Monday, December 31, 2012

कृपया मुझे आप दें आशीर्वाद और शुभ-कामनाएं

कृपया मुझे आप दें आशीर्वाद और  शुभ-कामनाएं
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उत्सव अवसर पर सारे देश में शुभ-कामनाएं
करते आदान-प्रदान सब हार्दिक शुभ-कामनाएं
भुगतते अत्याचार मिलीं यद्यपि शुभ-कामनाएं
होता हश्र इस तरह देख सब शुभ-कामनाओं का

मन व्यथित हुआ देख सन्देश शुभ-कामनाओं के
धन्यवाद जो आपने दीं मुझे जो शुभ-कामनाएं
मन बोझिल जुवां नहीं कहती अब शुभ-कामनाएं
क्षमा करना मित्रों  प्रेषित ना करूँगा शुभ-कामनाएं

पश्छाताप करूँगा ना भेजी जो  आपको शुभ-कामनाएं
न शक्ति लेखनी में फलित कर सके शुभ-कामनाएं
यत्न सुधार हो लेखन में फल दे सके शुभ-कामनाओं का
हेतु कृपया मुझे आप दें आशीर्वाद और  शुभ-कामनाएं

बिना मनोरंजन कर दे हँसेंगे

बिना मनोरंजन कर दे हँसेंगे
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कुछ सतर्कता स्वयं हम रखें
कुछ अपेक्षा व्यवस्था पर छोड़ें
मानसिक स्तर नहीं समान है
लालन-पालन मिला अलग है
सबके परिवेश में अंतर बहुत  है
जीवन चुनौतियां भी जुदा हैं 
नहीं सिंगापुर या छोटा देश है
अति समर्थ नहीं अपना देश है
विकसित होने का सपना दूर है
हम ना लगायें घर में ताले
चोरी ना हो पुलिस पर डालें
अपेक्षा यह हमें निराश करेगी
हम सहयोगी ढंग अपनाएँ
कुछ सावधानी स्वयं हम उठायें
दोनों के परस्पर सहयोग से
शायद मुसीबत कुछ कम झेलेंगे
अतः अधिकार की मांग करें जब
उत्तर दायित्व अपने भी समझें
देश सिर्फ व्यवस्था-पालकों का  नहीं है
यह देश और समाज हमारा भी है  
जब तक न अपनापन ऐसा मानेंगे
होगें कुकृत्य जिन्हें अन्य देखकर
राजेश बिना मनोरंजन कर दे हँसेंगे ...
 ...

Sunday, December 30, 2012

कर्तव्य-बोध

कर्तव्य-बोध
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समय ,श्रम अनुपात तुलना यदि धन अधिक आ जाता
समाज प्रति कर्तव्य-बोध तब धनवान ऐसा है गवांता
शुभ कामना है सब करें स्वच्छ मार्ग से धन अर्जन
स्मरण रख कर्तव्य-बोध निर्माण करें स्वच्छ समाज

समझें  प्रति दायित्व और अपना हम इस समाज को
समझें अपना भाई व बहन मनुष्य साथी जो समाज में
भाग्यशाली  हम कर चुके उन्नति अपने सोचविचार में
आओ समग्र उत्थान यत्न करें अपने कर्म आचरण में

हल होंगी समस्या कई विद्यमान जो देश समाज में
मिट सकेंगे अभाव व अज्ञान सहयोग हमारे से  समाज में 
राजेश की इस बात को और इस आव्हान को भैय्या
कर विचार मेरे आदरणीय यदि सहमत हों तब  ही मानना

अश्रुना


अश्रुना
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लड़कियों के छात्रावास में १५-२० छात्राएं , दामिनी मौत से सदमे , विषाद और वेदना में डूबी हॉल में बैठी थीं . कुछ के नयन अश्रुपूरित थे . सब खामोश थीं , अश्रुना ही कुछ कह रही थी . उसे कहना से ज्यादा बुदबुदाना कहना ज्यादा सही होगा . जो स्पष्ट सुनने वाले को हो रहा  था वह , इस प्रकार था ...

एक दामिनी पर अत्याचार की चर्चा चारों तरफ , इसी दिन पूरे देश में इस तरह के कितने अबला अत्याचार हुए , उन पीड़ितों का दुःख क्यों नहीं समझते सब. एक में इतने व्याकुल ! प्रतिदिन हजारों भुगतती चल रहीं हैं . फांसी समाधान है? . तो मेरे कितने भाई , चाचा लटक जायेंगे .. समाधान सजा देने में नहीं  लगता है , समाधान विचारों में नैतिकता आये ,उनके उपायों में है. उपायों का आरम्भ स्वयं अपने से हो सकता है ... ( कुछ देर शांत होती है फिर बुदबुदाती है...  )   

सार्वजनिक स्थानों पर लड़कियों के अशालीन व्यवहार भी थोड़ी हद तक दोषी होते हैं  . मै अब ज्यादा बनाव श्रृंगार के नहीं घूमने निकलूंगी .. पार्टी जिनमें ड्रिंक्स के दौर चलते हैं , उनमें मै हिस्सा न लूंगी , हॉस्टल लौटने में ज्यादा रात ना करुँगी , सड़कों पर ज्यादा ऊँचे स्वर में नहीं हसूंगी , बातें करुँगी  . फ्लर्ट से बचूंगी . किसी पुरुष से ज्यादा एकांत में अधिक वार्तालाप से बचूंगी ...

अपराध करने के आदी को तो मै ना बदल सकूंगी . पर मेरी किसी हरकत को गलत पढ़ , कोई सज्जन अपनी सज्जनता न खो दे , यह मेरी दायित्व है ...
मै ऐसे परिवार में रहती हूँ जहाँ दादा , पिता ,चाचा और भ्राता रूप में कई पुरुष साथ हैं ... किसी नारी के असावधानी से वे किसी ऐसे अपराध में ना पड़ जाएँ , मुझे सोचना है ...
किसी के ऐसे प्रियजन को ऐसे  अपराध की दुष-प्रेरणा अपनी असावधानी से मै कैसे दे सकती हूँ .... भगवान् मुझसे ऐसी गलती कभी ना करवाना .
मुझे मेरे भाई , मेरे देश के अन्य बहनों के भाई का जीवन प्रिय है ... उन्हें फांसी होते मै नहीं देख सकती ...

अब तक नहीं रो रही थी अश्रुना ... अब बिलख कर रोती है बनती है अश्रु-हाँ        

Saturday, December 29, 2012

महानिन्द्नीय


महानिन्द्नीय
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दामिनी नहीं पहली या अंतिम जो पुरुष अत्याचार कारण मरती
मै दामिनी कहती यह लूटा एवं मारा मुझे संस्कारहीन ,अपढ़ वे थे

सभी आप आज कहते इसे नारी विरुध्द यह अपराध जघन्यतम है
असहमत यद्यपि भोगा स्वयं किया गया जब यह क्रूरतम मुझपर

जिनका नहीं विवेक समर्थ ना मिलने से उचित नैतिक ज्ञान संस्कार
उनका जघन्य क्रूर अपराध अत्याचार अबला पर नहीं महानिन्द्नीय

जो कहलाते सभ्य ,शिक्षित और बुजुर्ग हो हुए विराजित महत्व पदों पर
महानिन्द्नीय काले कारनामे दुष्प्रेरित युवा देश के देख-पढ़ उनके दुष्कर्म

मै करती क्षमा उन्हें अब दे चुकी प्रजा सीख और सबक प्रदर्शनों जरिये
अक्षम्य है अपराध, नक़ल दुष-प्रेरणा तथाकथित नायकों से जो जन्मता


बदलो मेरे माँ, पिता ,भाई -बहन सभ्य ,पढ़े-लिखे और नायक की परिभाषा
मरती दामिनी बने इतिहास की वस्तु ना रह जाए वर्तमान और भविष्य की          

जितना अप्रिय अपराध जघन्य यह उतना देनाअभागों को फांसी


जितना अप्रिय अपराध जघन्य यह उतना देनाअभागों को फांसी 
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अरुण जी , प्रसन्नता है बहुत जो लौटे फेसबुक पर आप आज हैं
राजेश अनुभव करता जैसे ऊर्जा मानसिक पुनः लौटी सृजन की

