Saturday, June 29, 2013

प्रकृति परिवर्तन से आपदा ?

प्रकृति परिवर्तन से आपदा ?
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पवित्र धाम विशेषकर केदारनाथ में अभूतपूर्व प्राकृतिक आपदा आई . वहां सड़क (और व्यवस्थाओं ) , मंदिर और बसे ग्रामों को तो क्षति तो हुई ही , वहाँ के निवासी और श्रध्दा से दर्शन को पहुंचे तीर्थ यात्रियों को प्राण तक गंवाने पड़े . लोग अपने परिजनों से बिछुड़े . सहनशीलता की सीमाएँ तो तब टूट गयीं . जब चलने की ताकत ना रह जाने से बूढ़े माता -पिता को मरणशील दशा में ही छोड़ शेष परिवार लाचारी में वापिस लौटा (ना लौटते तो उनके अतिरिक्त कुछ और वहीँ मारे जाते ) .
सेना देश और समाज सेवियों ने स्वेच्छा से जो सहायता की जा सकती थी उसके लिए अथक परिश्रम ,सेवा भाव और साहस प्रदर्शित किया किन्तु वह अपर्याप्त ही  रहा .

विभिन्न मंच ,समाचारों से कई तरह के टिप्पणियाँ आईं . सिर्फ दो ही यहाँ उल्लेख करूँगा 

1 . कहा गया "जिनकी मौत धाम पर होती है वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं" .. जो परिजन खोकर वापिस लौटे या जिनके परिजन गए तीर्थ को और वापिस ना लौटे उनके सीने पर जो दुखों का पहाड़ टूटा , जिन्होंने वहाँ मौत की विकरालता को प्रत्यक्ष देखा .वे शेष जीवन भर उसकी अप्रियता को भूल जाना चाहेंगे पर भूल ना पायेंगे . उनको इस तरह प्राप्त मोक्ष का विचार भी शायद ही कोई संतोष दे सकेगा .
2. कहा गया "मानवीय छेड़छाड़ ने वहाँ की प्रकृति को बदला इस कारण भीषण आपदा आई" . बात की सत्यता असत्यता पर कोई प्रश्नचिन्ह  नहीं लगाना चाहता . पर आई विपदा ने जिस बात से पीड़ितों को और  संवेदनशील मानवों को ज्यादा व्यथित किया , वह प्रकृति के परिवर्तन से ज्यादा परिवर्तित होती मानवीय प्रकृति थी .

# जब वहाँ मानव प्राण गवाँ चुका था ... कुछ लोग उनके शरीर(और वस्त्रों ) से आभूषण और धन खोज रहे थे और उतार रहे थे  .
# लोग रोग के शिकार और घायल हो गए थे ,भूखे थे ...उनसे  अन्न ,जल और दवाओं के लिए सैकड़ों गुना ज्यादा धन  की मांग कर ये चीजें दी जा रही थी .
# तीर्थ दर्शन को पहुँचे विपदा में फँसे जब अपने परिजनों को अपनी स्थिति का सन्देश देना चाहते थे तब उनके दो चार मिनट की सेल फ़ोन  से बात की कीमत हजार रुपये तक वसूल की जा रही थी .

लेखक के पास इसकी कोई पुष्टि के साक्ष्य नहीं हैं  अतः ये बातें झूठी और आधारहीन है तो प्रसन्नता ही होगी . पर यदि इनमें सच्चाई है तो कहना पड़ेगा मनुष्य की प्रकृति में दूसरी बार परिवर्तन आ रहा है .

एक ... आदिकाल में वह जंगलों में जानवरों के साथ उन जैसा रहता था तब उसमें उन जैसी पशुता ही थी . धीरे धीरे बदल कर वह  मानव हुआ और उसने जीवन में जिन आचरण और सिध्दांतों को अपनाया वह मानवता कहलाई .
दो ..  मानवता सीख कर अब पुनः उसकी प्रकृति में परिवर्तन दिखाई दे रहा है .. भय है मानवता तज पुनः पशुता ना अपना ले .

यह भय हमें यदि सताता है तो हमें उन कारणों की जड़ में जाना होगा जो इस तरह प्रकृति परिवर्तन को दुष्प्रेरित कर रहे हैं .
उनका सुधार किये बिना समाज सुखी नहीं होगा .फिर हम भी सुखी ना हो सकेंगें क्योंकि कितने हैं जो अन्य ग्रहों पर पहुँच कोई अन्य सुखी मनुष्य समाज रचना कर सकेंगे ...

--o--

Thursday, June 27, 2013

तुम ऐसे क्यों चले गए रितेश ?

तुम ऐसे क्यों चले गए रितेश ?
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 इस वर्ष ही जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से MCA पूर्ण कर रितेश बंगलोर कुछ तरह की ट्रेनिंग और कोर्सेज करने गया था ताकि आगे अच्छे जॉब के रास्ते मिलें . सड़क पर ना जाने किससे गलती हुई रितेश कुछ दिनों पूर्व दुर्घटना में घायल हो गया . मित्रों और सीनियर ने अस्पताल पहुँचा कर उपचार आरम्भ करवाया . रितेश के माता-पिता परिवार सिलीगुड़ी में रहता है . दुखद सूचना मिलने पर चिन्ता और गहन दुःख की स्थिति में कल ही लम्बी यात्रा के बाद वे बंगलौर पहुँच सके .पर गम्भीर चोटों से जूझता रितेश आज हार गया .जीवन दीप बुझ गया उसका .
तुम ऐसे असावधान कैसे हो सकते थे रितेश ? 
आज दुनिया है .
लेकिन तुम्हारी दुनिया ख़त्म हो गई .
तुम्हारे माता-पिता दुनिया में हैं पर तुम्हारे इस तरह चले जाने से उनकी दुनिया ख़त्म हो गई है .

बाईस वर्ष के तुम थे . तुम्हें शायद नहीं मालूम किसी के बीस - बाईस वर्ष के होने का अर्थ क्या होता है .बच्चा जन्मता है तब से माँ -पिता के प्राण उसमें बसने लगते हैं . सम्पन्नता ना होती है तब अपने इक्छाओं , आराम और जीवन स्वप्नों का त्याग से सींचते उसे बड़ा करते हुए स्वयं युवा से बूढ़े हो चलते हैं . बाईस वर्ष का होने का अर्थ यह भी होता है पूरा बचपन और किशोरावस्था आगे जीवन में किसी योग्य बनने के सपने के लिए पढ़ते हुए निकाल दी होती है ,माँ-पिता के लाडले/लाडली ने .
बाईस वर्ष का होने का अर्थ यह भी है .. अपने लाडले/लाडली की  खुशियों में ही माँ-पिता का जीवन सार्थक होता है .
एक अर्थ यह भी है माँ-पिता के त्याग और बच्चे के अथक पढने के परिश्रम से वह जीवन बुनियाद निर्मित हुई है . जिस पर एक सफल जीवन महल निर्मित होने जा रहा है. बच्चा माँ -पिता से ज्यादा सफल और अच्छा जीवन बनाने में कामयाब होगा , माँ -पिता की वर्षों की आशा और इक्छा अपने यौवन पर आ गई होती है . अब माँ -पिता की नयन -ज्योति कमजोर पड़ना आरम्भ होती है . अपना शेष जीवन बच्चे की आँखों के माध्यम से दुनिया देखेंगे सोच-समझ कर प्रसन्न हो रहे होते हैं .निश्चित ही तुम्हें नहीं पता रहा होगा रितेश अन्यथा असावधानीवश तुम इस दुर्घटना के शिकार हो यों नहीं जाते .

तुम ना सोच सकोगे अब रितेश लेकिन कोई और रितेश जैसे ना जाए ये युवा सोचें . 
माँ-पिता ने जीवन का पहला अर्ध( फर्स्ट हाफ), बच्चे के लिये  त्यागों के नाम कर जीवन सुख तजा था.दूसरे जीवन अर्ध (हाफ) में अब रितेश के जाने का दुखों का पहाड़ सीने पर रख अब जीवन रहते मर गए हैं .

