Sunday, October 16, 2016

मेरे अध्ययन का आरंभिक चरण ...

मेरे अध्ययन का आरंभिक चरण ...

किसी शिथिलाचारी के प्रति हमारी अंध श्रध्दा एवं अंध भक्ति , शिथिल आचार कर्म का पोषण ही है। जो धर्म का वास्तविक स्वरूप से भिन्न , एक भ्रामक स्वरूप प्रचारित और प्रसारित करता है। इसलिए धर्म विद्वान का वेश धारण कर जो व्यक्ति , अपने को भव्य रूप में दर्शाता है , उसके प्रति ऐसी श्रद्धा , भक्ति और विश्वास से हमें बचना चाहिए। वास्तव में धर्म अर्थात ज्ञान का जिन्हें वास्तविक स्वरूप समझ आ जाता है , वह इतना सरल और विनयवान हो जाता है कि उसकी सभायें वहाँ लग जाती है , जहाँ वह होता है , उसे सभाओं के लिए , और अन्य जीवों के कल्याण करने के बहाने सार्वजनिक स्थानों में अपनी भव्यता दिखाने का विकल्प नहीं आता है। --राजेश जैन 20-09-2016
हमें चार दिखाई देती गतियों में विश्वास है , हम अधिकाँश भारतीय पाँचवी गति ,”मोक्ष” को अपने आस्था और विश्वास से मानते हैं। जब इस गति को प्राप्त करके अपने अनादि से चले आ रहे जीवन-मरण के क्रम से मुक्त होने के लिए अपनाया जाने वाला मार्ग का प्रश्न आता है तो हम परमात्मा को देखते हैं। जब इस मंगल (”मोक्ष”) की कामना में हम अपने इष्टदेव को किसी नाम से नमस्कार करते हैं तो विभिन्न मतों को उस नाम पर विवाद दिखता है। इसलिए अपनी स्वयं की आत्मा जो अपने विशुध्द या निर्मल स्वरूप में स्वयं भगवान या परमात्मा है उसे ही अपना इष्टदेव मानते हुए , हम उसे नमस्कार करते हैं। ऐसे मंगलाचरण से किसी भी मत को कोई विवाद नहीं होता है।
मंगल कार्य में सरस्वती को नमस्कार भी मान्य विधि है , सरस्वती को एक कल्पना से एक आकार देकर यों तो नमस्कार किया जाता है , किंतु सरस्वती की सत्यार्थ मूर्ति ऐसी है - i. सम्यक ज्ञान जिसमें समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भाषित होते हैं , जो समस्त धर्म सहित अपने आत्म तत्व को प्रत्यक्ष जानता है। ii. श्रुत ज्ञान जिससे अपने आत्म तत्व को परोक्ष देखते हैं. iii. द्रव्य श्रुत - जो वचन रूप में आत्म तत्व को वर्णित करता है। यह तीनों सरस्वती की सत्यार्थ मूर्ति हैं , इन्हें हमारा नमस्कार है।
--राजेश जैन 21-09-2016
किसी वस्तु में एकत्व ,अनेकत्व ,नित्यत्व ,अनित्यत्व ,शुद्धत्व , अशुद्धत्व , भेदत्व ,अभेदत्व आदि अनेक गुण होते हैं। यह 'सामान्य रूप' गुणधर्म हैं , जो वचनरूप दृष्टिगोचर हैं। वस्तु में 'विशेष रूप' धर्म भी हैं , जो वचनरूप न होकर ज्ञान गम्य हैं। आत्मा भी एक वस्तु है , इसमें भी अनेक धर्म हैं। जैसे वस्तु में अस्तित्व , वस्तुत्व , प्रमेयत्व ,प्रदेशत्व चेतनत्व ,अचेतनत्व , मूर्तिकत्व ,अमूर्तिकत्व आदि अनेक धर्म हैं , वैसे ही आत्मा में भी अनेक धर्म है , इसमें चेतनत्व असाधारण धर्म है , जो अचेतन में नहीं है। वस्तु के अनेक गुणों का तीन काल में समय-समयवर्ती परिणमन पर्याय है , पर्याय अंनत हैं। सजातीय जीव द्रव्य (चेतन) भी अनंत हैं , लेकिन प्रत्येक द्रव्य का प्रदेश भेद होने से किसी का किसी में कुछ भी मिलता नहीं है। चेतनत्व अपने अनेक धर्मों में व्यापक है , इसे आत्मा का धर्म कहा गया है। आत्मा शुध्द स्वरूप में सिध्द है , इसलिए जीव द्रव्य अनंत होने से सिध्द परमात्मा भी अनेक हैं , इसलिए आचार्य सर्वसिध्दों को नमस्कार करते हुए मंगल की प्रार्थना करते हैं, कि द्रव्यार्थिक नय से मैं चैतन्य मात्र हूँ। किंतु मेरी परिणिति "मोहकर्म के उदय का निमित्त पाकर के मैली है ,रागादिस्वरूप हो रही है , टीका रचने के फल में रागादि रहित हो शुध्द स्वरूप की उनकी प्रार्थना है।
--राजेश जैन 22-09-2016
सर्वसिध्दों को भाव-द्रव्य स्तुति से 'अपने आत्मा में' तथा 'पर की आत्मा में' स्थापित कर आचार्य कहते हैं- वे सिध्द भगवन सिध्दत्व के कारण साध्य जो आत्मा उसके प्रतिछ्न्द के स्थान पर है जिनके स्वरूप का चितवन कर संसारी भव्य जीव उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं अर्थात सिध्दत्व को प्राप्त होते हैं। समय का प्रकाशक जो प्राभृत नाम का अर्हत प्रवचन का अवयव है उसका परिभाषण - 'अपने एवं पर के मोह का नाश' करने के लिए करते हैं। धर्म ,अर्थ और काल त्रिवर्ग कहलाते हैं , इन वर्ग में त्रियंच ,नरक ,मनुष्य और देव गतियों के जीव "पर भावों से होने वाले ,पर में भ्रमण के कारण" होते हैं ये चार गतियाँ पर निमित्त से प्राप्त होती हैं , इसलिए विनाशीक हैं। जबकि 'स्वभाव से उत्पन्न होने वाली गति ध्रुव होती है , मोक्ष है' , यह पंचम गति अपवर्ग है। शुध्द आत्मा का स्वरूप अभिधेय (कहने योग्य है) उसके ग्रन्थ में वाचक शब्द और शुध्दात्मा का वाच्य-वाचक रूप संबंध है। शुध्दात्मा के स्वरूप की प्राप्ति का प्रयोजन है। --राजेश जैन 23-09-2016
