Wednesday, September 30, 2020

पर हैं उड़ने के लिए फिर भी

अकारण नहीं हैं चिंतायें मेरी

कि भलमनसाहत के पर कतर, अब ये दुनिया

निर्लज्जता से स्वयं को श्रेष्ठ बताया करती है 


 

Monday, September 28, 2020

मेरे पापा (6) ..

 मेरे पापा (6) .. 

लौट कर सुशांत ने, मुझे घर के बाहर ही नहीं छोड़ा था। अपितु वे, माँ से मिलने घर में भीतर आये, फिर चरण छूकर आशीर्वाद लेकर लौटे थे। 

माँ और मैं, दोनों ही आज बहुत खुश थे। बार बार सुशांत की चर्चा छेड़ बैठते थे। ऐसे में रात को सारिका ऑन्टी का, कॉल आया था। मैंने, कॉल स्पीकर पर कर दिया था। 

माँ से उन्होंने कहा - सुशांत का अवकाश, 8 दिनों में खत्म हो रहा है। अगर आप सहमत हों तो 3-4 दिनों में, सुशांत के रमणीक से विवाह की तिथि तय करते हुए इन्हें परिणय सूत्र में बाँधने की रस्म कर दी जाए। 

माँ ने कहा - भाभी जी, यह तो बहुत जल्दबाजी होगी। 

ऑन्टी ने कहा - कोविड19 का समय है। 20 लोगों में ही विवाह होना है। इसे देखते हुए 4 दिन, तैयारी के लिए बहुत होंगे। अन्यथा विवाह, सुशांत के अगले अवकाश तक टालना होगा। सीमाओं पर जैसे हालात चल रहे हैं, उसमें कह नहीं सकते कि आगे सुशांत को अवकाश कब मिल पाता है। 

माँ ने कहा - मैंने बड़ी बेटी एवं दामाद जी को, अब तक कुछ बताया नहीं है। उनसे बात कर, मैं कल शाम तक, आपको अवगत कराती हूँ। 

ऑन्टी ने कहा - ठीक है, भाभी जी, शुभ रात्रि। 

माँ के भी, शुभ रात्रि कहने के बाद, फिर उन्होंने कॉल डिसकनेक्ट कर दिया था। 

माँ ने अब, जीजू को मोबाइल पर कॉल किया था। मैं, उठकर अपने कमरे में चली गई थी। कोई 10 मिनट बाद, माँ ने आकर बताया कि तुम्हारे जीजू ने कहा है - ये बातें, फोन पर तय करने वाली नहीं हैं। कल सुबह चर्चा हेतु वे, यहीं आ रहे हैं। 

फिर सुबह जीजू ने आते ही कुहराम मचाया था। माँ से गुस्से में कहा - आपने, मुझे बिलकुल पराया कर दिया, बात विवाह तक आ गई और हमें पता ही नहीं। 

माँ ने निरीह दृष्टि से मुझे देखा था। कहा, कुछ नहीं था। 

जीजू फिर कहने लगे - लड़के के जो विवरण आपने दिए हैं उससे मुझे, दाल में कुछ काला लगता है कि कोई इतना योग्य लड़का, सब लड़की छोड़ निक्की पर इस कदर क्यों मर रहा है। जबकि स्वयं निकी, औसत लड़की और हमारा घर भी साधारण ही है । (फिर निष्कर्ष सा निकालते हुए) अक्सर लड़के, उतने अच्छे होते नहीं जितना, स्वयं को दिखाते हैं। 

माँ और मैं, जीजू की बातों से, सहमत न होते हुए चुप ही रहे। 

जीजू ने फिर कहा - जरा पूछिए तो! लड़के से कि निकी में, उसने क्या देख लिया, जिससे इस जल्दबाजी में विवाह को मरा जा रहा है?

जीजू के, चयन किये जा रहे शब्द, अत्यंत कटु थे। 

मैं सोच रही थी कि जीजू, अपने ज्ञान से, ऐसा नहीं कह रहे थे बल्कि, जैसे वे स्वयं थे वैसा ही सुशांत का होना देख रहे थे।  

फिर दीदी ने, मेरे मोबाइल से सुशांत को कॉल मिलाया था। कॉल, स्पीकर पर किया था। सुशांत के - हेलो, कहे जाते ही, दीदी ने बताया था - मैं, रमणीक की दीदी बोल रही हूँ। 

फिर उन्हें बधाई दी थी। सुशांत के हँस कर - धन्यवाद, दिए जाने के बाद दीदी भी, हँसी थी। हँसते हुए उन्होंने कहा -

सुशांत एक बात ऑनेस्टी से बताओ कि रमणीक में वह कौन सी विशेष बात लगी है, जिससे तुमने, उसे पसंद किया है?

सुशांत ने (मनगढ़ंत बात न होने से) देर नहीं लगाई थी, कहा - रमणीक, मेरे पापा में, अपने पापा की छवि देखती है। और लडकियाँ, सुंदर तो ज्यादा होंगी, मगर उनकी, मेरे पापा-मम्मी के लिए, ऐसी दृष्टि शायद नहीं होगी। यह बात, रमणीक में विशेष है।    

इस जबाब से, दीदी निःशब्द हुई थी। फिर भी उन्होंने कहा - बहुत अच्छा कारण है, लड़की को पसंद करने का। 

फिर, शुभ दिन! सुशांत! कहते हुए, दीदी ने कॉल, डिसकनेक्ट करना ही उचित समझा था। 

सुशांत कुशाग्र बुध्दि थे। मैं सोचने लगी, उन्हें, इस कॉल से समझते देर ना लगी होगी कि यहाँ, चल क्या रहा है। 

जीजू, सुशांत की बातें सुनकर खिसिया गए थे, खंबा नोच रहे जैसे होकर उन्होंने कहा - यह तो बॉलीवुड के नायकों की तरह डॉयलाग मार रहा है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा कि इसका चरित्र भी, उन्हीं जैसा ही देखने मिले। 

इससे मैं भी, बॉलीवुड की सोचने लगी थी। जीजू से, संबंध का लिहाज करते हुए प्रकट में, मैं चुप रही, मगर सोच रही थी कि जीजू भी, बॉलीवुड हीरो जैसे बने जा रहे हैं। उनकी पोल, मैं कह दूँ अगर तो, जीजू, या तो अपने बचाव में, मेरे ही चरित्र पर लाँछन लगाने लगेंगे, या विषय भटकाने के प्रयास करने लगेंगे।  

उत्तर माँ ने दिया - नहीं बेटा, सुशांत ही नहीं उनका परिवार भी, कुछ माह से, हमारे संपर्क में है। हमें, इन लोगों की भलमनसाहत पर कोई संदेह नहीं है। 

अपनी चलते नहीं दिखी तो, जीजू ने, बचा रखा तुरुप का पत्ता भी खेल दिया, बोले  - माँ जी, चलो यह आपकी मान लेता हूँ। लेकिन सुशांत आर्मी में है। क्या आप देख नहीं पा रही हैं कि रमणीक भी, आपके जैसे अकेले जीवन को विवश होगी?       

जीजू की बात की, कड़वाहट माँ, दीदी एवं मैं, तीनों ने अनुभव की थी। अब मुझे लग रहा था कि कदाचित इस घर को मिल रहे होनहार दामाद से, उन्हें, अपनी हीनता पसंद नहीं आ रही थी। 

माँ ने दामाद को दिए जाने वाला आदर रखते हुए कड़वा घूँट पी लिया, प्रकट में संयत रह कर कहा था - 

बेटा, यही तो मैं भी कह रही हूँ। रमणीक के पापा तो, आर्मी में नहीं थे। तब भी तो मुझे, अकेले रहने की विवशता मिली। जीवन के क्षणभंगुर स्वरूप से कौन अछूता है? कई फौजी भी, पूरा जीवन सगर्व जीते हैं। हम इसी, आशावाद से यह विवाह करना चाहते हैं। 

जीजू अपना हल्कापन छोड़ ही नहीं पा रहे थे, उत्तर में उन्होंने कहा - जब आप तय कर ही चुकीं हैं तो मैं क्या कहूँ। कीजिये शादी, मैं मेहमान की तरह इसमें, सम्मिलित हो जाऊँगा।

मुझे लग रहा था कि जीजू, जैसे चाह ही नहीं रहे थे कि मेरा विवाह हो। अच्छी बात यह रही कि माँ ने, जीजू के भावनात्मक भयादोहन की उपेक्षा कर दी। उन्हें शायद यह विश्वास था कि जीजू की नाराज़गी, समय के साथ मिट जायेगी। 