रितेश सी भूल किसी और से ना हो . युवाओं सोचो तुम जीवन ज्योत हो परिवार ,समाज और देश के. तुम दीर्घायु हो यह हार्दिक कामना .

पर रितेश बहुत थोडा सा परिचय था तुमसे पर तुम मुझे आज रुला गए ... 
तुम्हारी आत्मा को भगवान शांति प्रदान करे .. और तुम्हारे माँ-पिता को विशाल ह्रदय ताकि सहन कर लें इस गहन असहनीय तुम्हारे विछोह को ...


Wednesday, June 26, 2013

बारिश में सबेरे भ्रमण

बारिश में सबेरे भ्रमण
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आज सबेरे उठा तो बारिश जारी थी . जबलपुर मानसून के लयबध्द फुहारों से भीग रहा था . भ्रमण के लिए पुराने जूतों ,छतरी और कुछ शॉर्ट्स (कपड़े) में निकल पड़ा .
नितदिन से भिन्नताएँ जो दृष्टिगोचर हुईं ,और जिनसे कुछ विचार उठे वे उल्लेख करूँगा ..

एक विक्षिप्त सा व्यक्ति जो प्रतिदिन फुटपाथ पर सोता मिलता है वह अपने स्थान से भिन्न एक दुकान के शेड के नीचे खड़ा था .भूमि वहाँ भी गीली ही थी इसलिए लेटा वहाँ भी नहीं जा सकता था . लगता था रात्रि में सो नहीं सका था . निर्धनों ,रोगियों ,विक्षिप्तों और अनाथों को अब भी एक ठीक सा आश्रय स्थल , भोजन और दवाइयाँ उपलब्ध नहीं . लगा सभ्यता (बहुत उन्नत होने के बाद भी ) को अभी भी बहुत उन्नत होना शेष है . और आज जो उसकी दिशा ठीक नहीं है तो शंका होती है कि कभी निर्धनों ,रोगियों ,विक्षिप्तों और अनाथों को ठीक सा आश्रय स्थल , भोजन और दवाइयाँ की पर्याप्त व्यवस्था उन्नत हो चुके मनुष्य क भी सकेंगे अथवा नहीं .
आगे बढ़ा तो फुटपाथ पर एक वृक्ष की डाल टूट कर गिरी थी . दो मिनट रूक उसे घसीट के किनारे किया . थोड़ी देर में स्कूल का ट्रेफिक होगा ऐसे में फुटपाथ पर चलने की जगह ना होने पर बच्चे नीचे सड़क पर चल किसी परेशानी में ना पड़ें ,सोचते हुए .

चलते हुए आज प्रभात भ्रमण प्रेमी नहीं दिखे लेकिन सुखद आश्चर्य यह देख हुआ नित्य की भांति चार-पाँच सौ तो नहीं पर दस-पंद्रह बारिश से बचने के अपने अपने उपायों के साथ भ्रमण पर थे .

बारिश और बादलों का अंदाज आज लयबध्द था . जब तक ट्रेफिक नहीं बढा रिमझिम और फुहारों में मधुरता अनुभव होती रही  थी. लगा आज बादल भारतीय वाद्य (वीणा ,बाँसुरी आदि ) के साथ ही आकर ही जबलपुर को भिगो रहे हैं .आकाशीय बिजली की गडगडाहट  (शोर मचाता पश्चिमी वाद्य भांति ) आज उनके पास उपलब्ध नहीं थी .

एक स्थान पर तार टूट कर फुटपाथ पर पड़ा था .हालांकि वह स्पीकर का तार था जो रिज रोड पर भ्रमण करते लोगों को संगीत देने के लिए लगे हैं . उस तार में करंट नहीं होता पर स्पीकर और तार विद्युत सपोर्ट पर ही स्थापित हैं अतः फाल्ट की स्थिति में उन में करंट आ जाना संभावित होता है और भीगे मौसम में इसका फैलाव खतरा भी उत्पन्न करता है .ओवरहेड बिजली के तारों से हमेशा एक भय रहता है . अतः इनके बहुत पर्याप्त रख-रखाव आवश्यक होता है . पर हमारे विभागों के पास फण्ड अभावों और इक्छा-शक्ति के अभाव में ओवरहेड लाइन बहुत सुरक्षित नहीं बनाई जा पाती हैं .

दो  बात भीगे मौसम के बीच भी नहीं बदली थी .एक सड़कों पर सफाई को तैनात माँ ,बहनें और बेटियाँ झाड़ने के लिए आने लगी थीं और उन्होंने अपना कार्य आरम्भ किया था . लेकिन चिन्तित करने वाली बात यहाँ भी दिखी वे बिना बरसाती (रेनकोट) पहने कार्यशील थीं .
दूसरी स्कूल के लिए बच्चे और टीचर्स  ऑटो ,बस ,स्कूटी ,साइकिलों और पैदल निकलने लगे थे . उन्हें स्कूल जाते भीगने पर ,उन्ही वस्त्रों में पूरे समय बैठना था . जो रोग को आमंत्रण होता है . लगा स्कूल में भी चेंज रूम होना चाहिए और कुछ वस्त्र जो की ज्यादा भीगने पर इस्तेमाल किये जा सकें . लेकिन एक चिंता यहाँ भी हुई .चेंज रूम में कैमरा ना हो इसकी गारंटी कैसे होगी ?

इन चिंताओं और विचारों के बीच बारिश में सवा घंटे की वाक मैंने बच्चों सा आनंद (भीगने का ) उठाते पूर्ण की .   .

--राजेश जैन 
27-06-2013

Tuesday, June 25, 2013

राष्ट्र का स्वाभिमान

राष्ट्र का स्वाभिमान 
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एक अधिकारी के दो मातहत होते हैं ,जो उन्हें प्रिय हैं ऐसा दूसरे मानते हैं .
 एक का गुण कर्तव्य निष्ठा से कार्य करने का है .
 दूसरा अधिकारी के व्यक्तिगत अपेक्षाओं को ध्यान रख उसे पूरा करने की गतिविधियों में तल्लीन रहता है .विभागीय कार्य सिर्फ दूसरों को दिखावे के लिए करने की अदाकारी करता है .

 अधिकारी स्थान्तरित होकर चला जाता है . 
कुछ वर्ष बाद भी दूसरे के सम्बन्ध अधिकारी से मधुर बने हुए हैं . 
जबकि पहला अचानक एक दिन स्टेशन पर अधिकारी के समक्ष पढता है तो उन्हें अभिवादन करता है . अधिकारी के चेहरे पर सोचपूर्ण भाव हैं वह पहचानने की कोशिश कर रहा है .. कौन है यह ?

दो तरह के कर्मचारी और अधिकारी सार्वजनिक संस्थाओं में हैं . 
एक कर्मनिष्ठ हैं जो तंत्र(System), (संरचना-Structure) की मजबूती के लिए समर्पित हैं . 
दूसरे बॉस के हितों को पुष्ट कर अपने हित बिना तंत्र(System) के लिए कार्य कर बचा रहे हैं . ये तंत्र(System) को नहीं बॉस और स्वयं के साथ गलत परम्परा को पुष्ट कर रहें हैं .

पहले बिरले होते जा रहे हैं जबकि दूसरे अधिसंख्य हो गए हैं .

गलत परम्पराओं के पुष्ट होने से ही केदारनाथ सहित पवित्र अन्य धामों पर आई विपदा के बीच पीड़ितों को राहत देने के लिए सक्रियता में कमी परिलक्षित हुई जबकि वहाँ लूटपाट और दुराचार तक की घटनाएं हुईं .

इससे बड़ी विपदा जापान ने झेली लेकिन वहाँ इस तरह की दुखद अमानवीयता का कोई कृत्य नहीं हुआ.  हमारे से छोटे राष्ट्र जिसने हमारे देश से गए धर्म और संस्कृति को अंगीकार किया है, का तंत्र ऐसे कर्मियों से बनता है जो राष्ट्र और सर्वहित को पुष्ट करते हैं .
तभी वह विश्व में स्वाभिमान से खड़ा है .

