Thursday, August 29, 2019

रह जायें आरज़ू कुछ अधूरी ही
चाहे बिगड़ जाये कुछ चेहरा भी
तय है यह मगर जब मरेंगे हम
रहेगा दिल हमारा खूबसूरत ही
हताशा को हमने बुलाया कभी नहीं
ठसियल मगर सिर उठाये चली आती है अक्सर

Tuesday, August 27, 2019

हर लम्हा गुजरता है
हर इंसा गुजरता है
कद्र रहे लम्हे और इंसा की
कि हमें ख़ुद भी तो गुजरना है

ज़िंदगी में मुहब्बत मिले - जरूरत सब की है
चलो ये जरूरत आपकी - हमसे मुकम्मल है

ज़िंदगी से हमें सब हार ही जाना है तब
उससे जीत कर दिल न उसका दुखायेंगे
ख़ुश उसे देख देख कर
हम ज़िंदगी से जीत जायेंगे

ताने उलाहने देना हमारी ही कमजोरी होती है
हम लेकिन इससे प्रताड़ित अन्य को करते हैं

हम चाहें तो अपनी बुध्दिमत्ता से किसी बुरे को अच्छा बना सकते हैं
लेकिन उस पर अपनी श्रेष्ठता देखने के लिए उसे बुरा ही रहने देते हैं

Wednesday, August 21, 2019

सुख में तेरे साथ चलेंगे ...

सुख में तेरे साथ चलेंगे ... 

यह उलाहना सर्वथा अनुचित है कि सब मात्र सुख के साथी होते हैं। वस्तुतः खून के रिश्तों (स्वयं जुड़े होते हैं) के अतिरिक्त प्रायः हर कोई (लेखक स्वयं भी) किसी से जब जुड़ता या किसी को अपने से जोड़ता है तो प्रमुख अपेक्षा उससे अपने लिए सुख सुविधा या अनुकूलतायें सुनिश्चित करने की होतीं हैं। यह कहना भी अनुचित होगा कि विपरीतताओं या हमारे दुःख में कोई काम नहीं आता है। हमारा हितैषी या मित्र हमें कठिन घड़ी में निश्चित ही साथ देता है लेकिन उतना जितना उसका सामर्थ्य होता है या जितना उसके लिए बहुत असुविधाजनक नहीं होता है।
हम जब ज़माने पर यह उलाहना रखते हैं कि "दुःख में सब मुहँ मोड़ेंगें" तो वास्तव में यह, हमारे मन में स्वार्थ प्रेरित निज अपेक्षाओं की अधिकता से उत्पन्न होता है। जब मन में ऐसे उलाहने आने लगें तो कठघरे में हम स्वयं को खड़ा करें और अपने पर आरोप लगायें कि - किसी की कठिन घड़ी में हम, कब-कब कितना-कितना किस-किस के काम आये हैं?
इसका उत्तर ईमानदारी से जो हमारा होगा बस उतने मौके, उतनी मात्रा और उतने लोगों से ही अपनी कठिन घड़ी में साथ की अपेक्षा आगामी जीवन मेंहम  रखें तो न तो निराशा होगी और न ही ऐसे उलाहने हमारे मन में रह जायेंगे। यह लेखक मानता है कि इस विवेक विचार के कर लेने के बाद कोई भी पहले से ज्यादा परोपकार करने को प्रेरित होगा। जो स्वयं के साथ ही समाज का सुखद होना सुनिश्चित करता है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
22-08-2019
जिसमें सवाल का जबाब सवाल होता है
उस विधा में पारंगत है अब का ज़माना

Tuesday, August 20, 2019

एक बक़वास

एक बक़वास ...


फ़िजा लिखें, वादियाँ कहें या गुलिस्तां बतायें इस ज़मीं को
जिसमें गुजर कर गईं, करतीं, कर जाती ज़िंदगियाँ अनेकों हैं
हमारी तरफ ग्रामीण क्षेत्र में विशेष कर किसानों द्वारा मनाया जाने वाला एक पर्व होता है। इस दिन किसान अपने उन बैलों को जिनका उपयोग उन्होंने कृषि कार्यों में लिया होता है, के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए सजाया करते हैं। इस पर्व को यहाँ पोला कहा जाता है। इसमें बैल जोड़ियों की दौड़-स्पर्धा भी हँसी-ख़ुशी आयोजित की जाती है। बचपन में हमें यह दौड़ देखने की बेहद उत्सुकता रहती थी। अब सोचते हैं, बेचारे बैल, इस एक दिन कितने भी सजाये जायें रहेंगे बैल ही और जोते जायेंगे, हल कोल्हू और बैलगाड़ियों में ही और फिर बूढ़े होने पर क़त्ल किये जायेंगे कसाई खानों में ही।
कहना यह चाहते हैं कि हर कोई यहाँ भ्रम नाम और भ्रम काया है जो ज़मीन पर कुछ वक़्त दिखाई या सुनाई देता है। जिसकी परिणिति तो बैल सदृश्य ही है। किंतु  इस अनंत तक चलते रहने वाले काल में थोड़े से वक़्त में वह नाम और एक काय से सजाया गया (विभूषित) रहता है। हाँ वह भ्रम ही होता है ना जो कुछ वक़्त तो प्रतीत हो फिर जिसका कोई वज़ूद न हो?
और भी विचित्र बात देखिये स्वयं एक भ्रम अपने को किस तरह भ्रम से सजाये रखने को लालायित रहता है। काया को रूपवान, बलवान और युवा दिखाये रखने की और नाम को प्रतिष्ठित करने के उपाय आजीवन चलते हैं। इसे मजबूती देने की कोशिशों में धन-वैभव, ज्ञान और प्रभाव अर्जित करने के क्रम और पुरजोर कर्म चलते हैं। खुद एक भ्रम, और खुद सजाये रखने के भ्रम प्रयास तो एक बार उचित भी हों। लेकिन बैलों की तरह ही सजाने वाले कुछ और मिल जाते हैं। जबकि हर काया अस्थिकाय रूप से समान हैं और समान आकार को प्राप्त होती हैं, उन्हें धर्म, जाति और देश विशेष की नागरिकता से भी सजाया रखा जाता है।  उन्हें ज़मीन पर, उनके   जेहन में भ्रामक रेखायें खींच कर सजा दिया जाता है। इस कर दी गई सजावट को बनाये रखने के लिए वे बेचारे (एक भ्रम) दूसरे (वह भी एक भ्रम) को मिटाने की या पीड़ा देने की कोशिशों में लगे रहते हैं।
जीवन है जिसमें हर किसी के पुरुषार्थ चलें तो किसी को आपत्ति या परेशानी नहीं होती। बुराई मगर तब है, जब औरों को अड़ंगे लगा गिराते हुए जीवन स्पर्धा में कोई स्वयं अग्रणी हो जाना चाहता है। 
आखिर में, पुष्प की कोई अभिलाषा नहीं होती. तब भी उन्हें मंदिर-मस्जिद,गिरजाघरों, सुहाग सेज, समाधियों, गुलदानों  या किसी पथ आदि पर सजाया जाता है। पुष्प, जिस पौधे में खिलता है उसी पर शोभायमान सबसे अधिक आकर्षक और सुगंधित रहता है। यह भ्रम काय, भ्रम नाम से अलंकृत हम भी अपनी आत्मा से जुड़े रहें और मिली कर्म की शक्ति से उन कर्मों की खुशबू बिखेरें जिसकी ताजगी में, जिनको जब यह ज़मीन/ दुनिया मिले उन्हें ख़ुशग़वार और आकर्षक अपनी ज़िंदगी लगे. 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
21-08-2019


