Tuesday, July 30, 2019

गरिमा - दांपत्य बुनियाद

गरिमा ..

30 वर्षीय सफल, कार्यालय की लिफ़्ट में आठवे तल पर जा रहा था. प्रथम तल पर एक लगभग 35 वर्षीया युवती ने लिफ़्ट में प्रवेश किया। एक दृष्टि उसने सफल पर डाली और फिर सफल के आगे, पीठ किये हुए खड़ी हो अपने मोबाइल में तल्लीन हो गई। उसे भी आठवे तल ही जाना था। युवती जो शायद उसी की कंपनी में किसी और विभाग में नई पदस्थ हुई थी, ने पूर्ण शालीनता से कार्यालीन शिष्टाचार (डेकोरम) अनुकूल साड़ी धारण कर रखी थी। लिफ्ट में सफल को करने के लिए कुछ नहीं था, जिससे उसकी दृष्टि युवती के पृष्ठ भाग पर पड़ गई। उसके शालीन पहनावे में भी जिसका आकर्षण छिप नहीं सक रहा था। वह सुंदरता सफल को इतनी लुभा गई की एकबारगी उसका मन प्यार से सहला देने को कर गया। यह एक संयोग रहा कि आठवे तल तक लिफ्ट में वे दोनों ही रहे। हालाँकि सफल अपने पर नियंत्रण कर लेने में सफल हुआ। मगर आठवे तल पर पहुँचने के पहले सफल - "एक्सक्यूज़ मी, आप पर साड़ी बहुत आकर्षक लग रही है" कहने से नहीं रोक सका। युवती ने न तो बिल्कुल शुष्क और न ही कोई उत्साहवर्धक लहजा रखते हुए इस प्रशंसा के उत्तर में थैंक यू, रिप्लाई किया। फिर आठवा तल आ गया, युवती एक ओर, और सफल दूसरी तरफ अपने कक्ष में चला गया।  फिर दिन भर के कामों में इस सब को वह भूला रहा। 
रात्रि,  ऑफिस और गृह कार्यों से थकी माँदी नयना (पत्नी) जब उसकी तरफ पीठ किये गहन निद्रा में जा चुकी थी, सफल को लिफ्ट वाली घटना याद हो आई। उसका मन अपने व्यवहार का विश्लेषण करने लगा। उसके विचार में आया, शायद दूसरे युवकों को #मीटू का भय या #एचआर का भय संयत करता है, जिससे कार्यालय में नारी के लिए निर्भय वातावरण सुनिश्चित होता है। मगर सफल के लिए संयत होने के लिए यह ख्याल पर्याप्त है कि नयना एवं उसकी बहन शैली भी उस युवती की तरह ही कार्यालयों में कार्यरत हैं। सफल का संयत व्यवहार एक ओर उस युवती के आत्मसम्मान को बनाये रखता है वहीं दूसरी ओर नयना के प्रति उस विश्वास को पुष्ट करता है, जिसकी बुनियाद पर उनका दांपत्य बंधन मजबूत होता है। 
सफल को एक ओर विचार यह आया कि  -
"वह पौधे पर खिले एक सुंदर पुष्प को तोड़ उसकी सुगंध को जल्द ही नष्ट करने के अपराध से बचा है, उसने पुष्प को उसकी पूरी उम्र तक की सुगंध बिखेरते रहने के अवसर को सुलभ किया है"
फिर वह भी निद्रा के आगोश में जा समाया।  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
31-07-2019

काश ..

काश ..

एक बुजुर्ग ने शायद पिछले वर्ष अपने घर के सामने फुटपाथ पर नीम का पौधा लगाया था। जिसकी ऊँचाई अभी मानवकद से थोड़ी ही ज्यादा होने से उस पर उग आईं नईं पत्तियाँ भ्रमण करने वालों की सरल पहुँच में हैं। आज सुबह वे बुजुर्ग उन सभी भ्रमण करने वालों पर जो उस नीम में से दो-चार पत्तियाँ तोड़ खा लेना चाहते थे नाराजी जता रहे थे। जिससे प्रतिक्रिया में पत्तियाँ तोड़ने वाले हाथ तो रुक जा रहे थे किंतु मुहँ से निकले शब्द कदापि बुजुर्ग के लिए सम्मान के नहीं थे। उन बुजुर्ग का फुटपाथ पर लगाए उस नीम पर अधिकार बोध तथा वृक्षारोपण जनित गौरवबोध इतना अधिक हावी था कि वह पक्ष उनके ध्यान में नहीं आ रहा था जिससे वे क्रोधित होने के स्थान पर आनंदित हो सकते थे।
काश- वे इस कोण से सोच पाते कि देखो मेरे लगाये पौधे की पत्तियों को कितने ही व्यक्ति, औषधीय लाभ की दृष्टि से सेवन कर अपना स्वास्थ्य वर्धन कर रहे हैं. 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
31-07-2019
बहुपक्षीय चिंतन बिना हम कदापि एक अच्छे इंसान नहीं हो सकते 

Monday, July 29, 2019

सरल मनोविज्ञान

सरल मनोविज्ञान
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सारी दुनियादारी को हम दो सरल मनोविज्ञान से समझ सकते हैं।  
1. कोई हमारे लिए कुछ या हमारी कोई मदद, तभी करता है जब कि उसे हमसे प्यार/स्नेह हो या हमारी कोई बात उसे आकृषित करती हो। अतएव जब हम चाहें और कोई हमारे लिए वाँछित या हमारी कोई मदद नहीं करे तो उसके प्रति शिकायत रखने से बेहतर यह है कि हम खुद में वह बात/कमी ढूँढे जिसके कारण हमसे प्यार/स्नेह या वह हमारे प्रति कोई आकर्षण क्यों नहीं अनुभव करता है। इसका उत्तर जान लेने के बाद हम अपने व्यक्तित्व में वह बात पैदा करने का प्रयास करें जिससे हमारी जरूरत या अपेक्षा पर वह हमारे लिए कुछ करने से ख़ुशी अनुभव करे। 
2. अब दूसरे मनोविज्ञान को समझे कि जब कोई हमारे लिए बार बार मदद  या हमारा मन वाँछित करने लगे तो उसके मन में अपने किये एहसान के बदले में कुछ हमसे हासिल करने की भावना उत्पन्न हो सकती है। ऐसे में वह हमारे शोषण करने की हद तक जा सकता है। अतः हमसे प्रेम/अनुराग या चुंबकीय आकर्षण के वशीभूत जब हमारे लिए कोई कुछ करे तो अपने सामर्थ्य और औचित्य के अनुसार उसके लिए भी छोटा या थोड़ा ही सही कुछ कुछ करते रहें, जिससे एहसान का बोध उस पर हावी नहीं होने पाए और हम शोषण के खतरे से बचे रहें। 
नोट - ध्यान रखें, किसी के लिए कुछ करने या किसी से कुछ करा लेने में ज्यादा चतुराई भी उचित नहीं होती है। हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि हमारी कोई चालाकी किसी से छुप सकती है। यह अलग बात होती है कि हमारी चालाकी समझते हुए भी कोई स्वयं को उससे अनभिज्ञ दर्शाये। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
30-07-2019