अपने बारे में विशेषण ना लिख आप को विशेषण पर विचार करने कहता हूँ ....
सार्वजनिक हितार्थ संरचनायें कैसे मजबूत होंगी ?

Monday, June 24, 2013

देशवासी कुशल रहें

देशवासी कुशल रहें 
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नित प्रभात भ्रमण में उत्पन्न विचार या दृश्य ,घटनाएँ अक्सर मेरी पोस्ट (लेखन ) का विषय बन जाता है .नित्य की  तरह आज भ्रमण से सपत्निक में लौट रहा था .तब एक कार और बाइक की रोड पर भिडंत हो गई . कार एक युवती चला रहा थी .जिसमे साथ उनके 2 बच्चे (प्राइमरी क्लास के ) थे जबकि बाइक पर आर्मी का युवक था . हम रोड के दूसरे साइड थे और एक्सीडेंट को बीच में बस निकलने के बाद देख पाए थे . अतः गलती किसकी हुई थी ज्ञात नहीं था .
युवती सरल थी इसलिए टक्कर के बाद गाड़ी रोक कर कार से उतर कर आ गई थी . मैंने दौड़ कर गिरी बाइक और युवक को उठाया . मेरी पत्नी और मै उठकर खड़े होते युवक से यह पूछ रहे थे कि उसे कोई चोट तो नहीं आई . उसके मुख पर जो भाव थे वे क्रोध और छोटी चोट से उपजी पीड़ा के थे .
युवती और युवक एक दूसरे की गलती बता रहे थे .इस बीच कुछ और लोग रूक गए थे . कार में बच्चे माँ को विपत्ति में देख सहमे बैठे थे .
युवती जल्दी रवाना होना चाहती थी . जबकि युवक उससे उलझने की मुद्रा में आ गया था . युवक की गाडी को क्षति  और चोट मामूली देख , बीच बचाव कर मैंने युवती को जाने का मार्ग प्रशस्त किया . और युवक की पीठ पर हाथ रख उसे ज्यादा चोट नहीं आई इस बात की सात्वना भी दी . वह गुस्से में था शायद मुझ पर भी गुस्सा था . जो मैंने युवती को निकल जाने दिया था .

युवती तो जा चुकी थी रूक गए लोगों में से एक ने  मुझे यह कहा आपने ठीक नहीं किया . युवती के जगह ये और युवक की जगह युवती होते तो युवती इन्हें जेल पहुंचवा देती . इन्हें कार चलाना आता नहीं है . और कार पकड़ा दी जाती है .

यह कहते हुए कि ख़ुशी इस बात की है ,इन्हें (युवक को ) ज्यादा चोट नहीं आई है और क्षमा कर इन्होंने परोपकार किया है . मै वहां से विदा हुआ .

सड़क से वह गाड़ी जल्दी ना हटती तो कुछ और लोग एकत्रित हो जाते . कुछ इस पक्ष और कुछ उस पक्ष से बोलकर आपसी सम्मान को ठेस लगाते और सड़क पर जाम लगता .

देश की सड़कें भीड़ भरी हैं . गाड़ियाँ जो लोग चला रहें हैं उनकी दक्षता अलग -अलग है . हमें सतर्क होकर गाड़ी चलाना चाहिये .रास्ते चलते लोग किसी ना किसी के आँख के तारे हैं . किसी घर के मुखिया (जिस पर परिवार आश्रित है ) हैं . किसी घर की सम्मानीय माँ, बहन या बेटी हैं . जो भी अप्रिय रोड पर घटित होता है उसे कम करने के लिए चलने- चलाने ,बचने बचाने में हमें ज्यादा से ज्यादा सावधानी रखनी चाहिए .
जिससे इन अपर्याप्त व्यवस्था ,कम दक्षता और और सही गलत -धारणाओं के बीच भी  हमारे अपने और देशवासी कुशल रहें और सबका सम्मान भी सुरक्षित रहे ..

(गलत धारणा -- बड़ी गाडी में कोई है तो एक्सीडेंट में गलती उसकी ही होती है और नारियों को कार चलाना आता ही नहीं है ,गाडी दे दी जाती है )


Sunday, June 23, 2013

जीवन आँकलन

जीवन आँकलन
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एक दिन एक व्यक्ति के सम्मुख अचानक मौत आ खड़ी हुई .कहा तुम्हें कल अपने साथ ले जाउंगी . आज का दिन तुम्हें सारे मानसिक विचारों से मुक्ति है .तुम मात्र यह विचार करने योग्य बचे हो जिसमें अपने व्यतीत जीवन का आँकलन हो सके ...

उसने सोचना आरम्भ किया वह साहित्यकार था उसे लगा .. जीवन जैसा जिया है उससे कुछ और तरह से जीना ज्यादा उचित होता   . उसे जीवन में धन को ज्यादा महत्व देना चाहिए था ...

यह तो साहित्यकार का अपना जीवन आँकलन था .. लेकिन जिस किसी को भी जीवन में आँकलन करने का समय मिले उसे किसी ना किसी तरह की असंतुष्टि अपने व्यतीत जीवन के ढंग को लेकर होगी .
95 % व्यक्ति बिताये जीवन से संतुष्ट नहीं मिलेंगे . जो 5 % मिलेंगे वे मुझे लगता है वो होंगें जिन्होंने जीवन में परोपकार का अच्छा क्रम रखा होगा .

की गई  नेकी से अपेक्षा कुछ नहीं होनी चाहिए .. जब तब हम एक उक्ति प्रयोग करते हैं
"नेकी कर दरिया में डाल "

लेकिन मुझे लगता है परोपकार का बदला कुछ और मिले ना मिले .. जीवन संतुष्टि अवश्य मिलती है . यही जीवन का सार्थक होना भी कहलाता है और इसी से समाज सुखी और मानवता पुष्ट होती है .

इस सच्चाई को जो कोई जितनी शीघ्रता से जीवन में जान जाता है वह ही परहित के कर्मों के प्रति जागृत होता है और अपने जीवन से संतुष्ट भी  .


हार्दिक कामना 
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विकट आपदा हरिद्वार पर आई 
हुये तीर्थ तीर्थयात्री क्षत-विक्षत 
विलाप और पुकार मदद की 
गूँजती देश के कोने कोने  में 
थपथपाते हम पीठ सेना की 
और दयालु जो अपने व्यय पर 
चल निकले पीड़ितों की मदद को 

जन मानस है सदमे में 
जुटा रहा सहायता कोष देश में 
एकत्रित राशि सहायता के लिए 
कामना पीड़ितों को शत प्रतिशत पहुंचे 


Saturday, June 22, 2013

मेरे देश

मेरे देश
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मेरे देश , सबसे निराला अपना था यह देश विश्व में 
समाज ,संस्कृति के दर्शन हेतु आते थे शेष विश्व से 
भव्य धर्म ,त्याग परम्पराएँ लुभाती आते जो विश्व से 
अनुकरण करता उन्नत मानव सभ्यता का विश्व था 

मेरे देश , आपसी जाति भेद के नाम होते संघर्षों ने 
भाषा और क्षेत्र के नाम लड़ते परस्पर मरते मारते 
अलग हुए हम धर्म के नाम विभाजन रेखा खींचकर 
खोया वह देश हमारा भव्य विख्यात था जो विश्व में 

मेरे देश , गर अपनी गरिमा की हम अनुभूति रखते
जो दोष पनप रहे थे पहिचान कर हम स्वतः मिटाते  
धनी निर्धन के बीच बनती खाई को और ना गहराते 
उन्नत थे और उन्नति कर शेष विश्व का नेतृत्व करते 

मेरे देश , पुरुष -नारी बीच संबंधों की आवश्यकता को 
हम जानते थे सम्पूर्ण श्रध्दा और हार्दिक गंभीरता से 
परिवार माता -पिता और बच्चों के प्रति कर्तव्यों को 
निभाते स्थायी रूप से ले वचन अपने कर्म आचरण के 