  

Sunday, August 18, 2019

अपनी ही खुशियों के लिए है फिक्रमंद ये ज़माना
क्यूँ रोयें हम कि, ग़मगीन कोई है ये देखता नहीं 

Saturday, August 17, 2019

हासिल के लिए,
किसी को अपना समझने की भूल ना करना
कुछ देने के लिए,
'राजेश, अपना समझने की भूल करते रहना

लिखे गए पल में हमारी
रूह की तस्वीर की तरह रह जाएगा
वॉल पर अपनी जिस्म से ज्यादा
रूह की तस्वीर खींच डालिये

नियंत्रित गुस्से का होना-
साहसिक कार्य का निमित्त होता है
गुस्से में नियंत्रण खोना-
दुस्साहसिक कृत्य का कारण होता है

जो रहा है तक़दीर में वह भी तो कम नहीं
जो न रहा तक़दीर में उसका क्यूँ गम करें


बहुत नहीं लगता है मुझे स्वाभिमान से जीने के लिए
'हर अच्छी चीज मेरी हो' ये चाहत कलह मचाये हुए है




Friday, August 16, 2019

प्रवाह के विपरीत चलना यूँ तो कठिन बहुत है
मगर ऊँचाई पर पहुँचना है तो यह करना होगा
वो हमें और हम उन्हें दिखाया करते हैं आईना
गरज बुराई देखने की तो अपना चेहरा खुद देख लेते

Thursday, August 15, 2019

निधि होता है किसी को मिला एक जीवन
बशर्ते वह खुद एवं हम शिद्द्त में भी तराश सकें

Tuesday, August 13, 2019

चले गए ..

चले गए ..
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उसे लग रहा था, अंत करीब है, कुछ समय में चिरनिद्रा में चला जाएगा। सिर और सीने में असहनीय भीषण दर्द उठा हुआ था। वह सुन, देख रहा है, मोबाइल पर की जा रहीं वे बातें जो अति चिंतित मुद्रा में, अनंत(बेटा) उसे एम्स ले जाये जा सकने के लिए कर रहा है.अनंत को राह नहीं सूझ रही कि कैसे ले जाए पापा को अस्पताल तक? बहू मीता भी उसे और अनंत की हालत को देख परेशान हो रही थी। दरअसल तीन दिनों से भारत का युध्द छिड़ा हुआ था। भारत के रहवासी कई, दुश्मन देश के पक्ष में भड़के हुए थे. इस कारण देश की सीमा बाह्य दुश्मन से और  अंदर सड़कें अंदरूनी दुश्मन के संघर्ष में रक्तरंजित हो रहीं थीं।
जीवन के इस अंतिम काल में अचानक उसे इन हालात के बन जाने के लिए दोष स्वयं में दिखाई दे रहा था। वह देश की अग्रणी समाचार चैनल का मालिक था। उसने अपने लिए धन और प्रतिष्ठा एक राजनैतिक पार्टी के हितों को प्रौन्नत करने में कमाया था। एक विशिष्ट कौम में वह लोकप्रिय था। देश के बाहर की भारत विरोधी ताकतों ने उसके इन कार्यों को सराहनीय बताते हुए, अनेक राष्ट्रीय, अंर्तराष्ट्रीय पुरुस्कारों से अलंकृत कराया था। वह इन सबमें इतना मदहोश रहा था कि देश कभी इस दौर से भी गुजरेगा उसे पहले कभी दिखाई नहीं दे सका था।
आज खुद को हो रही भीषण पीड़ा और बेटे-बहू को अपने को लेकर हो रही चिंता ने उसकी दृष्टि पर पड़ा पर्दा उठा दिया था। देश और सीमा में संघर्ष में मारे जा रहे लाखों लोगों का हत्यारा वह स्वयं में देख रहा था।
वास्तव में हर घटना के कई पक्ष होते हैं. पिछले बीस वर्ष तक अपनी चैनल के उद्घोषकों के द्वारा वह पक्ष प्रधानता से उल्लेखित करवाता था जो एक पार्टी विशेष और एक कौम विशेष को प्रिय लगती थी। जिस दृष्टिकोण में फायदा उसे, उस राजनैतिक पार्टी और देश से बाहर के विरोधियों को (जो देश को एक विकसित,उन्नत और खुशहाल राष्ट्र नहीं देखना चाहते हैं) को मिलता था उस पर उसका चैनल बेहद मुखर होता था तथा  घटनाओं के उस पक्ष पर वे चुप्पी साधते थे , जिसको देखने से किसी दर्शक की तर्कशक्ति में अच्छाई बुराई की सहज पहचान आ सके।
उसे अंतिम कुछ पलों में अपना अपराध दिखाई दे गया था . उसे खुद पर कोफ़्त हो रही थी कि वह अपनी चैनल मालिक (पर होने से) था जिस पर बीस वर्ष तक अपने प्रसारण पर देशवासियों का बहुमूल्य समय व्यय करवाता आया था, उसके माध्यम से वह समाज सौहार्द्र को पुष्ट करने वाले, देश के विकास को ताकत लगाने वाले और नागरिकों की खुशहाली सुनिश्चित करने वाले प्रसारण करवा सकता था। उसकी न हो सकने वाली, उपलब्धियों (कुछ साथ नहीं जाता)  की लोलुपता में मगर हाय वह नीच बुध्दि, हाय वह स्वहित भ्रम, हाय वह आत्ममुग्धता जिसने उसको अँधा कर दिया. वह देखने में असमर्थ रहा कि भारत एक भव्य, अखंड राष्ट्र के गौरव को कितनी क्षति सहनी होगी।
वह इस पल, जीवन में कुछ और दिन चाहता है कि समग्र राष्ट्र से क्षमा याचना कर ले.मिले कुछ दिनों में ऐसे प्रसारण करवा सके कि आपस में ही मारकाट मचाते नागरिकों की तर्कक्षमता जागृत कर दें. जिसमें उन्हें मारकाट के इतिहास रचने में अपनी तारीफ़ न दिखाई दे अपितु परस्पर अनुराग रखने में राष्ट्र भव्यता और जीवन की सार्थकता दिखाई दे जाए। नहीं, लेकिन दुर्भाग्य ऐसे गहन पछतावे में ही उसकी दुखी आत्मा अनंत में विलीन हो गई है।
बाद में एक इतिहासकार ने लिखा कि 'फलाने'  एक विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हुए भी - धन, प्रतिष्ठा लोलुपता में लगे रहे, अपने अहंकार में वो जो भलाई की परंपरा दे सकते थे, लेकिन ठीक उसके विपरीत एक नफ़रत की परंपरा रख के चले गए ..

