Friday, April 30, 2021

श्रद्धांजलि … 

पति -

मैं, लौट के ना आ पाऊं तो तुम ना रोना 

दुनिया से एक दिन तुम्हें भी लौटना होगा 

पत्नी -

जब साथ छोड़ जाना था मेरा

तो अपने साथ ना लिया होता 

पति -

साथ छोड़ना एक दिन होगी मेरी मजबूरी 

समझ लेता तो तुम्हें साथ ना किया होता 


Thursday, April 29, 2021

मासूम सवाल …

 

मासूम सवाल … 

दृश्य अस्पताल हॉल का था - लगे हुए बेड पर 20 मरीज थे। कुछ के मुँह पर ऑक्सीजन मॉस्क थे। कुछ के बेड साथ रखे गए स्टैंड पर ड्रिप सलाइन टंगी हुई थीं। लगभग सभी रोगी के हाथ एवं सीने पर नलियाँ एवं तार जुड़े हुए थे। बेड के ऊपरी तरफ मॉनिटर स्क्रीन थीं। जिन में मरीज की धड़कनों, रक्तदाब आदि के पैरामीटर एवं तरंग प्रदर्शित हो रही थी। कोई कराह रहा था तो कोई खाँस रहा था। किसी किसी की आँखे, उन्हें हो रही वेदना से नम थी। मगर सभी रोगी इस समय अत्यंत सहमे हुए थे। 

कारण था कुछ मरीज (जिन्हें अस्पताल में एडमिशन नहीं मिल पा रहा था) के परिजनों ने, कुछ देर पहले ही अस्पताल में घुस कर हंगामा खड़ा किया था। हॉल में फर्श पर कुछ फर्नीचर, कंप्यूटर आदि टूटे पड़े थे। एक डॉक्टर को पटक पटक कर मारा गया था। उनके हाथ-पैर में फ्रैक्चर हो गया था। उन्हें अभी ही अस्पताल सहकर्मी ऑपरेशन कक्ष में ले गए थे। 

एक सिस्टर भी, क्रोधित परिजनों के द्वारा की गई हिंसा की शिकार हुई थी। उस पर कोई बाह्य चोट तो नहीं थी मगर उसके कपड़े इस तरह फाड़ दिए गए थे कि उसके अधोवस्त्र फटे भाग से दिखाई पड़ रहे थे। वह अचेत अभी भी हॉल के बीच फर्श पड़ी हुई थी। 

हॉल में मरीजों के खांसने, कराहने के अतिरिक्त, तूफान के गुजरने के बाद जैसा सन्नाटा था। तब नर्स के अचेत शरीर में कुछ हरकत होती दिखाई पड़ी थी। उसकी आँखे खुल गई थी। उसने फर्श पर पड़े पड़े ही अपने शरीर पर दृष्टि दौड़ाई थी। जिससे उसके मुख पर सकते में आने के भाव दृष्टिगोचर हो रहे थे। वह दो चार मिनट यूँ ही पड़ी रही थी। फिर वह उठी थी और किसी रोबोट की तरह चलते हुए, लिफ्ट में आई थी। ग्राउंड फ्लोर पर, उसे लिफ्ट से निकल कर अस्पताल भवन के बाहर आते लोगों ने देखा था। 

वह अपने वस्त्र क्यों नहीं व्यवस्थित कर रही है? और बाहर आकर क्या करने जा रही है? उपस्थित लोगों के मन में ये प्रश्न उमड़ रहे थे। वह नर्स 26-28 साल की भवन के सामने धूप वाली जगह में वैसे ही आकर धरती पर पड़ गई थी जैसे कुछ समय पूर्व, लोगों की हिंसा एवं अपमान भुगतने के पश्चात वह हाल में पड़ी थी। इसे देख कुछ देर पहले हंगामा मचाने वाली भीड़ भी स्तब्ध रह गई थी। अपने अपराध बोध के कारण उनमें से किसी का साहस, उसके पास जाने का नहीं हुआ था। 

अस्पताल में हुई हिंसा की सूचना लगने पर, एक न्यूज़ चैनल की टीम पहुँच गई थी। उसके कैमरामैन ने नर्स के चारों तरफ घूमते हुए वीडियो लेना शुरू किया था। साथ की रिपोर्टर स्पीकर लिए, उत्तेजित स्वर में घटना के विवरण बताते हुए, विभिन्न सवाल खड़े कर रही थी। चैनल स्टूडियो से यह ग्राउंड जीरो, लाइव टेलीकास्ट प्रसारित होने लगा था। 

स्टुडिओ से न्यूज़ एंकर महिला भी उत्तेजित हो इसे ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह बता रही थी। कह रही थी एक बड़ी खबर आ रही, जयप्रकाश अस्पताल से, जिसमें उत्तेजित परिजनों ने डॉक्टर-नर्स के साथ मारपीट की है। हम आपको अस्पताल लिए चलते हैं जहां अस्पताल भवन के सामने एक नर्स, फटे वस्त्र में घायल जमीन पर पड़ी हुई थी। दर्शकों को अब अस्पताल के सामने का यह दृश्य दिखाई देने लगा था। 

कहीं से एक कुर्सी लाकर, चैनल रिपोर्टर, सहारा देकर सिस्टर को कुर्सी पर बैठा रही थी। फिर कोई एक शॉल ले आया था। ज्यों ही रिपोर्टर ने शॉल से, सिस्टर के फ़टे वस्त्रों से दिख रहे मांसल अंगों को ढकने का प्रयास किया, नर्स ने उसे रोक दिया था और दर्शकों ने सिस्टर को कहते सुना था -

नहीं मुझे ऐसे ही रहने दो, नहीं तो आपके द्वारा दिखाया जा रहा समाचार कम सनसनीखेज हो जाएगा। आपकी टीआरपी बढ़ ना सकेगी। 

इससे रिपोर्टर के मुख पर खिन्नता दिखी थी। जल्द ही उसने अपने को नियंत्रित कर लिया और कैमरे के सामने मुखातिब होकर कहा - 

देश की नं. 1 हमारी चैनल, इस दुखद घटना को सर्वप्रथम आप तक पहुंचा रही है। हम सुनवाते हैं, अस्पताल में हुई हिंसा से पीड़ित सिस्टर के मुँह से ही आज की घटना का ब्यौरा।  

दर्शकों को फिर नर्स के चारों ओर लगी भीड़ को देखा था। फिर नर्स को देखा था। नर्स के सामने अब रिपोर्टर ने स्पीकर कर दिया था। रिपोर्टर ने पूछा - आपका नाम क्या है?

नर्स ने बताया - मृदुला 

रिपोर्टर ने कहा - आप हमारे दर्शकों को बताएं, आपके साथ क्या कुछ किया गया है?

आसपास से कोई पानी की बोतल ले आया था। मृदुला ने कुछ घूंट लेकर अपने गले से नीचे उतारे थे। लगता था कि आधे घंटे तक पड़े पड़े उसके मन में जो विचार चलते रहे थे वो उसके जुबान पर आ गए थे। दर्शक श्रोताओं को उदास मगर दृढ नारी स्वर में यह सुनाई पड़ रहा था -

युवावस्था में मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति, औसतन प्रतिदिन 8 घंटे सोते हैं। अब 13 महीने हुए हैं, हम छह घंटे भी शांति से नहीं सो पा रहे हैं। हमें फुर्सत नहीं मिल रही है यह सोचने की कि इसे हमारे स्वास्थ्य पर क्या बुरा प्रभाव पड़ेगा? हमारे जीवन के कितने दिन कम हो जाएंगे। छह महीने पहले अस्पताल में मेरे संक्रमित हो जाने से मेरे माध्यम से कोरोना, मेरे घर तक पहुँच गया। बाकी तो स्वस्थ हुए मगर मेरे 53 वर्षीय पापा की जीवन ज्योति अकाल ही बुझ गई। मुझे फुर्सत नहीं मिली कि मैं उन्हें याद करके तसल्ली से रो ही लेती। 

हम खो रहे हैं अपना आराम व सुख, अपने परिजन, फिर भी लगे रहे हैं। हमने आजीविका के लिए चिकित्सा क्षेत्र को चुना था। हमें, हमारा कर्तव्य स्मरण रखना था। देश पर महामारी की आपदा में जितने अधिक से अधिक लोगों को बचाया जा सकता है। उन्हें बचाने के लिए यह नहीं सोचना था कि क्या हमें मिलेगा या हम क्या खो देंगे। 

आज देश पर संकट अधिक गहरा गया है। अकेले हमारे प्रयास पर्याप्त नहीं रह गए कि हम सभी को अस्पताल में स्थान दे पाते। सभी को जीवन रक्षक प्रणाली और जीवन वायु उपलब्ध करा कर उन्हें बचा सकते। 

विफलता के कई कारण थे तब भी, सभी को उपचार नहीं दे पाने, सभी के प्राण रक्षा नहीं करने का ग्लानि बोध हम अनुभव कर रहे थे। हमें दिख रहा था जिन्हें आवश्यकता होते हुए उपचार नहीं मिल पा रहा है, उनके परिजन उद्वेलित हैं। हम पर भीषण मानसिक दबाव था। हम पर खतरा था। जानते हुए कि हम पर हमला हो सकता है हम नित अपनी ड्यूटी पर उपस्थित हो रहे थे। 

