Friday, August 29, 2014

सूचना (प्रसारण) क्रांति आनी शेष है

सूचना (प्रसारण) क्रांति आनी शेष है
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यों तो नेट , टीवी और इलेक्ट्रॉनिक सहित प्रकाशन मीडिया का जाल और पहुँच से आज कुछ छूटा नहीं बचा है। लेकिन समाज ,देश और दुनिया में दुःख , असुरक्षा ,अपराध और अविश्वास की व्यापकता है।  ऐसा भी कह सकते हैं जितने इन माध्यमों में आधुनिक आती गई है।  उतनी ही सामाजिक समस्याओं और अपराधों में बढ़ोत्तरी होती गई है।
इन क्षेत्र (मीडिया) से जुड़े व्यक्ति अपने योगदानों से भले संतुष्ट हों ,आत्ममुग्ध हों या आर्थिक प्रगति और अर्जित प्रसिध्दि और सम्मान से सफलता  अनुभूति करते हों , लेकिन अगर  सामाजिक समस्या और अपराध तथा अविश्वास ,असुरक्षा और अशांति यदि कम नहीं की जा सकी हैं तो वह इन माध्यमों की असफलता का ही द्योतक है।
दिन भर  माध्यमों पर बकबक ,अश्लीलता के प्रसारण , लेख तथा उल्लेख, समाज में  आडम्बर ,ऐय्याशी की प्रवृत्ति और व्यभिचार को ही बढ़ावा देते हैं तो आधुनिक माध्यमों के उपयोग ( प्रस्तुतक , श्रोता और दर्शक ) की शैली पर प्रश्नचिन्ह लगता है। दोषपूर्ण  प्रस्तुतियां अधिक जिम्मेदार मानी जायेगी।
आवश्यकता है उन्नत और  आधुनिक हुये माध्यमों  की विश्वहित ,देशहित ,समाजहित और मानवता हित में प्रयोग और उपयोग की है।  जो समाज में सुख -शांति , परस्पर विश्वास और भाईचारा को प्रवाहित कर सके।


आज की हमारी पीढ़ी को यह सूचना (प्रसारण) क्रांति लानी है।  हमारा मनुष्य -जीवन दायित्व यही है।


राजेश जैन
29-08-2014

 

Wednesday, August 27, 2014

जीवन विचित्रता

जीवन विचित्रता
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मनुष्य (अन्य प्राणी भी) , जन्म के बाद किसी का पाल्य होता है।फिर बड़ा होता है , अपनी संतति के जन्म में निमित्त बनता है।  उसके पूर्व तक अपने बेटे -बेटी के बिना भी जीवन जी रहा होता है। तब बिना उनके भी सहज जी रहा होता था।  लेकिन उनके जन्मने के बाद विशेषतः मनुष्य ( माँ-पिता) के प्राण बेटे -बेटी में बसने लगते हैं।  जिनके बिना जीवन सहज चला करता था।  अब उनके विछोह की कल्पना भी पीड़ा पहुँचाने लगती है।


चाहे /अनचाहे मनुष्य के जीवन में वह दिन भी आता है जब स्वयं संतान से या उसकी संतान उससे दूर जाती है।  जीवन के आरंभिक पच्चीस -तीस वर्ष जिनका अस्तित्व ना होने से उस संतान के बिना सहज रहता था।  जीवन में ही किसी समय से कुछ समय के साथ के उपरान्त बेटे -बेटी से विछोह असहनीय हो जाता है।


विचित्र है किन्तु जीवन चक्र होता ही ऐसा है इसलिये विचित्रता पर ध्यान नहीं जाता है। पहले भी अकेला था फिर अकेला हो जाता है। फिर रोना किस बात का होना चाहिए ?