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
14.08.2019

Monday, August 12, 2019

तुम ना करो बात कि
तुम्हें देश से चाहिए क्या है
सोचो रख दिल पर हाथ कि
तुमने देश के लिए किया क्या है

प्रेमिका का पत्नी होना

प्रेमिका का पत्नी होना ...

14.09.2009
हिंदी दिवस था, कॉलेज में तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता थी. हॉल, छात्र-छात्राओं से ठसाठस भरा हुआ था। कुछ प्रतियोगी चिट से मिले विषयों पर भाषण कर जा चुके थे। बाद में एक शर्माता,सकुचाता हुआ छात्र मंच पर आया था। उसने अपनी चिट निकाली थी, उद्घोषक ने तब कहा था छात्र का नाम सफल, क्लास सेवेंथ सेमिस्टर (सी एस), विषय - 'लड़की'. सफलता ने अपने से मैचिंग नाम और विषय सुनकर, पहलू बदल कर अपनी बैठक ज्यादा सजगता की कर ली।
सफल ने आरंभ धीमे स्वर से फिर लय प्राप्त करते हुए कहा -  क्या होती है एक लड़की जिसे हम 'लड़की' देखते हैं?, लड़की भी मनुष्य होती है। उसके हृदय में भी वही जीवन कामनायें होती हैं, जो एक मानव मन में हो सकती है। जिस समय एक मनुष्य का हम लड़की होना देख रहे होते हैं। वह आसपास के वातावरण और हमारी दृष्टि को अपने पर केंद्रित देख, मन ही मन बेहद डर रही हो सकती है। उसे अपने पापा, मम्मी और भाई की अपने बारे में चिंता का ख़्याल आ रहा हो सकता है. हमारी घूरती दृष्टि से वह, हममें 'सावधान इंडिया' में दिखाए गए नारी जाति पर छल, हिंसा या बलात्कार करने वाला दुष्ट देख रही हो सकती है। फिर एक छोटी सी चुप्पी लेकर सफल ने आगे कहना शुरू किया- बदल रहे हमारे समाज में आज 'लड़की', शिक्षा और व्यवसायिक योग्यता प्राप्त करते हुए आर्थिक आत्म निर्भरता प्राप्त करने के मंतव्य से घर से बाहर निकलती है। वह अपने पेरेंट्स और फिर भविष्य में अपने स्वयं के परिवार में अपने आर्थिक योगदान के माध्यम से संतुष्ट होना चाहती है। वह घर की चौखट से बाहर निकल समाज में अपना भी एक सम्मान का स्थान देखने का सपना रखती है।
इक पल, इधर सफल एक छोटा पॉज लेता है, उधर दीर्घा में बैठी सफलता की भाव भंगिमा मंत्रमुग्ध सी दिखती है। 
सफल आगे कहता है - कोई लड़की भी हम जैसे विभिन्न शैली के परिधानों की ललक रखती है। उसके पहनावे के व्यर्थ अर्थ हमें नहीं निकालने चाहिए। आकर्षक दिखना सिर्फ पुरुष का अधिकार नहीं होता। ना ही किसी लड़की का स्वयं का आकर्षक दिखाने का उद्देश्य, हमसे शारीरिक संबंध का निमंत्रण होता है। एक लड़की में हम, वही क्यूँ नहीं देखते जो हम अपनी बहन और बेटी में देखते हैं। क्या हम अपनी बहन या बेटी के पीछे कामुकता की दृष्टि लिए पुरुषों का जुलूस देखना चाहते हैं? यदि नहीं तो ऐसे किसी जुलूस का हमें अंग नहीं होना चाहिए। अपितु हमसे शक्ति में शारीरिक रूप से कमजोर किसी भी लड़की के लिए सहयोग का भाव हममें होना चाहिए जिसे अनुभव कर कोई 'लड़की' स्वयं को सबके बीच सुरक्षित अनुभव करते हुए उसकी मनोवाँछित उपलब्धियों का राह प्रशस्त होती हुई पाती है।
सफल का इतना कहते ही, उसके समय समाप्ति की बेल बज उठती है। हॉल जिसमें अभी कुछ मिनटों से पिन ड्राप साइलेंस पसरा हुआ था, में तालियों की आवाज गूँजती है. जिससे, सफलता की तंद्रा भंग होती है और उसके हाथ तालियाँ बजाने लगते हैं, वह अन्य श्रोताओं की तालियाँ बंद होने पर भी बजाते रहती है, और इससे जब सबकी दृष्टि अपनी ओर अनुभव करती है तो शर्माकर सिर झुका लेती है।
14.09.2019
 आज सेकन्ड सैटरडे का अवकाश था. फिर भी और दिनों की तरह सफ़लता की नींद प्रातः 5 बजे खुल जाती है. धीमी रोशनी में वह बेड पर अपने बगल में निद्रामग्न अपनी तीन वर्षीया बेटी अश्रुना और सफल के चेहरे को निहारती है। फिर वॉश रूम जाती है, लौटकर मोबाइल उठाते हुए पुनः अलसाई सी बिस्तर में लेटती है। व्हाट्सएप्प के 1 संदेश से आज 'हिंदी दिवस' का होना ज्ञात होता है। जिससे उसके मन में 10 वर्ष पहले के हिंदी दिवस और फिर आज तक विगत समय की याद ताजा होती है।  कि कैसे उस दिन से वह सफल की प्रेमिका हुई, कैसे सफल को उसमें और उसे सफलता में अपनी ज़िंदगी और दुनिया दिखाई दी। कैसी गर्मजोशी होती थी उन दिनों, सफल के प्यार में, हर मुलाकात पर. और कैसे उसे सफल की प्रेमिका से पत्नी हो जाने में यानि उनके प्यार को सफलता मिली। कैसे उसे अश्रुना के गर्भ में आने के दिनों सफल का प्यार और संबल मिला, जिसकी बदौलत उसने प्रसव के कष्ट को, भय से निजात पाते हुए साहस से सह लिया। 
