Saturday, July 28, 2012

चापलूसी

चापलूसी

                                  चापलूसी की बात आती है हर कोई निंदनीय मानता है. जबकि कभी कभी वह खुद किसी की चापलूसी करता हो सकता है.  ऐसा हो सकता है हम चापलूस न हों. पर ऐसे होते हुए भी हम चापलूसी को पुष्ट करते हैं , यदि अपनी स्वयं की चापलूसी पसंद कर रहे हों या की जा रही अपनी चापलूसी को चापलूसी पहचान जाने में चूकते हों .वास्तव में चापलूसी एक स्वार्थ प्रेरित प्रक्रिया है , जो करने वाला अपने कुछ हित साधने की संक्षिप्त रास्ते बतौर अपनाते हैं . चापलूस बनने के लिए किसी को अपने स्वाभिमान से समझौता करना पड़ता है . चापलूस होने का गुण किसी में उत्पन्न होने के कारण में से कुछ ये हैं. 1.जल्दी से जल्दी अपने मंतव्य सिध्द करने के लिए , 2 . जिस का सामर्थ्य नहीं वह कार्य संपन्न करवा लेने के लिए तथा 3 . बचपन से अपने बड़ों में यह आदत देखे जाने के कारण.

                                चापलूसी सफल ,धनवान और समर्थों के आसपास पनपती है . इतिहास में चापलूसों ने ऐसे उदहारण पेश किये हैं जब उन्होंने अपने छोटे किसी प्रयोजन के लिए संस्कृति ,समाज और देश को बड़ा एवं लम्बे समय अहित इन समर्थों को बरगला कर किया है. इस तरह से देखा जाये तो चापलूसी किसी असमर्थ की कमी के कारण अस्तित्व में नहीं है , बल्कि यह  समर्थों की कमी से बनती है. समर्थ जब यह समझने में नाकाम होते हैं कि उनकी प्रशंसा झूठी है और प्रशंसा  का कुछ छुपा उद्देश्य है.    ऐसे में चापलूसी का अर्थ  हम असमर्थ की मज़बूरी और समर्थों की मूर्खता बताएं तो कुछ गलत नहीं होगा .

                      चापलूसी पर इतना लेख इसलिए आवश्यक है कि लेखक इसे भी सामाजिक सुखद वातावरण के निर्माण में अवरोध के कारणों में से एक के रूप में देखता है. स्वार्थ प्रेरित उत्पन्न मनुष्य की इस बुराई पर नियंत्रण आवश्यक है . अन्यथा व्यवस्था और ओहदों पर विद्यमान समर्थों के निर्णय चापलूस प्रभावित करते रहेंगे अपना कोई छोटा प्रयोजन सिध्द करेंगे पर संस्कृति ,देश और समाज को बड़ी हानि पहुंचाते  रह कर समाज को दिनोदिन और बुरा बनाते जायेंगे.
चापलूसी ख़त्म उस दिन की जा सकेगी जब समर्थ अपने आसपास एकत्रित ऐसे लोगों के जाल से निकलना शुरू करेंगे . सही और गलत की जा रही प्रशंसा की पहचान करेंगे. गलत अपनी प्रशंसा को हतोत्साहित करेंगे.

Sunday, July 22, 2012

कडुवे उपचार

कडुवे उपचार

                 कभी कभी करेले के कडवे ग्रास या दवाओं का कडवापन  हमारे लिए लाभकारी होता है. शारीरिक परिश्रम स्वास्थ्यकारी होता है .अपमान के कडवे घूँट सहन करना भी जीवन में कभी लाभकारी सिध्द होते हैं . अभावों के कारण मिलती विषम परिस्थिति और चुनोतियाँ भी कडवी तो होती हैं पर व्यक्तित्व निर्माण की द्रष्टि से ये भी उपयोगी   हो  सकती हैं ,यदि उसे हम सकारात्मकता से ले सकें .

                  इनसे विपरीत श्रम अभावों और अत्यंत सुविधाजनक साधनों के आश्रय की जीवन शैली स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं उत्पन्न कर सकती हैं. इसमें मधुरता तो  प्रतीत होती है पर जिस तरह अधिक शक्कर सेवन शारीरिक व्याधि उत्पन्न कर सकता है उसी तरह जीवन अनुकूलताएँ मानसिक संतुलन के लिए हानिकारक हो सकती है. यहाँ मानसिक असंतुलन पागलपन के अभिप्राय से उल्लेखित नहीं किया जा रहा है. लेकिन अनुकूलता प्रधान जीवन हमारी प्रतिकूलताओं से संघर्ष कर बिना हानि अपने को उनसे निकाल सकने के आत्म-विश्वास और मानसिक शक्ति के लिए अहितकारी  हो सकता है.  ऐसी विपरीतताओं को हम उनकी तुलना में जिन्होंने जीवन विपरीतताओं का जब तब सामना किया होता है उतने सहज तरीके से नहीं ले पाते हैं .कभी कभी इनसे हम टूट जाते हैं और हमपर अवसाद ग्रस्त हो जाने का खतरा मंडराता  है. तब मेरी कामना अनुकूलताओं से जिनका जीवन गुजर रहा है उनको सदैव ये उपलब्ध हों ऐसी है .पर मेरी  या किसी की ऐसी कामनाओं से इनकी सुनिश्चितता नहीं होती है.

