Sunday, November 29, 2015

निर्दया ....

निर्दया ....
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बेटी ने फोन पर पूछा , पापा , किसी अभागी की तस्वीर और उस पर ऐसी कल्पना घड़ना क्या उचित है ? (कल की पोस्ट के संबंध में )
लेखक ने उत्तर दिया उचित है , यदि यह समाज विश्लेषण या समीक्षा लक्ष्य से लेखकीय पोस्ट का अंश हो।
आगे स्पष्टीकरण यह है , जिस तरह चाँवल की हाँडी में सैंपल के लिए कुछ चाँवल ले पके या अधपके का जायजा लिया जाता है , वैसे ही समाज में जगह जगह बिखरे दृश्य में से एक उठा कर देखना ,मानव सभ्यता अभी पकी है अधपकी है , देखा जाता है। निर्दया की कल की पोस्ट ऐसा एक सामाजिक दृश्य है जो दुःखद तथ्य बयान करता है कि सभ्यता अभी अधपकी है।
अन्यथा ऐसा नहीं होता कोई निर्भया बन अकाल मार दी जाती। और कोई समाज निर्दया से बाईस -चौबीस वर्ष की आयु में 8 अरब मनुष्यों के बीच , नितांत अकेली हो नारकीय जीवन को विवश हो जाती । वस्तुतः ,'निर्दया' वह दृश्य है जो गौर करने पर कई प्रश्न खड़े करता है।  जिनमें से एक प्रश्न है -
क्या उनकी माँ -पिता होने की पात्रता है , जो नारी-पुरुष , बच्चे पैदा कर रहे हैं ?
जैसा पहले था ,आयु हो जाने पर विवाह कर दिया जाना , फिर उनका माँ-पिता बन जाना , इतना सरल यह विषय अब नहीं रह गया है। अब सामाजिक चुनौतियाँ बढ़ गई हैं , जिनमें हमारी संतान का जीवन सुखद हो , इसके लिए सही , प्रेरणा , ज्ञान और सँस्कार हमारी संतान को मिलना चाहिए , जिससे बुराई की समझ , बुराई न करने करने की समझ , और बुराई से बच सकने की समझ उसे आनी चाहिए। ऐसा लालन-पालन कोई सुनिश्चित नहीं कर सकता है तो कम से कम संतान जन्मने की जल्दबाज़ी नहीं करना चाहिए।
अगर निर्दया के माँ-पिता ने यह जिम्मेदारी निभाई होती तो युवावस्था में सड़कों पर वह लावारिस नहीं रह जाती। ऐसी करुणा की तस्वीर से , संस्कारित कोई पुरुष शारीरिक संबंध नहीं करता , ना उसे कोई यौन रोग दे देता , न उससे अपने में लगा कोई यौन रोग वाहक बन जाता।
वास्तव में अगर पात्रता के बिना , कोई संतान पैदा करता है , तो उसे सुखद जीवन का विवेक देने की जिम्मेदारी समाज पर आ जाती है और लेखक की समझ से हमारा समाज इतना सक्षम नहीं हुआ है कि मनुष्य जीवन की इस मूल-भूत अपेक्षा की वह पूर्ती कर सके , अर्थात
'निर्दया ..... " दृश्य कहता है , मानव सभ्यता अभी अधपकी है।
(सृजन चौक , जबलपुर अपडेट - आज प्रातः निर्दया के गंदे कपड़े तो चौक पर विद्यमान थे , किन्तु निर्दया वहाँ दृष्टव्य नहीं थी। )
--राजेश जैन
30-11-2015
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सृजन चौक पर पतन की तस्वीर