Sunday, July 28, 2019

बदनीयत

बदनीयत
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एक तरफ स्त्रीजात के लिए कठिन मर्यादायें और दूसरी तरफ हर किशोरी/युवती को बदनीयती से घूरती नज़रें, समाज में पुरुष की संवेदनहीनता दर्शाती है। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि किन प्रयोजन (मंदिर में पूजा अर्चन या विद्यालय में शिक्षा अर्जन), किन दायित्व (कार्यालय या व्यवसाय से आजीविका कमाने) या किन मजबूरियों में (अस्पताल में खुद या घर के सदस्य के रोग निदान के लक्ष्य)  आदि के कारण मजबूरी में नारी ने घर के बाहर कदम रखने का साहस किया है। 
पुरुष की नारी के लिए स्वयं तय की गई मर्यादाओं के प्रति उसकी बेपरवाही अजीब है कि मनोरंजन की दृष्टि से किसी पार्क, भ्रमण स्थल या होटल आदि में आई नारी को बरगला कर उसके साथ धोखा करते हुए उसे यह विचार भी नहीं आता कि इससे, पीड़ित नारी पर के जीवन पर क्या बुरे प्रभाव होंगे। यह सभी बात पुरुष की संवेदनहीनता की परिचायक तो है ही। यह पुरुष के अंधत्व को भी सिध्द करता है कि वह देखने/समझने में विफल है कि अप्रत्यक्ष रूप से वह खुद के लिए भी मुश्किलों का सामान इकट्ठा कर रहा है. उसे आजीवन अपने जैसी ही हरकत करने वाले पुरुषों से अपनी बहन,बेटी या पत्नी के बचाव के लिए फ़िक्र में रहना पड़ता है. 
अगर पुरुष को यही सब ज़िंदगी के मजे लगते हैं तो वह न्याय करने में मर्दानगी भी दिखाए जिसमें नारी पर लादी गईं अतिरिक्त मर्यादाओं का बोझ कम हो सके, वह भी अपना जीवन ख़ुशी से जी सके।  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
28-07-2019

Saturday, July 27, 2019

हैरत-2

हैरत-2
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अलीम ने पार्क में अपनी प्रेयसी हरप्रीत से आज पूछ लिया - हमें शादी भागकर करनी होगी या तुम्हारे घरवाले तैयार हो जायेंगे? हरप्रीत ने जबाब दिया-  शादी करने के लिए घर से भागूँगी नहीं बल्कि तुमसे शादी के लिए, पापा-मम्मी को  राजी करुँगी। अलीम - नहीं राजी हुए तो? हरप्रीत- तो फिर नहीं करुँगी। इसके बाद अन्य बातों के बाद अंत में अलीम ने हरप्रीत से लगभग आदेश के अंदाज में कहा कि वह आज ही अपने घरवालों से शादी के लिए सहमति कराये. फिर दोनों अपने अपने घर जाने को रवाना हुए। अपने घर में हरप्रीत ने पापा, मम्मी के सामने सारे विवरण रखे तो पापा ने हरप्रीत से नंबर लेकर अलीम से बात की और उसके पापा के साथ घर आने को कहा। दूसरे दिन, अलीम के पापा (करीम), भाई और अलीम, हरप्रीत के घर पहुँचे. चाय-नाश्ते के साथ इस प्रसंग पर जब चर्चा शुरू हुई तो हरप्रीत दरवाजे की ओट में खड़ी हो सब सुन रही थी। बाद में अलीम वगैरह चले गए थे और मम्मी,पापा अपने अपने कामों में लग गए थे, तब हरप्रीत पूरी चर्चा पर चिंतन कर रही थी। 

हरप्रीत को अपने पापा की यह शर्त विचित्र तो लगी थी कि हरप्रीत से अलीम की शादी के लिए 6-7 साल बाद जरीन का ब्याह अमनदीप ( हरप्रीत का भाई, जो अभी बारहवीं में पढ़ रहा था) से आज तय करना होगा. ज़रीन और अमनदीप अभी अल्प वयस्क थे आज उन पर यह थोपना उसे अनुचित लगा था। लेकिन शर्त में यह ख़ुलापन कि छह साल बाद इन दोनों के वयस्क होने पर दोनों की मंशा पूछी जायेगी और राजी होने पर ही दोनों की शादी कराई जायेगी, ने प्रस्ताव को अच्छा बना दिया था। इस प्रस्ताव का करीम और अलीम के भाई द्वारा मंजूर कर कर लिया जाना, हरप्रीत को अच्छा लगा था. फिर पापा की पूरक शर्त से कि ज़रीन की आगे की पढ़ाई सिंधिया स्कूल में हॉस्टल में रखवा कर, पापा करवाएंगे, पर अलीम के लोगों के ऐतराज ने और उस शर्त के होने से अलीम से हरप्रीत की शादी नामंजूर किये जाने ने उसे हैरत में डाल दिया था। 

पापा के इस आइडिये में उसे देश के समाज का 1 अच्छा मॉडल दिखाई दिया था, जिसमें दो गैर कौम के परिवार लड़की देने-लेने से रिश्ते में जुड़ते हैं और साथ ही मुस्लिम लड़की (जिसे उच्च शिक्षा के मौके कम ही दिए जाते हैं) को भी अच्छी और उच्च शिक्षा सुनिश्चित होती है। 

इधर अलीम सहित सभी अपने घर लौटे. दो तीन दिनों तक, ये सभी और मम्मी, अलीम और जरीन के जिक्र के साथ जब तब गर्म मिजाजी से चर्चा करते हुए सुनाई दिए तो ज़रीन ने चर्चा पर ध्यान दिया. जब पूरा मसला उसे समझ आया तो 15 वर्षीया मासूम ज़रीन को, मौलवियों की उस व्यवस्था से जिन पर उनका घर चलता है, बड़ी हैरत हुई. "जहाँ एक तरफ तो पाकिस्तान का मौलवी अब्दुल खालिक मीथा, 450 हिंदू लड़कियों के धर्मांतरण के अपने काम को गर्व से बयान करता है, वहीं दूसरी तरफ भारतीय संसद सदस्या नुसरत जहां के गैर कौम में शादी पर देवबंध से फतवा जारी करता है" उसे तरस आया इन मज़हब के ठेकेदारों की बुध्दि पर जो अपनी खुदगर्जी से इस्लाम की अच्छाइयों पर ही सवालिया चिन्ह लगा देते हैं। उसे रोना आया ऐसी संकीर्ण सोच अंधश्रध्दा एवं रिवाजों पर जो उसकी उन्नति को मिल रहे अच्छी शिक्षा के मौके और अलीम के इश्क की बलि ले लेते हैं। 

छोटी सी जान यह ज़रीन, इन पर कटुता अनुभव तो कर सकती थी मगर लाचार ज़िंदगी की, कोई मदद करने में असमर्थ थी. 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
28-07-2019

Friday, July 26, 2019

नफे-नुक़सान से बेपरवाह रह हमने
ज़िंदगी जैसी मिली तू, हमने जी ली

Thursday, July 25, 2019

बुराई ज़माने में देख लेना मेरी खराबी नहीं होती
गर ज़माने भर की बुराई मैं ख़ुद में दूर कर लेता 