जीव - समय का अर्थ , एकत्वपूर्वक जानना और परिणमन दोनों क्रियायें एक साथ करना है। हमारा जीव एकत्वपूर्वक एक ही समय में जानता एवं परिणमन करता है इसलिए समय है। तीन लोक में अनंत जीव हैं , जिसमें समय-समयवर्ती परिणमन से उत्पन्न प्रत्येक जीव की (इसलिए हमारे जीव की भी) पर्याय अनेक हैं। पर्याय विनाशीक हैं , इसलिए पर के संयोग और वियोग से हम जो पर में एकत्व मानते हुए , जो सांसारिक वैभव अथवा अभाव देखते हैं वह भी विनाशीक है। लेकिन जब अपने स्वभाव में स्थिर होते हैं - वह परभावों से ना होकर स्वभाव से होने के कारण ध्रुव है। इस प्रकार हमारे आत्मद्रव्य का वैभव कभी विनाशीक नहीं है। जीव में अपने और परद्रव्यों के आकारों को प्रकाशित करने की सामर्थ्य है। ज्ञान अपने को ही जानता है पर को नहीं। वह अन्य द्रव्यों के जो विशिष्ठ गुण हैं -अवगाहन ,गति स्थिति ,वर्तना हेतुत्व और रुपित्व , उनके आभाव के कारण असाधारण चैतन्य रूपता स्वभाव में सद्भाव के कारण अन्य पाँच द्रव्यों -धर्म,अधर्म ,आकाश ,काल और पुद्गल से भिन्न है। वह अनंत द्रव्यों के साथ अत्यंत एकक्षेत्रावगाह रूप होने पर भी अपने स्वरूप से ना छूटने से चैतन्य स्वभाव रूप है। जीव का स्व-पर प्रकाशक ज्ञान अनेकार रूप एक है .
--राजेश जैन 24-09-2016
एकत्व ही सुंदर है , जीव अपने स्वभाव में ही स्थित होते हुए ,शोभा पाता है , परंतु अनादिकाल से अजीव (पुद्गलकर्म) के साथ निमित्तरूप बंध अवस्था में है। उसमें यह (बंध अवस्था) विसंवाद का कारण है इसलिए शोभा को प्राप्त नहीं है।
1. "हमारा जीव संसार रूपी चक्र पर सवार पंच परावर्तन रूप भ्रमण करते हुए मोह कर्मोदय रूप पिशाच द्वारा जोता जा रहा है। और विषयों की तृष्णा रूप अग्नि में जल रहा है। जलन से बचने का उपाय इंद्रियों के रूपादि विषयों में ढूंढ रहा है। तथा काम और भोग की कथाओं में अनादि काल से उलझ रहा है। इस संसार में उसे यही सुलभ भी है। "
2. जबकि हमारे इस जीव को स्वयं में निहित सर्व परद्रव्यों से भिन्न अपने चैतन्य चमत्कारी स्वरूप का ज्ञान स्वयं ही नहीं हो सका है। बल्कि जिन्हें इस निज वैभव का ज्ञान रहा है , हमारे इस जीव ने उनकी संगति नहीं की है। इसलिए चैतन्य स्वरूप की अनुभूति दुर्लभ रही है।
3. शब्द-ब्रह्म - अरहंत का परमागम - हमारे आचार्य का व्यवसाय आत्मा के निज-वैभव और एकत्व विभक्त आत्मा को दिखाने का है। आत्मा का निज वैभव उसका ज्ञायकपना समस्त वस्तुओं के प्रकाशन में समर्थ है।"शब्द-ब्रह्म - अरहंत का परमागम" की उत्पत्ति आत्मा के निज वैभव से हुई है स्यात (किसी प्रकार से किसी अपेक्षा से कहना) प्रयोग से परमागम में आत्मा के सामान्य धर्मों को वचनगोचर रूप में बताया गया है। बताने का लक्ष्य आत्मा के विशेष धर्मों का अनुमान कराना है। इस प्रकार 'शब्द-ब्रह्म - अरहंत का परमागम' सर्व वस्तुओं का प्रकाशक है , इसलिए सर्वव्यापी और शब्द-ब्रह्म है। यह सर्वथा एकांतरूप नय पक्ष के निराकरण में समर्थ है।
4. निजवैभव - निर्मल विज्ञान धन आत्मा में निर्मग्नता है , परम गुरु (सर्वज्ञदेव) और अपरगुरु(गणधर आदि) से लेकर हमारे गुरु पर्यन्त , प्रसादरूप शुध्दात्मतत्व का अनुग्रह पूर्वक उपदेश करते हैं , जो निज-अनुभूति में समर्थ है। परमागम निरन्तर झरता -सुंदर आनंद है। जिससे प्रचुर संवेदन रूप स्वसंवेदन का जन्म है। निज वैभव की महिमा बोध इसमें है।
5.आचार्य अपने ज्ञान के निजवैभव से समस्त जीव को उसके स्वयं के निजवैभव के दर्शन और ज्ञान कराने में करते हुए आगम में लेख अति विनम्रता पूर्वक करते हैं कि अलंकार मात्रा के दोष का परीक्षण हम अपने स्वसंवेदन से करें , उसमें दोष ग्रहण ना करें इस हेतु सावधान करते हैं। (यद्यपि आगम में एक एक शब्द दोषरहित , शुध्द और अद्भुत है)
--राजेश जैन 25-09-2016
आत्मानुभूति की सरलता के लिए - एक मार्मिक कथा "विचित्रा"
प्राचीन काल में एक समुद्री जहाज डूब गया। उसमें सवार एक गर्भवती नारी ही किसी तरह बह कर एक निर्जन टापू पर जीवित पहुँच सकी। वह द्वीप छोटा था वहाँ के वन्य प्राणी अहिंसक ,शाकाहारी थे। उस गर्भवती स्त्री ने कुछ दिनों जीवन से संघर्ष कर एक बेटी को जन्म दिया और फिर जीवन से संघर्ष में हार गई। इस तरह उस द्वीप पर मनुष्य नामक एकमात्र प्राणी वह अबोध बालिका (हम उसका नाम 'विचित्रा' रख लेते हैं) ही रह गई। जो वहाँ के अन्य प्राणियों की दया वश , जब तब उनके द्वारा स्तनपान करा दिए जाने से , जीवन ऊर्जा पाती रही। धीरे धीरे विचित्रा स्वयं वन्य वनस्पति तलाश कर उसका सेवन कर बड़ी होने लगी। वन्य जीव अहिंसक थे। वे 'विचित्रा' पर अपनी दया , स्नेह भावों से प्रकट करते थे। वन्य जीवों की इस निर्दोष संस्कृति से , यही दृष्टि और भाव विचित्रा के हुए। विकसित भाषा ना तो अन्य प्राणियों की थी ना ही विचित्रा को जानने सीखने मिल सकी।
