Tuesday, December 31, 2013

आतिशबाजी के शोर में सोते से जागकर

नववर्ष मंगलमय प्रसन्नता बरसाये
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"क्या था जी मुझ साधारण में ?
सब कैमरे कमाल बने थे
दृष्टि ही आपकी सुन्दर थी
जो रूप असाधारण देखती थी "

-- हम नववर्ष 2014 को इस दृष्टि से देखें

"नववर्ष सभी को शुभ हो "

--राजेश जैन                      (आतिशबाजी के शोर में सोते से जागकर )
01-01-2014

Friday, December 27, 2013

बेटे, तुम धनवान बनना या नहीं महान अवश्य बनना

बेटे, तुम धनवान बनना या नहीं महान अवश्य बनना
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जीवन पथ पर अग्रसर चाहे -अनचाहे कर्म नित जुड़ते जाते हैं , हम कुछ प्रयोग भी करते जाते हैं. हम यदि समय समय पर इनके हुए परिणाम पर गौर करें और विचार करें तो हमारे कर्म और नए प्रयोगों की मलिनता हमें दृष्टिगोचर होती है , थोड़े यत्नों से आगे के हमारे कर्मों से यह मलिनता कम होती जाती है. क्रम "गौर और विचार" करने का जारी रखा जाए तो ठीक उस भाँति जैसे बहती सरिता का गंदला नीर बहते बहते मलिनता मुक्त होता जाता है वैसी निर्मलता हमारे कर्मों में आ सकती है.

आज लगभग हर घर -परिवार में बड़े हो रहे और शिक्षारत बच्चे के मन में और पालक के आशाओं में यह बैठाया या बैठा होता है कि आगे जीवन में वह अच्छा कमा कर बड़ा या धनवान व्यक्ति बनेगा।

कम ही ऐसे माता-पिता होंगे जो यह सोचते और ऐसे संस्कार और शिक्षा बच्चे को देते हैं , जिसमें बच्चे से अपेक्षा धनवान होने के स्थान पर उनके कर्मों से महान बनने की होती हो।

धनवान तो अनेकों बन गये या सब कुछ सामर्थ्य लगा देने के बाद अनेक धनवान हो ही नहीं सके. लेकिन धनवान होने की जुगत में सब लगे रहने से जो छीना -झपटी /लूट खसोट का वातावरण निर्मित हुआ है उसमे न्याय -नीति ,शांति और सामाजिक सौहाद्र का अस्तित्व ही मिटता जा रहा है.
अगर हम " न्याय -नीति ,शांति और सामाजिक सौहाद्र" को अस्तित्वविहीन होते नहीं देखना चाहते तो हमें अपने घर में लालन-पालन में बढ़ते   बच्चे से आशा और उसके मन में यह विचार संकल्प डालना होगा "बेटे, तुम धनवान बनना या नहीं महान अवश्य बनना" .

धनवानों ने भी (पाश्चात्य देशों में ) जो दुनिया बनाई है वह दूर से सुन्दर -सुहावनी तो लगती है किन्तु वहाँ मनुष्य जीवन यांत्रिक (मैकेनाइज्ड ) हो गया है.
सुख सुविधाओं और भोग-उपभोग में जीवन बिता देने के बाद भी जीवन संध्या पर ठगा सा अनुभव करता है.

मनुष्य और मनुष्य जीवन इसलिए धन से नहीं महान कर्मों से निर्मित होना चाहिए अन्यथा दुनिया ऐसी दिशा में बढ़ रही है जहाँ जाकर भूल सुधार की आवश्यकता अनुभव होगी और अगली किसी पीढ़ी के लिए बाध्यकारी होगा। हम चाहें तो इस चरम सीमा पर पहुँचने से बचा सकते हैं दुनिया और इस समाज को.

हर कोई तो महान बन नहीं सकेगा , और प्रचारित महान तो कई हो सकेंगे पर वास्तविक महान बिरले होंगे। आज दुनिया को ऐसे महान व्यक्तियों की आवश्यकता है जो प्रचारित नहीं सच्चे महान हों। मानवता रक्षक हमारी ही पीढ़ी बनके उभरे इस हेतु हमें बच्चे से कहना होगा
"बेटे तुम धनवान बनना अथवा नहीं कोई महत्व नहीं किन्तु सच्चे महान बनने का प्रयास अवश्य करना "

हमारे अनेकों घर में जब ये विचार -संस्कार अनेकों बच्चों के मन में  डाले जायेंगे तब कुछ महान बन संकेंगे , और बहुत से महान बनने के प्रयास में अच्छे मानव बन सकेंगे.

राजेश जैन
28-12-2013

Wednesday, December 25, 2013

जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार

जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार
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इतना है तुमसे प्यार हमें मेरे राजदार , जितने के आसमान में तारे हैं बेशुमार …
करती है फ़रियाद ये धरती कई हजारों साल तब जाकर पैदा होता है एक   ….
जब तक सूरज चाँद रहेगा " " तेरा नाम रहेगा …
तुम जियो हजारों साल , साल के दिन हों पचास हजार   …

उपरोक्त तरह की पंक्तियाँ कवियों ,गीतकारों की कल्पनाओं में आईं ,एक गीत ,कविता बन अमर हुईं  . और जिन्होंने सुना शब्दों में जुड़ी भावनाओं और कामनाओं को ह्रदय से दाद भी दी  … आगे भी दाद देने और कवि अमर कल्पनाओं का क्रम जारी रहेगा  . इस तरह की रचनाओं में अतिशयोक्ति कल्पना ,अलंकार और किसी क्षण की किसी के बारे में चरम भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है  .

लिपिबध्द करता साहित्यकार भी इन कल्पनाओं और भावनाओं की पूर्ति को लेकर शंकित ही रहता है  . शब्दों में अभिव्यक्त करना तो कला है किन्तु किसी के कर्म ,धर्म इतने पवित्र और महान अति अति बिरले ही होंगें जब की इन चरम कल्पनाओं का थोडा अंश भी पूरा होता हो  .  भला सूरज ,चाँद और तारों का दीर्घकालिक अस्तित्व , उनकी संख्या (तारों की) इत्यादि की कोई थाह है ही नहीं इसलिए किसी का जीवन , किसी की प्रसिद्धि या किसी का समर्पण (स्नेह ,प्यार का ) इतना दीर्घजीवी या तादाद इतनी विशाल हो ही नहीं सकती  .

फिर मन में प्रश्न आना स्वाभाविक है कि इस तरह की पंक्तियाँ लिखने और पढ़वाने में क्यों अनेकों का समय व्यर्थ किया जाता है  . वास्तव में जिनकी पूर्तियाँ असम्भव हैं ऐसी शुभकामनाओं और मंगल भावनाओं से सजे साहित्य का निहित अर्थ और सरोकार होता है  . वह होती है एक प्रेरणा जो भव्य विशाल लक्ष्य की दिशा में किसी समाज या पीढ़ी को दी जाती है  . जिससे मानव समाज में अच्छाई की निर्मल गंगा अविरल प्रवाहित होती रह सकती है  .  इस तरह के साहित्यिक सृजन मानवता होती है ,मानवता रक्षक होती है  .

हमें मधुर लगती ये शुभकामनायें  और मंगल भावनायें हम सतही तौर पर ग्रहण ना करते हुये , इसे तनिक गम्भीरता से लें और पालन की दिशा में तनिक भी सचेत हों तो हम अपने परिवार ,समाज  और राष्ट्र को वह गरिमा दे सकते हैं  जिसका यहाँ अभाव स्वयं हमें खटकता और बैचैन कर रहा है  .

हम किसी को इस तरह तो चाहें ,जहाँ धन की लाभ हानि की दृष्टि से धोखा या फरेब हमारे ह्रदय ,कर्म और आचरण में ना आये  .
हम अपने प्यार को वह विशालता दें जहाँ वासना से दैहिक शोषण के कारण हमारा प्यार कलंकित ना हो जाये ,हमारा प्यार समर्पण इस तरह का बने जो दैहिक आकर्षण सम्बन्धों से ऊपर हो जिसमें ऐसी संकीर्णता ना हो जिसके वशीभूत हम अपने प्रिय के ह्रदय को आहत कर उसके ही बैरी बन जायें अगर इस दोष से अपने प्रेम को मुक्त करें तो निश्चित ही हम अपने संस्कृति अनुरूप चरित्रवान होंगे  . हम एक नहीं अनेकों के प्रिय और प्रेमपात्र होंगे  . अवश्य ही यह आजकल कहा जा रहा प्रेम (फ़्लर्ट ) नहीं होगा  . यह प्रेम वह होगा जिसमे हम अनेकों की दृष्टि में (ह्रदय में) पिता, बेटे या भाई  सदृश्य बस रहे होंगे.

मानवता और समाजहित इस एप्रोच  में ही विदयमान होता  है 

--राजेश जैन
26-12-2013

Monday, December 23, 2013

बिखरते परिवार - एक दृष्टि

बिखरते परिवार - एक दृष्टि
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एक परिवार होता है. माँ-पिता भाई -बहन के बीच एक बच्चा पलता और बढ़ा होता है. माँ -पिता का अंश होता है , भाई -बहन स्वयं छोटे होते हैं जबसे इस बच्चे को मासूम और बाल-सौंदर्य और निच्छल रूप में देखते लाड़ -दुलार से अपने बीच रखते हैं. इस  लाड़ -दुलार के मध्य बच्चा बाल सुलभता से ऐसे हठ भी करता है, जिसकी पूर्ति यद्यपि ठीक नहीं होती लेकिन बच्चे की उदासी अप्रिय लगती है अतः इसे मान लिया जाता है. यह क्रम निरंतर चलता जाता है. बच्चा हठी होता है. अभी 15-16 वर्ष का होता है महँगे वस्त्र , बाइक और मोबाइल इत्यादि चाहने लगता है. कुछ परिवार के लिए ये कठिन नहीं होते लेकिन कुछ कठिनाई में इन की पूर्ति मोहवश या बच्चे की हठ में करते हैं. यहाँ तक बच्चे को कुछ नहीं कहा जाता उसकी मानी जाती है. फिर बच्चा उच्च शिक्षारत हो जाता है. यहाँ अपेक्षा उससे प्रतियोगी परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन की होती है जिसके लिये पढ़ना लिखना अनिवार्य होता है. लेकिन महँगी ऑसेसरीस जो उसे परिवार विपरीतता में भी दिलाता आया है बच्चे के मन भटकाव के कारण बनते हैं. परिणाम होता है बच्चा जो अब युवक है कम अच्छी जगह पहुँच पाता हैं जहाँ धन अर्जन कम होता है.

परिवार लाड -प्यार से पालते हुए भी बच्चे से एक अपेक्षा करता है कि बढ़ा होने पर अच्छा पढ़ लिखकर वह अच्छी आय कर परिवार को सहारा देगा  . लेकिन बचपन से प्राप्त होती आयी महँगी वस्तुयें बच्चे की आदत बन चुकी होती है. स्वयं की इक्छापूर्ति उसकी आय में कठिन होती है ऐसे में परिवार की आर्थिक अपेक्षा उसे कष्ट देती है. अगर ऐसे में ब्याह हो गया तब नई सदस्या ( घर की बहु ) भी कुछ इसी तरह पली बढ़ी होती है. दोनों ही मिलकर अपनी आय और आवश्यकताओं में संतुलन नहीं रख पाते हैं.

जहाँ तक निभाया जा सकता है. अपने लाडले बेटे(भाई) से धन सहयोग नहीं चाहा जाता है लेकिन परिस्थितियाँ विपरीत हुईं तो अब बेटे को कहा जाने लगता है. आरम्भ में कुछ कठिनाई से वह माँ -पिता बहन या भाई के लिये कुछ करता है. लेकिन कई बार ऐसी आवश्यकता उत्पन्न होने पर वह चिढ़ने लगता है. पढ़ने लिखने के बाद स्वयं को समझदार मानते हुए, अपने माँ-पिता की बातों में समझ की कमी लगने लगती है.

फिर समय आता है जब घर के मुख्य कक्ष में माँ-पिता ,बेटे-बहु के मध्य आवेशित वार्तालाप दृश्य बनने लगते हैं. ऐसे एकाधिक अवसर बाद मन आपस में खट्टा होने लगता है. और एक दिन दोनों या कोई एक पक्ष साथ निर्वाह कठिन पाते हैं. अलग आवास ,अलग पथ अप्रिय तो लगता है किन्तु साथ रहने की अप्रियता से कम अप्रिय होता है.एक भारतीय परिवार इस तरह बिखरता है.

दोषारोपण कभी बेटे कभी बहु या माँ-पिता पर करना बाद की नीयती हो जाती है.

जब बच्चे छोटे होते हैं लाड-दुलार में भी कुछ मनाही वाँछित होती है. तब नहीं कहा जाता है. परिवार के प्रति कर्तव्यबोध कम वय में अनुभव होता है तो शिक्षारत समय में ज्यादा गम्भीरता प्रदर्शित करते हुए ज्यादा अच्छे परिणाम मिलते हैं. युवा बेटा ,व्यय अपनी निजी आवश्यकताओं और परिवार की आवश्यकताओं को जान समझ कर करता है. परिवार आजीवन एक और सुखी हो सकता है.

आवश्यकता हमें एक माँ-पिता होने पर कहाँ कहना चाहिए ( बालपन में ) ,कहाँ चुप रहना चाहिये इसे समझने की है.…
नवविवाह से निर्मित परिवार का बिखराव
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बिखरते परिवार अंतर्गत नवविवाह से निर्मित परिवार का बिखराव का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिये  . लेकिन भ्रामक आधुनिकता लेखक के तर्कों को पुरातनपंथी कहेगी , इसलिये कुछ लेख की जगह इसे युवाओं को सोचने की सलाह ही दी जा रही है  .

जिन बातों में  आधुनिकता मानी जा रही है , ऐसी बातों के साथ जब कोई पति या पत्नी बन जाता है तो ना तो  पति और ना ही पत्नी को ये आधुनिकता अपने घर परिवार में सुहाती है. परिणाम नवनिर्मित परिवार का दो-चार वर्षों में बिखराव होता है , इस बीच यदि बच्चा जन्म ले चुका हो तो थोड़ा बड़ा होने पर वह स्वयं को दुनिया में बड़ी विषम स्थिति में पाता है  . अतः जो आधुनिकता नवयुवाओं को बाहर सुहाती है वास्तव में भ्रामक ही होती है. तब भी यदि इसे ही आधुनिकता कही जाये तो हमें परिवार संरचना को पुरातन कहने पर विवश होना पड़ेगा  . क्योंकि कथित आधुनिकता "परिवार संरचना" को पुष्ट नहीं करती है .

लेखक इसे ऐसी आधुनिकता निरूपित करता है जो कुछ काल में पुरातन और बड़ी बुराई कहलाई जाकर वर्जित हो जायेगी।  क्योंकि परिवार नहीं होंगे तो मनुष्य मनुष्य नहीं जानवर हो जाएगा  . इसलिए आज पुरातन सा लगने वाली परिवार संस्कृति आधुनिकता बन कर पुनः आएगी।  मनुष्य हम यदि हैं तो हमें मनुष्य तो बनना ही होगा।

करोड़ों वर्ष से परीक्षित और अनुमोदित "परिवार संस्कृति" के भूलवश  त्याग के लिये हमारी पीढ़ी इतिहास पृष्ठ पर दोषी नहीं ठहराई जाए इस हेतु आज हमें इसके बचाव के लिए जागृत होना पड़ेगा।  भ्रामक आधुनिकता के प्रचार से सम्मोहन को अपने पर से शीघ्र उतारना होगा। 

--राजेश जैन
23-12-2013
  
    

Saturday, December 21, 2013

सिगरेट (स्मोकिंग) से इन्कार - अर्थ होता है पत्नी-बच्चों से सच्चा लाड़-दुलार

सिगरेट (स्मोकिंग) से इन्कार - अर्थ होता है पत्नी-बच्चों से सच्चा लाड़-दुलार
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व्यक्तिगत नहीं यह ...(इस शीर्षक का पूर्व लेख )

स्मोकिंग के प्रभाव से जब हम अपने किसी साथी (मनुष्य ) को परशानी में पड़ते देखते हैं तो पीड़ा हमें भी होती है यह मसला इसलिए किसी सिगरेट पीने वाले का व्यक्तिगत नहीं , हम सभी का है .

24 मार्च को एक अपरिचित को सिगरेट पीते हुये देखने पर ना पीने को टोकने की परणिति उनसे आत्मीय सम्बन्ध बनने का कारण हुआ  . बाद के 8 महीनों की कुछ भेंट- चर्चा में कभी इस विषय पर छोटी मोटी चर्चा हुई  . अंततः कल  उन्होंने अवगत कराया कि 5 दिस. उनकी पत्नी का जन्मदिन था और इस दिन से अपनी 20 वर्षों से अधिक से चली आ रही सिगरेट की व्यर्थ आदत को उन्होंने आजीवन त्याग दिया है.

एक पत्नी को क्या जन्मदिन पर दिया जा सकने वाला उत्तम उपहार कोई दूसरा हो सकता है ?

"सिगरेट (स्मोकिंग) से इन्कार - अर्थ होता है
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अपने पत्नी-बच्चों से सच्चा लाड़-दुलार-प्यार"
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सुनकर मुझे अगाध प्रसन्नता अनुभव हुई. मैंने इसका गर्मजोशी से इजहार  किया और उन्हें धन्यवाद भी कहा. यह निर्णय कतई मेरे टोकने के कारण नहीं हुआ था, इसकी वजह उनकी पत्नी का इस लत पर हमेशा कहना और इसके लिए मना करते रहना प्रमुख कारण था.