दुष्कर से कार्य आवश्यक समाज में जो ठानी है करने की हमने 
बिना सहयोग आपस के ना रह जाए अनमोल जीवन में अधूरी    

हो रहा दो चार नित नई बुराइयों से प्यारा यह समाज देश हमारा 
अरुण - राजेश जोड़ें और सहयोगी निर्मित करने सुन्दर पथ ऐसे 

जिन पर चलकर अनुज-अनुजा हमारे करें बोध सुरक्षित होने के 
पूर्व निर्मित पथ द्वारा पूज्यनीय पूर्वजों के हो गए जो आज वीराने 

पुनरोध्दार करें उनका, और दामिनी हमें नहीं अब खोना पसंद है 
बदलना मानसिक तत्व भ्राताओं का जो करवाता उनसे अपराध है  

मांगे उठती फांसी देने की दुर्भाग्य उन अपराधी हमारे भाइयों को  
पर ना मिटायेंगे अगर जड़ बुराइयों की कितनों को देंगे हम फांसी

जितना अप्रिय अपराध जघन्य यह उतना देना अभागों को फांसी 
सद-प्रेरणाएं, उदहारण सदाचार दें मिटायें मनोविकार जो समाज से

हम आज बहुत पढ़े लिखे बिना टूटे लाठी दूर हो जाए खतरा सर्पों का 
होगा हमारा परिचय सच्चे पढ़े लिखे ,संस्कार धनी व सभ्य होने का   

मै भी तीन बेटियों का पिता हूँ

मै भी तीन बेटियों का पिता हूँ
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                      दामिनी प्रकरण पर राष्ट्र को संबोधन में कहा गया "मै भी तीन बेटियों का पिता हूँ" .यह वाक्य रेखांकित करने का उद्देश्य किसी आलोचना के लक्ष्य से नहीं है . लेकिन किसी बेटी पर अत्याचार की पीड़ा और संवेदना अनुभव करने के लिए पुत्री का पिता होना अगर आज आवश्यक है तो वर्तमान समाज किस दुर्दशा में आ गया है सरलता से समझा जा सकता है .अगर पुत्री नहीं है तो इस तरह की घटना की वेदना की कल्पना या अनुभव का समय पुरुष नहीं पा सकेगा तो क्या उन्नति के पड़ाव पर है आज  मानव ? मेरी समझ में इतनी दुर्गति कभी नहीं थी .
                            आगे की होने वाली दुर्गति तो कल्पनातीत है .छोटे परिवार के आव्हान में कई परिवार पुत्री-विहीन होंगे .वहां बेटी के सम्मान और उसकी वेदना क्या महत्वहीन होगी ? वह तब जब कोई पुरुष बेटी (नारी ) का पिता तो शायद नहीं   हो पर पुत्र तो किसी नारी का भी होता है .
                        एक राजनीतिज्ञ से संवेदना की चूक में व्यस्तता कारण हो सकता है ,शब्दों पर ध्यान ना गया हो . अगर इतना भी सत्य है तो कम चिंताजनक है . पर जैसा शब्द संकेत करते हैं .. जब तक स्वयं किसी स्थिति में हुए बिना उस बात के कल्पना ना कर सकें तो महत्व के उस स्थान पर यह राजनेताओं की योग्यता की कमी प्रदर्शित करती है .  राष्ट्र या समाज जिन चुनौतियों से आज दो चार हो रहा है , ऐसी बुराइयाँ उन जैसे सज्जन पुरुष में नहीं हो सकती . तो फिर कैसे उसकी गंभीरता वे समझ सकेंगे ? और कारगर कार्यवाहियों को कैसे क्रियान्वित कर सकेंगे ?
                   समाजविग्य , साहित्यकार , राजनीति के बाहर के प्रबुध्द कृपया स्थिति को समझें . उनके कन्धों पर दायित्व ज्यादा आ पड़ा है . जो व्यवस्था के लिए उत्तरदायी हैं . उन्हें चहुँ दिशाओं की समस्याओं और व्यस्तता ने कल्पना-शून्य कर दिया है . राष्ट्र के योग्य नवयुवा देश की इन असुरक्षित और दुर्गति से घबड़ा कर बाहर पलायन का निर्णय कर लें तो उनकी योग्यता से वंचित हो यह राष्ट्र कहीं और दयनीय स्थिति में ना पहुँच जाए .
                      समाजविग्य , साहित्यकार , राजनीति के बाहर के प्रबुध्दों  से प्रार्थना है .. इस समस्या को पराई दृष्टि से ना देख अपनी माने .. जग चेतना जागृति के लिए कर्म , आचरण और लेखनों से प्रेरणा-त्मक उदाहरण बनें तथा  बनाये . हमारा जीवन कुछ वर्षों का होता है पर भव्य इस भारतवर्ष की आयु अभी हजारों वर्षों की है ... हमें भारत की आत्मा आगे लाखों वर्ष अच्छी स्थिति में जीवित रहे इस हेतु त्याग करने है .. जीवन में सुविधा से परे कुछ कठिन पथ पर चल कर .. ऐसे पथ का पुनर्निर्माण करना है .. जिस पर चल हमारी सन्तति को अच्छे जीवन लक्ष्य मिल सकें ....

Friday, December 28, 2012

न्यायबोध सद-प्रेरणा ना दे सका भागीदारी अपराध में मेरी होती

न्यायबोध सद-प्रेरणा ना दे सका भागीदारी अपराध में मेरी होती
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माता -पिता तय कर देते वस्त्र ,भोज्य ग्रहण करना होता
शिक्षा हेतु मार्गदर्शन उनसे अंक अच्छे प्राप्त करना होता

चिकित्सा विज्ञान रूचि कारण श्रम पढाई का बहुत होता
अभी समझ आरम्भ हुई थी मनुष्य जीवन क्या है होता

आगामी जीवन खुशहाली का मधुर स्वप्न नयनों में होता
नारी को देश-संस्कृति ने गरिमापूर्ण स्थान दिया था होता

पिता चाचा बड़े सभी बचपन से चरण में बेटी के झुकते होते
विडंबना पर नारियां देश में कहीं न सुरक्षित दिखती होती

दामिनी राजधानी में अनजान खतरे से बस सवार हुई होती
सहयात्रियों पर विवेक शून्य कर मदिरा नशा तब छाया होता

चीरहरण ,लाज लूट अबला को कलंकित कर छोड़ा होता
ऐसे कलंक में अधमरी अबला हार आज शिकार मृत्यु होती 

सपने दामिनी, घर-परिवार के पशु व्यवहार से गए चूर होते
पशुवत  मानव पले खेल गोद में माँ लज्जित वे हो रही होती

नहीं प्रश्न असावधानी किसकी कौन कहाँ अब मानता  होता
राष्ट्र ,समाज , पुरुष-नारी सब के सर शर्म से झुक गए होते

यह हत्या , उस विचार और स्वप्न की भी हत्या होती
जिसमे नारी अधिकार, पद, सम्मान पुरुष बराबर होते

हाय , राजेश विरासत राष्ट्र की भव्य इतनी कहाती होती
न्यायबोध सद-प्रेरणा ना दे सका भागीदारी अपराध में मेरी होती