                    मनुष्य में दमखम और कैसी भी परिस्थिति में सीखने ,उसके अभ्यस्त होने और उनमे अपने अस्तित्व बचा  लेने की अदभुत क्षमता प्रकृति प्रदत्त है .लेकिन बहुत वैभव और सुविधा मिलने से शारीरिक श्रम की आदत जाती रहती है. ये अक्सर मनुष्य में अभिमान भी भर देते हैं. तब यदि कभी अभाव आन पड़ें तब यह अभिमान और श्रम हीनता की आदत जार जार रुलाती है.  अपने वैभव शाली इतिहास का स्मरण दुःख देता है. जिनसे जीवन में वैभव के मामलों में अग्रणी था उनसे पिछड़ना दर्दनाक लगता है. जो कृपा पात्र रहे थे उनसे सहयोग लेते शर्म आती है. मुझे खुशी होती है जब किसी को बहुत बहुत समर्थ देखता हूँ. इनका वैभव पूर्ण और अनुकूल जीवन और उससे हर्षित दमकते चेहरे किसी पुष्प भांति आकर्षक होते हैं.लेख का प्रमुख अभिप्राय यह रेखांकित करने का है कि जीवन में सफलताओं में अपने पर ऐसा आत्मनियंत्रण हो की अभिमान हम पर हावी न हो पाए.

                       हम वैभव परिपूर्ण अपने जीवन में भी शारीरिक श्रम के कुछ अपने दैनिक कार्य स्वयं करते रहें ,अपनी जिव्हा पर नियंत्रण रख कभी कभी सदा भोज्य में भी रूचि से सेवन की आदत बनाये रखें. जवान पर नियंत्रण रख बड़े बोल ज्यादा न बोला करें. अभाव ना होने पर भी कभी कभी साधारण परिधान में भी घर से बाहर निकला करें. यात्रा में संभव हो तो कभी साधारण श्रेणी में भी यात्रा करें कभी कतारों में लग साधारण व्यक्ति की भांति अपने कार्य संपन्न कराएँ. इनसे हम में न्यायप्रियता बढ़ेगी . उन कठिनाइयों का सही अनुमान हमें होगा जिन्हें साधारण व्यक्ति सहज जी लेता है . कभी कभी ऐसा करते रहने से  हमारी आदत बनी रहेगी . एवं  कभी अनचाहे विपरीत समय आ जाये तो इन से जूझ कर हम अपने जीवन को वापस सफल दिशा में अग्रसर करने में सहजता अनुभव कर सकेंगे.

                  हमने सफाई कर्मी और जूते चप्पल सुधारते (और पोलिश) करते स्त्री पुरुष रोज देखे हैं. परंपरा से उनसे समाज में हेय व्यव्हार होता आया है.शायद हमारी भी उनके प्रति वही द्रष्टि हो. हमने शायद ही कभी सोचा हो कि उन्हें यदि हमारे जैसा वैभव,सम्मान ,सुविधा और अनुकूलताएँ उपलब्ध हो जाएँ तो क्या ऐसे में जीवन यापन में उन्हें कोई कष्ट अनुभव होगा  ? विपरीतता से अनुकूलता की दिशा में चलना आसान होता है. जबकि हमें तो इसकी कल्पना मात्र कि यदि हमें जीवन में ऐसा करना पड़ता तो ,हमें हिला देगी हम सिहर जायेंगे .सफाई और पैरों कि रक्षा के ये सामान बहुत महत्पूर्ण हैं जिन्हें हमारे लिए वे करते हैं . ऐसा कठिन कार्य हम नहीं करना चाहेंगे .उनकी योग्यता कम है इस कारण ऐसे कार्य करते हैं पर बदले में पारिश्रमिक तो कम पाते हैं. पर हम उन्हें सम्मान कि द्रष्टि से भी नहीं देख पाते . एक कमी के लिए दो ख़राब प्रतिफल देना अनुचित है उन्हें . पारिश्रमिक भले कम दिया हो पर सम्मान तो दिया ही जा सकता है. आज ऐसे तर्क सुनने मिल रहे हैं जिसमे अर्धनग्न शरीर प्रदर्शन ,अश्लील मंचन और यहाँ तक के देह व्यापार को ( उनमे लिप्त  )  स्त्री- पुरुष व्यावसायिक आवश्यकता बताते हैं और उसे उचित ठहराते हैं .इनके पास धन हो जाने से असहमत होते हुए भी प्रकट में कोई अपमान का साहस नहीं करता . तब क्या पेट भर लेने को कमा लेने के लिए सड़कों ,प्लेटफार्मों और फुटपाथों पर कार्यरत मजबूर लोगों को हम सम्मान दे दें तो क्या गलत होगा . अभावों को सहते इनके तन मन के घाव शायद थोड़ी शीतलता ही अनुभव करें हमारे सम्वेदना और सम्मानीय व्यवहार से.

                   हमारे द्रष्टिकोण और व्यवहार में यह परिवर्तन समाज में स्वस्थ वातावरण  के निर्माण में बेहद उपयोगी होगा .

Saturday, July 21, 2012

शुभ प्रभात , मेरा हार्दिक अभिवादन

शुभ प्रभात , मेरा हार्दिक अभिवादन ..........

                                 शुभ यह कामना कि आज वह प्रेरणा मिले जिससे  जीवन  में ऐसा परिवर्तन  (टर्निंग पॉइंट ) आरम्भ हो जिससे आप आत्मिक उन्नति की ओर प्रशस्त होकर आत्मिक वैभव बढ़ा सकें . आपके भौतिक वैभव और आत्मिक वैभव में एक बेहद ही उचित संतुलन बन जाए. 

                          यह महत्वपूर्ण उतना नहीं कि कोई अन्य किसी को  भला व्यक्ति जाने और माने , जितना यह कि कोई स्वयं यह मान सके  कि वह भला है. अगर निशंक कोई अपने बारे में ऐसा कह सकता है तो समझें कि उन्होंने अपने मनुष्य जीवन को सार्थक रूप से जिया है   .

               भौतिक वैभव से हमारा इस लोक का जीवन सुविधाजनक बनता है. आत्मिक वैभव से हमारा परभव (परलोक) सुधरता है. आत्मिक और भौतिक वैभव के उचित संतुलन से हम ऐसा योगदान कर सकते हैं जिससे प्रथ्वी पर समग्र मानव समाज को सुविधाजनक जीवन का स्वस्थ वातावरण उपलब्ध करवा सकें .