सृजन चौक पर पतन की तस्वीर
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16 दिस. 2012 पर घिनौने अत्याचार और हिंसा की शिकार निर्भया , 2012 के बाद के कैलंडर में इस संसार में जीवित नहीं रह गई। सर्वप्रथम निर्भया को श्रध्दा-सुमन। निर्भया जैसे अनेक काण्ड अब भी होते हैं , स्पष्ट यह दुर्भाग्य कहते हैं कि ना यह समाज बदला , ना ही पर्याप्त कोई व्यवस्था तीन वर्षों में हो सकी है।
16 दिस. 2012 के पहले तक शायद तस्वीरों में दिखाई यह युवती भी किसी परिवार में सामान्य जीवन यापन करती रही होगी। 16 दिस. 2012 को जैसा निर्भया पर अत्याचार हुआ , शायद उसी रात इस पर भी उससे मिलता जुलता अत्याचार हुआ होगा। दुःखद दानवीयता के कष्ट कुछ दिन सह निर्भया तो कष्टों से ऊपर उठ गई थी। लेकिन निर्दयता ' का सामाजिक प्रतिबिम्ब यह दुर्भाग्यशाली युवती कष्टों को सहने को विवश , सृजन चौक जबलपुर में कुछ दिनों से दिखाई देती है।
देश की इस दुर्भाग्यशाली बेटी को इस आलेख में हमारे निर्दयी समाज का द्योतक 'निर्दया' नाम दिया जा रहा है।  8 अरब मानव जनसंख्या वाले विश्व में अपनी मानसिक -शारीरिक पीड़ाओं के साथ सृजन चौक पर खुले आकाश के नीचे 'निर्दया' ,नितांत अकेली ,गहन विवशता का जीवन जी रही है। लेखक ,सुबह रिज रोड पर वॉकिंग को जाते आते प्रतिदिन इसका साक्षी हो रहा है । लेखक को " 'सृजन' चौक पर -सामाजिक , नैतिक 'पतन' की जीती जागती तस्वीर " का यह दृश्य अजीब संयोग लगा। ये तस्वीरें , हमारे आचरण शायद बदल सकें ,इस दृष्टि से उतारी गईं हैं।  
किसी परिवार से ना मालूम किन परस्थितियों में टूट ,निर्दया अकेली ऐसी लावारिस हो गई है। ना मालूम कितने देह-दानवों की शारीरिक भूख ने निर्दया को वीरान रातों में लील लिया है। यौन रोग उनमे से कोई इसे दे गया और अब ना मालूम कितने  इसके शारीरिक संपर्क से यौन रोग के वाहक होकर ,यौन रोग परिवार समाज में फैला रहे हैं। हालाँकि वह स्वच्छ रहने लगे , रोग उपचार करा दिए जा सकें , रहने का आश्रय मिल सके तो वह तीस चालीस वर्षों जी सकती है। किन्तु निर्दया - ना तो नहाती है , ना ही उसके रोगों का उपचार ,उसे मिल सकता है। यह जीवन अभिशाप उसे इसी तरह रास्तों में बिताना होगा। फिर निर्दया पर दया कोई और तो ना कर पायेगा , मौत किसी दिन उसे इस जीवन अभिशाप से मुक्त दिला जायेगी।
(लेखक ने निर्दया की तस्वीर के लिए खड़े होने कहा तो वह खड़ी हुई , उसने भोजन के लिए दिए रुपयों को लेकर रख लिये , लगता है ,उसने अभी मानसिक संतुलन नहीं खोया है , वह कोई उत्पात मचाती भी नहीं दिखती है। )
अगर हम अपने में और समाज में परिवर्तन नहीं लायेंगे तो निर्भया और निर्दया की दुःखद तस्वीरें निरंतर बनती रहेंगीं।  इतिहास के पृष्ठों पर , जब जब मानव सभ्यता पर इस पीढ़ी के योगदान के बारे में लिखा जाएगा  'हमारी सारी उन्नति और हमारा सुविधा जनक जीवन व्यर्थ'  ही वर्णित किया जायेगा।।
--राजेश जैन
29-11-2015
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Monday, November 23, 2015

माँ को गौरव
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प्रधानमंत्री की दावेदारी के साथ चुनाव जीतने के बाद मीडिया ने इस व्यक्ति के घर-परिवार , भाई और माँ पर फोकस किया तो देखकर मुझे कम से कम एक बात इस व्यक्ति में विलक्षण लगी जो थी , 'एक राज्य का 12 वर्षों से मुख्यमंत्री का परिवार मध्यम वर्गीय जीवन यापन करता है।' इस आडंबर के युग में इस बात ने मुझे सुखद आश्चर्य प्रदान किया था। कल ,यही बात एक साधारण चर्चा में मैंने कही तो एक मित्र ने कहा कि यह आपका दृष्टिकोण है।  अन्यथा इसे ऐसा भी देखा जा सकता है , 'जो व्यक्ति घर-परिवार और माँ-भाई के लिए कुछ नहीं करता वह देश के लिए क्या करेगा ?'
इस तर्क का उत्तर खोजते मेरे मन ने कहा , एक साधारण पृष्ठभूमि में पला अगर कोई व्यक्ति , सवा अरब के देश में बहुमत की आशाओं का सूर्य बन ,शीर्ष पद तक पहुँचा हो , ऐसा गौरव ,कितने व्यक्ति परिवार और माँ को प्रदान करते हैं , क्या यह परिवार और माँ के लिए करना नहीं होता है ?
यह भिन्न प्रश्न है कि देश की आशाओं के केंद्र और शीर्ष पर आसीन होने के बाद , वैमनस्य ,जटिलताओं और समस्याओं की चुनौतियों में संतुलन रख , अपनी विलक्षणता से यह व्यक्ति देश को गौरव प्रदान करने में सफल हो पाता है या नहीं ?
(आलेख किसी राजनीति या संप्रदायिकता से प्रेरित नहीं है।  मुझे किसी का समर्थक या विरोधी नहीं माना जाये , लेखक हर आशाजनक बात का समर्थन करता है , जो इस देश और समाज को बना सकने की संभावना रखती है.)
--राजेश जैन
24-11-2015
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Sunday, November 22, 2015