'और बड़ी', हो जाने पर उसे यह ज्ञान हुआ कि वह , वहाँ के प्राणियों में एकमात्र विलक्षण थी। उसने अन्य प्राणियों को मरते देखा था। जिनकी माँस-चर्बी सड़ गल जाने के बाद ,वे जीवाश्म रूप में जिधर तिधर पड़े दिखते थे. उसे उस छोटे द्वीप पर सिर्फ एक , कुछ पुराना जीवाश्म अन्य से जुदा कुछ अपनी आकृति का दिखाई पड़ता था। जिसके पैर और हाथ सीधे थे। उस जीवाश्म को देखकर , विचित्रा को लगता कि कदाचित उसी से वह उत्पन्न हुई है। उस जीवाश्म के सीधे हाथ पैरों की नकल में वह अपने हाथ और पैर इस तरह फैलाकर देखती और इस प्रयास में एक दिन वह चौपायों से भिन्न तरह से पैरों पर सीधे खड़ी हो गई। उसकी उत्सुकता और लगन ने उसे चौपायों से भिन्न तरह चलना भी सिखा दिया। मनुष्य की उम्र अन्य प्राणियों में अधिकाँश से ज्यादा होती है। इसलिए विचित्रा ने अपने जीवन में ही बहुत से प्राणियों की उत्पत्ति और मौत प्रत्यक्ष देखी। अन्य प्राणियों से उसका मस्तिष्क ज्यादा विकसित था। इसलिए भाषा , आगम (श्रुत) एवं उसे कहने वाले द्रव्य-श्रुत या श्रुत-केवली की अनुपलब्धता में भी उसे प्रतीति हुई की कोई अन्य द्रव्य है , जो शरीर में रहकर शरीर से भिन्न है। जिसके शरीर में होने तक उसका संयोग जीवन होता है। उसका जुदा हो जाना मौत होता है। वह अकेली थी , वहाँ इन्द्रियों के विषय इतने नहीं थे कि उस की स्व-अनुभूति से उसे विचलित कर सकें। उसकी आत्मा के अनंत धर्मों की शक्ति ने उसे अनुभूति कराई कि वह द्रव्य अमर है , जो मरता जन्मता कभी नहीं है लेकिन जिसके संयोग से एक अजीव द्रव्य (पुद्गल) जीवन रूप दिखाई पड़ता है।
विचित्रा को ऐसा समाधान हो जाने से अन्य जीवों के प्रति वह दया - अल्प राग रखते हुए अपने जीवन को उसने पूरा जिया। उसे किसी बात का मोह , लोभ नहीं था तथा क्रोध मान,एवं माया का वहाँ प्रश्न ही नहीं उत्पन्न नहीं होता था। । उसने निर्भय हो अपनी देह त्यागी। इस तरह अवसान होने के पूर्व तक विचित्रा ने अपने 'दर्शन ,ज्ञान ,चारित्र' का स्तर सम्यकत्व तक उठाया। और 'अनादि निधन प्रवाह रूप आगम' को प्रकृति से अनुभव कर शरीर त्यागने के पूर्व अपनी ऐसी गति-बंध सुनिश्चित कर ली जिससे अगले मनुष्य भव में वह चार गतियों से मुक्ति ले कर , विलक्षण पंचमगति मोक्ष को प्राप्त कर सके। (यह कथा शुध्दतः एक कल्पना मात्र है। आरम्भिक जैन सिद्धान्त को सरलता से समझने के लक्ष्य से लिखी गई है , जैनागम का अभ्यास जिन्हें अधिक है , वे इसमें कोई दोष देखते हैं तो कृपया अवगत करायें , जिससे इसमें आवश्यक संशोधन किया जा सके.)
--राजेश जैन 25-09-2016
श्रुत - धर्म सिद्धांत की विवेचना करने वाले ग्रन्थ जो हमारी आत्मा को परोक्ष (प्रत्यक्ष नहीं) दिखाते हैं .
द्रव्य-श्रुत - आचार्यों के धर्म परिभाषण(प्रवचन) जो वचनरूप आत्मा को परोक्ष (प्रत्यक्ष नहीं) दिखाते हैं .
श्रुत-केवली- अनादि निधन प्रवाह रूप आगम के ज्ञाता जो श्रुत अपेक्षा से सर्वज्ञदेव (सर्व ज्ञाता) हैं।
इन्द्रियों के विषय - स्पर्शन ,रसना ,घ्राण ,चक्षु और कर्ण हम पंचइंद्रिय मनुष्य की इन्द्रियाँ हैं , इनको जिन जिन बातों में सुख प्रतीत होता है उन समस्त बातों को इंद्रिय विषय कहा जाता है।
क्रोध मान, माया ,लोभ को कषाय कहा गया है , जिनके दुष्प्रभाव से हमारी निर्मल आत्मा पर अज्ञान की मलिन परत चढ जाती है।
'दर्शन ,ज्ञान ,चारित्र' का स्तर सम्यकत्व - जीव ,अजीव ,आश्रव ,बंध ,संवर ,निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों की सच्ची आस्था को सम्यक दर्शन। आत्मा और अनात्मा का ज्ञान जिसमें संशय ,भ्रम और अनिश्चय का लेश भी न हो सम्यक ज्ञान। सब बाहरी और भीतरी कर्मों से बचना सम्यक चरित्र है। 'दर्शन ,ज्ञान ,चारित्र' का यही स्तर सम्यकत्व है।
'अनादि निधन प्रवाह रूप आगम' अनादि काल से धर्म और आगम है जो अनंत तक विद्यमान है गति-बंध -अपने भाव और कर्मों के अनुसार अपने लिए जिस योनि में जन्म की पात्रता प्राणी करता है ,वह गति बंध है।
विचित्रा के इस अनोखे मनुष्य भव की कथा उपरांत जैन आगम की कसौटी पर प्रश्न
प्र.1. एकांत जीवन क्या विचित्रा को अशुभ कर्मों के उदय में आने से मिला था ?