मुझे अब सुशांत एवं उनके परिवार का संबल मिल जाने वाला था। अब मैं असहाय नहीं रहने वाली थी। मैं मगर, परिवार में होने की ज़िम्मेदारी समझ रही थी। मैं अवसरवादी भी नहीं थी कि हैसियत का घमंड करते हुए, शीघ्रता में, बिना कुछ सोचे समझे, अपनी मनमानी करने लगूँ। 

आज चाहती तो मैं, जीजू को, सबके समक्ष उनकी बात कह कर उनकी कलई खोल कर, उन्हें घटिया पुरुष साबित कर सकती थी। मुझे दीदी के जीवन के लिए समस्या खड़ी नहीं करनी थी। मैंने स्वयं को कुछ तय करते हुए, चुप ही रख लिया था। 

मैंने तय किया था कि मेरा विवाह हो जाने के बाद, किसी अन्य अवसर पर कभी, जीजू से अकेले में सीधे, उनकी काउंसलिंग करुँगी। ताकी उनके रसियापने को नियंत्रित कर, उन्हें, अन्य किसी नारी से हल्के प्रस्ताव करने से रोक लिया जाए। यही, किसी भी स्त्री, दीदी एवं स्वयं जीजू की भलाई की दृष्टि से उचित था। 

मैंने तय किया कि जीजू की तरह निम्न स्तर पर, मैं नहीं उतरूँगी। अपितु मैं, आदर्श एवं नैतिकता के ऊँचे प्लेटफार्म पर आने को, उन्हें प्रेरित करुँगी। फिर तसल्ली से उनसे स्वस्थ चर्चा करुँगी। 

उस दिन बाद में, जीजू ने सुखद रूप से अपेक्षित समझदारी दिखाई थी। उन्होंने फिर और कोई चुनौती नहीं पेश की थी। 

माँ ने, उसी दिन शाम को सारिका ऑन्टी को कॉल करके, तीन दिन बाद, सुशांत एवं मेरे विवाह हेतु स्वीकृति दे दी। 

फिर निर्धारित किये अनुसार चौथे दिन, गिने चुने मेहमान/रिश्तेदारों की उपस्थिति में, मैं, सुशांत से परिणय सूत्र में बँध गई। 

विदाई पर, रुआँसी मेरी माँ को सांत्वना देते हुए सर (अब से पापा) ने कहा - भाभी जी, आप को रमणीक बिना का, सूनापन पसंद नहीं आएगा। रमणीक है ही, इतनी प्यारी। मेरा आपसे आग्रह है कि आप भी रमणीक के, घर को ही, अपना घर समझें और वहीं आकर रहें। आपको, अकेला एवं उदास देखना, रमणीक ही नहीं, हम सबको भी पसंद नहीं आएगा। 

कोई ने ध्यान दिया था या नहीं मगर मैंने, ‘रमणीक के घर’ कहे जाने पर ध्यान दिया था। ससुराल (वर) पक्ष से अक्सर दंभ में, इसे वधु का घर निरूपित नहीं किया जाता है। पापा, अपनी सरलता में यह सहज ही कह पा रहे थे।    

माँ ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा था - रमणीक को आपके परिवार में सौंपते हुए मुझे गर्व है। मैं, निःसंकोच आपके परिवार और घर को अपना ही समझूँगी। जब भी मन करेगा या ऐसी आवश्यकता होगी, मैं आ जाया करूँगी। 

सुखद रहा कि जीजू ने, सुशांत, पापा एवं मम्मी जी से, गर्मजोशी एवं गरिमामय व्यवहार किया था। इससे, ख़ुशी मुझे इस बात की हुई कि पापा के ना रहने से विषाद में, युवा हुई दीदी एवं मैं, आगे हमारे दोनों के परिवार में, मधुर संबंध होने के सुख को पा सकेंगे।   

ऐसे, मैंने प्रवेश कर लिया, अपने प्रियतम के घर, परिवार एवं जीवन में। सर, अब सर नहीं रहे, मेरे पापा हो गए। शायद ऐसी मैं, इकलौती लड़की ही होऊँगी, जिसने 11 वर्ष बाद अपने खो दिए पापा को, अपने श्वसुर में पुनः पाया था। 

सुशांत को चार दिन बाद वायुसेना की अपनी सेवा पर, पुनः उपस्थिति देनी थी। उन्होंने, चार दिन के हर क्षण में, मुझे हर वह सुख प्रदान करने के प्रयास किये, जिसे कोई पूरे जीवन में पाना चाहता है। 

फिर पाँचवें दिन उन्होंने, सेना मुख्यालय में अपनी उपस्थिति दी। लद्दाख सीमा पर अभूतपूर्व संकट के हालात के मद्देनज़र, उन्हें वहाँ तैनाती के आदेश मिले थे। 

उसी दिन अपराह्न, सुशांत ने, हमसे, वहाँ जाने के लिए विदा ली थी। सभी के आशा के विपरीत मैंने, सुशांत को सगर्व एवं ख़ुशी के साथ विदा किया। 

यह मुझे भलिभाँति ज्ञात था कि जैसा दायित्व सुशांत का, हम सब के प्रति था वैसा ही, दायित्व मातृभूमि की रक्षा का भी, उन पर था। ऐसा साहस मुझ में, होने का एक कारण यह भी था कि मैं पति से तो दूर हो रही थी लेकिन ऐसे समय में मेरे साथ, ‘मेरे पापा’ थे।

अपने पापा के होने, ना होने, दोनों के ही (कटु एवं प्रिय) अर्थ जीवन ने मुझे, अनुभव करवाये थे। मैं, सुशांत के विदा लेने से दुःखी होकर, पापा के होने के महत्व को, भूल जाने की गलती नहीं करना चाहती थी।    

अच्छाइयों में, मम्मी जी भी, इन तीनों में, कोई कम नहीं थीं। मुझे पता नहीं था कि किस के कारण, कौन अच्छा था। 

मम्मी जी के साथ से, पापा 

या 

पापा के संग से, मम्मी जी। 

मुझे ऐसा नहीं लगता था कि मैं, इस परिवार में बहू हूँ। मुझे यही लगता कि मैं, इनकी ही बेटी हूँ। मैं यह भी जानती थी कि सुशांत, स्वयं भी इनके बेटे नहीं थे। 

पापा-मम्मी जी, दोनों ही ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति थे जो, किसी के भी बेटे-बेटी को, अपना बेटे-बेटी जैसा ही देख लेते थे। 

मैंने एक दिन मम्मी जी से प्रशंसा में कहा कि - आप अनुभव नहीं होने देतीं कि मैं बहू हूँ। कई परिवारों में तो बेटियाँ भी ऐसा प्यार, आदर और स्वाभिमान अनुभव नहीं करतीं हैं जैसे अपने, स्नेह-आशीष की छत्रछाया में, इन सबके साथ आप, मुझ बहू को, रखती हैं।

उन्होंने आत्मीयता से उत्तर दिया - 

बेटी, मैं, माँ हूँ ना, जानती हूँ, कैसे कोई बच्चा, बड़ा होता है। तुम भी, दो जीवन के समर्पित त्याग और दुलार से बड़ी हुई होगी। तुम ही नहीं हर कोई, ऐसे ही, बच्चे से बड़े हो पाते हैं। मैं भी स्वयं, हमारे माता पिता के द्वारा ऐसे ही पाली-बड़ी की गई थी।

मेरे पेरेंट्स, मुझ में, मानवता साकार होते देखना चाहते थे। उनकी उस अभिलाषा का बोध मुझे है। उनके ना रहने के बाद, उनका अस्तित्व में होना, मुझे स्वयं अपने में अनुभव होता है। ऐसे में मुझे लगता है, मुझसे ऐसा कोई कार्य न हो जिससे उनका दिल दुखे। 

वाह! मेरी मम्मी जी! वाह, यहाँ के माता-पिता की भव्य मानवीय विचारधारा, मैं निशब्द थी। मैंने कुछ नहीं कहा था। बस यह अनुभव किया था कि 

मम्मी जी जैसी नारी ही, देवी कही जाती हैं। 

और 

देवी भी, इन जैसी माँ से, माता रानी कही जाती हैं।    

सुशांत ड्यूटी के बाद के खाली समय में कॉल किया करते थे। जब मैं, पापा, मम्मी जी की प्रशंसा करती तो वे प्रसन्न हो कहते - 

पापा, मम्मी को तुम्हारे 

और 

तुम्हें, उनके हवाले कर देने से, 

मैं, निश्चिंत हो 

स्वयं को राष्ट्र रक्षा कर्तव्यों के, हवाले करता हूँ। 

फिर उन्होंने कहा था - रमणीक, यह गोपनीयता हमसे अपेक्षित होती है कि हम अपनी ड्यूटीज् किसी से ना कहें, लेकिन मैं तुमसे ताकि तुम गर्विता अनुभव कर सको, इस विचार से बता रहा हूँ कि मैं, फ़्रांस में प्रशिक्षण प्राप्त, राफ़ेल पॉयलेट हूँ। इन दिनों मैं, राफ़ेल उड़ाया करता हूँ। 