पौरुष

पौरुष             

                    "इंडिया गेट " पर दामिनी प्रकरण पर प्रदर्शन के बाद इंद्र इंजीनियरिंग कॉलेज का छात्रों का समूह लड़कों के छात्रावास में ड्रिन्क्स में व्यस्त था .10 -12 छात्र थे जो तर्क-वितर्क कर रहे थे , कोई इस मत का था कि अवसर की बात है. जबरदस्ती पर कोई भी उतर सकता है .नियम जो उनमें से एक था इस मत का मानने वाला था  कि 'अवश्य ही शारीरिक आवश्यकताएं और उत्तेजना लगभग सभी पुरुषों की समान हों' पर मर्यादा बोध के रहते स्वयं जबरदस्ती या अवैध कार्य में लिप्त होने से बचा जा सकता है . उसके तर्क अन्य मानने को सहमत नहीं थे .उन्होंने नियम को चुनौती दी कि एक लड़की स्वयं से तैयार हो जाये  तो अवैध कृत्य से वह स्वयं को रोक नहीं सकेगा . नियम ने चुनौती स्वीकार कर ली . शेष छात्रों ने एक योजना बनाई और उसे बताई होटल के एक रूम में अगली रात चार घंटे बिताने को कहा , जिस पर नियम ने सहमती जताई .
                       अगली रात होटल रूम में कॉल बेल बजने पर नियम ने दरवाजा खोल तो एक 20-22 वर्ष के उम्र की सुन्दर युवती बेहद ही अच्छे वस्त्रों में बाहर खड़ी थी . उसने पूछा आपका नाम नियम है , उसके हां कहने पर युवती बोली मै आपसे ही मिलने आईं हूँ . तब नियम ने कमरे में उसे आने की जगह दी . युवती ने अन्दर आ उसे अपनी अदाओं  से रिझाने आरम्भ किया . कोई दो घंटे बाद युवती और उसके एक घंटे बाद नियम होटल का वह रूम छोड़कर चला गया .
                            अगली शाम छात्रों का वह समूह नियम के साथ एक वीडियो देख रहा था . कक्ष में एक सुन्दर युवती उत्तेजक अंग संचालन के साथ नियम से बात कर रही थी .. जबकि नियम उससे कुछ अन्य जानकारी लेने का यत्न कर रहा था .  वार्तालाप में नियम को ज्ञात हुआ घर की जरूरतों के हिसाब से परिवार की आय कम है .अतः कभी कभी वह इस तरह के कॉल पर अच्छी कीमत के बदले इस तरह का कार्य करती है .नियम उसे परिवार के व्यय नियंत्रित करने कहता है , और भी बहुत सी  बातें  समझाने का यत्न करता है . और साथ लाइ रक्षा -सूत्र अपनी कलाई पर उस युवती से बंधवाता है . उसे बहन का संबोधन दे उसे 500 रूपये देता है , और इस हेय तरीके से धन अर्जन न करने कहते उसे कक्ष से विदा करता है .
                    पूरा विडियो देखने उपरान्त अन्य छात्र ताने देते हैं , नियम तू पुरुष है भी या नहीं ?  दूसरा कहने लगा नियम यदि ड्रिंक्स लेने के बाद कल होता तो नियंत्रित नहीं कर सकता था .
नियम उन्हें कहता है अगर मदिरा से यह विवेक ख़त्म होता है तो मै जीवन में अब मदिरा सेवन ना करूँगा ..
जहाँ तक पुरुष होने का सवाल है , तो सच्चा पौरुष वह गुण  है जो अबला को छलता नहीं बल्कि उसका बचाओ करता है ...
छात्र सोचने वाली मुद्रा में एक एक कर वहां से जाते हैं ...

Thursday, December 27, 2012

मार्गदर्शन अभाव में चोर , आजीवन रहेगा चोर

मार्गदर्शन अभाव में चोर , आजीवन रहेगा चोर
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इस सदी की काल्पनिक घटना ऐसी होगी . धर्म पर श्रृध्दा नहीं शेष रह गई ऐसे एक सेठजी के घर रात्रि में चोर घुसा . रात्रि के सन्नाटे में उसकी आहट से सेठजी की निद्रा खुल गई . जैसे ही उन्हें समझ आया वे हडबडा कर बिस्तर से उठे ,चिल्लाने लगे चोर है --चोर है . चोर ने चिल्लाहट सुनी वह कमरे से...
भागने लगा ....इस बीच सेठजी के चिल्लाने से सेठजी का जवान पुत्र उनके कमरे तरफ आ रहा था . चोर और उसका आमना सामना हुआ . बचाव के लिए चोर ने चाकू छिपा रखा था वह निकाल उसने पुत्र को दिखाया . बेटा सहम गया . तब तक सेठजी ने पीछे से आ हाथ में आये पेपरवेट से चोर पर वार किया . चोट से तिलमिला वह चाकू हवा में लहराने लगा . जिसकी धार पुत्र की बाहं पर लगी , सेठजी की जांघ पर भी लगी , दोनों को लहू निकल आया . चोर अवसर पा निकल भाग गया .
संघर्ष में कुछ चोट सभी को लगी पर चोरी रोक ली गई थी .
प्रशंसा में वीरता की घटना सेठजी का परिवार पास-पड़ोस में बता रहा था . सेठ जी ने विचार कर घर की सुरक्षा बढाने के उपाय किये चहारदीवारी और खिड़की -दरवाजे मजबूत करने आरम्भ कर लिए .
उधर चोर असफलता पर विचार कर , योजना बनाने लगा कुछ और साथी को ले ,तथा ज्यादा हथियारों के साथ अगली बार चोरी कैसे की जाए . जिससे सफलता मिले और एक ही बार में ज्यादा धन राशि हाथ आ जाये .
चोर अब भी परिश्रम के बजाय संक्षिप्त रास्ते से , तीव्रता से धन बनाने की जुगत में है .

चोर के दिमाग में पड़ा बुराई बीज ख़त्म नहीं किया जा सका है , जिसके दुष-परिणाम सेठ जी को , यह अन्य किसी परिवार को एवं स्वयं चोर को कभी झेलने पड़ सकते हैं .
चोर को सद -प्रेरणा शायद नहीं मिल पायेगी . यदि वह पकड़ा गया और उसे न्यायलय से दंड भी मिल गया तो , तो शायद भय -वश वह आगे चोरी ना करे पर , बचते हुए इस तरह धन बनाने के नित नए उपाय करना आगे भी जीवन में जारी ही रखेगा ........

सही मार्गदर्शन से भूल का पछतावा करता चोर

सही मार्गदर्शन से भूल का पछतावा करता चोर

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पिछली सदी की सत्य घटना सुनता हूँ . धर्म श्रृध्दा रखने वाले एक सेठजी के घर रात्रि में चोर घुसा . रात्रि के सन्नाटे में उसकी आहट से सेठजी की निद्रा खुल गई . उन्हें समझ आया फिर भी वे अपने बिस्तर पर लेटे रहे . चोर की क्रियाओं को देखते अनुभव करते रहे . इधर चोर खोज खोज कर कीमती वस्तुओं को एक चादर ...में ला ला रखता गया . जब चुराई सामग्री से संतुष्ट हुआ तो चादर के सिरे बांध गठ्ठा बना लिया . जो आकार में एक व्यक्ति से उठाये जाने से काफी बड़ा हो गया . अब वह सर पर लादने के तरह तरह के यत्न करने लगा . पर असफल हो खुद पर चिढ रहा था . उसे यह नहीं सूझ रहा था की गठ्ठे में से कुछ वस्तु हटा छोटा कर ले और सुबह होने के पूर्व सुरक्षित निकल जाए . सेठ जी उसकी परेशानी भांप रहे थे . कुछ देर बाद वे उठे , उन्हें उठता देख चोर गठ्ठा छोड़ ही भागने लगा . सेठजी ने उसे स्नेह से आवाज दे रूकने कहा . डरते हुए वह रुक गया . सेठजी उसके पास पहुंचे , बोले बेटा तुमने बहुत मेहनत की है , मै देर से तुम्हें देख रहा हूँ . तुम मेहनत से जुटाई सामग्री ऐसे क्यों छोड़ जा रहे हो . आओ गठ्ठा तुम्हारे सर पर मै रखवा देता हूँ . कहते हुए वे सहायता के लिए गठ्ठे की ओर बढे . चोर को सेठजी से यह व्यवहार अपेक्षित ना था , वह ग्लानि से भर उनके चरणों में झुक गया . आँखे पछतावे के अश्रु से भरी थी .

अंत में सेठ जी ने उसे परिश्रम कर धन अर्जन को समझाया और दूसरे दिन से अपने बाग में माली के रूप कार्य पर रख लिया .

उन्हें सार्थक होता वह सपना दिख रहा था ...