उ.1. जगत दृष्टि से तो बहुत से व्यक्ति ऐसा ही कहेंगे , लेकिन आचार्य इसे शुभ कर्मों के उदय रूप बतायेंगे , क्योंकि विचित्रा को इस जीवन से ऐसा आगामी भव का गति बंध होता है , जिसमें उसे सर्वोच्च गति प्राप्त हो जायेगी।
प्र.2. भरत चक्रवर्ती और विचित्रा को मोक्ष होने के पूर्व के मनुष्य भव की तुलनात्मक विवेचना में क्या अंतर स्पष्ट दिखता है ?
उ.2. भरत को चक्रवर्ती वैभव होते हुए , जहाँ सारे प्रकार के क्रोध ,मान ,माया , लोभ कषाय उत्पन्न करने वाले कारण थे उनके मोह राग को पुष्ट करने वाले इंद्रीय भोग के विषय प्रचुरता में उपलब्ध थे। तब भी उन्होंने इनको जीत कर सब के बीच निर्लिप्तता रखने का पराक्रम किया था , जिससे उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ था। जबकि विचित्रा के जीव को विषय भोग , या कषाय बढ़ाने के कोई कारण नहीं थे , इसलिए उसे यह पात्रता सरलता से मिल सकी।
प्र.3. भरत चक्रवर्ती और विचित्रा के जीवन विश्लेषण से धन वैभव का होना या ना होना- शुभ कर्मों या अशुभ कर्मों में से किस के उदय से माना जाए ?
उ.3. धन वैभव का होना ना होना पुण्य या पाप दोनों में से किसी का भी परिणाम हो सकता है , किंतु इस सद्बुध्दि का होना निश्चित ही शुभ कर्मों उदय है , जिस में धन वैभव के होने पर भी विषय भोगों और कषायों से अलिप्तता सहित रह लेना होता है और इसके अभाव में आकुलता ना होना संभव होता है .
--राजेश जैन 25-09-2016
1. (I)आगम का सेवन (II) युक्ति का अवलंबन (III) परम गुरु और अपर गुरु का उपदेश (IV) अपने स्व-संवेदन इन चार प्रकार से मिले अपने ज्ञान के वैभव से आचार्य , 'एकत्व-विभक्त' शुद्धात्मा का स्वरूप दिखाते हैं। तथा इसे हमारे अपने स्वसंवेदन से प्रत्यक्ष प्रमाण करने को प्रेरित करते हैं। अपने अनुभव को प्रधान कर उससे शुध्द स्वरूप का निश्चय करने कहते हैं।
2. ज्ञायक भाव - स्वयं अपने से सिध्द होने से अनादि सत्तारूप है
कभी विनाश को प्राप्त न होने से अनंत है
नित्य उद्योतरूप होने से क्षणिक नहीं है
स्पष्ट प्रकाशमय ज्योति है ,ऐसा ज्ञायक भाव है
3. ज्ञायक भाव (पुनः) - संसार की अवस्था में अनादि बंध-पर्याय की अपेक्षा से या कर्मपुद्गल के साथ एक रूप होने पर भी ,द्रव्य की स्वभाव अपेक्षा से कषायचक्र के उदय से पुण्य-पाप को उत्पन्न करने वाले समस्त अनेकरूप शुभ-अशुभ भावों से उनके स्वरूप नहीं होता , ऐसा ज्ञायक भाव है जो जड़रूप नहीं होता। ज्ञायक भाव समस्त अन्य द्रव्यों के भाव से भिन्न रूप उपासित होता हुआ शुध्द ही रहता है
--राजेश जैन 26-09-2016
ज्ञायकता भी ज्ञेय है , इसलिए ज्ञेयाकार है। ज्ञायक में ज्ञेयकृत अशुध्दता नहीं है ज्ञेयाकार अवस्था में भी ज्ञायक स्वरूप को जानता है।
"स्व-पर प्रकाशन की अवस्था में उसे ज्ञात करता है इसलिए ज्ञायक , कर्ता है और उसने जाना इसलिए कर्म किया होने से कर्म है। अतः ज्ञायक स्वयं कर्ता भी है और कर्म भी है।"
उसी तरह जैसे- दीपक ,जब 'अंधकार दूर करता है ,कहा जाता है -तब कर्ता लगता है , जब -उसने 'अंधकार मिटाया , कहा जाता है' तो कर्म लगता है। बोलने अंतर से दीपक कर्ता भी है , कर्म भी है। द्रव्य दृष्टि से दीपक तो दीपक ही है , जबकि पर्याय दृष्टि से देखें तो दीपक जलन उत्पन्न कर सकने की मलिनता रखता है।
द्रव्य दृष्टि से आत्मा कभी मलिन नहीं होती , पर्याय दृष्टि में अन्य द्रव्य के साथ कर्मबंध रूप होने से आत्मा मलिन हुई देखी जाती है। ज्ञेय का प्रतिबिंब ज्ञायक में झलकने से कोई ज्ञेयकृत अशुध्दि ज्ञायक में नहीं होती। हमारा ज्ञायक स्वभाव जानने वाला होने से भी ज्ञायक है , और उसने जाना है तब भी वह ज्ञायक ही है।
--राजेश जैन 27-09-2016
व्यवहार एवं निश्चय नय - शुध्द नय दृष्टि से व्यवहार को हेय इसलिए कहते हैं क्योंकि अशुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि से संसार नहीं छूटता है। संसार में आत्मा क्लेश भोगता है , जब स्वयं स्वरूप का ज्ञाता-जानता है तब परद्रव्य से भिन्न जानने से संसार छूटता है स्यादवाद की शरण से शुद्धनय के आलंबन से वीतरागता प्राप्त करना निश्चय है। स्वरूप की प्राप्ति पर शुध्द नय का आलंबन भी नहीं रहता है। ज्ञायक भाव ना प्रमत्त (असावधान) है ना अप्रमत्त (संयत) है। गुणस्थानों की परिपाटी में छटवें गुणस्थान के पहले प्रमत्त और उसके ऊपर अप्रमत्त होना है गुणस्थान