हँसे -मुस्करायें


हँसे -मुस्करायें
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आज के एक पल साथ हम मुस्कराये
कभी हो ऐसा पल जिसमें दर्द आ जाये
पल पल से बन बीतता जीवन अपना
बिन अन्य के हित किये ना बीत पाये

हरेक को है आस ,अच्छे भी पल आयें
उठा सकें सुख ,जीवन सार्थक बन पाये
न वैभव न बाँकपन ना पल होंगे बाकि
सुख की घड़ी खत्म और अंत आ जाये

पल जब तक आते रहें हँसे -मुस्करायें
करें भलाई जिसमें सब साथ मुस्करायें
--राजेश जैन
22-11-2015
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Saturday, November 21, 2015

पुत्री भ्रूण हनन महा पाप

पुत्री भ्रूण हनन महा पाप
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बाहर असम्मान के अनेकों रीत फैलाकर
नारी सम्मान को प्रतिष्ठा प्रश्न बनाते हैं
परिवार प्रतिष्ठा हनन की आशंकाओं में
पुत्री भ्रूण हनन पाप ,अपने पर चढ़ाते हैं

बदलो असम्मान के खेल ,बाहर फैलाये
बदलो प्रलोभनों में नारी शोषण कुप्रथायें  
नारी बिन न सृष्टि ,न ही तुम रह सकते
मिटा दो नारी मन में असुरक्षा, कुशंकायें

अगर इज्जत समझते नारी से घर की
बाजार में करना सीखो इज्जत नारी की
भ्रमित न कर कमजोर को राह दिखाओ
रीत बनाओ नारी-पुरुष सुखद जीवन की
--राजेश जैन
22-11-2015
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बेटी हो या बेटा

बेटी हो या बेटा
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अपने विश्वास अपनी आस्था जन्में घर-धर्म से बनाते हैं
फिर वे हों सच्चे या ना अच्छे बदल नहीं क्यों हम पाते हैं

हम बदलें मान्यता अपनी ,यदि पीड़ा अन्य को पहुँचाते हैं
धर्म की न करें गलत विवेचना , ये सर्व सुख राह बताते हैं

बेटी हो या बेटा एक पध्दति से जन्मा होता है
एक विधि से पौष्टिकता ले बच्चा बड़ा होता है
लालन-पालन की रीत में फर्क क्यों फिर ,जब ?
माँ-पापा के लाड़ दुलार में न कोई फर्क होता है
--राजेश जैन
22-11-2015
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Friday, November 20, 2015

बेटी की विदाई

बेटी की विदाई
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बेटी को विदा होते , अपनी पीड़ा का ज्ञान हुआ
छोटी वह ना जानती , क्या पापा का हाल हुआ
आशायें सजाकर ,बेटी के सुखद जीवन के लिए
विवश ह्रदय में विछोह के दुःख को छुपा लिया
--राजेश जैन
21-11-2015

Wednesday, November 18, 2015

गंजे हुए पति ,मोटी हुई पत्नी


गंजे हुए पति ,मोटी हुई पत्नी
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विवाह के समय गंजे और मोटी रिजेक्ट करने वाले
गंजे हुए पति ,मोटी हुई पत्नी को निभाया करते हैं
विवाह के समय ये आकर्षण को प्रमुखता देने वाले
प्रेम ,त्याग ,समर्पण की महिमा जान लिया करते हैं

लिव इन रिलेशन में ,गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड हो रहने वाले
शारीरिक आकर्षण रहने तक रिश्ते निभाया करते हैं
ये तन आकर्षण एवं देह संबंध को प्रमुखता देने वाले
ढलती के विकर्षण में संग मन पीड़ा भुलाया करते हैं

परिवार व्यवस्था इसमें आजीवन सुख सुनिश्चित है 
बिन विकल्प समाज बदलाव के आव्हान लड़कपन है
नवयुवाओं ने न जानी जीवनपूर्णता न कोई विजन है
बीस तीस वर्ष भोग विलास जीवन में लाते उलझन है 
--राजेश जैन
19-11-2105
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Monday, November 16, 2015

