Friday, March 28, 2014

रिचिका विवाह अवसर पर माँ रचना के ह्रदय उदगार

रिचिका विवाह अवसर पर माँ रचना के ह्रदय उदगार
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जन्म ले बेटी ने दिन एक
थे प्राण जो शरीर में एक
दिया सुख मातृत्व का पर 
बांटे प्राण नन्हे तन में एक

आशंकित नन्ही आ अंक से चिपटती थी
पा सुरक्षा अनुभव आँचल में सिमटती थी
जीवन दुलार लालन पालन बीच बीतता था
जब जब बेटी जाती दूर कमी अखरती थी

पति शब्दों का भार अनुभव वे करती थी
माँ समर्पित जिनकी बेटी वे न बिगड़ती थी
दिए सँस्कार उच्च शिक्षा के साथ माँ होकर
निधि एक जीवन में जाती अब अखरती थी

भाग्य निभा सकी माँ अपनी जिम्मेदारी 
गुणी रिचिका ने समझी अपनी जिम्मेदारी 
माँ-पिता के सपनों के आसमान में उड़ती
आ रही कन्धों के उसके अब जिम्मेदारी

चुपचाप हम सब भारी ह्रदय रो लेंगे
उसे विवेक समृध्द परिवार को सौंपेगे
अर्थ सच्चा नाम रिचिका शब्द को मिले
कर्तव्यपरायणता से उसकी हम धन्य हो लेंगे

-- राजेश जैन
29-03-2014

परिणय सूत्र में बंध , सुपुत्री की विदाई की कल्पना से द्रवित पितृ-ह्रदय

परिणय सूत्र में बंध , सुपुत्री की  विदाई की कल्पना से द्रवित पितृ-ह्रदय
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प्राण से प्यारी ह्रदय गगन पर छाती है
नन्ही कृति भेंट प्रकृति से हमें होती है

भेजी विधि ने दे काया नन्ही सी
अब बढ़ी हुई ले सुंदरता चंदा सी
बचपन में खेले खेल अनूठे और
ज्ञान ,संस्कारों से बनी निधि सी

भविष्य हेतु पितृ सपनों से बढ़ कर
बेटी बनी अमोल निधि लिख पढ़ कर
पसंद किसे दे देना निधि का होता है
सौंप रहा संजोई निधि खुश दिख कर

पिता हर्ष मनाये ये समझ न पाया
बेटी विवाह का अब समय जो आया
लाया था हर्षित हो फेरे कर वधु को
बेटी रिचिका के विदा पे रोना आया

पहली नहीं बेटी जो ससुराल जाती है
रही प्राण पिता की पराई हो जाती है
देखे कई विवाह न रीति कटु लगी थी
फूटा ह्रदय बाँध आँख रोये ही जाती है


अप्रिय जन्मना बेटी का अचम्भा क्यों?
क्या इसलिए? ये विदाई अप्रिय होती है.

--राजेश जैन
28-03-2014

Tuesday, March 25, 2014

"जियो और जीने दो , जियो और जीने को सहारा दो"

"जियो और जीने दो ,
जियो और जीने को सहारा दो"
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"आशंकाओं के साये में , सिर पर मंडराते खतरों के तले
बाहर असुरक्षित भयभीत पर न रह सकता घर में डले 
निकले गृह से परिजन जब लेकर जीवन प्रयोजन भले
स्वयं परिवार तथा मित्र उसकी सुरक्षा की कामना करे "

प्रत्येक मनुष्य भले दूसरे के लिए साधारण या महत्त्वहीन हो , किन्तु अपने आप में इस तरह निराला है , जिसे दोबारा जिलाया नहीं जा सकता. एक बार किसी का जीवन समाप्त हुआ तो सारे संसार की मनुष्यीय शक्ति और दौलत उस अनूठे जीवन को पुनः जीवंत नहीं कर सकती. चूँकि किसी जैसे तो अनेकों पैदा हो सकते हैं अतः किसी का जाना अनेकों के लिए साधारण सी बात होती है ,  किन्तु वह विशेष एक बार चला गया तब फिर से अस्तित्व ले ही नहीं सकता. स्वयं हम प्रत्येक ऐसे निराले और महत्वपूर्ण हैं . ऐसे में चारों ओर छाये खतरों के बादल विचार को बाध्य करते हैं -

क्यों मनुष्य ने भस्मासुर से विध्वंसक आविष्कृत कर अपने सिर स्वयं रख लिए हैं?
क्यों अपनी श्रेष्टता और प्रभाव सिध्द करने का विचार सिर पर सवार कर लिया है ?
क्यों अन्याय और दुष्टता युक्त महत्वाकांक्षाओं को ह्रदय में स्थान दिया है ?