ऐसी चुनौतियां जीवन में बार बार नहीं आती हैं। हम जूझ रहे थे कि इस स्थिति को जितने शीघ्र नियंत्रित किया जा सके, हम करें। हमें कई बार, रिलीवर नहीं मिल रहा था। हममें से अनेक 24-24 घंटे अस्पताल में रहे आते थे। ऐसी स्थिति में भी हम, स्वस्थ होकर जाते व्यक्ति के चेहरे की प्रसन्नता देखकर, प्रसन्न हो रहे थे। 

हमने क्या किया है उसे हमारे देशवासी नहीं देख सके इस बात का दुःख हमें नहीं है। खेद मगर, हम क्या नहीं कर सके इसे ही देखा जा रहा है। 

कोई बात नहीं आज भीड़ ने एक डॉक्टर को बुरी तरह पीट दिया। कोई बात नहीं कि यह भुला दिया गया कि इसी कोरोना में अपने पापा को खोकर मैं, एक अनाथ बेटी हूँ। आवेशित पुरुषों ने मुझ पर भी कुछ हाथ जड़ दिए। अधिक दुखदाई यह है कि मेरे साथ, व्यवहार बलात्कारी मानसिकता वाला किया गया। जिसका परिजन बीमार है वह, अपने परिजन की बीमारी भूलकर, यह याद रख पाया कि मैं एक जवान औरत हूँ। मुझे छेड़ा जा सकता है। 

इसलिए मैंने फाड़ दिए गए वस्त्रों में ही, पिछले घंटे भर से अपने को सब के सामने रख लिया है। तुम निर्णय कर लो कि तुम्हें इस नर्स की सेवा चाहिए या बलात्कार करने के लिए यह औरत।   

किसी को पीटना है तो मुझे और पीट ले। मगर वह यह जान ले कि इस से डॉक्टर और मेडिकल स्टॉफ बढ़ जाने वाला नहीं है। अस्पताल में पेशेंट के लिए खाली जगह नहीं बन पाएगी। 

उपस्थित आप और मेरा देश, मेरी जवान देहयष्टि देख तृप्त हो जाए तो मैं, कपड़े ठीक कर फिर सेवा में लग जाऊँगी। जिस किसी को फिर पीटने की इच्छा है, फिर छेड़खानी का सुख चाहिए है, कल फिर आ जाए वह, किसी परिजन के उपचार के बहाने, मैं फिर इस ही अस्पताल में उपलब्ध मिलूंगी। 

मेरे विचार दृढ हैं मेरे लक्ष्य और संकल्प दृढ हैं। मुझे क्या खो देना पड़ रहा है इसका स्मरण नहीं रखना है। मुझे जो आता है उस अनुरूप, रोगियों को सेवा प्रदान करना है। 

मृदुला चुप हो गई थी। 

तब भीड़ में से एक अधेड़ सामने आया था वह चिल्लाकर बोला - हाँ, मैंने मारा है इसे। देखो मेरे पिता इधर अस्पताल के बाहर पड़े मौत से जूझ रहे हैं। अस्पताल शुल्क बहुत महँगा किया हुआ है और उस पर भी जगह नहीं दे रहे हैं। त्रिया चरित्र है सब इसका, अपनी नाकामियों पर पर्दा डालकर, सहानुभूति बटोरने के लिए। इसकी निर्लज्जता तो देखो चर्चा पाने के लिए अंग दिखाते पड़ी है यह सबके सामने। 

रिपोर्टर ने मृदुला से पूछा - क्या उत्तर है इस व्यक्ति के आरोप का, आपके पास? 

मृदुला ने प्रश्न की विचित्रता से दुखी होकर उत्तर दिया - 

बड़े ही मासूम हैं ये भाई। और बड़े ही मासूम इनके और आपके सवाल हैं। मैं रोई नहीं हूँ तब भी इसमें इन्हें त्रिया चरित्र दिखाई दे रहा है। क्या मैंने आमंत्रित किया था इन्हें कि मुझे मारो, मुझसे छेड़खानी करो और मेरे कपड़े फाड़ो ताकि मुझे चर्चा पाने के लिए यह स्वाँग करने का मौका मिले। लागत से छह गुनी शिक्षा, कपड़े, अनाज, फल, दवाएं और सभी सामग्रियों और सेवाओं में, मैं जीवन यापन करती रही हूँ। इन्हें सिर्फ हमारे शुल्क ही महँगे दिख रहे हैं। चलो मैं शुरुआत करती हूँ। शुल्क घटाने की, मैं अति लाभ के चिकित्सकीय पेशे से इस्तीफा दे देती हूँ। कल से मैं, यहीं फुटपाथ पर सब्जी फल बेचने बैठ जाती हूँ। मामूली लाभ पर दूँगी यहाँ अस्पताल में भर्ती होने वाले परिजनों के लिए फल। खरीदें ये भाई भी, मेरे से सब्जी फल, सस्ते में। 

तब न्यूज़ एंकर ने, ग्राउंड जीरो से आ रहे दृश्य का वॉल्यूम म्यूट किया था। उसने दर्शकों के सामने सवाल रखा - 

क्या मृदुला का अस्पताल में पिटने और लाज खोने के खतरे को देखते हुए नर्स का काम छोड़ कर सब्जी बेचना शुरू करना चाहिए? कृपया हाँ या नहीं में, हमारी चैनल की वेबसाइट पर तुरंत मैसेज करें .. 

अब न्यूज़ चैनल दर्शक, ‘राजश्री के विज्ञापन’ में हमारे महानायक का पुरुष चरित्र देखने लगे थे। 

उधर ग्राउंड जीरो पर पुलिस पहुंचकर कार्यवाही करने लगी थी। त्रिया चरित्र, बताने वाले अधेड़ के, पुरुष चरित्र को जाँच में लिए जाने के लिए उसे कुछ और दोषियों सहित गिरफ्तार कर लिया गया था। 

बाद में मृदुला ने भावावेश से मुक्त होकर, विचार किया था। यह सोचने पर कि उस जैसी प्रशिक्षित नर्स की आवश्यकता आज समय को है वह अगले दिन फिर यूनिफॉर्म में आकर अस्पताल में अपनी ड्यूटी करने में लग गई थी  …. 

अगले दिन उधर, पुलिस पूछताछ में, वह अधेड़ अपनी कही हुई बात की पुष्टि में कह रहा था - 

मैंने कहा था ना कि यह सब त्रिया चरित्र और चीप पॉपुलैरिटी के लिए किया गया स्वाँग है, क्या मृदुला आज सब्जी बेच रही है?   

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

29-04-2021

 

                


Monday, April 26, 2021

प्रश्न हमारे समक्ष है …

 

प्रश्न हमारे समक्ष है  … 

हमारी सोसाइटी के ओनर्स एसोसिएशन ने, (प्रशंसनीय) इनिशिएटिव लेकर सात मार्च को वैक्सीन का पहला डोज़ अरेंज कराया था। मैं इस हेतु रजिस्टर कराने गया था। वहाँ वालन्टेरली उपलब्ध आदरणीय महोदय ने कहा- सर, 100 रजिस्ट्रेशन चाहिए, 65 अब तक हुए हैं। आप सोसाइटी के बाहर के भी परिचित-रिश्तेदार का भी रजिस्ट्रेशन करवाएं तो अच्छा है। डोज़ उपलब्ध ज्यादा हैं, लग कम सक रहे हैं। 

18 अप्रैल को कॉन्टैक्ट किया तो ओनर्स एसोसिएशन ने बताया, कोशिश कर रहे हैं, वैक्सीन अभी कम पड़ रही हैं। 19 अप्रैल की रात उनके द्वारा कहा गया, अगले सुबह 100 डोज़ उपलब्ध हुए हैं, आप सुबह जल्दी टोकन ले लीजिए। 

अगली सुबह वहां कटु दृश्य था। पहले डोज़ के समय डोज़ लेने लोग तैयार नहीं थे। इस बार टोकन के लिए लड़ रहे थे। 100 टोकन उपलब्ध थे। क़्यू में सब पहले लगने की कोशिश में थे। सिक्योरिटी को मेहनत करनी पड़ी, हमें 56-57 क्र. के टोकन मिल गए थे। बहुत से लोग क्रोधित होकर वापस लौटे थे। इस बीच हमारा वैक्सीनशन पूरा हुआ था। 

महामारी की आपदा देश पिछले वर्ष से झेल रहा था। सरकार का दायित्व था अतः इस हेतु सरकार ने प्रिवेंटिव मेजर्स लिए थे। 

सरकार की कोशिशें उपाय क्रियान्वित करने की थी। हम, जिन्हें क्रियान्वयन स्वयं नहीं करना था, सरकारी उपाय में वोलिंटियर होकर, क्रियान्वयन को सफल करने में सहायता दे सकते थे। 

हमने यह नहीं करके, आलोचक की भूमिका ले ली। व्यवस्था की हर कोशिशों में अच्छाई की ओर दृष्टि नहीं करके, उसमें दोष खोज कर उस पर दायित्वहीनता से  टिप्पणी करने लगे। यह मुसीबत हम सब पर है इसे समझते हुए, जिनके पास जो समाज भूमिका थी उसे, उनका अधिक उदारता से  निभाना अपेक्षित था। ऐसा नहीं हुआ। 