Tuesday, July 23, 2019

हैरत

हैरत
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ज़रीन को याद है, 11 साल की थी वह उस समय जब नसरीन आपा ने, गैर कौम के लड़के से शादी की मंशा घर में बताई थी. उसने तब पापा और बड़े भाईजान को गुस्से से आगबबूला देखा था। पापा को मम्मी से यह तक कहते सुना था कि बेगम, "नसरीन को समझाओ की हद में रहे वर्ना मेरे हाथों क़त्ल हो जायेगी"। उस समय नसरीन, घर के गर्म हुए माहौल से सहम गई थी। फिर 1 महिने के अंदर ही आनन फ़ानन में उसका निकाह उनके खाला के बेटे के साथ दूर बंगाल में कर दिया गया था। ज़रीन ने उस एक महीने में रुआँसी रही नसरीन को अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई अधूरी छूट जाने और ऐसी जबरदस्ती पर हताश देखा था। इस पूरे किस्से के बीच ज़रीन ने एक सबक लिया था कि शादी के लिए जो पापा, बड़े भाई जान तय करेंगे वह उस लड़के से ही निकाह कबूल करेगी।
तब से अभी चार साल हुए थे, बंगाल से उसके ससुराल वालों ने सिर्फ दो बार ही नसरीन को मायके भेजा था और इस बीच नसरीन के तीन बेटे हो गए थे। अब ज़रीन घर में इक नया तमाशे की साक्षी हो रही थी. उसके मँझले भाई अलीम का उसके ऑफिस में गैर कौम की लड़की से इश्क़ चल रहा है, जिसकी चर्चा घर में बड़े मजे ले लेकर हो रही है. पापा और बड़े भाई जान जो चार वर्ष पूर्व इसी तरह के नसरीन के इश्क़ से बेहद खफ़ा हुए थे वे दोनों ही ख़ुशी से अलीम को उस लड़की से शादी करने की कई तरकीबें बताते दिखाई पड़ते हैं।
15 साल की छोटी सी जान ज़रीन तक को, इनके दोहरे व्यवहार और नतीजतन नसरीन आपा की बदकिस्मती और अलीम की ख़ुशकिस्मती पर नज़र कर बेहद हैरत होती है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
24-07-2019

Monday, July 22, 2019

भाग के शादी करने वाली ज़रीन

भाग के शादी करने वाली ज़रीन
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आशीष के पड़ोस में रहता था इक मुस्लिम परिवार, जिसमें एक बेटी ज़रीन थी। आशीष जिन दिनों अपनी स्टडीज़ के प्रति गंभीर था, उन्हीं दिनों ज़रीन उससे एकतरफा प्यार अपने दिल में पाल बैठी थी, जिसका आभास आशीष को तब हुआ था जब अपनी स्टडीज़ के बाद, जॉब ज्वाइन करने हैदराबाद जाने के लिए वह घर से विदा हो रहा था। उस समय अपने घर, दरवाज़े पर खड़ी ज़रीन की आँखे उसने भीगी देखी थी।
अश्रुओं से भीगी वे आँखे उसके दिल में कुछ कर गई थीं। उसके बाद आशीष के हॉलीडेज में घर आने जाने के समय में दोनों के बीच प्यार पनप गया और ज़रीन के घर में आशीष से शादी की रजामंदी नहीं होने पर एक दिन ज़रीन अचानक हैदराबाद आ गई। आशीष द्वारा समझाये जाने पर भी वह वापिस घर लौटने को तैयार नहीं हुई। आशीष ने अपने पापा-मम्मी को यह बताया, जिन्होंने गोपनीय तरीके से ज़रीन के अब्बा को यह जानकारी दी. उन्हें राजी करने का प्रयास किया कि वे आशीष-ज़रीन के विवाह को राजी हो जायें। ज़रीन के अम्मी-अब्बा गुस्से में थे उन्होंने सहमति तो नहीं दी लेकिन इस घटना के कहीं जिक्र न करने का निवेदन किया, अन्यथा इससे आशीष-ज़रीन दोनों के जान पर बन सकती है, बताया। बाद में हैदराबाद में आशीष - ज़रीन ने कोर्ट-मैरिज कर ली। अपने फ्रेंड्स में आशीष ने ज़रीन को अपनी बचपन की मोहब्बत और नाम अश्रुना बताया। यहाँ ज़रीन के पापा ने पहले, ज़रीन का अपने भाई के पास दुबई जाना और बाद में उसका वहीं निक़ाह कर दिया जाना प्रचारित कर अपने को बदनामी से बचाया। इस बात को अब दस वर्ष हुए, इस बीच आशीष के पापा( और परिवार) रिटायरमेंट के बाद शिमला सेटल्ड हो गए। ज़रीन, उनके घर रिश्तेदारों में अश्रुना ही पहचानी गई। सबके सामने उसने अपना व्यवहार ऐसे रखा कि किसी को शक नहीं हो पाया कि वह पैदाइशी से मुस्लिम है। आशीष और अश्रुना भी अपने हो गए दो बच्चों के साथ ख़ुशी से अब पुणे में रहते हैं। आशीष ने देश में अभी भाग कर शादी करने वालों की चर्चा ज्यादा होने लगी देखी तो उसे ज़रीन के भाग आने का ख़्याल हो आया। इस दृष्टि से कि देश के लोग भागने वाली लड़की के अनुभवों से अवगत हों और साथ ही अब ज़रीन के मन में क्या है, इसे जानने की खुद की उत्सुकतावश, उसने दूरदर्शन से संपर्क किया और घर से भाग के शादी के उपरान्त के अनुभव को लेकर ज़रीन का ऑडियो इंटरव्यू करवाया (ऑडियो इसलिए की ज़रीन सहजता से सब कह सके)। दूरदर्शन ने जिसे रविवार को प्रसारित किया - इंटरव्यू इस प्रकार से दर्शकों ने सुना ..
                         एंकर- अपने दर्शकों के लिए आज हम एक भाग कर शादी करने वाली युवती के अनुभव साक्षात्कार के माध्यम से लेकर आये हैं। आज यह सुनाना समय की जरूरत है क्यूँकि देश में कौम से बाहर और भाग के शादी करने की घटना हो रही हैं। जिस पर कभी ऑनर के और कभी मज़हब के सवाल, बवाल खड़े करते हैं। लीजिये जानिये इस युवती के अपने ख़्याल और अनुभव। इसके साथ ही इंटरव्यू आरंभ होता है-
एंकर - आपका नाम ?
ज़रीन - असली छिपाऊँगी, अभी के लिए सरिता कहिये। 
एंकर - छिपा किस लिये रही हैं ?
ज़रीन - ज़ाहिर करने से मुझे और मेरे परिवार को खतरा हो सकता है. 
एंकर - आप किस जाति की हैं ?
ज़रीन - मैं पैदाइश से मुस्लिम हूँ. 
एंकर - आपने किस जाति के युवक से शादी की है?
ज़रीन - मेरे पति हिंदू-वैश्य हैं। 
एंकर - शादी को कितने वर्ष हुए ?
ज़रीन - जी 10 वर्ष. 
एंकर - क्या आप भाग कर शादी करने के अपने निर्णय से संतुष्ट हैं ?
ज़रीन - जी मैं संतुष्ट और खुश हूँ ?
एंकर - आपके मायके और यहाँ के खानपान में फर्क होगा, आप कैसे सामंजस्य बैठाती हैं ?
ज़रीन - जी, मेरे ससुराल शाकाहारी है, तब भी मुझे माँसाहार के लिए छूट है, यद्यपि में अब स्वयं शाकाहार ही पसंद करती हूँ. 
एंकर - आपको धार्मिक रीति-रिवाज भी अलग हो गए हैं, इससे कोई फर्क आपको पड़ता है। 
ज़रीन - जी, मेरे हस्बैंड खुले ख्यालों के हैं, वे मुझे मुस्लिम आस्था के लिए आज़ादी देते हैं, जबकि अब मैं खुद अपने ससुराल की आस्थाओं को निभाने में ख़ुशी अनुभव करती हूँ. 
एंकर - आपको मुस्लिम से हिंदू परिवेश में आने पर क्या परेशानी लगती है। 
ज़रीन - जी, परेशानी कोई नहीं है. हम मेट्रोपोलिटिन में रहते हैं जहाँ अंधविश्वास ज्यादा नहीं है, साथ ही ससुराल में भले ही हिंदू धर्म के प्रति आस्था है किंतु जोर जबरदस्ती या धार्मिक कट्टरता और आक्रामकता का न होना, दम घोंटू वातावरण से मुक्त करता है साथ में और भी कुछ अच्छाई ही हैं। 
एंकर - जैसे?
ज़रीन - हमारा दो बच्चों का छोटा परिवार है जिनके साथ रहने को हमें पर्याप्त जगह मिलती है.
एंकर - और?
ज़रीन - जी, हम भारतीय हैं, इस परिवार के साथ रहने से हमें अन्य कोई कंफ्यूजन नहीं होता। 
एंकर - और भी कोई बात का ज़िक्र करना चाहेंगी?
ज़रीन - जी, इस परिवार में रहते हुए, मेरे हस्बैंड की तरफ से अन्य पत्नी कर लेने, तलाक़ हो जाने या हलाला जैसे भय से, मैं ताउम्र को मुक्त हो गई हूँ .
एंकर - आपके मम्मी-पापा आदि से मिलने को मन नहीं करता? 
ज़रीन - जी, पहले वो मुझसे बहुत खफा थे, अब नहीं हैं. हम पर कोई खतरा नहीं आये इस हेतु उन्होंने मेरा हिंदू में शादी कर लेना सबसे छिपाया हुआ है। और बेहद छिपे तौर पर साल-छह महीने में हमसे मिलने वे आया करते हैं. हमें खुश और भरा पूरा देख कर खुश होते हैं. 
एंकर - और लड़कियों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगी कि वे प्यार के लिए भाग कर शादी करें या नहीं?
ज़रीन - किसी लड़की को भाग कर शादी करना पड़े या सरासर सही नहीं है, इसलिए मैं चाहूँगी कि हमें कट्टरता को अपने स्वहित के लिए बढ़ावा देने वाले धर्म गुरुओं के चंगुल से मुक्त होना चाहिए। और अंर्तजातीय और अंर्तसंप्रदाय शादियों को व्दिपक्षीय रूप से ग्रहण करना चाहिए अर्थात सिर्फ किसी कौम से लड़की ले लेना ही नहीं दूसरे कौम में अपनी बेटी का ब्याह कर देना भी हमें स्वीकार्य करना चाहिए. और. . (कह कर चुप होती है).
एंकर - और क्या ?
ज़रीन - लड़कियों को घर से भागना नहीं चाहिए।  भागी लड़कियों के साथ बहुत बुरा होते देखा और सुना है। मेरे जैसी भाग्यशाली, ज्यादा नहीं होती हैं।  
एंकर - आखिर एक सवाल कि आपने अपनी पहचान ही बदल ली, आपको बचपन से इस तरह जुदा होना बुरा तो नहीं लगता ?
ज़रीन - जी लगता तो है, मैं अपने घर और बचपन के रिश्तों से दूर हो गईं हूँ। किंतु ओवरऑल में जितना खोया है उससे ज्यादा मैंने पाया है। 
ऐसे इंटरव्यू समाप्त हो जाता है। जो समझने वालों के समझने के लिए कई इशारे छोड़ जाता है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22-07-2019