मुझे प्रसन्नता इस बात पर थी एक मेरे आत्मीय ने इक स्वास्थ्य वर्धक दिनचर्या अपनाने का क्रम आरम्भ किया  .
इसे पढ़कर इस तरह हमारे और साथी इस बुरी आदत को तजें , हम सभी की दिलीय ख़ुशी का कारण होगा

--राजेश जैन
22-12 -2013

Thursday, December 19, 2013

भव्य आयोजन

भव्य आयोजन
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सम्पन्न परिवारों द्वारा आनन्द अवसरों  के लिये आयोजन किये जाते हैं , उनमें भव्यता ,सुविधाओं , आधुनिक इंस्ट्रूमेंट्स , भोज्य , आरामदेह साजो-सामान   ,वस्त्र ,परिधान और आभूषणों से मिलजुलकर एक नयनाभिराम छटा उपस्थित होती है ,जिसमें गरिमापूर्ण व्यक्तियों की उपस्थिति आयोजन में चार चाँद लगाते हैं   . उनके शिष्टाचार , ज्ञान ,व्यवहार ,सुन्दरता , चेहरों पर दमकता उल्लास ,प्रसन्नता और सम्मान -सत्कार  वह दृश्य प्रस्तुत करता है जो उसमें सम्मिलित और बाहरी दर्शकों को बड़ी प्यारी और  मन भावन लगता है .  विशेषकर विवाह अवसर के ऐसे दृश्य पूर्णिमा के चंद्रमा और तारामंडल सी प्रस्तुति बन एक मनोहारी छटा बिखेरती है  जो सभी को भली -आकर्षक लगती है  . लेखक को भी ये सर्वजनों की भाँति लुभाती ही है  …

आज की सामाजिक आवश्यकता और ऐसे भव्य आयोजन
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जो अति सम्पन्न हैं उनको ऐसे भव्य आयोजन पर व्यय और व्यवस्था में कोई अड़चन नहीं होती . किन्तु हमारे समाज में अति सम्पन्न ऐसे समर्थों की संख्या सीमित ही है  . वर्तमान समय में आडम्बरों से प्रभावित हो उनकी नक़ल करने की प्रवृति बढ़ी है  . इस प्रवृति के लिए दोषी यद्यपि सम्पन्न वर्ग नहीं है  . लेकिन हमारे समाज में टीका टिप्पणी और नवयुवाओं और बच्चों के जीवन अनुभव की अल्पता और सिने और अन्य माध्यमों पर आडम्बरों की प्रचुर प्रस्तुतियाँ अपने घर परिवार में विवाह आयोजनों को भव्यता प्रदान करने के लिये वर और कन्या पक्ष दोनों को ही बाध्य करती हैं।  समाज में ऐसी सम्पन्नता कम है अतः भव्यता की सही नक़ल में तो कसर रह ही जाती है  , बहुत दृष्टि से सामाजिक अच्छाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अतः ऐसे भव्य आयोजन को समाज दृष्टिकोण से परखने की आवश्यकता है  .

भव्य आयोजन के प्रतिकूल प्रभाव
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संपन्न क्षमता अनुसार भव्य आयोजन करें तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है  . ऐसे आयोजन तब परेशानी के कारण बनते हैं ,जब इन्हें देखकर जिनकी क्षमता नहीं होती वे ऐसे आयोजन करना चाहते हैं  . यद्यपि वे अपने आयोजनों को भव्यता तो प्रदान कर नहीं पाते किन्तु इस प्रयास में बहुत प्रतिकूलताओं को आमंत्रित कर लेते हैं जैसे -

* व्यय आधिक्य से कर्जदार हो जाते हैं ,या जो धन जीवन की दूसरी आवश्यकताओं के लिये संग्रहित था उसे नक़ल पर गवाँ देते हैं  .
* आयोजन का मानसिक दबाव होने से नींद नहीं ले पाते , रोग आमंत्रित करते हैं  .
* खानपान भी पैसे की कमी और भव्यता की नक़ल के बीच ना तो स्वयं के ना ही अतिथि के लिए स्वास्थ्य वर्धक रह पाता  है.
* भव्यता के लिये आमंत्रितों की संख्या बढ़ा लेते हैं. आज के व्यस्त समय में उन्हें आने /ना आ पाने के धर्मसंकट में डालते हैं.
* धर्मसंकट से उबर कर ज्यादातर आमंत्रित यदि पहुँच गये , तो उनका यथोचित सत्कार नहीं कर पाते हैं. या तो भीड़ इतनी हो जाती है ,जिसमें चल-बैठ पाना  तक कठिन होता है या फिर भोज्य ही कम पढ़ जाता है. किसी आमंत्रित की उपस्थिति पर उन्हें जितना सम्मान , ध्यान और समय देना चाहिये उतना दिया नहीं जा पाता  . तब आमंत्रित अप्रसन्न हो विदा लेता है.
* विवाह में जितना आनंद मिलना चाहिये वह तो मिलता नहीं बल्कि अनियंत्रित हो रहे आयोजन के कारण मानसिक तनाव और चिंता ही अधिक मिलती है.
* सामर्थ्य से अधिक व्यय कर लेने पर पहले और बाद भरपाई करने की जुगत में अनीति का व्यापार / सेवा देते हैं.

भव्य या सादगीपूर्ण आयोजन - औचित्य
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भव्यता के दिखावे में पड़ने के स्थान पर यदि सादगीपूर्ण विवाह आयोजन किये जायें तो उपरोक्त वर्णन  के विपरीत सर्व लाभकारी होगा -

* आयोजन व्यय सामर्थ्य सीमा में होंगे  . कोई अनीति धन बटोरने के लिए नहीं करनी होगी.
* आयोजन में आमंत्रित सीमित संख्या में होंगें , जो कम परिचित आमंत्रण के बाद धर्मसंकट में पड़ते हैं वे बचेंगे और उपस्थित हुये आमंत्रित सीमित संख्या में साथ ही ज्यादा निकटवर्ती होंगे जिन्हें हम यथोचित सम्मान -सत्कार दे सकेंगे  . इस तरह आयोजन का आनंद आमंत्रित तो लेंगे ही हम भी वास्तविक उल्लास इस अवसर का अनुभव कर सकेंगे.
* प्रस्तुत भोज्य जितना सादगीपूर्ण होगा उतना स्वास्थ्यकारी होगा जिसके सेवन से किसी को स्वास्थ्यगत कठिनाई की संभावना कम ही होगी  .

सादगीपूर्ण आयोजन और आधुनिकता 
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आधुनिकता वास्तव में उस वस्तु में निहित होती है जो समाजोपयोगी होती है   . समाज में आ गई खराबी को मनुष्य का जो आविष्कार ,कर्म और आचरण मिटाता है वह आधुनिकता होती है  . पाषाण कालीन युग से आज तक की यात्रा मनुष्य ने ऐसी आधुनिकता पर सवार होकर ही की है  . लेकिन हमारा समाज उस काल में आया है जहाँ  आधुनिकता की भ्रान्त परिभाषा प्रचलित है  . जिसमें नीति -न्याय के स्थान पर आडम्बरों और झूठे प्रदर्शन को आधुनिकता कहा और माना जा रहा है  . हमें आधुनिकता की परिभाषा सही करनी होगी  . सादगीपूर्ण आयोजन जो समाज के लिये सभी दृष्टि से उचित होंगे, उन्हें करने वालों को हमें आधुनिक बताना होगा. 

इसलिए जिन सामर्थ्यशाली के लिए सरल होगा वे भी यदि भव्य के स्थान पर सादगीपूर्ण आयोजन करने के उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो वे आज के समाज के आधुनिक (मॉडर्न) होंगे , नेतृत्व होंगें जिन्हें देख कर कम सामर्थ्यवान का सादगी पर विश्वास आएगा वह यह देखकर अपने से तर्क कर सकेगा "जब एक बड़ा आदमी आयोजन पर कम व्यय कर रहा है तो मै अपनी क्षमता से अधिक क्यों करूँ? " .

सादगीपूर्ण आयोजन और आज के युवा और बच्चे 
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हमारा स्वयं का भरोसा डिग गया है ,इसलिए सादगीपूर्ण आयोजन का पक्ष सही तरह से बच्चों के समक्ष हम रख नहीं पाते हैं, फिर "क्या करें बच्चे इसके लिए मानते नहीं" कहते हुए उनके मत्थे दोष डालते हुए ,थोथे आडम्बरों के थपेड़ों की दिशा में चलते जाते हैं  . और फिर स्वयं समाज हानिकर कर्म -आचरण करते हुए आज के समाज को ख़राब कहते जाते हैं  . इस हलके से जीवन बसर करते हम ना तो अपना और ना ही समाज का भला कर सकेंगे  . और जब तक एक जिम्मेदार सोच वाली पीढ़ी नहीं आएगी। . समाज निरंतर पतन उन्मुख गति करता जाएगा.

हम इस दायित्व को अगली किसी पीढ़ी पर ना छोड़ते हुये कुछ सामाजिक दायित्वों का स्वयं बोध करें अपनी कमियों पर नियंत्रण करें और समाज को नियंत्रित करें अपने कर्मों का समाज और बच्चों पर होने वाले  प्रभाव को समझें और फिर ऐसा करने की आदत डालें जो इन्हें सही तरह से प्रभावित कर सके .

हम सच्ची आधुनिकता लायें ..

--राजेश जैन 
19-12-2013






Saturday, December 14, 2013

धन महत्व की वीभत्सता

धन महत्व की वीभत्सता
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अगर ये सच है तो  "धन महत्व की वीभत्सता" पर क्षोभ है , ग्लानि होती है कि मनुष्य समाज के उस दौर के जीवन के अंग हम हैं ,जिसमें धन ने ऐसा वीभत्स सा महत्व बना लिया है.  धिक्कार है अपने सीमित सामर्थ्य पर जिसमें हम इस तरह के राक्षसी कृत्य की रोकथाम नहीं कर पाते हैं. ऐसा लिखने का कारण आज का समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार है जिसका संक्षिप्त विवरण निम्न है   .

उस कॉलेज के इंजीनियरिंग के एक असिस्टेंट प्रोफेसर (जिसका मै कभी विद्यार्थी रहा था) ने अपनी चार साल पूर्व की ब्याहता का गला दबाकर मारने का प्रयास किया  . विडंबना ये है कि इस पत्नी से तीन वर्ष की एक बेटी भी इस असिस्टेंट प्रोफेसर की है  . समाचार में कारण इस हैवानियत का दहेज़ लालसा बताया गया है।  यह असिस्टेंट प्रोफेसर युवा है इस बात की कल्पना उसे आज नहीं है कि , किसी दिन तीन वर्ष की उसकी बेटी बड़ी होकर विवाहित होगी  . उसके साथ उसका दामाद यह क्रूर कृत्य करे तो क्या होगी उसकी (असिस्टेंट प्रोफेसर) दशा एक ऐसी पीड़िता के पिता होने के नाते  .

भाग्य, क्रूरता के प्रयास के बाद भी मासूम युवती की जान बच गई है ( समाचार के साथ उनका जो फ़ोटो लगा है उसमें मासूमियत ही दृष्टव्य है ) .

मानव सभ्यता का यही प्रतीक होगा कि इस अप्रिय हादसे के बाद ये असिस्टेंट प्रोफेसर भूल सुधार कर अपने इस व्यवहार की क्षमा पत्नी , ससुराल पक्ष से तो मांगे ही  . समस्त इंजीनियर , अपने कॉलेज और विद्यार्थी से भी माँगे , जिन सब पर उसने एक कलंक का टीका लगा दिया है  . प्रोफेसर होने यह कर्तव्य भी होता है अपने विद्यार्थी को वह शिक्षा दी जाए , जो पढ़ने के बाद के विद्यार्थी के जीवन के लिए सहायक हो जिससे उनके सद्कर्म सुनिश्चित होते हैं  .

वह बेटी (मासूम तीन वर्षीया ) और अपनी विवाहिता के प्रति अपने दायित्व को समझे उन्हें निभाये  .... बिना प्रतिशोध के ( जो समाचार पत्र में प्रकाशन , और ससुराल पक्ष द्वारा पुलिस रिपोर्ट से उसकी बदनामी का कारण बनी है ) अपने परिवार को भविष्य में प्रसन्नता पूर्वक जीवन यापन में सहारा बने. और नारी के सम्मान करते हुए मानवता और पढ़े लिखे सभ्य (इंजीनियर ) के माथे पर लगाया उसके द्वारा कलंक के टीके को स्वयं अपने सद्कर्मों से मिटाये ऐसी आशा के साथ ....

--राजेश जैन
15-12-2013

Tuesday, December 10, 2013

मेरी माँ

मेरी माँ
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मेरी माँ , तुम्हारी तपस्या से
मेरी माँ , तुम्हारे संस्कार से
मेरी माँ , पिता योगदान से
मेरी माँ , कुछ बन सका में

मेरी माँ , शब्दों से नहीं मै
मेरी माँ , आचरण साफ रख
मेरी माँ , उज्जवल कर्म से
मेरी माँ , सम्मानित करूँ तुम्हें

मेरी माँ , मिलावट ना करूँगा
मेरी माँ , भ्रष्ट नहीं बनूँगा
मेरी माँ , हानिकर ना बाटूँगा
मेरी माँ , विश्वास करो माँ

मेरी माँ , यह समाज अपना है
मेरी माँ , साथी हमारे अपने हैं
मेरी माँ , बुराई बढ़ गई हैं
मेरी माँ , माँ उन्हें हटाऊँगा

मेरी माँ , सामर्थ्य थोडा है
मेरी माँ , कार्य कठिन है
मेरी माँ , कुछ और माँ
मेरी माँ , जन्में अच्छे बेटे

मेरी माँ , स्त्री सम्मान कर सकें
मेरी माँ , बहन -बेटी लाज बचायें
मेरी माँ ,  माटी की संस्कृति
मेरी माँ ,  भब्य विरासत बचायें

मेरी माँ , भगवान ना आएगा
मेरी माँ ,  साक्षात भगवान तुम हो
मेरी माँ , सच्चे सम्मान से तुम्हारे
मेरी माँ , सतयुग पुनः आएगा

--राजेश जैन
11-12-2013

Monday, December 9, 2013

माँ

माँ
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माँ , कितने लिख चुके
माँ , कितने कह चुके
माँ , कितने दिखा चुके
माँ , ये सब अधूरे हैं

माँ , तुमने किया जो
माँ ,तुमने दिया जो
माँ , तुमने जिया जो
माँ , वो बेमिसाल है

माँ ,साहित्य लिखा गया
माँ, भाषा लिखी गईं
माँ ,चित्राकंन किये गए
माँ , अपर्याप्त रहे हैं

माँ , तुम ही चरित्र हो
माँ ,तुम ही त्यागी हो
माँ , तुम ही मानव हो
माँ, तुम ही भगवान हो

माँ ,भगवान लिखा तुम्हें
माँ, मानवता कहा तुम्हें
माँ, पूज्यनीय कहा तुम्हें
माँ , तो भी कसर शेष है

--राजेश जैन
10-12-2013

अंडर कर्रेंट

अंडर कर्रेंट
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अनुमान जो लगाये गए उससे अलग ,एक दल के पक्ष में  प्रत्याशा से भी अधिक अच्छे चुनाव परिणाम आये . कहा जा रहा है यह इस राजनैतिक दल के एक विशेष व्यक्ति की उपलब्धि है . यह भी कहा जा रहा है कि युवाओं में उनका विशेष आकर्षण है .

लेख अराजनैतिक है नाम उल्लेखित किये बिना ही लिखा . किसी राजनैतिक दल का समर्थन या विरोध भी नहीं और किसी व्यक्तिविशेष को महिमामंडित करना भी नहीं. अभिप्राय मात्र यह कि  अंतरप्रवाह (अंडर कर्रेंट ) की शक्ति को सहमत किया जाये . वह भी तब जबकि ऐसा अंडर कर्रेंट जो युवाओं में प्रवाहित होता है . प्रत्याशा से अधिक समर्थन इसलिए दिखा कि समीक्षकों ने युवाओं का उस दल को समर्थन भाँप कर अनुमान लगाये थे . उन्होंने युवाओं के मत गणना में लिए थे . यह चूक उनसे हो रही थी कि उन्हें युवाओं का वह परिवार जिसके वे सदस्य हैं ,नहीं दर्शित हो रहे थे . युवा जब किसी बात को कर गुजरने को तत्पर होते हैं तो अपने उत्साह ,उमंग से वह शक्ति प्राप्त करते हैं जिससे उनके पक्ष में परिजनों का भी मत हो जाता है . मतों का दल के पक्ष में बढ़ना इसी बात को धोतक है . स्वयं युवा ने तो दिया ही परिवार के मत को भी दल के पक्ष में प्रभावित कर दिया .परिणाम अन्य दलों के लिए अप्रत्याशित रहे , वे निराश भी हुए .

वर्त्तमान राजनैतिक परिदृश्य के उल्लेख से अपनी अराजनैतिक बात यह कहनी है कि जिस बात से किसी भी पीढ़ी के युवा प्रभावित और सहमत होते हैं उसका असर क्रांतिकारी परिणामों का कारण बनता है . आज का भारतीय युवा पाश्चात्य का पक्षधर है क्योंकि फ़िल्म /टेलीविजन और नेट पर जीवन का जो ताना -बाना उसके समक्ष खींचा जा रहा है उसमें भौतिकता (और  आडम्बर ) की प्रधानता है . साथ ही जिन परिवार के ये युवा सदस्य हैं उनमें से अधिकतर परिवार में अपनी संस्कृति और अच्छाई की महत्ता /महिमा का कोई विचार /चर्चा और आदर्श नहीं हैं .

फिल्मों,  टेलीविजन और नेट पर एक पक्षीय तरीके से पाश्चात्यता को ही जीवन लक्ष्य /जीवन सार्थकता  प्रतिपादित कर दिया गया . दूसरा पक्ष (हमारे संस्कार /संस्कृति और आदर्श ) इनपर अनुपस्थित रहे हैं . आज अधिकतर युवाओं ने भौतिकता ही देखी और समझी है . स्वयं भौतिकता के पीछे हो लिए और परिजनों को भी उसी तरह सोचने ,विचारने को सहमत कर लिया .पिछले तीस -चालीस वर्षों में प्रभाव हम सबने देखा,   देश में पश्चिमीकरण के रूप में बेहद तीव्रता से परिवर्तित होने का  .