                      7-8 अरब के वर्तमान मानव समाज में हम आधा सैकड़ा ही हैं .हम अपने भौतिक और आत्मिक संतुलन उचित बनाने का प्रयास करें.साथ ही परस्पर संतुलन और सहमति भी स्थापित करें.इनसे ही हम अपने तय लक्ष्य की दिशा में बढ़ते और निरंतर कुछ नयों का साथ लेते हुए मानवता को पुष्ट करने की दिशा में हर नए दिन कुछ पग बढ़ाते जाएँ.

                ग्रुप पर जिस किसी भी संयोग और प्रेरणा से जो प्रबुध्द साथी आ जुड़े हैं. इनमे से एक का भी ग्रुप  से हटने का निर्णय "मानवता को मजबूत करने के" हमारे प्रयत्नों में एक जोड़ी सहयोगी   हाथ का अभाव बढ़ा देगा .हमारी चुनौती तब और कठिन हो जाएगी. लेकिन इसे दुखद मानने के बाद भी हम इस निर्णय  का स्वागत यह सोच कर करेंगे की निश्चित ही यहाँ से बेहतर अपनी जीवन संभावनाओं के हित में उन्होंने इस ग्रुप पर समय न दे पाने की बाध्यता के कारण यह किया होगा .

                          वस्तुतः कोई एक तरीका ही नहीं है जिससे मानवता मजबूत  की जा सकती है.मानवता मजबूती की पवित्र भावना को ज्यादा प्रभावशील करने वाले और भी तरीके हो सकते हैं ,लेकिन जब तक कोई ठोस सफलता को हम ना देख लें हम ग्रुप के आजमाए जा रहे प्रयोग में सहयोग कर सकें तो ख़ुशी होगी. समय समय पर पूर्व में महा मानवों ने सहयोग कर मनुष्य समाज के लिए मानवीय द्रष्टिकोण विकसित किये हैं .जिससे उस समय का और अब तक का समाज लाभान्वित होता रहा है. नयी समस्याओं के उत्पन्न होने से और  उनकी अनुपलब्धता से हमें यह दायित्व मिलता है , हम उनके स्थापति आदर्शों का आश्रय और अपना विवेक भी लगते हुए हम अपना "रोल प्ले "  करें.

                        महिमा मंडित हम किसी को नहीं करेंगे. लेकिन हजारों मानव जितना कुछ एक की सहयोग क्षमता रखने वाले कुछ विद्वान् हमें ग्रुप पर भाग्यवश मिले हुए हैं.ऐसे एक का ग्रुप छोड़ने के निर्णय पर पहुँचने का आभास हमें मिल रहा है. हमारा ग्रुप इससे दो महीने पहले की स्थिति में पहुँच जायेगा (जब यह अस्तित्व में ही नहीं था ) .यह स्थिति हमारे कुछ सदस्य को अप्रिय तो होगी ही . लेकिन उससे ज्यादा कटु यह बोध होगा की इस ग्रुप पर हम उनका अपेक्षित सम्मान बनाये रखने में विफल हुए.उनकी जीवन में हासिल उपलब्धियों जनित उनकी गरिमा को हमने क्षति पहुंचाई .उनको गहन मानसिक पीड़ा में हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जिम्मेदार हुए. 

                     यह व्यवहार हमें सबक देता है हम ग्रुप पर सतर्क शब्द और पवित्र लेखांश ही रखें अन्यथा हमारा स्वप्न टूट ,बिखरते जरा भी समय नहीं लगेगा .अपने अपने क्षेत्र में सफल कुछ महा विभूतियाँ यह ग्रुप अनायास ही पा गया था .भौतिक इन सफलताओं से उनकी आस्था और विश्वास में द्रढ़ता एक सहज प्रवत्ति ही है. उसे किसी भी तरीके से प्रभावित करना एक बेहद ही कठिन कार्य है.उनकी प्रतिभा ने उन्हें जीवन में एक अत्यंत सफल कहे जाने वाले स्थान पर स्थापित किया है.हम उनकी आस्था परिवर्तन भी नहीं चाहते. हम उन सफल विभूतियों से उनका सृजन क्षमता वाली प्रतिभा का उपयोग और अमूल्य समय समाज सुधार की दिशा में सहयोगी के रूप में चाहते हैं.

                  हम अपने हर अच्छी कट्टरता बनाये रखने के समर्थक हैं लेकिन हम वह पहचान भी चाहते हैं जिससे किसी को "कट्टर मानवता हित का समर्थक " का विशेषण मिलता है.ग्रुप पर यदि हम किसी को महिमा मंडित ना करेंगे तो साथ ही इस बात का गंभीर चिंतन और व्यवहार भी रखेंगे जिससे कोई भी किसी बात के लिए स्वयं में कोई हीन दिखाए जाने की कटु स्थिति में ना पहुँच जाता हो.

             हम यहाँ इस बात को बहुत ही गंभीरता से अपने चिंतन और व्यवहार में लेंगे कि जब यह ग्रुप किसी को कुछ दे नहीं सकता तो उससे उसका अपमानित अनुभव करते हुए स्वाभिमान बोध न ले ले ,जो किसी के लिए एक विषम और ग्लानि पूर्ण स्थिति होती है.

               हम ग्रुप में किसी को बहुत उचाईयों पर स्थापित नहीं करेंगे.स्वयं उचाईयों पर जाने की तमन्ना नहीं करेंगे क्योंकि उचाईयों पर पहुँच कोई इस द्रष्टि से नीचे  या पीछे देखने की भूल उत्पन्न कर सकता है कि उसके कितने अनुयायी अनुकरण कर रहे हैं, ऐसा उनका भाव विलक्षण उनकी प्रतिभा और क्षमता का मानवता को मिलने वाला उनके सहयोग की मात्रा को बुरा प्रभावित कर सकता है.