मेरे देश , पुरुष -नारी बीच आकर्षण जब उत्पन्न होता 
कसौटी पर , क्या निभा सकते जीवन भर हम परखते 
दिन -दो दिन के साथ हेतु कभी ना बांधते प्रेम-पाश में 
परिवार सुखी ,समाज सुखी और कहलाता देश सुखी था  

मेरे देश , अनुकरण संस्कृति का विश्व कर रहा था 
हमने क्यों अपना चरित्र बदला आत्म-विश्वास खोया 
दिन-दो दिन के पाश में बांधते छलकर फिर छोड़ जाते
हुए बच्चे नारी समाज में अभिशप्त जीवन जीने को 

मेरे देश , सब योगदान दे रहे अप-संस्कृति में हम 
फिर विलाप कर रहे दशा देख समाज और देश की 
अपनी बुराई मिटाने का नहीं जुटाते साहस स्वयं में
दिवा-स्वप्न कोई आये बुराई सारी मिटा जाए देखते 

मेरे देश , हमारे स्वप्न सजाने से नहीं यह बात बनेगी 
श्रम और त्याग जब लगेगा स्वप्न तब यथार्थ बनेगा 
युवा तुम ना पलायन कर बाहर देश में बसने जाओ 
यहाँ जन्मे यहाँ पढ़े अपनी प्रतिभा से पुनः देश बनाओ  



साहित्य

साहित्य
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कविता सृजनशीलता ,कल्पनाशीलता और विचारशीलता की परिचायक है .
जब हम सिर्फ धन अपेक्षा से इसे देखते हैं तब ही शायद यह व्यर्थ लग सकती है ..
साहित्य लेखन और अच्छा साहित्य पठन अंगीकार किया जाए तो वह
दिग्भ्रमित समाज (वर्तमान ) को भी सही दिशा में अग्रसर कर सकता है ...
वास्तव में जो अच्छे  साहित्य के माध्यम से दिया और ग्रहण किया जाता है .
वह प्रधानतः ह्रदय से ग्रहण किया जाता है
वह ज्ञान बढ़ाने इसलिए उन्नति में सहायक होता है ...

जबकि वीडियो और दृश्य जिनमें आज अधिकतर जो दिखलाया जा रहा है .
वह प्रधानतः नेत्र  से ग्रहण किया जाता है और भोग इन्द्रियों को पुष्ट  करता है .
और उपभोग प्रवृत्ति बढ़ा कर स्वास्थ्य और नैतिकता को क्षति का कारण बन रहा है.

--राजेश जैन 
22-06-2013

Friday, June 21, 2013

मूर्खता

मूर्खता 
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समझदार व्यक्ति जीवन में मूर्खताएं नहीं करते या कम करते हैं .
पर कुछ मूर्खताएं कर लेते हैं . कुछ मूर्खताएं करने से  बच जाते हैं इसलिए नहीं कि वे समझदार हैं बल्कि इसलिए के वे मूर्खताएं वे करना चाहते रहे हैं. लेकिन परिस्थिति या दूसरे की सावधानी से वे नहीं कर पाते .
कम समझदार कुछ अधिक मूर्खताएं कर लेते हैं .

अतः मूर्खताएं होना बहुत बड़ा पाप नहीं है . उससे अवसरों पर शर्मिंदा हो लेना चाहिए . और जीवन के बाद के समय कभी कभी स्मरण आने पर स्वयं पर हँस भी लेना चाहिए . लेकिन उनसे बहुत अवसाद की स्थिति में नहीं जाना चाहिए . क्योंकि मूर्खताएं सिर्फ हमसे ही नहीं सबसे हो जाती हैं . मूर्खताओं से उत्पन्न विषम स्थिति से जल्द से जल्द उबर जाने का प्रयास हमें करना चाहिए . और उससे सबक अवश्य लेना चाहिए ताकि स्वयं और दूसरों को अपनी मूर्खताओं से विषम स्थिति में डालने के अवसर कम से कम आयें ...


Thursday, June 20, 2013

बच्चों की प्रतिभा उपलब्ध समय और हमारे दायित्व -3

बच्चों की प्रतिभा उपलब्ध समय और हमारे दायित्व -3
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कल के लेख के अंत में  बात शोषण की घटनाओं से आंदोलित होने पर आई थी . दिसम्बर -12 में दिल्ली में और बाद में देश में अन्य स्थानों पर युवतियों और मासूम अबोध बच्चियों पर शोषण की घटनायें जिनमें पीड़िताओं को प्राण तक गँवाने पड़े की चर्चा पूरे देश में हुईं . संस्कारी और सज्जन पुरुष देश के ही दानव बने पुरुषों जिन्होंने वासना में अंधे होकर ये अपराध और अत्याचार किये को देख अत्यंत शर्मिंदा हुए . अत्याचारों के क्रम के ना थमने से आंदोलित हुए .

देश भर में विरोध प्रदर्शन में महिलायें, कॉलेज जाती बेटियों और युवा और प्रबुध्द पुरुषों ने करोड़ों की संख्या में भाग लिया .
नारी पर अपराध के विरोध में  इतनी जागरूकता अच्छा संकेत है . तब भी एक बात लिखना आवश्यक है .

" दूसरों की जिन बुराइयों के विरोध में हम आंदोलित थे और प्रदर्शन कर रहे थे . उसी तरह की स्वयं की बुराई का हम विरोध नहीं कर सके हैं " .  

यदि करते तो समाज से बुराई कम हो जाती . क्योंकि आन्दोलन रत नागरिकों की संख्या यदि एक करोड़ भी थी तो बहुत थी जो देश और समाज को बदल सकती थी यदि वह विरोध सच्चा होता . लेकिन अगर वह सिर्फ दिखावे तक सीमित है तो उससे कोई दूसरा बुरा सुधर जाएगा ऐसी अपेक्षा हमें निराश करेगी . अगर अपने में बुराई विरोध से सुधार में हम असफल हैं तो वही कठिनाई दूसरे को भी होगी जिससे वह अपनी खराबी मिटा नहीं पाता है .

नारी पर बहुत तरह के अत्याचार और शोषण देश और समाज में जारी हैं . वह घर से बाहर असुरक्षित है. वैसे बहन-बेटी और माँ तो हमारे देश और समाज में पूज्या मानी जाती है पर  घर से बाहर आज जिस दृष्टि से उसे देखा जा रहा है वह कहीं इस सम्मानीय मान्यताओं से मेल नहीं खाता .

मान्यता और कर्म -आचरण में दृष्टव्य विपरीतता के कारणों के जड़ में जाना होगा . मुझे लगता है आज के आधुनिक माध्यमों पर इस तरह की सामग्रियों की अधिकता है जो हमारी दृष्टि और नीयत बिगाड़ती है . ऐसे लोग इन माध्यमों पर सम्मानीय और सफल के तौर पर दिखाये जा रहे हैं . जिनके कर्म और आचरण समाज मर्यादा के अनुसार नहीं हैं . इनका सम्मान और सफल दिखाया जाना हमें दिग्भ्रमित कर देता है . वर्षों से माँ-पिता हमें अपने त्याग से जो संस्कार दे पाते हैं वे इनके प्रभाव में नष्ट हो जाते हैं .

छद्म लोग नायक (Hero ) जैसे ना दिखाये जायें यह व्यवस्था लानी होगी . बुराई समाप्त या कम करने के प्रति हम यदि गंभीर हैं तो यह बात भली प्रकार समझनी होगी कि बुराई के वाहक को हम हीरो जैसे देखेंगे तो बुराई पुष्ट होगी ना कि कम .

अब विचारने की बारी हम सब की है . कौन हैं वे जिनका व्यक्तित्व बना तो बुराइयों की अधिकता से है पर देश के जन मानस पर हीरो बतौर छाया है ...