अगर देश में से बुराई कम करनी है . अपनी साँस्कृतिक विरासत सुरक्षित करनी है ,उस भव्य विरासत की छत्रछाया में मनुष्य जीवन को उल्लास ,अभिप्राय और सार्थकता से जीना है तो युवाओं के ह्रदय और मन में वह बीज डालना होगा जिसमें भारतीयता की महिमा का अनुभव होता है . इसके लिए उन्हें वह दिखलाया जाना होगा जिसमें जीवन सार्थकता और आनंद सिर्फ भौतिकता (भ्रम) में ना दर्शित होता हो . भौतिकता का मनुष्य जीवन में एक सीमित महत्व होता है यह स्पष्ट करना होगा .

अगर ऐसा कर सके तो सामाजिक बुराई कम की जा सकेगी , समाज हित सुनिश्चित होगा और मानवता की रक्षा होगी .

-- राजेश जैन
09-12-2013

Wednesday, December 4, 2013

रक्तदान - अपेक्षा और भावना

रक्तदान - अपेक्षा और भावना
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रक्तदान आधुनिक मानवता अंतर्गत आती है . चिकित्सा विज्ञान के उन्नत होने के साथ यह तकनीक आ गई है , जिसमें किसी की रक्त-अल्पता के कारण उत्पन्न प्राणों के संकट से दूसरे किसी स्वस्थ व्यक्ति से रक्त लेकर उसे चढ़ाया जा सकता है और उसके प्राणों की रक्षा की जा सकती है .

थेलेसीमिया पीड़ित को रक्त-आवश्यकता एक नियमित अवधि में होती है . जबकि किसी अन्य को जीवन के किसी समय में दुर्घटना ,प्रसव में या रोग से रक्त-अल्पता आ जाने पर कभी किसी दिन रक्त दिया जाना होता है .

दयालु संगटन ,समाज सुधारक , एन जी ओ , चिकित्सा कर्मी इस हेतु रक्तदान को प्रेरित करते हैं ,जिससे रक्तकोष में रक्त उपलब्धता पर्याप्त रहे . इन की प्रेरणा और अपेक्षा से दयालु और स्वस्थ व्यक्ति रक्तदान में जागरूकता दिखा रहे हैं . इस तरह के समूह की प्रेरणा और अपेक्षा से किसी के द्वारा किया गया रक्तदान प्रशंसनीय है ही . किसी के प्राण रक्षक बनने का पुण्य  या उसके हितैषी होने का सन्देश तो हर रक्तदान से मिलता ही है .

अगर हमारी भावना रक्तदान करते समय सम्मान या प्रचार से भिन्न सिर्फ अपने इस सामाजिक दायित्व से प्रेरित हो तो और भी अधिक प्रशंसनीय हो जाती है .

आज जब छोटे से अपने जीवन में किसी- किसी बैर भाव से हम एक दूसरे के लहू के प्यासे तक हो जाते हैं . जिससे जीवन उल्लास से ना सिर्फ बैरी को वंचित करते हैं बल्कि ऐसे दुष्टता के भाव से हम स्वयं को भी जीवन उल्लास से वंचित करते हैं .ऐसे में रक्तदान वह पध्दति है जो हमें दुष्ट हो जाने से बचाती है . रक्तदान के माध्यम से अपनी धमनियों का जो रक्त हम दूसरे की धमनियों में प्रवाहित कर पाते हैं , वह बोध हमें ऐसे को जानकर लहू लुहान करने से रोकता है क्योंकि दूसरे की सिराओं में हमारा रक्त हमारी दयालुता और मानवता के वशीभूत प्रवाहित होता है . क्या हम स्वयं कभी अपना लहू मिटटी में मिलाते हैं ?

इस प्रकार रक्तदान के प्रति जागरूकता और इसे व्यापक करने पर हम समाज में आपसी विद्वेष की बुराई कम कर सकते हैं . जिसे आज समाज को बहुत आवश्यकता है .

रक्तदान में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर प्रत्यक्ष में तो एक या कुछ प्राण रक्षा करते हैं . किन्तु अप्रत्यक्ष हम अपने सामाजिक दायित्व पूरे करते हुए . मानवता का सन्देश प्रसारित करते हैं . इतिहास हमारी पीढ़ी को  मानवता रक्षक वर्णित करे इस हेतु हम रक्तदान को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनायें ..

--राजेश जैन
04-12-2013

Saturday, November 30, 2013

फेसबुक

फेसबुक
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फेसबुक का रचनात्मक ,सृजनात्मक ,ज्ञानवर्धक , प्रेरक , मानवता और समाजहित का प्रयोग ..
वर्त्तमान पीढ़ी को भाग्यवश मिली इस बेजोड़ ,शक्तिशाली और आधुनिक सुविधा का उचित सम्मान है ..
यही इसका लाभकारी उपयोग भी है ..

अन्यथा जैसे सोने को अन्य सस्ती धातु (लोहे इत्यादि ) में मिला कर हथोड़ी के रूप में प्रयोग करने से उसके मूल्यवान ,सुन्दर चमकीले
गुण को व्यर्थ करना है .और ऐसा सोने का यह प्रयोग कोई   विचारहीन ही कर सकता है .यह सोने जैसी बहुमूल्य धातु का असम्मान है
 वैसा फेसबुक का उपयोग मात्र समय जाया करने और बुराई और द्वेष बढ़ाने के लिए करना विचारहीनता का परिचायक  है. फेसबुक का असम्मान है

प्राप्त किसी निधि को निधि जैसा उपयोग ना कर सकें तो हम  या यह पीढ़ी /समाज इतिहास में दुर्भाग्यशाली ही वर्णित होगी .

--राजेश जैन
01-12-2013

Thursday, November 28, 2013

भारतीय मूल्य

भारतीय मूल्य
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यथा सँस्कार ,जीवन चुनौतियों को नेक और न्याय के मार्ग से अर्जित धन से पार करते जीवन यापन किया था . विवाह उपरान्त जीवन संगिनी का सहर्ष साथ इस तरह जीवन मार्ग तय करने के लिए मिला था . संतोषी उस पिता ने ,सपत्नीक बच्चों का लालन -पालन मितव्ययिता और गुणवत्ता की प्रमुखता के साथ किया था . बेटी की शिक्षा पूर्ण होने तथा विवाह योग्य वय होने के कारण ,बेटी का यह पिता आज योग्य वर ढूंढने निकला था . जिस प्रतिष्ठित घराने ने अपने चिरंजीव के लिए इस बेटी में रूचि दर्शाई वह सभी दृष्टिकोण से उपयुक्त था .

यह चिरंजीव गुणवान ,उच्च शिक्षित ,शालीन और सुलझे विचारों का था . माता-पिता भारतीय संस्कृति समर्थक तो थे ही आधुनिक उच्चता को भी जीवन और परिवार में यथा स्थान देने वाले थे . सभी कुछ अच्छा और अनुकूल था . हालांकि लड़के पक्ष से आर्थिक स्थिति पर महत्त्व नहीं दर्शाया गया था किन्तु किसी को ना कहते वह स्वयं हीनता बोध से घिरा हुआ था . वास्तव में आर्थिक दृष्टि से उसका स्वयं का स्तर दूसरे पक्ष से बहुत कम था .



स्वयं से वार्तालाप में उसने एक समाधान, हीनता दूर करने के लिए प्राप्त किया था . जिसमें उसका तर्क था उसकी बेटी आज के वातावरण में आधुनिकता से शिक्षित होते हुये भी भारतीय मूल्यों को निभा लेने का संकल्प रखती थी . बेटी के गुण और सुशीलता वह निधि थी जो आर्थिक स्थिति के अंतर को पाटने के लिए काफी थी .

 यह तर्क कभी तो आत्मविश्वास बढ़ा देता था . लेकिन अधिकांश समय अन्य विचार पुनः हीनता में उसे डालता था . दरअसल सफलता का जो पैमाना आज स्थापित है जिसमें अच्छा ,सभ्य ,उन्नतिशील और आधुनिकता का प्रमाण पत्र सुलभता से आर्थिक संपन्न को मिल जाता है इस पर वह असफल दिख रहा था .. पैमाने पर चढ़ी इस कंसनट्रेटेड केमिकल (-सान्द्र रासायनिक तत्व) की  मोटी परत को , भारतीय मूल्य का सॉफ्ट केमिकल ( तनु रसायन ) मिटा नहीं पा रहा था .

देखना है "भारतीय मूल्य" उस स्वाभिमानी बेटी के स्वाभिमानी पिता (स्वाभिमानी परिवार)  को आज के इस पैमाने पर समतुल्य कर पाते हैं अथवा नहीं ?

-राजेश जैन
29-11-2013

Tuesday, November 26, 2013

दैदीप्यमान

दैदीप्यमान
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मनुष्य जीवन सर्दी -गर्मी ,बरसात के मौसम के कुछ आनन्ददायी तो कुछ कष्टकारी प्रतिकूलताओं में बीतता है . इसी तरह कुछ उपलब्धियों ,सफलताओं की ख़ुशी तो कुछ विपरीतताओं तथा असफलताओं की निराशा के बीच भी जीवनयात्रा चलती जाती है .और एक मनुष्य इस तरह अंदर बाहर से पकता जाता है .

जिस तरह कोई फल सूर्य प्रकाश चक्र ( रात्रि में सूरज के ना होने से ,सुबह और शाम हलकी तीव्रता की धूप ,दोपहर को प्रखरता एवं अलग अलग मौसम से ) के मध्य छोटे से बड़ा और फिर पकते हुए स्वादिष्ट (या मीठा ) और पौष्टिक तत्वों से भर जाता है . बड़ा होने पर तथा पक जाने पर वह किसी दिन अपने वृक्ष डाली से टूट (या तोड़ लिए जाने से ) धरती पर गिरता है . जिसे कोई प्राणी या मनुष्य भोज्य रूप में ग्रहण करते हुए रसा - स्वादन लेता है तथा पौष्टिकता से लाभान्वित होता है . फल में कोई वैचारिक शक्ति नहीं होने से उसका बढ़ना -पकना और स्वादिष्ट होना ना होना सबकुछ परिस्थितियों पर निर्भर होता है . इसलिए स्वादिष्ट और पौष्टिक तो मनुष्य ग्रहण करता है , लेकिन कड़वा -अधपका या अपौष्टिक फल तिरस्कारित होता है . उत्पन्न प्रत्येक  फल, किसी ना किसी दिन अस्तित्व खोता ही है . किन्तु इसके पूर्व वह भली तरह पकता है तो उसके स्वाद और पौष्टिकता से ग्रहण करने वाला आनन्दित होता है , लाभान्वित होता है .
ऐसे भी फल होते हैं जिनमे ना तो मिठास (स्वाद) और ना ही पौष्टिक तत्व होते हैं .ऐसे फल  जो प्रकृति से ही गुणहीन होते हैं . उन्हें मनुष्य अलग कर देता है . आजकल गुणकारी फलों को भी पेस्टीसाईड्स , रासायनिक खाद के उपयोग और अधिक उत्पादन की व्यवसायिक दृष्टि से , फिर कृत्रिम रूप से जहरीले रसायनों के उपयोग से पकाया जाने लगा है . जिससे आकार और मात्रा तो बढ़ाई जा रही है किन्तु पौष्टिकता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है . इनका सेवन स्वास्थ्य दृष्टि से हानिकर हो जाता है .
स्पष्ट है कि उपयोगिता नहीं होने से या हानिकर होने से , कोई भी या कुछ भी धिक्कारा ही जाता है ..

मनुष्य भी पकते -बढ़ते किसी दिन अस्तित्व हीन हो ही जाता है . उसमें विचारशीलता विद्यमान होती है . वह यदि बढ़ते -पकते अपने आचरण कर्मों में ऐसी गुणवत्ता लाये जिससे अन्य को मधुरता प्रदान कर सके , उन्हें उनके जीवन संघर्ष में सहायक होते हुए सम्बल और स्नेह प्रदान करे तो शरीर से अस्तित्वहीन हो जाने के उपरान्त भी वह युगों तक मानवता की धारा प्रवाहित रखने में सफल होता है . इस धारा में समाज और साथी या आगामी मनुष्य का जीवन यापन अनुकूलताओं में आनन्द पूर्वक जारी रहने का मार्ग प्रशस्त करता है .

मनुष्य को जीवन में अवस्था के साथ बढ़ने  -पकने में फल जैसे ही किन परिस्थितियों में से निकलना पड़ा है , विचारशीलता से इस प्रक्रिया में उसने अपने गुण वृध्दि की है या गुण खोये हैं . इस बात पर मानवता और समाज के लिए उसकी उपयोगिता बनती है . उपयोगिताहीन धिक्कारे जाते हैं .

यह हम पर है बढ़ते -पकते अपने जीवन और अस्तित्व को हम समाज पोषक बनायें अथवा निरर्थक करें . विचारशीलता अपने में है यह निर्णय हम स्वयं करें क्या हम साधारण के बीच में से आसमान पर सूर्य भाँति चढ़ते हुये "दैदीप्यमान " होना चाहेंगें जिसके आलोक से आगामी पीढ़ियों को सच्चा जीवन मार्ग मिल सके ?

या सत्तर -अस्सी वर्ष साधारण जीवन प्रश्नों को हल करते बिता देना चाहेंगे .

--राजेश जैन
27-11-2013

Wednesday, November 13, 2013

सज्जनों की भीड

सज्जनों की भीड
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हम स्वयं सज्जन बन कर
सज्जन संख्या बढ़ाएंगे
समाज सुहाना हो लक्ष्य से
इस तरह यह भीड़ बढ़ाएंगे

इस नियत से कुछ एकत्र कर
फेसबुक लिस्ट ये जुटाई है
ऐसे कुछ वर्ष जी सकें तो हम
एक दिन अच्छा आएगा

समाज हमारा है यह अपना
इसे सच्चा स्वयं बनायेंगे
यह है हमारा दायित्व और
इसे सफलता से निभायेंगे

सर्वत्र उल्लास व्याप्त होगा
नहीं नारी शोषित होगी
स्वाभिमान हर सच्चे का
आजीवन ही बना रहेगा

हम मनुष्य विशेष प्राणी हैं
सृष्टि में अपनी विशिष्टता
कर्मों से अपने दर्शाएंगे
मानव मानवता दिखलायेंगे

--राजेश जैन
14-11-2013

Monday, November 11, 2013

सज्जनता या मूर्खता

सज्जनता या मूर्खता
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वह राह पर जब भी निकलता , अपने विचार-मग्नता के मध्य इस बात के प्रति तत्पर रहता ,किसी बेटी -बहन (नारी - कम सामर्थ्यशाली) को किसी सहायता की आवश्यकता तो नहीं . ऐसे अवसरों पर समुचित और वाँछित सहायता कर अपने पारिवारिक -व्यवसायिक प्रयोजनों में फिर लग जाता .
आज कार्यालय से वापिस लौटते कोई पचास मीटर आगे जा रही बाइक पर से एकाएक एक युवती अचानक रास्ते में छाती के बल गिर गई . करुणा उमड़ आई पास जाकर कार खड़ी कर उतर गया . इस बीच बाइक सवार को हादसे का पता चल गया था उसने पीछे आकर अपनी सह-सवार को सहयता दे उठा कर किनारे बैठाने का उपक्रम चला लिया था . युवती रोई जा रही थी , कुछ अंदरूनी चोट से और कुछ उत्पन्न हुए दृश्य में अपमानित सी , लज्जा सी अनुभव करते हुए .
उसने कुशलक्षेम जानी और ज्यादा गम्भीर चोट नहीं अनुभव कर वापिस कार में आ बैठ "इग्निशन की" घुमाई . इस बीच स्थल पर एकत्रित भीड़ में कुछ हाथ उसे कार ना बढ़ाने का संकेत कर रहे थे . उसे लगा युवती को तो विशेष सहयता की आवश्यकता नहीं है . फिर क्यों रूकने कहा जा रहा है . भीड़ में से एक ने उसे कहा आप चले जाएँ यह भीड़ कम-अक्लों की है .
अभी तक तो उस पर पीड़िता के सहायता भाव हावी था , किन्तु भीड़ जो स्थल पर बाद में जमा हुई थी उसके लिए "एक कार का खड़ा होना और पाँच -सात मीटर सामने दुर्घटना" ऐसा दृश्य बन रहा था जैसे कार ही इस दुर्घटना का कारण है . खैर उसे वहाँ से निकलने का रास्ता मिला और वह गंतव्य कि ओर बढ़ गया था ...

दूसरे दिन कार्यालय के लिए तैय्यारी कर रह था तब एक पुलिस सिपाही घर के सामने आया . उसने उसकी कार का क्रमाँक पूछा और फिर कहा आपकी गाड़ी से दुर्घटना की शिकायत थाने में आई है .थानेदार साहब ने कार सहित आपको बुलाया है .
थाने पहुँचने पर थानेदार ने बयान दर्ज करवाने कहा . जैसा पूछा गया वैसा सच उत्तर देते हुए अपने बयान दर्ज करवाये तब उसकी स्वयं की हस्तलिपि में उसे अपना पक्ष लिखने कहा गया .
उसने कागज़ ले इस तरह लिख दिया
"मै 'निर्दोष' आत्मज सिद्धान्त निवासी जबलपुर , कल अपनी कार से रास्ते में था तब एक महिला को सड़क पर गिरते देख सहानुभूति और सहायता के विचार से दुर्घटना स्थल पर रुका था . दुर्घटना महिला के असंतुलित हो कर अपने साथी की चलती बाइक पर से गिरने के कारण हुई थी ,जिसमें मेरी कार और मेरा कोई दोष नहीं है ,महिला के गिरते समय मेरी गाड़ी लगभग पचास मीटर दूर थी . फिर भी मेरे विरुध्द शिकायत /अपराध प्रकरण दर्ज किया गया है ऐसे में मेरा निवेदन है कि मेरा पक्ष पीड़िता को बताते हुए पुनः पूछताछ की जाये और यदि वह अपनी शिकायत वापिस नहीं लेती है तो
लगाये आरोप को सच मान उल्लेखित अपराध पर मेरे विरुध्द संविधान के दंड प्रावधान अनुसार कार्यवाही की जाये .
मै निर्धारित किये जाने वाला  दण्ड भुगतने को तैयार हूँ , "इसलिए नहीं कि मैंने उल्लेखित अपराध किया है  ,बल्कि इसलिये कि"  मै एक नारी को दुबारा झूठा सिध्द करने का प्रयास नहीं करूँगा . और दण्ड इस अपराध के लिए भुगतुंगा कि हमने अपने समाज को सच्चा बनाने , इतना संतोषी और सम्पन्न बनाने के अपने दायित्व का निर्वाह उचित तरह से नहीं किया है .जिससे अभाव के कारण , लालच के वशीभूत हो वंचित साथी मनुष्य कुछ धन की आशा में निर्दोष पर दोष मढ़ने को बाध्य हो जाते हैं "

अपने हस्ताक्षरित लिखा कागज़ थानेदार के समक्ष प्रस्तुत किया . थानेदार ने कहा अन्वेषण उपरांत  कार्यवाही की जायेगी .. अभी आप जा सकते हैं ..