लोगों ने खाने पीने की सामग्रियों पर अधिक कमाई करना, औषधियों, मॉस्क, सेनेटाइजर पर अधिक दाम वसूलने शुरू किए। लॉकडाउन में सार्वजनिक जगह डिसिप्लिन का परिचय नहीं दिया गया। संपन्न नागरिकों के द्वारा प्रधानमंत्री केयर फंड में 500-1000 रूपये तक का दान नहीं दिया गया। वैवाहिक एवं धार्मिक आयोजन चलते रहे। निर्धारित संख्या से ज्यादा लोग भीड़ बनते रहे। व्यवस्था में दोष खोज खोज कर उस पर राजनीति करते रहे। 

इन चुनौतियों में भी हमारी एजेंसीज काम करती रहीं। हालाँकि जितने सामाजिक सौहार्द कायम रख कर, जितना कम जनहानि के साथ आपदा पर नियंत्रण होना चाहिए था, उससे अधिक नुकसान सहित देश में पहली वेव कमजोर हुई थी। सरकार के साथ वैज्ञानिक, चिकित्सा विशेषज्ञ एवं वैक्सीन निर्माण प्रयासों ने देश को 2 देश निर्मित वैक्सीन भी उपलब्ध करा दी। जिन्हें वैक्सीन क्रियान्वयन का दायित्व नहीं था, उन्होंने पुनः आलोचक की भूमिका ग्रहण कर ली। भड़काऊ बयानों से दृश्य यह उपस्थित हुआ कि पहले वैक्सीन ज्यादा, लगाने वाले नहीं मिल रहे थे। अब लगाने वाले इतने बढ़ गए कि वैक्सीन लगा पाना कठिन हो गया। 

इस बीच दूसरी वेव आ गई। उपचार कराने हेतु परस्पर एवं वैक्सीन लगवाने हेतु हम, आपस में उलझने लगे। सामाजिक सौहार्द तार तार होने लगा। केसेस किसी को भी आशा नहीं थी उससे कहीं अधिक संख्या एवं तेजी से आने लगे हैं। 

देश पर जनसंख्या भार, बहुत है। यह हमारी ही देन है। इस जनसंख्या भार को समझे बिना हमने, व्यवस्था में कमी का दोषारोपण भी पूरा सरकार पर शुरू कर दिया।

ऑक्सीजन की माँग बड़ी, इसमें भी लोगों को अपने लिए अवसर दिखने लगा।   

हम, सहयोगी एवं जागरूक नागरिक होने का परिचय नहीं दे सके। फलस्वरूप प्रिवेंटिव मेजर्स फेल हो गए। आज सरकार ब्रेकडाउन मेजर्स पर काम करने को लाचार हुई है। 

हम ये दर्दनाक दृश्य स्मरण रख सके तो शायद अगले चुनाव में सरकार बदल देंगे। तब अगली सरकार भी ऐसे परिदृश्यों में असफल ही होगी। सफलता सरकार के प्रयासों से ज्यादा, हमारे राष्ट्रनिष्ठ होने से मिल सकती है। 

यह नहीं होने पर दिनों दिन जनसंख्या और बढ़ेगी, सामाजिक सौहार्द और बिगड़ेगा। हम अपने नहीं, दूसरों पर आरोप रखने की दृष्टि सुधार नहीं सकेंगे। 

यदि यह हुआ तो हम, भारतीय को ना भारत में जगह मिलेगी ना ही उसका स्वागत कहीं और होगा। भारतीय, ना भारत में खुशहाल होगा, ना ही कहीं और सम्मान से रह सकेगा। 

यह विचारणीय प्रश्न किसी अमेरिकी या यूरोपियन के समक्ष नहीं, स्वयं (हम) भारतीय नागरिकों के समक्ष उपस्थित हुआ है। 

क्षमा कीजिए मैंने, हम शब्द का प्रयोग कर अपने को ही नहीं आपको भी दोषी बता दिया है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

27-04-2021

         


Sunday, April 25, 2021

तीस साल बाद ...

 

तीस साल बाद ...

30 वर्षों तक के समाज सेवी कार्यों के लिए मंच, मुझे सम्मानित कर रहा था। शॉल एवं श्रीफल से मेरा सम्मान किए जाने के बाद, मुझसे उद्बोधन के लिए कहा गया था। 

हॉल में अपने सामने 800-900 बुद्धिजीवियों की उपस्थिति से तब मेरे आत्मविश्वास में कमी आ गई। किसी मंच पर प्रमुख अतिथि जैसे बोलने का मेरा यह पहला अवसर था। मैंने किसी तरह से थोड़े शब्द कहे थे - 

उपस्थित सभी श्रद्धेय प्रबुद्धजन, आपको संबोधित कर सकने की प्रतिभा मुझमें नहीं है। इसलिए अगर सभा की अनुमति हो तो मैं, अपनी बात प्रोजेक्टर पर, एक शार्ट मूवी के माध्यम से रखना चाहता हूँ।

यह सभा, मुझे सम्मानित करने के लिए चल रही थी। मेरी बात को टाला नहीं गया था। मैंने अब तक रिलीज़ नहीं की गई, अपनी निर्मित करवाई, शार्ट मूवी अपने लैपटॉप के माध्यम से प्रोजेक्टर पर प्ले की थी। फिर स्वयं मंच के नीचे जाकर पहली पंक्ति में आकर बैठ गया था। 

मूवी चालू हो गई थी। पहला दृश्य स्क्रीन पर ऐसा दिखाई दिया - 

यह हॉस्पिटल का एक छोटा कमरा है। इसकी क्षमता एक मरीज की है। कक्ष के दरवाजे पर ‘कोविड वार्ड’ की प्लेट लगी हुई है। इसमें, भीतर अतिरिक्त बेड लगाया गया है। 

वॉल क्लॉक रात 11.30 का समय दिखा रही है। इस समय दोनों बेड पर, मरीज हैं। पहले बेड पर लगभग 40 वर्ष का, एक युवक बेसुध पड़ा हुआ है। दूसरे बेड पर उसकी दोगुनी उम्र के वृद्ध अपनी वेदना के कारण, बीच बीच में कराहते हुए लेटे हैं। उनकी धड़कनें 45 के नीचे चल रही है। इससे उन्हें सेडेटिव देकर सुलाया जाना खतरे की बात हो सकती है। अतः उन्हें सेडेटिव पिल्स या इंजेक्शन नहीं दिया गया है। 

वृद्ध कभी सो गए लगते हैं, कभी जाग रहे लगते हैं। जब उनकी आँखे खुली होती हैं तो वे मॉनिटर पर डिस्प्ले होती वेव्स एवं डिजिटल पैरामीटर्स पर अपनी दृष्टि डालते हैं। फिर नम आँखों से युवक के मॉनिटर को देखने के बाद, उसके मुख को स्नेहयुक्त भावों से देखने लगते हैं। 

दोनों ही पेशेंट के हाथ, पैर, पीठ एवं सीने पर नली एवं वायर का जाल लगा हुआ है। मुँह पर ऑक्सीजन मॉस्क लगे हुए हैं। मॉनिटर इनफर्मेशन्स, दोनों रोगियों की स्थिति नाजुक होना दर्शा रही हैं। 

तब एक 27-28 वर्षीया, सिस्टर (नर्स) जिसके चेहरे पर थकान एवं खीझ देखी जा सकती है, कक्ष में आती है। उसके पीछे, डोर क्लोज़र से दरवाजा बंद हो जाता है। सिस्टर के सीने पर लगी प्लेट पर, विजेता (नाम) लिखा हुआ है। विजेता दोनों मॉनिटर पर एक दृष्टि डालती है। फिर बारी बारी से दोनों मरीजों के प्रिस्क्रिप्शन पढ़ती है। स्टैंड पर सलाइन लगाकर युवक की हाथों में लगी सुई से, नली जोड़कर ड्रॉप की गति एडजस्ट करती है। 

इसके बाद वृद्ध का मॉस्क हटाकर, सिर के पीछे अपना हाथ के सहारे से थोड़ा आगे करते हुए, एक गोली पानी के साथ देती है। फिर वापस उन्हें आराम की अवस्था में लिटा कर, मॉस्क वापस लगा देती है। 

इतना करने के बाद वह, कक्ष में रखी कुर्सी पर सिर टिका कर बैठ जाती है। वृद्ध दवा दिए जाने से चेतन हुआ है। वह, विजेता के मुख की थकान एवं खीझ से, उसके प्रति दया अनुभव करता है। वृद्ध पहले दर्द से कराहता है। फिर कहता है - सिस्टर, आप पर बहुत काम बढ़ गया है। बहुत थकी लग रही हो। 

सुनकर विजेता का चिढ़ होती है। सोचती है, इस बूढ़े की मैं, सिस्टर कहाँ से लगती हूँ। फिर भी कहती विनम्रता से है - 

मेरा नाम विजेता है। मरीज दोगुनी संख्या में आ गए हैं। इससे नर्सिंग स्टॉफ कम पड़  रहा है। 16 घंटे हो चुके हैं तब भी मुझे छुट्टी नहीं मिल पा रही है।

वृद्ध संवेदना अनुभव करता हुआ कहता है - मैंने घर में, हॉस्पिटल लाने को मना किया था। बेटा नहीं माना है, सॉरी, सुजाता!