मैंने कहा - 

यह जिम्मेदारी आपको, सेना में अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है तब भी सर्वाधिक रूप से गर्वित तो मुझे, मेरी यह वास्तविकता करती है कि मैं, आपकी पत्नी हूँ। मैं समझती हूँ, ऐसा होने से, मेरी जैसी सौभाग्यशाली पत्नी कोई और नहीं है। 

आपने, मुझ से जो सीक्रेट शेयर किया है वह मैं चाह कर भी किसी से नहीं कह सकूँगी। मैं जानती हूँ जिस बात को, राज रखना है, उसे अपने अलावा किसी और से, नहीं कहना होता है। 

सुशांत ने हँसते हुए कहा - रमणीक, मुझ में तो इतनी बुद्धि थी ही नहीं कि मैं, मेरे लिए योग्य पत्नी खोज पाता। ये तो पापा हैं जिनकी दृष्टि ने तुम्हें परखा था। और अपने लिए सर्वाधिक योग्य जीवनसंगिनी के रूप में मैं, तुम्हें पा सका हूँ। 

हँसता हुआ कोई भी चेहरा प्यारा होता है मगर -

उन्हें, हँसता देखने से, मुझे, ऐसा प्रतीत होता कि हँसी तो प्यारी, सुशांत से होती है। 

इधर पापा ने सेवा निवृत्ति के बाद, एन जी ओ आरंभ किया था। उन्हें, उसमें व्यस्त देखती तो मैं, कहती कि - पापा इस उम्र में, यह व्यस्तता ठीक नहीं। 

वे कहते - अगर मैं दसरत्न तेल का विज्ञापन कर रहा होता तो मैं, तुम्हारी बात मान लेता कि तुम ठीक कहती हो। रमणीक, व्यस्त रहने की मेरी प्रेरणा, एपीजे अब्दुल कलाम सर, के काम से है। तुम जानती होगी कि उन्होंने अंतिम श्वास भी, उस स्टेज से ली थी, जहाँ उनकी व्यग्रता, हमारी नई पीढ़ी में, राष्ट्र निर्माता होने की चेतना देने की थी।

मुझे इस बात से, मेरे दिवंगत हुए पापा, इन पापा में, सजीव हुए लगते थे। मेरे, वे पापा और ये पापा, दोनों के विचार और शक्लें एक ही थीं। 

मैंने पूछा - पापा, आपके विज्ञापन को लक्ष्य करते हुए, अपनी बात कहने का प्रयोजन क्या है? 

पापा ने उत्तर दिया - महँगे सेलेब्रिटी के किये गए विज्ञापन का, असर तुम जानती हो? इस पर मेरी प्रश्नवाचक निगाहें पढ़ते हुए, वे स्वतः ही आगे बोले -

हमें, ऐसी सामग्री के दाम 25% ज्यादा देने होते हैं। जो इन्हें धनी (सेलेब्रिटिज) से विश्व के अति धनाढ्य लोगों के क्लब का हिस्सा बना देता है। इसके विपरीत, अभाव में जीवन यापन करने वालों का अभाव बढ़ जाता है। 

फिर ये अधिकांश सेलेब्रिटिज (धनाढ्य), समाज को लेट नाईट पार्टीज़ का आडंबर एवं चलन देते हैं। इन पार्टीज में ड्रग्स प्रयोग किये जाते हैं। ऐसे, ड्रग्स का व्यापार फलता-फूलता है। ड्रग्स के अवैध व्यापार में लिप्त लोग, ज्यादा कमाई के लालच में, हमारे युवाओं को, अपनी चपेट में लेते हैं। 

ये व्यसन, हमारे बच्चों के जीवन के अनमोल समय को व्यर्थ तो करते ही हैं। उनके स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव डालते हैं। इस तरह से, अब्दुल कलाम साहब की, भारत के आधुनिक एवं उन्नत राष्ट्र बनाने की कल्पना एवं मेहनत पर, पानी फिर जाता है। 

मैंने, बॉलीवुड सेलेब्रिटीज की राष्ट्र के प्रति दायित्व हीनता पर, कभी ऐसा गहन विचार नहीं किया था। मुझे लगा कि यही, अनुभवी होना होता है। राष्ट्र निर्माता होना भी, यही होता है। 

राष्ट्र के प्रति निष्ठावान ऐसा व्यक्ति, तथाकथित (छद्म) नायकों के गलत दिशा में प्रशस्त किये गए, समाज प्रवाह से दुष्प्रेरित हो, नकलची, व्यक्तियों की तरह, उस दिशा में बहता नहीं है। अपितु सीनियर सिटीजन हो जाने पर भी, अपने दायित्वों के प्रति संपूर्ण सजगता का परिचय देता है। वह अपनी क्षीण हो गई शक्ति का प्रयोग भी, गलत दिशा के प्रवाह की, दिशा बदल देने में करता है। 

मैं यह सोच रही थी कि पापा ने, एक डायरी मुझे दी। उन्होंने बताया कि - कभी कभी मन में चलते विशेष तरह के विचार मैं, इसमें लिखा करता था। उन्होंने आगे कहा - खाली समय में तुम, इसे पढ़ना। 

मैंने - जी पापा, कहते हुए, डायरी, आदर के साथ उनसे ली थी।     

माँ कभी कभी कुछ दिनों के लिए हमारे साथ रहने आतीं थीं। एक संध्या चाय पर उन्होंने पापा से कहा - भाई साहब, निकी तो आप लोगों की प्रशंसा करते नहीं अघाती, कहती है, मुझे मेरे पापा, फिर मिल गए हैं। 

पापा ने कहा - यह रमणीक की आत्मीय दृष्टि का, निर्दोष होना दर्शाता है। 

माँ अपनी बेटी की प्रशंसा से पुलकित हुईं थीं फिर उन्होंने, पापा से कहा - भाई साहब, मगर रमणीक, आपकी शिकायत में कहती है कि आप अपनी शक्ति से बड़े कार्यों में लगे रहते हैं। 

पापा ने कहा - यह शिकायत नहीं, मुझसे रमणीक का स्नेह है। 

मेरी माँ, बेटी (मुझे) को ससुराल में मिलते, बेटी से बढ़कर लाड़-दुलार से गदगद होतीं थीं। पापा के बिना किये, अपने जीवन संघर्ष की विवशता से, उन्हें फिर शिकायत नहीं बचती थी। 

एक रात्रि मैंने डायरी के पन्ने खोले एक पेज पढ़ने लगी, लिखा था - 

सैटेलाइट लॉन्च करने की हमारी क्षमता, अब विश्व में पहचानी जाती है। हमारी भव्य रही संस्कृति भी कभी दुनिया की प्रेरणा स्त्रोत रही है। 

अब हमें सैटेलाइट लॉन्च करने के क्रम में, एक जीव विज्ञान आधारित सैटेलाइट लॉन्च करना चाहिए। जिससे दुनिया भर में सभी नस्ल के मानव मनो-मस्तिष्क को, हर क्षण तार्किक सिग्नल्स, मिल सकें। इन सैटेलाइट सिग्नल्स का प्रभाव ऐसा हो, जो उत्कृष्ट मानव संस्कृति को, विश्व भर में व्याप्त कर सके।

ऐसे मिशन के लिए टीम में, अगर संस्कृति विशेषज्ञ की कमी रहे तो हमें, उसका हिस्सा होना चाहिए जो प्रयास को कमजोर ना पड़ने दे। हमारे भव्य भारत द्वारा, यह संस्कृति उपग्रह, उसकी कक्षा में बनाये रखना कठिन ना हो, इस हेतु मैं भी उस टीम का हिस्सा होना चाहता हूँ।

मैं अपने अल्प शेष रहे जीवन में, यह देखने को उत्सुक हूँ कि भारतीय संस्कृति का सैटेलाइट अपनी कक्षा में घूमता रहे और दुनिया को उसका लाभ मुहैय्या कराया जाता रहे। मानव सभ्यता के इस दौर में, विश्व भर में मानवता ध्वज, फहराता दिखे। 

मैं मंत्र मुग्ध थी। मैंने इस पेज पर लिखी, दिनाँक देखी। यह, 24 सितंबर 2014 थी। मैं समझ गई कि पापा की चेतना में, यह भावना आने का नैमित्तिक कारण क्या रहा था। 