 --राजेश जैन
12-11-2013

Sunday, November 10, 2013

विवाह पूर्व मिलान -जुलान

विवाह पूर्व मिलान -जुलान
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आजकल जब विवाह हेतु विवाह पूर्व मिलान -जुलान होता है
कोई मिलान करता है ..
*  टीपना (कुण्डली)   .
*  शिक्षा , पद ,आय .
*  रक्त समूह .. (अन्य स्वास्थ्यगत पैरामीटर )
*  धर्म-जाति और खानपान 
*  शरीर गठन और ऊँचाई  इत्यादि

ऊँचाई  पर से एक वास्तविक घटना का उल्लेख लघु -कथा रूप में कर रहा हूँ .

"विवाह हेतु बात चली उसकी, कन्या पक्ष जाति का था , परिवार संपन्न था , कन्या पढ़ी -रूपवान थी . उसको पसंद आ गई थी . अपने बेटे की ऊँचाई अधिक की तुलना में कन्या की कुछ कम लगने से पिता के मुख पर यह बात सम्बन्ध तय होने ,सम्बन्ध के समय और सम्बन्ध हो जाने के उपरान्त भी अनेकों बार सुनने में आई ..
विवाह हुआ उसका दाम्पत्य आरम्भ हो गया . कुछ ही अवधि में वह वास्तविकता से परिचित हो गया . ब्याही पत्नी सुशील ,गुणी ,सुघड़ और पति-परिवार समर्पिता है . जिसने असंयमित , कम -अनुशासन इत्यादि उसके गुणहीनता  को धीरे धीरे परिवर्तित करना आरम्भ कर दिया . दो बच्चे हुए . लालन-पालन में समर्पण देख वह अचंभित था . विवाहपूर्व के आर्थिक परिवेश की तुलना में उसे (पत्नी) यहाँ कमी थी . बिना शिकवे शिकायत के तंग-हस्त व्यय कर बिना किसी को कमी का आभास कराये किस सुंदरता से गृहस्थी चलाई एक आश्चर्य जनक सच था .
बच्चों की आवश्यकता , मनोविज्ञान की समझ थी . प्रथम दृष्टया कड़े अनुशासन से किसी को लगता कि बच्चों से लाड-दुलार ,प्यार कम है इस परिवार में .

बच्चे बड़े होते गए . उचित -अच्छी शिक्षा और मार्गदर्शन से अच्छे स्थिति में आ गए . उसे भय था , बच्चे अब कड़ाई की शिकायत कर सकते हैं . लाड-प्यार की तुलना अन्य मित्रों को मिले से कर उलाहना दे सकते हैं .

तब बच्चों के मुख से और उनके आदरभाव से अब यह साफ़ हो रहा है . माँ कितना चाहती हो आप , कितना कुछ किया आपने हमारे लिए और आप हमारी दुनिया में प्रथम आदर्श हो ..

वह सोचता है .. पत्नी का कद तुलना में दिखने में भले कम रहा .. किन्तु कितना ऊँचा व्यक्तित्व है उनका . बार बार समक्ष बौनेपन का अनुभव होता आया है ,बीते बरसों  में उसे . "

विवाह यदि लॉटरी है तो कामना ऐसी लॉटरी सभी की लगे ..
और इतनी चेतना नारी में हो तो सम्मान रक्षा समस्या ही ना बचे ..

नारी सम्मानित घर घर होगी..

--राजेश जैन
10-11-2013

 

Thursday, November 7, 2013

जीवन अनुसन्धान

जीवन अनुसन्धान
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जीवन पाकर , क्या है जीवन ,क्यों मिला जीवन , कैसे जियें जीवन ? और भी जीवन के अर्थ खोजते .. अन्य प्राणियों की तो नहीं कह सकते किन्तु मनुष्य जिसे उन्नत विचारशील मस्तिष्क मिला है , वह अनादि काल से इस हेतु अनुसन्धान करता आया है . और ऐसे अनंत मनुष्य तब से अपने मिले मनुष्य जीवन के पचास से सौ वर्षों (पंद्रह से बीस वर्ष तो सामान्यतः मस्तिष्क विकसित होने में लगता है ) तक अधिकतम "जीवन सुख " पाने के विभिन्न मार्ग तलाशता आया है।

किसी ने
* कला - साधना में
* धर्म में लीनता में
* भोग-उपभोग पाने में
* वैभव -सम्मान बटोरने में
* विज्ञान शोध में
* भौतिक ज्ञान बढाने में
* दुनिया और अंतरिक्ष में भ्रमण और खोज में
* समाज -व्यवस्था बनाने में
* चिकित्सा -सुविधा साधन आविष्कारों में
* आजीविका संघर्ष में
* और कुछ और तरीकों में

अपना मनुष्य जीवन लगाया . कुछ ने  जीवन के अलग अलग अवस्था में इनमें से कुछ मार्ग का अनुशरण किया . जीवन तो सभी का एक आयु तक पहुँचने के बाद पूरा हुआ या हो जाएगा .

जीवन जब समाप्ति पर आया /आएगा .. मिले जीवन सुख से तृप्ति किसे ज्यादा रही/होगी इस पर विस्तृत चर्चा  की जाए तो आशा है - बहुतों के शेष जीवन का मार्ग परिवर्तन और इस तरह जीवन-समाज निर्माण ,  सुख-शांति और स्वच्छता में सहायता मिल सकती है .

शालीन कमेंट्स आमंत्रित हैं ...

--राजेश जैन
08-11-2013

Wednesday, November 6, 2013

कविता

कविता
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कविता जब नाम नारी का
बूढी होती जैसी सबकी बारी
कविता है जब शब्द पंक्तियाँ
स्वरूप सदैव नव-यौवना का

कविता है अजब पहेली
बूढी होकर नारी कविता
जब रचती कोई कविता
बनती वह नवयौवना ही 

साहित्य का नारी रूप कविता
सम्मानित ज्यों साहित्य में
मानव में नारी कविता हमें
रचना अब है पुरुष सक्षम सा

--राजेश जैन
06-11-2013

नारी चेतना और सम्मान रक्षा


नारी चेतना और सम्मान रक्षा
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परिवार चलाने में महत्व मेरा
 नहीं पुरुष कोई तुम से कम है
 उत्पत्ति में नव संतति के लिए
 मेरी भागीदारी भी बराबर की है

संरक्षण परिवार को देने यदि
 कठिनाई हे पुरुष तुम झेलते हो
 तब कठिनाई में तुम्हें देखकर
 प्रेम-दुलार,धीरज तुम्हें देती हूँ

मैं इस विवाद में नहीं उलझती
 भूमिका मेरी तुम से अहम् है
 हे पुरुष किन्तु जितना सहारा
उतना देती मै भी परिवार को

पुरुष ने बनाये लच्छेदार बोल
भारतीय नारी के सम्मान के
रहे सिर्फ मंच से भाषणों के लिये
यथार्थ मिलता उल्टा असम्मान हमें

लिया जन्म हमने भी मानव का
समाया उसमें मन पुरुष जैसा ही
हूँ समतुल्य, उठता प्रश्न बहुधा ही
प्रयोग नारी क्यों होता वस्तु सा

आओ पुरुष सहायता करो मेरी
चेतना हममें जाग सके सहज सी
स्वाभिमान बचायें अपने जीवन में
रक्षा सक्षम बन, पायें सम्मान नारों सा 

--राजेश जैन
06-11-2013

Monday, November 4, 2013

ये व्यवस्था हमारी ही हैं

ये व्यवस्था हमारी ही हैं
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दृष्टि शिकायती ही ना रह जाए . व्यवस्था के लिए और स्वयं के लिए यह हितकर नहीं . दो दिन बेटी के साथ पुणे प्रवास पर था . रात्रि 11.25 बजे पहुँचा था लम्बे सफ़र की थकान और पुणे बहुत बार गया भी नहीं था . रात्रि के उस समय हिम्मत नहीं हो पा रही थी ,सामान और बेटी सहित होटलों को भटकूँ . पूछताछ में पता हुआ रेलवे विश्रामालय में एसी कक्ष उपलब्ध है किन्तु 1 घंटे बाद बुक हो पायेगा . अभी बुकिंग साईट अवेलेबल नहीं होती है . हमने प्रतीक्षा की और फिर लगभग एक बजे कक्ष में पहुँच सके . रूम बहुत अच्छा था थोड़ी सफाई की कमी के अतिरिक्त सब बहुत अच्छा था .

 दूसरे दिन मुझे रात्रि के लिए अकेले ठहरना था ज्ञात हुआ की मेरी आने की टिकट पर आगे बुकिंग नहीं हो सकती और एसी कक्ष अब उपलब्ध नहीं है .नई टिकट पर बुकिंग तो हो सकती है पर एसी डॉरमेट्री में उपलब्धता है . मेरी सहमति पर एसी डॉरमेट्री में बुकिंग करते समय ही स्टेशन मास्टर (वाणिज्य ) ने अवगत कराया , इसमें कभी खटमल की शिकायत भी होती है . मैंने दूसरी व्यवस्था करने के स्थान पर इस समस्या को देखेंगे सोच कर बुकिंग करा ली .

दूसरे दिन पूणे से निकलने के पूर्व दो मिनट का समय देकर मैंने ड्यूटी स्टेशन मास्टर (वाणिज्य ) को अवगत कराया कि जैसी चेतावनी बुकिंग के समय दी गई थी वैसा नहीं है ,मुझे रात्रि विश्राम में खटमल समस्या देखने नहीं मिली . सुनकर उनके चहरे पर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता स्पष्ट झलक रही थी . उन्होंने मुझे धन्यवाद कहा और बताया कि हम हर दो -चार दिनों में खटमल ट्रीटमेंट करते हैं किन्तु ऐसा फीडबैक हमें मिलता नहीं है .

वापिस आते समय मै सोच रहा था . नौकरी पेशा ये भी हमारे ही अपने हैं . इन तक सिर्फ हमारी शिकायत ही क्यों पहुँच पाती हैं . ये व्यवस्था भी हमारी ही हैं . कोई समस्या है तो दोनों ही ओर से सकारात्मक दृष्टिकोण से उन्हें हम ही सुलझा सकेंगे , अन्यथा कोई अन्य इन्हें सुधारने क्यों आएगा . आये भी तो क्या हमारे स्वाभिमान को ऐसा स्वीकार्य होना चाहिए  ?

--राजेश जैन
05-11-2013
 

Monday, October 28, 2013

धर्म का अस्तित्व

धर्म का अस्तित्व
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धर्म का उथला ज्ञानी , धर्म उसको मानता है जैसा  उसके आज कट्टर मानने वाले स्वयं को प्रदर्शित करते हैं . ऐसे में धर्म को
दोषपूर्ण ढंग से मानने का प्रदर्शन यदि प्रधानता से प्रचारित होता है तो वास्तविक धर्म और उसकी अच्छाई पृष्टभूमि में छिप जाती है , और भ्रम धर्म में दोष का प्रतीत होता है . जबकि धर्म दोष रहित है तभी तो सभी अनुकूल /प्रतिकूल परिस्थिति में धर्म अनादि से अस्तित्व में बना हुआ है . धर्म के सच्चे ज्ञानी में प्रदर्शन की अभिलाषा स्वतः समाप्त होती है . बिना प्रचार के ऐसे धर्म ज्ञानी को जगत स्वयं पहचान लेता है . लेकिन जब धर्म के पूर्ण ज्ञान प्राप्ति की भावना दूसरे भौतिक सुखों की प्राप्ति की भाग-दौड़ में प्रमुख नहीं रह गई है . ऐसे में धर्म के नाम पर फैले अन्धविश्वास और पाखण्ड की ओट में छिपने से धर्म को नहीं बचाया गया तो आशंका  है कि हमारी आगामी पीढ़ियां धर्म के प्रति विमुख होती जायेंगी और धर्म अनुमोदित कर्मों और आचरण के प्रति उदासीनता से परिवार ,समाज ,राष्ट्र और विश्व में बुराई और अनाचार और जीवन अशांति का कारण बनेगी .

सभी अनुकूल /प्रतिकूल परिस्थिति में धर्म अनादि से अनंत तक अस्तित्व में तो रहेगा शंका नहीं है किन्तु अपने काल में हम बुराई से जूझते जीवन संघर्ष को बाध्य होंगें ...

--राजेश जैन
29-10-2013

नरक -स्वर्ग और धर्म

नरक -स्वर्ग और धर्म
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भारत में प्रचलित अधिकाँश धर्मों में प्राणी जीवन अनादि-अनंत बताया गया है . विश्व में दूसरे धर्म ऐसा नहीं बताते उन्हें कोई चुनौती नहीं देते हुये ,लेख में अपनी सहमति भी इसी आस्था में है निसंकोच लिख रहा हूँ . जिन धर्मों में "प्राणी जीवन अनादि-अनंत " बताया गया है , उनमें नरक -स्वर्ग (और ज्यादातर में मोक्ष भी ) का अस्तित्व भी माना गया है .
पृथ्वी पर और पृथ्वी तरह के अन्य ग्रहों में जिनमें भी जीवन है ,वहाँ प्राणियों के कर्मों अनुरूप ही जीवन में और आगामी जन्मों में प्रतिफल प्राप्त होता है .
अत्यंत अच्छे और स्वच्छ कर्मों के संचय से स्वर्ग और अत्यंत निकृष्ट कर्मों के संचय के प्रतिफल में नरक के जीवन पाने की अवधारणा है .
आजकल जब विज्ञान और गणितीय ज्ञान अधिकतर मनुष्य प्राप्त कर रहे हैं तब इन धर्म के आस्था वाले कुल में जन्म लेने के बाद भी प्रमाण के साथ नरक -स्वर्ग के अस्तित्व को सिध्द नहीं किये जा सकने के कारण उन्हें धर्म पर शंका होती है .वे विज्ञान और गणितीय उत्तर के तरह धर्म के सिद्धांत को पुष्ट करने का प्रमाण ढूंढते हैं . धर्म ग्रन्थ-शास्त्र के अनेकों उल्लेखों को तर्क और प्रमाण की कसौटी पर परखते हैं .
धर्म पर आस्था होनी चाहिए या नहीं इस विवाद में नहीं जाते हुए यह सुविधाजनक होगा की सीधे लेख का मंतव्य स्पष्ट किया जाए .
वास्तव में व्यवहारिक -भौतिक और विज्ञान के ज्ञान के विद्यालय जब बढे तो धर्म ज्ञान शंका कि प्रवृत्ति बढ़ी . जिससे हमारे कर्म और आचरण धर्म अनुमोदना अनुरूप कम होते गये और इनमें स्वच्छंदता बढ़ने लगी . जिससे पारिवारिक -सामाजिक और अंततः राष्ट्र और विश्व में सौहाद्र -विश्वास शांति कम होती गई . बुराई -अशांति इत्यादि दिनोंदिन बढ़ती गई  .
जीवन इस जन्म पूर्व था या नहीं , उपरान्त रहेगा या नहीं और इस जीवन के पाप पुण्य के लेखा -जोखा से स्वर्ग -नरक जाना होगा अथवा नहीं इस तरह धर्म में कही अनेकों बातों के प्रमाणिकता भले ही ना दी जा सके किन्तु धर्म विरुध्द कर्म और आचरण से आज जीवन-संघर्ष ना सिर्फ हमारे अपितु हमारे माँ-पिता ,भाई -बहन और बच्चों इस तरह सभी के बढ़ गए हैं . जो स्वतः प्रमाण है  इस बात का कि धर्म सच्चे हैं और मानव हित (और प्राणियों के भी हित ) में हैं .

--राजेश जैन
28-10-2013
 

Thursday, October 24, 2013

"इस प्यार" का मेरे


"इस प्यार" का मेरे
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जिसे "प्यार" आज करते हैं प्रचारित सब 
वैसे प्यार के लिए नहीं हूँ मै उपलब्ध
गृह में है लक्ष्मी जिसे दिया है वह प्यार मैंने
किन्तु प्यार नहीं संकीर्ण समा जाए इतने से अर्थ में

जो प्यार का समंदर चाहिए आज दुनिया को
जिससे मानवता निर्मल प्रवाहित है धरातल पर
हित और कुशलता लिए जो चाहिए समाज को
प्यार का समंदर मै रखता हूँ दिल में संजो अपने

और देने को रहता बेताब भरपूर उसे सबको
गर सम्मान किसी को है "इस प्यार" का मेरे

--राजेश जैन
25-10-2013

Wednesday, October 23, 2013

क्या होता है प्रेम ,क्या होता है जन्मदिन और क्या होता है भारतीय दाम्पत्य

क्या होता है प्रेम ,क्या होता है जन्मदिन और क्या होता है भारतीय दाम्पत्य
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साठ वर्ष पूरे करने पर जन्मदिन के अवसर पर पति ने पत्नी के लिए जो उपहार सोचा और विचार किया वह मिसाल है भारतीय रीति , नीति , प्रेम , अच्छाई और संस्कृति की जिसे देखकर प्राचीन भारत की ओर विश्व आकर्षित होता था .