अशुध्दनय से कथनीय है। शुद्ध नय से आत्मा मात्र ज्ञायक ही है सम्यक- दर्शन ,ज्ञान चारित्र ,ज्ञानी को होना व्यवहारनय से है। शुध्द द्रव्यार्थिक नय से तो इन तीनों सहित अनंत धर्म तो शुध्द ज्ञायक में समाये हैं। दर्शन ,ज्ञान चारित्र को भेदरूप देखना अशुध्द द्रव्यार्थिक नय से है . वस्तु अनंत धर्म रूप एकधर्मी है। इसलिए कर्मबन्ध आत्मा को मलिन तो दूर , अपितु दर्शन ,ज्ञान चारित्र भी उसमें भेद नहीं है. हमारा आत्मद्रव्य वस्तुतः अनंत पर्यायों को अभेद रूप निहित रखता है। पर्याय , द्रव्य की ही भेद हैं , के तर्क पर भी पर्याय , वस्तु सिध्द नहीं होती हैं। भेद दृष्टि में में निर्विकल्पता नहीं है। और विकल्प तो सरागी को हैं। वीतरागी निर्विकल्प है। रागादिक दूर करने के लिए यद्यपि भेद को गौड़ कर निर्विकल्प (अभेदरूप) का अनुभव कराया जाता है. --राजेश जैन 28-09-2016
जब धर्म , मेरे आत्मद्रव्य के धर्मों का ज्ञान मुझे कराता है , मुझे यह विश्वास दिलाता है कि मेरा आत्मद्रव्य अनादि से है , अनंत काल तक रहने वाला , अविनाशी द्रव्य है। तब इस शरीर संयोग की मौत के भय से मुझे निर्भय कर देता है। इंद्रिय विषयों के प्रति आसक्ति मिटाने की प्रेरणा सहित पारलौकिक अविनाशी कल्याण (मोक्ष) को प्रेरित करता है, तथा जब तक यह मनुष्य शरीर संयोग बना हुआ है , तब तक अपनी लौकिक जीवन शैली में सर्वदया के भाव को प्रेरित करता है। तब मुझे विश्वास हो जाता है कि धर्म अंगीकार करने वाला अनिवार्य द्रव्य ही है।
स्वस्ति - जिसे भाषा का ज्ञान नहीं , उसकी स्वस्ति की शुभकामना भी दी जाए तो "तुम्हारा अविनाशी कल्याण हो" ऐसा अर्थ नहीं मालूम होने पर यह हितभावना समझ नहीं आती है। तब , उपयुक्त उसे उसकी भाषा में समझाया जाना होता है। सांसारिक जीव को निश्चय की भाषा कठिन होती है इसलिए व्यवहार के सरल भाषा में आचार्य द्वारा समझाया जाना होता है। इस प्रकार पर्यायार्थिक नय के माध्यम से शुध्द द्रव्यार्थिक का अनुभव कराना , आचार्य का हमें स्वस्ति को प्राप्त होने के लक्ष्य से होता है। दर्शन ,ज्ञान एवं चारित्र को शुद्धात्मा बताना व्यवहार से है , जबकि शुद्धात्मा तो ऐसी है जिसे दर्शन ,ज्ञान एवं चारित्र सदा प्राप्त है। आचार्य द्वारा व्यवहार आलंबन , प्रत्युत(अपितु) व्यवहार छुड़ाकर परमार्थ में पहुँचाने का है। व्यवहार नय परमार्थ (supreme good) का प्रतिपादक (निरूपक) कैसे ? श्रुत से केवल शुध्द आत्मा को जानते वे श्रुतकेवली हैं। यह परमार्थ है। जो सर्व श्रुतज्ञान को जानते वे श्रुतकेवली हैं , यह व्यवहार का कथन है। श्रुत अनात्मा है , आत्मा स्वयं ज्ञायक है। श्रुत का ज्ञान सिर्फ आत्मा को हो सकता है। धर्म अधर्म ,आकाश ,काल एवं अजीव को नहीं हो सकता। श्रुत का ज्ञान हुआ और श्रुतकेवली हुए यह घटना है , यह परमार्थ है। और जो सर्व श्रुत ज्ञान को जानते वे श्रुतकेवली हैं - ऐसा व्यवहार , परमार्थ का प्रतिपादक होना स्थापित करता है। व्यवहार , शुध्द नय का प्रतिपादक है। परमार्थ का विषय वचनगोचर नहीं ज्ञानगम्य है। इसलिए व्यवहार नय , आत्मा को कहता है ऐसा जानना आवश्यक है व्यवहार अंगीकार नहींकिया जाना चाहिए। उसका आलंबन , परमार्थ को प्राप्त होने के लिए करना चाहिए --राजेश जैन 29-09-2016
जल जब कीचड़ आच्छादित है तब भी जल है , वैसे जैसे प्रबल कर्मों से आच्छादित रहने पर भी ज्ञायक भाव तो ज्ञायक ही है। कर्मों से आच्छादित आत्मा मलिन हो यह होता नहीं है। अतः मलिनता आत्मा पर विद्यमान नहीं है। जो होता नहीं वह कहने का विषय होता ही नहीं , किंतु व्यवहार से इस असत्यार्थ को कहा जाना सत्यार्थ की अनुभूति कराने के लक्ष्य से होता है। जिनवाणी स्याद्वाद रूप है , प्रयोजन वश नय को मुख्य/गौड़ कर कहती है। व्यवहार का उपदेश , शुध्द नय का सहायक है, किंतु उसका फल संसार है। उपकारी गुरु शुध्दनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर उसका प्रधानता से उपदेश करते हैं। जब तक जीव व्यवहार में मग्न है ,तब तक आत्मा का ज्ञान श्रद्धानरूप निश्चय सम्यकत्व नहीं है। ऐसा समझना चाहिए। व्यवहार नय कभी कभी प्रयोजनवान है ,सर्वथा निषेध योग्य नहीं है। आचार्य जिनमत प्रवर्तना की दृष्टि से कहते हैं , हमें व्यवहार एवं निश्चय नय दोनों को छोड़ना नहीं है। व्यवहार के बिना तीर्थ व्यवहार मार्ग नष्ट हो जाएगा। निश्चय के बिना तत्व समझ नहीं आएगा। जैसे शुध्द सोना जिसकी जानकारी में नहीं , उसे खोटा सोना भी सोने जैसा प्रयोजनवान है। व्यवहार नय ऐसा प्रयोजनवान है। कम शुध्द सोने को सोने जैसा प्रयोजनवान बताता है , कोई और धातु जो सोना नहीं उसे सोना नहीं बताता है। लेकिन जिसे शुध्द सोना जानकारी में है , उसके लिए खोटा सोना प्रयोजन वान नहीं है. यह निश्चय से शुध्दनय है। आत्मा के पर्याय रूप मलिनता को कहते हुए उसे दूर करना व्यवहार नय से उपदेशित है। निश्चय नय अनंत पर्यायरूप होने पर भी आत्मा को तनिक मलिन नहीं देखता है। --राजेश जैन 30-09-2016