दरअसल, इस दिन, भारत के मंगल यान को मंगल पर पहुँचने में, सफलता मिली थी। पापा ने इस सफलता से अभिभूत होकर ही, डायरी का यह पेज लिखा होगा। 

उत्कृष्ट थी उनकी भावनायें और उत्कृष्ट ही थी उनकी अभिव्यक्ति भी।

यह पढ़ते हुए, मैं भी राष्ट्र प्रेम में अभिभूत हुई थी। मुझे लग रहा था कि इस जीवन का कोई महत्व नहीं, यदि यह जीवन, मानवता और राष्ट्र दायित्वों के लिए काम ना आ सके। 

वाह! यह परिवार जिसका हर सदस्य इन दायित्वों को, अपने अपने तरह और शक्ति अनुसार निभा रहा था। मुझे भी अब, इन भावनाओं और दायित्वों में ओत प्रोत हो, जीवन के सुनहरे अवसर उपलब्ध थे। जिन्हे मैंने, व्यर्थ नहीं करने थे।  

हमारी सीमाओं पर युध्द के बादल छाये हुए थे। उन बादलों के मध्य में भी, सुशांत का मुझसे, ‘प्रेम का सूरज’ स्पष्ट दर्शित होता था। जो प्रखरता से मुझे, जीवन ऊष्मा प्रदान कर रहा था। 

मैं, प्रतीक्षा कर रही थी कि यह खतरे के बादल छँटें। ताकी यह प्रेयसी, अपने प्रियतम से संसर्गरत हो, मानवता को एक नया, सूरज प्रदान करे। जिसके आलोक में, दुनिया में व्याप्त व्यर्थ भेदों का, तिमिर मिट जाए। और प्रत्येक मनुष्य, अपने मिले मनुष्य जीवन का, वास्तविक एवं संपूर्ण आनंद का वरदान, सुलभ ही प्राप्त कर सके। 

पढ़ने वालों को यह एक काल्पनिक उपन्यास सा लगेगा मगर, यह जीवन और यह भावनायें मेरी वास्तविकता थीं। 

(समाप्त)                                 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

28-09-2020


Thursday, September 24, 2020

मेरे पापा (5) ..

 #लेखनचुनौती #WritingChallenge 

मेरे पापा (5) .. 

रॉयल एनफील्ड बाइक पर मैं, उस नौजवान के साथ बैठी थी, आगे मेरे जीवन पथ में मुझे, जिनका पग पग पर साथ मिलना था। आज से पहले मैं, इतनी रोमांचित कभी न थी। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि जैसे हर विवाह योग्य कन्या को चाहिए जो वह, नौजवान सिर्फ, मुझे पति रूप में मिल रहा था। 

सुशांत को माँ ने लाखों में एक कहा था। मुझे, उससे भी बढ़कर यह लग रहा था कि सुशांत जैसा कोई दूसरा, हो ही नहीं सकता। 

बाइक पर मैं, सुशांत के साथ सवार थी। मैं, किसी भी बहाने से उन्हें छू सकती थी। फिर भी मैं उन्हें स्पर्श नहीं कर रही थी। मुझे, उनसे भगवान और भक्त का रिश्ता अनुभव हो रहा था। भक्त, भगवान के दर्शन करता है उन्हें, स्पर्श नहीं करता है। 

सुशांत चुप ही बाइक चला रहे थे। इससे मैं, यह मान रही थी कि वे मेरे मन की पढ़ रहे हैं। और मुझे मिल रही प्रसन्नता में, कुछ बोलकर विघ्न नहीं डालने के विचार से ही, वे चुप हैं। 

काश, मुझे अभी मिल रही, अपनी इस ख़ुशी का पूर्वाभास होता मैं, उन लोगों की सेवा लेती जो हमारे साथ की पहली बाइक राइडिंग, शूट करते। ऐसा वीडियो, अब तक के जीवन की मेरी, सबसे बड़ी उपलब्धि जैसा, आजीवन की स्मरणीय क्षण बन जाता। 

मै अपनी सोच में डूबी थी कि समय ने हमसे ज्यादा गति ले ली थी। समय को रेगुलेट किया जा सकता तो अभी मैं, इसकी गति अत्यंत धीमी कर देती। 

मेरे ना चाहते हुए, सुशांत संग मेरी, पहली यह बाइक राइडिंग, अतीत का हिस्सा हो गई थी। मुझे बाइक से उतरना पड़ा था। पार्क की पार्किंग में सुशांत, अब बाइक खड़ी कर रहे थे।  

पार्क में प्रवेश करते हुए साथ लाया टिफिन का बेग, सुशांत ने एक हाथ में लिया हुआ था। अपने दूसरे हाथ में, मेरे हाथ को ऐसे थामा था जैसे कि वे, कश्मीर में बाढ़ पीड़िता, किसी सुंदर लड़की को रेस्क्यू कर रहे हों। उनके हाथों के स्पर्श से मुझे समझ आ रहा था कि उनका, ऐसे मेरा हाथ थामना, वासना अधीन नहीं था। 

यह उनका, मुझ पर अधिकार बोध प्रेरित, सहज भाव था। मुझे लगा था कि किसी मंगेतर की, इससे निश्छल भावना कोई हो ही नहीं सकती। मुझे लगा कि कदाचित स्नेह वश, सभी पति, कभी कभी बड़े भाई होने का एहसास, पत्नी को कराते होंगे।  

मैं यंत्रवत अपने पग, उनके साथ उठाती-रखती पार्क के एक नयनाभिराम हिस्से में, एक बेंच तक आ गई थी। सुशांत की हर बात में इतनी अच्छाई देखना, वास्तव में सुशांत की अच्छाइयों के कारण था या मेरी उनके प्रति हुई दीवानगी से था, इसे सोच मैं, अभी का कोई बेशकीमती क्षण व्यर्थ नहीं करना चाहती थी। मैं, मुझे मिल रही अभूतपूर्व ख़ुशी की अनुभूति करते हुए, अभी के पल पल व्यतीत करना चाह रही थी। 

तब सुशांत ने पहली बार बोल कर मुझे, मेरी तंद्रा से निकाला था। वे कह रहे थे - 

रमणीक अकेले अकेले, तुमने अब बहुत खुश हो लिया है। अब तुम्हारी अनुमति हो तो क्या, हम साथ साथ इस समय का आनंद उठायें?

उनका यह कहना मेरे उस विचार को पुष्ट कर रहा था कि सुशांत, मेरे मन की सब समझ रहे थे। कुछ सकपकाते हुए मेरे मुहँ से, अनायास निकला था कि - 

जी हाँ, हमें अब खाना चाहिए। देर करने से सब ठंडा हो जाएगा। 

सुशांत ने हँसते हुए कहा - तुम बहुत व्यवहारिक सोचती और करती हो, बातों में वह, आंनद कहाँ जो स्वादिष्ट भोजन में है। 

मैं झेंप गई थी। मुझे लग रहा था कि सचमुच मैं, गलत बोल गई थी। मुझे अभी, खाने से पहले, आपस में प्यार की बातों को, प्रमुख रखने वाली बात कहनी चाहिए थी। 

मैं भूल सुधार करने को कुछ कहती कि मैंने देखा सुशांत, निश्चिंतता से टिफिन खोल चुके थे एवं दो डिस्पोजल प्लेट्स में, यह कहते हुए सामग्री लगा रहे थे कि - वाह गाजर का हलुआ, मैं यूँ तो मीठा, कभी कभी ही खाता हूँ मगर आज, खाने में ज्यादा यही लूँगा। 

मैंने सहमति में कहा - हाँ-हाँ, क्यों नहीं। 

फिर सुशांत ने मेरे लिए लगाई प्लेट मुझे दी एवं स्वयं अपनी प्लेट जिसमें, गाजर का हलुआ ज्यादा लिया था, लेकर खाने लगे। खाते हुए हलुए की प्रशंसा कर उन्होंने, टिफ़िन में से हलुआ और लिया था। उनके मुहँ से हलुए की तारीफ़, मुझे पसंद आई थी कि मेरे द्वारा, प्यार डाल कर बनाया हलुआ उन्हें, अच्छा लग रहा था। 

जब वे टिफिन में थोड़ा बचा, हलुआ भी लेने लगे तो मैंने कहा - थोड़ा चखने के लिए मुझे तो दीजिये।  

उन्होंने इस पर कहा तुम घर जाकर खा लेना। अभी मुझे ही, इसका मजा लेने दो। 

मैंने कहा - नहीं थोड़ा तो मैं खाऊँगी। यह कहते हुए उनका जूठा खाने की अपनी तीव्र कामना वशीभूत, मैंने उनकी प्लेट में से, हलुए के दो कौर ले लिए थे। 

खाते ही मैं रुआँसी हो चिल्ला पड़ी थी - ओह, इसमें तो शक्कर है ही नहीं। 

सुशांत ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप मेरा हाथ पकड़ा एवं मुझे खींचते हुए एक तरफ ले गए। एक गुलाब के पौधे जिसमें ताजे, सुंदर गुलाब खिले हुए थे की तरफ, मेरा सिर, हल्के दबाव से झुकाया था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि वे, ऐसा क्यूँ कर रहे हैं। तब उन्होंने पूछा - तुम्हें, गुलाब में सुगंध आ रही है?

