कोई सोच समझ शक्ति प्रदर्शित नहीं कर सकता जिससे हमारे ,देश समाज में जागृति बढ़े  कि अपने स्वार्थों से किसी को ऐसे अभागे जीवन की विवशता को कोई बाध्य हो ,हमारी जागरूकता से ऐसे प्रकरणों में कमी आ सकती है ।  लेखक मानता है कि जबलपुर को संस्कारधानी कहे जाने से जबलपुर वासियों का यह दायित्व बनता है ,वे देश और समाज को सही दिशा दिखलायें ।
--राजेश जैन
02-12-2015
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