संयोगों से जो उसके परिवार में जन्मे , मनुष्य उनके संस्कारित लालन -पालन करे.  जिस से वे मानवता के रक्षक बन सकें। जो  देश -दुनिया और समाज में दया -त्याग और सर्वसुख के लिए समर्पित भावना से स्वयं जीवन यापन कर अन्य को ऐसी सद्प्रेरणा दे सकें।


यह मानवीय दायित्व यदि हम निभा सकें तो अकेले होने की यथार्थ कटुता के बीच भी हम अपने जीवन में मधुरता की अनुभूति कर सकते हैं।  इसे ही हम जीवन सार्थक करना भी कह सकते हैं।


राजेश जैन
27-08-2014

Monday, August 25, 2014

पत्नी (एक नारी )

पत्नी (एक नारी )
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एक सोचता था , ऐसा करना असंभव है , वैसा करना उसके लिये संभव नहीं है।  एक दिन उसके जीवन में पत्नी का आगमन हुआ।  पत्नी के अनुराग से , उसके सहयोग से और उसकी सद्प्रेरणाओं से धीरे-धीरे वह बदलता गया फिर वह ऐसे असंभव तरह के कार्यों को अंजाम देने लगा।  इन संभव हुए असंभवओं से उसे ज्ञात हुआ कि मानवीय सामर्थ्य बहुत होता है , यध्यपि इसकी अनुभूति और इस का विश्वास , कर गुजरने के बाद ही ज्यादा सही होता है।


वास्तव में , अनुराग (प्रेम) , सहयोग और सद्प्रेरणाओं में वह ताकत होती है। जो मनुष्य को साधारण से असाधारण और महान बना सकती है।


पत्नी को जिस तरह उपहास बनाया जाता है , वस्तुतः वह इतनी हीन नहीं होती।  उपहास वास्तव में पति की वह हीन क्षमता होती है , जिसके कारण वह  समर्पिता अपनी पत्नी के अनुराग (प्रेम) , सहयोग और सद्प्रेरणाओं का उचित प्रयोग नहीं कर पाता है।

--राजेश जैन
26-08-2014

Monday, August 18, 2014

हम उसे क्या कहें ?


हम उसे क्या कहें ?
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बैलगाड़ी चला करती थी , कभी उसके नीचे कुत्ता भी चला आता था। कुत्ता उसके नीचे धूप की प्रखरता से बचते अपनी यात्रा तय कर लेता था।  उसकी यात्रा इस तरह शीतलता की अनुभूति से तय होती थी।  अगर नीचे चलने वाला कुत्ता यह सोचने लगता कि बैलगाड़ी वह खींच रहा है तो शीतल अनुभूति के स्थान पर पूरी यात्रा में भ्रमवश एक बोझ ढोने की अनुभूति उसे होती ,जबकि बोझ यथार्थ में उसके ऊपर नहीं होता।

इसी तरह मनुष्य , एक ज्ञान पूर्वक जीवन से परिपूर्णता के वरदान के साथ जन्मता है।  अपनी जीवन यात्रा में उसकी शीतलता युक्त आनंद के साथ वह सर्वहितकारी कर्म और आचरण से पूरे जीवन की सुखद अनुभूति उठा सकता है।  लेकिन भ्रमवश कुछ प्रवृत्तियाँ सुखकारी समझ कर उत्पन्न का लेता है , यथा हिंसकता से दूसरे को क्षति पहुंचाने की , लालच से अधिक साधनों के संग्रह की और वासना से कई कई संबंधों की उत्सुकता की। ये सब सुख के भ्रम होते हैं , लेकिन जीवन भर उसके बोझ के नीचे दबा रहकर , मनुष्य जीवन की सुखदता और सार्थकता से वंचित रहकर दुःख ही पाता है।

कुत्ता यदि भ्रम पाले तो उसकी अल्पबुध्दि से सहानुभूति हमें होना चाहिये।  किन्तु ज्ञानमय उन्नत मस्तिष्क के होते हुये मनुष्य यदि भ्रम पाल सुख के स्थान पर दुखद जीवन यात्रा पूरी करे तो हम उसे क्या कहें ?