विजेता समझती है कि वृद्ध की स्मरण शक्ति कमजोर हुई है। उस ने अपना नाम विजेता बताया है। कह, सुजाता रहा है। विजेता कहती है - 

आपने, अपनी बारी पर वैक्सीन लगवाई होती तो आपको हॉस्पिटल नहीं लाना पड़ता। 

वृद्ध कहते हैं - मैंने सोचा था, मेरे नहीं लगवाने पर किसी एक, अन्य को वैक्सीन का लाभ मिलेगा। यह सोचा था कि मेरा क्या है तब नहीं तो, साल-छह महीने में मुझे तो जाना ही पड़ेगा। 

विजेता ने कहा - 5-5 लाख वैक्सीन, देश के लोग लापरवाही से खराब कर रहे हैं। यहाँ आप हैं कि किसी और के लिए, अपने दो डोज़ बचा देने की चिंता में पड़े रहे हैं। अब देखिए ना, आप दूसरे की ऑक्सीजन ले रहे हैं। 

वृद्ध फिर कराह रहे थे। अब उनमें शारीरिक पीड़ा के साथ ग्लानि बोध भी था। कहा - विजेता, ऑक्सीजन कम पढ़ रही है, क्या?   

विजेता सोचने लगी, अब सही नाम कहने लगा यह बूढ़ा। उसने कहा - कम नहीं, ऑक्सीजन बची ही नहीं है। जिस मात्रा में अभी खर्च हो रही है, रात तीन बजे तक खत्म हो जाएगी। जबकि नई आपूर्ति सुबह के पहले नहीं हो पाएगी। ऑक्सीजन खत्म हुई तो आप बच नहीं पाओगे। सुबह आपके परिजन हंगामा खड़ा करेंगे। हमारा पूरा हॉस्पिटल स्टाफ, इसे लेकर परेशान है। हमारी थकान, हमारे प्रयास और हमारे त्याग कोई नहीं देखेगा। सब को आप (मरीज) का मर जाना आक्रोशित करेगा। 

वृद्ध कुछ समय, कुछ नहीं बोला तो विजेता ने समझा, सो गया बूढ़ा! अच्छा हुआ व्यर्थ दिमाग चाट रहा था। 

विजेता ने सिर कुर्सी के बैक पर रख कर आँखे मूंद लीं थी। वृद्ध की कराहने की आवाज ने उसे चिढ़ाया था। फिर सुना वृद्ध कह रहा है - सुजाता, मेरी ऑक्सीजन बंद कर दो। 

विजेता ने आँख खोली, उत्सुकता से कहा - क्यों, अभी मुश्किल से 80 है। बंद करते ही आप परलोक सिधार सकते हो।

वृद्ध ने कहा - कोई बात नहीं। (फिर युवक की तरफ इशारा किया)  मेरी बचेगी तो इस बच्चे को मिलेगी। इसकी ऑक्सीजन, मॉनिटर पर 75 दिख रही है। शायद सुबह नई ऑक्सीजन आने तक, मेरी बची ऑक्सीजन, उसके काम आ जाए। अभी यह बच जाए तो शायद 40 साल और जी सकेगा। घर में पत्नी-बच्चे, इसके स्वस्थ हो कर लौटने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। 

विजेता ने सोचा - बड़ा उपकार करने को मरे जा रहा है, यह बूढ़ा। यहां बीमार चार सौ हैं। अपनी ऑक्सीजन बचा के, किस किस की जान बचा लेगा, यह बूढ़ा। विजेता ने पूछा - मरते समय परोपकार का मन कर रहा है, आपका?

वृद्ध चुप रहा। आँखें बंद किए हुए ही कराहता रहा। दो तीन मिनट बाद बोला - जीवन भर परोपकार की बातें सुनकर तथा परोपकार किया जाता देख कर मैं, उसकी सराहना करता रहा हूँ। कभी परोपकार किया नहीं है। पता नहीं, ऑक्सीजन की इतनी किल्लत में, मेरे ना लेने पर भी इस बच्चे को बचाया जा सकेगा या नहीं। तब भी मेरी ऑक्सीजन बंद कर दो, सुजाता। मेरा जीना अब किसी काम का नहीं। जबकि इस बेचारे पर जिम्मेदारी बहुत होंगी। 

विजेता ने कहा - मेडिकल एथिक्स (चिकित्सा नैतिकता) के विरुद्ध यह काम, मेरी नौकरी ले सकता है। आप जानते हैं? 

वृद्ध ने सुझाव दिया - मेरा मॉस्क लगे रहने दो, ऑक्सीजन जीरो पर कर दो। आप पर कोई संदेह नहीं करेगा। वैसे भी बहुत लोग मर रहे हैं। मेरा मरना अस्वाभाविक नहीं लगेगा। मुझे लगता है, ऑक्सीजन बंद करने पर भी मैं, नई आपूर्ति आने तक मरूँगा नहीं। 

कोविड वार्ड में वैसे भी कोई रिश्तेदार देखने आ नहीं सकता था। डॉक्टर के भी सुबह तक आने की कोई संभावना नहीं थी। बूढ़े के बकबक ना सुनना पड़े सोचते हुए विजेता ने तब, वृद्ध के चाहे अनुसार ऑक्सीजन बंद कर दी। 

इसके साथ ही बूढ़े के कराहने एवं श्वास लेने में तकलीफ की आवाज बढ़ गई थी। विजेता ने बूढ़े के चेहरे पर एक दृष्टि डाली, उसकी आँखें बंद थीं। तब विजेता अन्य मरीजों को देखने चल दी थी। 

किसी तरह ऑक्सीजन साढ़े तीन बजे तक चल पाई थी। तब अचानक ऑक्सीजन आपूर्ति आ गई। हॉस्पिटल में 15 मिनट में सप्लाई पुनः चालू कर दी गई थी। जिससे रोगियों पर से ऑक्सीजन नहीं मिलने का खतरा टल गया था। 

विजेता को याद आया कि वृद्ध बिना ऑक्सीजन पर है। वह बुरी तरह थकी हुई थी, निद्रा की कमी से उसके एक एक कदम, मुश्किल से बढ़ रहे थे। फिर भी बूढ़े की चिंता में, वह दौड़ती हुई उसके कक्ष तक लपकी थी। दरवाजा खोलते ही सबसे पहले विजेता की दृष्टि, बूढ़े के बेड के बगल में लगे मॉनिटर पर गई थी। हृदय धड़कनों को दर्शाने वाली वेव, जीरो लेवल पर सीधी रेखा हो चुकी थी। विजेता रो पड़ी थी सिर्फ इतना निकला था - ओह्ह मैं, हत्यारी!

फिर रोते रोते विजेता ने वृद्ध के शरीर से जुड़ी नलियाँ एवं वायर हटाए थे। मुंह पर का मॉस्क हटाया था। वृद्ध का मुँह खुला था। जो श्वास लेने में कठिनाई एवं श्वास लेने के प्रयास में, अंतिम समय में खुला रह गया था। विजेता ने, वृद्ध की ठोड़ी पर हाथ रख उनका मुँह बंद किया था। फिर, कोविड खतरे को भूलकर, रोते हुए वृद्ध के सीने पर अपना सिर रखा था। विजेता इस ही स्थिति में कुछ मिनट रही थी। तब उसे, बगल के बेड से आती आवाज सुनाई दी थी - सिस्टर, ये आपके रिश्तेदार थे, क्या?

विजेता वृद्ध के सीने से अलग हटी थी। उत्तर दिया था - मेरे ही नहीं, ये संपूर्ण मानवता के रिश्तेदार थे। इन के सीने से लग, मैं यह अनुभूति कर रह थी कि कुछ ही समय पूर्व तक, इनके हृदय की हर धड़कन, आपकी चिंता कर रही थी कि आप बच सकें, आपके पत्नी बच्चे अनाथ ना हो जाएं। 

युवक को कुछ समझ नहीं आया था। वह चुप रह गया था। विजेता ने, वृद्ध के बाजू में रखा मोबाइल देखा तो उसमें कोई लॉक नहीं था। विजेता ने कॉल हिस्ट्री देखी थी। रात 9.35 बजे आखिरी कॉल, उस में, किसी सुजाता का देखने मिला था। विजेता ने उस पर कॉल किया। उत्तर तुरंत मिला था। 

नारी स्वर, उसकी, गहन चिंता में होने की बात दर्शा रहा था। वह पूछ रही थी - पापा, आप अच्छे तो हो?

विजेता की रुलाई फूट पड़ी थी। वह सिर्फ हिचकियाँ ले रही थी। कुछ कह नहीं सकी थी। 

शार्ट मूवी खत्म हो गई थी। 

मैं, अब उठकर मंच पर आया था। मैंने, पुनः स्पीकर अपने हाथ में लिया था। सामने दीर्घा की ओर मुखातिब होकर बोलने लगा - 

यह मूवी मेरे सच पर आधारित है। उस दिन उन परोपकारी वृद्ध के साथ, उस अस्पताल कक्ष में, दूसरा मरीज मैं ही था। सिस्टर विजेता ने बाद में, अस्पताल से छुट्टी मिलने के समय यह सच्चाई, मुझसे बताई थी। तब मैंने, वृद्ध के सीने में परोपकारी धड़कनों, जो उनके जाने के साथ शेष नहीं बची थीं, का स्मरण किया था। फिर अपने हृदय में चलती धड़कनों को, उनसे उत्प्रेरित किया था। यह अबसे 30 वर्ष पहले की घटना है। वह समय वैश्विक कोरोना महामारी का था। तब से 30 वर्ष बाद, आज मुझे नहीं पता है कि मेरी धड़कनें, ठीक उन वृद्ध की धड़कनों वाली भावना से धडक़तीं भी हैं या नहीं?    