सफल के प्यारे से चेहरे को वह देखती है फिर मन में थोड़ी रुष्ट होते हुए शिकायत करती कि सफल उस गर्मजोशी से अब उससे प्यार प्रगट नहीं करता जैसा वह तब दिखाता था जैसा वह करीब तीन वर्षों तक उसकी प्रेमिका की तरह होने में अनुभव करती थी।
 यह सब सोचते हुए वह निश्चय करती है कि सफल को आज कटघरे में खड़ा कर उससे यह प्रश्न जरूर करेगी कि क्या वे प्रेमिका के पत्नी बन जाने का दर्द को समझते हैं जो प्रेम बचाये रखने हेतु प्रेमिका बनी रहना पत्नी होने से बेहतर अनुभव करती है? वह हलाल होती बकरी नहीं जो बोल नहीं सकती और वह, 'वह लड़की' है जिसके सेंटीमेंट्स को अनुभव कर आप दस वर्ष पूर्व जमकर बोले थे। 
अपने संकल्प अनुरूप दोपहर में जब अश्रुना सो गई तब सफलता ने सफल पर इस प्रश्न के माध्यम से हमला कर दिया। सफल पहले तो हकबकाया फिर संभल कर 10 वर्ष पूर्व के तात्कालिक भाषण वाले प्रतियोगी की तरह कहना प्रारंभ कर दिया - सफ़लता, हमारा समाज पाश्चात्य से भिन्न समाज है। पाश्चात्य में जहाँ लड़की दैहिक आकर्षण से किसी पुरुष की प्रेमिका होती है, और वह आकर्षण समाप्त होने पर किसी अन्य की प्रेमिका हो जाने में गुरेज नहीं करती है। वहाँ, उस समाज में वह ऐसी परिस्थिति भी नहीं देखती जिसमें अकेली भी गुजर करने में उसे मुश्किल हो। 
जबकि हमारा समाज इससे भिन्न सँस्कृति का पैरोकार रहा है जहाँ किशोरवया लड़की, जब दैहिक आकर्षण के वशीभूत किसी लड़के की प्रेमिका होती है तो उसी की वह पत्नी हो जाने की कामना करती है। यहाँ आरंभ में उसे प्रेमिका की तरह ही अपेक्षित प्यार तो मिलता है। लेकिन विवाह बंधन में बँधने से उसके ताल्लुकात लड़के से सिर्फ उतने वक़्त के नहीं होते जितना प्रेमिका के रूप में पार्क में, बाज़ार में या अन्य जगह मिलने के वक़्त जितने होते हैं। उस थोड़े थोड़े वक़्त के स्पेल में दोनों पर कोई और जिम्मेदारी भी नहीं होती कि जिसे वे प्यार की बातें और जीवन सपने सजाने में मग्नता के अतिरक्त अनुभव करते हों।
इससे अलग वैवाहिक जीवन का साथ हर वक़्त का होता है जिसमें प्यार के इतर उन जिम्मेदारियों को लेकर चलने में व्यस्त होना होता है, जो आज के समाज में सम्मान और सफल जीवन की पहचान हासिल करने के लिए किसी भी व्यक्ति(यों) के लिए आवश्यक होता है। समय के साथ दैहिक संबंधों की भूख भी कम होती है। ना भी हो तो अपने हो गए बच्चों के समक्ष हम प्रेमी-प्रेमिका का रूप भी नहीं दिखाना चाहते हैं।  अन्यथा देख ऐसे मजे के जिज्ञासु हमारे बच्चे जीवन जीने के लिए वाँछित योग्यता के अर्जित किये जाने के पहले ही दैहिक संबंध के सुख की खोज में वास्को डी गामा की तरह निकल पड़ेंगें। हमारे समाज में इसे मर्यादायें निरूपित किया गया है। 
सफलता अभी तो हमने दस वर्ष का सफल वैवाहिक जीवन देखा है। आगे मेरी और आपकी व्यस्ततायें और बढ़ेगीं, उन व्यस्तताओं में प्यार तो वही रहेगा किंतु जिसमें आपको प्यार का अभाव और नीरसता का भ्रम तो होगा लेकिन सच्चाई यह नहीं होगी. आप बताओ कि अपने बड़े होती 8-10-15 या आज के समय में अपने मम्मी -डैडी में आपने प्रेमी-प्रेमिका वाला सा प्यार अनुभव किया है? कहते हुए सफल, सफलता के उत्तर को रुका, और जब सफलता ने विचारपूर्वक नहीं में सिर हिलाया, तब कहने का सिलसिला आगे बढ़ाया- सफलता, आपने ही मुझे बताया था कि हमारी शादी के आयोजनों को भव्यता देने के लिए जब मम्मी जी (आपकी) ने , पापा के निवेश के रूप में रखे 1 आवासीय प्लॉट को बेचने को कहा था तो पापा जी ने यह उत्तर देकर नकार दिया था ना, कि मुझे नहीं मालूम मेरी ज़िंदगी के बाद उन्हें (मम्मीजी को) और कितना जीवन जीना है, यह उनके लिए तब की जरूरतों को पूरा करने वाला सिध्द हो सकता है। 
सफल फिर रुका था और फिर सफलता से प्रश्न करते हुए कि 'क्या आप इसे, आपके पापा का मम्मीजी से किसी प्रेमिका वाले प्यार से कम मानती हैं? कहते हुए सफल चुप हुआ था।  
सफलता, इसका कोई उत्तर देती इसके पहले अश्रुना के जाग जाने से वह उसके साथ बिजी हो गई थी। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12.08.2019