                हमें मंचासीन होने में भी खतरा दिखाई देता है. मंचासीन आदरणीय में अहम् भावना बढ़ जाने की आशंका होती है.हम व्यक्तिगत श्रेय किसी का मानें तो भी ऐसे उल्लेख से बचना चाहते हैं .कहीं ग्रुप सदस्य में श्रेय  अपेक्षा/ प्रेरित कर्म  की कमजोरी उत्पन्न न हो जाये .
                fb ग्रुप संरचना में admin होना जरुरी होने से डिफाल्ट यह विशेषाधिकार मुझे मिला है. यह विशेषाधिकार  त्याग कर एक सदस्य बनना चाहता हूँ .मुझे भय है की कभी इस विशेषाधिकार के कारण  ऐसे किसी निर्णय को ना अंजाम दे दूं जो ग्रुप (और साथ ही मानवता ) को हानिकारक हो.   

                हम इतना धैर्य हर सदस्य में चाहेंगे की ग्रुप को अभी सिर्फ दो महीने में ख़त्म होने की स्थिति निर्मित ना होने पाए .कोई पवित्र शुरुआत कर पाना  कठिन होता है. और हतोत्साहित ऐसे में आत्मग्लानि   वह कारण न पैदा कर दे जिससे थोड़ी जो मेरी क्षमता है वह  वर्तमान मानव समाज और आगामी मानव संतति की भलाई में उपयोग न हो सके.

Thursday, July 19, 2012

हमारी सामाजिक उपयोगिता

हमारी सामाजिक उपयोगिता                          

                                     हमारा परिवार होता है छोटे बच्चों को छोड़ें तो शेष सभी की एक दूसरे के लिए उपयोगिता होती है.जितना ज्यादा परिवार के लिए कोई उपयोगी होता है उसके प्रति महत्त्व और स्नेह बाकी परिजन ज्यादा अनुभव करते हैं. इससे साबित होता है कि परिवार तक में अपने कर्म और आचरण से हम महत्त्व और सम्मान पाते हैं. हमारी उपयोगिता इनसे होती है. समाज में (जिसके) हम सदस्य होते हैं .हमारे ऐसे कर्म और आचरण अपेक्षित होते हैं . यही सामाजिक द्रष्टि से किसी को उपयोगी बनाते हैं. इनके (कर्म और आचरण) स्तर में उच्चता से हमें समाज में स्नेह और सम्मान मिलता है. इन्ही से हम समाज राष्ट्र और विश्व का भला कर अपने सामाजिक ऋण को उतार सकते हैं. 

                         अपने सामाजिक कर्तव्य यदि हम अपूर्ण छोड़ें तो समाज प्रभावित होता है. स्वार्थपरकता की बढती प्रवत्ति सामाजिक कर्तव्य निभाने में असहायक है. जिससे सामाजिक वातावरण बिगड़ता जा रहा है. इसे अनुभव करने के बाद भी इसे सुधारने को तत्पर नहीं हो पा रहे हैं. सामाजिक अशांति से हम निराश भी हैं पर अपनी बारी हम चूक रहे हैं . हमारी इस चूक से दूसरों को भी ऐसी ही गलती करने का यद्यपि अधिकार नहीं मिलता है पर यह अवश्य है कि उसके कर्तव्य पलायन पर उसकी भर्त्सना का नैतिक अधिकार  हमें नहीं रह जाता है.  और ऐसे में ना हम जागरूक और ना ही अन्य को प्रेरणा का हमें अधिकार तब हमारा समाज कैसे खुशहाल और सुरक्षित  (हमारी अपेक्षा अनुसार ) रह सकेगा .

                      हालांकि बचपन से मै किसी की शारीरिक या उसकी  प्रष्टभूमि की कमी को लक्ष्य कर नहीं हँसता था . पर अन्य बातों में मै किसी की हंसी उडाता था .मुझसे कमजोर पड़ता और मुझ पर वापस प्रहार ना करता तो मुझे ख़ुशी होती . अवसर कभी ऐसे आये जब मेरे इन प्रयासों में कभी बीसा कोई मिलता और मेरा ही उपहास बना देता तो मै मायूस रह जाता .मैंने तब यह अनुभव किया कि  मुझे दूसरे पर हास्य पैदा करना तो अच्छा लगता पर दूसरे के द्वारा उड़ाया जाता अपना उपहास पीड़ा पंहुचा देता था . धीरे धीरे मेरा विवेक जाग्रत हुआ मैंने यह प्रवत्ति त्यागी और हास्य के ऐसे तरीके विकसित किये जिससे किसी को लक्ष्य किये वगैर हल्का हास्य पैदा हो जाता .

               अधबीच इस तरह लेख का आशय यह है की किसी की निंदा या हास्य से बचना भी एक तरह से हमारा सामाजिक कर्तव्य है. क्योंकि किसी का बार बार लक्ष्य करना उसके मन में हमारे प्रति एक बैर उत्पन्न करता है.फिर वह प्रत्यक्ष ना सही पर अप्रत्यक्ष हमारा हितैषी नहीं रह पाता है. किसी या अनेक के मन में हमारे प्रति इस तरह का वैमनस्य सामाजिक खुशहाली को प्रभावित करता है. यद्यपि किसी की कमी हो तो कहना बाध्यता हो सकती है पर सतर्कता से इस अंदाज में कहना चाहिए जिससे उसे स्पष्ट आभासित हो कि उसमे उसकी भलाई है और इसी द्रष्टि से उससे कहा या सिखाया जा रहा है. 

                    एक प्रवत्ति यह भी अक्सर देखने में आती है जब कोई कुछ ख़राब या बुरा करता है और उसे कहा जाये तो प्रति उत्तर में वह कह सकता है कि तुम भी ऐसा करते हो या ऐसा तो सभी कर रहे हैं,वस्तुतः कोई या कई कुछ खराबी करते हैं तो अन्य भी ऐसा करने का अधिकार नहीं पा जाते हैं . बल्कि खराबी कर रहों  को शिक्षित और ऐसी प्रेरणा दी जानी चाहिए जिससे वे खराबी करना छोड़ दें. इस तरह के सकारात्मक सोच और प्रयास सभी के सामाजिक कर्तव्य हैं. 