मैंने कहा - हाँ, आ तो रही है, मगर आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह मैं समझ नहीं पा रही हूँ। आप, मुझे गुलाब ही सुंघाना चाहते थे तो इसे तोड़कर मुझे दे सकते थे। 

सुशांत ने कहा - 

कोरोना में स्वाद एवं सुगंध नहीं आती है। तुम्हें शक्कर का टेस्ट नहीं आया तो, कोरोना तो नहीं हुआ है? यह कन्फर्म करने के लिए सुगंध का परीक्षण जरूरी था। तुम्हें सुगंध आ रही है तो इसका अर्थ यह है कि तुम्हें, कोविड19 संक्रमण नहीं है।

ऐसा प्रतीत होता है स्वाद नहीं आने का कारण, तुम्हारा पूरा ध्यान प्रेमरस में डूबा है, भोजन के रसास्वादन में नहीं है। 

गुलाब मैंने इस लिए नहीं तोड़े कि जैसे आप-लड़कियाँ, व्यर्थ नहीं छेड़े जाने पर सुंदर और खिली सी अच्छी लगती हैं, वैसे ही मुझे, गुलाब अपने पौधे पर ही शोभा देते लगते हैं। 

मैंने उनके इस अनुकरणीय दृष्टिकोण की मन ही मन प्रशंसा तो की मगर, शिकायती स्वर में कहा - आप झूठे हो, हलुए में शक्कर नहीं है। आप ही उसे प्रेम रस के साथ ग्रहण कर रहे हैं जिसके कारण आपको शक्कर रहित हलुआ भी, मीठा और स्वादिष्ट लगा है। 

सुशांत ने झूठी नाराज़गी दिखाते हुए कहा - यह अन्याय है मी लार्ड, अपना प्रेम दीवानापन आप मुझ पर आरोपित कर रही हैं। 

मैने समर्पण करते हुए कहा - आप, परिहास न करते हुए, सीरियसली बताइये की यह स्वाद हीन हलुआ, आपने कैसे खा लिया? और यह भी बताइये कि मीठा कम क्यों खाते हैं, आप?

इस पर सुशांत ने गंभीरता से कहा - 

रमणीक, जीवन में, मैं भोजन में बहुत रस नहीं लेता हूँ। मुझे राष्ट्र-भक्ति एवं कर्तव्य-परायणता में जीवन रस एवं मातृभूमि से सुगंध मिलती है। 

अर्थात खाने से ज्यादा जीवन रस मुझे, कर्म एवं विचारों की अच्छाइयों में मिलता है। ज्यादा मीठा खाना मेरी फिटनेस पर भी असर करते लगता है। इसलिए भोजन में चीनी कम लेता हूँ। आज, मैं हलुआ ज्यादा खाना चाहता था क्योंकि इसे, तुमने मेरे लिए, प्रेम से बनाया था। 

सुशांत के उत्तर से मुझे खेद हुआ कि मैं माँ एवं सुशांत में हो रही बातों को सुनने में मग्न, हलुए में मिश्री डालना भूल गई। मैंने खेद सहित कहा - मैं कल ही फिर हलुआ बना के, आपके घर पहुँचाउंगी जिसे सर, ऑन्टी एवं आप मन भर के ग्रहण कीजियेगा। 

मुझे सुनते हुए, अब तक सुशांत ने टिफिन समेट लिया था। प्लेट्स एवं अन्य डिस्पोजल्स, पास के डस्टबिन में डाल दिए थे। अर्थात देश के स्वच्छता अभियान के प्रति भी वे जागरूक थे। 

अब हम पार्क में, साथ भ्रमण कर रहे थे। मेरे मन में इन दिनों में, सुशांत को लेकर जो विचार चले थे, उनका उत्तर मैं, सुशांत से लेना चाहती थी। अतः मैंने पूछा - 

सुशांत आप इतने आकर्षक, सजीले एवं योग्य लड़के हो, आप में तो, कॉलेज के समय से ही, अनेक लड़कियों ने अपना प्यार दर्शाया होगा?

सुशांत ने कहा - हाँ, मगर वे दिन मेरे पढ़ने के थे अतः तब मैंने, अपने अध्ययन पर एवं अब अपने सैन्य कर्तव्यों पर, अपना ध्यान केंद्रित किया है। अपने प्रति आकर्षित लड़कियों को, मैं विनम्रता से ना कहता रहा हूँ। 

मैंने फिर पूछा - आप 28 वर्ष के हैं, इस अवस्था की शारीरिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए, उनमें से किसी के साथ शारीरिक संबंध रख सकते थे?

सुशांत ने कहा - इस विषय में, मेरे विचार पुराने हैं। ये संबंध मैं, पति-पत्नी में ही उचित मानता हूँ। इसलिए मैंने किसी से फ़्लर्ट नहीं किया। मैं, नहीं चाहता कि कोई लड़की, मेरे से संबंध के अपराध बोध के साथ अपने पति के, बाहुपाश में जाये। 

उनके उत्तर ने मुझे, जीजू स्मरण दिला दिया, जिन्होंने एक दिन अकेले में मुझसे कहा था - निकी, तुम्हारे उम्र की लड़कियों में, एक शारीरिक जरूरत हो जाती है। अभी, तुम्हारी शादी नहीं हुई है। मगर चिंता न करो, मैं हूँ ना। 

मुझे, तभी से जीजू घटिया लगने लगे थे। उन्होंने अपनी अनियंत्रित कामुकता में, दीदी को धोखा देना एवं मुझे, पथ भ्रष्ट करना चाहा था। उनसे, मैंने मूक नाराज़गी दिखा, पीछा छुड़ा लिया था। तब से ही मैं, उनसे अकेले में साथ करने से, बचने लगी थी। 

सुशांत ने मुझे चुप देखा तो, पूछने लगे - रमणीक कहाँ खो गईं?

मैंने कहा - मेरा, आपसे पूछा गया प्रश्न, आप, मुझसे भी पूछ सकते हैं। 

सुशांत ने कहा - मैं, आवश्यकता नहीं समझता। 

मैंने पूछा - आपकी होने वाली पत्नी के पूर्व ताल्लुकात तो नहीं, आप इस की पुष्टि नहीं करना चाहेंगे?

उन्होंने जबाब दिया - जीवन है, समझ कम होने से कोई, कभी गलती कर दे तो समझ आने पर उसे दोहराएगा, मैं ऐसा नहीं मानता। मुझे यह भी नहीं लगता कि तुमने, अवैध संबंधों में पड़ने की गलती की है। 

मैंने पूछा - वैसे आप सही हैं, मगर की होती तो? 

सुशांत ने कहा - उस पर ध्यान नहीं देता। मुझे स्वयं पर विश्वास है कि जो भी मेरे करीब होता है, मेरे विश्वास को नहीं तोड़ता है। तुम अब, मेरे करीब आई हो, पूर्व में क्या रहा है, उससे अलग मुझे विश्वास है कि आगे पूर्णतः, तुम मेरी होकर रहोगी। 

यह सच था मगर, मुझे अचरज हो रहा था, लड़का कोई, ऐसा कैसे हो सकता है? जो, अपने चरित्र पर तो दृढ मगर उस लड़की को, जो उसकी पत्नी होने वाली है, के चरित्र को लेकर यूँ, उदासीन रहे।  

मैंने यही पूछ लिया तो, इसका जबाब भी अनूठा था। सुशांत ने कहा - नारी को भ्रमित कर उसका शोषण करना, पुरुष धूर्तता होती है। मेरी दृष्टि में नारी क्षम्य है। पुरुष धूर्तता, अक्षम्य है। 

मैंने श्रृध्दा पूर्वक कहा - आपसे बढ़कर कोई, फेमिनिस्ट ना होगा। 

उन्होंने कहा - नारी दशा को लेकर मुझे करुणा होती है। उसे सशक्त करने के लिए उसके “साथी”, पुरुष भूमिका, ठीक होनी चाहिए। 

उनका मन और झाँकने के लिए मैंने तर्क किया - 

क्या, इसे मैं ऐसा लूँ कि यदि मैं बताऊँ, मेरे, पूर्व संबंध रहे हैं तो भी आप, मुझे स्वीकार करेंगे?