क्यों जीवन आनंद से बिताने के जगह पागल बन व्यर्थ करने की जिद ठानी है?
और ऐसा हुआ तो व्यर्थ स्वयं का जीवन तो किया लेकिन क्यों किसी अन्य को इस हेतु उकसाया है?

क्यों इतना मूर्ख बन कोई पागलों के (दुष्टों के) झाँसे में आया है ?

धिक्कार हमें , विश्व में कोई जगह ऐसी ना बच पा रही है जहाँ मानव जीवन निशंकित हो. उस पर अपनी पीठ हम थपथपा रहे हैं, मानते हैं आज मानव उन्नत है।

पहले विध्वंसकों का अस्तित्व नहीं था पर्याप्त था यह सिध्दांत "जियो और जीने दो "
नए परिवेश में जहाँ एक दूसरे से जीवन भय की आशंका बनती है, हमें इस सिद्धांत को विस्तार देना होगा .
"जियो और जीने दो" के साथ "जियो और जीने को सहारा दो" कहना होगा .
ऐसा स्वयं करना और दूसरों को इस हेतु बाध्य करना होगा , कल से नहीं अभी से ही

"जियो और जीने दो ,
जियो और जीने को सहारा दो"

--राजेश जैन
26-03-2014


Sunday, March 23, 2014

नारी पर अनाचार ,अत्याचार को फाँसी

नारी पर अनाचार ,अत्याचार को फाँसी 
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नारी जबरन उठवा ली गई.
नारी पर अनाचार ,अत्याचार किये गए .
नारी गृह हिंसा में निरुपाय एकांत में सिसकती रही.
एकांत राह में नारी के साथ छेड़छाड़ हुई .
नारी जबरन नृत्य , देह प्रदर्शन इत्यादि को बाध्य की गई .
विवाह और अन्य प्रलोभन दे नारी का दैहिक शोषण के बाद उसे अपनाने से मना किया गया .
उसके भूखे बच्चे की रोटी के लिए नारी पर जबरन अवैध दैहिक सम्बन्ध थोपा गया .
मन बहलाव के लिए बाहुबली ,धनबली द्वारा गृह में पत्नी से अलग अन्य नारी को रखा  और पत्नी तथा  उस अन्य नारी दोनों का असम्मान किया  गया.
नारी को दहेज़ के लिए प्रताड़ित किया गया
ऐसे और भी अनेकों अपराध नारी पर ......
नारी का ऐसा अपमान आज ही नहीं , कम अधिक रूप में हर काल में ,हर समाज ,हर क्षेत्र ,हर धर्मावलंबियों द्वारा ,  पढ़े लिखे या अनपढ़ द्वारा किया जाता रहा है .

वह तब , जब मानव समाज के अस्तित्व के लिए उसका महत्त्व ,योगदान पुरुष  के ही समतुल्य है , बल्कि पुरुष से ज्यादा ही था/ है.

नारी और पुरुष दोनों के जन्म के जिससे मानव अस्तित्व और निरंतरता सुनिश्चित होता है, के लिए दोनों ही जिम्मेदार होते है , जननी के रूप में पुरुष से अधिक श्रम साध्य ,समयसाध्य , कष्टप्रद कार्य को नारी अंजाम देती है. शिशु को पहले गर्भ में रखकर और प्रसव वेदना सहकर . प्रसव के समय उसके प्राण पर बन आती तब  .
नारी के इस त्याग का नारी की संतान होने से ऋण हमपर होता है. जिस की ऋणमुक्ति के लिए नारी ने ज्यादा हमसे चाहा भी नहीं , लेकिन धिक्कार हमें , हम  उनका ठीकठीक सम्मान भी नहीं कर पाते हैं .
नारी पर अत्याचार ना हों , उसके लिए हमारी संस्कृति ,हमारे धर्म , हमारे संस्कार हमें जागृत करते हैं .
समय समय पर रहे राजतन्त्र , लोकतंत्र या अन्य व्यवस्थाओं में नारी पर के इन अत्याचारों की रोकथाम के लिए दंड प्रावधान किये गए हैं. 
आज नारी में जागृति आई है . अपने ऊपर होते इन अत्याचारों के विरुध्द उनके स्वर बुलंद हुए हैं.  नारी अत्याचारों पर कठोरतम दंड का दबाव आज न्यायपालिका और व्यवस्था पर है. 
व्यवस्था तय कर रही है .  अनाचार ,दुराचार पर फाँसी हो या नहीं तय होगा , फाँसी दी भी जाती रही है. तब भी ये अपराध अस्तित्व में बने हुए हैं.