उन्हें सार्थक होता वह सपना दिख रहा था ...
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वे प्रथम श्रेणी शासकीय अधिकारी हैं , उन्हें स्वयं के छोटे छोटे कार्य करना भाता है . एक सुबह अपनी कार की घर के सामने पोर्च में सफाई कर रहे थे . तब एक युवक उनसे पूंछकर पास आया . कहने लगा सर , आपकी कार में साफ़ करने का कार्य चाहता हूँ . वे उसकी बात सुन रहे थे , उस समय उनकी तेरह वर्षीया पुत्री रिची भी यह वार्ताल...ाप सुन रही थी . वे ,कम पढ़े-लिखे , थोड़े निर्धन से उस युवक को कोई उत्तर देते उसके पूर्व रिची ने आवाज दी -- पापा एक मिनट सुनिए .. उन्होंने युवक को रुकने कहा और बेटी की तरफ बढ़ गए . रिची ने उन्हें थोडा दूर साथ ले जाने के बाद कहा , पापा -- उसे काम दे दीजिये , हमें अपने आसपास के निर्धनों की इस तरह की अपेक्षा पूरी कर देनी चाहिए .. बेटी से ऐसा सुनते हुए उनकी रूचि बढ़ी उन्होंने सिर हिलाया . रिची ने तब आगे कहा .. अगर कम पढ़े लिखे इन गरीबों को साधारण आवश्यकता का धन परिश्रम से मिल सके तो वे चोरी , जेब-कतरने का कार्य या जुएँ और अन्य बुरे मार्ग से धन बनाने का कार्य शायद न करें . उन्होंने रिची से कहा तुम सही कहती हो . तुम्हारे कहने पर में उसे कार्य दे देता हूँ . वे युवक के पास वापिस आये , उन्होंने उससे उसका अपेक्षित राशि के बारे में जानकारी ले उसे दूसरे दिन से कार्य पर रख ने की सहमति दी . युवक जब चला गया तो वे मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे ..दो बातें इस सुबह की उन्हें अच्छी लगी थी --
एक --- सुबह उन्होंने आवश्यकता-मंद घर आये को निराश नहीं किया था .
दो --- अपनी बेटी में सह्रदयता के जिन संस्कारों का बीजारोपण उसके बचपन से कर रहे थे ... उन्हें सार्थक होता वह सपना दिख रहा था .

Tuesday, December 25, 2012

दोष स्वयं अपने जिस दिन पहचान के


दोष स्वयं अपने जिस दिन पहचान के 
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जितने हम उतने विचार किसी भी पहलु पर
आचरण ऐसा जो ना पहुचाये क्षति किसी को 
नहीं अखरता है मित्र या अपरिचित किसी को 
अतः सर्वमान्य इसलिए सदाकाल से अहिंसा  

दामिनी असम्मान प्रेरित हो रहे जो प्रदर्शन 
गर लेते प्राण या स्वास्थ्य किसी निर्दोष के 
अपराध नहीं कम वह दामिनी असम्मान से
अंतर क्या हुआ उस या इस अपराधी में तब 

पहले ने छीना जीवन स्वप्न नवयुवती का 
दूजा छीने परिवार भरण पोषण करने वाला  
अगर ना नियंत्रण आन्दोलन अभियान पर 
कृपया ना थोपो आप इस देश राजधानी पर 

भुगतता है देश अव्यवस्था पहले ही बहुत 
ना करो हिंसक आव्हान बढ़ा देते जो दुखड़े 
उचित है लें शपथ सामने स्व-अंतरात्मा के 
नहीं डिगेंगे हम सदाचार व नेक संस्कार से  

दोष व्यवस्था में दिखते हम सबको बहुत हैं 
पर दोष स्वयं अपने जिस दिन पहचान के 
राजेश करेंगे उन्हें दूर जब एक एक करके 
व्यवस्था दोष भी दूर होंगे एक एक करके 
 

Monday, December 24, 2012


नहीं मात्र दोषी दामिनी के दोषी बनते वे जीवन दायिनी के    
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प्रथम दृष्टया दिखते मात्र दामिनी अत्याचार के वे दोषी  
मनुष्य वेश में ऐसे पशु करते अबला पर जो अत्याचार 

नारियां मुख अपना छिपातीं जिन की कोख से वे जन्मते  
पले गोद पिता-भाइयों की लज्जावश सिर झुकता उनका

बहिनें उनकी स्वयं कुचलती अपने हाथ की वे अंगुलियाँ 
जिनसे रहीं रक्षा सूत्र थी बांधती कलाईयों पर पशुओं की 

जिन गावों शहरों में जन्मे जहाँ हुआ लालन-पालन उनका 
माटी धिक्कारे करती अचरज ऐसे नहीं थे संस्कार वहां के 

जिन पुरुषों पर हावी होते मन में कुत्सित ऐसे विचार 
राजेश करता हाथ जोड़ प्रार्थना करें स्वयं वे पुनर्विचार   

कृत्य अमानुष नहीं शोभित है सभ्य हुए मनुष्य समाज में 
नहीं मात्र दोषी दामिनी के दोषी बनते वे जीवन दायिनी के    

Monday, December 17, 2012

देवदूत





देवदूत 




                   मानव समाज चाहे इस देश का हो , देश के किसी धर्मावलम्बियों का हो , किसी भाषा भाषी का हो , देश के किसी क्षेत्र विशेष का हो या देश की सीमाओं से बाहर विश्व मानव समाज की बात ले लें , सभी में कुछ ना कुछ ऐसी बुराइयाँ हैं , जो सभ्य मानव समाज को शोभा नहीं देती हैं. ना सिर्फ ये चिंता की बात है , बल्कि विद्यमान बुराइयों का बढ़ता -क्रम ज्यादा चिंतित करता है . और भी बड़ी चिंता का विषय है विश्व मानव की आज की पीढ़ी में कोई एक व्यक्ति , संगठन , धर्म या कोई क्षेत्र मानव समाज में बढती बुराइयों की रोकथाम में सफल नहीं हो सका है . बल्कि कहा जाये तो इसके लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किये जा रहे हैं .
                बुराइयों के प्रति आज इनमें से कोई चिंतित होता है , तो वह संकीर्ण सोच के साथ बुराइयों से अपने परिवार , अपने धर्म या अपने देश को कैसे इन बुराइयों से, बचा ले इसके लिए ही उपाय करता दृष्टव्य होता है . बुराई को जड़ से निर्मूलन की बातें, चिंता करने का अभिनय मात्र सिध्द होता है . अन्दर का सत्य संकीर्णता ही होती है . जो अपने समझे जाते हैं , यह जो अपनी श्रृध्दा हम पर प्रगट करता है , बचाव के उपाय में इतनों की चिंता किसी भी प्रयास का कटु यथार्थ है .सभी को समालोचना के अंतर्गत ले लेने के बाद पढने वाले के मन में यह प्रश्न अवश्य उत्पन्न हो सकता है . लेखक बुराई की रोकथाम का कोई ठोस उपाय दे सकता है ? इस पर यहाँ उल्लेख उचित है , अब तक जो लिखा गया है वास्तव में दूसरे तरह की एक चर्चा की मात्र भूमिका है . और जो लेखक लिखने का लक्ष्य ले लिख रहा है वह आरम्भ अब होता है .