सुशांत ने उत्तर दिया - यह प्रकरण ही नहीं है, फिर क्यों तुम पूछती हो? चलो मैं, मान लेता हूँ कि ऐसा है। तब मेरा न्याय बोध, यह कहता है कि सदियों से अनेक पुरुष, एकाधिक स्त्री से, संबंध रखते हुए, अपनी पत्नी को पतिव्रता देखना चाहते रहे हैं। 

ऐसे में जैसा पुरुष के बारे में कहा जाता है कि वह नारी से अधिक साहसी होता है। तब उसे पुरुषोचित साहस से नारी के ऐसे होने को, उदारता से स्वीकार करना चाहिए। 

अन्य शब्दों में यह कि मैं, आपके इतिहास को वह, जैसा भी रहा हो, महत्वहीन मानते हुए तुम्हें स्वीकार करूँगा। 

मैं सोचने लगी “वाह सुशांत और वाह उनका न्यायबोध”। उन्हें, अपना (होने वाला) जीवन साथी अनुभव करते हुए मैं, गर्विता हुई थी। 

मुझे यह भी ख़ुशी हो रही थी इस बेदाग चरित्र के पुरुष को, मैं, ‘सुशील-कन्या’ मिल रही थी। मुझे लग रहा था कि सच में हम #राम-मिलाई जोड़ी थे। अगर राम मुझे, सुशांत से नहीं मिलाते तो यह, सुशांत की सद्चरित्रता के साथ अन्याय होता।     

मुझे सुशांत से, बच्चों जैसे (जैसा छोटे बच्चे, अपने पेरेंट्स से करते हैं) प्रश्न करने एवं उनका उत्तर सुनने में बहुत मजा आ रहा था। मैंने पार्क में पास ही एक लड़के के मोबाइल पर क्रिकेट वीडियो कमेंट्री सुनी। जिससे मेरे मन में नया प्रश्न उभरा, मैंने पूछा - 

बॉलीवुड एवं क्रिकेट की चर्चा, इस समय की बड़ी समस्याओं, अर्थात #कोरोना एवं देश की सीमाओं पर के खतरे से, ज्यादा हो रही है। इस पर आपका विचार क्या है?

सुशांत ने कहा - विस्तारपूर्वक कभी बाद में कहूँगा। अभी सिर्फ इतना कहूँगा कि यदि बॉलीवुड, पहले इतना लोकप्रिय हुआ होता तो #प्रेमचंद, #जयशंकरप्रसाद एवं #सरोजनीनायडू तरह के नाम हमारे इतिहास में दर्ज ही नहीं मिलते।

 और अगर, 

क्रिकेट का, हमारे समाज में इतना प्रभाव पहले होता तो, भगतसिंग, चंद्रशेखर आज़ाद एवं सुभाष चंद्र बोस के तरह के क्रांतिकारी देश को मिलते, मुझे इस पर संशय है। 

मेरा आशय यह है कि #छद्म_नायक की छाया में #वास्तविक #नायक पनप ही नहीं पाते। 

यह स्वतंत्र भारत का दुर्भाग्य रहा है कि यहाँ अच्छाइयाँ तो, अथक प्रयासों से भी प्रसारित नहीं हो पाती हैं मगर अकर्मण्यता एवं बुराई, बॉलीवुड एवं क्रिकेट की लोकप्रियता से बिना विशेष प्रयास प्रचारित एवं प्रसारित होती हैं।   

आहा! वैचारिक रूप से मुझे चरम आनंद अनुभव हुआ था। सुखद आश्चर्य था कि मेरे हर प्रश्न का ऐसा स्पष्ट एवं सुलझा उत्तर देने वाले, इस “आर्मी ऑफिसर” का रिश्ता, मेरे लिए स्वमेव आया था। 

मैं देख पा रही थी कि मेरे आगे के जीवन में, सुशांत के साथ से, #विचारधारा प्रमुख हो जाने वाली थी। 

पार्क से लौटने के पूर्व मैं एक और तसल्ली उनसे कर लेना चाहती थी। मैंने उनसे पूछा - 

एयरफोर्स के अपने कर्तव्य, #जाबांजी से निभाते हुए आप, इस बात का ध्यान तो रखा करेंगे कि घर में आपकी पत्नी, “मैं”, आपके घर लौटने की प्रतीक्षा, अधीरता से किया करती है। 

सुशांत के मुख पर अतिरिक्त गंभीरता परिलक्षित हुई थी उन्होंने कहा - 

अपने जीवन को मैं, आपकी #अमानत मानते हुए अपने खतरनाक कार्य, पूरे दिमाग और सतर्क रह अंजाम दिया करूँगा। मैं, यह अवश्य तुमसे, चाहूँगा की #राष्ट्र #रक्षा में, कभी अपनी पूरी #सजगता के बाद भी मैं, कभी अपने प्राण ना बचा पाऊँ तो तुम इसका दुःख नहीं करोगी। अपितु मेरी #वीरगति का #गौरव अनुभव करोगी। 

यह उत्तर उनका निर्विवाद रूप से विशुद्ध एवं सही था लेकिन मेरी आँखे नम हो गईं थीं। मैंने अपना मुहँ दूसरी तरफ कर लिया था। मेरी इस चेष्टा को उन्होंने समझा था। मुझे सम्हलने का समय देने के लिए उन्होंने चुप्पी साध ली थी। 

अब समय, घर लौटने का हुआ था। हम पार्किंग में आये थे। फिर एक बार में सुशांत के साथ #सगर्व रॉयल एनफील्ड पर सवार हुई थी। उन्होंने और मैंने हेलमेट लगाने के पूर्व एक दूसरे को सप्रेम, आत्मीयता से देखा था। सुशांत पर, पुनः उनकी विनोदप्रियता हावी हुई थी। उन्होंने, पूछा - 

रमणीक, अगर इंटरव्यू में तुमने, मुझे पास कर दिया हो तो, हम विवाह कब करें, यह जानना चाहता हूँ?

मैं, लजाई थी। मैंने हेलमेट लगा लिया था। सुशांत भी मुस्कुराये थे फिर उन्होंने, हेलमेट लगा कर बाइक स्टार्ट की थी। रास्ते में, मैंने चिल्लाकर कहा - 

आप चाहो तो मैं, आज ही विवाह कर लूँ आपसे!

सुशांत हास-परिहास से बाज नहीं आ रहे थे। उन्होंने जानबूझकर कहा - 

क्या कह रही हो, जोर से कहो, मुझे, हेलमेट में कम सुनाई पड़ रहा है।

मैंने भी उनकी शरारत का आनंद लेते हुए, गला फाड़कर दोहराया था - 

आप चाहो तो मैं, आज ही विवाह कर लूँ, आपसे!  

अब सुशांत सहित सड़क पर, आसपास चलने वालों ने भी, यह सुन लिया था। 

शायद मास्क के भीतर उन सभी के ओंठों पर मुस्कान थी। लेकिन मुझे अब कोई लाज नहीं आई थी क्योंकि मेरे साथ सुशांत थे ..                  

(मेरा अनुरोध है कि इस कहानी का अगला एवं अंतिम भाग, कोई #साहित्यकार या #प्रबुध्द #पाठक लिखे। मैं इसे यहीं समाप्त कर रहा हूँ)


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

24-09-2020


Monday, September 21, 2020

मेरे पापा (4) ..

 मेरे पापा (4) .. 

माँ को, सुशांत से प्रभावित हुआ देख मैं, खुश हुई थी। माँ ने मुझे जलपान लाने को कहा था फिर स्वयं सुशांत के पास जा बैठी थीं। 

मैं रसोई में गई थी। ट्रे में जल के साथ, ड्राई फ्रूट्स, पाइन एप्पल जूस लेकर, बैठक कक्ष में गई थी। मेरी आँखे सुशांत को लेकर प्रेम एवं आदर की अनुभूति से झुकीं हुईं थीं। उनके तुलना में, स्वयं को, साधारण मानने से, हीनताबोध मेरे दिमाग में काम कर रहा था, इस कारण मेरे हाथों में थोड़ा कंपन था। 

मुझे कक्ष में आना सुशांत शायद, ध्यान से देख रहे थे। मेरे हाथों में कंपन उन्होंने देख लिया था। सुशांत झटपट उठे थे। मेरे हाथ से ट्रे लेकर, सेंटर टेबल पर रखी थी। साथ ही कह रहे थे - इतना सब एक साथ लेकर आने की, क्या जरूरत थी। 

मेरे मुहँ से अनायास ही सच निकल गया था। मैंने कह दिया - मैं कुछ नर्वस सी हूँ, अभी। 

सुशांत ने शायद, मेरा आत्मविश्वास पुनः बनाने के विचार से कहा - अरे, रमणीक दोनों की एक ही कहानी, मैं भी नर्वस, तुम भी नर्वस। 

इस पर मुझे हँसी आ गई थी। 

सुशांत ने साथ ही हँसते हुए, परिहास के लिए कहा - 

यूँ हँसते हुए तो आप, मिस यूनिवर्स की दावेदार दिखाई पड़ती हो। 

मैंने भी परिहास के लिए प्रश्न किया - आप, झूठ भी बोलना जानते हैं। 

इस पर माँ को हँसी आ गई थी, परंतु सुशांत ने मगर मजाक को गंभीरता की तरफ मोड़ दिया था - 

नहीं, यह बात झूठ नहीं है। वास्तव में यह निगाहों एवं नज़रिये का अंतर होता है। किसी को कोई तो, किसी को कोई सबसे अच्छा एवं सुंदर दिखाई पड़ता है। मेरी दृष्टि में मिस यूनिवर्स भी, तुम्हारे सामने उन्नीसी है। 

सहजता में अपनी बात कह देना भी, सुशांत में निराली कला थी। 

माँ ने पूछ लिया - बेटा, मेरी निकी क्या, तुम्हें अच्छी लगती है? 