Saturday, August 10, 2019

समाज के मनोरोग और उनकी विचित्रतायें

समाज के मनोरोग और उनकी विचित्रतायें 

ऐसी हमारी मनोव्याधियाँ जो हमारे अस्वस्थ समाज के लिए जिम्मेदार हैं, और जिसमें जीवन यापन करने को बाध्य हम अपनी ज़िंदगी से ही गिला शिकवा रखते हैं ,का संक्षिप्त उल्लेख मय उसमें निहित विचित्रता के साथ इस आलेख में इस प्रकार है -
1.  कौम/मजहब आधारित श्रेष्ठता बोध - हम अपने अपने मज़हब / कौम के सिद्धांत को श्रेष्ठ मानते हुए उसका वर्चस्व देखना चाहते हैं. ऐसे परिदृश्य की साकारता के लिए हम अपनी हैसियत से अलग औलादें पैदा कर खुद अपने और औलादों की ज़िंदगी पर अभाव लादते हैं। इसका दोषारोपण देश पर डालकर भारत को खराबियों का देश कहते हैं।
2. नारी पर पर्दा प्रथा लादने की मनोव्याधि - इसकी विचित्रता पर हम हँसे या रो लें समझ नहीं आता है। जो नारियों पर जितनी ज्यादा गंदी दृष्टि रखता, उतना ही अपने घर की स्त्रीजात पर पर्दा थोपता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम फेसबुक पर ही देख सकते हैं। अपने परिवार की नारी की एक फोटो अपने एल्बम में न लगाने वाला मर्द के फेसबुक एल्बम में नारी की कामुक तस्वीरें बहुतायात में देखने मिलेगीं। ऐसे व्याधिग्रस्त लोग नारी को विभिन्न चालों में फुसलाकर उनका दैहिक शोषण फिर उनसे दगा कर उन्हें अभिशप्त  जीवन जीने को मजबूर करते हैं।
3. अपने आर्थिक लाभ की अधिकता के लिए भ्रष्ट तरीके - इसमें दुःखदाई विचित्रता यह है कि आर्थिक लाभ के लालच में हम भ्रष्ट होकर परस्पर स्तरीय सेवा सुलभ नहीं करते हैं। यथा- दूध में मिलावट करने वाला, खुद ख़राब वनस्पति, ख़राब अनाज (प्लास्टिक चावल आदि), नकली औषधि, ख़राब खाद्य तेल आदि खरीदता है और दूसरों को कैंसर तरह की कठिन साध्य बीमारी देकर अपने लिए यही लेता है।
4. आर्थिक असमानता जनित मनोरोग - इसमें आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति, आर्थिक संपन्न व्यक्ति के प्रति मन में जलन और द्वेष रखता है और विचित्रता यह होती है कि स्वयं वह सम्पन्नता हासिल करना चाहता है और अगर इसमें सफल हो गया तो चाहता है कि उसकी इस हैसियत से कोई जले नहीं।
5.  लिंगभेद आधारित मनोरोग में - हम अपने परिवार की नारी पर हमेशा एक मानसिक दबाव बनाये रखते हैं, जिससे कुंठाग्रस्त होकर वह भीतर नाखुश बनी रहती है। जबकि किसी नाख़ुश की संगति हमें ही चरम जीवन आनंद से वंचित करती है। यह तथ्य हम अनुभव नहीं करते हैं।
6.  जाति आधारित परस्पर व्देष - हमारा अग्रणी और दलित वर्ण, इतिहास हो चुके प्रसंग को मन में रखते हुए अपने अपने उत्थान में देशहित देखता है। विचित्रता यह भी है कि दलित रहे हम उत्थान कर लेने के बाद भी इस वैमनस्य को मन में रखते हुए अगड़ों के भीतर सम्मानजनक स्थान चाहते हैं। और  तो और ऐसा सम्मानजनक स्थान अर्जित कर लेने के बाद खुद हम अपने  वैभव के लिए फेवर हासिल करते हुए, जरूरतमंद हमारे ही जैसे दलित/पिछड़े को ऐसे फेवर से शिक्षा, वैभव हासिल कर लेने देने से वंचित करते हैं। 

और भी मनोव्याधियाँ हैं जो समाज के लिए , इसलिए हमारी अपनी ही संतान के लिए और हमारे खुद के लिए हानिकारक हैं , का उल्लेख लेखक इस आलेख में नहीं कर सका है. लेखक , जिस पर विचार करने का अनुरोध करता है। साथ ही मन में स्थान पाए इन तत्वों को एक स्वस्थ रेंज में नियंत्रित करने की प्रार्थना करता है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
10.08.2019

Friday, August 9, 2019

काश्मीर की कली

काश्मीर की कली ..