                    जोर जबरदस्ती से दूसरों को सुधारना संघर्ष या अशांति की आशंका उत्पन्न कर सकता है और ऐसी जबरन लाया गया सुधार अस्थाई ही होता है क्योंकि दबाव के हटते ही फिर पहली बुराई उत्पन्न होने की सम्भावना बन जाती है. ज्यादा प्रभावी उपाय अपने को स्वयं सुधार कर दूसरों को प्रेरित करना है. इस विधि किसी में आया सुधार स्थाई होता है. 

                           हमारे मन में प्रश्न आ सकता है की हम यही सब सोच विचार और उपाय करते रहे तो जीवन में आनंद और मनोरंजन के लिए कब समय निकाल पाएंगे? मुझे लगता है कि  यदि सामाजिक कर्तव्य उचित तरह से हम निभा सकेंगे तो जितना ज्यादा आसपास के वातावरण में सुधार आएगा उससे हमें आत्मिक आनंद और संतोष मिलेगा जो खुशहाली का जीवन भी सुनिश्चित करेगा. सामाजिक हमारे दायित्व इतने ही नहीं हैं ये तो कुछ उदहारण हैं .सभी स्वयं सोचें जहाँ उचित लगे अपनी क्षमता से करते जाएँ .शुरूआती प्रयास की अपर्याप्तता से विचलित हुए बिना नियमित और लम्बी अवधि इसमें जुटे रहने पर प्रयासों का प्रतिफल मिलता दिखेगा .हमें विश्वास रखना होगा यह मानवीय समाज है ,जानवरों का नहीं जिनमे सोच समझ की पर्याप्त क्षमता नहीं होती.

हमें शंका लगे तो कुछ वर्षों करके देखें निश्चित ही हमारा  शंका निवारण हो जायेगा .

Saturday, July 14, 2012

समाज के प्रति नैतिक कर्तव्य में कोताही

समाज के प्रति  नैतिक कर्तव्य में कोताही

                                        हमारे साथ कोई अन्याय करता है या बुराई करता है . हमसे वह शक्तिशाली या ज्यादा प्रभाव रखता है अथवा बदतमीज़ है . ऐसे में हम अपना रास्ता बदलकर या अनदेखी कर उससे विवाद से बच निकलना आरम्भ करते हैं. विवादों से बचना तो उचित होता है . पर उसे सुधारने का उपाय न करना तीन तरह की खराबी उत्पन्न करता है . पहला उसे बुरा ही छोड़ देना सर्वप्रथम उसके प्रति ही अन्याय है. दूसरा अन्याय सह लेना अपने आप पर अन्याय है. तीसरी और बढ़ी खराबी इस तरह की खराबियों को प्रश्रय देना समाज के वातावरण की दूषितता बढ़ाना है और समाज के प्रति हमारे नैतिक कर्तव्य में कोताही भी है.

                                      किसी से लड़ कर अपने हाथ पाँव तुडवा लेना भी कहीं ठीक नहीं है .विवाद और संघर्ष तो उसको ,हमें और आसपास वातावरण में अशांति जन्म देगा. अतः एक मात्र उपाय जो लम्बी अवधि और हमारा धैर्य और दिमागी कसरत मांगता है. वह अप्रत्यक्ष अच्छे सन्देश उस तक किसी उपाय से पहुंचाते रहने का बचता है. इस प्रयास में पहले तो हमारी ही नैतिकता बढ़ेगी.फिर धीरे धीरे बुरे व्यक्ति में सुधार परिलक्षित होता दिख सकता है. हमारे में नैतिकता बढ़ने से दूसरे जो हमसे चर्चा या संपर्क में रहते हैं, वे तुलनात्मक रूप से बेहतर सोच समझ वाले होते जायेंगे .हमारे आसपास जब अच्छे व्यक्तियों का समूह होगा तो हमसे कोई अन्याय या बुरा बर्ताव की हिम्मत करे ये संभावनाएं स्वतः कम होती जाएगी  और दीर्घ काल में शायद वह भी बदल जायेगा जिस को समस्या मान हमने इस तरह का उपाय करना शुरू किया था .

                                 मनुष्य सभ्यता के विकास के प्रारंभ से ही मनुष्य बुराइयों से चिंतित रहता आया है . बुराई मिटाने के तरह तरह के यत्न और उपाय हमेशा से किये जाते रहे हैं .अब तक बुराई मिटाने के लिए जो वार हम करते आये हैं ,वे इतने स्पष्ट और सटीक नहीं हो सके हैं , जो सिर्फ बुराई को मार गिराते हों. इन प्रहारों में बुराई के साथ उसका धारक भी आहत होता आया है . इस आहत बुरे मनुष्य की प्रतिक्रिया में बुराई और प्रखर हो जाती है.जिस दिन हमारा बुराई पर लक्ष्य करता निशाना इतना सटीक हो जायेगा जिससे बुराई का ही खात्मा होगा और बुरे व्यक्ति में से सिर्फ वही निकल जाएगी उसे कोई चोट नहीं पहुंचेगी उस दिन से बुराइयाँ कम होना आरम्भ हो जाएगी. हमें लक्ष्य पर वार में और अधिक अभ्यास की आवश्यकता है.    

                                    विभिन्न  क्षेत्र में सफल व्यक्तियों की आज विश्व ,देश ,किसी भी धर्म या समाज में कोई कमी नहीं हैं. ऐसे सफल सारे व्यक्ति बेहद प्रतिभा के धनी हैं उनका अनुकरण किया जाना भी उचित है . उनका सम्मान किया जाना सर्वथा आवश्यक और उचित है. पर जिस तरह एक दूसरे पर दोषारोपण  एवं आलोचना करते हुए हम अपनी और समाज की कई बुराइयों को रोकने में असफल होते जा रहे हैं .ऐसे में हमें ऐसे सफल  कुछ व्यक्तियों की बेहद आवश्यकता है जो अपने कर्मों और आचरण से समाज के सर्व वर्गों ( चाहे वृध्द हों या युवा ,चाहे अमीर हों या गरीब या कुछ और भी) इस तरह प्रभाव उत्पन्न करे कि उनसे हर धर्म ,भाषा ,राष्ट्र या हर उम्र के मनुष्य प्रेरणा ले सकें . जो समाज में एक सुखद संतुलन ला सकें.