सुशांत ने कहा - अच्छी ही नहीं, मेरी दृष्टि से ऑन्टी, आप देखेंगी तो, दुनिया में सबसे अच्छी। 

मैंने अपने दिखने पर से चर्चा का केंद्र, हटाने के लिए, ट्रे से जूस एवं ड्राई फ्रूट्स की प्लेट, सुशांत की तरफ आगे की थी। प्लेट लेकर, टेबल पर रख, जूस का गिलास, सुशांत ने हाथ में लिया था। 

माँ ने भी जूस लिया था, जिसे जल्दी पीते हुए वे उठी थीं। बोलीं तुम दोनों बातें करो मैं रसोई का काम देखती हूँ। सुशांत ने झट उठकर माँ के हाथ पकड़ उन्हें सोफे पर वापिस बैठाया और कहा - 

आंटी, आप बैठिये। मेरी मम्मी ने बताया है कि रमणीक, बहुत स्वादिष्ट भोज बनाती है। मैं, रमणीक के बनाये भोजन का आनंद लेना चाहता हूँ। रमणीक, रसोई का काम कर लेगी। आप और मैं बातें करेंगे।

इस पर मैंने कहा- हाँ माँ, मैं रसोई का काम करती हूँ। यह कहकर मैं उठी थी और रसोई की ओर जाने लगी थी। सुशांत ने तुरंत उठकर, बिना किसी संकोच के इस बार, मेरे दोनों हाथ थामे, एक प्रकार से खींचते हुए, मुझे सोफे पर बिठाया बोले - नहीं, खाने की इतनी जल्दी भी नहीं है। 

सुशांत में फौजी, अनुरूप चपलता थी। मैंने दो बार में उन्हें पलक झपकते बैठे से, उठ खड़े होता देखा था। 

ट्रे के तरफ इशारा करते हुए वे बोल रहे थे - इतना सब मैं, अकेला खत्म नहीं कर पाउँगा, मेरा साथ दीजिये। हमें, परस्पर साथ देने की आदत, अभी से डाल लेनी चाहिए। 

उनके हाथों के प्रथम स्पर्श को मैंने अनुभव किया था। मुझे, ऐसा अनुभव हुआ कि यही वह बात थी, जिसके बिना मेरे जीवन में अधूरापन था। इस पल मुझे, यूँ लग रहा था, जैसे जीवन से मुझे, अब और कुछ नहीं चाहिए। फिर अपनी तरफ ही, माँ एवं सुशांत की दृष्टि देख, मैंने अपने भाव छुपाने का असफल प्रयास किया था। 

मुझे सहज करने के लिए सुशांत फिर उठ गए थे। इस बार ट्रे लेकर, मेरी तरफ जूस एवं प्लेट बढ़ाई थी। मुझे भी यही उपाय ठीक लगा था। जिससे मैं, अपने मनोभाव नियंत्रित करूँ। मैं प्लेट में से, जल्दी जल्दी खाते हुए, जूस पीने लगी थी। 

सुशांत ने मेरी मनः स्थिति समझी थी। वे प्रकट में, माँ से बतियाने लगे थे। वे क्या बात कर रहे हैं, उस पर ध्यान न देकर जलपान जल्द खत्म कर, मैं उठी थी। इस बार सुशांत ने कुछ नहीं कहा था। आत्मीय दृष्टि से, मुझे रसोई की ओर जाते बस देखा था। 

फिर मैं रसोई में एवं बैठक कक्ष में, माँ एवं सुशांत बातों में, व्यस्त हुए थे। रसोई पहले ही अधिकतर तैयार थी। अतः अपनी जिज्ञासा में, बीच बीच में अपने कान उनकी बातों पर दे रही थी। सुशांत ने ना जाने, क्या पूछा था जिस पर अभी माँ, कहती हुई सुनाई पड़ रही थी - 

मैंने, दुःखद अकेलापन देखा है, बेटे। रमणीक स्कूल भी पूरा नहीं कर पाई थी कि मेरे पति, मेरी बेटियों के पापा, चले गए थे। बेटियों के जीवन में ऐसा भयानक सा अकेलापन नहीं आये, यही भय मुझे, सताता रहता है। रमणीक के लिए, तुम जैसा लड़का कोई नहीं मिलेगा मगर बेटा, तुम्हारा फौजी होना, मेरे सामने दुविधा खड़ी करता है। 

माँ चुप हुईं थीं। मेरी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि सुशांत की प्रतिक्रिया, क्या होती है? वे उत्तर में क्या कहते हैं?

सुशांत कह रहे थे - 

ऑन्टी, जो दुःखद बात हमारे साथ होती है। वह, हमें इतना भयाक्रांत करती है कि हर घड़ी में हम, उसकी छाया अपने हृदय पर अनुभव करते हैं। जो बात एक बार घट जाती है वह, बार बार फिर नहीं घटा करती किंतु ऐसा फिर होने की आशंका, हमें सताती रहती है। 

रमणीक आपकी बेटी है, उसे लेकर आपकी, यह चिंता मैं, समझ सकता हूँ। इस पर मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि रमणीक, मेरी पसंद होना एक बात है। वही मेरी पत्नी हो, यह बिलकुल अलग बात है। 

अगर आप, इतनी चिंतित हैं तो मेरा एक अत्यंत करीबी मित्र, बॉलीवुड में है। वह ख्याति प्राप्त है। शायद आपने भी उसे देखा एवं सुना होगा। आप कहें तो, रमणीक के लिए मैं उससे बात करता हूँ। 

यह सुनकर मेरा हृदय बैठने को हुआ। मुझे लगा माँ ने बहुत जटिल समस्या खड़ी कर दी है। मैं एकदम जड़ हो, अवाक खड़ी रह गई।

 तब माँ के प्रतिरोध का स्वर सुनाई दिया - 

नहीं नहीं बेटा, मेरा यह आशय नहीं है। मेरे लिए बॉलीवुड एकदम अनचाही जगह है। ना बाबा ना मैं, बॉलीवुड के लड़के से, वह चाहे जितना, विख्यात और धनवान हो, रमणीक की शादी नहीं करा सकती। 

सुशांत ने पूछा - ऐसा क्यों, ऑन्टी? 

माँ ने बताया - 

मेरा मानना है कि जितना नेम-फेम देश ने, इस इंडस्ट्री के लोगों को दिया। उन्होंने, देश से मिले उन पर, उपकार को अनदेखा किया है। उन्होंने, अपने दायित्वों को नहीं समझा एवं बिलकुल उलट काम किया है। दिखाने को तो इंडस्ट्री में नारी को, प्रमुखता दी जाती है। मगर वास्तव में वहाँ, उनमें से अनेकों का, कामुकता से शोषण किया जाता है। 

बॉलीवुड के लोगों की हमारे प्रति दायित्वहीनता ने, नारी के प्रति समाज में, पुरुष की दृष्टि ही बदल दी है। सिनेमा आने के पहले पास पड़ोस में जिन्हें, माँ-बहन एवं बेटी के आदर से देखे जाने की हमारी संस्कृति थी। सिनेमा के अनेक निकृष्ट प्रसारण से, उन्हें अब समाज में, कामुक दृष्टि से देखा जाने लगा है। 

यह सुन मुझे चैन मिला। मुझे यूँ प्रतीत हुआ कि माँ के मुख से, मेरे पापा के स्वर प्रस्फुटित हो रहे हैं। उन्होंने, वे ही बातें कहीं थीं, जिन्हें कहकर मेरे पापा, दीदी एवं मुझे बुराइयों में पड़ने से विमुख, रखा करते थे। 