"मुंबई के 1 पति ( आदरणीय कहें , अनुकरणीय कहें , सच्चे नायक या Hero कहें उचित ही होगा ) ने पत्नी को क्या पसंद आता है उसे ध्यान रख छह सौ एक , नेत्र रोग पीड़ितों के ऑपरेशन का व्यय वहन करने का अनूठा उपहार साठ वर्ष पूरे करने पर अपनी अर्ध्दागिनी को दिया "

धन्य है यह जोड़ी ,दीर्घजीवी हो हमारी हार्दिक शुभकामनायें .

आधुनिक आज के पाश्चात्य चलन में जहाँ स्त्री पुरुष के बीच सम्बन्ध बहुत अस्थ्याई प्रकृति के हो गए हैं . जहाँ विश्वास ही नहीं रह गया कि प्यार कहलाता दैहिक आकर्षण किस दिन और किस छोटी सी अवधि में नापसंदगी में परिवर्तित हो जाएगा . विवाह तो होने ना पायेगा और हो भी गया तो कब बंधन टूट जायेगा या तोड़ लिया जाएगा , वहाँ स्थायित्व के ऐसे प्रेम का उदाहरण निश्चित ही इस पीढ़ी के विचार और अनुकरण का विषय होना चाहिए .
प्रौढ़ावस्था या कहें वृध्द हो चलने के बाद भी प्रेम में वह गर्मजोशी है जिसमें जन्मदिन उपहार के पीछे लाखों रुपये व्यय किये जा रहे हैं . वह भी उस भलाई के लिए जिससे छह सौ एक पीड़ितों के लिए दुनिया अच्छे से देख सकने का मार्ग प्रशस्त होगा ,और निजी सुख कोई भौतिक वस्तु के उपभोग का ना होकर एक अभूतपूर्व सयुंक्त मानसिक प्रसन्नता का होगा .

युवाओं को उन तथाकथित सेलेब्रिटी का अनुकरण त्यागना चाहिए जिनके लिए पुरुष-स्त्री का सम्बन्ध सिर्फ दैहिक सम्बन्ध और मन बहलावे के लिए अल्प काल का होता है . जो अनेकों से बहला-फुसलाकर लालच देकर सम्बन्ध कायम करते हैं ,कहीं छिपे तौर पर कहीं खुले रूप में "लिव इन रिलेशनशिप " का व्यभिचार स्वयं तो करते ही हैं . अपने को बतौर हीरो प्रचारित करवा कर अनेकों फॉलोवर बना कर उन्हें इस दुष्पथ पर चलने की गलत प्रेरणा देते हैं .

अगर हमारा मीडिया अनुकरण हेतु उपरोक्त मिसाल को कवरेज नहीं देता है  तो युवा स्वयं इसे प्रचारित करें और इस प्रसंग से शिक्षा ग्रहण करें .. क्या होता है प्रेम ,क्या होता है जन्मदिन और क्या होता है भारतीय दाम्पत्य जिससे हमारा भारतीय परिवार अटूट होता था  और समाज सुखी और स्वच्छ मानवता का उदाहरण बनता था .

--राजेश जैन
24-10-2011

Tuesday, October 22, 2013

मनुष्य पूर्ण जीवन

मनुष्य पूर्ण जीवन
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अस्सी वर्ष या अधिक एक मनुष्य पूर्ण जीवन माना जाता है . जन्म के उपरान्त पूर्ण शरीर विकसित होने में अठारह -बीस वर्ष लगते हैं . सांसारिक ,व्यवहारिक , वैज्ञानिक ,गणितीय या अन्य ज्ञान जिनसे आगे जीवन सही चले अर्जित करते हुए उम्र पच्चीस -तीस की हो जाती है . सामाजिक प्राणी मनुष्य को सामाजिक परम्परा और व्यवस्था (और शारीरिक आवश्यकता के) अनुसार इस बीच विवाह-बध्द होना होता है . बूढ़े होते माता-पिता और नव-विवाह से आये गृहस्थ दायित्व पूरे करने के लिए उसे आजीविका धन -अर्जन के साधनों में लगना होता है . लगभग पचपन -साठ वर्ष की उम्र तक ये दायित्व भी पूरे होते हैं .

इस उम्र में पहुँचने पर सामान्यतः बीस -पच्चीस वर्ष हमारे पास शेष होते हैं . जिन्हें हम चाहें तो विवेकपूर्ण रूप से बिना पराधीनता से जी सकते हैं .

* अपनी कामनाएं , जीवन आशायें , पारिवारिक दायित्वों के लिए हम पहले अनैतिक हो गए हों , न्यायप्रिय ना रह सके हों . स्वार्थवश छल -कपट ,असत्य का सहारा लिया हो . चाहें तो इसको सुधारते हुए  कम लाभ पर व्यापार , चिकित्सक हों तो कम शुल्क पर उपचार सेवा कर सकते हैं .

* लम्बे पूर्व जीवन में अच्छे बुरे बहुत अनुभव हमें हुए हों , उनमें क्या परिवार ,समाज और राष्ट्र के भलाई का है उस अच्छे के वाहक प्रचारक और शिक्षक बन सकते हैं . जो बुरा किया ,देखा और सुना उसके बुरे प्रतिफल के प्रति युवाओं को सचेत कर सकते हैं .

* अगर धन -वैभव पर्याप्त है तो अपने हिस्से ( बिना पारिवारिक -कलह ) का धन समाज में निर्धन के उपचार , शिक्षा ,वस्त्र या भोजन में सहायता के लिए व्यय कर सकते हैं . या नगर -समाज में बहुत कमी है , किसे हम धन -सहायता से सुधार सकते हैं उस पर व्यय कर सकते हैं .

* धन बहुत नहीं है विशिष्ट ज्ञान अगर हमें है तो उसकी जिसे आवश्यकता है उसे निशुल्क या साधारण शुल्क पर कक्षाएं लगाकर ज्ञान दान कर सकते हैं .

* व्यवहारिक ज्ञान है , शरीर स्वस्थ है . भागदौड कर सकते हैं तो विभिन्न कम जानकार जरुरतमंद को दिशाज्ञान -निर्देश देते हुए उनका ऐच्छिक कार्य पूरा कराने में सहायक हो सकते हैं .

*  सच्चा धर्म अंगीकार करते हुए उसका सच्चा प्रचार भी कर सकते हैं . धर्म यदि सही तरह से ग्रहण किया या करवाया जाता है तो मनुष्य भला और सज्जन ही बनता है .
             यही नहीं जो उपयुक्त मानते हैं उपरोक्त से भिन्न ढंग से भी समाज -परिवार की भलाई की जा सकती है .अगर जीवन के बीस -पच्चीस वर्ष हम न्यायप्रियता ,दया और करुणाबोध  से जी सकें . तो जीवन सार्थक किया जा सकता है . जिस हमारी व्यवस्था -समाज की स्थितियों का उपहास सभी ओर दिखाई -सुनाई देता है . बिना गंभीरता के हम स्वयं भी इसका उपहास उड़ा लेते हैं अथवा सुन देखकर ग्लानि अनुभव करते हैं . उस सामाजिक परिदृश्य को हम ही बदल सकते हैं .

अन्यथा जीवन क्रम निजी दायित्वों के निर्वहन उपरान्त भी पूर्व अनुसार ही  ( अनीति का व्यापार , स्वार्थ अपेक्षा के छल , बहुत अच्छा महँगा भोजन -वस्त्र और सुविधा या बदनीयत से अन्य पर दृष्टि ) जारी रखते हैं तो संसार को बिना कुछ वापस दिए सिर्फ उससे लेते -छीनते हुए ही किसी दिन अनंत साधारण जैसे ही हम भी मिले मनुष्य चोले को अज्ञानी अन्य प्राणियों के भांति छोड़ते हुए काल -ग्रसित होकर संसार से अस्तित्वहीन होते हैं . भले ही जीवन में यह भ्रम हमें रहा हो कि हम बहुत उच्च पदस्थ ,प्रतिष्ठित ,सम्मानीय , ज्ञानी , अमीर , सुन्दर ,बलिष्ट या लोकप्रिय इत्यादि रहे हैं .

--राजेश जैन
23-10-2013

Monday, October 21, 2013

राजनीति और धर्म

राजनीति और धर्म
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राजनीति वह स्थान है जहाँ एक पक्ष होता है और एकाधिक विरोधी पक्ष होते हैं . विरोधी पक्ष सामान्यतः विरोध में तर्क ,प्रचार और बातें करता है . आदर्श राजनीति में अगर राष्ट्रहित ,समाजहित या मानवता को पुष्ट करने की नीति प्रस्तुत या पालन की जाती हों तो विरोधी भी उसका विरोध ना कर उसकी प्रशंसा करते हैं . लेकिन हमारा समाज या राष्ट्र भोगोपभोग प्रधान आधुनिकता और आडम्बरों के वशीभूत आदर्शों से दूर होता जा रहा है . ऐसे में आदर्श राजनीति भी इतिहास मात्र ही रह गया है . यहाँ स्वयं या अपने पक्ष में पाने की अपेक्षा ही प्रधान होती जा रही है . जो कुछ किसी को देने की चर्चा और प्रचार होता है वह मात्र बाध्यता और ऐसा दिखने का अभिनय ही होता जा रहा है .

इसके विपरीत धर्म वह स्थान है जहाँ पाने और देने दोनों की अपेक्षा बराबर होती है . यहाँ अपने लिए जीवन और परलोक में सुख की अपेक्षा होती ही है . अन्य को भी ऐसा ही सुख मिले यह भी भावना होती है . यहाँ दान और त्याग भी बराबर उत्साह और प्रसन्नता पूर्वक किया जाता है . आलोचनाओं से बचा जाता है और आलोचना दूसरे के स्थान पर स्वयम के आचरण और कर्म में ढूँढी जाती है .

ऐसे में राजनीति जब आदर्श से दूर हो गई है तब धर्म का उल्लेख और विरोध के लिए किसी धर्म के किसी अंश का आश्रय लेकर अपने पक्ष के तरफ पलड़ा झुकाने का प्रयास वास्तव में समाज और राष्ट्र के लिए हानिकर होगा . धर्म तो मानो या ना मानो धर्म ही रहेगा किन्तु आधे अधुरे प्रचार और तर्क से व्यस्त और भोगोपभोगपूर्ण आधुनिकता में लिप्त नई पीढियों में जिसे धर्म के अध्ययन की रूचि और समय कम पड़ रहा है अपने या अन्य धर्म के विषय में भ्रम पूर्ण ज्ञान ही मिलेगा . ऐसे में "धर्म जो अब तक परलोक और लोक सुधार की हमारी आस्था और श्रध्दा के कारण हमारे आचरण और कर्म इस तरह से नियंत्रित करता और करवाता था जिससे समाज और परिवार संरचना सर्व हितकारी होती थी  " ,वह प्रभाव आगामी पीढ़ियों पर से खोता जाएगा .

राजनीतिग्य अपने को ,अपने दल को अन्य पर श्रेष्ट साबित करने के लिए चाहे जो करें किन्तु धर्म के धूर्तता पूर्ण उपयोग ना करें तो उचित होगा अन्यथा आगामी स्वयं की पीढ़ियों के लिए भी सद्प्रेरणा और सदविचार देने वाले धर्म महत्त्व और उपयोगिता के लिए प्रश्न चिन्हित होने लगेंगे . तब परिवार परिवार और समाज समाज नहीं बचेगा और मनुष्य जीवन हर तरफ अविश्वास और असुरक्षा में तनावों और चिंताओं में ही बीता करेगा .

--राजेश जैन
22-10-2013

Sunday, October 20, 2013

धर्म

धर्म
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धर्म बहुत से माने जाते हैं . धर्म सहस्त्रों वर्ष पुराने हो गए हैं .  जिसके हम अनुयायी हैं उसके शास्त्रों में उल्लेखित घटनाओं पर ,सिध्दांतों पर ,चमत्कारिक स्वरूप पर हमें मानने में कोई शंका नहीं होती है . किन्तु प्रमाणित नहीं किये जा सकने के कारण अन्य  धर्म के अनुयायी उस पर विश्वास नहीं करते जबकि उनके स्वयं के धर्म में भी ऐसा बहुत कुछ होता है जिसे वे मानते हैं ,किन्तु दूसरे प्रमाणिकता पर शंका करें तो प्रमाण दिया जाना संभव नहीं होता . अर्थात आस्था है तो विश्वास कर लिया जाता है और अनास्था कि स्थिति में जिस पर (अन्य धर्म ) लाखों /करोड़ों का विश्वास होते हुए उसे प्रमाणों के अभाव में हम मानने /स्वीकार करने को राजी नहीं होते हैं .

सिध्द होता है कि धर्म तो अपनी -अपनी आस्था का है . विभिन्न धर्म (और उसके धर्मावलम्बी ) आपस में एक दूसरे को चुनौती देने को तत्पर हो सकते हैं . लेकिन एक तथ्य में किसी भी धर्म के अनुयायी को मानने में कोई संदेह नहीं होगा , वह यह है कि "उनके धर्म को जो सच्चे रूप से में जानता और पालन करता है वह पूरे प्राणी जगत के लिए भले ही भला नहीं होवे लेकिन मनुष्य मात्र के लिए भला ही होता है " . फिर भले ही अन्य मनुष्य किसी जाति /समाज ,दरिद्र अथवा रोगी ही क्यों ना हो .

जिन भगवान या अवतारों से किसी भी धर्म की उत्पत्ति या परम्परा चली है उन्होंने कभी नहीं चाहा या कहा कि उन्हें लाखों /करोड़ों माने . उन्होनें जीवन में सुखी रहने और परलोक अच्छा करने ( जिन धर्मों में जीव अनादि -अनंत माना है ) के सिध्दांत और मार्ग बताये हैं , उपदेश दिये हैं और पालना या ना पालना जीव विशेष पर छोड़ा है . होनहार अनुरूप स्वतः सभी की श्रध्दा आचरण और कर्म होते हैं . लेकिन ऐसा होने पर भी अनुयायी अपने धर्म के पालन करने वालों की संख्या पर जोर देते हैं . और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करते हैं .

हमारा लिखने और पढने का आशय यही होना चाहिए , कि हम अन्य के धर्म आस्था को अपने तरफ करने की अपेक्षा ना करें . यह अपेक्षा अवश्य करें कि धर्म का उथला ज्ञान ना रख  सभी अपने अपने धर्म को पूरे सच्चे स्वरूप में जाने और माने . ऐसा हो सका तो मानव समाज सुखी हो जाएगा .

--राजेश जैन
21-10-2013

Saturday, October 19, 2013

धर्म और अपनी श्रेष्ठता

धर्म और अपनी श्रेष्ठता
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अपनी श्रेष्ठता अन्य पर दर्शाने के लिए हम कई उपाय करते हैं . और  इस हेतु हममें से -

* कोई रूप -सौन्दर्य का सहारा लेता है .
* कोई युवा अवस्था की शक्ति उपयोग करता है .
* कोई धन वैभव प्रदर्शित करता है .
* कोई इत्र -वस्त्र आदि के ब्रान्ड धारक बनता है .
* कोई अपनी अर्जित कला प्रस्तुत करता है .
* कोई बाहुबल आजमाता है.
* कोई दूसरों की शारीरिक कमी पर शब्द प्रहार करता है .
* कोई किसी के हीन कुल -जाति अथवा दरिद्रता पर चोट करता है .
* कोई हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा के वार्तालाप के बीच अंग्रेजी प्रयोग आरम्भ करता है .
* कोई अपना अर्जित ज्ञान बघारता है .
* कोई दान ,परोपकार ,सहायता और भलमनसाहत के कर्म करता है .
  अगर ये सारे प्रभाव करते नहीं जान पड़ते तब हम अपने धर्म के किसी अंश को उध्द्रत करते हैं .

जबकि धर्म का ना तो पूरा ज्ञान हमें होता है . और ना ही पूरी तरह से हम अपने धर्म का पालन करते हैं .
अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने के लिए सुविधाजनक, विवेचना पलड़ा अपने पक्ष में झुकाने के लिए करते हैं .

वस्तुतः धर्म तो वह मार्ग हैं जिसका पूरा ज्ञान सच्चे तरह से हो जाए तो अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शन का मोह ही टूट जाता है .
और आचरण इस तरह हो जाते हैं जिससे श्रेष्ठता देखने -सुनने वाले को स्वतः अनुभूत होती है .

--राजेश जैन
20-10-2013

Friday, October 11, 2013

लौटायें मिली निधि मातृभूमि से ,ये ही महानता है

लौटायें मिली निधि मातृभूमि से, ये ही महानता है
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नहीं संदेह योग्यता पर उनकी
नहीं शंका लगन -प्रतिभा पर भी
गौरव राष्ट्र को उनकी उपलब्धि पर
हतप्रद कर पाश्चात्यजनों पर ,जड़ती जो चुप्पी है

उनने खर्चे पच्चीस वर्ष अपने यौवन के
और दिया बहुत मनोरंजन भी
बदले इस खर्चे और मनोरंजन के
दिया राष्ट्र ने स्नेह ,सम्मान अभूतपूर्व है

खाते -पीते कुल से वे थे
वैभव मिल गया इतना अब
खाने -पीने से निश्चिन्त जिससे
आगामी कई पीढियां उनकी है

लेलें विदाई अवस्था आई विदा होने की
रिक्तता पूर्ति होगी कोई नई प्रतिभा से
आधा जीवन निकला इस तरह
जो खोया, पाया उससे कई गुना है

पाया बहुत ,आई बारी लौटाने की अब
धन है बहुत ,ना भागें अब धन के पीछे
ना करें विज्ञापन पाश्चात्य बढ़ावे के
संस्कृति प्रति लायें जागृति आज ,ये आवश्यकता है

परखें स्वयं सामर्थ्य अपना
बना सकें तो बनायें वातावरण ऐसा
जी सके प्रत्येक स्वाभिमान से जिसमें
लौटायें मिली निधि मातृभूमि से ,ये ही महानता है

--राजेश जैन
12-10-2013

Thursday, October 10, 2013

बहुत दे चुका राष्ट्र और क्या दिलाना चाहते हो ?