जीवन दृष्टिकोण

जीवन दृष्टिकोण
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#शिकायत
शिकायत करने का अपना स्वभाव बनायेंगे
शिकायत करने में हम अपना समय लगायेंगे
बेहतर समय बचायें ,स्वयं शिकायत ना बनें
तो रह शिकायत रहित ,हम जीवन जी पायेंगे
#छीना_झपटी
सिर्फ अपनी अपनी अपेक्षाओं की चिंता में
दूसरों की अपेक्षाओं को हम यदि भुलायेंगे
अपने लिए सबकी खुशियों छीना झपटी में
न दूसरे को और न स्वयं को खुश रख पायेंगे
#दृष्टिकोण
जानवर लड़ें ,करें छीना झपटी जानवर हैं ,किन्तु
हम मनुष्य जीवन का सही क्रम , कर्म यह है कि
दूसरे करें हमारे ,हम करें उनके सुख की व्यवस्था
इस दृष्टिकोण से ही हम सुखी समाज रच पायेंगे
--राजेश जैन
17-11-2015
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Sunday, November 15, 2015

क्या पति -पत्नी रिश्ते से कोई बेहतर विकल्प हो सकता है ?

क्या पति -पत्नी रिश्ते से कोई बेहतर विकल्प हो सकता है ?
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किसी पत्नी ने सेक्स के लिए पति से किसी समय अरुचि नहीं दिखाई होगी और उसे पति ने नहीं समझा (मान लिया) होगा ऐसा पति-पत्नी के बीच के दीर्घ जीवन में नहीं हुआ होगा , ऐसा लगभग असंभव है। यह पति-पत्नी के मध्य बेहद निजी बात होती है।
नारी-पुरुष समान अधिकारों (नारी स्वतंत्रता) के प्रश्न में "आजाद होने का अर्थ ,किसी भी पुरुष को सेक्स के लिए "no"कहने की ताकत है ।  फिर वो पुरुष चाहे आपका पति ही हो " मुझे अनुचित प्रतीत होता है।
परिवार में रहते हुए , पत्नी रूप में रहते हुए बहुत सी नारी ऐसी हैं , जो जीवन से हर तरह से संतुष्ट हैं ही , उनको अपने अधिकारों में कहीं कमी नहीं लगती है । साथ ही इस पारिवारिक-समाज व्यवस्था में उन्हें नारी परतंत्रता नहीं लगती है। तथापि होंगी ऐसी नारी जिन्हें विपरीततायें हैं। लेकिन उस नाम पर पति-पत्नी के निजी विषयों में फेमिनिज्म का ऐसा दखल , अनुचित लगता है।
पुरुष या नारी की एक दूसरे से बिलकुल पृथक रहने की कोई व्यवस्था हो ही नहीं सकती , इसलिए नारी या पुरुष स्वतंत्रता की कोई प्रश्न नहीं होना चाहिए। प्रश्न होना चाहिए कि 'दोनों के मध्य बेहतर संबंध कैसे सुनिश्चित हों? और क्या पति -पत्नी रिश्ते से कोई बेहतर विकल्प हो सकता है ?
नोट - पैरा -2 में " " के बीच उल्लेखित वाक्य - कल पढ़ी एक पोस्ट से लिया है )
--राजेश जैन
16-11-2015
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यह गुलामी है

यह गुलामी है
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यदि सिर्फ सेक्स की हाँ या ना को ही आज़ादी का पैमाना मान लिया जाए तो ,
यह भी एक तरह की गुलामी ही है।
यह गुलामी है - नारी को सेक्स की बात में ही उलझाये रखने की पुरुष धूर्त सोच की।
स्वतंत्रता तब है , जब नारी या पुरुष या दोनों सेक्स की संकीर्ण सोच से निकल कर जीवन के सही और समस्त आयामों में जी सकें , जीवन की वृहद्ता को समझ कर , मनुष्य जीवन की क्षमताओं अनुसार मिले मनुष्य जीवन को अधिकतम सार्थकता देना।
--राजेश जैन
15-11-2015
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Saturday, November 7, 2015