मैं रसोई के तरफ कम ध्यान देकर, बाहर की जा रही बातें, अधिक दिलचस्पी से सुन रही थी। 

सुशांत ने इस पर कहा - ऑन्टी, बॉलीवुड के बारे में आपने सटीक कहा है। 

सुशांत की अपनी बातों से सहमति देख, माँ ने कहा -

सिने इंडस्ट्री को देश वासियों ने जितना पैसा दिया, उससे धनी होकर वहाँ की शोमैनशिप ने आडंबर दिखा दिखा कर हमारे लोगों के, आडंबर पर किया जाने वाला, और इस तरह हर घर का, खर्च (बजट) बढ़ा दिया है। 

अपने प्रशंसक बढ़ाने की जुगत में अपने विभिन्न लज्जाहीन स्कैंडलों के प्रसारण से, इन्होने बच्चों को उलझाया है। फलस्वरूप पिछली पीढ़ियों में, अनेक बालमन, अध्ययन से भटका एवं व्यसनों में पड़ा है। 

सुशांत लगता है माँ से सुनी बातों से प्रभावित हुआ था उसने, माँ के विचारों को और जानने की नीयत से कहा - वाह, ऑन्टी कम शब्दों में आपने, सुलझी बातें कहीं हैं। मैं, सेना के बारे में, आपके विचार भी जानना चाहता हूँ।            

माँ ने अपनी प्रशंसा से, उत्साहित होकर कहा - 

हमारी सेना में कार्यरत हर बेटे-बेटी तो देश के वास्तविक नायक हैं। जिन्हें छद्म नायकों से, बहुत कम पैसा एवं प्रसिध्दि मिलती है। तब भी ये, वीरता के वो कारनामे कर दिखाते हैं जो देश के लिए, अत्यंत गर्व की बात होती है।

अब सुशांत ने ख़ुशी में कहा - 

आप देश की सेना के लिए इतना सम्मान रखती हैं। सेना में होने से, मेरे लिए यह गौरव एवं प्रसन्नता की बात है। रमणीक से विवाह को लेकर, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप अच्छे से सोच समझ लीजिये। आपकी ना भी, हम दोनों परिवार के रिश्तों में कोई कटुता की बात नहीं होगी।  

सुशांत की इस बात से, माँ घबरा सी गईं लगती थीं उन्होंने तुरंत सफाई जैसे दी थी - 

बेटा, मैंने तुमसे रिश्ते को मना नहीं किया है। बस अपनी चिंता ही बताई है। तुम समझो बेटा, रमणीक 11 वर्षों से बिन पिता की बेटी एवं मैं, उसकी ऐसी अकेली माँ हूँ। 

मुझे माँ का यह उत्तर राहत देने वाला लगा। सुशांत भी बुद्धिमान थे। वह माँ को दुख नहीं देना चाहता था अपितु एक बेटे जैसी भावना से उनको संबल प्रदान करना चाहते थे।  उत्तर में अत्यंत विनम्रता से उन्होंने कहा - 

ऑन्टी, समाज में दो बेटियों की अकेली माँ का जीवन कितनी चुनौतियों भरा होता है, इसे समझते हुए ही मैंने अपनी बात कही थी। अपने मित्र की चर्चा भी आपकी कठिनाई कम करने के लिए की थी। आपने उसमें रूचि ना लेकर यही सिध्द किया है कि आप रमणीक के लिए धनवान की अपेक्षा, विवेकवान रिश्ते को महत्व देती हैं, है ना?

माँ ने, सुशांत से सहमति जताने में देर नहीं की थी, तपाक से बोलीं थीं - 

हाँ बेटा, साथ ही यह भी कि तुम जैसे विवेकशील कम ही लड़के होगें। तुम तो लाखों में एक हो। दरअसल मेरे अपने भय से, मैं स्वयं ही परेशान हूँ। 

अब सुशांत का स्वर समझाने वाला हुआ था वह बोला - 

ऑन्टी, अब यह बात पुरानी हो गई कि हमारे समाज में नारी, पति के ना रह जाने पर अकेली हो जाती थी। आज हो रहे कई विवाह, कुछ ही समय में टूट जाते हैं तब भी वह अकेली होती है। अकेली रह गई ऐसी माँ, अपने बच्चों को पालने से पहले, उनको अपने पास रखने के लिए नयायालय में जूझती है। फिर उन्हें लालन पालन में कठिनाई होती है। 

मेरा कहने का अभिप्राय यह है कि रमणीक का मुझसे विवाह होने से, उस पर विवाह टूटने का खतरा कभी न होगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आजीवन उसे अकेली ना पड़ने दूँगा। आपको दुविधा में देखना, मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। आप पूरी तरह सुनिश्चित हो लें। मैं विवाह के लिए देश पर अभी मंडरा रहे युध्द के बादल, छँटने तक प्रतीक्षा कर लूँगा। 

यह सुनकर मैं, माँ क्या कहती हैं, इसे सुनने की जिज्ञासा में, ट्रे उठाने के बहाने से बैठक में आई थी। देखा तो मुझे लगा जैसे माँ, अब सुशांत की फैन हो गई थीं। 

उन्होंने अचरज में, ऊपर से नीचे तक सुशांत को देखते हुए कहा था - 

बेटा, तुम अपनी उम्र से ज्यादा, अनुभव की कहते हो। तुम्हारी अनूठी यह योग्यता अब, मुझे प्रतीक्षा नहीं करने देगी। मेरे हृदय में तुमसे, निकी के रिश्ते को लेकर अब कोई संशय नहीं रह गया है। 

यह सुन मैंने, अपने मुख को विपरीत दिशा में करके, अपनी प्रसन्नता छुपाई थी और मैं शीघ्र रसोई में वापिस आ गई थी। आगे की बातें सुनने में, मुझे अब कोई रूचि नहीं रह गई थी। मैं अब ध्यान रसोई में केंद्रित करना चाहती थी ताकि सुशांत को भोजन में स्वाद, अच्छा लगे। 

फिर भी मुझे सुनाई दे गया था, सुशांत कह रहे थे - 

मेरे पापा, मेरे बचपन से ही मुझे, कहते आयें हैं, जो तुम्हारे साथ घटता है, सिर्फ उतने से ही तुम्हे, सीखना समझना नहीं है। अपितु जीवन में ज्यादा सफल होने के लिए, हमारे अनुभवों से सीखना और समझना है। मेरी अच्छी बात का श्रेय, मेरे पापा-मम्मी को है जिन्होंने, अपने से ज्यादा, मेरे जीवन पर ध्यान रखा है।     

फिर लगभग बीस मिनट बाद सुशांत, अकस्मात रसोई में आये थे, पीछे पीछे माँ भी आईं थीं। सुशांत, मुझसे पूछने लगे थे कि - मैं, आपकी कुछ सहायता करूँ? थोड़ा कुछ रसोई का काम, मुझे भी आता है। 

इस पर माँ हँसी थी। मैंने परिहास में कहा - अभी रहने दीजिये। इस ज्ञान के प्रयोग को, आगे के लिए बचाये रखिये। 

मेरी बात पर, सुशांत ने खिलखिला कर हँसते हुए, माँ से कहा - 

ऑन्टी, रमणीक की इस प्यारी बात पर मैं चाहता हूँ कि यदि आपको, आपत्ति ना हो तो मैं, इन्हें अपने साथ, पास ही के, ध्रुव बत्रा पार्क की सैर पर ले जाऊ। 

माँ ने स्नेह से कहा - हाँ हाँ बेटे क्यों नहीं! जाओ, तुम दोनों भी आपस में बात करो। एक दूसरे को जानो। 

फिर माँ ने मेरे तरफ मुखातिब हो कहा - 

निकी, तुम कपड़े बदल लो। मैं, तब तक टिफिन में खाना पैक कर देती हूँ। तुम दोनों वहीं साथ खाना एवं साथ बतियाना। कहते हुए वे ख़ुशी से  मुस्कुराए जा रहीं थीं। 

सुशांत इससे खुश हुए, मजाक करते हुए बोले थे - ऑन्टी, बहुत प्यारा आइडिया है आपका, सैर, पिकनिक और पहली पहली प्यार की बातें, थ्री इन वन, हो जायेगा। 

इस बात से मेरे मुखड़े पर, लाज की लालिमा आ गई थी। मैं दोनों को रसोई में छोड़, चेंज के लिए अपने कमरे में आई थी। अब अत्यंत प्रसन्नता से, अपना सबसे पसंदीदा परिधान मैं पहनने एवं श्रृंगार करने लगी थी।                              

(क्रमशः)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

22-09-2020