               पिछले 60-70वर्ष में हमारे देश में जिन बातों ने प्रमुख रूप से लोकप्रियता पाई उसमें हिंदी फिल्म , और दूसरा क्रिकेट खेल है . खेल को अलग रख यहाँ हिंदी फिल्म से सम्बंधित उल्लेख मूल कथानक है . हम सबने देखा है कई ऐसे अभिनेता और अभेनेत्रियाँ इस अवधि में आई हैं , जिनके प्रति देशवासी पागलपन की हद तक भी आसक्ति प्रदर्शित करते रहे हैं. एक अभिनेता जो इस तरह सफल हुआ , अपनी 45-50 वर्ष की उम्र तक लगभग 20 वर्षों तक सफलता के शिखर के आसपास रह सका है . इन 20 वर्षों में आज के रुपये शक्ति अनुसार 100 से 200 करोड़ तक की संपत्ति बना लेना उसके लिए कठिन नहीं रहा है . फिल्मों में आने के पहले ,ऐसा सफल होने वाला कोई अभिनेता अपवाद में ही मध्यम वर्ग से अधिक आर्थिक हैसियत का रहा हो . सब मध्यम वर्गीय पृष्ठ-भूमि से आकर ही इस अति संपन्न कहलाई जाने वाली संपत्ति के अधिकारी हुए .
              अर्जित संपत्ति भी लेख का विषय वस्तु नहीं है .मोटे तौर पर एक अति सफल अभिनेता के प्रशंसक देश के 10 करोड़ लोग रहे , इन्होने अभिनेता की निर्मित 100 केन्द्रीय भूमिका वाली फिल्मों में से औसतन 20 फ़िल्में उसके प्रति पसन्दगी रहते देखी . एक फिल्म के लिए 3 घंटे लगते हैं , इस तरह प्रत्येक ने 60 घंटे उस अभिनेता के कारण अपने जीवन के उस पर लगाये . इस तरह 600 करोड़ घंटे कुल (देश) के उस अभिनेता पर व्यय किये गए,दिन के समतुल्य कहे जाएँ तो ये 25 करोड़ दिन होते हैं, और इनका वर्षों में कहा जाये तो लगभग 6 लाख 85 हजार वर्ष होते हैं . फिल्मों से दर्शक ने कोई अच्छी शिक्षा ली उसमें पूरा संदेह तो है ही , उसे छोड़कर लिखूंगा , दर्शकों ने कुछ विशेष पाया हो नहीं लगता पर अभिनेता ने एक बड़ी प्रसिध्दि , लोकप्रियता और संपत्ति अवश्य प्राप्त की . ऐसी प्रसिध्दि 20 वर्षों के सार्वजनिक जीवन में किसी भी अन्य क्षेत्र में मिलना असंभव सा है. जबकि बौध्दिक , मानवीयता यहाँ तक की रूप-सौन्दर्य की दृष्टि से समकालीन उनसे बेहतर अनेकों इसी देश में उपलब्ध थे . अंतर ये था , उन्होंने फिल्मों में आने में रूचि नहीं ली या अगर ली भी तो उन्हें वे अनुकूल परिस्थिति नहीं मिल सकीं जो फिल्मों में आने में सफल को सप्रयास या अनायास प्राप्त हुईं.
             सामान्य मनुष्य के जीवन की औसत आयु 68.5 वर्ष लें तो उपरोक्त वर्णित देश के व्यय घंटे 10000 मनुष्य जीवन के तुल्य होते हैं . स्पष्ट है देश ने उस अभिनेता के लिए 10000 मनुष्य जीवन दिए . दूसरे शब्दों में अभिनेता को एक जीवन में जो दिया गया वह उसके 10000 मनुष्य रूप जीवन समतुल्य दिया गया . अपने 1 जीवन में ही 10000 जीवन के बराबर का प्रेम ,लोकप्रियता और प्रसिध्दि प्राप्त करने वाले किसी व्यक्ति का इस देश , समाज और मानवता के प्रति कर्तव्य बहुत बड़ा बन जाता है . लेकिन उपलब्ध सम्मान भाव से अभिनेता दर्प में चूर हो जाते हैं ,वैभव के कारण सुविधा के आदी होते हैं , और विलासिता में डूबते हैं . अतः उन्हें इस दृष्टिकोण से वस्तुस्थिति को देखने चेतना नहीं रहती है .
         
               जिस तरह सौन्दर्य प्रसाधन को चेहरे पर चढ़ाया जाता है , सोने के पूर्व उसे विधिवत उतारना भी आवश्यक होता है . उसी तरह जीवन में अहंकार , विलासिता और उपभोग अपने ऊपर चढ़ा लेने पर , जीवन समाप्ति के पूर्व उन्हें विधिवत तज देना उचित होता है . इतिहास में विलासिता ,प्रतिष्ठा और दर्प की अधिकता मरते तक कायम रखने के अनेकों उदहारण मिलते हैं . चाहने वालों के जीवन काल तक तो ऐसे मरने वालों की यदा कदा चर्चा मरने के बाद शेष रह जाती देखी गई है. पर 50 -60 वर्षों बाद सब विस्मृत कर दिए जाते हैं. लेकिन अपने जीवन में ही जिन्होंने यह सब अर्जित किया और मरने के पूर्व इनके मोह से छुटकारा प्राप्त कर अधेड़ावस्था से धीरे -धीरे सात्विकता जीवन में ला परोपकार के कार्य किये , वे अपवाद हैं ,गिने चुने हैं और अमर हो गए हैं, इन्हें चिरकाल तक मानव समाज उनके योगदान के लिए स्मरण करता है .




                          एक वह जिसको ज्यादा जाना पहचाना नहीं जाता है , वह जो भी अच्छा -बुरा करे उसका ध्यान थोड़े ही कर पाते हैं . ऐसे जन सामान्य कई हैं . ये बुरे कर्म के उदहारण भी बनें तो समाज दिग्भ्रमित हो ,सम्भावना थोड़ी होती है . लेकिन जिन्हें चाहने वाले करोड़ों की संख्या में हों , उनके छोटे छोटे कर्मों को भी गंभीरता से ध्यान किया जाता है . वे जीवन में अति विलासिता (चमचमाती महंगी कारों , अति सुविधा-जनक बंगलो में , महंगे आभूषणों और वस्त्रों में हर समय दिखते या दिखाए जाते हैं ) , दैहिक संबंधों में भारतीयता की सीमाओं का उल्लंघन के लिए चर्चित होते हैं तो प्रशंसक वर्ग भी ऐसी ही प्रेरणा लेता है . कहीं और ये उतना बुरा ना भी माना जाये , पर भारत में जहाँ आधी से ज्यादा जनता दूसरे दिन क्या खायेंगे या पहनेगे और अपने बच्चों की स्कूल के शुल्क कैसे जमा करेंगे , उनकी किताब-कापियां कैसे दिलाएंगे इसको लेकर चिंतित होती है . इसे अनुचित कहा जायेगा . आम संघर्षशील व्यक्ति गरीबी (अपनी ) और अति विलासिता (दिखाई जाती ) के बीच द्वन्द में घिर , परिश्रम छोड़ बुरे मार्गों से ज्यादा और शीघ्रता से धनार्जन की दुष-प्रेरणा ले समाज में बुराई बढ़ाने वाले कर्मों को प्रवृत्त होता है. चरित्र के भारतीय मानदंड से विचलित होता है. 

                असामान्य सफलता अर्जित करने के बाद भी वे सामान्य मनुष्य जैसे अपने कर्तव्य की सीमा अपने घर-परिवार तक सीमित रखते हैं. और 45 -50 वर्ष के बाद भी चिंता अपनी और परिवार की संपत्ति और बढ़ाने के लिए कर बाद में भी आय के साधन ही बढ़ाते हैं . जबकि संतानों के लिए 10-20 करोड़ भी रखें और फिर इसमें वृध्दि के लिए उन पर विश्वास रखें तो कोई अन्याय नहीं होता है. प्रचुर धन-संपत्ति की विरासत संतानों को विलासिता जन्य दुष्प्रभावों में डालती है . इसके विपरीत ठीक-ठाक आर्थिक दशा सृजनशीलता के प्रति जागरूक रखती है .
             अगर वह सफल अभिनेता ,सफलता के इस शिखर पर आ 50 वर्ष के बाद का अपना जीवन स्वयं हेतु धनार्जन में ना लगा शेष 20- 25 वर्ष इस देश या मानव समाज से बुराई कम करने के लिए काम करे .समाज में बुराई क्या हैं ?अध्ययन करे . उन्हें एक बड़ा प्रशंसक वर्ग हासिल है , उनका नाम तथा व्यक्तित्व सर्वविदित है इस कारण उनके कार्य और सन्देश आसानी से लोगों में सद्प्रेरणा के रूप में प्रसारित हो सकते हैं . और इस तरह समाज से बुराइयों में कमी लाइ जा सकती है. अपनी आसक्तियों पर नियंत्रण कर अगर कोई अभिनेता ऐसा कर सकता है तो वह स्वयं को ईश्वर का भेजा देवदूत सिध्द कर सकता है . वह ऋण जो प्रशंसकों के प्रेम से उस पर चढ़ता है को भी अपने जीवन में उतार इतिहास पृष्ठों पर अमर हो सकता है. मानव समाज में बढती बुराइयों की रोकथाम में सफल हो सकता है . एक पहला ऐसा देवदूत आने वाले समय में और भी देवदूतों की परम्परा डाल सकता है . 