बच्चों की प्रतिभा, उनका  उपलब्ध समय व्यर्थ ना जाये, वे दिग्भ्रमित ना हों इस हेतु यह हमारा  दायित्व है . ये बात दृढ़ता से देश के तथाकथित नायकों (हीरो)  को बतानी होगी ताकि वे भी मर्यादा में आयें . और अपने प्रभावों को पूरी वर्तमान पीढ़ी को मिस -गाइड (पथ भ्रमित ) करने में ना लगायें . इस देश से मिले मान के बदले में देश और समाज से बुराई मिटाने के लिए अपने दायित्वों को समझें और उसे निभाएं ...

--राजेश जैन 
21-06-2013

Wednesday, June 19, 2013

बच्चों की प्रतिभा उपलब्ध समय और हमारे दायित्व -2

बच्चों की प्रतिभा उपलब्ध समय और हमारे दायित्व -2
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कल का लेख एक बेटी के आर्थिक अभाव से उदास मुख से जागृत अंतर्वेदना से प्रेरित था . उसे ही विस्तार दे रहा हूँ   जीवन में अभाव कई बार तन-मन दुखाते हैं . लेकिन यह भी सच है जिनको आर्थिक सम्पन्नता है उनके भी  तन-मन दुखते हैं . इसलिए धनाभाव से मन में ज्यादा दुःख पालना या किसी तरह हीनता लाना उचित नहीं है . बल्कि किसी भी ऐसे दुखी से यह प्रार्थना है कि वे इसकी (अपनी इस तरह की कमियों की) चर्चा सार्वजनिक स्थानों या कम परिचितों में करें . आसपास ऐसे अनेकों चालाक हैं जो हमारी इस मनःस्थिति को अपने स्वार्थ हेतु उपयोग करने लगें . और बहला कर ,प्रभाव में लेकर हमारा शोषण (exploitation) और गलत उपयोग कठपुतली (puppet) जैसा करें .जिसमें हमारा भला तो सिर्फ आभासित होगा . अप्रत्यक्ष उनका हित इसमें छुपा होगा .
विशेषकर युवतियों और स्कूल ,कॉलेज और व्यवसायरत बेटियों को इसमें ज्यादा सतर्क रहना चाहिए . अनेकों दैहिक शोषण के प्रकरण अपने आर्थिक अभावों की हीनता बोध और उसकी चर्चा के दुष्परिणाम स्वरूप होते हैं . जिनमें चतुराई से अय्याश तबियत के लोग उन्हें (शोषित नारी को) इस हालत में ला  छोड़ते हैं जहाँ उनका जीवन एक अभिशाप सा हो जाता है .
बेटियां विशेषकर सावधानी रखें. वे अपने परिवार के अलावा किसी से कोई उपहार ग्रहण ना करें . हमारे वस्त्र ,हमारे मोबाइल , आभूषण भले ही सस्ते हों, पुराने हों हम भले ही सुगन्धित तरल (perfume) प्रयोग ना कर पाते हों ,अपना आत्मविश्वास बनायें रखें .अगर ऐसे वस्तु प्रयोग की हमारी आकांक्षा है . तो अपनी योग्यता बढ़ाने और सही स्त्रोतों से अपने धन अर्जन के लिए श्रम करें .

हो सकता है हमारे कठिन श्रम के बाद भी हमें जीवन में वह ना हासिल हो जो हमारा जीवन स्वपन्न हो . लेकिन हमारा स्वाभिमान ,सच्चा सम्मान और चरित्र तब भी बना रहेगा .

किसी भी शार्ट कट ( गलत रास्ता) जहाँ पहुँचा सकता है . वह जो भी दिलाता आभासित होता हो वह वास्तव में पाना नहीं खोना होता है .
उससे हम स्वयं तो अपना स्वाभिमान और सम्मान खोते ही हैं . सामाजिक आदर्शों का स्तर गिरता जाता है . यही वर्तमान की देश और समाज की बुराइयों का कारण है . जिसमें व्यथित हो हम आंदोलित हो रहे हैं और जीवन आनंद का अभाव देखने को विवश हैं ...

(अगर मित्रों ने उत्साह-वर्ध्दन किया तो आगे इसी चर्चा को विस्तार दूंगा ) 

    

Tuesday, June 18, 2013

बच्चों की प्रतिभा उपलब्ध समय और हमारे दायित्व

बच्चों की  प्रतिभा उपलब्ध समय और हमारे दायित्व 
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भ्रमण में आज पीछे 3-4 किशोरियों का ग्रुप था जिनके वार्तालाप कुछ मुझे भी सुनाई आ रहा था . जिस अंश ने लेख को प्रेरित किया वह उल्लेख कर रहा हूँ .
एक .. तू छुट्टियों में कौनसी क्लास (कोर्स) कर रही है .
दूसरी .. कहीं नहीं जा रही हूँ .
एक ... मै तो क्लासिकल नृत्य क्लास जा रही हूँ . तू भी चल ...
दूसरी .. नहीं , पापा टीचर हैं ना ,  फीस देना कठिन है ...
यह सुनने के बाद  मै अपने को रोक नहीं पाया मैंने पीछे पलट के देखा .
पीछे एक 19 -20 वर्षीय बेटी थी ... आँखे कुछ तरल सी थी और मुख उदास ...
सुबह ही मेरा मन व्यथित हो गया ...

कैसी समाज व्यवस्था हो गई .एक टीचर होना दुर्भाग्य सा लगने लगा .  

कॉलेज/स्कूल में पढाई का स्तर नहीं रहा . छुट्टियों में कोई कोचिंग /क्लास बच्चे करना चाहें तो शुल्क बहुत महँगे .जो आम व्यक्ति के व्यय क्षमता से बाहर . बच्चों का पास प्रतिभा है ,समय है .शुल्क दे नहीं सकते घर में फालतू हैं . प्रतिभा और समय की बर्बादी है . आगे जीवन संघर्षों से दो चार होना होगा .कुंठा और अवसाद आएगा . देश के युवा की प्रतिभा कुंठा ग्रस्त होगी .कर गुजरने के समय को व्यर्थ गवाएंगे  .

तो कैसे राष्ट्र उन्नत होगा .कैसे समाज सुखी होगा . मनुष्य जीवन अवसादों की भेंट चढ़ना जारी रहेगा .
जिन्हें सहजता ,अनुकूलताएँ मिलीं .जिन्होंने इतने गुण हासिल कर लिए ,इतने योग्य हुए जिससे वे दूसरों को कुछ सिखाने की स्थिति में पहुंचे .कुछ तरह की जीवन सहायता दूसरों को देने की स्थिति में पहुँच गए . क्या वे राष्ट्र और समाज हित के लिए ,अपने राष्ट्र और समाज की उन्नति के लिए अपने शुल्क कम करने पर विचार करेंगे .
ताकि शुल्क अधिसंख्य की व्यय क्षमता में हो सके .देश के युवा अपनी प्रतिभा और उपलब्ध समय का यथा प्रयोग कर सकें .
जीवन संघर्ष कम होंगे तो सृजन बढ़ सकेगा . राष्ट्र उन्नति कर सकेगा . समाज ज्यादा सुखी हो सकेगा ..

--राजेश जैन 

Monday, June 17, 2013

समाज की ड्राइविंग सीट

 समाज की ड्राइविंग सीट
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वास्तव में अपने बच्चों को facebook बहुत समय देता देख मैंने ज्वाइन किया था . फिर नेट और फेसबुक पर ख़राब पोस्ट और बातों की बाहुलता देखी तब  इसे निष्प्रभावी करने के लक्ष्य से अपनी ओर से कुछ अच्छा नियमित पोस्ट का संकल्प किया . इन पर लाइक या कमेंट्स का अभाव रहा .इससे लिखने के प्रति उदासीनता उत्पन्न हो सकती थी लेकिन विचार उपरान्त उसे मन में से निकाल दिया . अन्यथा जो थोडा अच्छा हमारी दृष्टी से fb पर गुजरता है वह भी नहीं बचेगा . विचार कीजिये फेसबुक पर हमारे और समाज के बच्चे बहुत समय व्यय करते हैं . उन्हें कभी कभार हम जो उपलब्ध कराते हैं उससे भी वे वंचित रहेंगें तो सद्प्रेरणा के स्तोत्र उन्हें और कम हो जायेंगे . अतः निज अपेक्षा शून्य रखते हुए अपना अच्छा योगदान मानवता और समाज हित में जारी रखना औचित्य पूर्ण है .