                                     दर-असल जो आज मनुष्य करता है वह सारे ही कर्म आवश्यक माने जा सकते हैं . मनुष्य कोई भी चीज करता ही इसलिए है कि समय और परिस्थिति में वे कर्म उसे या तो आनंद या संतोष देते हैं , या उसके अहम् को संतुष्ट करते हैं . अतः अनुचित वे कर्म नहीं हैं . अनुचित जो वस्तु है वे किसी के द्वारा किये जा रहे किसी कर्म की मात्रा है. जैसे आय किसी व्यक्ति या परिवार के जीवन यापन के लिए जरुरी है लेकिन बहुत कम या ज्यादा मात्रा में वह अपर्याप्त या अनुचित हो जाती है. इसी प्रकार स्त्री पुरुष के एक दूसरे से सम्बन्ध भी एक सीमा में आवश्यक हैं. लेकिन यह वह प्रश्न  है जो समाज में असुरक्षित और अशांति बढाने का बहुत बड़ा कारण हो रहा है. किसी भी आयु वर्ग का आज का मनुष्य विपरीत लिंगी को सिर्फ इसी द्रष्टि से यदि देखने लगेगा तो सामजिक संतुलन बिगड़ ही जायेगा .

                         इस प्रकार अनेक उदाहरण लिए जा सकते हैं जहाँ कर्म बुरे नहीं हैं . बुराई है उनकी मात्रा का अधिक या कम होना . कुछ कर्म जैसे दया ,परोपकार और सज्जनता  के व्यवहार समाज में अत्यंत कम मात्रा में अस्तित्व में बच रहे हैं. इनकी ऐसी कमी होना एक बुराई हो गयी है . जबकि बहुत अधिक स्वार्थ , बहुत अधिक विपरीत लिंगी सम्बन्ध तथा उचित या अनुचित तरीके से बहुत अधिक धन-अर्जन बुराई बन जाता है.

                           बुराई ऐसा सक्रमण पहले ना था जैसा अब है .पहले बुराई तरंगों से फैलने वाली वस्तु नहीं थी जब आज के तरह की इन्टरनेट , दूरदर्शन या दूरभाष (मोबाइल फोन) जैसे त्वरित प्रसारित होने वाले साधन सुगम नहीं थे . इन साधनों के आ जाने से बुराई तरंगों से फैलने वाला संक्रमण हो गया है .  दैहिक संबंधों की अधिकतम चाह और सोच वाली बुराई का संक्रमण बढ़ाने में इन्ही साधनों ने (तरंग के माध्यम) से बढ़ा दिया है . अश्लील सामग्री इस के द्वारा अत्यधिक मात्रा में फैलाई और देखी पढ़ी जा रही है.   ऐसा नहीं है की इन माध्यम से सिर्फ बुराई ही फैलाई जा सकती है . अच्छाइयों का प्रसार भी इस पर करने की चेष्टा की जाती है. पर इसे ऐसे समझा जा सकता है जैसे ध्वनि तरंग के मनुष्य की सुनने समझने की सीमा अलग है वहीँ चमगादड़ की अलग. उसी तरह बुराई की तरंग सामन्य मनुष्य सुगमता से सुन समझ रहा है. लेकिन अच्छाई की तरंगों को ग्रहण करने में विशेष यत्न और ज्यादा समय लगता है. इतने धैर्य और यत्न आज के मनुष्यों की आदत नहीं रह गई है.
                       

                              इन सब तथ्यों से स्पष्ट है हमें प्रतिभाशाली ऐसे सफल व्यक्ति आज चाहिए हैं जो सभी के सब तरह के कर्मों में उचित संतुलन लाने की प्रेरणा दे सकें . इस कार्य में हो सकता है की अपने जीवन में वे अधिक धन और सुविधा एकत्रित न कर सकें पर अगर सच्ची प्रेरणा समाज पा सका तो  वह देश एवं समाज के लिए अपार वैभव और अपार सुविधाओं का कारण बनेगा क्योंकि सुखद जीवन किसी के लिए भी सुविधाजनक होता है . और सामजिक संतुलन लाने में यदि कोई सफल होता है तो वह सभी के जीवन सुखों की व्यवस्था में सहयोगी होगा .

कृपया आप अवलोकन करें, अपने आपका  क्या ऐसे सफल व्यक्ति आप बन जाना चाहेंगे ?