-- राजेश जैन
18-08-2014

Saturday, August 16, 2014

भारतीय भाई

भारतीय भाई
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नारी अपेक्षा को प्रमुख कर लेख है।  (भाई , पुरुष का भी भाई होता है ).
भारतीय भाई , नारी द्वारा, उससे रक्षा सूत्र में बंधता है। और उसे (बहन को ) आजीवन रक्षा का विश्वास देता है। 
आजीवन नारी (बहन ) की रक्षा , कभी तो संघर्ष और बलबूते से भी करनी होती है। डाँट-डपट और धमकियों की सहायता से भी करनी होती है। और कभी अपने बचाव उपायों से भी की जाती है। लेकिन नित दिन इन्हीं का सहारा स्वस्थता/शांति  (समाज और व्यक्तिगत दोनों )  दृष्टि से प्रमुख विकल्प नहीं होता है।

हमारी संस्कृति , इसलिये दूसरे परिवार की बहन -बेटियों को भी एक भाई की दृष्टि से देखने /मानने की हिमायती है।
जब समाज/देश में पुरुष की दृष्टि भाई की तरह सभी नारी को देखने/मानने की होने से सभी पुरुष संस्कृति का पालन करते हैं तो सभी की बहन -बेटियों की रक्षा स्वतः सुनिश्चित होती है। (कुछ ही नारी से अन्य रिश्ते होते हैं - पत्नी , भाभी या सासू माँ आदि )

संस्कृति सम्मत आचरण और कर्म करने वाला पुरुष ही भारतीय भाई होता है।

हमारी भारतीय संस्कृति इस तरह सामाजिक स्वास्थ्य , विश्वास और शांति के गुण के साथ मानवता की पोषक होती है।

भारतीय होने से हमारा अहो भाग्य है कि हम इसका बचाव और प्रवर्तन करें , ना कि हल्की संस्कृतियों के प्रभाव में आकर इस भव्य विरासत को खो देवें।

--राजेश जैन 
17-08-2014

Friday, August 15, 2014

भारतीय बच्चे

भारतीय बच्चे
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जब तक माँ -पिता की छत्रछाया रहती है , ये अगर पचास -साठ वर्ष के भी हो जायें , उनके समक्ष बच्चे ही होते हैं.
जीवन भर अपने माँ -पिता के त्याग - निस्वार्थ उनके लाड़ का स्मरण रखते हैं।
कितने भी बड़े पद - हैसियत के हो जायें , उनके समक्ष छोटे ही होते हैं।  आदर उनके लिये आजीवन रखते हैं।
उनकी असहाय (आश्रित) अवस्था में भी अपने पास ही रखते हैं।  वृध्दाश्रम में नहीं भेजते हैं।
उनकी सेवा-सहायता को व्यस्तता में भी तत्पर होते हैं।
अपनी निज महत्वाकांक्षाओं को भुला , आवश्यकता हो जाये , तो जीवन के कुछ वर्ष उनको समर्पित करते हैं। अर्थात अपने जीवन के वर्ष , उनकी आयु बढ़ाने को दे देते हैं।

यह वो संस्कृति होती है। जिसमें परिवार ,समाज और माटी (इस देश) में , त्याग , विश्वास , भाईचारा और परस्पर स्नेह की पावन गंगा अनवरत बहती है।

                                                  "धन्य हमारी भव्य संस्कृति है
                                                  अन्य को जीवन आधार देती है
                                                जीवन यहाँ मनुष्य का मिला तो
                                                अन्य जीव पुष्टि की प्रेरणा देती है "


इस संस्कृति का बचाव किया जाना मनुष्य अस्तित्व (मानवता ) के लिये बेहद आवश्यक है।

हम भारतीय हैं . अहो भाग्य ,यह दायित्व हमारा है।

-- राजेश जैन
15-08-2014

Wednesday, August 13, 2014

भारतीय माता-पिता

भारतीय माता-पिता
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अपनी छोटी सी आय में ,छोटे घरों में , परिवार के भरण -पोषण की व्यवस्था हेतु संघर्षरत रहते हैं. बच्चों को उच्च संस्कार और शिक्षा दिला पाने का अधिकतम प्रयास आजीवन करते हैं।
बच्चे उनको दिये हुये विश्वास को अगर बनाये रखते हैं।  इतने में ही गौरवान्वित होते हुये अपने जीवन को धन्य मानते हैं।
पूरे विश्व में इस तरह की पैरेन्टिंग ( माँ-पिता बनने ) की निस्वार्थ मिसाल सिर्फ भारतीय माता-पिता ही प्रस्तुत करते हैं।  इस संस्कृति का बचाव किया जाना मनुष्य अस्तित्व (मानवता ) के लिये बेहद आवश्यक है।