जब तक हमें यथार्थ ज्ञान श्रध्दान की प्राप्ति नहीं ,हम सम्यक दृष्टि नहीं तब तक जिन गुरु के उपदेश ,जिनबिंब दर्शन ,तीर्थ भ्रमण , परद्रव्य का आलंबन छोड़ने के लिए अणुव्रती , महाव्रती होने, पंच परमेष्ठी का ध्यान रूप प्रवर्तन , उन्हें प्रवर्तन करने वालों की संगति एवं दूसरों को ऐसा प्रवर्तन कराना ऐसा व्यवहार प्रयोजनवान है। यह असत्यार्थ भी तब तक सत्यार्थ ही है , जब तक हम सम्यक दृष्टि नहीं। असत्यार्थ को भी सत्यार्थ के निरूपण तक अंगीकार करना यह जिनागम का स्यादवाद उपदेश है।
जिनवचन स्यादवाद - व्यवहार नये से असत्यार्थ भी कहा जाता है जिसका लक्ष्य सत्यार्थ की प्राप्ति के लिए होता है। जो एक है (हमारा शुध्दात्मा) वह अनेक रूप (पर्याय अनंत हैं ) नहीं होता , जो नित्य है (हमारा आत्मा अविनाशी है) वह अनित्य नहीं होता (पर्याय विनाशीक है) जो भेदरूप होता है (आत्मा और पर्याय को भेदरूप देखना) वह अभेदरूप (आत्मद्रव्य एकत्व विभक्त द्रव्य है) नहीं होता। जो शुध्द है वह अशुध्द (परद्रव्य के संयोग में मलिन) नहीं होता है. नयों के विषय में विरोध तो है , जिनवचन आशयपूर्वक यह विरोध मिटाता है। जिनवचन द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दोनों नयों में , द्रव्यार्थिक नय को मुख्य करके इसे निश्चय कहता है। तथा अशुद्ध द्रव्यार्थिक (पर्यायार्थिक) को गौण रखने का व्यवहार कहता है।
--राजेश जैन 10-10-2016
सर्वज्ञ के आगम में जिनवचन - सर्वद्रव्यों से भिन्न आत्मा की सर्व पर्यायों में व्याप्त पूर्ण चैतन्य 'केवलज्ञान' रूप सर्व लोकालोक को जानने वाला असाधारण 'चैतन्य धर्म' परोक्ष दिखलाता है। यह शुध्द नय है। व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगम (श्रुतज्ञान) को प्रमाण करके द्रव्यार्थिक नय के दिखाये पूर्ण आत्मा का श्रध्दान करे सो श्रध्दान सम्यक दर्शन है। जब तक केवल व्यवहार नय के विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्वों का श्रध्दान रहता है तब तक निश्चय सम्यक दर्शन नहीं है। शुद्धनय की विषय भूत एक 'आत्मा' हमें प्राप्त हो इसके अतिरिक्त हम कुछ नहीं चाहते , ऐसी वीतराग अवस्था के लिए हमारी प्रार्थना है। नय पक्षों के पक्षपात में उलझे रहना मिथ्यात्व के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
सम्यक दर्शन : जीव ,अजीव ,पुण्य ,पाप ,आश्रव ,संवर ,निर्जरा ,बंध और मोक्ष इन नवतत्वों को शुद्धनय से जानना सम्यक दर्शन है। नवतत्वों में प्राप्त होने पर भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ता 'आत्मा' अपनी चैतन्य चमत्कार मात्र ज्योति को नहीं छोड़ता।
i. विकारी होने योग्य और करने वाला दोनों पुण्य हैं -दोनों पाप हैं।
ii. आश्रव होने योग्य और आश्रव करने वाला दोनों आश्रव हैं
iii. संवर होने योग्य और संवर करने वाला दोनों संवर हैं
iv. निर्जरा होने योग्य और निर्जरा करने वाला दोनों निर्जरा हैं
v. बंधने योग्य और बंध करने वाला दोनों बंध हैं
vi. मोक्ष होने योग्य और मोक्ष करने वाला दोनों मोक्ष हैं।
एक के ही अपने आप पुण्य ,पाप, आश्रव ,संवर ,निर्जरा ,बंध और मोक्ष की उत्पत्ति नहीं बनती। अर्थात अपने ज्ञान स्वभाव या अपने ज्ञायक होने को ही जानें तब पुण्य ,पाप, आश्रव ,संवर ,निर्जरा ,बंध नहीं हैं और मोक्ष की उत्पत्ति जब बाकि छूट जायें उसी काल हो जाती है।
जीव -पुद्गल की अनादि बंध पर्याय एक रूप अनुभव करने से सत्यार्थ है , किंतु अपना स्वभाव (ज्ञान, ज्ञाता ,ज्ञायक) अनुभव करने पर वे असत्यार्थ हैं। पर्याय ,जीव की एकाकार रूप नहीं होती हैं. जीव के विकार का 'हेतु' अजीव है। पुण्य ,पाप ,आश्रव ,संवर ,निर्जरा ,बंध और मोक्ष विकार के लक्षण नहीं हैं। ये 'विकार हेतु' अजीव हैं.