           





Saturday, July 20, 2019

थे ज़िंदगी में कुछ पल जब साथ हम थे
हैं आज ये कुछ पल उनकी याद साथ है

उनके सितम ऐसी ख़ुशी से सह कर दिखलाया हमने
कि खुद के सितमगर होने पर उन्हें शुबहा होने लगा

Friday, July 19, 2019

लड़की के घर से भागने के पहले

लड़की के घर से भागने के पहले

जब पेरेंट्स बेटी के विवाह के लिए योग्य लड़का खोजते हैं तो लड़के की योग्यता, उसके परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा और उस परिवार के घरेलू वातावरण का इस दृष्टि से  विचार करते हैं कि उनकी प्यार से पाली, बड़ी की गई बेटी के जीवन में उनके घर से ज्यादा सुख-वैभव की सुनिश्चितता हो। ऐसे में जब उनकी बेटी इस हेतु अपने पसंद के किसी लड़के को उनके समक्ष लाती है तब भी इसी कसौटी पर वह लड़का परखा जाता है। उनकी कसौटी पर खरा हो और वह उनकी ही संप्रदाय/जाति का हो तो इस लड़के पर सहर्ष सहमति मिल जाती है। क्राइटेरिया सभी पास होते हों मगर जाति भिन्न होती है तो खानपान पर विचार होता है यह मैचिंग होता है तो थोड़े कम ख़ुशी से ऐसे रिश्ते भी मंजूर हो जाते हैं। खानपान भी भिन्न हो तो इस चुनौती पर बेटी का ध्यान लाया जाना 
होता है।  भोजन प्रतिदिन और वह भी तीन बार का प्रश्न होता है.  बेटी इसे सहमत करती है तो अपनी नहीं बेटी की ख़ुशी के लिए इसे मंजूरी दी जानी होती है। संप्रदाय अलग हो और अन्य बातें ठीक हो तो मन मारकर कभी कभी रिश्ता मान लिया जाता है। लेकिन संप्रदाय/जाति ही मैचिंग नहीं और अन्य बातें भी अनुकूल नहीं लगती हों जिससे बेटी के जीवन में सुख की सुनिश्चितता पर शंका हो तब बेटी पर परिवार में दबाव डालकर उसे उस लड़के से दूर करने का प्रयास किया जाता है। ज्यादातर ऐस प्रकरणों में बेटियाँ मन मसोसकर ही सही, अपने पेरेंट्स के प्यार और अहसानों का लिहाज कर अपना रिश्ता उस लड़के से खत्म करती है लेकिन कोई कोई लड़की विद्रोह कर घर से भाग शादी कर लेती है। 
ऐसे में हम (बेटी के माँ-पापा) उन रिश्तेदार, आसपड़ोस या परिचितों की टीका टिपण्णी को इतना महत्व देकर परेशान रहते हैं, जिन्हें अपने मानसिक रोग में घर बाहर में मनोरंजन के लिए किसी चटपटे विषय की रोज दरकार होती है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इनमें अधिकाँश हमारे ख़ैरख़्वाह (हितैषी) नहीं हैं। हमें इनकी बातों से अपने पर मानसिक दबाव नहीं निर्मित होने देना चाहिए। अपितु अपने दिमाग को शाँत रख जो मन विपरीत हो चुका है , उसे किस तरह से जितना अब संभव है, मन अनुरूप कर लेने पर विचार करते हुए उपाय करने में लगना चाहिए।    
हमें (बेटी के माँ-पिता को) इस तथ्य को भी ध्यान में लाना होगा कि जिस गैर जातीय या गैर कौम के लड़के से शादी की जिद बेटी कर रही (या कर चुकी) है वह अगले (गैर जातीय में)  10 एवं (गैर कौम में) 30 वर्षों में अत्यंत सामान्य /व्यापक घटना हो जाने वाली है। अतः सिर्फ इस आधार पर कि लड़का जाति या कौम का नहीं शादी नहीं करने का निर्णय बेटी पर 
हम नहीं थोपें, अपितु लड़के और उसके परिवार की योग्यता की परख करें, और वह यदि बेटी के लिए हमारी जाति के उस स्तर के अनुरूप ही है जिसमें हम उसका विवाह सहर्ष का देने वाले होते हैं तो बेटी की जिद पर विचार करना उचित है और 10 वर्ष या 30 वर्ष बाद अन्य, जिसे कर देने वाले हैं, उसे अपनी प्रगतिशील वैचारिकता का परिचय देते हुए थोड़े वर्षों पूर्व ही कर लेने का साहस दिखाते हुए बेटी को तथाकथित प्रेम से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। अन्यथा बेटी को बाद में क्या हासिल होता है या नहीं उससे परे, हर बात में जीवन भर उसे यह पीड़ा हो सकती है कि अच्छा होता कि अगर वह अपने चाहत के उस लड़के से वह शादी करती।