हम भारतीय हैं . अहो भाग्य ,यह दायित्व हमारा है।

-- राजेश जैन
13-08-2014
 

Sunday, August 10, 2014

नारी -आधुनिक परिधान और बढ़ते अपराध

नारी -आधुनिक परिधान और बढ़ते अपराध
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नारी की देश और समाज में दशा सुधारने या उन्हें शोषण और अत्याचार मुक्त करने का विषय उठाया जाता है , तब कुछ तर्क उठाये जाते हैं। जिसमें प्रमुख उनकी वेशभूषा / परिधान को देश में होने वाले उन पर शोषण का कारण बताया जाता है।
लेखक ऐसी अनेकों नारी का उदाहरण दे सकता है , जो समय /समय में विभूषित तो आधुनिक परिधान (जीन्स ,गाउन आदि ) में होती हैं और शीलवान भी होती हैं।  इसके विपरीत परम्परागत परिधानों में भी नारी को शील से भटका हुआ भी देखने में आता है।  अतः कहा जा सकता है कि सुशीला होना परिधान निरपेक्ष होता है।
जब आधुनिक परिधान पर नारी विरुध्द अपराध का कारण आरोपित किया जाता है।  तब पुरुष अपनी कमजोरी से ध्यान बँटाता प्रतीत होता है। क्योंकि अपराध तो छोटी छोटी बच्चियों के साथ भी हो रहे हैं. कुछ हद तक इस तर्क को माना भी जाये तब भी इन अपराधों के उन्मूलन का यह बहुत ही सतहीय उपचार लगता है।
पुरुष की नारी विरुध्द दुष्टता के दूसरे कारण जड़ में हैं। उन जड़ों को पहचान कर उन्हें नष्ट करने पर ही नारी को हम अपनी संस्कृति अनुरूप गरिमा और आदर दे सकेंगे। और स्वयं अपने परिवार का सुख सुनिश्चित कर सकेंगे।
वास्तव में देश में फिल्मों के अस्तित्व में आने के बाद नारी शोषण के अपराध क्रमशः बढ़ते गए हैं।  फिर आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर वल्गर सामग्री की उपलब्धता और पुरुष वासना -जनित सोच में उसे स्कूल /कॉलेज में पढ़ती तथा आजीविका को बाहर निकलती नारी तक पहुँचाने की कुत्सित प्रवृत्ति इन अपराधों की जड़ है।  इसमें नशाकारक सामग्रियों का सेवन पुरुष ( और फुसलाई गयी नारी) द्वारा कर लेना कैटेलिस्ट (उत्प्रेरण) का काम करता है। इन कारकों के प्रभाव में पुरुष दृष्टि ख़राब होती है।  वह हर नारी को वासना की दृष्टि से देखता है।  अधिकाँश पुरुष घर-परिवार की पृष्टभूमि और अपनी सामाजिक स्थिति को ध्यान में रख एक मर्यादा का निर्वाह करते हैं। लेकिन कुछ अनुशासन और मर्यादा को ताक पर रख छिछोरेपन पर उतरते हैं। उन्हें दिखती हर नारी वासना पूर्ती का साधन ही लगती है।  पास -पड़ोस और सगे संबंधों को भी वे विस्मृत करते हैं।

