Monday, April 29, 2013

Electrical Engineering analogy with Social Engineering

Electrical Engineering analogy with Social Engineering
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बिजली उत्पादन के बाद बिजली घर में इलेक्टिकल एनर्जी की अत्यन्त विपुल मात्रा को , दूरस्थ उपयोग स्थलों और घर घर तक उसके उपयोगकारी वितरण के लिए इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में पहले उसे बहुत हाई वोल्टेज (चार सौ हजार वोल्ट  या उससे भी अधिक ) के स्तर पर ट्रांसफॉर्म किया जाता है . फिर स्टेप डाउन ट्रांसफार्मर के प्रयोगों से बिजली को कम खतरनाक बनाते हुए उसके वोल्टेज स्तर क्रमशः एक सौ बत्तीस केवी , तैतीस केवी ,ग्यारह केवी और अंततः चार सौ(दो सौ तीस प्रति फेज ) वोल्ट तक उतारे जाते हैं . घरों तक पहुँचने वाला यह वोल्टेज स्तर इस तरह कम खतरनाक तो होता ही है घरों की इलेक्ट्रिकल वायरिंग और इलेक्ट्रिकल उपकरणों के लिए यही स्तर उपयोगी भी होता है . चूँकि बिजली उपयोगी तो है पर खतरनाक भी बहुत है इसलिए इतनी इंजीनियरिंग कर उसे मनुष्य जीवन की सरलता के लिए निर्माण किया जाता है .

ठीक इसी तरह सोशल इंजीनियरिंग भी होती है . अलग अलग फ़ील्ड्स में अलग अलग तरह के कार्य ,वस्तु ,निर्माण ,तकनीक , विज्ञान ,प्रस्तुतियां आदि प्रतिदिन जुडती जाती हैं . इनके बनाने के उदेश्य जैसे भी हैं . उनसे मानवता को खतरा भी हो सकता है और उन्हीं में मानवता की भलाई भी निहित हो सकती है .

संसार में सभी मनुष्य का ज्ञान और मष्तिष्क स्तर में बहुत अंतर है . नए अविष्कार ,साधनों और सिध्दांतों का प्रयोग किस प्रकार से हानिरहित हो सकता है सभी उसे समझ नहीं सकते . अतः जिन्हें उनकी सही समझ होती है ऐसे एक्सपर्ट्स (विद्वान) को इलेक्ट्रिकल ट्रांसफार्मर जैसी भूमिका सोशल ट्रांसफार्मर बन निभानी अनिवार्य होती है . उनको प्राप्त (इनपुट स्तर ) जैसा भी है पर उनके मुख ,लेखन ,आचरण और कर्म से निकलने वाला (आउटपुट ) उस स्तर का हो जाना चाहिए जो साधारण मनुष्य के लिए खतरनाक ना हो और समझना सरल तथा जीवन उपयोगी सिध्द होता हो .

आज जब नित नए आधुनिक साधन और सिध्दांत उपलब्ध हो रहे हैं जो निश्चित ही मानव जीवन के सरलता के लक्ष्य से लाये जा रहे हैं . इसके बाद भी असंख्य समस्या और बुराई से आज का समाज जूझ रहा है . कहना होगा कि आधुनिक साधन और सिध्दांत में खतरा भी है (बिजली जैसा ही ) .और जिस तरह बिजली के खतरे को कम करने के लिए ट्रांसफार्मर और इंसुलेटर निर्मित और उपयोग किये जाते हैं वैसी भूमिका समाज में निभाई जानी चाहिये . पर सोशल ट्रांसफार्मर और इंसुलेटर की भूमिका के प्रति जागृति जितनी चाहिए उतनी ना होने से आधुनिक साधन और सिध्दांत का स्तर मानव उपयोगी स्तर तक लाये बिना साधारण जीवन तक पहुंच रहा है . जिससे आविष्कारों से मानव लाभान्वित होने से ज्यादा हानि उठा रहा है .

उदाहरण :- कुछ समय पूर्व तक प्रसव के समय जच्चा -बच्चा में से एक या दोनों की मौत की आशंका बहुत होती थी . चिकित्सा विज्ञान और तकनीक की उन्नति  से सोनोग्राफी सिस्टम आया जिसकी सहायता से गर्भस्थ भ्रूण की स्थिति और अन्य कोई परेशानी के कारण गर्भ के प्रारंभिक समय से ही जाँचे जाते हैं . इस तरह से जच्चा -बच्चा के प्राणों पर से खतरा बहुत कम किया जा सका है .  पर यही वह सिस्टम है जिसके हानिकर प्रयोग से कन्या भ्रूण को पहचान कर उसे आजन्मा ही मारा जाने लगा . इस तरह बीस पच्चीस वर्ष बाद की हो सकने वाली जच्चा ... बच्चा रूप भी नहीं पाती है . जच्चा-बच्चा को लाभ देने वाला विज्ञान  जच्चा-बच्चा दोनों के हनन का निमित्त सिध्द होता है .यहाँ  जान पड़ती है न ? सोशल ट्रांसफार्मर और इन्सुलेटर  की आवश्यकता .