इससे आगे अब, घर से भागने को तत्पर कोई लड़की जीवन के किन पहलुओं पर गौर करे यह उल्लेख भी इस आलेख की पूर्णता की दृष्टि से उचित होगा. 
लड़की को समझना होगा कि इस विशाल दुनिया में सिर्फ वही कुछ लड़के नहीं हैं जो उसके आसपास (पड़ोस/स्कूल/कॉलेज/कार्यस्थल) में संपर्क में आये हैं. उसे स्वयं को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वह जिस योग्य है, उस योग्यता का लड़का जो उसका वर हो सकता है इनमें से नहीं। उसे अपनी परिपक्वता तक प्रतीक्षा करना चाहिए या अपने परिपक्व पापा और माँ के चयनित लड़कों में से किसी का चुनाव करना चाहिए. भागने को तत्पर किसी भी लड़की को यह सच्चाई भी समझनी चाहिए कि लड़के के जिन वादों पर वह विद्रोह का कदम उठाने जा रही है, उसके साथ विवाह हो जाने पर लड़का चाह कर भी उन वादों को पूरा नहीं कर सकेगा. चाहे प्रेमविवाह हो चाहे पेरेंट्स के द्वारा अरेंज्ड हो शुरुआत जिस गर्मजोशी से होती है, लम्बे साथ में वह प्यार की गर्मजोशी कायम नहीं रहती। वास्तव में जीवन को निभाने के लिए सिर्फ प्यार (समझने का भ्रम है) ही एक सवाल नहीं होता। अपितु जीवन को और भी तमाम वस्तुओं /बातों की जरूरत होती है जिसमें पति-पत्नी को मशीन की तरह बन कर व्यवस्था में जुटना होता है। सिर्फ प्यार करते रहने में जिसे जुटाया नहीं जा सकता। अतः यहाँ दिल नहीं दिमाग को सक्रिय रखने की जरूरत होती है कि क्या भागकर शादी कर लेने पर ये सभी जरूरतों की सुनिश्चित हो जाने की संभावना बनती भी है या नहीं. अभी लड़की को यह भी समझना चाहिए कि उम्र के आने पर दैहिक संबंध की जरूरत जब महसूस होना शुरू होती है  तब आसपास मंडराने वाला कोई भी लड़का अच्छा लग सकता है , यह कतई जरूरी नहीं कि उसमें उतनी योग्यता है भी अथवा नहीं जिससे की उसे जीवन में आवश्यक सम्मान, सुविधाओं और अपेक्षित प्यार की उससे पूर्ति हो सकेगी भी या नहीं। लड़की खुद में साहस का भी परीक्षण करे कि विशेषकर अंतर्जातीय या अंर्तसंप्रदाय के लड़के से विवाह में विपरीत खानपान (शाकाहार/माँसाहार) और विपरीत रीति-रिवाज तथा विपरीत धार्मिक आस्था की चुनौती वह झेल सकती है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्यार को निभाने के चक्कर में उसके स्वाभिमान पर ही आ बने।  यह तथ्य भी उसके गौर करने योग्य है कि वह जिस पर मर-मिटने के स्तर का प्यार समझ रही है साथ के कुछ वर्षों में ही वह एक साधारण सा प्यार रह जाने वाला साबित होगा । इसके विपरीत जिससे कम पसंद के चलते शादी अगर वह करती है तो उसके साथ रहते हुए भी उसकी कुछ अच्छाइयों (कुछ तो सभी में होती है)  के कारण कुछ समय में उससे भी ऐसा साधारण सा प्यार तो हो जाने वाला होगा।

अंत में पँक्तियां उस लड़के के लिए भी, जो लड़की को भगा ले जाने को उत्सुक है कि वह उपरोक्त सभी प्रश्नों की कसौटी पर स्वयं को परखे. उसका लड़की से प्यार सच्चा है तो प्रथम कर्तव्य उसकी जीवन भर की ख़ुशी का उपाय उसे करना है। उसे स्वयं में आवश्यक योग्यता की परख करनी चाहिए। इतनी अगर नहीं है तो धीरज के साथ उसे अर्जित करने के उपरांत लड़की के घर वालों के समक्ष मंजूरी को जाना चाहिए। और योग्यता नहीं है तो इस लड़की की जीवन ख़ुशी के मद्देनज़र उसका पीछा छोड़ना  चाहिए।  उसका यह नैतिक साहस ही उसे सच्चा एवं साहसी और निस्वार्थ प्यार करने वाला पुरुष साबित करेगा।
अंततः यही निष्कर्ष आता है कि लड़की को घर से भागना न पड़े ऐसी समझदारी के प्रयास सभी ओर से होने चाहिए। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
20-07-2019

Thursday, July 18, 2019

महत्वकाँक्षी पापा
तुम्हारे संपत्ति में बड़े निवेश से खुश नहीं होगा
खुश होगा गर मानवता में बड़ा निवेश तुम्हारा हो
योग्यता के साथ जो तुम्हारा न्याय होगा

छोटे अगर लिहाज ना करें, तो परेशान नहीं होना
ज़िंदगी में उनका वक़्त ज़्यादा है, यह सोच लेना 