आवश्यकता ऐसे कारकों की उपलब्धता पर नियंत्रण की है।  पुरुष जो जन्म किसी परिवार में लेता है। कोख से जन्मा नारी से होता है।  परिवार में यदि रहता है तो नारी भी उसके परिवार की अंग होती है। वह झूठे बहानों/तर्कों का सहारा लेने की जगह यदि इन वस्तुओं का अस्तित्व मिटाने का साहस और इक्छा शक्ति का परिचय दे सके तो ही यह देश भव्य सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप मार्ग और दिशा में लौट सकेगा।  अन्यथा हर परिवार की नारी पर उसके विरुध्द अपराधों की आशंका रहेगी। और वह परिवार का भाग्य ही होगा कि उनकी परिजन नारी निर्दोष और शीलवान जीवन जी सकेंगी।

लेखक पुरुष है , नारी क्या सोचती और समझती है।  उसकी राय /मत बिना लेख अधूरा ही होगा।  स्वस्थ चर्चा अपेक्षित है।

--राजेश जैन
10-08-2014

Saturday, August 9, 2014

मानसिक कुण्ठायें

मानसिक कुण्ठायें
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ग्लैमर पसंद इस युग में सिध्दांत , नैतिकता और न्यायप्रियता ताक पर रख छोड़ी गईं हैं. योग्यता से अधिक अति महवकांक्षाओं के शिकार हो सभी अधिक से अधिक ऐशो-आराम के सामान जुटाने के चक्कर में अति व्यस्त हो गए हैं। वासनापूर्ती की प्रधानता वैचारिकता पर हावी है।  सभी प्रयास (भ्रष्ट और अनैतिक भी ) के बाद भी अर्जित धन ,ऐशो-आराम और वासनापूर्ती की अतृप्त पिपासा को मिटा नहीं पाता है।  परिणामस्वरूप  मानसिक कुण्ठाओं का बसेरा मनो मस्तिष्क में होता है।नारी को गरिमा प्रदान नहीं की जाती है।  उसको फुसलाया जाता है। फिर नारी शोषण के नित नए किस्से देश को देकर इस पीढ़ी के लिखे जाने इतिहास को कलंकिंत कर रहे हैं। नारी को एक लज्जाजनक जीवन जीने की विषम परिस्थिति में ला छोड़ रहे हैं।  तब भली बातें और अच्छे विचार के प्रति भी प्रतिक्रियायें गन्दी होती हैं।  कुंठित मन अच्छे सन्देश ग्रहण नहीं कर पाता है।
कभी अनुकूलताओं का वह दौर भी लगातार चलता है।  जिसमें अच्छी बातों को भी ध्यान में नहीं लाया जाता है।  दोनों तरह के ( अति आशा और निराशा वादी ) भली बातें और अच्छे विचार के हास्य -उपहास में टालते हैं।  ऐसा समझाने वाला या लिखने/कहने वाला के प्रति कोई आदर ना दिखाते हुए उस स्वस्थ -परोपकारी मना व्यक्ति की हँसी उड़ाई जाती है।  हमारी संस्कृति की परम्पराओं से विपरीत अपसंस्कृति के प्रभाव में एक बेहद निकृष्ट सा जीवन जीकर उसमे अच्छाई और महानता दिखाना आज आम बात है।
फिर भी इस समाज और देश में ऐसे भले- परोपकारी ऑनेस्ट व्यक्तिओं की आवश्यकता रहेगी।  जो ऐसा कर रहे हैं वास्तविक नायक वे ही हैं।  उन्हें चुनौतियों/अनादर से घबराना नहीं चाहिये।  ऐसे सभी महामनाओं को लेखक का नमन है।

--राजेश जैन
09-08-2014

Friday, August 8, 2014

धरोहर

धरोहर
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कोई धरोहर किसी की अपने पास हो जितनी शीघ्र लौटाई जा सके अच्छा होता है।
अपवाद हैं ,इसके।  जिनमें से एक हमारा जीवन होता है।  जो सृष्टि की धरोहर होता है।  इसे लौटाने के पूर्व इस (जीवन ) को सार्थक करने के लिये दीर्घ रखने की आवश्यकता होती है।  सार्थक करने की सीमा अनंत होती है।  जितना अधिक हम कर सकें उतनी जीवन सार्थकता हमें लानी चाहिये।