नवतत्वों में सत्यार्थ (शुध्दनय) से 'एक जीव ही प्रकाशमान' है। (व्यवहार नय से जीव को भव्य कहा जाना तक असत्यार्थ ही है) . 'जीव को ही प्रकाशमान अनुभव किया ऐसी अनुभूति आत्मख्याति' (आत्मा की पहचान) इसलिए सम्यक दर्शन है।
जीव पुद्गल की बंधपर्याय रूप दृष्टि से ये पदार्थ भिन्न भिन्न रूप दिखते हैं। किंतु जब शुध्दनय से जीव -पुद्गल का निज स्वरूप भिन्न भिन्न अनुभव होता है। तब पुण्य पापादिक सात तत्व कुछ भी वस्तु नहीं। ये निमित्त नैमित्तिक भाव से थे जब यह भाव मिट गया तब जीव-पुद्गल भिन्न भिन्न रूप होने से अन्य कोई वस्तु सिध्द नहीं होते हैं (जीव-जीव है , पुद्गल-पुद्गल है, दो संयोग वियोग निमित्त-नैमित्तिक है। वस्तु द्रव्य है वस्तु का निज स्वभाव वस्तु के साथ है। तब निमित्त-नैमित्तिक भाव का अभाव हो जाता है। इसलिए शुध्द नय से जीव को जाने वह सम्यक दर्शन है।इसके पूर्व पर्याय बुfध्दि है।
--राजेश जैन 11-10-2016
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय कैसे सत्यार्थ और कैसे असत्यार्थ ?
नवतत्व (जीव ,अजीव ,पुण्य ,पाप , ,आश्रव , बंध ,निर्जरा , संवर ,मोक्ष ) में जीव को ही जानना सत्यार्थ (भूतार्थ) है। जो जानने के उपाय , प्रमाण - निक्षेप , नय हैं वे असत्यार्थ (अभूतार्थ) हैं। उपात्त(प्राप्त) और अनुपात्त (अप्राप्त) जो पर पदार्थों द्वारा प्रवर्ते वह परोक्ष है.और आत्मा प्रति निश्चय रूप प्रवृत्ति करे सो प्रत्यक्ष है। ( आगम से प्राप्त प्रवर्ते - परोक्ष है , ज्ञायक ने स्वयं आत्म-अनुभूति की वह प्रत्यक्ष (निश्चय) है). ज्ञान - (मति ,श्रुत , मनः पर्यय ,अवधि और केवलज्ञान में से) मति और श्रुत परोक्ष हैं , मनः पर्यय ,अवधि विकल प्रत्यक्ष और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष हैं। द्रव्य- पर्याय रूप ( उदाहरण - जीव की अनंत काल से अनंतानन्त पर्याय में से कोई) वस्तु में (जीव में) मुख्यता से द्रव्य का अनुभव कराये वह द्रव्यार्थिक नय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय , द्रव्य और पर्याय का पर्याय से अनुभव कराये तब भूतार्थ हैं और द्रव्य और पर्याय दोनों से एक हुआ नहीं मानने पर शुध्द वस्तु मात्र जीव के (चैतन्य मात्र ) स्वभाव का अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं।
निक्षेप - (नाम ,स्थापना ,द्रव्य और भाव) - नाम - वस्तु में जो गुण नहीं उस गुण के नाम से वस्तु की संज्ञा करना नाम निक्षेप है (जैसे इस भव में मेरे पुद्गलकर्म बंध मेरे शरीर को मैं इसे जीव मानकर - राजेश नाम से देखूँ तो मेरे जीव का जो गुण नहीं अर्थात मैं पुद्गल नहीं हो सकता , वह मेरे जीव का गुण प्रतीत कराये वह नाम निक्षेप है।
  • स्थापना - यह वह है (अर्थात मेरा शरीर , मेरे जीव का परिचय प्रतीत हो ) इस प्रकार वस्तु का प्रतिनिधित्व स्थापित करे वह स्थापना निक्षेप है।
  • द्रव्य निक्षेप - अतीत अथवा अनागत पर्याय से वस्तु को वर्तमान कहना द्रव्य निक्षेप है। (अर्थात अनादि काल से अनंत काल तक रहने वाला मेरा जीव आज वर्तमान में भी जीव है ,पुद्गलबंधकर्म से शरीर कभी नहीं था , कभी नहीं होगा और आज भी नहीं है )
  • भाव निक्षेप - वर्तमान से वस्तु को वर्तमान में कहना भाव निक्षेप है (अर्थात मेरा जीव , राजेश नाम के पुद्गल शरीर में भी - जीव ही है , शरीर से (पुद्गल) भिन्न ही है)
--राजेश जैन 15-10-2016
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय - प्रमुखता से द्रव्य का अनुभव कराये वह द्रव्यार्थिक नय है। और प्रमुखता से पर्याय का अनुभव कराये वह पर्यायार्थिक नय है। जैसे किसी वस्तु को ठंडा अनुभव करने के लिए , गर्म कैसा होता है यह अनुभव होना चाहिए वैसे ही द्रव्य ही वस्तु है , कहने के लिए पर्याय वस्तु नहीं है जानना आवश्यक होता है। इसलिए पर्यायार्थिक नय के आश्रय से स्यादवाद रूप जिनमत के वचन हैं। प्रमाण , नय ,निक्षेप का आलंबन द्रव्य-पर्याय स्वरूप वस्तु की सिध्दि के लिए है। प्रथम अवस्था में प्रमाणादि से यथार्थ वस्तु को जानना -ज्ञान श्रध्दान सिध्दि करना है (जैसे जीव के निकल जाने से शरीर पुद्गल रूप होता है , अर्थात जीव , शरीर नहीं है अपितु आत्मा जीव है , यह प्रमाण है , और इस से वस्तु (आत्म-द्रव्य) की सिध्दि होती है। द्वितीय अवस्था में -ज्ञान श्रध्दान की सिध्दि से प्रमाणादि के आलंबन से विशेष ज्ञान करना और राग-द्वेष मोह कर्म का सर्वथा अभावरूप यथा ख्यात चारित्र प्रगट होना यह केवलज्ञान की प्राप्ति है। तृतीय अवस्था में केवलज्ञान के पश्चात प्रमाणादि का आलंबन न रह जाना साक्षात सिध्द अवस्था है।
शुध्द नय - आत्म स्वभाव को प्रगट करता है वह शुध्द नय है।
आत्म स्वभाव , i. परद्रव्य , ii. परद्रव्य के भाव तथा iii. परद्रव्य के निमित्त होने वाले अपने विभाव ऐसे परभावों से भिन्न होता है। आत्म स्वभाव -
iv. सम्पूर्ण रूप से पूर्ण है ,
v. समस्त लोकालोक का ज्ञाता है ,
vi. आदि अंत रहित है सर्व भेदभावों से रहित एकाकार है,
vii. इसमें समस्त संकल्प -विकल्प विलीन हैं
संकल्प -द्रव्य कर्म , भाव कर्म , नोकर्म आदि से पुद्गल द्रव्यों में अपनी कल्पना ,संकल्प है
विकल्प -ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद ज्ञात होना विकल्प है
--राजेश जैन 16-10-2016
हमारे जीवन की कहानी ...