Tuesday, July 16, 2019

दुराग्रह से दुष्प्रेरित

दुराग्रह से दुष्प्रेरित

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अपने संप्रदाय-/जाति-गत दुराग्रहों से दुष्प्रेरित  होकर लिखना/कहना हमें  कभी ऐसा लेखक/वक्ता नहीं बना सकता जो संप्रदाय/जाति/देश/समाज का भला कर सके या मानवता का प्रसार कर सके.
हाल ही में एक घटना हुई है जिसमें एक राजनीतिज्ञ जो जाति से ब्राह्मण संप्रदाय से हिंदू एवं वर्ण से उच्च माने जाते हैं, की बेटी ने घर से भाग कर कथित निम्न जाति/वर्ण के युवक से प्रेम विवाह कर लिया है। मीडिया/सोशल साइट्स पर इस घटना लेकर अपने अपने अनेक मत प्रकट किये जा रहे हैं। जहाँ तक मीडिया की बात है उसे सिर्फ अपनी टीआरपी से सरोकार होता है, देश या समाज हित क्या है जिसमें है उसके प्रति आजकल मीडिया के किसी प्रसारण में कोई गंभीरता दिखाई नहीं देती। इसलिए मीडिया को इस आलेख के दायरे से बाहर रखा जा रहा है। सोशल साइट्स जो जनसामान्य की अभिव्यक्ति का मंच है इस आलेख की विषयवस्तु है।
पिछले कुछ दिनों में जितना इस विषय पर फेसबुक में पढ़ने मिला है, उसमें मुख्य रूप से दुराग्रहों की प्रतीति ही दिखाई पड़ती है, कोई यहाँ जातिगत, कोई वर्णगत, कोई संप्रदायगत , कोई पुरुष प्रधानता से ग्रसित तो कोई राजनीतिगत दुराग्रहों से इस घटना की विवेचना और उस अनुसार अपना मत प्रकट कर रहा है। यहाँ आगे लिखने के पहले दुराग्रह क्या होते हैं समझना उचित होगा, लेखक की परिभाषा में-
" दुराग्रह सामान्यतः पूर्व की कोई ऐसी घटना से उत्पन्न हमारे मन के आग्रह होते हैं, जिसने हमारे हितों पर कुठाराघात किया होता है, जो बाद के हमारे हर कर्म/व्यवहार/अभिव्यक्ति एवं किसी  प्रतिक्रिया आदि पर हावी होते हैं।  किसी व्यक्ति या परिवार के प्रति हमारे आग्रह तो हमारे स्वयं के संबंधों के कारण होते हैं जबकि जातिगत,  वर्णगत,  संप्रदायगत या राजनीतिगत दुराग्रह हमारी पूर्व पीढ़ियों के साथ घटित कटु घटना के कारण होते हैं। "
हमारा व्यवहार आदर्श तो तब होता है जो हम पूर्वाग्रहों से मुक्त नज़रिये से करते हैं। और दुराग्रहों से मुक्त हमारे कर्म, आचरण या अभिव्यक्ति ही देश और समाज का भला कर सकते हैं। इसलिए हमारे दैनिक व्यवहार में आवश्यकता जातिगत,  वर्णगत,  संप्रदायगत या राजनीतिगत दुराग्रहों को भूलने की होती है। इन्हें याद करते हुए हमारे कार्य दुष्प्रेरित होकर (स्वयं हमारे सहित) सभी का अहित करते हैं।
इतना इशारा ही किसी समझदार के लिए काफी है। जिनकी बेटी घर से भाग कर शादी करती है ऐसे किसी माँ-बाप के मनःस्थिति को ना समझने की भूल हम कतई न करें । (नोट- बेटा नहीं लिखा क्योंकि किसी की बेटी को ले भागना हमारे समाज में उसे बदनाम नहीं करता अपितु कई जगह गैर संप्रदाय की लड़की को भगाने की मर्दानगी पर उसे ईनाम तक दिया जाता है). अतः इस आलेख के माध्यम से लेखक का आग्रह है कि हर कोई (ऐसी घटना का अपने परिवार में हो जाने की कल्पना करते हुए) अति आक्रामक प्रतिक्रिया या अभिव्यक्ति से बचे, क्योंकि दूसरों के बारे में मुहँ चलाना आसान होता है, और अपने बारी कहना तो क्या ऐसी स्थिति में हम किसी से नज़र तक मिलाने से बचते हैं . साथ ही ऐसी जातिगत,  वर्णगत,  संप्रदायगत या राजनीतिगत दुराग्रहों के नज़रिये से देखकर भी इस घटना पर अपना मत नहीं दें। पहले ही हमारे मन में बैर विष बहुत भरा पड़ा है। दुराग्रह दुष्प्रेरित हर शब्द इसे और बढ़ाने का कार्य करेंगे।
फेसबुक पर लेखक ने अपनी मित्र (एक समाजसेवी मोहतरमा) की ऐसी काव्य रचना भी पढ़ी, जिसका आरंभ इन पँक्तियों से होता है - 
"बहुत अच्छी लगती है
ये भागी हुई लड़कियाँ
उम्मीद की लौ होती है
ये भागी हुई लड़कियाँ"
लगता है उन्होंने इसे भावना अतिरेक में लिख दिया है। उन्होंने शायद भागी हुई लड़कियों का हश्र को अनदेखा किया है, जिसमें भगाने वाले उन्हें किसी को बेच देते हैं, या अपनी हवस मिटा उन्हें छोड़ देते हैं. ऐसी लड़कियाँ जिस्म व्यापार, बार में डांस और कुछ बीमारियों से ग्रसित हो फुटपाथ पर भीख तक माँगने को मजबूर होते देखी जाती हैं। 
अगर इससे बेहतर भी उनके कुछ होता है जैसे कि भगाने वाले उनसे शादी कर लेते हैं, तब भी ऐसी लड़कियों का प्यार का ताप (बुखार), मिले भिन्न परिवेश एवं  वक़्त के साथ ठंडा हो जाता है. तब उनका, अपने प्रेमी पति का साथ और ज़िंदगी की विपरीतताओं को निभाना कष्टदायी हो जाता है। अगर विवाह विच्छेद में भी हल ढूँढा जाता है तब भी पछ्तावों के अतिरिक्त उनके कुछ हाथ कुछ नहीं आता है। अतः अगर कोई लड़की 'प्यार के ताप' वशीभूत भी हो जाए तब भी बेहतर विकल्प तो यही है कि शादी के लिए वह अपने पेरेंट्स को सहमत करे। उन्हें ऐसा संबंध नापसंद भी अगर होता है तो कम से कम वे यह पुष्टि तो करते ही हैं कि जिन सुविधाओं, प्यार और आदर की उनकी बेटी को अब तक आदत है वह गैर-संप्रदाय या गैर-जाति में उसे मिलेगा भी या नहीं।
यह भी तथ्य है कि भागने वाली लड़की प्रायः कम उम्र की होती है, उसकी नज़र पर चढ़ा प्यार का चश्मा और उसका अल्प अनुभवी होने से उसे जीवन के कटु यथार्थ की कल्पना भी नहीं होती है। ऐसे में परिवार को राजी कर लेने पर हुए विवाह में कम से कम यह सुनिश्चित तो होता है कि आगे जीवन में उसे मायके का सहयोग और मानसिक संबल मिलता रहे। 
अतः अंत में यही लिखना उचित है कि किसी बेटी के घर से भागने को प्रेरित करते हुए ऐसी रचना हम कतई न करें। यह हमारी लेखनी के साथ ही साहित्य का भी सरासर अपमान ही है जो समाज हितकारी कदापि नहीं है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
17-07-2019






Saturday, July 13, 2019

दुष्प्रेरित प्रतिक्रियायें

दुष्प्रेरित प्रतिक्रियायें
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सामान्य सा मनोविज्ञान है कि- यदि हमारे साथ या हमारे परिवार में अपमानजनक कुछ घटित हुआ है तो अन्य के मुहँ से उस बारे में चर्चा हमें सुहाती नहीं है। एक और उल्लेख कि- दौलत के लिए हम दिन रात संघर्ष करते हैं और किसी समय हमें एकाएक बहुत लाभ हो जाता है उसके बाद यदि हम आराम या लापरवाही की मुद्रा में आ जायें और उस धन से अपने में लतें पैदा कर उसे उनमें उड़ाने लगें तो ऐसे में तो हमारा वही समय बेहतर होता है जब हम संघर्षशील हुआ करते थे। 
आज हमारे समाज और देश में ऐसा ही कुछ हो रहा है। हमने अपने को कौमों, जातियों और क्षेत्रीयता में बाँट रखा है। अपनी कौम में कुछ होता है जिसे हम अपने अहंकार( ईगो) से अपने ऑनर का प्रश्न (इशू) मानते हैं, ऐसे में कोई उस पर चर्चा और उसे लेकर हमारा मज़ाक़ बनाता है तो ये हमें अपमान लगता है। जबकि हम अपने कटु हादसे को भूल जाना चाहते हैं तब दूसरों का उसे चर्चा में रखने का प्रयास हमें चिढ़ाता है.  हम उससे नफ़रत और दुश्मनी करने लगते हैं। और ऐसे मौकों का इंतजार करते हैं जब उस कौम में ऐसा कुछ हो जिसका मजाक बना उसे अपमानित किया जा सके। उनके और हमारे ऐसे अवसर उत्पन्न होते रहते हैं क्योंकि यह जीवन है जिसमें ऐसा सब कुछ होना स्वाभाविक होता है। 
सोशल साइट्स के आने के बाद ऐसा लगता है कि- ऐसे हमारे/उनके अवसरों पर  नफरत की प्रतिक्रियाओं का क्रम ज्यादा ही बढ़ गया है। हमें समझना होगा कि मिले किसी वरदान का दुष्प्रयोग वरदान को व्यर्थ कर देना होता है। 
हमने अपनी स्वतंत्रता के लिए बहुत बलिदान दिए थे संघर्ष किये थे। ऐसे संघर्ष के उपरान्त मिली आज़ादी को हम लापरवाही से व्यर्थ करते आये हैं। इससे तो बेहतर हमारे संघर्ष के वे दिन थे जब हम सबके दिमाग पर सिर्फ आज़ाद होने का जूनून सवार था, तब हम अपने सारे भेदभाव को भूल अपनी स्वतंत्रता के लिए एकजुट थे। 
भूल सुधार करना इंसान होना होता है। और नफरत की प्रतिक्रिया हिंसक जानवर होना होता है। हम मनुष्य होने का परिचय दें, हम जिम्मेदार होने का परिचय दें। जिस अपमान के अहसास के बाद कोई उसके सुधार को समय देना चाहता है, उस समय में अपनी दुष्प्रेरित प्रतिक्रियाओं से उसका ध्यान भटका कर उसे क्रोधित करने का प्रयास न करें। अन्यथा जिस आत्मग्लानि की स्थिति में किसी के दिमाग की सक्रियता अपने में बदलाव के लिए बढ़ी है, उसके स्थान पर वह हमसे बदला लेने की चालों में लग जायेगी। जो देश और समाज को हिंसा और नफरत के हादसों से भर देगी। 
हमने आज़ादी अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ियों को यह देने के लिए नहीं ली है. अपितु उस देश और समाज रचना के लिए हासिल की है जिसमें हमारे बच्चे सुरक्षा, आदर सहित अपने खुशहाल जीवन का वातावरण पा सकें। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
14-07-2019   