--राजेश जैन
09-08-2014

Thursday, August 7, 2014

मानवतावादी /नैतिकता की मूर्ति

मानवतावादी /नैतिकता की मूर्ति
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जीवन में प्रतिकूलतायें भी आती है।  लेखबध्द कर पब्लिश करने की सोच इस बात से प्रेरित है कि अनुकूलताओं में कई बार इन विपरीत परिस्थितियों की कल्पना नहीं करते हुये, हममें से अनेकों स्वास्थ्य ,धन और समय व्यर्थ गँवाते हैं। इस तरह के लेख जिनके दृष्टि/पढ़ने में आते हैं।  वे अनायास कुछ ग्रहण कर अनुकूलताओं के दिनों में अपने को मजबूत बनाते हैं। फिर प्रतिकूलताओं का सामना कर्तव्यनिष्टा , साहस , नैतिकता और न्यायपूर्ण ढंग से करते हैं।

वे महान भी बनते हैं।  समाज और पीढ़ियों का पथ-प्रदर्शन भी करते हैं।

आपके प्रोत्साहन के कमेंट , मुझमें उत्पन्न हो रही एक लेखक /विचारक/मानवतावादी और नैतिकता की मूर्ति को तराशने में सहायक होते हैं। (कृपया आत्म-प्रशंसा ना समझी जाए )

हार्दिक आभार , धन्यवाद

--राजेश जैन
08-06-2014

कर्तव्यपालन

कर्तव्यपालन 
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माता-पिता वृध्द हों. गंभीर स्थिति में उपचार के लिये अस्पताल में रहना हो और करने वाले पुत्र/पुत्री का परिवार छोटा हो. तब परिवार को एक साथ कई परेशानियों से दो चार होना पड़ता है.
1.  अपने माता-पिता को गंभीर कष्टों में से जूझते /सहन करते देखना असहनीय होता है।
2.  बहु-बेटे / (या पुत्री-दामाद- आजकल के परिवार में संतान सिर्फ पुत्री भी होती है)   दोनों को अस्पताल और घर की व्यवस्था देखनी होती है। अगर ये भी प्रौढ़ावस्था में हों तो एक दूसरे पर आये भार का संतुलन इस तरह से बनाना होता है ताकि दोनों स्वस्थ बनें रहे। अन्यथा अनफिट हो जाने पर माता-पिता की सेवा कठिन बेहद हो जाती है।
3.  पहले से इन स्थितियों को भाँप कर बचत कर रखी हो तो ठीक है , अन्यथा अत्यंत महँगे हो गये अस्पताल शुल्क / दवाओं पैथोलॉजी के खर्चे उठाना मुश्किल होता है। बचत भी एकाएक बढ़ जाती महंगाई में अपर्याप्त हो जाती है।  इष्ट-मित्रो के सामने हाथ पसारने की स्थिति बनती है।  कई मानसिक द्वंदों को झेलना कठिन चुनौती होती है। इन सब से करने वाले की सेवायें और स्वयं के स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होता है।
4. परिवार का व्यवसाय / कार्यालीन सेवायें चौपट होती है।  व्यय तो अतिरिक्त होते है।  चलती आ रही आय का ठिकाना नहीं रह जाता है।
4.  पहले रही पारिवारिक प्रसन्नता का बसेरा अचानक उठ जाता है।  परिवार सिर्फ दुःख - चिताओं का समय देख रहा होता है
अब तक परिवार का जीवन मधुर, सरल/सुहावन और अनुकूलता में चलता रहा होता है।  वे दृश्य ओझल होते हैं।अब हर कुछ जो हो रहा होता है ,एक से बढ़कर एक विपत्ति लाता है। अर्थात आशा कम , निराशा अधिक लाता है।