यह कहते हुए, मैंने स्पीकर रख दिया था। 

सामने दीर्घा में दर्शकों की आँखें नम थी। वे सभी अपने स्थान से, खड़े होकर तालियाँ बजा रहे थे  ….   

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

25-04-2021


Wednesday, April 21, 2021

वैक्सीनेशन प्रेफरेंस …

 

वैक्सीनेशन प्रेफरेंस … 

सोसाइटी के पार्क में, हम चार वरिष्ठ नागरिक की चर्चा के बीच, एक 27 वर्षीय लड़का साथ की बेंच पर आ बैठा था। हममें से एक बंधु वर ने उसे मॉस्क नहीं लगाया देखा तो सहज कहने से स्वयं को रोक नहीं सके थे। 

उन्होंने कहा - बेटा मॉस्क लगा लिया करो, कोविड की दूसरी लहर ज्यादा खतरनाक है। 

लड़का पता नहीं किस बात से चिढ़ा हुआ आया था। उसने अभद्रता से उत्तर दिया - 

देखिए अपना ज्ञान अपने पास रखिए। आप जो चार दिख रहे हैं ना, अगर ना होते तो अब तक हमारा वैक्सीनेशन हो जाता। आप लोग गुड फॉर नथिंग हैं। मगर संसाधनों से हमें वंचित कर रहे हैं। 

मेरे तीन साथी उसके उत्तर देने से चिढ़ गए। एक ने कहा - दिखते पढ़े लिखे हो मगर बात करने का शिष्टाचार नहीं आया है। 

वह लड़का प्रत्युत्तर में व्यंग्यात्मक रूप से हँसा था। यह देख मेरे तीन साथी ने वहाँ से उठ, चले जाने का विकल्प लिया। मैं, मगर वहीं बैठे रहा था। मेरे इस देश ने मुझमें, ऐसे अपमान सहन कर सकने की मानसिकता पैदा कर दी थी। 

लड़का, मुझे देख हँसते हुए बोला - अरे, आप ने बहिष्कार एवं बहिर्गमन नहीं किया, विपक्षी दलों जैसा?

मैंने भी हँसते हुए कहा - बेटे, मैं विपक्षी नहीं, आपके पक्ष का ही हूँ। 

लड़के ने अब मुझे गौर से देखा - आप, अपने को युवा दिखाना चाह रहे हैं। 

मैंने कहा - नहीं, मेरा मतलब है मैं, वैक्सीन नहीं लेना चाहता था। ताकि वह आप जैसे युवाओं को मिल सके। 

लड़के ने पूछा - फिर भी, ले तो ली होगी ना, आपने?

मैंने सीधा उत्तर नहीं देकर उससे, उल्टा प्रश्न किया - आपके पापा, मम्मी कहाँ हैं?

उसने कहा - गाँव में हैं। 

मैंने पूछा - अभी उनको वैक्सीन लगी या नहीं। 

लड़के ने कहा - नहीं, अभी 60 के नहीं हैं। अभी उनका नंबर नहीं आया है। 

मैंने कहा - नंबर आएगा तो क्या तुम उन्हें नहीं लगवाएंगे? 

लड़का समझ गया था कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ। इस बार उसने उत्तर विनम्रता से दिया - हाँ, अंकल लगवाने के लिए मैं ही, उन्हें अस्पताल ले जाऊँगा। 

अब जो मैं कहना चाहता था वह कहने का अवसर मुझे मिल गया था। मैंने कहा - मैं, वैक्सीन नहीं लेना चाहता था। लेकिन मेरे बेटे-बहू ने जबरन मुझे लगवाई है। मैं तो यही चाहता था कि पहले उन्हें लगे। वह देश और समाज के लिए जो कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकता हूँ, अब। उनका और आपका होना अधिक उपयोगी एवं अच्छा है, राष्ट्र विकास के लिए। 

लड़का बोला - सॉरी, अंकल! मैं परिदृश्य को इस तरह नहीं देख सका था। 

मैंने कहा - बेटे, सॉरी तो मुझे कहना चाहिए, हम जो आज वरिष्ठ हैं, उन्हें विरासत में देश की जनसंख्या 50 करोड़ मिली थी। हमने दूरदृष्टि नहीं रखी इससे यह आज 135 करोड़ है। अभिप्राय यह कि संसाधन कम एवं लोग ज्यादा होने के लिए जिम्मेदार हम वरिष्ठ नागरिक ही हैं। 

लड़का समझ नहीं पाया था कि वह, मेरी बात को सहमत करे या असहमत। 

मेरा अब मेडिसिन का समय हो रहा था। मैं उठ कर आने के लिए खड़ा हुआ था। 

तब मुझे अचंभित करते हुए, लड़के ने मेरे चरण स्पर्श किए थे। कहा - 

नहीं, अंकल यह जनसंख्या आप जैसे जिम्मेदार व्यक्ति ने नहीं बढ़ाई है  …. 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

22-04-2021

 




                       


शिखा ..

शिखा ..

(पंचम, अंतिम भाग)

रिया के जाने के बाद मैंने स्वयं से प्रश्न किया कि मेरी पत्नी यदि किसी पुरुष (घर में अकेले) के साथ कुछ घंटे रही है, यह मेरी जानकारी में आए तो मेरी प्रतिक्रिया क्या शिखा के पति से भिन्न होगी?  

उत्तर संशयपूर्ण था - शायद हां और शायद नहीं भी! 

तब मैंने सोचा जब मैं, जिसने किसी स्त्री के साथ कभी कोई अवैध रिश्ता नहीं रखा है, उसका जवाब ही निश्चित ‘ना’ नहीं है तो शिखा का रसिक पति, कैसे शिखा का भरोसा कर सकता है। उसने और उसके साथ किसी/कुछ महिलाओं ने अकेले में साथ का कोई और इतिहास रचा होगा। अर्थात अकेलेपन में स्त्री-पुरुष के साथ का शिखा के पति ने शायद एक ही अर्थ जाना था। 

शिखा को घर बुलाते समय इस तथ्य पर नहीं सोच पाना, मेरी बड़ी चूक थी। मुझे बहुत दिनों तक इसका अपराध बोध रहा। मैंने, शिखा से मिलने की फिर कोई चेष्टा नहीं की। दो वर्षों में कुछ बार जब भी अपनी सोसाइटी या ऑफिस में, मैं और शिखा आमने सामने आए तब हम दोनों ने ही, सप्रयास अपनी आँखे मिलने से बचाई थीं। 

फिर मेरी सेवानिवृत्ति का दिन आया। मेरी विदाई पार्टी का आयोजन हुआ। मैंने अपने उद्बोधन में सभी बातें सामान्य विदा लेते व्यक्ति के तरह की ही कही थीं। साथ ही यह भी कह दिया कि मैं जीवन में शेष समय, ग्रामीण क्षेत्र के अपने जन्म स्थान में रहकर बिताऊँगा। 

मेरे भाषण में यह लाइन शिखा की सूचना के लिए थी। इन दो वर्षों में, शिखा से मेरा प्यार बना रहा था। यह शायद मेरी अंतिम श्वास तक भी बने रहने वाला था। 

4 दिन बाद शिखा, रिया को साथ लेकर हमारे घर आई थी। पिछले दिन ही मेरी सेवानिवृत्ति पर आए, मेरे बेटा/बहू, बेटियाँ/दामाद, पोता/पोती/नाती/नातिन सब वापस चले गए थे। मैं एवं पत्नी ही घर में थे। मैंने, पत्नी से दोनों का परिचय करवाया था। रिया, कोई कोई बात करती रही थी। इस दौरान शिखा सिर्फ रोती रही थी। जब मेरी पत्नी, चाय नाश्ते के लिए रसोई में गईं तब शिखा ने कहा - 

हम नहीं मिलते थे। मगर ‘आप यहां हैं’ यह होना, मुझे मानसिक संबल देता था। अब आप चले जाएंगे, मेरे शेष जीवन में सूनापन बढ़ जाएगा। 

रिया के सामने होते हुए भी, शिखा ने कहने में कोई संकोच नहीं किया था। मगर मैं संकोच में रहा था। मैं कुछ कह ना सका था। यही बस कहा - 

यह जीवन है, जैसा है उसे वैसा ही हमें निभाना है। आप खुश रहना मेरी आत्मा को, इसी से शांति मिलेगी। 

जाते हुए रिया ने कहा - आई लव यू, अंकल। मेरी शादी जब होगी आप जरूर आना। 

बेटी रिया, मम्मा शिखा पर ही गई थी। मैंने रिया के सिर पर हाथ रख आशीष दिया था। दोनों चली गई थीं। तब मेरी पत्नी ने पूछा - जी, इस शिखा को कोई कष्ट है, क्या? पूरे समय आँखों में आँसू लिए बैठी थी। 

मैंने कहा - शिखा, मूक प्रेम करती रही है, मुझसे। अब हमारा यहाँ से जाना, उसे वियोग लग रहा है इसलिए रो रही थी। बहुत भावुक है। 

पत्नी ने कहा - आप हो ही ऐसे कि सबको प्यार आए, आप पर। वह प्यार करती है आपको, आप यह जानते थे तो पहले क्यों नहीं बुलाया, कभी घर पर?