किसी भी इंसान के दिल के अंदर वह 1 काला कोना हो सकता है जो उसे किसी काले कारनामे को अंजाम देने को दुष्प्रेरित कर सकता है। इंसानियत तब होती है जब इंसान किसी शिक्षा, सँस्कार या प्रेरणा से इस काले कोने की कालिख साफ़ करने की कोशिश करता है। या अपने इस काले कोने के आकार को बहुत छोटा कर देता है। आज वक़्त ऐसी इंसानियत का है। आज हम उस संधिकाल पर है जहाँ देश, लोगों के काले कारनामों से पैदा हुई, पुरानी ख़राबियों से मुक्त होकर अपने समग्र समाज का वर्तमान दुरुस्त कर आगामी पीढ़ियों के लिए सुनहरे भविष्य को सुनिश्चित करने को उत्सुक है। इस भूमिका को पढ़कर आपका मन लेखक क्या लिखना चाहता है, इसे जानने को जरूर उत्सुक हुआ होगा। तो लीजिये पढ़िए आगे लेखक की दरख्वास्त -
अभी हाल में हमारी सरकार द्वारा देश की रीति नीति ठीक करने के कई फैसले लिए जा रहे हैं जो देश के सभी नागरिकों के  खुशहाल वर्तमान और आगामी पीढ़ियों के उज्जवल भविष्य को सुनिश्चित करने के दृष्टिगत जरूरी हैं। उनमें से एक-
हमारे देश के सर्वाधिक अशाँत प्रदेश कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद #370 को हटा कर, प्रदेश का पुर्नगठन का है। इसका प्रथम उद्देश्य-

"हमारे से पृथक हुआ पाकिस्तान जो रंजिश के नकारात्मक नज़रिये से ख़ुद अशाँत है और अपनी बदनीयत घुसपैठ से इस भूभाग में आतंक के कारनामे अंजाम देता है और मज़हबी कट्टरता के बहाने यहाँ के लोगों का ब्रेन वॉश करते हुए भारत को भी अपने जैसा अशाँत और पिछड़ा देखना चाहता है, के मंसूबों को विफल करना है." 
तथा दूसरा -
कश्मीर वासियों को देश की मुख्यधारा में शामिल करते हुए, वहाँ के नागरिकों को बेहतर मौके देना , वहाँ अधोसंरचना विकसित करते हुए वहाँ के युवाओं को विकास के कार्य में योगदान को उत्सुक कर/लगा कर, उन्हीं के हाथों उनके सुंदर प्रदेश में जो धरती का स्वर्ग कहलाता है, खुशहाली बहाल करवाना है। 
यह इस सरकार का साहसिक फैसला है जो पिछले तीन दशक से लगातार व्याप्त चिंतनीय हालातों के बावजूद किसी किसी भय से पूर्व सरकारें नहीं ले सकीं थीं। ज़ाहिर है लक्ष्य बेहद पाक है, जिसे हासिल करने के लिए, न सिर्फ कश्मीर वासियों का अपितु शेष भारतीयों का सहयोग दरकार है। 
ऐसे में विषयवस्तु पर लौटते हुए लेखक का आग्रह है कि हम सब इसे कोई ख़ुशी या बड़ी जीत के जश्न मौका नहीं माने. बल्कि इसे एक जिम्मेदारी के बतौर देखें। और अपनी जिम्मेदारी को सही तरह निभाते हुए कश्मीर में अपेक्षित खुशहाली लाना सुनिश्चित करें। स्मरण रहे, हम सबका जिम्मेदारी पूर्वक किया योगदान वह आइना साबित होगा जिसमें निहारते हुए, बहकावों में आये लोगों का खुद पर खेद होगा। वे देख और महसूस कर सकेंगे कि वहाँ निर्मित किये गए हालातों से उन्होंने अपनी ही कुछ पीढ़ियों के ज़िंदगी के मजे को तबाह किया है। वे यह भूल भी अनुभव कर सकेंगे कि  खुद उन्होंने अपनी नई पुश्तों का भविष्य ख़राब किया है.  
तथाकथित इस संधिकाल में हमें वह भूल नहीं दोहरानी है जो 1947 के विभाजन के समय हमारी पूर्व पीढ़ी ने एक दूसरे पर लूट, हिंसा, हत्या और बलात्कार करते हुए, ख़राब परिणाम रूप दोनों कौमों के दिलों में लंबे समय तक  न मिटने वाली नफ़रत उत्पन्न कर, की थी। 
अति उत्साह में अपने बड़े बोलों से और हल्की हसरतों को ज़ाहिर करने से हमें बचना है। हमें कश्मीर की लड़कियों को सिर्फ गोरी और सुंदर नहीं देखना है। बल्कि उनमें अपने जैसा ही दिल जान लेना है और उनकी, अपनी सरीखी ही धड़कनों का अनुभव करना है जो ज़िंदगी में सुविधा, सम्मान, मौके और उपलब्धियों के हासिल कर लेने को उत्सुक रहती हैं। आज हमें यह भी मान लेना चाहिए कि अपने मज़हब के संदेशों के आधीन, अपने मिले सँस्कार के आधीन, अपने बड़ों के दबावों के आधीन वे एकाएक कश्मीर और अपने दायरों से बाहर नहीं आ सकेंगी।  हम उनके रूप पर आसक्त या मुग्ध हो उनसे शादी का प्रस्ताव करेंगे तो उसे वह हममें हवस की अतिरेकता जान कर हमसे दूर क्षरकने में अपनी बेहतरी मानेंगीं. ऐसी सब हमारी हल्की बातों का दुष्प्रभाव  सिर्फ उन्हीं पर ही नहीं उनके परिवारजनों पर भी पड़ेगा. तब वे हमसे जुड़ने का नहीं दूर होने का विकल्प अपनायेंगे। यह हमारी सरकार के नए फैसले की निहित भावनाओं के विपरीत परिणाम का कारण होगा। और इतिहास, हमारी पीढ़ी को भी 1947 की चूक करने वाली पीढ़ी ही जैसा निरूपित कर देगा। यही नहीं हम अपनी करतूतों से अपनी संतानों पर वही ख़ौफ़ का साया दे देने के भी अपराधी होंगे, जिस ख़ौफ़ में हम स्वयं जीते हैं. हम हर पल आशंकित रहते हैं कि जाने कहाँ हम आतंक के हादसे का शिकार हो जायें और न जाने कब, कहाँ हमारे बच्चे, बहन-बेटियाँ नफरत जनित लूट,हिंसा और बलात्कार की चपेट में आ जायें। हमें अपने कटु अनुभवों से, सीख नहीं लेने की मूर्खता कदापि नहीं करना चाहिए।  इस संधिकाल में हमसे जिस जिम्मेदारी की अपेक्षा है उस अनुरूप हमारे आचरण और कर्म हमें रखने ही चाहिए. 
रहा सवाल, कश्मीरी लड़कियों से हमारी मोहब्बत के अनुभव करने का तो यह समझना उचित है कि उन्हें जबरन उनके दायरे से बाहर खींचने की हमारी कोई भी कोशिश या ऐसी ही कोई व्यर्थ बकवास हमारी उनसे मोहब्बत साबित न कर सकेगी। हम उनके हितैषी तभी हो सकेंगे जब हम उन्हें (इसी तरह अपनी बहन बेटियों को भी) उनके दायरों में ही जी लेने के अवसर  सुलभ करा  सकेंगे। हमारी, उनके प्रति हितैषी भावना यदि ज्यादा जोर मार रही हो तो हमने उनके उच्च शिक्षा, उनके आधुनिक परिवेश देने वाले साधन और वहाँ के विकास में सहयोग और श्रम देना चाहिए। इनसे उन्हें, पुरातन मानसिक संकीर्णताओं, अंधविश्वासों और उनकी अहितकारी आस्थाओं से बाहर निकलने की राह खुद सूझ सकेगी। अतएव बहन बेटियों को जबरन उनके दायरों से जबरन बाहर खींचने की जरूरत नहीं है, अपितु आज उनके दायरों को बड़ा कर देने की जरूरत है. जिसमें वे  अपनी खुशहाल ज़िंदगी के लिए अपने प्रगतिशील फैसले खुद लेने का साहस कर सकें। 
हमें स्मरण रहे #कश्मीर_की_कली का मुरझा जाना कदापि वह खूबसूरती नहीं दे सकेगी जो उसके खिले होने से दर्शित होती है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
10-08-2019