ये जीवन की वे चुनौतियाँ होती है , जब बीत रही होती हैं तो कोई पार ही नहीं लगता। लेकिन जीवन यथार्थ यह है सुख और दुःख दोनों के दिन स्थायी नहीं होते इसलिये इस विषमतम समय का भी पार आता है।  जो कर्तव्य पालन करने का गहन आत्मिक सुख प्रदान करता है।  जीवन में सुख और दुःख दोनों का महत्त्व होता है।  इनसे समता भाव से जूझ लेना अच्छा जीवन सबक होता है।  जो मानव में सज्जनता लाता है .कर्तव्यपालन की हिम्मत देता है। मानवता इस तरह पुष्ट होती है। ऐसे सज्जन लोगों से देश और समाज स्वस्थ रहता है।

--राजेश जैन
07-08-2014

Wednesday, August 6, 2014

जीवन सार्थकता से जीना

जीवन सार्थकता से जीना
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पिछले दिनों अस्पताल गया था।  एडमिट एक पेशेंट से आत्मीय वार्तालाप हुआ। वे दस दिनों से I C U में रहकर  उस दिन डिस्चार्ज किये जा रहे थे । उन्होंने बताया - वे बैंक में अधिकारी हैं। कैंसर रोग से पीड़ित हैं। चार ऑपरेशन हो चुके हैं।  इस बीच में उन्होंने ड्यूटी में प्रतिबध्दता बना रखी है। और इस रोग के आने के बाद भी 2 प्रमोशन प्राप्त किये हैं।

पीड़ामयी मुस्कान के साथ मुझसे अंतिम बात कहते हैं।  "मरना है , लेकिन मरने से पहले जीना नहीं छोड़ूँगा " .

नमन इस साहस को ,आपके सोनी जी (उनका सरनेम) . आपकी अनुकरणीय  इस भावना का प्रचार करते हुये ही मै आपको , अपने श्रध्दा सुमन अर्पित कर सकता हूँ।

-- राजेश जैन
06-08-2014

अच्छे दिन लाना तभी संभव हो सकेगा

अच्छे दिन लाना तभी संभव हो सकेगा
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जिस प्रकार, जिस घर में पेट भरना तक मुश्किल से जुटाया जाता है। उस घर में ड्राई फ्रूट्स और फ्रूट जूस के बारे में सोचा भी नहीं जाता।  रुपये होने पर सस्ते अनाज /सब्जी की व्यवस्था कर किसी तरह पेट भर खाना चाहते हैं।

हमारे देश में व्यवस्थाओं का सामाजिक जागृति का और स्वास्थ्य सेवाओं का अत्यंत अभाव है।  ऐसे में चिकित्सा क्षेत्र , सामाजिक सेवा क्षेत्र को इस तरह उत्साहित करने की आवश्यकता है जिससे इन क्षेत्रों में नागरिकों की अभिरुचि और भावना विकसित हो। देश को विकास देने के लिये इंजीनियर /तकनीक सहायकों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

प्रोत्साहन हेतु धन / ज्यादा वेतन अकेला पर्याप्त नहीं होता है।  इन क्षेत्रों से जुड़े व्यक्तिओं और संगठनों आदि को सामाजिक सम्मानों से अलंकृत करने की आवश्यकता है। इस तरह के सम्मान का देश में सर्वथा अभाव है ( कोई मैकेनिज्म नहीं है ).

देश में लगभग सारे सम्मान फिल्मों /मीडिया , खेलकूद को ही समर्पित किये जाते हैं।  जिनका देश की कुव्यवस्थाओं को ठीक करने में कोई योगदान नहीं होता है।  सामाजिक उत्थान के लिए योगदान शून्य होता है।  प्रभावशाली होने से ये धन-वैभव भी अधिकतम अपने परिवारों के लिये खींच लेते हैं।  फिर धन आधिक्य में इनके कर्म और आचरण हमारी संस्कृति से बिल्कुल विपरीत होते हैं।  चर्चा में भी ये ही अधिक रहते हैं।  जिससे युवा और कम पढ़े लिखे इन्हीं के पिछलग्गू ( प्रशंसक ) रहे आते हैं। इनके जैसी अय्याशियों की नक़ल कर देश के वातावरण में संस्कृति/सांस्कृतिक प्रदूषण करते हैं. अपना कीमती समय और पैसा इनके पोस्टर / फिल्म और किताबों पर खर्च करते हैं। साफ है, अपनी खुशहाली के लिए पढाई / कार्य ना कर इन्हें सुदृढ़ करते हैं। देश का विकास सामाजिक व्यवस्था और इंफ्रास्ट्रक्चर इन हालातों में उन्नति की दिशा में मोड़ पाना असंभव है।