मैंने पूछा - मैं किसी और को भी प्यार करता हूँ, इसे सहन कर लेतीं तुम?

पत्नी ने कहा - मैं कृष्ण जी को और श्रीकृष्ण जी मुझे प्रेम करते हैं। इसमें आपको कोई आपत्ति होती है? वैसे ही मुझे भी नहीं हुई होती। मैं जानती हूँ पत्नी का अधिकार, ‘पति वाला प्रेम’, आप सिर्फ मुझे ही देते हैं। फिर आप से कोई या सब प्रेम करते रहते, आप किसी से प्रेम करते रहते, मुझे इससे गर्व ही होता। ऐसे ‘श्री कृष्ण जी’ तरह के आप, मेरे पति हैं। 

मैं चकित एवं निरुत्तर था। पत्नी की मुझमें इतनी अगाध श्रद्धा कि मेरी तुलना भगवान कृष्ण से कर दी। यह बहुत अच्छा हुआ कि मेरे कदम कभी बहके नहीं थे। फिर हम नोएडा से चले आए थे। 

दस वर्ष हुए एक दिन श्री कृष्ण जी की दीवानी मेरी पत्नी ‘मीरा’, अपने भगवान में समा गईं। मैं अकेला पड़ गया था। पत्नी का छोड़ जाना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति थी। मुझे उनका स्मरण सदा बना रहता था। मगर मैं विचित्र था। मैंने अपने अकेलेपन में एक कहानी लिखी, जिसकी नायिका मेरी पत्नी नहीं शिखा थी। कहानी ऐसी बनी थी -  

“एक तरह से सबसे पीछा छुड़ाते हुए मैं जब, अपने शयन कक्ष में पहुँचा तो शिखा, सुहाग शैय्या पर शायद मेरे आने की प्रतीक्षा करते हुए सो चुकी थी। कक्ष में प्रवेश के साथ जब मैंने, अपने पीछे कमरे की साँकल चढ़ाई तो इस आहट से चौंकते हुए शिखा उठ गई थी। वह अपने वस्त्रों को व्यवस्थित करने में लग गई थी। 

देर से आने एवं शिखा की नींद में विघ्न के लिए मैंने, खेद दिखाने का कोई प्रयास नहीं किया था। शैय्या पर शिखा के बाजू में बैठते हुए, मैंने अपने हाथ में ली हुई गहने की डिब्बी खोल कर, कानों के बाले उसे दिए थे। देखकर शिखा के मुख पर प्रसन्नता के भाव उभरे थे। जिन्हें शिखा ने तुरंत ही गंभीरता दिखाते हुए, बदल लिया था। कदाचित शिखा, मेरे द्वारा अत्यधिक प्रतीक्षा कराने पर नाराजगी दिखाना चाहती थी। 

मैंने उसकी इस भाव भंगिमा को समझा था। फिर भी उस बारे में कुछ ना कहते हुए अपने पहले शब्द ये कहे - 

देखो, शिखा व्यर्थ के आश्वासन देना मेरा स्वभाव नहीं है। अभी ही समझ लो कि तुमसे प्यार में, मैं ना तो कोई आसमान के तारे तोड़ कर लाने वाला हूँ और ना ही पूरी दुनिया की सैर तुम्हें कराने वाला हूँ। शिखा, मैं, तुम्हें इस बात के लिए अवश्य आश्वस्त करता हूँ कि फेरों में लिए वचनों को निभाने के लिए अपना अधिकतम सामर्थ्य लगाऊँगा। तुम्हें आजीवन, आदर सहित साथ और मानसिक संबल प्रदान करूँगा। 

शिखा उत्तर में सिर्फ जी कह पाई थी। तत्पश्चात प्रणय के क्षणों को, उसने सहमी सहमी रहकर निभाया था। इसमें शिखा का कोई दोष नहीं था। मेरा भी नहीं क्योंकि ‘मैं था ही ऐसा’। मैं, किसी से भी कुछ, शब्दों को अलंकृत कर नहीं कह पाता था। 

अगले दिन अपनी छोटी बहन एवं शिखा में कानाफूसी, मैंने देखी थी। बहन के मुख पर, शिखा को कुछ बताने जैसे भाव थे। 

मैंने अनुमान लगाया कि मेरी बहन, अपनी भाभी शिखा की शिकायत पर, उसे समझाने के लिए कह रही होगी - 

कोई नहीं भाभी, थोड़े दिन में आप अभ्यस्त हो जाओगी तब आपको अच्छा लगने लगेगा। महेंद्र भैय्या, नीम खाते हैं अतः उनके मुँह से, शब्द कड़वे निकलते हैं मगर दुर्गन्ध नहीं आती है। 

अपने ग्रामीण संयुक्त परिवार में, मेरे विवाह पर हर्षोल्लास से चलते कार्यक्रमों के बीच ही, मैं पाँच दिन में शिखा को लेकर नौकरी पर वापस लौट आया था। सर्विस नई थी अतः मैं अधिक छुट्टी नहीं ले सका था। 

शहर आकर मैं, अपने विभागीय कार्यों में लग गया था। शिखा घर में सब काम करती, मेरी आवश्यकताओं का ध्यान रखती लेकिन मुझसे बात के लिए कम से कम शब्द प्रयुक्त करती थी। मैंने तो देखा था कि महिलाएं बातूनी होती हैं। शिखा ऐसा क्यों नहीं करती है, यह बात समझने में मुझे देरी नहीं लगी थी। उसे मेरा बिना लाग लपेट की बातों से भय सा लगता था। मगर मैं भी क्या करता ‘मैं था ही ऐसा’। 

15 दिन ऐसे बीते। एक छुट्टी के दिन मैंने भोजन के बाद कहा - आओ शिखा यहाँ मेरे सामने बैठो। वह सहमते हुए आ बैठी। मैं समझ गया वह सोच रही थी - पता नहीं इन से क्या सुनने मिलने वाला है। 

मैंने कहा - तुम्हारे सर्टीफिकेट्स एवं पासपोर्ट साइज फोटो हैं ना, यहीं तुम्हारे पास?

उसने कहा - हां हैं तो। 

इसके आगे के, शिखा के प्रश्न का, अनुमान मुझे करना पड़ा कि जैसे पूछना चाहती हो - मगर क्यों, क्या जरूरत पड़ गई इनकी, आपको?  

मैंने कहा - समाचार पत्र में, हाईस्कूल गणित के अध्यापक की, पद रिक्तता निकली है। तुम में योग्यता है, तुम एमएससी (गणित) हो। इस नौकरी के लिए तुम्हारा फॉर्म भरना है। 

वह सहज ही कह बैठी - आप राजपत्रित अधिकारी तो हैं। फिर मेरी, अध्यापक की नौकरी की क्या आवश्यकता है? 

मैंने कहा - मैं, तुम्हें नौलखा हार कभी नहीं दिलवा सकूँगा। तुम्हारी योग्यता अनुसार  नौकरी लगवा देता हूँ। किसी दिन हमारे परिवार के लिए यह नौकरी, नौलखा से अच्छी सिद्ध हो सकती है।

स्पष्ट था, उसे नौकरी करने का विचार, अरुचिकर लग रहा था। मगर शिखा ने कोई और बात नहीं की और अपनी अलमारी से सभी प्रमाण पत्र एवं फोटो लाकर सामने रख दिए थे।    

मैंने शिखा का आवेदन तैयार करके, डाकघर में रजिस्टर्ड पोस्ट कर दिया था। शिखा का इंटरव्यू कॉल आया। फिर उसका चयन भी हो गया था। मेरी पोस्टिंग यहां होने पर ध्यान देते हुए, उसे पास के स्कूल में पोस्ट कर दिया गया था। 

विवाह के तीन महीने बाद ही शिखा नौकरीपेशा महिला हो गई। इन तीन महीनों में शिखा, यह भी समझने लगी कि उसका पति (मैं) “आई लव यू” कह कर प्रेम नहीं बताता है। अपितु शिखा से मेरा (पति का) प्यार, उसके लिए किए जाने वाले, पति के (मेरे) काम और शिखा के सुख के प्रति परवाह में झलकता है। 

शिखा को क्या पहनना, क्या खाना, कहाँ जाना, किन से मिलना पसंद है, शिखा ने इस हेतु मेरे परवाह रखने से मेरे प्यार को समझ लिया था। शिखा को यह भी समझ आ गया था कि उसमें योग्यता देखकर, उसके अध्यापक की नौकरी लगवाना भी उसके प्रति मेरे प्यार से प्रेरित काम था। 

शिखा समझ चुकी थी कि स्वनिर्भर होने की तथा उसमें निहित योग्यता का लाभ, पढ़ने वाले बच्चों को मिलते देखने की संतुष्टि, शिखा को सुख की अनुभूति सुनिश्चित करेगी। यह भी सोच कर मैंने, उसे इस नौकरी के लिए प्रेरित किया था। 