मानवता के लिए हानिकर होती और मनुष्य समाज को कमजोर करती आधुनिकता के ऐसे विषयों का स्तर कहाँ अति उच्च और कहाँ घटाया जाना है और कहाँ उसके अहितकारी प्रयोग से आशंका होती है वहां इन्सुलेट किया जाना है यह भूमिका विद्व माने जाने वाले सामाजिक सदस्यों पर आती है .उन्हें सोशल ट्रांसफार्मर और इंसुलेटर का दायित्व स्वतः ग्रहण करना है

हम समाज निर्माण के लिए सजग होने के साथ सतर्क भी बने .

Sunday, April 28, 2013

सुन्दरता भारतीय दाम्पत्य जीवन (Married life) अटूटता की

सुन्दरता भारतीय दाम्पत्य जीवन (Married life) अटूटता की  
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जाने क्यों विष फैलाया जा रहा है ? क्यों जिधर तिधर विवाह-पूर्व ,विवाह उपरांत अनेकों से संबंधों में सुख प्रचारित किया जा रहा है ? इस तरह जीवन साथी /संगिनी के प्रति निष्ठा क्यों खोई जा रही है ? पूरे जीवन चलने वाले संबंधों के विच्छेद का खतरा क्यों उत्पन्न किया जा रह है ?
आज शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए विवाह से अलग तरह के संबंधों के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं . 
इनमे पाश्चात्य विश्व ने पहले प्रयोग कर देख लिए हैं .  एक एक ने कई साथियों को आजमा भी लिया . कुछ वर्षों में विवाह विच्छेद कर फिर नया विवाह कई बार रचाया . फिर प्रयोगों के दुष्परिणामों में जीवन संध्या पर नितांत अकेले अकेले अवसादों में जीने को विवश अनेकों हैं .जीवन में यौवन निखार से आकृष्ट कई मिलते रहे . यौवन अस्त हुआ आसपास डोलने वाले गायब हुए . साथी कई बदले थे निष्ठा विहीन संबंधों में सच्चा प्रेम नहीं पनप सका . अब अकेले हैं. सुविधा है, धन है पर चित शांति नहीं है . शारीरिक विपरीतताओं के लिए तो कई उपाय किये जा  सके पर मानसिक सहारा देने वाले का आभाव सालता है .

विपरीत इसके भारत में ... अधेड़पति-पत्नी के बीच की बात .

आज वे फल सब्जी के लिए भीड़-भाड़ वाले पर थोक  फल सब्जी मंडी में जैसे तैसे कठिनाई से वाहन चलाते जा रहे हैं .
वहां ताजे भी और अपेक्षकृत कम भाव में फल सब्जी मिलते हैं . पत्नी कह रही है , कुछ समय बाद हम दोनों ही रह रहे होंगे तो यहाँ ना आया करेंगे. समीप के मॉल से ही खरीद लिया करेंगे . (उनके बच्चे अब कॉलेज के अंतिम वर्षों में है ,विवाह और जॉब के होने पर बाहर रहने लगेंगे , जिम्मेदारी निर्वहन से करीब करीब वे मुक्त हो जाएंगे ) 
पति सिर्फ सहमति का भाव चेहरे पर लाता है . कुछ बोलने के स्थान पर विचार में डूबता है . किसे पता कितना जीकर हम परस्पर साथ दोनों कितना रह पायेंगे, पर जितना होगा तुम मुझे और मै तुम्हारा सहारा जीवन में अधिकतम दिनों तक बन सकूं . इन भारतीय युगल का यौवन तो क्रमशः निस्तेज होगा  पर मानसिक एकाकी का शायद जीते जी कोई संकट नहीं है .

यह सुन्दरता है  भारतीय दाम्पत्य जीवन  अटूटता की . 

पर क्यों आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य हर बात की नक़ल प्रवृत्ति आज बढ़ रही है ? क्यों कुछ जिन्होंने स्वयं इसकी कद्र नहीं कर सके  वे अपनी अति चर्चा की प्राप्त हैसियत से आज की पीढ़ी को पथ-भ्रमित कर रहे हैं ?