दो अजीव आकारों में जिनमें प्रत्येक में अलग अलग निराकार जीव का संयोग था के बीच संबंध के फलस्वरूप , एक अजीव आकार बना जिसमें मेरे निराकार जीव का संयोग हुआ और दुनिया ने मुझे पहले एक गर्भस्थ (शिशु) जीव फिर एक मानव बच्चा जाना। यद्यपि मैं जीव हूँ - इसलिए मेरा ना तो जन्म है , ना ही मेरी मौत है। इसलिए जगत ने जिसे मेरा जन्म कहा वह वास्तव में एक अजीव द्रव्य का पिंड था। मैं निराकारी हूँ इसलिए मेरा कोई लिंग नहीं है , लेकिन अजीव पिंड जो अनेकों अजीव नेत्रों (जिसमें जीव संयोग थे/हैं) ने देखा उससे मुझे बालक (पुरुष) कहा . मेरा मति ज्ञान अल्प था ,जैसा सबने कहा उससे मैंने भी अपने को मनुष्य और पुरुष माना। अजीव पिंड जिसे शरीर कहते हैं , उस में भेद से कुछ बालिका (नारी) कही गईं उन पर वस्त्र भिन्न होते थे. शरीर के आकार , रंग और शक्ति के कारण मुझे गोरा , सामान्य शक्ल का कहा गया। इसी आकार के छोटे ,मध्यम और बड़े हो जाने को मेरा बच्चा , किशोर और युवा हो जाना कहा गया।
मेरा मति ज्ञान बढ़ती उम्र के साथ बढ़ता जा रहा था। मेरे मति ज्ञान की शीघ्र बढोत्तरी के लक्ष्य से मुझे पहले स्कूल फिर कॉलेज आदि भेजा गया। जीव के पुद्गलबंध कर्म के संयोग से जो निराकारी जीव विभिन्न आकार रूप , लिंग और अवस्था के एक भवन में एकत्रित रहते थे , भवन को घर और साथ रहने को परिवार कहते थे/हैं। (परिवार को) उन्हें जैन धर्मी कहा जाता था/है। मति ज्ञान के साथ ही श्रुत ज्ञान में भी बढोत्तरी के लिए मुझे उन भवनों में ले जाया/भेजा जाता था जिसे जिन मंदिर कहते थे। जिन मंदिर में रखे ग्रन्थों में आचार्यों द्वारा लिखे गये जिनशासन का लेख विभिन्न भाषाओँ में होता था/है। इन पर परिभाषण करने वाले विद्वानों से और ग्रन्थों के स्वतः पठन से हमें जिनवचन के माध्यम से हमारे निराकार जीव द्रव्य को आत्मा कह कर इनके अनंत धर्मों का उल्लेख होता/(कराया जाता) था/है। वहीं हमें ज्ञात हुआ कि हमारी आत्मा का न तो जन्म है , ना ही मृत्यु है। यह अनादि से अनंत तक अविनाशी है। और जिसे मति ज्ञान से जन्म कहा जाता है , वह यथार्थ में हमारी आत्मा की नये पुद्गलकर्म बंध से हुई , अनंतानंत पर्यायों में से एक समय की पर्याय थी /है। वहाँ हमें अपनी-अपनी पात्रता के अनुसार हमारे श्रुतज्ञान में आता था/है कि जिन मंदिर में स्थापित प्रतिमायें ऐसे जिन तीर्थंकर और जिन भगवान की होती हैं- जो अपने श्रुतज्ञान में क्रमशः भेद विज्ञान का आश्रय लेकर क्रमशः मनःपर्यय ,अवधि ज्ञान को पुष्ट करते हुए केवल ज्ञान के माध्यम से सकल प्रत्यक्ष में अपनी आत्मा अनुभूति को प्राप्त हुए और जिन्होंने अपने निराकारी जीव "आत्मद्रव्य" को अपने अंतिम मनुष्य भव में सांसारिक भ्रमण से मुक्त कर मोक्ष प्राप्त किया। ऐसा विलक्षण जैनागम का प्रवाह अनादि अनंत है। जिन सिध्दों (भगवान) जैसे ही चार गतियों से चला आ रहा हमारे सांसारिक भ्रमण से हम भी मुक्त होकर , परम सुख रुपी मोक्ष गति को प्राप्त होने का सामर्थ्य हमारी अपनी निराकारी 'आत्मा' में भी है। इसके लिए हमें राग-द्वेष मोह कर्म का सर्वथा अभाव रूप यथाख्यात चारित्र प्राप्ति , अर्थात केवलज्ञान अनुभूति को प्राप्त होना है।
(क्रमशः)
--राजेश जैन 16-10-2016