हम समझने के लिए रक्त और पसीना पर गौर करें . दोनों ही जीवित शरीर में आवश्यक हैं 
रक्त को सद्कर्म जैसा देखें . (रक्त गहन है जब तक चोट या  ना हो अन्दर निरंतर रहता है )
पसीने को उपभोग कर्म मानें . (पसीना हल्का होता है शरीर रोमछिद्र से इसे श्रम की स्थिति में बाहर करता है )

जिस शरीर में रक्त का संचार विद्यमान है . पसीना उसमें आता है .
सद्कर्म हमारे समाज रुपी शरीर में संचारित होते हुए समाज को जीवित रखते हैं . जबकि उपभोग कर्म पसीने के रूप में समाज की सतह पर आ हवा से स्वतः सूख जाते हैं .

फेसबुक भी एक वर्चुअल समाज है . जिसमें साहित्यकार , विचारक और वरिष्ठ अनुभवियों की पोस्ट सद्कर्म भांति प्रेरणा के लिए मिलती है . हमारे युवा जिनके समक्ष आगे पूरा जीवन है आँखों में सुविधा ,मजे के अनेकों स्वप्न तैर रहे हैं . वे मीडिया पर बहुतायात में उपलब्ध हल्की बातों को  मानव जीवन का यथार्थ मान रहे हैं .फेसबुक पर इस तरह की सामग्री में ही रूचि भी लेते हैं और अपनी ओर से इसमें और योगदान भी देते हैं . यह सब सहज है .

फिर इन बातों का अतिरेक सुखी समाज काया में रोग उत्पन्न कर सकता है . रक्त की कमी ना हो अतः हममें से जिन किसी के पास भी गहन विचार और प्रेरणा है फेसबुक पर शेयर करना जारी रखें . 
आधुनिकता बहुत तेजी से आई है  मानवता और समाज हितकारी दिशा में आधुनिकता को मोड़ना बुध्दिजीवियों का दायित्व है .अतः ड्राइविंग सीट पर हमें आकर बैठना और जमे रहना है .
अगर हमारे लक्ष्य निस्वार्थ के हैं तो युवाओं को किसी ना किसी दिन ये आकर्षित करेंगे .और वो जब हमारे अवस्था में आयेंगे तो यह रोल ग्रहण कर सकेंगे ...


Sunday, June 16, 2013

HOW MECHANISM OF INSPIRATION WORKS

HOW MECHANISM OF INSPIRATION WORKS
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सद्प्रेरणा क्यों दर्शित होनी चाहिए ?
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रक्तदान दिवस था . रक्तदान मैंने भी किया . उपस्थितों और मित्रों ने धन्यवाद किया . मैंने इस सब पर विचार किया . मुझे लगा हमें आभार उन सद्प्रेरणाओं  का मानना चाहिए .जिनसे हम अपने समाज के लिए कुछ अच्छे कर्मों को अपने जीवन में कर पाते हैं . हमारे इस तरह के सद्कर्म जब निरंतर चलते हैं तो फिर हम भी प्रत्यक्ष देखने वालों के लिए सद-प्रेरणाओं के स्त्रोत बन सकते हैं .
आज जो आधुनिक माध्यमों पर अधिकता में दिखाया जा रहा है उनसे समाज विशेषकर युवा प्रेरणाएं भोगलिप्सा की ग्रहण कर रहे हैं . त्याग की प्रेरणा लेने के लिए उन्हें उदाहरण कम दिखाए जा रहे हैं .ऐसा नहीं है कि अभी हममें त्याग की भावनाएं ना बची हों .त्याग करने वाले व्यक्ति अभी भी अनेकों हैं . लेकिन उपभोगवाद की चकाचौंध में इन्हें अनदेखा कर दिया गया है . जिससे समाज स्वार्थी सदस्यों की अधिसंख्या का होता जा रहा है .
त्याग करता कोई दृश्य जब हमारे समक्ष उपस्थित होता है तो हमें सुहावना लगता है . जबकि भोग -पूर्ती के अतिरेक के दृश्य एक तरह की वितृष्णा मन में उत्पन्न करते हैं . यह सब अनुभव करते हुए भी हम त्याग के उदाहरण के रूप में कम ही आ रहे हैं .

अधिसंख्य यदि स्वार्थ-पूर्ती में लगेंगे तो समाज बुराइयों से पटेगा . जो अंततः हमारा ही मन दुखाता है . अतः हमें दुःख के कारण आसपास जो दिखते हैं सच रूप में पहचानने चाहिए .उनके सही समाधान के लिए ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए .
अपने उपभोग और त्याग के कर्मों के मध्य उचित संतुलन बनाना चाहिए .
स्मरण कर स्वयं अच्छे कार्य के दृश्य रूप में अपनी नई पीढ़ी के समक्ष उपस्थित होते हुए सद्प्रेरणा के स्त्रोत बनना चाहिए ताकि हमारा समाज एक खुशहाल समाज बन सके .
आधुनिक माध्यम (टीवी ,नेट और अन्य ) साथ ही पत्र -पत्रिकाओं में जो भलाई के उदाहरण और व्यक्ति अब भी उपलब्ध हैं उनके उचित कवेरेज का प्रयत्न करना चाहिए .
"जैसा बोओगे वैसा काटोगे " . इस सिध्दांत को सही रूप में समझना होगा .और आचरण और कर्मों में लाना होगा . 

Saturday, June 15, 2013

भगवान की इक्छा को सही परिप्रेक्ष्य समझना

भगवान की इक्छा को सही परिप्रेक्ष्य समझना
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एक विवाहित युगल की दो सन्तान होती हैं .पुत्र -पुत्री के जन्म से पूरे हुए इस परिवार में खुशियाँ तो समस्त हो जाती हैं . किसी दिन कुछ सिम्टम से ज्ञात होता है बच्चे थिलेसिमिया से ग्रस्त हैं. उन्हें जीवन में नियमित रक्त की आवश्यकता होगी . युगल दुखी होता है .किन्तु बच्चों के प्रति अत्यधिक अनुराग  से विवेकवान पिता को अपने परिवार के दीर्घ जीवन की राह मिलती है . वे पहले स्वयं बच्चों को अपना रक्त देना आरम्भ करते हैं . पूर्ती ना होने पर ब्लड बैंक से उपलब्ध कराते हैं . ब्लड बैंक में माँग नुरूप रक्त उपलब्ध ना होने की कठिनाई अनुभव कर वे अपने व्यवसाय के बीच मिले समय में रक्तदान प्रोमोट (प्रौन्नत) करने पर कार्य करने लगते हैं .
रक्तदान के लाभ ,रक्त माँग और उपलब्धता की जानकारीयाँ एकत्र करते हुए अपने तरीके से जन-सामान्य में प्रसारित और प्रचारित करते हैं . कुछ जागरूक साथियों को साथ ले रक्तदान के शिविर आयोजित करने लगते हैं . धीरे धीरे उनके साथ चिकित्सक ,सामाजिक संगठन से जुड़े व्यक्ति और अन्य बुध्दिजीवी और परोपकारी आ जाते हैं .
कुछ समय बीतता है तो स्वयं उनका रक्तदान का आंकड़ा साठ यूनिट से ज्यादा हो जाता है .
अब रक्तदान के पवित्र कार्य और क्षेत्र में उनका नाम अति सम्मान से लिया जाने लगता है .

उनके द्वारा जीवन के मिल रहे संकेत को सही अर्थ में समझ लेने से रक्त की उनके बच्चों की आवश्यकता तो सरलता से पूरी होने ही लगती है .साथ ही जिन भी दुर्भाग्यशाली जिन्हें थैलेसिमिया या अन्य कारणों से रक्त की आवश्यकता आ पड़ती है उन्हें भी तुलनात्मक कम मुश्किलों से रक्त उपलब्ध हो पाता  है .