पर अगर वे पथ भटका रहे हैं तो उनके जो भी मंतव्य हैं उनके साथ हम ना भटकें .
क्योंकि यह जीवन हमारा है और इसे सच्चा और अच्छा बनाना हमारा ही अधिकार और समस्या है ....

Friday, April 26, 2013

हो सार्थक जीवन तो मौत क्या भय?


हो सार्थक जीवन 
तो मौत क्या भय?
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सूर्यास्त तक की यात्रा में सूर्य
देता जीवन प्रकाश प्राणियों को 
अस्त हो जाये तब नहीं उलहाने 
आने दे बारी चन्द्र शीतलता की 
अस्त हो उदित होगा अन्यत्र
करेगा पूरे दायित्व सूर्य होने के
भांति सूर्य के फैलाएं सद-प्रेरणा
करें मानवता प्रति कर्तव्य अपने

जन्म अपना एक सच्चाई तो
मौत भी होती अवश्यम्भावी
अपने वश में जीवन जितना
बनने दें उसे युग अनुकरणीय

घट रहे व्यभिचार जहाँ तहाँ
अनैतिक किस्सों की भरमार 
निर्मूल हो सके अस्तित्व बुराई 
हेतु निस्वार्थ बनें निजहित तजें 


लें 
प्रेरणा सूर्य से दायित्व निर्वाह का 
जिसे न मिलता कुछ नित चलने से
फिर जो होता संतोष उसके पास 
प्राणी को जीवन संबल देने का
ऐसे आचरण ,कर्म अपने बनायें      
हम कुछ को संबल , प्रेरणा दे सकें 
सूर्य भांति संतोष होगा अपने पास 
हो सार्थक जीवन
तो मौत क्या भय?

Thursday, April 25, 2013

निज परिवार हित संकीर्णता त्यागें


निज परिवार हित संकीर्णता त्यागें 
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जीवन में जो सुख उपलब्ध मुझे रहे
कम से कम उतने सभी को मिलते
काश ,आती बुध्दि जीवन में पहले 
लक्ष्य रहता शेष, बूढ़े हम हो जाते 


देख रहे थे नित दिन पशु को चरते
नए ,पुराने साथी से संबंध बनाते
एक दिन जैसे ही कई दिन बिताते
फिर किसी दुखद दिन वे मर जाते

जन्मे वे सृजन कुछ नहीं कर सके 
चरते ,लड़ते, जन्मते अपने ही जैसे 
दिनचर्या में सेवन ही प्रमुख रखते    
दुर्भाग्य ऐसे गवाँ जीवन, वे मरते 
पशु इस तरह विकल्प हीन रहते
है मनुष्य जीवन बहुआयाम लिये
निज परिवार हित संकीर्णता त्यागें
परहित में सुख अनिभूति कर देखें

स्वयं को समाज विलग कर ना देखें 
हमारा है यह समाज यह दृष्टि लायें 
यदि दृष्टिकोण से हममें बुराई दिखें 
मिटाने इन्हें सम्मिलित हो जुट जायें 

राजेश जैन 

Wednesday, April 24, 2013

वंचितों की सहायता

वंचितों की सहायता
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आज बहुत कुछ विषय आर्थिक स्थिति पर निर्भर हो गए हैं .  ऐसे में अत्यंत आर्थिक अभावों में शारीरिक और मानसिक कष्ट दोनों ही बढ़ भी जाते हैं . किन्तु समाज में  अगर कोई इस स्थिति में  है कि हजार ,दो हजार मासिक भी अन्य जरुरत मंदों पर व्यय ना कर सके तो भी बिना आर्थिक सहायता के आर्थिक अभावों से जूझ रहे व्यक्ति (यों) के मानसिक कष्ट कम कर सकता है .


आर्थिक अभावों में रह रहे व्यक्ति की मानसिक शांति दो कारणों से प्रभावित होती है . 

एक ... जीवन अनिश्चिताओं में उसके वर्तमान और निकट भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ती कैसे संभव हो सकेगी ? इसकी चिंताएं .
दो ...  मनुष्य होने का आत्म-सम्मान , स्वाभिमान अनुरूप सम्मान अन्य के द्वारा नहीं किया जाना . 
(हम अपनी सफलता ,अनुकूलताओं और व्यस्तताओं में खोकर गरीब की इस मनः स्थिति को समझते नहीं हैं . फिर बिना प्रयोजन अपने व्यवहार से उसे मानसिक पीड़ा पहुंचा देते हैं .)

