Tuesday, December 9, 2014

नारी आश्रिता या आश्रयदात्री ?

नारी आश्रिता या आश्रयदात्री  ?
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नारी पर बाहरी पुरुषों के यौन आक्रमण से बचाने के लिए , नारी से अपेक्षाकृत अधिक बलशाली पुरुष ने , परिवार का मुखिया बन उसे अपने पीछे रखा। पुरुष की यह सोच निश्चित ही उसके अच्छी सोच और उद्देश्य की परिचायक थी। नारी मन ने अपने से इस पुरुष अनुराग को बिना शाब्दिक अभिव्यक्ति के समझकर , प्राचीन काल में पुरुष की पारिवारिक मुखिया होने को सहर्ष सहमत किया। नारी शारीरिक बल से यद्यपि कम शक्तिशाली रही , लेकिन उसका आत्मिक बल , पुरुष से बीसा रहा है। शारीरिक पीड़ा वह तब भी और आज भी पुरुष से अधिक सहनशीलता से झेलती रही है। नारी ही जीवन में कई कई बार मौत और जीवन के बीच संघर्ष करने वाली प्रसव वेदना सहते , मनुष्य नस्ल को बनाये रखने और बढ़ाने में सहयोग देते आई है। यही नहीं पुरुष अनुरक्ति को अपने पर अहसान मानते हुए स्वाभिमानी इस मनुष्य संगिनी ने अपने सामर्थ्य से अधिक घरेलु कार्य अपने जिम्मे कर उस अहसान का उस से बढ़कर बदला पुरुष को देने का यत्न किया है।
बाहरी आक्रमण और दुष्टता को सहने से बचाने के लिए पुरुष ने घर की चाहर दिवारियों में नारी को जब सीमित किया तब नारी ने अपने प्रति इस पुरुष अनुराग को निशंक स्वीकार किया और इस तरह आश्रित होना पसंद किया। लेकिन घर की सीमाओं में उसने दैनिक आवश्यकताओं के लिए सश्रम वे कार्य किये जिन्हें पुरुषों ने उसे करने के निर्देश दिए। धीरे धीरे पुरुष इन घरेलु कार्यों के लिए नारी आश्रित होता गया।यह पूरी व्यवस्था परस्पर आश्रित और आश्रयदाता होने की कहानी है। इस व्यवस्था में पुरुष विशेषताओं का लाभ नारी को और नारी क्षमताओं का लाभ पुरुष उठाकर परिवार और समाज उन्नति का उपाय करते रहे हैं .

फिर मानव विकास यात्रा सभ्यता की नई मंज़िल पर पहुँची जहाँ मनुष्य ने भाषा बोलना -लिखना आरम्भ किया , धर्म ,गणित -विज्ञान और अन्य कई क्षेत्र में ज्ञान अर्जित करना आरम्भ किया। तब तक नारी घर में रहने की अभ्यस्त हो चुकी थी । ज्ञान अर्जन के लिए बाहर निकलना था। नारी का बाहर निकलना तब सुरक्षित नहीं समझा गया। ज्ञान प्राप्ति के अवसर अतः पुरुष ने ज्यादा प्राप्त किये । ज्ञान प्राप्त कर वह ज्ञानी तो हुआ किन्तु चतुराई भी करने लगा।
अभी तक पुरुष नारी को आश्रय देकर नारी से आश्रय पाना भी मानता आया था किन्तु पुरुष को चतुराई आ जाने के कारण आश्रित (और आश्रय दात्री भी ) अपनी परिवारजन नारी के मन में उसे अपनी आश्रिता का बोध कराने लगा।वह समय भी आया जब सहस्त्रों वर्ष इस आश्रिता होने की बात ने समतुल्य होने का नारी आत्मविश्वास ही खो दिया।
लेखक की कपोल कल्पनीय मनुष्य प्रगति क्रम के आलेख आगे की प्रस्तुतियों में जारी (जिनके पुरुष अहं को ठेस लगी उनसे क्षमा सहित ) रहेगा .......


-- राजेश जैन
10-12-2014

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