Friday, July 6, 2012

जीवन पहलू

जीवन पहलू

                                     मेरी पत्नि विवाह पूर्व अपेक्षाकृत ज्यादा धनवान परिवार में पली बढ़ी हैं. मुझे यह भली जानकारी है कि मेरे साथ की आर्थिक कुछ कमियों को बखूबी निभाया है. यह भी अनुभव है कि उन्होंने मध्यम वर्गीय सोच और मानदंडों का और हमारे परिवार की उनसे अपेक्षाओं का पूरा ध्यान रख मेरा साथ दिया और हमारे बच्चों का बेहद उचित संस्कारित   पालन पोषण किया है और व्यावहारिक शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षा का संतुलन उनमे लाने का भरपूर प्रयास पूरे समय किया है. यह में बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि उन्हें सार्वजानिक जीवन में अवसर हासिल होते तो वहां सफल हो उनसे आसपास समाज को बहुत ही लाभ होता.पर पारिवारिक दायित्वों में व्यस्त रहने के बाद प्रत्यक्ष न सही पर अप्रत्यक्ष  समाज का योगदान उनसे मिला. उन्ही के सहयोग के कारण में विभाग के प्रति मेरे कार्य के माध्यम से में समाज सेवा (हमारे विभाग से जन अपेक्षा)  को बेहतर ढंग से ज्यादा समय कार्य पर उपस्थित रहते और करते हुए करता रह सका हूँ.हमारे बच्चे पढाई तो अच्छी करते रहे हैं साथ ही उनमे राष्ट्र के अच्छे नागरिक कहलाने की पूरी संभावनाएं अभी दिखाई देती हैं .आशा है प्राप्त शिक्षा और संस्कारों से आगे के उनके जीवन में वे देश और समाज को अच्छा योगदान दे पाएंगे.
                                          हमारे बच्चों की स्कूली शिक्षा पूरी होते होते मेरे से दूर रह रहे कस्बाई मेरे पिता और भाई के परिवार की एक अपेक्षा हमसे हुयी है.मेरे भाई का बेटा जो कसबे के स्कूल में पढ़ रहा था वहां के शिक्षा स्तर में कमी से और पारम्परिक लाड दुलार के बीच पलते हुए अपेक्षित रूप से प्रदर्शन नहीं कर पा रहा था.मेरे भाई और उनकी पत्नि ने यह चाहा कि उसे  हम अपने साथ रख आगे पढ़ायें और उचित कोचिंग दिलवाएं.आजकल ऐसी पारिवारिक जिम्मेदारी लेते और देते शिकवे शिकायतों से बाद में आपसी कटुता के उदाहरण जो द्रष्टव्य होते हैं उनका विचार कर मैं और पत्नि प्रारंभ में दुविधा में थे. हमने भाई और उसकी पत्नि की अपने बेटे की भविष्य की खुशियों की लालसा को पहचाना . हमारे किशोरवय भतीजे की आँखों में तैरते उन सपनों को देखा जिसमे वह भविष्य में बहुत कुछ कर गुजर एक सफल व्यक्ति होना चाहता है.जबकि अब तक उसकी मेहनत और शिक्षा उस स्तर  की नहीं हो सकी है जो उसे उन बुलंदियों पर पहुंचा सके .हमने हमारे माता पिता की हमसे अपेक्षाओं को पहचान में कोई भूल नहीं की .वतुतः मेरे माता पिता के लिए उनके पोते पोतियाँ चाहे वे हमारे बच्चे हों या मेरे भाई के बच्चे हों एक बराबर हैं.
                                             हमने यह भी समझा कि नौकरी के कारण हम दूर रहते हैं और अपने माता पिता को वह सहारा नहीं दे पाते हैं जो वृध्दावस्था में बेटे बहु से अपेक्षित होता है .यह सहारा मेरे भाई और मेरे बेटे परिवार और व्यवसाय में उनके साथ रह निभा पाते हैं.हमने यह भी समझा कि मेरे शिक्षा पर मेरे पिता ने भाई कि तुलना में ज्यादा व्यय किया था . माता पिता के ऋण जीवन में कुछ भी कर देने से पूरे नहीं उतारे जा सकते . हमें लगा कि आशंकाओं के बाद भी परोक्ष रूप से मेरे माता पिता की ही सेवा होगी अगर भतीजे की पढाई आगे हम अपने क्षत्र-छाया में कराएँ .आगे आकर हमने उनकी दुविधा आसान की और स्वयं उनके कम कहे को ज्यादा समझ भतीजे को अपने पास रख स्कूल और कोचिंग में उसका प्रवेश दिलवा दिया .
                                      मेरी पत्नि को स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ तकलीफें हैं . हामी तो मेरी रही पर विभागीय मेरी व्यस्तताओं के कारण  बच्चे की सारी आवश्यकताओं चाहे वह स्कूल,कोचिंग की व्यवस्थाओं में मार्केट की दौड़ा भागी हो चाहे सुबह जल्दी उठ टिफिन तैयार करते घरेलु दैनिक दिनचर्या हो या बच्चे की बोलचाल से लेकर नैतिक शिक्षा हो सारे ही कर्तव्य पत्नि ही निभा पा रही है.
                              लेख अपने गौरव गाथा के लक्ष्य से नहीं प्रस्तुत कर रहा हूँ पर व्यस्तताओं में जो इस गहराई से जीवन पहलुओं को नहीं देख या सोच पाते हैं वह उनकी आसानी के लिए लिखा गया है. कुछ कर्तव्य जो आज कम निभाए जा रहे हैं उस पर विवेक बुध्दि आकृष्ट करना चाहता हूँ. इन्हें निभाने में थोडा त्याग लगेगा यह तो निश्चित है लेकिन पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.थोडा थोडा सब इस दिशा में करें . परिवार की सेवा के माध्यम से हम समाज और राष्ट्र की ही सेवा करेंगे . फिर समाज ज्यादा अच्छा हमें ही लगेगा और व्यवस्था और दूसरों से हमारी शिकायतें तभी कम होगीं . हम दूसरों की अपेक्षाओं की पूर्ती करेगें तो हम और दूसरों को  परनिंदा की आवश्यकता न पड़ेगी . ऐसे उदाहरण सभी के प्रेरणाकारी होगें . सोचिये छोटी ये बातें थोड़े ये पारिवारिक त्याग क्या सामाजिक वातावरण को सुधारने में बेहद मददगार होगें या नहीं.