Tuesday, December 11, 2012

आओ करें हम सम्मान अपनी माताओं का


आओ करें हम सम्मान अपनी माताओं का

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हम युवा हैं , पढ़ लिख रहे हैं तो   इस दृष्टिकोण से अपनी माँ को देखें 
अबोध थे हम ,जब नहीं ज्ञान था तब  आवश्यकता हमारी रोने से समझी 

लथपथ अपनी गंदगी से त्रस्त होते जब,  चिंता से हमें नहलाती , धुलाती 
आरम्भ किया पाठशाला जाना हमने तो  सर्दी में भी धुंधलके रहते जागती 

उदरपूर्ति हेतु हमें क्या पसंद , पौष्टिकता ध्यान रख सदा दूध-रसोई बनाई
लालन-पालन और गृहस्थी कार्य में दर्द को हमारे अपने से ज्यादा समझती
लीन हो चाहरदिवारियों में कैद सी रहकर ही वर्षों, अपना जीवन बिता दिया
युवा से वे अध्-बूढी हो गईं, युवा हो हम खोये अपने सपनों के उधेड़-बुनों में
कर देते बच्चे उनकी उपेक्षा, चल रहा यह क्रम यद्यपि सृष्टि आरम्भ से
पर 
माँ-पिता उपेक्षित, पहले से ज्यादा आज हुए, युवा ज्यादा महत्वकांक्षी  

वह तो माँ महान है बच्चों की उपेक्षा  सहकर भी, शेष जीवन बिता लेती है
सम्भावना 
पर मैंने अनुभव की है,  मेरी अपनी माँ को देख और समझकर 

चाहरदिवारियों के बाहर आतीं तो  पातीं, जीवन उपलब्धि अनेकों से बढ़कर
अपने नाम उपलब्धियां जोड़ सकती थीं, ना रखी उन्होंने ऐसी महत्वाकांक्षा    

समर्पित जीवन गृहस्थी -बच्चों में, 
संतोष किया परिजन उपलब्धियों के लिए 
कम से कम उनके त्याग इस महान का, हम करे सम्मान उनका इस तरह से  

प्रशस्त किया संस्कारों से जिस पथ पर, 
आगे बढ़ते हुए अपने पूर्ण सामर्थ्य से  
रत्न समाज या रत्न विश्व हेतु अपने को, नेक कर्मों से हम सिध्द कर सकें तो 

आडम्बर सम्मोहन के कारण मानव अब भ्रमित हो, मानवता से दूर जा रहा 
वापस उसे लाने के लिए यदि प्रयत्न हम करें तो कर पायेंगे सम्मान हम उनका 

माँ देती है सब हमें और मांगती कम हमसे, अनकही अपेक्षा यदि हम समझें तो
उपलब्धि अपनी ,
उनके लिए अर्जित हम करें तो गौरवान्वित अनुभव वे करेंगी  

बन कर ऐसी संतान हम सभी, आओ करें हम सम्मान अपनी माताओं का
माँ सम्मान में छिपा हुआ है हित हमारा ,समाज ,विश्व और मानवता का 

Sunday, December 9, 2012

लौट आओ भारतीय संस्कृति की सीमाओं में

लौट आओ भारतीय संस्कृति की सीमाओं में 

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विक्रयकर्ता के वस्तु मूल्य बताने पर
क्रयकर्ता मन शंकित हो उठता
वह लगता मोल भाव है करने
स्थिति वही वस्तु वजन की होती

क्या ऐसी पहले भी थी स्थिति ?
क्या तब था लेनदेन में अस्तित्व शंका का ?
क्या चिंता थी अधिक लाभ कमाने की ?
या संतुष्टि थी प्रमुख लेनदेन में ?

अगर यह लगता हमें है ,ऐसा नहीं पहले था
तो विचारें उन कारणों को हुए अब परिवर्तित हैं
बढ़ा लालच है प्रथम है कारण
खोता चरित्र भी है प्रमुख समस्या

मानवीय संवेदना ह्रदय में मुरझा रही है
सबको अब मात्र अपनी चिंता है
धन का महत्व हम इस तरह बढ़ा बैठे
अपने ऊपर बोझ गिरा बैठे

धन कमाने में नैतिकता छूटी
धन की चिंता में परोपकार भूल बैठे
जब आया धन अधिक हमारे पास तो हमने
सुख की निद्रा स्वयं अपनी ही खो दी

भले कर रहे सब निंदा हमारी
दूसरे के ऐसे कर्म लगते हमें निंदनीय
पर इन पर हम कान ना धर पाते
नेत्र दोष हमारे हो गए  

 भूखे दरिद्र के दुःख हमें न दिखते
वस्तु क्या मनुष्य भी विक्रय हेतु दिखते
कहीं खरीदते ठुमके सुंदरियों के
कहीं लगाते मोल लाचार की देह क्रय को

बिकने वाले भी धन लालच में
खोते मर्यादा और लज्जा समाज में
जहाँ नहीं जागृत मन को वश कर सकते
धन से ले मदिरा बांटते
मदिरा नशे में चूर हो कोई जब तो
फुसलाना उसे सरल हो जाता

धूर्तता के इन उपायों से
जो ना था इस देश का भोज्य
संस्कृति में जो था अब तक वर्जित
हुआ अब वह दैनिक प्रयोग में

जो भारत की पहचान थी विश्व में
जिस पर था गर्व हमें
कहते थे हम गौरव गान में
सारे विश्व से भारत महान है

ना भाता था शेष विश्व को
षड्यंत्र रच ईर्ष्यालु अन्य ने
किया गडमड्ड संस्कृति को भारत की
विश्व की दूसरी हीन संस्कृतियों में

अब भारतीय नहीं रह गए निराले
सुविधा भोगी बन रहे एक जैसे ही
आने वाले समय में दिखेगा
बुरा प्रभाव अभी से ज्यादा

मानव नहीं जीवन्तता से जियेगा
मनुष्य जीवन जो मिला अनमोल उसे
मदहोशी और स्व-लालच में
उसे पता न होगा कैसे गया यह जीवन बीत

राजेश का अति आशावान आव्हान है फिर भी
लौट आओ भारतीय संस्कृति की सीमाओं में
जिस तरह बदल रहे अन्य हमें आज
ले चुनौती बदलों उन्हें इस संस्कृति में  
समाज सुखी और विश्व सुखी तब ही होगा
मनुष्य सही अर्थों में मनुष्य रह सकेगा
परिवर्तन का अवसर आज हमारी पीढ़ी को
हम खोएंगे तो कोई जागरूक पीढ़ी भविष्य में
लेगी कर्तव्य यह अपने ऊपर
क्योंकि बचाने को मानव अस्तित्व  
इस पृथ्वी पर है मात्र यही विकल्प 

Saturday, December 8, 2012

भारत के हम हैं इसलिए बने आचार-विचार से भारतीय


भारत के हम हैं इसलिए बने आचार-विचार से भारतीय 

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चरित्र पति का नहीं ठीक हो ,नहीं ऐसा पत्नी को भाता
चरित्र-हीन पत्नी हो जाये ,नहीं ऐसा कभी पति चाहता 

भारतीय संस्कृति में परिवार नींव थी विश्वास आधारित
इस धरती ,समाज में पाश्चात्य प्रभाव के बढ़ने से पहले 

लोक-नाट्य ,लोक-झांकिया ,लोक-नृत्य और संगीत में 
प्रदर्शित और प्रचार कर नित दी यही जाती प्रमुख प्रेरणा

दाम्पत्यसूत्र सुखद निभता ,अवसाद मात्र अपवाद में होता 
चंचलता पर मन की सबकी सद-प्रेरणाएं रखती थी 
अंकुश

सर्व-मान्य , सर्व-विदित सिध्दांत पालन यह सर्वथा होता
एक पति ,पत्नी का प्रावधान ही रखा गया है संविधान में

विवाह विच्छेद ना हो तनिक मत-भेद या छोटे कारणों में
नियम ,न्यायालयीन प्रक्रिया भी हेतु अति कठिन बनाई

परतंत्रता ,बाह्य अपसंस्कृति ने विष बीज जो डाल दिए थे
आधुनिक माध्यम के प्रयोग से फैलाये स्वयं अपनों ने ही

जो ना था समाज यथार्थ , वह दर्शाया सामान्य घटना सा
औचित्यपूर्ण ठहराए जाते विवाहेतर ,विवाह पूर्व सम्बन्ध

जोर-शोर ,चमक-दमक से 
नाम दिया जाता आधुनिकता
धीरे -धीरे धुलते गए 
ह्रदय से संस्कार जो शताब्दियों से 

स्वछंद व्यवहार अपनाकर ,चरित्र महत्व विस्मृत हुआ 
दाम्पत्य-सूत्र टूटने होते ,अवसाद 
परिवार में छा जाता

कितने भी आधुनिक हो जाएँ अगर भारतीय हो कोई तो 
विस्मृत भले उपरी ह्रदय सतह से पर जड़ में बैठी गहरी 

राजेश ने किया अनुभव छोटे अपने अब तक जीवन में
चरित्र प्रमुख हर परिवार सदस्य में वहां सुखी सभी होते 

ना धन ,ना सुविधा अधिक दिलासा दे सकती हैं मन को
भारत के हम हैं इसलिए बने आचार-विचार से भारतीय 

Tuesday, November 27, 2012

माध्यम कैसा जिम्मेदार राष्ट्र का?