#आदर
यदि उन्हें हम वह नहीं देते जो दूसरे हमसे चाहते हैं
तो वे एक्सपेक्टेशन हमारी मूर्खता है, जो उनसे हमारे होते हैं

यदि आसपास समस्याग्रस्त लोग हैं तो समस्या सिर्फ उनकी नहीं
अपितु उनमें जीना हमारी ही समस्या है
समस्याग्रस्त लोगों के मददगार बनें
मोहब्बत यही है -
तेरी ख़ुशी को तरजीह दे दी है
मेरी ख़ुशी अब सवाल नहीं है

Friday, July 12, 2019

अपने क्यों होते हैं पराये

अपने क्यों होते हैं पराये
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`दुनिया पराई होती ही है, ऐसे में अपने भी क्यों हो जाते हैं पराये?  आइये आज हम इस व्यापक घटना के कारणों को समझने की कोशिश करें। (आलेख में कुछ विज्ञान की टर्मिनोलॉजी का प्रयोग समझने के लिए आसान होगा है, अतएव आगे कुछ ऐसे शब्द आपको पढ़ने मिलेंगे।)

वास्तव में मानव मन में अन्य बातों के साथ में, एक बड़े हिस्से में भावनाओं का स्थान होता। और भावना का एक गुण उसमें ज्वलनशीलता का होना होता है।  मन के सामान्य तापमान में हमारे मन में भीतर विराजित भावना तब ज्वाला पकड़ लेती है जब हमारे आसपास किसी की ऐसी ही भावना से उसकी स्पर्धा होने लगती है। 8 अरब मानव सँख्या के इस विश्व में एक आध सैकड़ा हमारे अपने और कुछ सैकड़ा हमारे परिचित होते हैं। शेष हमारे लिए अजनबी से या पहले ही पराये से होते हैं। यहाँ वर्णित ये कुछ सैकड़ा/हजार मानवों का संपर्क हमारे जीवन में ज्यादातर वर्षों बना रहता है। इसलिए जो पहले ही पराये होते हैं उनके कम (या बिलकुल ही नहीं) संपर्क होने से हमारी और उनकी भावनाओं में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होने पाती है इसलिए वे हमारे मन के भीतर ज्वाला भड़काने में कम ही कारण बनते हैं। जबकि सबसे ज्यादा संबंध हमारा अपने रिश्तेदारों से और उससे कुछ कम हमारा पड़ोसी,सहकर्मी और अन्य परिचितों से रहता है। जिनके संपर्क में हम प्रायः रहते हैं उनमें कई कारणों से यथा - रूपवान, धनवान, बुध्दिमान, ख्यातिवान या उनका अनुकरण / प्रशंसागान आदि करने वालों के आधार पर हम स्वयं को उनसे हीन पाते हैं। ठीक उसी समय हमसे ऐसे श्रेष्ठ हमारे अपने/मित्र/परिचित हमें अपनी सफलता के बखान शाब्दिक रूप से या अपने हावभाव और आडंबर से हमारे समक्ष प्रदर्शित करने की भावना रखते हैं। यही वह समय होता है जब इस प्रतिस्पर्धा की हमारी और उनकी भावना में घर्षण (friction) उत्पन्न होता है और हमारे मन में ज्वाला धधकने लगती है। इसे ईर्ष्या अग्नि भी कहते हैं तथा इससे उत्पन्न तापमान हमें उनसे दूर छिटकाता है, जिनकी और हमारी भावनाओं के मध्य घर्षण हुआ होता है। यही छिटकाव ही 'हमारे जो अपने होते हैं उन्हें पराया बना देते हैं'। 

उपरोक्त विवेचना से हम कह सकते हैं कि हमने "अपने क्यों होते हैं पराये ?" इसका कारण तकरीबन वैज्ञानिक विधि से खोज लिया है। जब हमने किसी समस्या के कारणों को जान लिया है तो यह भी उचित होता है कि उसके समाधान का निर्णय भी हम करें। अतः थोड़े और शब्दों के जरिये यह लेखक इस हेतु आगे लिखता है कि -
'अपने न हो जायें पराये' इस हेतु हमें अपने मानसिक तापमान को सामान्य से कम रखना होता है ताकि भावनाओं में घर्षण और उसमें ज्वलनशीलता के विध्यमान गुण के कारण से चिंगारियाँ न उत्पन्न हों। मानसिक इस तापमान को सामान्य से कम रखने के लिए हमें अपने मन में विराजित "स्व-विवेक" को हर समय जागृत रखना होता है। हमारा विवेक ही हमें अपने पक्ष के साथ साथ अन्य के पक्ष का भी दर्शन कराता है। अन्य पक्ष के दर्शन से हमारा मन शाँत अर्थात ठंडा रहता है जिससे भावनाओं के घर्षण में अग्नि का स्तर हानिकारक स्तर तक नहीं पहुँचता है और 'हमारे अपने आजीवन हमारे अपने होते हैं'। 

इससे आपसी सहयोगी भावनायें पनपती हैं जो हमारी संयुक्त क्षमतायें तथा योग्यतायें, ज्यादा विकसित करने में सहायक होती हैं। इसे अन्य शब्दों में ऐसा लिख सकते हैं कि - दुनिया में इस तरह जब हमारे अपने ज्यादा रहते हैं तब हम किसी भी समस्या के प्रति उनकी बैकिंग होने से आश्वस्त रहते हुए अपने कर्म और व्यवहार रखते हैं। ये परिस्थितियाँ हमें तनाव रहित एवं चिंता रहित रखने में मददगार रहती हैं जो हमारी कार्यक्षमता में वृद्धि लाती है और हम संयुक्त रूप से सभी अपने ज्यादा सफल एवं ज्यादा आनंदमय जीवन और साथ का लाभ उठाकर अपने समय पर अंततः इस दुनिया से विदा लेते हैं। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

13-07-2019

Tuesday, July 9, 2019

उकेर चित्र व्यर्थ न कर समय ये दर्शाने को
कि कैसे हैं दुनिया वाले
दे समय स्व सुधार के विचार को
कि दुनिया का चित्र निखर जाये 

Monday, July 8, 2019

मी: - तू, अब इंसान अच्छे क्यूँ नहीं बनाता?
खुदा : -
तादाद कम थी तब नफ़ासत से बनाता था
तादाद बढ़ गई अब वह किस्म बनती नहीं

जब हम थोड़े में खुश रहते हैं
औरों की ख़ुशी की गुंजाइश करते हैं
हमारी ख़ुशी को ज्यादा की दरकार होती है
तब हम औरों की ख़ुशी तमाम करते हैं

Sunday, July 7, 2019

लगता तो है यूँ ही कि
ज़माना ख़ुद समझदार है मगर
अपनी होशियारी बघारे बिन
ये दिल है कि मानता नहीं

वह भी सच था, जब समझते थे- जी ना पायेंगे तुम बिना
यह भी सच है, इक अर्सा जीना पड़ा हमें- इक दूजे के बिना

Saturday, July 6, 2019

कोरा वादा !