बहुत दे चुका राष्ट्र  और क्या दिलाना चाहते हो ?
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मीडिया ,बहुत दे चुका राष्ट्र  और क्या दिलाना चाहते हो ?

वे हजारों घंटे जिसमें पढ़कर बनता स्वयं महान
दिए देखने में उनका खेल बना दिया उन्हें महान

व्यय किये हजारों रुपये बचत और मेहनत के अपने
देखा इतना बने लोकप्रिय और कमा हुए अरबपति वे

जूठन भी हर समय भोजन को मिल जाए तो है भाग्य
निर्धन ,वृध्द लाचार मर जाते यहाँ उपचार अभाव में
नारी ,बेटी ,बहन सुरक्षित नहीं इस देश -समाज में
आशा जिनपर परिवार आजीविका की भटकते हैं ऐसे युवा

समस्याओं और बुराई का दिखता नहीं कहीं पर अंत
ऐसा है हमारा स्वतन्त्र भारत करने के जिसमें स्कोप अनंत
हैरत ,ऐसे में असमंजस उन्हें क्रिकेट बिना मै जियूँगा कैसे ?

--राजेश जैन
11-10-2013

Monday, September 23, 2013

भलापन -छोटा छोटा सा

भलापन -छोटा छोटा सा
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अपने को भला बना लेना हमारा ही सामर्थ्य होता है हमारी ही उपलब्धि होती है . भला कितना अधिक बन सकते हैं इसकी कोई सीमा ही नहीं है . हम भले से भले की बराबरी तो कर ही सकते हैं इतना भी भले हो सकते हैं जितना कोई कभी हुआ ही नहीं हो .भला होने के लिए यह भी आवश्यक नहीं कि बहुत ही दुष्कर कर्मों को हम संपन्न करें . बहुत छोटे छोटे अच्छे कर्मों को समय और आवश्यकता अनुसार करने लगना भी भलापन ही होता है .
बहुत छोटे छोटे अच्छे कर्म ,विचार और भावना , हमारा छोटा छोटा सा भलापन कैसे हो सकता है ? इस पर उदाहरण के साथ विचार करें .
* सड़क पर कार /बाइक या स्कूटी चलाते हुए हमारी भावना स्वयं को दुर्घटना से बचाने की होती है . यदि हम भावना थोड़ी संशोधित करें कि हमारी असावधानी से कोई दूसरा हमारी गाड़ी की चपेट में आकर गंभीर शारीरिक यातना या क्षति का शिकार ना हो जाए . वह किसी परिवार का लाडला या इकलौता कमाऊ सदस्य हो सकता है . इस भावना से हम वाहन चलायें तो छोटा सा भलापन है .
* सड़क पर हम कभी भ्रमण करते हैं , देखते हैं कुछ प्रौढ़ या महिला /युवती स्कूटी या बाइक धकेलते हुए ले जाते हैं . पेट्रोल /पंक्चर या अन्य समस्या हो सकती है . यदि हम स्वस्थ हैं दस -पंद्रह मिनट का समय और कुछ श्रम लगा कर पेट्रोल पंप / रिपेयरिंग शॉप तक गाड़ी पहुंचा दें . नारी तो कम शक्तिवान होती है इसलिए और प्रौढ़ हो सकता है ह्रदय ब्लॉकेज की समस्या ग्रस्त हों . इस तरह का श्रम उनके लिए हानिकर हो सकता है . इस भावना से छोटा यह भला कर्म किया जा सकता है .
* रिजर्वेशन के कारण कुछ श्रेणी के व्यक्ति हम से बेहतर पद , सर्विस या शैक्षणिक संस्था पा गए हों . बुरा लग सकता है हमें , लेकिन यह विचार करें हमारी पूर्व समाज व्यवस्था में उनके पूर्व कुटुंबजनों ने अपमानजनक जीवन देखा है . हमारी पीढ़ी यह त्याग कर कुछ उसकी भरपाई कर रही है .
* एक सेविंग बैंक अकाउंट में हमारी कुछ जमा -पूंजी कम ब्याज दर पर जमा है . जबकि फिक्स्ड-डिपोसिट में ज्यादा दर मिलती है . कम पर गम ना कर हम सोचें बैंकिंग सिस्टम बहुत बड़ा है . हम जो बिज़नेस देते हैं उससे ही उसके व्यय उठाये जाते हैं . अब बैंक किसी नीति के अंतर्गत हमारा अकाउंट कॉर्पोरेट में परिवर्तित कर दे .बैंक जिस पर ऑटोमेटिक हमें ज्यादा दर से ब्याज देने लगता है . हमने अपेक्षा तो नहीं की किन्तु ज्यादा हमें मिलने लगा . अब बड़े इस कुछ लाभ को हम अपने मैड /सर्वेंट की महँगाई के अनुपात में पारिश्रमिक सरलता से बड़ा सकते हैं . उनके बच्चों के कपडे या अध्ययन में कुछ सहायता कर सकते हैं . यह व्यवस्था और हमारे मातहत ये मनुष्य हमारे अपने ही हैं .
* कोई भ्रष्टाचार कर रहा हो . मिलावटी सामग्री बेच रहा हो . दया भाव रखें कि क्यों सदबुध्दि नहीं मिली उसे . एक जगह तो इस अनैतिकता से लाभ ले रहा है वह,  किन्तु इस सदबुध्दि हीनता के कारण अधिकांश भी जब वैसा ही करने लगे हैं  तो सैकड़ों ऐसी जगह - दुकानों पर स्वयं वह रोग कारक सामान/सर्विस  क्रय कर शिकार हो रहा है . 
* सिनेमा हम सभी देखते हैं . नायक या नायिका को उच्च आदर्श निभाते कुछ दृश्य किसी भी फिल्म धारावाहिक में डालना निर्माणकर्ता की लाचारी होती है क्योंकि वास्तव में नायक होता वही है जो उच्च आदर्श जीता है . देखे ऐसे सिनेमा के हलके गीत-गाने तो गुनगुना लेते हैं उन्हें बार बार देखते-सुनते हैं . कभी-कभी हम देखे गए "उच्च आदर्श निभाये दृश्य" की कुछ भी नकल अपने परिवार- पास पड़ोस में  करें .. यह भी छोटा भलापन ही होता है 
इन भावना और विचारपूर्वक हम थोडा सा आचरण और कर्म संशोधित करेंगे तो  छोटा छोटा सा  हमारा भलापन समाज में मधुरता का संगीत -गीत सृजित करेगा और मानवता पोषित होगी .
--राजेश जैन
24-09-2013

Sunday, September 22, 2013

सुन्दर या (और) भला

सुन्दर या (और) भला
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किसी की सुन्दरता या (और) उसका भला होना देखने सुनने वालों को सुहाता है . किसी का सुन्दर और भला होना कहाँ से कैसे और आता है यहाँ इस पर विचार करें .
मानवीय सुन्दरता का लेख करें तो वह (सुन्दरता) प्रायः जन्मजात होती है जो बचपन से सामान्यतः यौवन तक बढती है फिर उसका क्रमशः क्षरण होता है . और वृध्दावस्था तक तो सिर्फ इतनी बचती है जिससे जिन्होंने वृध्दावस्था में ही किसी ऐसे व्यक्ति को देखा हो तो यह अनुमान लगा सके कि अपने समय में ये अतीव सुन्दर रहे होंगे. स्पष्ट है कि किसी का सुन्दर होना प्रकृति प्रदत्त होता है . और उसका रहना और कम होना बहुत कुछ प्राकृतिक कारणों पर ही निर्भर होता है .स्वयं मनुष्य का अपना योगदान बहुत प्रभाव नहीं करता .

अब भला का उल्लेख करें . जन्म से सुन्दर या कुरूप दोनों में ही एक मस्तिष्क होता है . मस्तिष्क की क्षमता सभी की बहुत अच्छी से लेकर बहुत कमजोर तक होती है . जिसके कारण देखी- समझी या अध्ययन में उपलब्धि निर्भर करती है . परिवार से संस्कार , धर्म और विद्यालय से शिक्षा फिर स्वतः कर्मों के कारण व्यक्ति भला (कम -अधिक) या बुरा (कम -अधिक) माना और पहचाना जाता है .  भला होने की बुनियाद तो मस्तिष्क क्षमता , पारिवारिक -धार्मिक संस्कार और शिक्षा से मिलकर बनती है . किन्तु स्वयं की भलाई (या बुराई ) का निर्माण या स्वयं को तराशना व्यक्तिगत उपलब्धि होती है स्वयं पर निर्भर करती है , प्राकृतिक कारणों का योगदान ज्यादा नहीं रहता है .
भला कौन कहलाता है ? जो व्यक्तिगत और पारिवारिक हितों से ऊपर जाकर सामाजिक अन्य मानवीय और प्राणियों की हितों के लिए काम करता है . दुखियों से संवेदना अभाव और वंचितों से सहानुभूति और दया रख उनके उत्थान और हितों के लिए काम करता है . निश्छलता और करुणा ह्रदय में विद्यमान होती है .सुन्दरता के विपरीत भलापन बढती उम्र के साथ भी बढता हो सकता है . बल्कि कहें जो भलाई के मार्ग पर बढ़ता है . वृध्दावस्था में पहुँचने पर वह निश्चित ही अधिक भला होता जाता है .
सुंदर होना वह वस्तु है जो प्रारंभिक संपर्क में तो किसी को भा सकती है . किन्तु भला होना  प्रारंभिक संपर्क में सुहाये या नहीं किन्तु लम्बी अवधि और साथ में भला ही सुहाता है . भले में सुन्दरता हो या नहीं ,सुन्दरता बचे या ( अवस्था बढ़ने ) ना बचे , उनकी भलाई अच्छी लगती ही है .

अपने को सुन्दर बनाना अपने सामर्थ्य में बहुत नहीं होता लेकिन भला बना लेना हमारा ही सामर्थ्य होता है हमारी ही उपलब्धि होती है . भला कितना अधिक बन सकते हैं इसकी कोई सीमा ही नहीं है . हम भले से भले की बराबरी तो कर ही सकते हैं इतना भी भले हो सकते हैं जितना कोई कभी हुआ ही नहीं हो .भला होने के लिए यह भी आवश्यक नहीं कि बहुत ही दुष्कर कर्मों को हम संपन्न करें . बहुत छोटे छोटे अच्छे कर्मों को समय और आवश्यकता अनुसार करने लगना भी भलापन ही होता है .

आज जब भला कोई दिखना बिरला होता जा रहा है . ऐसे समय में अपने कर्मों ,आचरणों से 'भला' अस्तित्व बचाना हमारा जीवन सार्थक करता है . जितने सुन्दर आज सभी ओर दृष्टव्य हैं .. उनसे भी ज्यादा जब भले दिखने लगेंगे तब ही व्यवस्था ,समाज और वातावरण सुखकारी होगा . सुन्दर दिखने , विलासिता और मनोरंजन में डूबे रहने से जीवन का कुछ समय तो अच्छा लग सकता है किन्तु मौत तक भी पूरा जीवन सुखद लगे इसके लिए भला होना ही अनिवार्य है . यह मानवता भी है समाजहित भी है .
--राजेश जैन
22-09-2013




Friday, September 20, 2013

संत छलावा और नारी शोषण

संत छलावा और नारी शोषण
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भारतीय परिवेश में नारी कैसी रहती है? इस पर दृष्टि करते हुये विषय पर आना उचित है . शहरी व्यवसाय, कार्यालयीन कार्यरत  और महाविद्यालयों में शिक्षारत नारियों को अलग रखें तो प्राचीन काल से अब तक नारियों (और किशोरवय में आ गई बेटियों का) मुख्यरूप में पुरुषों से वार्तालाप और व्यवहार पिता ,भाई , पति और निकट परिजनों तक ही सीमित रहता है .

शहरी व्यवसाय, कार्यालयीन कार्यरत और महाविद्यालयों में शिक्षारत का पुरुषों से वार्तालाप और व्यवहार थोडा विस्तृत होता है . जिसमें व्यवसाय और अध्ययन के हितों के लिए उन्हें कुछ और पुरुषों से व्यवहार रखना आवश्यक होता है . किन्तु उसमें भी भारतीय नारी मर्यादाओं की सीमा पालन की जाती है .

अतः कोई पुरुष अनेकों नारियों के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क रखे संभव नहीं होता . इस बात के दो क्षेत्र अपवाद हैं . एक सिनेमा और दूसरा संत सत्संग . सिनेमा लेख विषयवस्तु नहीं है अतः संत सत्संग प्रश्न ही उल्लेखित है .

धर्म की दृष्टि से घर से धर्मालयों और सत्संग स्थल को जाती नारी पर हमारा समाज तनिक भी आपत्ति नहीं करता है . इसलिये सत्संग स्थल वह जगह होती है जहाँ अनेकों नारी किसी एक या कुछ पुरुष ( संत ) के सम्मुख सम्पूर्ण श्रध्दा और विनय के साथ उपस्थित होती है . किसी और स्थान पर  पुरुष को नारी सानिध्य इतनी अधिक संख्या और श्रध्दानत रूप में नहीं मिलता है .

अब विचार करें इतनी श्रध्दानत नारी के सम्मुख संत रुपी पुरुष कौन होता है . सच्चे संत बहुत होते हैं . जो स्वयं अपना हित करते हुए भक्तों (नारी सहित ) का हित करते हैं . जहाँ से मार्गदर्शन पाकर आचरण, दृष्टिकोण और व्यवहार में स्वच्छता आती है जो परिवार और समाज में स्वस्थ वातावरण निर्मित करती है . संत का यह वर्ग श्रध्देय है ,आदरणीय और पूज्यनीय भी माना जा सकता है . विषय संत छलावा का लिया गया है .सच्चा संत किसी को छलावा में नहीं डालता .

अब आयें हम ढोंगी संत पर जो सिर्फ छलावा करता है .संत वेश में बैठा यह पाखंडी कौन होता है ? . यह अध्ययन के क्षेत्र में पिछड़ गया , या कमजोर पृष्ठभूमि का अति महत्वाकांक्षी या फिर वह पुरुष जिसकी नारी देह भूख एक या कुछ से सम्बन्ध में नहीं मिट पाती या कुंठाग्रस्त वह जो कहीं सफल ना हो सका , हो सकता है . ऐसा व्यक्ति जब यह देखता है कि नारियों में संत प्रति श्रध्दा अंधश्रध्दा की हद तक है . तब वह संत का चोला अपनाकर रम जाता है .तब संत को सम्मुख अपढ़, निर्धन से लेकर कुलीन घरानों की नारी उपस्थित मिलती है . धर्म चर्चाओं और लीलाओं को माध्यम बनाकर वह ढोंगी नारी भक्तों को अपनी पिपासा का शिकार बनाता है . संत के उस सत्संग में जमूरे की तरह कुछ अवसरवादी भी जुड़ते हैं . जो तनिक अपने लाभ के लिए संत की महिमा और झूठे चमत्कार बखानते हैं और भक्तों की संख्या बढ़ाते हुए पाखंडी का क्षेत्र विस्तृत करते हैं . पीड़िता अपनी लाज ,मर्यादा में पाखण्डी द्वारा शोषण को अपने तक ही रख लेती है . और इस तरह पाखण्डी का दुस्साहस बढता जाता है . उन्नत तकनीक का प्रयोग कर पाखण्डी ऐसे चित्र और वीडियो भी बनाने लगा है , जिसके द्वारा  पीड़िता यदि प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही पर जाते दिखे तो ब्लैकमेल करते हुए वह अपना बचाव कर सके .

परिदृश्य यदि इस तरह का है . तो हम इससे उदासीन नहीं रह सकते क्योंकि यह हमारे समाज को कई गंभीर क्षति पहुंचा रहा है .
*  धर्म को आवरण दे किये गए पाखण्ड के कारण अनावश्यक रूप से अन्य धर्मावलम्बी प्रश्न उत्पन्न करते हैं . 
*  सच्चे संत के प्रति भी शंका की दृष्टि बनती है .
*  उस कार्य में जिससे कोई शिक्षा ,सीख नहीं मिलती हिस्सा लेने के लिए अनेकों व्यक्ति अनेकों घंटे ,फ्यूल और धन  व्यय करते हैं .
* निर्दोष नारी अनावश्यक अपमान और कठिन जीवन को बाध्य होती है .
* हम और हमारी संस्कृति उपहास का विषय बनती है .