रिश्तों या विवाह में वधु पक्ष को हीन मानना

8. रिश्तों या विवाह में वधु पक्ष को हीन मानना :- विवाह एक ऐसी रीति रही है , जो नए परिवार की बुनियाद होती है , जिसके बाद सामाजिक अनुमोदना से मनुष्य संतति क्रम में निरंतरता बनी रहती है। एक ही माँ और पिता से जन्में , बेटे और बेटी , भाई बहन माने जाते हैं , जिसमें पूर्व परंपराओं से पति-पत्नी जैसा नाता नहीं किया जा सकता , अब विज्ञान भी ऐसी व्यवस्था (खून के रिश्तों में विवाह ) की अनुमोदना नहीं करता। स्पष्ट है कि समाज और विज्ञान कारणों से , नारी-पुरुष के परिवार में रहने के लिए , विवाह की उम्र आने पर दो अलग-अलग , परिचित -अपरिचित परिवार के वर और वधु में संबंध किया जाना होता है। विवाह , वर-कन्या और सामान्यतः उनके परिजनों की सहमति से होता है , ऐसे में किसी एक पक्ष को ऊँचा और दूसरे को नीचा देखना लेखक की समझ में अनुचित है। यह कुरीत विवाह ही नहीं , बाद में और कई कई पीढ़ी तक कन्या पक्ष को हीन दृष्टि से ही देखती है। यह कुरीत बदलना चाहिए। संसार के दूसरे सारे व्यवहार में देने वाला , लेने वाले से बड़ा माना जाता है , यहाँ इस की दुहाई देकर , लेखक यह नहीं कहेगा कि , कन्या पक्ष को ऊँचा मानिये क्योंकि यह एक सामाजिक व्यवस्था है , सर्व सहमति से निभाई जाती है , किन्तु विवाह में जिस घर-परिवार को एक नया सदस्य , अन्य परिवार से मिला होता है , इस मिलने के निमित्त से , उस परिवार का बराबरी का मान होना तो होना ही चाहिए।
--राजेश जैन
08-11-2015
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Friday, November 6, 2015

हमारे दिखावे मात्र हैं

हमारे दिखावे मात्र हैं
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हम कहते जरूर हैं , सुखी नहीं हैं , बुराइयाँ हैं , जहाँ -तहाँ, असुविधाएं हैं देश में , कानून व्यवस्था ठीक नहीं है। लेकिन लगता है , हम सुखी हैं , अच्छाइयाँ हैं सब जगह , सुविधा संपन्न है देश , कानून व्यवस्था अच्छी है।
क्योंकि अगर जिन बातों की शिकायत है ,हमें, जिनके विरोध में जब-तब हम स्वर बुलंद करते हैं , उन दुःखद परिस्थितियों को , उन बुराइयों को और  असुविधाओं को सुविधा में ,बदलने की हम पुरजोर यत्न करते , और अपने कानून का पालन करते , अपनी व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए हम स्वयं जागृत रहते।
चूँकि , हम ऐसा नहीं करते इसलिए ऐसा लगता है , हम सुखी हैं , हमारा विरोध , हमारे आंदोलन और हमारी शिकायतें , हमारे दिखावे मात्र हैं।
--राजेश जैन
07-11-2015 
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Wife In Law

7. भाभी , साली से मजाक जो कभी सीमा पार हो जाते हैं :- परिवार में हँसने-हँसाने के लिए हास्य-विनोद होना सहज है ,यह सभी नाते-रिश्तों में , रिश्ते की मर्यादा अनुसार होता है। खुश रहना किसी भी कार्य की एफिशिएंसी बढ़ाता है , परिवार में हास्य विनोद से परिवार में उन्नति होती है एवं खुशहाली रहती है। लेकिन हास्य-विनोद में नारी कभी कभी तब समस्या का सामना करती है , जब नाते में देवर या बहनोई (जीजा) मर्यादा के बाहर हो जाते हैं। अच्छी रीत रही है ,जो इन रिश्तों में थोड़ा रोमांटिक सा हास्य भी स्वीकृत करती है। किन्तु अनेक अवसर पर , मर्यादा के बाहर ,मजाक परिवार का वातावरण बिगाड़ देता है। इसमें नारी (साली या भाभी ) की स्थिति  ,पुरुष की अपेक्षा ज्यादा अपमानजनक ,पीड़ाकारी हो जाती है। ऐसी स्थिति की संभावना कुछ विशेष अवसरों पर ज्यादा होती हैं , जिसमें होली का त्यौहार और विवाह अवसर सम्मिलित हैं।
वैसे पाश्चात्य संस्कृति  ,मुझे अपील नही करती ,किंतु नारी के इन रिश्तों के लिए इंग्लिश में 'सिस्टर इन लॉ ' अच्छा नाम देती है। लेकिन रीत बनी कुरीत इस रिश्ते को 'वाइफ इन लॉ ' की तरह मानती है , और परेशान हाल नारी की कठिनाई बढाती है।
--राजेश जैन
06-10-2015
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Wednesday, November 4, 2015

6. क्यों नहीं ? सार्वजनिक स्थलों पर नारी को सम्मान और सुरक्षा - क्यों है उस पर अतिरिक्त पर्दा ?