कोरा वादा !

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आफ़रीन लगभग बिफर कर बोली - हम आठ बहन-भाई पैदा किये हमारी अम्मी ने. मेरा भी ऐसा ही सिलसिला चालू कर दिया, आपने. मेरे ना कहते हुए भी बिना निरोध साधन के प्रयोग के लगे रहते थे आप, रात दिन में चार-छह बार. जो सिलसिला कम रखते हुए लंबे अर्से चलाया जा सकता था, ख़त्म एकबारगी हुआ.अब, अम्मी की तरह ताउम्र मैं भी बच्चों के लिए लगी रहूँगी. कहते हुए आफ़रीन का चेहरा, मानसिक पीड़ा और क्रोध से सुर्ख हो गया था.
यह सब सुन आदिल का परंपरागत पुरुष भड़क उठा था, उसका मन हुआ आफ़रीन के गालों पर दो चाँटे जड़े, मगर पहले से ही उदास हो रही आफ़रीन पर और दर्द बन कर टूटने से उसने किसी तरह खुद को रोका. प्रकट में कहा - आफ़रीन तुम अगर बच्चों के लिए लगी रहोगी, तो मैं कौनसा अलग कुछ जीऊँगा, मुझ पर तो उनके अतिरिक्त, तुम्हारा भी भार होगा. यूँ आरोप की भाषा में न कहो ये सब.
स्वयं पर हुई इस हिंसा ने आफ़रीन के तेवर और विद्रोही कर दिए. हुए दर्द से उत्पन्न विलाप करते हुए वह आप से तुम के संबोधन पर उतर आई. आदिल से बोली - तुम मेरे बोलने पर पाबंदी लगा सकते हो, मगर हर कौम की नारी जिसमें अपने अधिकार और जीवन के प्रति चेतना आई है, उन सबके आज के समवेत स्वर को तुम, पाबंद नहीं कर सकते. साथ ही मुझे अपने पर आर्थिक भार मानने वाले तुम, यह भी समझ लो कि इसके जिम्मेदार भी तुम्हारी पुरुष बबर्रता से उत्पन्न सोच है, जो नारी को अपने कैद में बनाये रखने से पुष्ट होती है. तुम जैसे लोग ही चाहते हैं कि हम पुरुष आश्रिता नारी, स्व-निर्भरता की दृष्टि से शिक्षित नहीं किये जायें. आफ़रीन इससे आगे भी कुछ बोलती रही, लेकिन आदिल तब तक कमरे से जा चुका था.
आगे तीन दिन तक अस्पताल में आने वाले रिश्तेदार और परिचित आफ़रीन की ख़ामोशी और उदासी का कारण, उसकी जन्मी बेटी (बेटा नहीं) को मानते रहे. आदिल इन तीन दिनों में कमरे में आया तब भी आफ़रीन, उसे नज़रअंदाज करते रही. अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद एक रात आदिल जिसका गुस्सा अब शांत हो चुका था , आफ़रीन की चिरौरी करते हुए क्षमा याचना करने लगा. आफ़रीन ने उस प्रसंग के बाद पहली बार आदिल की ओर देखा और कहा माफ़ किया, तुम्हें. मगर अभी बिना रोके-टोके, तुम मेरी बात सुनो और उसे समझने की कोशिश करो कि- इस देश में घर में जितनी जगह नहीं है उससे ज्यादा बच्चे भरे हैं, जो उनके सहज विकास को सुनिश्चित नहीं करते. बाजारों, सड़कों और रेल में पैर रखने को जगह नहीं है. जहाँ देखो वहाँ कतार लगीं हुईं हैं. कार्यलयों, न्यायालयों आदि सब जगह काम के बोझ इतने हैं कि 10 मिनट में हल होने वाली समस्यायें दिनों, महीनों और सालों तक लंबित रहती हैं. हर कौम में अपनी आबादी बढ़ाने की होड़ लगी हुई है. बहुसंख्यक हो कर हमें, क्या प्राप्त होगा? वह भविष्य के गर्त में है मगर इस मूर्खता ने आज के मनुष्य के जीवन को नर्क कर रखा है. क्षेत्रफल में कहीं छोटे इस देश की जनसँख्या अगले कुछ वर्षों में - दुनिया में सबसे अधिक हो जाने वाली है. इस देश, इस समाज के प्रति क्या हमारा कोई दायित्व नहीं ? ये प्रश्न उठा वह चुप हो गई.
आदिल आज पहले ही सरेंडर था - उसने आफ़रीन से वादा किया कि वह अपनी दो से ज्यादा संतान नहीं करेगा. आफ़रीन को आदिल की बात पर न तो यकीन आया और न ही उसकी खराबियों को अनदेखा कर सकी. मगर प्रकट में उसके मुख पर, फीकी मुस्कान अवश्य दिखाई दी.
'तुम्हारा भी भार' शब्दों के प्रयोग ने आफ़रीन को और आहत कर दिया, उसने जबाब दिया - आप ये तो ना कहो तो अच्छा है, हमें घर-बच्चों में बाँध कर और वस्त्रों मैं कैद करके आप स्वयं बाहर की औरतों की अर्धनग्न-नग्न तस्वीरों,वीडियो को देखते रहोगे. आफ़रीन ने आदिल के फेसबुक, इंस्टा आदि के इन शौक की साक्षी होने पर ये कहा, लेकिन आदिल को यह कडुआ सच बर्दाश्त नहीं हुआ. इस बार क्रोध से तमतमा कर उसने यह भूलकर कि यह अस्पताल का कक्ष है और नवजात बेटी बगल में सोइ है, उसने अपनी लेटी पत्नी के एक हाथ से सिर के बाल पटा दिए और दूसरे हाथ से दो जोरदार थप्पड़ आफ़रीन के मुहँ पर जड़ दिए.
बेटी के जन्म देने के बाद खामोश-उदास सी लेटी थी आफरीन. इसके विपरीत पति आदिल ख़ुशी के मारे वाचाल हुआ जा रहा था. आफरीन को यूँ नवजात के प्रति उदासीन सा देख आदिल ने पूछा - क्या, हुई पीड़ा से ऐसी गमगीन हो? आफरीन ने सिर्फ नकारने मुखमुद्रा से इस बात का उत्तर दिया. आदिल ने फिर पूछा बेटा नहीं हुआ इससे निराश हो? इस पर भी आफरीन ने सिर्फ एक शब्द - "नहीं" कहा. अब आदिल कारण जानने को व्यग्र हो गया, प्रश्न किया- फिर क्या कारण है यूँ खामोश, किस विचार में डूबी हो? आफरीन की आँखे छलक आईं, कहा - हमारी शादी 14 अक्टूबर को हुई है, और आज 4 जुलाई ही तो है. कह कर चुप हो गई. आदिल ने सवाल किया- इसमें उदास होने की क्या बात है?

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
06-07-2019


Tuesday, July 2, 2019

"लोगों का काम है कहना", समझ कर बेफ़िक्र हम इतने हैं
लोगों से बेपरवाह, बेख़ौफ़ हम काले कारनामे अब करते हैं