हमें समग्रता से उपाय करने चाहिए .
* कितने भी व्यवसायिक हित प्रभावित हों हमें पाखंडियों का विज्ञापन नहीं करना चाहिए .
* वैसे टीवी चैनेलों पर उनके प्रोन्नति की प्रस्तुतियां नहीं दिखाई जानी चाहिये . किन्तु ऐसा नहीं है तब हमें ना स्वयं देखना और अन्य को भी रोकना चाहिए .
* हम से जितना हो सके जागरूकता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए .
* किसी पाखण्डी का भंडाफोड़ किसी वयस्क कहानी की भांति और लम्बी लम्बी अवधि के लिए टीवी चैनेल पर बार बार प्रसारित कर ERP बढ़ाने के प्रयास करना महँगा "एयर टाइम" और "दर्शक समय" व्यर्थ करना है . इसके स्थान पर सच्चे संत की क्या क्रियाएँ , आचरण और कर्म होते हैं , बताने से श्रोता का ज्ञान बढ़ता है और उससे उन्हें "धर्म तथा सदमार्ग " और पाखण्ड में अंतर करना आता है .
--राजेश जैन
21-09-2013

Sunday, September 8, 2013

अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस

अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस
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मनुष्य जन्मता है .अलग अलग पृष्ठभूमि ,परिवेश ,धर्म ,शिक्षा और संस्कारों में पलता बढ़ता है . इन विभिन्नता के साथ ही जन्मजात मिले मस्तिष्क की अलग अलग क्षमताओं के कारण सब की सोच ,समझ ,कर्म ,आचरण ,आस्था , जीवन प्राथमिकतायें इत्यादि अलग अलग होती हैं . जिसे एक तर्कसंगत ,सही और उचित निरुपित करता और मानता है कोई या कुछ अन्य उसे अनुचित भी मान सकते हैं .इन मत विभिन्नताओं का होना सहज है .इसलिए मत विभिन्नताओं को सहजता से ही लिया जाना चाहिए . लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थवश हम  मत विभिन्नताओं में संघर्ष पर उतारू हो जाते हैं .
इसी तरह जीवन है तो कितना भी अच्छा और सच्चा कोई है जीवन में कभी भूल और त्रुटी करता है जो कम अच्छा और कम सच्चा है वह ज्यादा भूल और त्रुटी करता है . भूल और त्रुटियों का होना भी सहज होता है . और करने वालों को सुधार के अवसर मिलने चाहिये . मिलते भी हैं . लेकिन गंभीर किस्म की भूलें अपराध की श्रेणी में आती हैं . कुछ लोग कुछ अपराध करते हैं जबकि  कई अपराधिक प्रवृत्ति के हो जाते हैं और कई कई अपराध करते हैं .कुछ अपराधी बदले में दण्ड भुगतते हैं . पर कुछ चतुराई से अपराध करते भी हैं किन्तु दण्ड भुगतने से बच जाते हैं .
इन बचते अपराधियों को देखते कुछ जानते -बूझते अपराध करते हैं . स्वयं तो स्वीकारते नहीं लेकिन पकडे जाने पर भी अपने को निर्दोष बताते रहते हैं .वास्तव में भूल ,अपराध किसी से कुछ हो गया है तो सीख सबक जिससे अगली बार वह ना करे दिया जाना न्यायसंगत और समाज व्यवस्था के लिए आवश्यक भी है . किन्तु किसी के द्वारा किन्हीं परिस्थिति ,आवेश ,उत्तेजना या क्रोध में हुए अपराध के बाद .शान्त अवस्था में अपराध बोध हो गया तो उसे स्वयं इसको स्वीकार करने और प्रायश्चित और दण्ड के लिए स्वयं प्रस्तुत होना चाहिए .
यह स्वस्थ आचरण है , मानसिक स्वस्थता की द्योतक है और स्वस्थ परम्परा भी है . जिसमें भूल और अपराधों का अस्तित्व रहते हुए भी सामाजिक स्वस्थता बनती है . मानवता भी यही होती है .
हुए अपराधों को स्वतः स्वीकारने पर और साक्ष्य से पुष्ट होने पर बाध्यता में स्वीकारने पर दोनों ही स्थितियों में दण्ड की मात्रा (प्रावधान ) वही रहते हैं . इसलिए अपराधों की स्वतः स्वीकोरिक्ति का चलन समाप्त सा हो गया है . अपराध प्रमाणित ना होने की संभावनाओं को ध्यान में रख अपराधी साबित होने के पूर्व तक उसे झुठलाता रहता है . अनेकों बार साक्ष्य अभाव में वह दण्ड भुगतने से बचता भी है . और ऐसे उदाहरण मिलने पर अपराधों की संख्या बढती है .
कोई व्यक्ति प्रयास यह नहीं करता कि वह कोई अपराध ना कर बैठे . इसलिए अपराध बढ़ते जाते हैं . बल्कि जिस व्यक्ति से अपराध हो गया है वह यह प्रयास  करता है कि अपराध के साक्ष्य कैसे मिटाये . इस प्रयास में वह हुए अपराध के बाद और बर्बर  अपराध करता है .
उदाहरण स्वरूप देखें .. अभी पुरुषों द्वारा नारियों पर दैहिक शोषण के अपराध बढे हुए हैं . ऐसे हुए किसी अपराध के बाद अपराधी उस पीड़िता को मार डालता है . यह बर्बरता इसलिए करता है ताकि उसके किये अपराध की शिकायत (साक्ष्य) वह बाद में ना कर सके . एक के बदले दो अपराध इस कारण हो जाते हैं .
पहले (इतिहास में)  हुए अपराध और भूलों को स्वीकार करने के साहस दिखाते , अपराधों पर प्रायश्चित करते और किये का दण्ड स्वतः माँगते और भुगतने के उदाहरण अनेकों मिलते थे . विशेषकर धर्म गुरु और संत तो यह कर ही लेते थे . किन्तु अब इन  उदाहरणों का अस्तित्व सिर्फ इतिहास के  पृष्ठों पर ही सिमट गया है .

आज अपने आप को संत कहता ,कहलवाता व्यक्ति भी अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस नहीं करता है . अगर इतने श्रेष्ठ पद पर आसीन कोई व्यक्ति यह नैतिक साहस नहीं दिखा सकता तो साधारण मनुष्य से अपेक्षा तो व्यर्थ ही होगी .
ना स्वस्थ परम्परा रहेगी ना ही हमारा समाज स्वस्थ रह सकेगा . प्रत्येक अपराधी ही बन जाएगा यही प्रवृत्तियाँ यदि जारी रहीं तो .
पराकाष्टा पर पहुँचने के बाद तो किसी बात में कमी की ही सम्भावना बनती है . बुराई कम करने के सार्थक प्रयास और अपने स्वहित त्याग करना यह पीढ़ी नहीं चाहती है . लगता है बुराई भी पराकाष्टा पर पहुँचने बाद ही कम हो सकेगी .
--राजेश जैन
08-09-2013

Friday, September 6, 2013

संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है

संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है
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सच्चाई और अच्छाई के पथ अनंत लम्बाई के हैं . धर्म अवतारों ने ये पथ पूरे चले हैं .धर्म कई अस्तित्व में हैं . उनके केंद्र में भगवान (ईश्वर) अलग अलग हैं. और जब तक कोई नया धर्म नहीं देना (अपवाद भी हैं ) चाहता धर्म का तब तक कोई भी बड़ा से बड़ा व्यक्ति संत या गुरु ही होता है . यह संत या गुरु स्वयम इन सच्चाई और अच्छाई के पथ पर चलता हुआ अपने भक्त और श्रध्दालुओं को साथ अग्रसर करता जाता है .
सच्चाई और अच्छाई के पथ पर जिसने नेतृत्व करने की भूमिका निभाई है . वह संत या गुरु पद पर आसीन माना जाता है . संत निरंतर पथ पर चलता जाता है . अनंत लम्बे इस पथ पर कितना भी चले शेष बहुत रहता है . अतः संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है . सच्चे संत में तो यह भी गुण होता है कि कोई अनुगामी यदि उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली और सच्चा हो तो अपने आगे का स्थान उसे दे देता है .स्पष्ट है संत सच्चाई के पथ पर जीवन भर कभी स्थिर नहीं हो पाता . निरंतर आगे की दिशा में बढ़ता जाता है .

आज कभी कभी इससे कुछ विपरीत दृश्य द्रष्टव्य होता है . अच्छे पथ पर चलते किसी गुरु को कुछ संख्या में अनुगामी मिल गए तो गुरु का ध्यान भटक जाता है . वह उस पथ पर स्थिर हो स्वयं अटकता है .यह प्रबन्ध भी करने लगता है कि उससे आगे कोई ना बढ़ पाए . और स्वयं को ही भगवान प्रसिध्द करने लगता है . जिस भगवान या धर्म का उल्लेख उपदेश और प्रवचन वह करता है उन्हें वह अपने पीछे भीड़ एकत्रित करने का जरिया मात्र जितना महत्त्व देता है .
मान मिला तो उसमें अहंकार आ समाता है . जिन्हें तज इस पथ पर आया था ,वे लालसायें उसमें पुनः जागृत हो जाती हैं . अपने ही भक्तों और अनुगामी को छलते वह इनकी पूर्ति करने लगता है . भक्त श्रध्दा और सम्मोहन में सुध बुध गवायें रहते हैं . बहुत बाद में समझते हैं प्रतिक्रिया में विलम्ब से स्वतः संकोचों में रह जाते हैं . तब तक एक गलत उदाहरण समाज के सम्मुख आ खड़ा होता है .धर्म के प्रति उनकी आस्था तो होती है . संत ,गुरु और विद्वान जो सच्चे भी हैं उनकी शंका के दायरे में आ जाते हैं .


हर काल में एक या कुछ संत का उत्थान स्वाभाविक है . पुरातन काल से होता आया है . किन्तु  एक या कुछ संत का पाखण्डी हो जाने पर पतन चिंतनीय है गहन क्षोभ का कारण है . ऐसा पहले कम ही होता था . शेष सभी बदल रहे थे उतना चिंताजनक नहीं था क्योंकि उनका बदलना कुछ को ही प्रभावित करता था . लेकिन किसी संतवेशीय का बदलना निश्चित ही बहुत चिंता उत्पन्न करता है . बहुत अधिक भोलेभाले भक्तजनों को प्रभावित करता है .
जब कोई क्षेत्र जल-प्लावित होता है तो बचने के लिए सभी ऊँचे स्थानों की शरण लेते हैं . बुराई रुपी जल हर घर -दुकान ,कार्यस्थल लगभग सभी जगह जब भरता जा रहा है  तो ऐसा कोई स्थल तो चाहिये जहाँ पहुँच पीड़ित  सुरक्षित हो सके .
धर्मस्थल और संत शरण वैचारिक ,आध्यात्मिक और सदाचार की दृष्टि से ऊंचाई का वह स्थान होता है जहाँ पहुँच बुराई रुपी जल-प्लावन से बचा जा सकता है.ऐसे में किसी संत का संत कर्म आचरण से डिगना संत शरण में आये श्रध्दालुओं को बुराई -प्लावन में डुबा देना है . वह भी तब जब वे अपने होशो हवास में नहीं बल्कि संत के प्रति भक्तिभाव में लीन सुधबुध भूले हुए होते हैं .
एक संत शरण में गए भक्तों की यह दशा को निहारते लोग जब उन्हें दुर्दशा में देखेंगे तो निश्चित ही बुराई से बचने की चाह भी होगी और दिखती कोई संत शरण भी होगी पर उसमें जाने से कतरायेंगे . क्योंकि जो उन्होंने देखा उसके बाद उन्हें इसमें शंका रहेगी कि वहां शरण लेकर वे बच सकेंगें
उपभोग , अति भोग-लिप्सा और प्रसिध्दि के भूखे के लिए बहुत सी ओर जगह हैं वहाँ जाकर जोर आजमाये . लेकिन जहाँ भोले-भाले भक्त , सरल नारियाँ निशंक अपनी पूरी श्रध्दा के साथ शान्ति और आदर्श ग्रहण करने शीश नवाए पहुँचते हैं उन पावन धर्म स्थलों पर अपने ढोंग रचने ना आयें बेहतर होगा .किसी भी धर्म   , "मानवता और समाजहित"  में यही होगा .

--राजेश जैन 
07-09-2013

 

Thursday, September 5, 2013

अब क्या करे छला गया भक्त ?

अब क्या करे छला गया भक्त ?
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किसी संत /गुरु के तेज ,प्रसिध्दि उसके उपदेशों और लेखों से प्रभावित एक साधारण व्यक्ति भी और करोड़ों के भांति संत का भक्त बन जाता है . उसके प्रति अथाह श्रध्दा करता है . अपनी बीस -पच्चीस वर्षीय भक्ति और श्रध्दा के बीच कई बार उसे संत के बारे में कुछ ख़राब चर्चाएँ सुनाई देती है . वह इसे अपने इष्ट के चरित्र हनन का प्रयास लगती है . संत के प्रति पूज्य भाव के रहते अनसुना करता जाता है .आरम्भ में ये चर्चा कुछ कम फिर बढती भी हैं . लेकिन गुरु के प्रति आदरभाव भी समय के साथ उत्तरोत्तर बड़ा होता है . अतः ख़राब चर्चाएँ उसे ख़राब लोगों का दुष्प्रयास ही लगता है .
उन बातों पर वह विश्वास नहीं कर पाता है . उसे लगता है अगर हमारे संत में कोई खराबी होती तो क्यों उसके अनन्य भक्तों की इतनी ज्यादा संख्या होती .वह भी यहीं नहीं दूर -दूर तक अनुशरण करने वाले विद्यमान होते . यह भी लगता कि गुरु ठीक ना होते उनके कर्म बुरे होते तो लगते आरोप प्रमाणित हो गए होते . इस तरह मन में चलते तर्कों के साथ श्रध्दा कायम रहती . श्रद्धालु होने का समय धीरे धीरे पच्चीस वर्ष का बीत जाता है .फिर एक दिन वह आ जाता है जब संत का एक  दुष्कर्म प्रमाणित होता है . संत विपत्ति में फंसता है . संत का प्रभाव चला जाता है जिससे  उसके दुष्कर्म पीड़ित और भी कई सामने आ जाते हैं . संत संत नहीं पाखण्डी सिध्द हो जाता है .
करोड़ों अन्य भक्त जैसे ही वह (छला)  भी उस सच्चाई (पाखण्ड ) पर विश्वास नहीं करना चाहता है . लेकिन प्रकाशित हो रहे सच को मानना पड़ता है .उसके दुखी होने के कारण हैं . उसकी आस्था छली गई है . विभिन्न सांसारिक कर्मों में व्यस्त ,भागदौड की जिन्दगी में पाए तनावों से मुक्त होने के लिए जिसकी भक्ति ,सत्संग का सहारा लेकर वह शांति अनुभव करता रहा था . वह सब तो ढोंग साबित हो गया होता है . सांसारिकता निभाने के लिए अपने मंतव्य सिध्द करने के लिए जितने छल स्वयं भक्त ने नहीं किये (भक्त संत की तुलना में हल्का मनुष्य होता है )  उस से कई गुने छल उसके इस पाखंडी इष्ट ने अपने लुभावने आश्रम ,लीला स्थल बनाकर अध्यात्म का रूप दिखाकर सम्मोहित करते अपने ही भक्तों के साथ किये .धन के अतिरिक्त बीस -पचीस वर्षों में अपने अंध श्रध्दा पर इस भक्त ने नौ हजार छह सौ घंटे ( चार सौ दिनों के बराबर ) इस संत पर व्यय किये . अनमोल जीवन का एक वर्ष से ज्यादा वह पाखंडी को पुष्ट करता चला गया .
छले इस भक्त को क्या करना चाहिए ? क्या अभी भी संत का बचाव करना चाहिए ? या  अपने अंध-विश्वास ,अंध-श्रध्दा और अंध-भक्ति समाप्त करनी चाहिए ? देखा -देखी में किसी बात को स्वयं बिना विवेक -विचार करना चाहिए ? 
'देखा -देखी' करते जाना पाखण्ड को पुष्ट करने वाली हो सकती है . इक पूरे समाज और देश की प्रतिभा को पथ भ्रमित करने वाली हो सकती है.
समाज में भोगवाद प्रवृत्ति जब बढ़ी तो बहुत से अतिभोग प्रवृत्ति के व्यक्ति हमारी धर्म श्रध्दा को देखते धर्म प्रवॄतक संत का वेश धारण कर अपने भोग-लालसाओं  को तुष्ट करने अवतरित हो गए ."वास्तव में विभिन्न धर्म तो पुरातन और सिध्द हैं .जग कल्याणकारी रहे हैं . बच्चे और नवयुवा उन पुरातन शास्त्र और ग्रंथों को नहीं जानते . धर्म की प्रभावना वर्तमान के विद्वान के माध्यम से उन तक पहुँचती है .  अर्थात आवरण आज के विद्वान होते हैं जिसके अंतर्गत प्रवर्तन हमारे स्थापित धर्मों का होता है ".ऐसे में तथाकथित ढोंगी ,पाखंडी को अंधश्रध्दा में भक्त पहचान नहीं सकें तो आवरण पर ये पाखंडी आसीन हो जायेंगे . जिस दिन पापाचार का भंडा फूटेगा . उसदिन इनसे सब की आस्था टूटेगी . ऐसे में धर्म के आवरण पर विराजित इनके कारण नई पीढ़ी की विरक्ति हमारे सच्चे धर्म के प्रति हो जाने का खतरा होगा . और धर्म से हमारे बच्चे विमुख हुए तो समाज और मानवता बुरी तरह प्रभावित हो जायेगी .
इसलिए छला भक्त अबसे भी सावधानी करे . अन्धता त्यागे तो रहा सहा तो अपना हित बचाएगा ही और भविष्य के धर्म विमुखता को (छला गया भक्त) भी रोक सकेगा .  मानवता और समाजहित के प्रति दायित्व निभा कर कुछ हद तक अपना धर्म निभा सकेगा .