इंसान को जब रोटी ही लगती, ज़िंदगी को जीने की खातिर
तब क्यूँ? जान का दुश्मन बना फिरता है मज़हब की लेकर 
हम में हो वह बात कि हमारे अपनों का
हम गौरव रहें
गर न हो वह बात तो गरिमा से लाने की
हमारी कोशिश रहे 

Thursday, August 8, 2019

राजनीति से परे ..

राजनीति से परे .. 

लालकृष्ण अडवाणी जी हमारे बीच आज इस बात की जीती जागती तस्वीर हैं कि कैसे सर्व हित में अपने हितों (तथाकथित) की तिलाँजलि दी जाती है एवं राष्ट्र हित या समाज हितों के लिए कैसे अपनी महत्वकाँक्षाओं का दमन करते हुए खामोश और अनुशासित रहा जा सकता है। 
वास्तव में अटल जी के समय ही वे उनके समकक्ष ही नेता थे लेकिन पार्टी और देश की भावना को समझते हुए उन्होंने खुद को अटल जी से पीछे रख लिया. पार्टी को इतना समर्थन दिलाने के लिए उन्होंने सूझबूझ और अथक मेहनत की लेकिन जब अवसर आया 2014 का तो उन्होंने अपने से कहीं जूनियर मोदी जी के अधीनस्थ रह लेने की हृदय विशालता का परिचय दिया। यही नहीं उन्हें 2019 के चुनाव में टिकट भी नहीं दिया गया , उसे भी उन्होंने स्वीकार कर लिया। वे पार्टी की ओर से राष्ट्रपति के लिए भी संपूर्ण योग्यता रखते थे , लेकिन उन्हें वह स्थान भी नहीं दिलाया गया। वे अग्रणी नेता होते हुए भी पार्टी के अनुशासित सिपाही के तरह रह लेने की अपने हृदय विशालता का परिचय देने में कामयाब रहे। 
आज कोई उन्हें भले ही कनिष्ठ नेताओं व्दारा छला हुआ, असफल नेता निरूपित करे किंतु इतिहास उनकी महान सफलता का गुणगान लिखेगा। उनमें स्वार्थ रहित, औरों से भिन्न वह एक निराला, महान व्यक्तित्व देखेगा जो औरों जैसे अपने स्वार्थलिप्सा में इस समाज या देश को क्षति पहुँचाने में भी हिचकते नहीं, ग्लानि अनुभव नहीं करते। 
इतिहास, उन्हें अपनी सारी महत्वकाँक्षाओं की तिलाँजलि देने की बेचैनी में भी स्व नियंत्रण कर लेने वाला, एक महान दूरदृष्टा भी निरूपित करेगा  जो यह देख सकने में सफल रहा कि उनके कनिष्ठ नेताओं की अगुआई में उनकी पार्टी, उनके नेतृत्व से भी ज्यादा सशक्त पार्टी होगी जो देश के हितों के लिए सहासिक कदम उठाने में सक्षम होगी। 
प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति होना ही सफलता या मनुष्य जन्म की सार्थकता नहीं होती। स्मरण रहे कि महावीर स्वामी सर्वस्व त्याग के बाद, ईसा सूली पर लटकाये जाने बाद, श्रीकृष्ण राजा नहीं होने पर भी और सुभाष चंद्र बोस असमय मारे के बाद भी (ऐसे ही और भी उदाहरण हैं जो) जीवन की चरम सार्थकता की उपलब्धि हासिल करने में सफल रहे थे। 
हम भी इतिहास के नज़रिये को समझें और माननीय लालकृष्ण अडवाणी जी के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने कर्मों एवं आचरण में उनके आचरण के कुछ अंश लाने का प्रयास करें। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
10-08-2019