माध्यम कैसा जिम्मेदार राष्ट्र का?
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मात्र एक पुरस्कार को वंचित
देख दुःख वंचित पुत्र के 
आया पिता को रोना बहुत
क्यों न हो , वह ह्रदय पिता का

वर्षों कर प्रशंसा गरीब राष्ट्र ने
दी प्रसिध्दी और बहुत संपत्ति 
स्वयं रहते आधे भरे पेट और
खरीद टिकट देखते सिनेमा वे

वंचित जीवन मूल सुविधा से
ऐसे देश के आधे नागरिक 
उनके प्रति दायित्व था होता
ना करते उन्हें दिग्भ्रमित तो 

यही बहुत सम्मान होता उनका 
गर दिखाते सच्चा जीवन सपना
हित साधने अपने अपने दिया 
उन्हें आडम्बर का थोथा सपना 

माध्यम कैसा जिम्मेदार राष्ट्र का?
बना दिया भ्रम प्रचार फैला कर
कोई कहे महान पिता उन्हें तो  
मुझे या अन्य को नहीं आपत्ति 

पर जब सब कहें महानायक तो
मुझे ना लगती बात वह सच्ची
महानायक वह त्यागे हित स्वयं के 
अपमान शब्द का दें गर ऐसों को
 




प्रेम मूल मन्त्र सुखी समाज लिए होता

प्रेम मूल मन्त्र सुखी समाज लिए होता
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प्रेम एक अति मधुर प्रचलित शब्द
जो प्रथम दृष्टया मिश्री घोलता
मीठे में कीड़े लगने की आशंका
अतः कठिन प्रेम सम्हालना होता

प्रेम डालता प्रेमियों पर जिम्मेदारी
जब ले रहे प्रेम को सीमित अर्थ में

प्रेम भाव प्रमुखतः ह्रदय से होता
किन्तु आज इसे मात्र तन से जोड़ते

पति-पत्नी मध्य जो प्रेम है होता
वह मन अतिरिक्त तन साथ होता
अन्य संबंधों में प्रेम ह्रदय में होता
अति विस्तृत प्रेम की सीमा होती

जहाँ प्रेम वहां सामीप्य में प्रसन्नता
प्रसन्न ह्रदय आत्म विश्वास जगाता
जिनमें प्रेम उनमें आदर भाव जागता
अतः बैर मिटाने प्रेम एक आवश्यकता

जहाँ प्रेम वहां रक्षक भाव भी होता
रक्षा हेतु आती एकता और वीरता
जिससे प्रेम उस पर यदि आता संकट
करुणा,त्याग भाव तब ह्रदय में आता

पवित्रता ,मधुरता,विश्वास , प्रसन्नता
रक्षा , त्याग, करुणा ,एकता और वीरता
जहाँ प्रेम वहां सब अस्तित्व में होते
प्रेम मूल मन्त्र सुखी समाज लिए होता

बहु प्रचारित किया अर्थ आज प्रेम का
प्रेम को जकड़ा सीमित अर्थ में
जब जगती वासना किसी साथ में
उसे बताया जाता प्रेम उनके बीच में

वासना फिसलती वह अति चंचल होती
अतः कई साथ छल करने का कारण होती
प्रेम भाव और प्रेम शब्द अति पावन होता
पर वासना ,छल में छद्म प्रेम बताया होता

प्रेम मिटाता शत्रुता पर बना अब कारण बैर का
मिटाता बैर ,वह प्रेम भारतीय होता
पाश्चात्य प्रभाव से प्रेम छद्म हो लाता बैर
राजेश चाहे उपाय भारतीय प्रेम प्रसार का                                                   

Monday, November 26, 2012

क्षमता सच्चे नायक पहचान की खोते


क्षमता सच्चे नायक पहचान की खोते 

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कौन माता-पिता ऐसे जो संतान से कहते 
ज्यादा धन अर्जन के पीछे न पड़िये
स्वच्छ मार्ग और मेहनत से आ जाये 
उस धन से मित व्ययी हो यापन करिये

यदा कदा जहाँ संस्कार ये दिए जा रहे 
वहां बाहर के वातावरण प्रभाव दिखा रहे 
संतान द्वन्द भ्रम भंवर में पड़ रही
क्योंकि लक्ष्य आडम्बर रख भागते सब दिखते


जिनके भव्य गाड़ी , परिधान और बंगले
अहम् जिनके उपलब्धि कारण बड़े हैं
अहम् और आडम्बर को प्रभाव में ले वे
बाध्य ,मासूमों से बहु शारीरिक सम्बन्ध बनाते

आधुनिक माध्यम यह जीवन सफल बताते
युवा उन्हें आज आदर्श व नायक मानते
फिर प्रयास उसी पथ चलने का करते
क्षमता सच्चे नायक पहचान की खोते

दौड़ ,भाग ,चिंता और तनाव में उलझते
उर्जा बचती नहीं विवेक जगा समझते
संक्षिप्त मार्ग धन अर्जन को तलाशते
भौतिक सामग्रियां एक एक कर जुटाते

वही शिक्षा -संस्कार अपने बच्चों को देते
सम्पति जो स्वयं बनाने में असमर्थ रहते
महत्वाकांक्षा इस अधूरी को उन पर डालते
स्वयं और बच्चों को भोगवादी बना डालते

तीस चालीस वर्ष में ही रोग उन्हें आ घेरते
व्यस्तता ऊपर उपचार हेतु समय कारण से
समय कमी माँ-पिता प्रति कर्तव्य निभाने
न रही अच्छी संतान अब गूँज सब दिशा में

चेताया था वैयक्तिक भोगवाद एक विषधारा
कर रचना पचास वर्ष पूर्व राष्ट्र-कवि ने सबको
'राजेश' करते हुए यह उल्लेख दाद नहीं चाहे
समस्या उन्मूलन हेतु विवेक विचार मात्र चाहे

Saturday, November 24, 2012

'राजेश' का आव्हान 'सरोवर'


'राजेश' का आव्हान 'सरोवर'
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रचते स्वयं वे साहित्य पुष्प हैं 
सजाने एक साहित्य सरोवर को 
पर जब लगाते पुष्प गुच्छ हैं 
वे चुनते अन्य रचित पुष्प हैं 

उनकी भावना उतनी ही पावन
गई थी लिखी अभिलाषा पुष्प की
मुझे तोडना वनमाली तुम और
करना समर्पित मातृभूमि वीर को   

भावना से सजता साहित्य सरोवर
वह उत्कृष्ट और अनुकरणीय होती 
साहित्यकार दे निस्वार्थ योग अपना 
रूप देते निर्मल साहित्य सरोवर का 

ऐसे भाव यदि रखें अन्य भी
अपने अपने कार्यक्षेत्र में 
स्वार्थ रहित कुछ योगदान से
प्रेरणा मिले यदि आज युवा को 

समवेत प्रयास से कुछ साहसी के
तब बनेगे कुछ चिकित्सा सरोवर
न्यायालय निर्मल न्याय सरोवर
होंगे सब धर्मालय ,धर्म सरोवर  

बनेगे कई निर्मल ज्ञान सरोवर
होगा निर्मल एक समाज सरोवर 
कहलायेगा पवित्र राष्ट्र सरोवर 
प्रेरित होगा सम्पूर्ण विश्व सरोवर 

चलें पथ निर्मित करने सरोवर
करें सार्थक यह मनुष्य जीवन 
पछतावा मौत सम्मुख हमें ना 
क्योंकि होंगे पूरे दायित्व हमारे 

'राजेश' का आव्हान 'सरोवर'
निर्मित करें अपने कार्यक्षेत्र में  
सबके कार्य अति महत्वपूर्ण है
संपन्न यदि हो पूर्ण न्याय से  




पाश्चात्य प्रभाव में खोया अर्थ

पाश्चात्य प्रभाव में खोया अर्थ
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पाश्चात्य प्रभाव में खोया अर्थ
प्यार के किस्से जो हुए आम
प्यार शब्द मनो-विकृति पर्याय
प्यार नाम से नित नए धोखे

इस धोखे से कई हो प्रभावित
क्षमता होती जब उच्च जीवन

युवा जाते हैं अवसाद में तब
मै ना करूँ शब्द प्यार उपयोग

जहाँ होता था भाव त्याग का
जहाँ होता था निस्वार्थ लाड़
मै सबसे रखता लाड़ हूँ अतः
नहीं कहूंगा करता प्यार आपसे

असमय मौत नहीं कोई समाधान है

असमय मौत नहीं कोई समाधान है
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किसी मौत पर उत्सव नहीं उचित
मौत मिटाती आशा परिजन ह्रदय की
जिन बुराईयों के होने से किसी की
हमें लगती मौत उत्सव सी उसकी

सब की हो कामना ऐसी ख़त्म उसमें
हों बुराइयाँ जीवन में मौत के पहले ही
...