6. क्यों नहीं  ? सार्वजनिक स्थलों पर नारी को सम्मान और सुरक्षा - क्यों है उस पर अतिरिक्त पर्दा ?:-
हमें अपना चश्मा , इतना परफेक्ट रखना है कि , वह देख सके , कि चर्चा चलन ,किस तरफ मुड़ जायेगें।  जो वाँछित नहीं है ,भला नहीं है , उसकी संभावना पहले ही खत्म करना , बुध्दिमानी है। किसी के मन में क्या है की झलक देने की दृष्टि से उसका बिना बनावट का कर्म ,व्यवहार और आचरण उपयोगी हैं। इस से विद्वानों को पूर्वाभास मिलता है ,और वह समाज प्रचलन सही दिशा में मोड़ सकते हैं  । नारी , जो पहले ही कई तरह से आहत है , उसे हम नई कोई वेदना न दें , इस दृष्टि से चर्चा ,व्यवहार को शिष्टाचार की सीमा में रखने को हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। 
हम नारी का मान -सम्मान और सुरक्षा बढ़ाने के पक्षधर हैं , अनायास ही किसी अच्छे कार्य के बीच उनकी वेदनाओं को बढ़ा देना मूर्खता ही होगी , जिससे हमें बचना होगा।
यह ध्यान रखें की नारी हमारे परिवार की सदस्या है , हमारी माँ भी ,बहन भी , बेटी भी और पत्नी भी है। जब हम समाज में नारी की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करते हैं , तो यह हमारी माँ ,बहन ,बेटी और पत्नी
को भी मिलता है। एक पुरुष - एक पिता , भाई ,पुत्र और पति के रूप में ऐसा देखना पसंद करता है। पुरुष इसे , इस तरह अपने पारिवारिक दायित्व में देखें तो , वह महान समाज सेवा , राष्ट्र निष्ठा और मानवता होगी। समाज इस तरह का बनें की नारी को असुविधाजनक अतिरिक्त पर्दों से मुक्ति मिले।
(इवेंट में हिस्सा ले रहे आदरणीयों के परामर्श अनुसार यह आलेख ,एडिट किया जाता रहेगा )
--राजेश जैन
05-11-2015
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दहेज

5. दहेज
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बेटी या बेटा मनुष्य होने से समान हैं। परिवार में बँधने के साथ ,पति और पत्नी दोनों को साथ रहना होता है। दोनों विवाह पूर्व अलग-अलग परिवार के बच्चे होते हैं, दोनों का साथ तभी हो सकता है जब विवाह उपरान्त एक ,दूसरे के साथ किसी के घर में जाये। पुरातन संस्कृति से इस हेतु पत्नी को अपना पूर्व परिवार छोड़ , पति के परिवार में हिस्सा बनना होता है।  ऐसे में किसी दहेज का प्रश्न होना नहीं चाहिये क्योंकि यह समाज सम्मत व्यवस्था है। एक बीस -पच्चीस वर्ष का पला बढ़ा सदस्य ,दूसरे परिवार में रहने को दे देना वैसे ही बहुत बड़ा त्याग तो वैसे ही वधू परिवार ने रीत -संस्कृति निभाने के लिए कर दिया  फिर दहेज क्यों ? यदि इतने बड़े त्याग का मान आज की धन पुजारी प्रवृत्ति नहीं कर सकती है तो उसके लिए भी धन की भाषा में बात करनी चाहिए ।
वधू पक्ष ने बेटी के लालन-पालन में अपनी आय का एक अच्छा हिस्सा उसे बीस-पच्चीस वर्ष की आयु तक बड़ा करने में किया होता। एक वयस्क दुल्हन में वह धन अदृश्य रूप में समाया ही होता है। अपनी लाड़ली संतान का त्याग और यह धन तो अनायास वर परिवार को मिलता ही है। फिर क्यों -हम सभ्य हुए समाज में कलंक के रूप में दहेज रुपी अन्याय का प्रचलन आज भी बना हुआ है ?
(इवेंट में हिस्सा ले रहे आदरणीयों के परामर्श अनुसार यह आलेख ,एडिट किया जाता रहेगा )
--राजेश जैन
04-11-2015
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कोइ विधवा सुहागन को करवा चौथ का शगुन क्यो नही दे सकती ?