Saturday, August 3, 2019

मैं जनसँख्या हूँ

मैं जनसँख्या हूँ
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देश की स्वतंत्रता के समय मैं छरहरी (sylph) एवं आकर्षक (attractive) थी. पिछले सात दशकों में मुझे वह खुराक मिली है, जिससे में वीभत्स स्थूलकाय (obesity) स्वरूप में आ गई हूँ। जब किसी व्यक्ति का शरीर स्थूल होता है तो वह आकर्षक दिखने एवं स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए डाइटिंग, वर्कआउट एवं अन्य दूसरे उपाय करता है।  लेकिन मुझे देख अचरज होता है कि मैं जनसँख्या जो इन्हीं मनुष्य से मिलकर बनीं हूँ, को इस दृष्टि से बिलकुल उपेक्षित छोड़ दिया गया है। मैं आज बेहद भद्दे एवं वीभत्स स्थूल रूप में अत्यंत रोगी हो गई हूँ।
मैं देश में विभिन्न समस्या (रोगों) के लिए जिम्मेदार हूँ। मेरे अत्यंत स्थूल होने से जहाँ-तहाँ कतारें हैं. हर जगह भीड़ एवं उनकी फैलाई गंदगी है। मैं सार्वजनिक यातायात साधनों/स्थानों को इस कदर ठसाठस भर जाने के लिए जिम्मेदार हूँ जिसमें कलह, हिंसा एवं नारी जाति के साथ छेड़छाड़ व्यापक होती है। मैं हर घर में सदस्यों की अधिकता से बढ़ती हूँ। अर्थात मेरे स्थूल रूप से हर घर में प्रति सदस्य को मिलने वाली जगह की कमी हो जाती है। मेरे स्थूल होने के कारण हर घर में आर्थिक समस्या बढ़ती है.
मैं हैरान हूँ यह देखकर कि देश के नागरिकों ने जिन्हें इन समस्याओं का हल मेरी स्थूलता के कम किये जाने में देखना चाहिए था, वे नासमझ समाधान मिलावट/नकली/घटिया सामग्री व्यापार/उत्पादन के तथा भ्रष्टाचार के माध्यम से आय बढ़ाने में देख रहे हैं। इनकी यह अनैतिकता एक दूसरे के स्वास्थ्य एवं जान के दुश्मन बन जाने का कारण बन रही है। 

यद्यपि अपने (या देश के) लिए किया जाने वाला कोई कार्य छोटा या गंदा नहीं होता लेकिन यह देख मुझे शर्मिंदगी होती है, जब देश के नागरिक दुनिया भर को सेवायें देने के लिए सफाई कर्मी, मजदूर, वाहन ड्राइवर एवं अन्य दासिता कर्मी उपलब्ध कराते हैं। मुझे देख दुःख होता है, जब देश में सब तरफ खूनखराबे, अराजकता एवं भीड़ में घुटन अनुभव करने से एवं योग्यता को उचित, आदर और पारिश्रमिक नहीं मिलने से-  देश की उच्च प्रतिभा, अन्य देशों में बेहतर संभावना देख यहाँ से प्रवास को विवश होती है।
मेरी स्थूलता पिछले छह दशकों में 21 फीसदी से ज्यादा ग्रोथ रेट के साथ बढ़ाई गई है, जहाँ 1961 में, मैं छरहरी (43 करोड़) थी, वहाँ आज 2019 में मैं बदसूरत मोटी (135 करोड़) कर दी गई हूँ। आज मैं देश के खनिज संशाधनों का जिस दर से उपभोग कर रही हूँ कि आगामी 50 वर्षों में देश खनिज रूप से कंगाली पर पहुँच जाएगा।
आजादी के उपरान्त कितने ही प्रगति के कार्य हुए हैं लेकिन मेरी स्थूलता ने सब प्रगतियाँ निगल ली हैं. परिणाम यह हुआ है कि किसी भी उपलब्धि की तालिका में मुझ जैसी स्थूलता का विशाल भारत 150 देशों की दुनिया में 125 के आसपास निचले स्थानों पर अपनी बेशर्मी की मौजूदगी दर्ज कराता है। 
इन हालातों से अत्यंत व्यथित मैं जनसँख्या - हाथ जोड़ विनती करती हूँ कि मुझे न तो पुत्र प्राप्ति (बेटियाँ होते हुए) के मोह में ना ही मज़हब के वर्चस्व प्राप्त करने के लक्ष्य से ज्यादा स्थूल किया जाए। इन बेकार के जूनून में औरतों को मात्र बच्चे पैदा कर देने वाली मशीन न बना दिया जाए. मुझे, मात्रा (स्थूलता- Quantity) नहीं प्रदान की जाए अपितु मुझे गुणवत्ता (Quality) प्रदान जाए।  मुझे अपने लोगों का ब्लैक इंडियन या ज़ाहिल हिंदुस्तानी का उपहास पसंद नहीं। मुझमें वह गुणवत्ता सुनिश्चित की जाये कि दुनिया कहने को विवश हो 'वाह भारत' और मेरी हर इकाई गर्व से कहे कि 'वाह हम भारतीय'। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04.08.2019