साथ ही प्रयास निर्मूल वे कारण हों
जिनसे उपजती बुराई ऐसी किसी में

यद्यपि दिखती बुराई मनुष्य छोटे में
जबकि यह असफलता समाज पूरे की
बढ़ने के पहले बुराइयाँ इस सीमा तक
क्यों ना मिलती प्रेरणा पहले रोक की

असमय मौत नहीं कोई समाधान है
उचित करना और प्रेरणा दे सकना
सब का जीवन लक्ष्य हो ,समाधान है
करें साहस नष्ट बुराई विष बीज हों

"कहते ज्ञान खोल देता चक्षु"

 "कहते ज्ञान खोल देता चक्षु"

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छीन के कुछ किसी से कोई
कितने दिन सम्हाल रख पायेगा
या जो नहीं छीना भी किसी ने
कितने दिन कोई सम्हाल पायेगा

बारी जाने की तो बिना छीने
किसी के स्वयं छिन जायेगा
कैसा अंधत्व दिखता रोज पर
होता नहीं स्पष्ट यह सच हमें है

धन लोलुपता में प्राण ले लिए
अमर है क्या? जो धन को इस
अपने पास बचा रख पायेगा
छोड़ यहीं स्वयं वहीँ चला जायेगा

कहते ज्ञान खोल देता चक्षु ऐसे
भेद उचित अनुचित बीच में होवे
और कहते ज्ञान अर्जित कर रहे
आज लोग अपेक्षा पहले से ज्यादा

फिर आज का ज्ञान है ये कैसा ?
उठती दीवार गृह बीच भाइयों में देखी
न मिली खुदाई मोहन जोदड़ों में ऐसी
हीन? विकसित या वह सभ्यता बोलो..

स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें

स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें
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घूम रहे दो व्यक्ति इस तरह
नीयत एक की दिखे कोई सीधा
जिसे कम यत्न से मै ठग लूं
दूजा देखे कौन विपत्ति में
जिसकी सहायता मै कर दूं
दोनों की इन दृष्टि को देखकर
अधिकांश भावना दूजे की सराहें
संस्कार मिले परिजन ,धर्म से
अच्छी बात मन अच्छी माने

फिर जब अपनी करनी पर आयें
क्यों पलड़ा पहले तरफ झुक जाए
स्वार्थवश अपने हित की सोचते
निस्वार्थ सहायता कम कर पाते
सबको इस भांति करते देखते, सुनते
सब ही इसी रास्ते चल पड़ते
फिर दोष समय पर मड़ते
समय ख़राब आया है कहते
किसी को अन्य की चिंता न होती
सबको चिंता अपने भले की होती

हम घर दरवाजे मजबूत बनाते
मूल्यवान घुस चोर न ले जाये
पर कमजोर किये ह्रदय द्वार हमने
अवगुण चोर घुस अन्दर ह्रदय में
मूल्यवान गुणों को हर रहे
जिस तरह मेहनत लगे
मजबूत घर द्वार बनाने
उसी तरह ह्रदय द्वार हेतु भी

संकल्प यदि मजबूती का न करें
तो आएगा समय और ख़राब ही
कहते स्वयं को बच्चों का हितैषी
ख़राब समय यदि लाये बच्चों पर
तो क्या सचमुच हम रहे हितैषी?

करें मंथन अगर लगे उचित तो
आसक्तियों पर लगायें पाबंदी
करें त्याग बांटे मिठास थोड़ी
अन्य भी चख सके जीवन मीठा
देखें जब अन्य ऐसा करते आपको
प्रेरणा शायद ले सकें वे थोड़ी
तब आने वाला समय शायद
नहीं होगा ख़राब आज सा
बच्चे हो सकें निहाल जिसमें
और दे सकें अच्छे संस्कार भी
होने वाले अपने बच्चों को
अगर जो हो सकें हम
अच्छे माता-पिता अपने बच्चों के
तब ही वे हो सकेंगे ऐसे
अपने बच्चों के लिए भी
यह थी इस माटी की परम्पराएँ
स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें
स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें

Saturday, November 17, 2012

आँखें मेरी भर आती हैं

आँखें मेरी भर आती हैं
 
धन की सत्ता बढ़ी यूँ है
मानव मन बेखबर यूँ है
करुण दृश्य दिखते यूँ हैं
आँखें मेरी भर आती हैं

आये कोई भोजनालय में
थोडा खा उठे पर भूखा ही
भूख तो रह गई अभी शेष 
पास चुकाने धन नहीं शेष

उपचार कराने जाता रोगी
सुन कीमत उपचार दवा की
लौटे इलाज अधूरा कराये कि
पास चुकाने धन नहीं शेष 
     
देखते करुण दृश्य आसपास
पीड़ा अनुभव कर पाते नहीं
धन अभाव में रोगी व भूखे
बाध्य हो नित यूँ जी रहे हैं

जीवन मोह रहता है शेष                         
उदर क्षुधा रहती है शेष         
उठे यों बीच से कोई जब     
आँखें मेरी भर आती हैं

सम्मोहित हो आडम्बर में
अग्रसर दयाहीन दिशा में
समाज यूँ दिग्भ्रमित जब                           
आँखें मेरी भर आती हैं

मस्तिष्क विवेकशील जब                             
भूल अनुभव करेगा क्या
मन में है ये विश्वास मेरे
आएगा सही पथ ये समाज

जीवन न राजेश बहुत शेष
रहेगी क्या ये जिज्ञासा शेष
या हो सकेगी ये भूल सुधार
आँखें मेरी भर आती हैं

(संपादित)
--  राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
28.04.2020


                     ऑंखें मेरी भर आती है ----------
        
        धन की सत्ता यों बढ़ी है
                                               मानव मन बेखबर यों है
        करुणा दृश्य दिखते यों हैं
                                              ऑंखें मेरी भर आती है
        आये कोई भोजनालय में
                                              पर उठे भूखा खा थोडा ही 
        भूख तो रह गई अभी शेष   
                     पास चुकाने धन शेष

                      रोगी जाता उपचार कराने
                               कीमत सुन दवा उपचार की
          लौटे अधूरा उपचार कराये
                               पास चुकाने धन  शेष           दृश्य देखते आसपास जन
                               नहीं कर पाते अनुभव पीड़ा
          धन अभाव में रोगी भूखे
                               बाध्य यों हैं नित हो रहे
           जीवन मोह रहता शेष है                              उदर क्षुधा रह गई शेष है          उठता बीच से यों कोई है    
                               ऑंखें मेरी भर आती है.
           सम्मोहित हो आडम्बर में
                              अग्रसर दयाहीन दिशा में
          दिग्भ्रमित होता समाज है                              ऑंखें मेरी भर आती है.
           मनु मस्तिष्क विवेकशील                              भूल अनुभव करेगा वह
          है विश्वास मन में मेरे
                            आएगा सही पथ ये समाज
          जीवन राजेश बहुत शेष
                             जाऊंगा रख जिज्ञासा शेष
         कब होगी यह भूल सुधार?
                             ऑंखें मेरी भर आती है 


                               --  राजेश जैन