इन अपराधों का सदाकाल के लिए निर्मूल होना , आवश्यक है.  नारी संतान होने के कारण हम पर दायित्व भी है.

नारी अत्याचार या अनाचार के दोषी को फाँसी हो या नहीं तय करने वाले तय करें.  लेकिन "नारी पर अत्याचार , अनाचार को फाँसी " अवश्य होनी चाहिए.  अर्थात पुरुष ह्रदय में उत्पन्न होते उस विचार का समूल नाश होना चाहिए जो पुरुष को ऐसे कृत्य के लिए उकसाता है.

असम्भव लगती यह चुनौती "नारी पर अत्याचार , अनाचार को फाँसी "  हमें स्वीकार करनी  होगी .
इसके लिए मनोवैज्ञानिक शोध करें.
चिकित्सा विज्ञान खोज करे , इस रोगी मस्तिष्क ग्रंथि को ठीक करें .
साहित्यकार प्रेरणा दें .
धर्म और समाज सुधारक संस्कारित करें.
और हममे से प्रत्येक का  जिसका जो सामर्थ्य है , उस अनुरूप योगदान करे.
यह पेज "नारी- चेतना और सम्मान रक्षा" मात्र इस अपेक्षा निर्मित है.  इससे जुड़ें और अपना दायित्व निर्वाह करने में समर्थता अनुसार (धन से नहीं)  वैचारिक रूप से प्रेरणा और उपाय पर विमर्श करते हुए इसे पुष्ट करें .चुनौती ग्रहण किये  जाने हेतु इसे प्रचारित और प्रसारित भी करें

" नारी पर अनाचार ,अत्याचार को फाँसी " होनी ही चाहिए .

--राजेश जैन
24-03-2014

 

Thursday, March 20, 2014

प्राचीन भारतीय दाम्पत्य

प्राचीन भारतीय दाम्पत्य
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(जो अब अपवाद हो चला है )

पति :  प्रिया  , मुझे तुम्हारी आँखों में आंसू  देखना कभी पसंद ना हॊगा ।
पत्नी :   तब आपको एक बात गम्भीरता से समझना होगा , आप मेरे पास हों या कहीं और जाएँ ,आयें। आपको अपनी सुरक्षा और स्वास्थ्य का हमेशा विचार रखना होगा , ये आप में मेरी धरोधर हैं।

(हम इसे अपवाद होने से बचा सकते हैं )
-- राजेश जैन  

Tuesday, March 18, 2014

नारी समानाधिकार और प्रचारित आधुनिकता

नारी समानाधिकार और प्रचारित आधुनिकता
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भारत में क्यों नारी को पुरुष समान अधिकार का स्वर उठाना पड़ा।
पुरुष जो गृह स्वामी की भूमिका में होता था/है , वह अपनी आश्रिता माँ ,बहन ,पत्नी ,बहु और पुत्रियों आदि के घर के बाहर सम्मान रक्षा , सुरक्षा और सुख की चिंता अपने व्यवसायिक लाभ हानि ,और स्वास्थ्य से बढ़कर करता था/है। इसके लिये प्राणों को भी दाँव पर लगा देता था /है।
किन्तु दोहरे मापदण्ड और वासना वशीभूत परदेशी तो छोड़ो पड़ोस तक की स्त्री जात पर  बुरी दृष्टि रखता।
हर घर में इस तरह के कुछ पुरुष (सभी नहीं ) का अस्तित्व रहा था /है तो नारी कैसे सुरक्षित हो सकती थी /है।
ऐसे में पुरुष बाहुबल के जोर पर कुरीतियों की विद्यमानता रही।
पुरुष एकाधिक पत्नियाँ रखने की कुत्सित भावना को पुरुषोचित वीरता निरूपित करता। स्वयं पुर्नविवाह करता , स्त्री पर बंदिश रखता। एकाधिक दैहिक सबंध बनाने की पुरुष दुर्भावना के कारण  रेड लाइट एरिया और कॉल-गर्ल पेशा अस्तित्व में आया। जहाँ नारी का जीवन अभिशापित था /है। जहाँ से उत्पन्न बच्चों का कोई भविष्य नहीं था (भले ही उनमें संभ्रांत समझे जाने वाले कुल का खून हो )  . ये बच्चे और क्षेत्र उत्कृष्ट संस्कृति में गिरावट लाने के लिए ही अभिशप्त थे।