वास्तव में असामान्यता चाहे वह हमारे जीवन में कोई कमी रूप में या  अच्छाई की प्रचुरता में हमें मिलती है . उसमे भगवान की कोई इक्छा छुपी होती है लेकिन भगवान में हमारी आस्था होते हुए भी भगवान की इक्छा हमारे से जीवन में क्या करवाने की है इसे सही परिप्रेक्ष्य समझने में हम भूल करते हैं . पर उन्हें कोसने के बजाय यदि सही तरह से समझ हम भगवान की इक्छा अनुरूप कर्म कर सकें . तो भगवान हमें कहीं से कहीं पहुंचाता है .



   

Friday, June 14, 2013

जिंदगी अनुपम सी

जिंदगी अनुपम सी
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जीवन कहानी दर्दनाक सी
जिसे समझते अपनी ही
ये यथार्थ, नहीं सपनों सी
सबके जीवन में होती है

जीवन नहीं सरल यात्रा
उबड़ खाबड़ अनेक, पथ में
समस्त संघर्ष के बाद भी
आ जाती मुस्कान मुख पे

इसमें माने दुखी अपने को
तो नहीं कोई दुखी हमसा
मानने की बात है भैय्या
माने तो नहीं सुखी 
हम जैसा

सुबह शाम तो नित होगी
हँसे या हम रो लेवें
नहीं मिला उसे ना देखें
मिले का सुख अनुभव कर 
लेवें  

लगेगी जिंदगी अनुपम सी
जीवन कथा निराली ऐसी

--राजेश जैन 

गरिमामय संचारित रक्त



गरिमामय संचारित रक्त


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पावन रक्तदान भाव लिए अपने मन में
परहित कर्म भुलाता चुभन वेदना तन में
साहसी एकत्रित होकर आज जगा रहे हैं
प्रेरणा रक्तदान कर्म की सबके मन में

ह्रदय विराजित पुण्य भाव ऐसे जिनमें
संचारित रक्त गरिमामय रहता तन में
दिया जायेगा ये रक्त जिस पीड़ित को
जीवनदान साथ जागृति लाएगा उनमें

धन्य है आप दानवीरों की उपस्थिति में
'दिशा वेलफेयर' का यहाँ आयोजन
आपके रक्त से जीवन जिनका कायम
करते आपका करबध्द हार्दिक अभिनन्दन

दिशा वेलफेयर एसोसिएशन समिति
करती रही है ऐसे आयोजन नगर में
जब तक क्षमता रक्त देने की दानवीरों
परहित कर्म यह रखें निरंतर जीवन में

समय, रक्त बेशकीमती दिया आपने
दानवीरों , नहीं निरर्थक वह जाएगा
जीवन तो देगा ही रक्त जरुरत मंदों को
जीवित रखेगा परोपकार भी समाज में

Thursday, June 13, 2013

भय मुक्त जीवन

भय मुक्त जीवन 
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पूरा जीवन भयभीत रहकर जीना होता है . भयमुक्त जीवन जीने की कला मुश्किल से ही आती है  . 

भयमुक्त रहने के उपाय धर्मशास्त्रों और विद्वानों द्वारा बताये भी जाते हैं . उनसे सहमत होते हुए भी हम निर्भय जीवन यापन नहीं कर पाते हैं .

यह स्पष्ट ही है भय से मुक्त जीवन तो नहीं हो सकता है . किन्तु कम भय के साथ जीवन जिया जा सकता है .

जीवन में अच्छाई के पथ ना छूट जाये यह  भय तो सभी को जीवन में स्वतः ही पालना चाहिए . इसलिए बिलकुल निर्भयता में यह अपवाद तो सभी के साथ अच्छा ही है .

अपने क्षमता और नियंत्रण अनुरूप शेष  भय से अपने बचाव के उपाय और योजनाओं पर आधारित कर जीवन मार्ग तय करना चाहिए . हम न्यायपूर्ण ढंग से जो कर सकते हैं , उतना करते हुए या कर लेने के बाद भय दूर रखते हुए नित दिन जीवन आनंद उठाना चाहिए . 

कितनी भी अच्छी स्थिति ,उपाय और योजनाबध्द रहते हुए भी अनेकों बार भय मस्तिष्क पर हावी होंगे उन्हें सकरात्मक (पॉजिटिव थिंकिंग ) सोच से दूर करते रहना चाहिए . एक चर्चा से इसे हम समझने की कोशिश करते हैं . जो विभागीय चिंताजनक हालात में एक बॉस और उनके मातहत कर्मी के बीच हो रहा है ...

बॉस .. यार, रिटायरमेंट के बाद पेंशन ना मिली तो क्या होगा .
कर्मी ... सर, अभी से कम व्यय करने की आदत डाल लेना उचित होगा .कुछ धन भी बचेगा . आगे भी कम व्यय में जीवनयापन करना सरल होगा .
बॉस ... यह तो संत जैसे उपदेश हैं ..
कर्मी .. (मुस्कुराते हुए ) सर ,मै आपको आगे चोरी कर धन व्यवस्था की सलाह तो नहीं दूंगा .
बॉस ... क्या कोई दूसरी सर्विस हमें नहीं मिलेगी ?
कर्मी ... हम जितने योग्य हैं. हमें सरलता से नौकरी ऑफर मिल सकते हैं . पर पूरे जीवन क्या हम नौकर ही रहना चाहेंगे  ,क्या  अपनी मर्जी के मालिक कभी नहीं बनेंगे . मै तो इस नौकरी के बाद कोई और नौकरी नहीं करना चाहूँगा .
बॉस ...  जो घर के लिए उधार लिया है उस लोन की मेरी किश्तें   फिर कैसे पटेंगी ?
कर्मी ... अन्य रिटायरमेंट बेनिफिट (gpf ,ग्रेचुटी आदि ) से कुछ तो मिलेगा .उससे पूरी कर लीजियेगा .
बॉस चुप हैं  (सोचपूर्ण मुद्रा में )..
कर्मी ... फिर प्रॉपर्टी से भी तो लाभ ही होगा ..
बॉस ... (चिंता से ).. क्या पता .. आगे होगा या नहीं ?
कर्मी ... सर अगर हमारे सभी उपाय और प्रोटेक्शन असफल होते हैं .. तो हमें यह समझना होगा कि भगवान (जिसके जो इष्ट हैं ) ही हमें कष्ट में रखना चाहते हैं . 

इस चर्चा के उल्लेख से यह निष्कर्ष  आता है . हमें उपाय ,योजना तो निरंतर रखनी चाहिए और भयमुक्त रहना चाहिए . फिर भी यदि जीवन कष्ट उठाने होते हैं तो उसे भगवान की इक्छा माननी चाहिए . इस इक्छा के अधीन अनेकों दुःख और कष्ट झेलते हमारे आसपास होते हैं . अगर भगवान इक्छा ही ऐसी है तो इसमें भय मानने से कोई लाभ नहीं है ... 
अच्छा जीवन मार्ग रखें और भयमुक्त जीवन की हम सभी कोशिश करें ...

Tuesday, June 11, 2013

प्रभावी शब्द

प्रभावी शब्द
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आसपास की बहुत सी बात बुरी दिखती हैं तो प्रतिक्रिया में बुरे ही बोल मुख पर आते हैं .
जब बुरा और कड़ुवा बोलने का मन हो तो बोलने के स्थान पर चुप रहकर सोचना होता है .
हममें स्वयं भी कुछ बातें वे होती हैं जो दूसरों को बुरी लगती हैं .
और ऐसे में दूसरा चुप रहने की जगह प्रतिक्रिया में ख़राब बोलता है .तब हमारी स्थिति क्या होती है ?
बुरे(हमारी बुराई ) से बुरी प्रतिक्रिया(दूसरों की)  आती है फिर सम्बन्ध बुरे हो जाते हैं .
और सम्बन्ध बुरे हुए तो सभी के विकास अवरूध्द होते हैं .
(जिनसे सम्बन्ध बुरे होते हैं एक दूसरे के मार्ग में अड़ंगा डालने की प्रवृत्ति होती है )
ऐसे में बुध्दिमानी यह होगी की सब से पहले अपनी बुराइयों को पहचान उसे कम करें .
और व्यर्थ बुरी प्रतिक्रिया देने के स्थान पर तब तक चुप रहना सीखें . 
जब तक आसपास की बुराई को ज्यादा बुरा बनाने के स्थान पर 
उसे कम करने वाले प्रभावी शब्द हमें लिखना/कहना ना आ जावें .