--राजेश जैन
06-09-2013





Wednesday, September 4, 2013

संत के प्रति भक्त कर्तव्य

संत के प्रति भक्त कर्तव्य 
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वैसे संत तो दोषरहित होता है . पर आज जब नैतिकता ,न्याय का स्तर सब तरफ गिरा है तो उससे निष्प्रभावित आज का संत भी नहीं रह गया है . अब कहें तो तुलनात्मक रूप से अधिक सच्चा और अधिक अच्छा होने के बाद भी कुछ दोष संत में रहे आते हैं .संत के  दोष उत्तरोत्तर कम होने चाहिए . लेकिन भक्तों की  अंध-भक्ति ,अंध-श्रध्दा और अंध-विश्वास से संत में यह क्रिया कमजोर पड़ती है .
पीछे आ रही भक्तों और श्रध्दालुओं की भीड़ संत में अहंकार भी बढा देता है . ऐसे में वास्तव में वह संत कम ही बचता है . किन्तु संत या गुरु पद  की पूर्व अर्जित प्रतिष्ठा उसे संत पद पर ही आसीन रखती है . वह अहंकार में भूलता है, अपने आप को चमत्कारी मान बैठता है .उसे लगता है वह किसी भगवान तुल्य हो गया है .उसे यह भी भ्रम हो जाता है अब वह जो भी अच्छा बुरा करेगा उसके अनुयायी /भक्त उसे गुरु आशीर्वाद ही मान ग्रहण करेंगे .
अच्छाई तो संत या गुरु से अपेक्षित ही होती है उसमें तो कितनी भी करे किसी को कोई शिकायत नहीं होती . किन्तु अहंकार और अपने विचार-भ्रम में वह कुछ बुरा किसी भक्त के साथ करता है . भक्त या तो उसमें भी खुश रहता है या अपने विभिन्न संकोचों के कारण या हिम्मत ना कर पाने के कारण चुप रहता है , या कहीं चर्चा करता है तो उसे अन्य अन्धविश्वासी भक्त या धर्म-भीरु परिजन चुप रह जाने को समझा देते हैं .
संत तक विरोधी स्वर/हलचल पहुँचती नहीं , या हलचल पहुँचती भी है और कोई उग्र प्रतिक्रिया श्रध्दालुओं की ओर से नहीं आती तो उस की भ्रम -सोच और बलवती होती है . अब वह बुरा कर्म और आचरण दोहराने लगता है . नये - नये भक्त के साथ यह आजमाता जाता है . सारी अच्छाई जिसने संत पद दिलाया था प्रतिष्ठा दिलाई थी अपने अनुयायियों की बड़ी संख्या बना सका था रहते हुए . अहंकार , मतिभ्रम और अपनी लालसाओं पर नियंत्रण खोने के कारण कुछ बुराई से वह संतत्व से डिग जाता है .
 संत तो वह अच्छा बनना आरम्भ हुआ था . उसमें गुण भी साधारण मनुष्य से अधिक ही थे अन्यथा क्यों लाखों करोड़ों की संख्या में अनुयायी बनते ? क्यों ख्याति क्षेत्र इतना विस्तृत होता ? इस भले से मनुष्य की अच्छाई संत बनने के साथ और बढ़नी चाहिए थी . लेकिन वर्षों की सेवा और मेहनत पर पानी फिरता है .
उस संत पद से पदच्युत हुए भले व्यक्ति (पूर्व में भला ) की अच्छाई की हत्या हो जाती है .
कौन होता है इस हत्या का दोषी ? निश्चित ही हमारी अंधभक्ति ,अंधश्रध्दा और अन्धविश्वास . अगर हम अन्धानुशरण की अपनी कमी नहीं त्यागेंगे तो संत /गुरु बनने की क्षमता रखने वाले हमारे बीच के भव्य मनुष्य भी निर्दोष पद पर नहीं पहुँच सकेंगे . हमारी अंधश्रध्दा... आदि ,हमारी पीढ़ी और आगामी सन्तति  इस वरदान से वंचित होगी जिसके अंतर्गत समय समय पर हमारे समाज को मानवता पथ दिखलाने वाला सच्चा पथप्रदर्शक मिलता रहा है . ऐसा सच्चा पथप्रदर्शक संत /गुरु उनके जीवन उपरान्त भी शताब्दियों भगवान ,देवता जैसा पूजा जाता रहा है .  हमारे बीच अवतार और भगवान आते रहें संत और गुरु बनते रहें यह मानवता और समाज हित के लिए नितांत आवश्यक है .
अतः संत और सच्चा गुरु बनने के मार्ग पर जो महामानव अग्रसर दिखता है उसके प्रति अनुयायी और भक्तों का यह कर्तव्य होता है कि वे उसका अन्धानुशरण ना करें . किसी भी समय संत अहंकार या भ्रम में ना आ जाए कि उसे कोई बुराई कर लेने की स्वतंत्रता मिल गयी है .
यह भ्रम नहीं आएगा तो उस संत के अन्दर वैचारिक -शोधन की क्रिया निरंतर चलते रहेगी . उसके आचरण ,कर्म निरंतर निर्मल और निर्मल होते जायेंगे . उसके उपदेश वचन और लेखन जग कल्याणकारी सिध्द होंगे . जिसकी बुराई पर बढ़ते आज के समाज पर अंकुश लगाने की दृष्टि से नितांत आवश्यकता है .

--राजेश जैन
05-09-2013

Tuesday, September 3, 2013

संत का सन्तत्व से डिगना और नारी

संत का सन्तत्व से डिगना और नारी
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अपने आग्रहों से अलग हमें यह मानना ही होगा कि प्राणियों ( जिसमें मनुष्य भी सम्मिलित है ) में विपरीत लिंगीय आकर्षण एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है .
मनुष्य को छोड़ पहले अन्य प्राणियों में इस प्रवृत्ति को संक्षिप्त में समझें तो पायेंगे कि इस आकर्षण के वशीभूत उनमें सम्बन्ध (दैहिक ) में पूर्ण स्वछंदता चलती है . वहां उम्र का कोई अर्थ नहीं है . जिसके पास ज्यादा बल है वह अपने विपरीत लिंगीय पर आधिपत्य करता है . जिन प्रजातियों में मादा बलशाली होती है उनमें मादा अन्यथा नर अपने मन्तव्य सिध्द करने में सफल होता है .
अब मनुष्य की चर्चा पर आयें . पाषाण काल में मनुष्य लगभग अन्य प्राणी प्रजातियों जैसा विचरण और गतिविधि रखता था . उन्नत मस्तिष्क के कारण उसने अनुभवों से सीखते मानव सभ्यता विकसित की . स्वछंदता के नुकसान से सीखते हुए कुछ बंधन और कुछ मर्यादाएं लागू करते हुए एक मानव समाज रचा . जिसमें नारी-पुरुष को एक परिवार में जीवनयापन की पध्दति निर्मित की .इनमें सिर्फ बलशाली ही नहीं कम शक्तिशाली की भावनाओं को भी समझते प्राकृतिक प्रवृति को सुन्दर और लचीले बंधन से बाँधा .
भारतीय संस्कृति अन्य मानव संस्कृति से पुरातन और उन्नत रही है . यहाँ पौरुष बल के कारण परिवार मुखिया पुरुष होता है . जो घर के बाहर से अपने आश्रित के जीवन यापन के साधन जुटा घर में लाता . घर की नारियां घर में रहकर आश्रितों के लिए गृहकार्य करती हैं .
पुरुष घर से बाहर जाता रहा था . अतः अपने आश्रितों को ज्यादा सुविधा और प्रसन्न रख सके इसलिए उसने चतुराई भी सीखी कुछ बुराइयाँ भी ग्राह्य की . जबकि नारी गृहसीमा में रही इसलिए तुलनात्मक रूप से कम बुराइयों में पड़ी .
इस तरह पुरुष प्रधान एक समाज विकसित हुआ . पुरुष ही विभिन्न धर्मों का प्रवर्तक बना . कई धर्म अवतरित हुए . धर्म चर्चाओं की परम्पराएं बनी . धर्म चर्चा (सत्संग ) धर्म गुरुओं और संत को साथ लेकर होने लगी . धर्म गुरु और संत भी प्रमुखतः पुरुष ही रहे . इन धर्म चर्चाओं में पुरुषों ने गुणदोष दोनों को समझा . लेकिन भोलेपन और सरल होने से नारियों ने संत और गुरुओं के सभी क्रियाओं को गुण ही माना उन्हें शिरोधार्य किया .
सत्संगों में भीड़ होने पर उसमें नारियों को कष्ट ना हो विशेष ध्यान रखा जाता . और उन्हें गुरु स्थान के पास ही स्थान सुलभ कराया जाता . सब व्यवस्था सर्वहित के ध्यान कर तय हुईं .
हमारे धर्म गुरु और संत महान हुए . जिन्होंने मनुष्य भलाई का सन्देश और क्रम निरंतर रखा . नारी और पुरुष दोनों ने अपना जीवन सार्थक और सुखी करने में सफलता पाई .

किन्तु कभी हमारे गुरु और संत अपने कम अभ्यास के कारण अपने वेश और पद की गरिमा भूल कर कर्म और कर्तव्यों से डिग गए . प्राकृतिक प्रवृति हावी हुई . समीप बैठी नारी की श्रध्दा -आस्था और भोलेपन ने संत के विवेक को सुला दिया .नियंत्रण खो कर अपनी गरिमा से विपरीत आचरण किया . स्वयं विपत्ति में फँसे और भोली नारी से छल कर उसका भी जीवन दुश्वार कर दिया .

कल के अपने लेख में लिखा था "संत कम भक्त ज्यादा दोषी" क्योंकि भक्त की अंधश्रध्दा से तीस -चालीस वर्षों के सदकर्म और सदाचार से अर्जित प्रतिष्ठा, छोटी कुछ भूलों से संत की मिट जाती है .संत  अपने पर नियंत्रण कर अगर कुछ दोषों से बचते हैं तो आजीवन तो रहते ही वे सर्वकालिक महान संत मरणोपरांत भी रह जाते हैं .
अतः नारी भक्त को यह सोचना है जिन संत या गुरु पर उनकी आस्था और श्रध्दा ,अंध-श्रध्दा में परिवर्तित होती है . निश्चित ही उन संत या गुरु का आभा-मंडल प्रखर होता है . वह कायम  रहे उनके इष्ट संत पर कोई संकट ना आये इसलिए नारी स्वयं भी सतर्क रहे . नारी की यह सतर्कता संत और स्वयं पर किसी कलंक की आशंका को नकारने में सफल होगी .

धर्मरक्षा , वेश गरिमा (संत वेश) और समाजहित और मानवता के लिए  संत के साथ ही भक्त का यह परम कर्तव्य है .

--राजेश जैन 
04-09-2013






संत कम भक्त ज्यादा दोषी

संत कम भक्त ज्यादा दोषी
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मनुष्य जब जन्म लेता है तो सामान्यतः वह कोई अवतार नहीं होता हैं. जीवन में आगे बढ़ता है तो उसमें जन्मजात अच्छाइयाँ तो होती ही हैं . साथ ही संसार में देखता /सुनता है तो मनुष्य बाहरी ग्रहण करता है .
ठीक उस तरह जैसे आप गेहूँ क्रय करते हैं तो कुछ कंकड़ और अन्य अशुध्दि उसके साथ आती हैं .( कुछ अपवाद संसार में ऐसे होते हैं जो विष ही क्रय करते हैं उनकी बात लेख के विषय से बाहर है) वैसे ही संसार से ग्रहण की गई अच्छाई के साथ कुछ दोष व्यक्ति में आते हैं .

अब दोषों को कुछ व्यक्ति छाँट हटाते हैं . कुछ अनदेखा कर अपने अन्दर रहने देते हैं . जो दोष हटाने की प्रक्रिया निरंतर रखते हैं उनमें कुछ महान,विद्वान और कुछ संत बनते हैं .
स्पष्ट है संत बनने के पूर्व तक वह सामान्य मनुष्य ही होता है .दोष हटा और अच्छाई ग्रहण करते रहने की निरंतरता उसे जीवन में किसी दिन संत बना देती है .
जब कोई संत बनता है तो उससे भक्त और श्रध्दा रखने वाले उससे जुड़ने लगते हैं . अनेकों संत होते हैं जिनके श्रद्धालुओं की संख्या सैकड़ों हजारों और कुछ की लाखों होती हैं . लेकिन कुछ संतों के भक्त संख्या करोड़ों में पहुँचती है . और ये करोड़ों की संख्या कई कई वर्ष भी बनी रहती देखी गई है . (ऐसे भी संत हुए हैं जिनके भक्त जीवन पर्यन्त भी कई -कई वर्षों और किसी के सैकड़ों -हजारों वर्ष उपरांत भी विद्यमान रहते हैं .)

कोई संत जब वर्षों संत जाना जाने लगता है तो सैकड़ों से आरम्भ भक्त की संख्या बीस-तीस वर्षों में हजारों ,लाखों से बढती करोड़ों में पहुँचती है . तब पृथ्वी के बहुत बड़े क्षेत्र में उनकी ख्याति पहुँच जाती है . निर्विवाद तौर पर हमें मानना चाहिये कि उस संत में ऐसी बात है जो इतने विस्तृत क्षेत्र और काल तक उसे विख्यात रखती है . वह सामान्य से विशिष्ट बन गया है तो निश्चित ही साधारण से ज्यादा प्रतिभाशाली तो रहता ही है .
तब भी उसमें यदाकदा कभी सामान्य मनुष्य भी हावी होता रहता है . ऐसा होना स्वाभाविक भी होता है . संत जिसके तीस चालीस वर्षों में करोड़ों मानने वाले हो गए हैं का कर्तव्य होता है कि उनमें  सामान्य मनुष्य की सी कमजोरी जब हावी हों तो कुशलता से उसे नियंत्रित करले . ये अपने अनुयायियों के विश्वास की रक्षा की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक होता है . यह उस वेश की पवित्रता बनाये रखने की दृष्टि से भी आवश्यक होता है . इस नियंत्रण की कला से संत सर्वकालिक श्रध्दा का पात्र बनता है .

संत के सत्संग में श्रध्दालुओं से मिलते मान से भी कभी संत में अहं जागृत होता है तब वह भक्त को तुच्छ मानते कुछ दोषित आचरण -व्यवहार और कर्म करता है . वैसे तो सच्चा संत ऐसा  नहीं करता है . पर सच्चाई अभी परिपक्वता के स्तर तक नहीं आई है तो यह भूल आशंकित रहती है .ऐसी स्थिति में भक्त ,अनुयायी और श्रध्दालुओं का कर्तव्य अपने उस इष्ट संत के प्रति बनता है कि जिन भक्त क्रियाओं से संत का संतत्व डोलता है . भक्त वे क्रियायें से बंचे .

भक्त अंध श्रध्दा ,अंध-अनुकरण ना करें . प्रारंभ से ही जब जब उनके संत संतत्व से डिगते हैं . तब तब एकांत में हिम्मत के साथ संत के दोष की चर्चा उनसे की जावे . संत को अपने भूल का अहसास इससे होता रहेगा . अन्यथा वह अपने दोषों को भी अच्छाई मानने की भूल कर किसी दिन स्वयं के साथ अपने भक्तों की श्रध्दा को जग-हंसाई का विषय बना देगा .

अगर कोई संत कभी जग-हंसाई का विषय बनता है तब लेखक यह मानता है कि जितना जिम्मेदार  वह "दुर्भाग्यशाली संत" होता है उतने ही जिम्मेदार उसके अनुयायी और भक्त होते हैं .
ऐसे संत को दुर्भाग्यशाली विशेषण इसलिए दिया गया है क्योंकि तीस -चालीस वर्षों के सदकर्म और सदाचार से अर्जित प्रतिष्ठा, छोटी कुछ भूलों से मिट जाती हैं . अपने पर नियंत्रण कर अगर कुछ दोषों से बचते हैं तो आजीवन तो रहते ही वे सर्वकालिक महान  संत मरणोपरांत भी रह जाते हैं .

--राजेश जैन
03-09-2013





 

Sunday, September 1, 2013

शब्द स्वयं गौरवान्वित होते

शब्द स्वयं गौरवान्वित होते
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जब कोई करता है रक्तदान
होता है अर्थ मानवता सम्मान
होते जीवन में कुछ दिन विशेष
रक्तदान करते दिन अतिविशेष

मंच पे मिलता उन्हें अभिनन्दन
निहारती ऑंखें उन्हें ससम्मान
दिखती उनमें त्याग ,दया, करुणा
करते संचार वे जन में सदप्रेरणा

रक्तदान से होती प्रदर्शित वीरता
गौरवबोध पाते वीर के माता -पिता
जो मंच करता उनका सम्मान
स्वतः वह सम्मानित दे सम्मान

अभिनन्दन के शब्द लिखे जाते
वे शब्द स्वयं गौरवान्वित होते
रक्तदान आशय से दिए रक्त में
त्याग-दया भाव समाहित होते

रक्त चढ़ता जब अन्य शरीर में 
अंश बन दौड़ता उनके रगों में
जीवन सहारा मिलता उनकों
साँसे जारी रखता तन में उनके

भेदभाव ह्रदय से मिटाता सबके  
साथ पवित्र भाव संचारित करता
मानव रक्त आता मानव के काम
रक्तदान से पोषित होती मानवता

--राजेश जैन
01-09-2013




Saturday, August 31, 2013

ना हो हताश प्रिय साथी को खोकर...

ना हो हताश प्रिय साथी को खोकर...
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ना हो हताश किसी प्रिय साथी का साथ खोकर
जीवन मिला तो ऐसा रहता है कभी होकर
ना पा सका तुम्हें उसने जिया तुम्हें खोकर
इसलिए तुम्हें जो मिलो जिओ उसके होकर


लगता जिसके बिना हमें जिंदगी बिताना दुष्कर
और वंचित हुए जीवन में साथ उसका ना पाकर
खोकर उसे ,मिला खाली समय जो उसे हम देते
उस समय में हमने कुछ दूसरे साथ पाए

जो पाया जीवन में लगा ना हमें बहुत मधुर
अप्रिय सा लगता ऐसा जीवन हमें ना मिलता
लेकिन यदि मिलता देखते ऐसा किसी और को
तब उसको मिले की ,कल्पना होती हमें सुमधुर

इसलिए रहें प्रसन्न जो साथ उपलब्ध हैं जीवन में
जो साथ लगता था हमें हमारी ज़िन्दगी जैसा
हम ना हुए धन्य कोई अन्य धन्य साथ पा गया जिसने
हमें मिली ज़िन्दगी की कल्पना होगी धन्य किसी अन्य की


कल्पना है नारी जात होती सुन्दर और प्यारी
यथार्थ वह पुरुष जात जो लगता कठिन सभी को
इसलिए जियो यथार्थ करो जीवन पथ अपना पूरा
रख कर सुन्दर कल्पना ह्रदय ,नयनों में जैसे सपना   

सुन्दर कल्पना और पाला हुआ अपना सपना
जीवन को उन्नति दे ऐसे लक्ष्य पर पहुंचाएगी
जीवन कल्पनाओं से अधिक सुहाना बन पायेगा
जिसे देख दुनियाँ दाँतों तले उँगलियाँ दबाएगी

पढ़ें ,समझें मित्र जीवन लगभग एकसा होता सबका
अपेक्षाएं आवश्यकतायें जीवन से सबकी हैं होती
जिसकी अपेक्षा तुमको गर उसको भी तुम्हारी अपेक्षा
मिलोगे दोनों अन्यथा चलने दो उसे पृथक पथ पर

जबरन खींच अपनी ओर जो पाओगे
अन्याय बोध जीवन भर कष्ट दे जाएगा
देखो, अनुभव करो जीवन जो चलता न्यायपूर्वक
मिलती प्रसन्नता तुम्हें और तुम्हारे उस प्रिय को

--राजेश जैन
01-09-2013