प्रथम रात्रि में शिखा को मैं विचित्र व्यक्ति प्रतीत हुआ था। बाद के छह माह में शिखा समझ चुकी थी कि मैं, विचित्र किंतु प्यार करने वाला आदर्श पति हूँ। 

अगले दस वर्ष में हमारा गृहस्थ जीवन औरों के लिए प्रेरणा हुआ था। इस दौरान हमारे दो बेटे भी हुए थे। 

फिर आया था महामारी वाले वायरस का समय। मुझे उच्च रक्तचाप के साथ ही डायबीटीस भी थी। वायरस का हुआ संक्रमण मेरे लिए प्राण लेवा सिद्ध हुआ। उपचार के लिए मुझे अस्पताल में अकेले भर्ती रहना पड़ा था। 

मैं सोचता कि अच्छा किया था मैंने कि शिखा को अध्यापक की नौकरी लगवाई थी। 

फिर वह पीड़ाकारी समय आया था। मैं दम तोड़ने की हालत में पहुँचा था। मैं सोच रहा था कि मेरे मरते समय मेरा सिर, काश! शिखा की गोदी में होता। उसकी आँखों में देखते हुए मेरा दम टूटता। 

मेरे चाहने से भिन्न मैंने दम, वेंटीलेटर पर तोड़ दिया था …”   

यह कहानी मैं बार बार पढ़ता था। यह मेरी ही लिखी कहानी थी। मैं चाहता तो अंत बदल सकता था। ऐसा मैंने नहीं किया था। 

चार वर्ष व्यतीत हुए। मुझे रिया का फोन आया था बताया - पापा, भगवान को प्यारे हो गए। मैं संवेदना प्रकट करने नोएडा गया था। शिखा को देख लगता था जैसे वह, मुझसे कुछ बोलना चाहती है। फिर भी उसने कुछ नहीं कहा था। हाथ जोड़कर, वापस आते समय मेरे नेत्र भीगे हुए थे। मेरी व्यक्त की गई इतनी संवेदना ही शिखा के लिए पर्याप्त थी। उसके आंसुओं के बीच उसके होंठ पर आई स्मित से, मैंने यह अर्थ लगाया था। 

चार महीने बाद रिया ने (ना जाने कैसे) राशि से संपर्क किया था। ना जाने रिया ने राशि को क्या बताया था। 

उनके आग्रह पर शिखा, रिया, राशि एवं मेरा मिलना हुआ था। 

तब रिया ने कहा - मैं और राशि चाहती हैं कि ‘मम्मा एवं अंकल’ विवाह करें। 

शिखा ने इस बात को विनम्रता से सिर हिलाकर अस्वीकार कर दिया। 

रिया ने पूछा - मम्मा मगर क्यों? अंकल और आप, पसंद करते हैं एक दूसरे को?

शिखा ने कहा - यह समाज कहेगा, मैं सर, से विवाह करने के लिए अपने पति की मौत की प्रतीक्षा कर रही थी। 

मैंने शिखा के स्वर में अपना स्वर मिलाया - शिखा जी सही कहती हैं। हम में प्रेम है मगर वैसा नहीं जिस का शक सब करते हैं  .....       

(समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

21-04-2021

Tuesday, April 20, 2021

शिखा ..

 

शिखा ..

(चतुर्थ भाग)

सामने, लिफ्ट में शिखा की बेटी रिया थी। मम्मा के हाथ के भोजन का मन हुआ तो वह, अवकाश के कारण अचानक हॉस्टल से आई थी। वह मम्मा को सरप्राइज देना चाहती थी। घर पहुँची तो मम्मा नहीं थी। वह अपने पास की अतिरिक्त चाबी लाना भूल गई थी और मम्मा को कॉल करने की सोच ही रही थी। तभी सामने आचार्या आंटी आ गई थी। आंटी ने रिया के बिना पूछे ही कहा - मम्मा, कहाँ हैं यह सोच रही हो रिया?

रिया ने कहा - हाँ आंटी, आपको पता है?

आचार्या आंटी ने बताया - मेरी मेड बता रही है कि अभी उसने शिखा को, महेंद्र सिंह के घर देखा है। 

रिया ने पूछा - यह महेंद्र सिंह कौन है? 

आंटी ने कहा - मैं भी नहीं जानती, मेड ही कह रही थी वह, उनके घर बी ब्लॉक - 308 में काम करती है। महेंद्र सिंह की पत्नी अभी बाहर गई हुई है। 

कहते हुए आचार्या आंटी रहस्यमय ढंग से हँस दी थी। आंटी की कही बात एवं हँसी ने रिया को बुरी तरह भड़का दिया था। उसने मम्मा को कॉल करने का विचार त्याग दिया एवं तमतमाई हुई वह बी ब्लॉक पहुंची थी। तब उसे, शिखा लिफ्ट में मिली थी। लिफ्ट में शिखा के आते ही रिया ने रुष्ट होकर पूछा - मम्मा, मैं आपको सरप्राइज देने, बिना बताए आ गई तो आपने मुझे ही सरप्राइज कर दिया। कौन है यह महेंद्र सिंह? पापा बाहर गए हैं तो आप, यह क्या करने में लग गईं? 

रिया का इस तरह आक्षेप लगाना, शिखा के लिए अप्रत्याशित था। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। रिया ने शिखा के उत्तर नहीं दे पाने एवं मुख पर के भाव का वही अर्थ लगा लिया जो आंटी की हँसी में छुपा था। 

रिया के साथ शिखा, बिना उत्तर दिए ही घर तक आई थी। बेटी के अपने पर किए अविश्वास से वह स्तब्ध रह गई थी। 

रिया ने घर में आने पर कहा - मम्मा, आपने मेरा मूड स्पॉइल कर दिया। मेरा तो ठीक है, पापा का सामना आप कैसे कर सकेंगी?

एक के बाद एक रिया की कही जा रही बातों से मर्माहत, शिखा ने उत्तर देने का विचार छोड़ दिया। वह गंभीर बनी रही। सोच रही थी कि सोचने दो रिया को, वह जो भी सोच रही है। आखिर माँ से बात करने का कोई तरीका भी तो होता है?

शिखा ने ठंडे स्वर में पूछा - रिया, पापा के लिए मैं छोले भटूरे और गाजर का हलवा बना रही हूँ। बताओ, तुम वही खाना पसंद करोगी या कुछ दूसरा चाहिए, तुम्हें?

शिखा के द्वारा अपने प्रश्नों पर कोई उत्तर नहीं दिए जाने ने, रिया को मजबूर किया कि वह अपनी कही बातों पर पुनर्विचार करे। रिया का गुस्सा कुछ शांत हुआ। उसे पछतावा भी हुआ। अब रिया सोच सकी कि मम्मा ने शायद कुछ गलत नहीं किया है। अन्यथा कोई बहाने से अपनी करनी सही निरूपित करने की कोशिश करतीं। फिर भी उसे शिकायत यह तो रही कि मम्मा ने, आंटी तरह के लोगों को बातें बनाने का व्यर्थ अवसर दिया है। तुलनात्मक नम्रता से रिया ने उत्तर दिया - मम्मा, मैं भी वही खा लूंगी। 

फिर चेंज करके शिखा रसोई में चली गई थी। किसी के कहने पर, अपनी मम्मा का मान ना रखने का ग्लानि बोध अब रिया को हो रहा था। टीवी में पसंद का शो देखने में भी, जब रिया का मन ना लग सका तो वह रसोई में आई थी। माँ की पीठ उसके तरफ थी। रिया ने पीछे से मम्मा को अपनी गलबहियां में लिया था।   

शिखा माँ थी। तिलमिलाई हुई भी थी मगर बेटी की उपेक्षा नहीं कर सकती थी। अपनी मनः स्थिति से परे, शिखा ने ओंठो पर मुस्कुराहट लाई थी। फिर कहा - रिया, मम्मा से ऐसी मजाक नहीं किया करो। मैं समझ नहीं पाई थी तुम, मजाक कर रही हो। 

बेटी का मूड ठीक हो सके इस हेतु, शिखा अपने अपमान को इशू नहीं बना रही थी। मम्मा का अपने लिए ममता बोध स्मरण कर के रिया पानी पानी हुई थी। 

जब तक रिया के पापा आए थे। सब कुछ सामान्य हो गया था। तीनों ने मिलकर रिया का आना एन्जॉय किया था। 

अन्यमनस्क होने पर भी शिखा ने, आठ दिन बाद घर लौटे पतिदेव के लिए रात्रि ड्यूटी निभाई थी। बाद में पति सो गए थे। आहत मना शिखा की आँखों से नींद कोसों दूर थी।  

शिखा ने आज ही एक बेटी राशि का, अपने पिता के प्रति सहज आदर भाव के बारे में जाना था। और आज ही शिखा ने, अपनी बेटी को, अपना अपमान करते पाया था। आखिर क्या अंतर था, अलग अलग परिवार की इन दो बेटियों के संस्कार में? शिखा बिस्तर पर लेटे हुए इस पर विचार कर रही थी। 