घर की नारी के सम्मान रक्षा को चिंतित पुरुष का अजीब व्यवहार जिसमें दूसरे घर की स्त्री /युवती का सम्मान हनन होता था /है,  अधिकाँश सामाजिक बुराई की जड़ रहा।  भव्य समझी जाने वाली भारतीय संस्कृति को भी इसने ही क्षति पहुंचाई।  अपनी अल्पदृष्टि और अल्पकालिक सुख (भ्रम) के प्रभाव /वाँछा में दूरगामी बुरी परिणति को नहीं समझ पाया या समझ के नासमझ बना रहा।  समाज और सँस्कृति को क्षति पहुँचाने का दोष अपने ऊपर ले ना मालूम कितना सुखी रहा ना रहा , जीवन जीकर जाता रहा। और सामाजिक बुराई की विरासत आगामी पीढ़ियों के लिए छोड़ता रहा। ये क्रम निरंतरता रखे हुए है।  ज्ञात नहीं थमेगा कभी या नहीं।

इस तरह पुरुष दोहरी सोच /व्यवहार से दुर्दशा में रही नारी ने और न्यायप्रिय पुरुषों ने समाधान के लिए समानाधिकारों के स्वर बुलंद करने आरम्भ किये।  कुछ नारी दशा सुधरती और समाज नारी के लिए सुरक्षित बनता किन्तु उसी समय तकनीकों के विकास ने विश्व को बहुत छोटा कर दिया बाह्य अपसंस्कृति जिसमें दैहिक स्वन्छंदता को प्रौन्नत किया जाता है।  जो युवाओं को लुभावनी भी लगती है , का दर्शन आसान हो गया।  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , फ़िल्मी पर्दों पर इसकी भरमार हो गई।

भारतीय नारी जो दुर्दशा सुधारने जूझ रही थी , दिगभ्रमित सी रह गई है।  घर से बाहर निकल पुरुष को कंधे से लग श्रम और ज्ञान से स्वयं और परिवार को पुष्ट करती वह मंतव्य कम सिध्द हो सका। आज  एक बार फिर नारी छले जाने को उपलब्ध दिखती है।

नारी तो इस समाज में आश्रिता रही है , उसका आत्मविश्वास और मनोबल तो कम था/है ही।  लेकिन धिक्कार हम भारतीय पुरुषों को , जो चतुर -चालाक बाह्य मानव प्रजातियों की कुत्सित चाल में आ ठगे जा रहे हैं .जिनका अभिप्राय भारतीय वैभव ,भव्य संस्कृति और विश्व में उसकी प्रधानता को विनष्ट करना रहा है।

भारतीय समाज में पुरुष और नारी दोनों को विशेषकर युवाओं को जिनका अब जनसँख्या में प्रधान हिस्सा है अभी चेतना होगा। अपना विचार व्यवहार सुधारना होगा। अपनी कमियों को जो सामाजिक बुराई बढाती है को नियंत्रित करना होगा।

अन्यथा हमारा समाज बेहद ही विचित्र स्थिति में होगा ना पूर्व रह सकेगा ना कभी पश्चिम होगा और मध्य में कहीं टँगा रह जाएगा। यह 80 करोड़ युवाओं के देश के लिए ऐतिहासिक दयनीयता का काल ना बन जाए , आशंका होती है .

--राजेश जैन
18-03-2014


Sunday, March 16, 2014

होली पर हावी उदासीनता

होली पर हावी उदासीनता
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सुबह सैर निकलते बोली मुझसे रचना
होली है  तुमने अच्छा वस्त्र क्यों पहना

स्मित ला राजेश बोले सुनो मेरी गहना
प्रातः मिलेंगे कुत्ते सड़कों पर होगा सूना

कुत्ते न खेलते होली तुम चिंता न करना
सूनी सुबह रिज रोड मैं हूँगा उदास मना 

मन पर आ बसता कुत्ता ले होली बहाना
संभ्रांत न रहा खेल रूचि नहीं अब रंगना

-- राजेश जैन





Friday, March 14, 2014

आनंदमय और सार्थक जीवन

आनंदमय और सार्थक जीवन
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अरबों मनुष्य ,सभी के ह्रदय ,मन में अच्छी-बुरी अंतहीन इक्छायें
निर्वात में इन इक्छाओं-कामनाओं का आमना-सामना
एक की इक्छाओं की पूर्ती दूसरे के अहित का कारण
यानि सभी दिशाओं से एक केंद्र बिंदु पर वैचारिक - लालसाओं के यातायात का अवरुध्द (टकराव) होना
ना तो व्यक्तिगत , ना मानवता और ना ही समाज को  विशेष कुछ इससे हासिल।
इक्छाओं को सर्वहित के लिए नियंत्रित और व्यवस्थित करना
अब सभ्यता के दिशा में और उपलब्धि के लिए नितांत आवश्यक है।