ख़राब दिशा में बढ़ते युवा और आर्थिक/शैक्षणिक अभावों के इन हालातों को क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है।  शासनरत लोगों को इस हेतु समुचित चिंतन और उपाय के साथ त्याग भावना का परिचय देना आवश्यक है।  नीतियां परिवर्तित करने की आवश्यकता है.

"अच्छे दिन लाना तभी संभव हो सकेगा"।

राजेश जैन
06-08-2014

Sunday, August 3, 2014

जीवन सम्बल देने की योग्यता

जीवन सम्बल देने की योग्यता
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वह उम्र में मुझसे 20 वर्ष छोटी है किन्तु रिज रोड जबलपुर में प्रातः भ्रमण की नियमित सदस्या है। पिछले एक वर्ष से हम सिर्फ नियमित उपस्थिति के साक्षी हुआ करते थे। आज उससे वार्तालाप का योग हुआ। 
परिवार में कुछ आकस्मिक हादसों ने उसे इस तरह विचलित किया और उसके कोमल ह्रदय में भय और वेदना ने इस तरह घर किया कि वह हाइपरटेंशन (उच्च रक्तचाप) से पीड़ित हो गई। आत्मविश्वास डिग गया। अवसाद ग्रसित हो गई। इन सबसे जीवन शक्ति कमजोर हो गई। तब डॉक्टर ने दवाओं से उपचार के साथ प्रातः कालीन भ्रंमण (मॉर्निंग वॉक ) की सलाह दी।  एक डेढ़ वर्ष के नियमित भ्रमण जिसमें वह बीच बीच में हलकी दौड़ (जोगिंग ) लगाती है। और कुल लगभग एक घंटा प्रतिदिन का वर्कआउट (यह व्यायाम) करती है ,से उसमें सकारात्मक परिवर्तन आया। 
युवा इस बेटी ने जीवन ललक (विल पॉवर) का ऐसा उदाहरण (एक्साम्पल) प्रस्तुत किया है जो morning walk के महत्त्व को हाई लाइट (रेखांकित) करता है। साथ ही स्वस्थ जीवन शैली जिसमें नियमित व्यायाम सम्मिलित होता है की प्रेरणा प्रदान करता है।

स्वयं उसके मुख से जो शब्द सुने वह ये हैं।  उसकी हाइपरटेंशन की दवायें बंद हो गई हैं।  वह आज आत्मविश्वास से इस तरह सरोबार है कि दूसरों को अवसाद से निकाल सकती है। हाइपरटेंशन से जो सिरदर्द हुआ करता था उससे भी मुक्त है।

सार यही है जीवन जब संघर्ष को बाध्य करता है तब वस्तुतः मनुष्य के धैर्य और साहस की परीक्षा की घड़ी होती है। जिसने इस परीक्षा को अपनी प्रवीणता से पार कर लिया बाद के जीवन में वह स्वयं के अतिरिक्त दूसरों के जीवन को सम्बल देने की योग्यता पा जाता है।  अन्यथा टूटे-बिखरे जीवन तो दुर्भाग्य से चारों ओर अनेकों दर्शित हो रहे हैं।  बिना धन व्यय किये जीवन ऊर्जा, धैर्य और साहस प्रातः कालीन भ्रमण से मिलता है।

हम सभी नियमित मॉर्निंग वॉक करें। जबलपुर वासियों के लिए रिज रोड वरदान है।

--राजेश जैन
03-08-2014