उसे एक ही अंतर दिखाई दे रहा था। एक के पिता अपने अनियंत्रित होती मनोकामनाओं को, बेटे-बेटियों के पिता होने के बोध से नियंत्रित कर लेने वाले थे। जबकि अपनी बेटी रिया के पिता, बेटी के सामने अपना ऐसा जिम्मेदार रूप नहीं दिखा पाए थे। इस कारण रिया को, जैसे अपने पापा दिखते थे उसने, मम्मा को उसी दृष्टि से देख लिया था। 

उसे इस बात से भी गहन निराशा थी कि अपनी माँ को देखने के लिए, रिया ने वही चश्मा प्रयोग किया था जो समाज का चश्मा था। जिसके लेंस से, नारी में ही दोष दिखाई देता है। 

अब अपने मन में चल रहे अंतर्द्वंद में, शिखा खुद से पूछ रही थी कि क्या उसने, महेंद्र सिंह सर के घर जाकर गलत काम किया था? इस पर अपने मन बहलाने के लिए शिखा का उत्तर था कि पहली बार जब वह सर, के घर गई थी तब उसे कहाँ पता था कि घर पर वे अकेले हैं। तब सर ने ही कहाँ उसे, अपने घर में आसानी से घुसने दिया था? सर के व्यवहार से अगर शिखा ने उनका विश्वास किया तो कुछ गलत कर दिया, क्या? उत्तर था - नहीं, विश्वास करके उसने सर से फेवर के साथ मानसिक संबल भी तो पाया था। फिर शिखा के मन में प्रश्न आया - क्या, सर से उनके लिए, अपने परिपक्व प्रेम का बता देना, शिखा का गलत आचरण था? यहाँ शिखा को लगा कि हाँ! कदाचित यह गलत था। इसके बाद ही अकेले में उन्होंने, शिखा को फिर अपने घर बुलाया था। शायद वह कुछ गलत करने की सोचते भी रहे हों। वे गलत चेष्टा का दुस्साहस शायद, शिखा की गरिमापूर्ण बातों के कारण नहीं कर पाए थे। 

अब शिखा खुद पर हँसी थी। सोच रही थी कि मानवीय मन कितना विचित्र होता है। सर ने कुछ गलत किया नहीं। अपने अकेलेपन में, कुछ समय शिखा के साथ भोजन एवं बात कर ली तो वह, उन पर इस तरह संदेह करने लगी। आखिर शिखा ने भी, सर के साथ भोजन एवं बातों का ही आनंद तो लिया था। अब शिखा अपने किए को, तर्कसंगत सिद्ध करने के अंदाज (Mode) में आ गई थी। उसने दृढ़ता से अपने सब किए को सही मान लिया। उसने सर से की, अपने प्रेम की शाब्दिक अभिव्यक्ति को भी सही माना। तर्क किया कि यदि नारी मन की अपेक्षा, पुरुष को मालूम ना हो तो कोई पुरुष, नारी अपेक्षाओं अनुरूप ढल कैसे सकेगा? कैसे, पुरुष को उसकी टाइप की स्त्री की पसंद का ज्ञान होगा? कैसे पुरुष को मालूम होगा कि नारी का, पुरुष से प्यार, दैहिक पिपासा के परे भी हो सकता है? ऐसे परिपक्व प्रेम के रंग में रंगी नारी को, पुरुष से सिर्फ आदर और मानसिक संबल की अपेक्षा होती है। सर से शिखा को हुआ प्रेम, ऐसा प्रेम ही था। 

इस खुशफ़हमी ने शिखा के संतप्त मन को शांत कर दिया। तब उसने अपने सोए हुए पति को देखा। फिर मन में कहा आप, मेरे प्रति निष्ठावान नहीं हो तो क्या! मैं तो आपका साथ निष्ठा से निभाती हूँ। परिस्थितिवश मेरे मन में, अन्य पुरुष के लिए प्यार उत्पन्न हुआ तो क्या! मगर जिसे दुनिया देखती है उस तन को तो मैं, उस / हर पुरुष से बचाए तो रखती हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं आपकी पत्नी हूँ। वह पुरुष भी मेरी ही तरह की, किसी अन्य स्त्री का पति है। अपने विचार मंथन एवं तर्कों के बाद शिखा, अपने पति की पीठ पर हाथ रखकर सो गई थी।      

मुझे ,शिखा से मिले हुए दो सप्ताह हुए थे। इस बीच लक्ष्य की उपलब्धि हेतु काम की अधिकता में मैं, शिखा को एक तरह से भूले रहा था। यद्यपि मुझे यह चिंता  बनी रही थी कि मेरे घर से निकलने पर लिफ्ट में शिखा का, किस से सामना हुआ था। यह रविवार का दिन था। अगले रविवार को पत्नी वापस आ जाएंगी, यह सोचते हुए मैं, कुक का बनाया भोजन कर रहा था। तब डोर बेल गूँजी थी। कौन हो सकता है के संशय में, मैंने दरवाजा खोला तो अपरिचित एक लड़की खड़ी थी। मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तो उसने बताया - अंकल, मैं शिखा जी की बेटी रिया हूँ। 

मैंने मुस्कुराते हुए कहा - मैं भोजन कर रहा था। आओ, क्या तुम मेरे साथ भोजन करना पसंद करोगी?

रिया ने अंदर आकर कहा - हाँ, अगर आप मेरी जिज्ञासा पर सही बात बताएं तो खा लूँगी। 

मैं उसकी जिज्ञासा का अनुमान लगाते हुए, उसके लिए प्लेट में भोजन परोसने लगा था। वह खाने लगी थी। फिर उसने पूछा - मेरी मम्मा और आपका परिचय कैसे है?

मैंने बताया - मैं शिखा का बॉस हूँ। यद्यपि अब उनका ऑफिस दूसरा हो गया है। 

रिया ने पूछा - अकेले में मम्मा एवं आप कितनी बार मिले हैं। 

मैंने कहा - सिर्फ दो बार। शिखा जी, इसी महीने में यहाँ आईं हैं। 

रिया ने पूछा - मम्मा क्यों आईं थीं? और यहाँ आकर उन्होंने क्या किया था? 

मैंने बताया - एक बार मुझसे, अपने लिए फेवर का रिक्वेस्ट लेकर, दूसरी बार मेरे आमंत्रण पर। दोनों बार, बातों के अतिरिक्त उन्होंने मुझे ऐसे ही कंपनी दी थी जैसे आज तुम दे रही हो। अर्थात हमने दोपहर में साथ भोजन किया था।  

रिया शायद मेरे कहने की सच्चाई परख रही थी। उसने भोजन उपरांत कहा - अंकल, मैंने किसी की बातों में आकर, अपनी मम्मा का बहुत दिल दुखाया है। मगर उन्होंने मेरे सामने अपनी निर्मलता सिद्ध करने की कोई कोशिश नहीं की। मेरे आक्षेपों पर भी उन्होंने मुझ से कोई नाराजगी नहीं दिखाई। तब से ही मैं ग्लानि बोध में रही हूँ। चूँकि उन्होंने, मुझसे कोई बात नहीं कही, अतः बात क्या हुई, जानने के लिए मैं आपके पास आई हूँ। 

मैंने कहा - आपकी मम्मा, ऐसी जीव हैं जो अपने अनादर पर भी, दूसरों का आदर रखना जानती हैं। आप उनकी बेटी हो आपको, उन पर गर्व करना चाहिए एवं जीवन में उन जैसा बनना चाहिए। 

रिया ने कहा - आप ठीक कहते हैं, अंकल। 

फिर कुछ क्षण सोचने को रुकी तब कहा - आपके पास इतनी देर रहकर मुझे समझ आ गया है कि आपकी दृष्टि अन्य लड़की/महिलाओं के प्रति निर्मल है। मम्मा ने शायद यह पहचाना हुआ है। तभी उन्होंने आपके घर आने में संकोच नहीं किया है। वास्तव में मैं, यह बताने यहां आईं हूँ कि आपकी मेड और आचार्या आंटी ने, मेरी मम्मा की दुश्मन की तरह काम किया है। उनकी फैलाई बात मेरे पापा तक पहुँची। इस कारण उन्होंने मेरी मम्मा की पिटाई तक की है। यह भी चेतावनी दी है कि मम्मा, ना तो आपसे मिलें और ना ही मोबाइल आदि पर आपसे कोई संपर्क ही रखें। मेरे पापा खुद चरित्र के मामले में ठीक नहीं हैं। फिर भी उन्होंने मेरी मम्मा का जीवन, इस बात को लेकर नर्क कर रखा है। मैं यह कहना चाहती हूँ कि आप दोनों ने कोई गलती नहीं की है। तब भी आप मम्मा से कोई संपर्क ना रखें , प्लीज।     

मैं स्तब्ध था। रिया चली गई थी। ग्लानि मुझे हो रही थी। काश मैंने शिखा को अकेले में नहीं बुलाया होता। मेरा शिखा से यह कैसा प्रेम था कि मैंने उसके ही पति के मन में संदेह उत्पन्न कर दिया था। मैं सोच रहा था कि रिया के रिक्वेस्ट की अवहेलना कर, एक अंतिम बार तो मुझे शिखा से मिलना चाहिए। शिखा से संवेदना जताना चाहिए और क्षमा माँगना चाहिए  ….           

(अगला भाग, अंतिम)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

20-04-2021