4. कोइ विधवा सुहागन को करवा चौथ का शगुन क्यो नही दे सकती ?:-
हमारे समाज में पुरातन परंपरा जो चलती रही , उसमें विधुर तो साठ साल की उम्र में भी पुनर्विवाह रचा लेता था , जबकि बाल अवस्था (तब बाल विवाह होते थे ) में विधवा हुई नारी , पूरी उम्र विधवा के रूप में अभिशप्त सा जीवन (जिसमें उस पर अनेकों पाबंदी रहती )बिताने को बाध्य होती थी। शगुन नही दे पाना उन पाबंदी में से एक था , जो इस अन्धविश्वास और भय के कारण था कि नई विवाह रचाती नारी पर विधवा के दिए शगुन के साये से वह , विधवा न हो जाये। अब , अगर विधुर होकर , पुरुष पुनर्विवाह कर सकता है तो यही मापदंड नारी के लिए भी होना चाहिये। तब कम उम्र की नारी विधवा रहेगी ही नहीं। वृध्द उम्र की विधवा तो दादी जैसी होती है , दादी का तो शुभाशीष ही रहता है , सभी के लिए उनके हाथ से शगुन तो स्वीकार्य होना चाहिए , कौन नहीं होगा जो दादी जैसी वृध्दावस्था की आयु तक विधुर या विधवा नहीं होगा।
अगर शगुन देने को हम स्वीकृति नहीं देते तो हम स्वयं का भविष्य में ऐसा अपमान करवाने के लिए शापित हो जाते हैं। दुर्भाग्य से वह एक दिन हमारे जीवन में भी आएगा जब हम अपने विवाहित साथी के विछोह में होंगें।
(इवेंट में हिस्सा ले रहे आदरणीयों के परामर्श अनुसार यह आलेख ,एडिट किया जाता रहेगा )
--राजेश जैन
04-11-2015
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Tuesday, November 3, 2015

3. पुरुष परिजन को स्पर्श या रसोई में कार्य की मनाही , क्या उचित है Personal dayz में ?

पुरुष परिजन को स्पर्श या रसोई में कार्य की मनाही , क्या उचित है Personal dayz में ?
नारी के Personal dayz ,एक प्राकृतिक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है।  कोई रोग नहीं है। इस समय में नारी जहाँ बैठती उठती है , वहीं किसी के बैठने उठने से उसे कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या नहीं निर्मित होती है। अब आधुनिक उपाय आ गए हैं जो स्वच्छ्ता की दृष्टि से उच्च गुणवत्ता के हैं। ऐसे में पुरातन वह रीत चलाये रखने में जिसमें ,नारी अपने बच्चे तक को नहीं छू सकती या रसोई में काम नहीं कर सकती ,उचित प्रतीत नहीं होती है। जहाँ तक पौष्टिकता का या स्वास्थ्य हितकरता का प्रश्न है , वह गृहिणी द्वारा निर्मित (चाहे Personal dayz में भी) या गृह निर्मित खाद्य सामग्री , बाहरी किसी भी कीमती भोज्य से कई गुणी बेहतर है। यह इसलिए कि उनके बनाने वालों को कोई रोग अगर है , जो हमारे लिए हानिकर हो सकता है, की जानकारी हमें नहीं होती है । ऐसे में इस पुरातन रीत में बदलाव अब समयोचित है।
(इवेंट में हिस्सा ले रहे आदरणीयों के परामर्श अनुसार यह आलेख ,एडिट किया जाता रहेगा )
--राजेश जैन
04-11-2015
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जी लेना

जी लेना
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जीवन जीने की शैली कैसी हो ,सबको विकल्प मिलते हैं
सब जीते अपने लिए ,कुछ सबके लिए जी लेना चुनते हैं
--राजेश जैन
04-11-2015
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व्रत , भाई , पति या पुत्र के लिए , नारी ही रखती है - क्यों नहीं ? बहन , पत्नी या पुत्री के लिए पुरुष रखता है