यह कला और व्यवहार अपनेपन का होता है . समाज को अपना मान कर हम व्यवहार करें तो 
मानवता पुष्ट और समाज का हित होता है . 
इसमें हमारे साथ सभी का हित निहित होता है ...

Sunday, June 9, 2013

नारी सहयोग का दिखता सिस्टम अभी दोषपूर्ण

नारी सहयोग का दिखता सिस्टम अभी दोषपूर्ण 
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भारतीय नारी ,समाज और परिवार का आधार स्तम्भ रही है . यह अपना गुण चिरकाल  से नारी ने सिध्द किया है . पिछली सदी से जब उन परिस्थितियों में जबकि उसे यथोचित सम्मान का अभाव देखना पड़ता था से निबटने के लिए माँ-पिता के सहयोग और आशीर्वाद से उसने स्वावलंबी बनने की दिशा में प्रयास आरम्भ किये . वह यह भी सफलता से सिध्द कर रही है कि वह पढ़ने ,धन-अर्जन और समाज को इस तरह के पात्र रूप में भी सही आधार दे सकती है .

दूरदर्शन पर इस तरह के कार्यक्रम मै कम देखता हूँ पर पिछले दो दिनों मैंने सुपर -माम कार्यक्रम देखा इसमें देश के विभिन्न हिस्सों से विवाहिताएं और बच्चों की माताओं ने अपने नृत्य के माध्यम से स्वयं को सिध्द करने की उत्कंठा प्रदर्शित की . मै थोडा अलग विचार रखता हूँ .किन्तु उनकी स्वयं को सिध्द करने की उत्कंठा का प्रदर्शन देख मुझे भी उनकी प्रशंसा के भाव आये .

ऐसा समाज जिसमे नारी किसी भी परिस्थिति में अपने सम्मान ,जीवन ,अपनी संतान और परिवार की रक्षा में सक्षम बने मेरा महत्वाकांक्षी स्वप्न है . और इस तरह जब नारी कुछ कर दिखाना चाहती है तब मुझ में अपने तरफ से सहयोग की भावना भी प्रबल होती है .

इसी भावना के कारण में नारी को एक सलाह अवश्य फिर देना चाहता हूँ ...
जब आप दूरदर्शन या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कदम बढाती हैं तो सतर्कता अवश्य रखें .फिल्म ,दूरदर्शन और मॉडलिंग की दुनिया में सफलता के कुछ उदाहरण हम सभी देखते हैं . जिस से प्रभावित हो युवतियां जब इनमे स्वयं कुछ बनने और करने मुंबई और ऐसे ही स्थानों पर पहुँचती हैं तो वहां बहुत ही नारी शोषण के तत्व सक्रिय मिलते हैं .जो तरह -तरह के प्रलोभनों के साथ कई रूप में छुपे या खुले घूमते हैं . जिनका एकमात्र उद्देश्य नारी देह से खेलना और ऐसे ही दूसरों को इस रूप में नारी को उपलब्ध करा उनका कृपा पात्र बनना होता है . ऐसी शोषित और असफल नारी के किस्से सफल से हजारों गुना तक ज्यादा होते हुए चर्चित बहुत कम होते हैं . यह भी एक नारी विवशता है . जो शोषण के बाद भी चुप रहने को बाध्य करती है  .

नारी को यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए की कुछ पाने की उत्सुकता और उत्कंठा उसे घर से बाहर लेकर आई है सर्वस्व खोने के लिए नहीं .
ऐसे में इस प्रकार शोषण का जहाँ भी कुछ आभास मिलता है वह शोषक चाहे ही उसका फेवरेट ही क्यों ना रहा हो उसका भरपूर प्रतिरोध करे . इस तरह से वह स्वयं अपना बचाव तो वह करेगी ही . ऐसे देह-भूखों के हौसले पस्त कर आने वाली अन्य लड़कियों और युवतियों का भी बचाव कर सकेगी ..

नारी को सहयोग का दिखता सिस्टम अभी कितना दोष पूर्ण है इस बात से साबित होता है कि लड़कियों के छात्रावास में छिपे कैमरे तक के समाचार हमें देखने मिलते हैं .
दुनिया आधुनिक हुई है तो नारी को छलने के ढंग भी आधुनिक हुए हैं .

आप नारी हैं तो मेरी शुभकामनायें बढ़ें आप उन्नति पथ पर लेकिन सतर्कता साहस और सम्पूर्ण भारतीय नारी गरिमा का साथ लेकर ...

--राजेश जैन     

नितांत अकेला

नितांत अकेला 
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पूरे जीवन अच्छे सभी मिले परिजन ,मित्र ,साथी व्यवसायी और यहाँ तक अपरिचित जिसमें कुछ से परिचय बढ़ा और कुछ अपरिचित ही रह गए लेकिन सभी अच्छे स्मरण ही देकर गए . धन -वैभव और मान- प्रतिष्ठा भी अच्छी मिली . जीवन यों बीता जैसा सपना बचपन से जीवन के लिए देखा करता था . सरलता से ही मौत भी आई .
तीन पंक्तियों के इस विवरण को पढ़कर  हम इसे भाग्यशाली मनुष्य कहेंगे . पर मुझे यह कुछ दुर्भाग्यशाली भी लगता है .

एक अन्य विवरण इस प्रकार है ... जीवन में करीबियों की बहुत सहायता की . कभी कुछ उनसे अपने लिए भी लिया . ठीक ठीक जीवन चलता रहा . कुछ अवसर आये जब कभी परिवार जन को तो कभी मित्रों और साथियों को लगा . यह हमें कोई लाभ का नहीं रह गया इसका साथ लेना-देना सिर्फ हानि का कारण है . ऐसे सभी अवसरों पर प्रिय और इष्ट दिखने लगने वाले किसी ना किसी बहाने दूर रहे उससे . तब तब जीवन में उसने स्वयं को नितांत अकेला होना अनुभव किया .
दूसरे विवरण से हम इसे दुर्भाग्यशाली कह सकते हैं . लेकिन मुझे यह भाग्यशाली लगता है . 

इसने प्राणी जीवन स्वरूप के नितांत अकेले होने की सच्चाई अवसरों पर अनुभव की . जबकि पहले विवरण का कथित भाग्यशाली पूरे जीवन भ्रम में ही रह चला गया . वह जीवन स्वरूप की समझ असत्य ही अनुभव कर सका . क्योंकि उसे अनुभव ही नहीं मिला किस तरह कठिन और विपरीत समय आने पर अपने से लगने वालों का दिखाने वाला श्रृंगार उतर जाता है . तब अपने जीवन की कठिनाई नितांत अकेले जूझते ही दूर करनी होती है .

दूसरे विवरण से जूझने वाला भाग्यशाली इसलिए भी लगता है . क्योंकि उसके समक्ष मनुष्य जीवन यथार्थ रूप में आया . कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल समय आते रहे . नितांत अकेले होने की सच्चाई अनुभव करने के बाद , उसने जीवन इस प्रकार आगे बढ़ाया जिसमें निरपेक्ष ही सद्कर्मों की आदत बनी . और इसलिए दूसरों के स्वार्थपूर्ण व्यवहार अनुभव भी किया तो निराशा नहीं हुई .
नितांत अकेले मनुष्य जीवन स्वरूप की समझ से जीवन अवसाद से वह विचलित होने से बचा .

आप किसे भाग्यशाली और किसे अभाग्यशाली कहेंगे ?
स्वयं आप किस तरह का भाग्यशाली बनना पसंद करेंगे ?