अपने जीवन को सुविधाजनक  और तुलनात्मक रूप से सुरक्षित कर पूर्व पीढ़ीयों ने अपने दायित्व निभाए हैं और मानव सभ्यता के अनेक कीर्तिमानों  पर पहुँचे  हैं ,स्थापित किये हैं।
हमारी पीढ़ी को इसे सिर्फ बनाये रखना में ज्यादा श्रम लगाना आवश्यक नहीं है , बल्कि प्रोत्साहन और प्रेरणा  "इक्छाओं को सर्वहित के लिए नियंत्रित और व्यवस्थित करने " में देना है। इसमें विशेष मानसिक और शारीरिक श्रम खर्च करना है।
वर्त्तमान और आगामी पीढ़ियों के जीवन को ज्यादा आनंदमय और सार्थक करने का यह अपना  दायित्व समझना और उसका निर्वाह करना है।

--राजेश जैन
14-03-2014

Wednesday, March 12, 2014

मनुष्य जीवन की सफलता

मनुष्य जीवन की सफलता
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मनुष्यों में पिछली भूलों से सीख लेकर आगामी जीवन में सुधार करने की अद्भुत प्रवृत्ति होती है. प्राचीन अनेकों बुराई और अज्ञान से निजात उसे इसी कारण मिला है.  जब कोई सुविधाजनक स्थिति में ज्यादा समय रह जाता है तो उस पर लापरवाही छाने लगती है.  लापरवाही का परिणाम नई भूलों और नई बुराइयों में परिलक्षित होने लगता है.  आज के उन्नत हुए मनुष्य समाज में , जो सभ्य भी कहा जाता है , सुविधाजनक स्थिति जनित कई बुराई उत्पन्न हुई हैं ,हो रही हैं.  हमें सजग हो लापरवाही छोड़ इन पर काबू पाना है.
आज सर्वप्रथम जिस बुराई पर नियंत्रण की आवश्यकता है वह, मनुष्य जीवन की सफलता की परिभाषा सही करने की है.
वास्तव में आज सुविधा और अनुकूलताओं के वश में अपने पर से आपा जीवन के अधिकांश समय में हटा हुआ है.  जीवन में सफलता ,"वैभव और भव्यता" को  ही परिभाषित कर दिया गया है . हर किसी का लक्ष्य इस तरह जीवन को सफल कर लेने का हो गया है.  जीवन व्यस्ततायें इस हद तक बढ़ा ली गई हैं कि क्या खा रहे हैं ,क्यों खा रहे हैं इस तक की सुध नहीं है.

ना तो खाना ,पहनना ,सुविधा इत्यादि संतोष देता है , ना ही मुहँ पर मिलता झूठा मान सम्मान ही संतोष कारक है.  जीवन उत्तर्राद्ध में स्वास्थ्य गत विपरीतता और अकेलेपन में यह अनुभव करते मनुष्य को जब यह सच समझ आता है तब तक देर हो चुकी होती है. कुछ मानवता और समाज के लिए रचनात्मक ,सृजनात्मक और निस्वार्थ परहितों के लिए कुछ करने का उसका सामर्थ्य बहुत हद तक समाप्त हो चुका होता है.

मनुष्य जीवन जीने का अभिप्राय सिर्फ धन ,सुविधाओं का बटोरना ही नहीं होता है.  जीवन के कुछ सार्थक उद्देश्य होते हैं , जीवन सफलता की परिभाषा परिवर्तित करने की आवश्यकता है. समाज में व्याप्त बुराई इस तरह से ही नियंत्रित की जा सकेंगी.

अन्यथा खाने का क्या है ? कितना ही अच्छा खा लिया अगले समय फिर भूखे के भूखे ,जीवन भर खाते रहे अतृप्त के अतृप्त.  अच्छा पहना , कल फिर नया चाहिए …… 
"मृग मरीचिका और मृग तृष्णा को मृग में तो देखा ,समझा , किन्तु स्वयं में उत्पन्न हो गयी, यही नहीं समझ सके. ....
नहीं ऐसी भ्रम सफलता से निकलना और निकालना होगा.

-- राजेश जैन