Tuesday, July 3, 2012

स्व-आलोचना

स्व-आलोचना

                                   अप्रत्यक्ष अपनी आलोचना स्वयं करते हैं अगर अपने से अन्य की औचित्यपूर्ण अपेक्षाओं की पूर्ती हम नहीं कर रहे हैं, फिर हम चाहे नौकरीपेशा ,चिकित्सक ,अधिवक्ता व्यवसायी या शिक्षक जो भी हों.   ट्विटर ,फेसबुक ,ब्लॉग या सामान्य हमारे वार्तालापों में व्यवस्था के विरोध में हमारी नाराजगी और शिकायतों का लेख या कथन वस्तुतः  स्व-आलोचना है. हममें से कुछ अपनी कमियों के जानकार और अधिकांश अपनी कमियों से बेखबर हो ऐसा करते हैं. अगर हमें अपनी कमी अनुभव में न होगीं तो सुधार का प्रयास भी न कर पाएंगे . अतः सर्वप्रथम अपनी कमी देखने समझने की कोशिश करनी चाहिए , और गंभीरता से उन्हें दूर करने की कोशिश भी करनी चाहिए . ऐसी हर कमी को द्रढ़ता से मिटाने का प्रयास करें जिन्हें दूसरों में देख हम नाराज और निंदा को बाध्य होते है. अगर हम अंदाजा कर पायें कि हममें क्या खराबियां हैं तो जल्द ही बहुत हद तक ठीक कि जा सकती हैं. पर यदि हम ही नहीं जानते अपनी कमियों को , तो उन्हें दूर करना मुश्किल है. क्योंकि अन्य कोई हमें बताएगा तो हम चिढ जायेंगे .प्रतिक्रिया में क्रोध में आयेंगे पर सुधार शायद जिदवश न करेंगे.
                                  हमारे अपनी खराबियों को दूर करने के दृढ प्रयत्न न होंगे तो नेट पर प्रष्ट भरते चले जायेंगे पर व्यवस्थाओं में परिवर्वर्तन द्रष्टव्य न होगा और हमारी आपत्तियां और शिकायतें आजीवन बने रहेंगी .अगर अपनी खराबियों के जानकार होकर भी हम व्यवस्था और  अन्य   कि कमी को लक्ष्य करते हैं तो हमारी यह सोच भी हो सकती है कि जब दूसरे नहीं बदल रहे हैं तो हमारे अकेले बदलने से क्या फर्क पड़ेगा.काफी हद तक यह तर्क उचित है पर पहल किसी को तो करनी होगी.किसी दूसरे को हम बदलें उसमे जो प्रयास लगते हैं उससे बहुत कम  प्रयासों में स्वयं को बदल लेना संभव होता है. स्वयं को बदल लेना सबसे आसान होता है.अपराध या भूल जो अनजाने में कोई भी कर सकता है 
                                  कुछ उदहारण यहाँ रखने के पहले यह लेख उचित होगा कि न तो में कृषक (अन्नदाता )   न चिकित्सक (पुनर्जीवन प्रदाता ) और न ही शिक्षक (ज्ञानदाता ) हूँ .फिर भी मनुष्य समाज में इनके कर्तव्य और कर्म को सबसे पवित्र मानता हूँ . ये अगर सच्चे हैं तो मेरे नायक हैं जिनका अनुकरण स्वयं और सारों के लिए सर्वोपरि मानता हूँ.मेरे ऐसे नायकों में से शिक्षक की कमियों को सबसे पहले लक्ष्य बेहद मजबूरी में ही कर रहा हूँ. एक शिक्षक विद्यालय या महाविद्यालय में एक लेक्चर 1 घंटे में पूरा करते हैं. कक्षा में 50 विद्यार्थी उपस्थित हैं अगर किसी कारण शिक्षक अपना विषय ठीक न पढ़ा सके तो अनजाने में 50 विद्यार्थी घंटे के नुकसान का अपराध उनके खाते में आ जाता है.
                                              एक व्यक्ति अपने कुत्ते के साथ सैर पर निकलता है और स्वच्छ फुटपाथ या सड़क के बीचोंबीच उसका मलत्याग करवा देता है,उसी तरह अन्य एक व्यक्ति फुटपाथ या सड़क के बीचोंबीच थूक जाता है. सार्वजानिक शौचालयों (रेल ,स्टेशन या अन्य स्थान में) कोई व्यक्ति अनुचित प्रयोग से गंदगी छोड़ आता है . इन सभी ने अपने कार्य तो निपटा लिए होते हैं पर  उन्होंने यह नहीं सोचा होता है कि बाद में वहां   आने वाले के मन में उनके लिए कितनी लानतें और अपशब्द आते हैं .  एक भी ऐसी बात सामने कोई कह दे तो क्या सहन की जा सकती हैं पर पीछे इतना अपने खाते में दर्ज करवा लेते हैं.
                                 अब शायद यह असामान्य नहीं रह गया हो पर कुछ वर्ष पूर्व तक रिश्वत देने वाला पहले यह सोचा करता था की जिसके सम्मुख वह रिश्वत पेश कर रहा है कहीं उसके स्वाभिमान को आहत तो नहीं करने जा रहा है.वास्तव में रिश्वत दे या ले कर हम जो हासिल कर रहे हैं वह हमें न भी मिलता तो हमारे पास से  कुछ बहुत नहीं घट जाने वाला था .पर इसके बाद जो घट गया वह हमारा ऐसा संतोष था जिस पर हम गर्व से कायम रह सकते थे कि हमारे पास जो कुछ भी है वह सब हमारी नैतिकता का बूते ही है.  आलोचना या टिप्पणियां ख़राब व्यवस्था को लक्ष्य कर बहुतायत में दिखाई और सुनाई  दे रही हैं उनमे किसी भी आक्षेप के दायरे से हम बाहर होते.  अनजाने में आज की तुलना में  कम व्यवस्था की खराबी का श्रेय शायद हमें प्राप्त रहता.
                                जो समस्याएँ दूर करना आज असंभव सा लग रहा है वह जादुई रूप में आसानी से दूर हो सकती है यदि समग्र जाग्रति के विचार और प्रेरणाएं देने का दायित्व हम स्व-प्रेरणा से ग्रहण कर लें. थोडा थोडा परिवर्तन हम स्वयं में अगर नहीं कर सकते हैं  तो फेसबुक और ब्लॉग और ऐसे ही अन्य माध्यमों पर प्रदर्शित की जाने वाली चिंता और मनुष्य हितैषी छवि मात्र हमारा एक अभिनय होगा .हम अभिनय छोड़ यथार्थ हितैषी बने इस हेतु इस लेख में दिए थोड़े ही संकेत समझदारों के लिए पर्याप्त हैं .