2. व्रत , भाई , पति या पुत्र के लिए , नारी ही रखती है - क्यों नहीं ? बहन , पत्नी या पुत्री के लिए पुरुष रखता है :- कई धार्मिक व्रत उपहास की रीतियाँ , हमारे समाज में हैं , जिन्हें पुरुष भी रखता है , नारी भी रखती हैं। लेकिन दाम्पत्य जीवन में खुशहाली की दृष्टि से रखे जाने वाले उपवास सिर्फ नारी रखती हैं , जैसे करवा-चौथ और तीजा आदि। जिन नारियों की आस्था और विश्वास इन व्रत की महिमा को लेकर है , वे इन्हें रखे बिना ,व्याकुल और दुःखी ही होंगी , इसलिए इन व्रतों को न रखने कहना अनुचित ही है , लेकिन जिस नारी के मन में ऐसा कोई विश्वास या श्रध्दा नहीं है , उसे व्रत रखने को बाध्य करना या व्रत न रखने पर उलाहने देना उचित नहीं है। जिन पुरुषों की तीजा , करवा चौथ आदि में आस्था है , कि नारी के ऐसे व्रत का अच्छा प्रतिफल उन्हें या परिवार को मिलता है , ऐसे पुरुष विचार करें कि इस तरह के कुछ व्रत वे भी रखें। परिवार की खुशहाली उनका भी दायित्व है , उनकी भी इक्छा है तो उसके लिए एक या दो समय का भोजन का त्याग कभी कभी वे भी कर सकते हैं।  इन व्रतों की नई परंपरा वे रखकर उनका नाम भी वे निर्धारित कर सकते हैं। ऐसा यदि पुरुष करता है तो निश्चित ही नारी -पुरुष में परस्पर सम्मान और विश्वास को बल मिलेगा , जो परिवार की सुखदता , उसमें प्रेम और परस्पर त्याग की वह भावना पुष्ट करेगा , जिसके होने से जीवन में अवसाद दूर रहेंगे।
(इवेंट में हिस्सा ले रहे आदरणीयों के परामर्श अनुसार यह आलेख ,एडिट किया जाता रहेगा )
--राजेश जैन
04-11-2015
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बेटी जन्म पर , बधाई नहीं दी जाती , बैंड नहीं बजाये जाते

1. बेटी जन्म पर , बधाई नहीं दी जाती , बैंड नहीं बजाये जाते :- बाहरी शरीर भिन्न लेकिन मानसिक सामर्थ्य ,क्षमता और अभिलाषाओं की दृष्टि से समानता होने पर , बेटी और बेटे के जन्म में खुशियों में अंतर की प्राचीन सोच में बदलाव जरूरी है। बेटियों को अवसर मिला है तो उन्होंने किसी भी क्षेत्र में वह सफलता पाई है जो बेटों को मिली है। चाहे वह क्षेत्र अध्ययन को हो या धन अर्जन का , विज्ञान का हो या सामाजिक , धार्मिक हो या राजनैतिक। अतः जरूरत सोच में बदलाव की है।  दो समान ,संभावना-शील व्यक्तियों में सिर्फ जेंडर के भेद से हमारे व्यवहार में भिन्नता , नारी को आहत करता है। जिन परिस्थितियों के कारण बेटी का लालन-पालन किसी परिवार को कठिन लगता है , आवश्यकता उन सामाजिक परिस्थितियों और संकीर्णताओं को खत्म करने की है , ना कि बेटी को।
हालांकि , अब कई परिवार हैं , जिनमें संतान ,सिर्फ बेटी या बेटियाँ हैं , और ऐसे परिवार खुशहाल भी हैं , किन्तु बेटे या बेटी में भेद न करने वाले परिवारों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है।
हम नारी के लिए सम्मान , सुरक्षा और समान अवसरों के समाज की रचना करें और बेटी जन्म पर भी बधाई और बैंड के साथ खुश होने की रीत बढ़ायें। यह समय की माँग है , सभ्यता के अनुरूप है।
(इवेंट में हिस्सा ले रहे आदरणीयों के परामर्श अनुसार यह आलेख ,एडिट किया जाता रहेगा )
--राजेश जैन
04-11-2015
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Monday, November 2, 2015

नारी समस्याओं का समाधान

नारी समस्याओं का समाधान
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1. कानून बना कर नारी सुरक्षा बढ़ाई जाए 
2. मार्शल आर्ट की ट्रैनिंग लेकर,  नारी अपनी रक्षा स्वयं करे  
3. अपने पास स्प्रे रखे जिससे हमलावर को निशक्त किया जा सके ,
आदि -
यह सब उपचार हो सकता है ,नारी समस्याओं का , किन्तु उतना अच्छा समाधान नहीं है , नारी सम्मान एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने का। 
निवारण , उपचार से बेहतर होता है  - "Prevention is better than cure "
इस उक्ति अनुरूप हमें समाज और सभ्यता को वह रूप देना चाहिए , जिसमें नारी के सम्मान पर और उसकी सुरक्षा पर कोई खतरा नहीं होता हो।
अर्थात उन परिस्थिति और सोच को ही समाप्त करना , जिसके कारण कोई नारी के साथ इस सीमा तक गिरता है।
--राजेश जैन
03-11-2105
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