एक में उल्लेखित वंचित की समस्या समाधान के लिए हम में से बहुत ,बहुत कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि मध्यम वर्गीय स्वयं बहुत निश्चितताओं  में जीवन यापन नहीं करता है .पर दो में उल्लेखित समस्या जिसमें धन नहीं लगता ऐसे मीठे बोल और सहज व्यवहार वंचितों को देकर उनकी मानसिक पीडाओं को बहुत सीमा तक कम किया जा सकता है .

अगर हम ऐसा कर सकें तब भी सामाजिक समस्याओं को बहुत कम कर सकते हैं . समाज में मानसिक कष्ट अगर कम होगा तो हानिकर मानसिक ग्रंथियां ,मानसिक व्याधियाँ और विकृतता कम होगी . और बिना ज्यादा धन व्यय के भी वंचितों की सहायता संभव हो सकेगी .

Monday, April 22, 2013

Civil Engineering analogy with Social Engineering


Civil Engineering analogy with Social Engineering 
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बिल्डिंग निर्माण में बीम और कॉलम पर बिल्डिंग मजबूती का भार होता है . दीवारें छत ,फर्श दरवाजे और खिड़कियाँ बीम और कॉलम की मजबूती लेकर उसे सुन्दरता प्रदान करते हैं . रहने और जीवन यापन योग्य बनाते हैं .
हम अपने जीवन को इस  दृष्टि से देखें ..
हमें  ये (निम्नाकिंत ) अच्छे मिले हैं क्या ?
*   माँ पिता ,बहन भाई 
*  धार्मिक ,पारिवारिक संस्कार 
*  खानपान और शिक्षा 
*  आजीविका साधन 
*  धर्मपत्नी या पति 
*  बाद में बच्चे 
अगर इसका उत्तर हाँ है ,तो इन अनुकूलताओं के मिले होने से जिस समाज और देश में हम रहते हैं उसके प्रति हमारे दायित्व बढ़ते हैं . हमें स्वतः सामाजिक दायित्व अपने पर मानने होगें . 

परिवार ,व्यवसाय  या नौकरी में तो हमें कर्तव्य स्मरण कराने वाले बहुत मिलते हैं .हम उन्हें निभाने को बाध्य भी हैं . पर दुर्भाग्य जिस समाज में हम रहते हैं उसके प्रति दायित्व मानना ,निभाना वैकल्पिक ही छूटा हुआ है . अतः आज समाज निर्माण गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है . फिर उसमें बुराई का सामना होने पर सिवाय अन्य पर दोषारोपण के कुछ नहीं किया जा पाता है . दूसरों  को करने के  लिए अनेकों सुझाव और निर्देश होते हैं . अवधि कुछ बीतती है तो पुराना ठंडा पड़ता है और  नए दुष्कृत्य पुराने आरोप प्रत्यारोपों के लिए उत्पन्न हो जाते हैं  . 

हमारा हर कर्म धन अर्जन से प्रेरित है . घर के बाहर निकाला हर कदम धन अर्जन से प्रेरित है . हम धन अर्जन की अपेक्षा छोड़कर भी कुछ घंटे प्रतिदिन कुछ सामाजिक भलाई के कार्य करने का संकल्प लें .समाज को अच्छा बनाने के लिए स्वतः कॉलम और बीम सदृश्य दायित्व ग्रहण करें, जिनसे सहारा पा कर उपरोक्त हमारी तरह उपलब्धता से वर्जित अन्य, समाज में छोटे पर (बिल्डिंग के अन्य मेम्बर सदृश्य ) महत्व का पात्र निभाते इस समाज को अच्छाइयों से आभूषित कर इसे सुन्दरता प्रदान करें .

कुछ कर्म हम धन अपेक्षा के बिना करने का संकल्प अवश्य लें .समाज हित के लिए  कुछ त्याग करें .  सामाजिक दायित्व ग्रहण करें .तभी कुछ और भी प्रेरित हो सकेंगे . और बुराई की कुछ रोकथाम हो सकेगी .

 Civil Engineering के बिल्डिंग निर्माण और Social Engineering  में  समाज निर्माण में इस तरह की समानताएं हैं . पर सर्तकता प्रयोग की जाने वाली वस्तु पर रखनी है . अथाह धन की उपलब्धता में उन्नत रिसर्च और तकनीक तथा वस्तु की मजबूती के कारण बिल्डिंग के यूरोप ,अमेरिका से आयतित मेम्बर (सामान ) सुन्दर और मजबूती के लिए उपयोगी हो सकते हैं  . पर अथाह धन की उपलब्धता से अति विलासिता की प्रवृत्ति के कारण आयतित (संस्कृति)  मेम्बर (संस्कार ) समाज निर्माण  के लिए अनुचित होंगे . इनसे सुन्दर और मजबूत समाज निर्माण के किसी भी प्रयास को सिर्फ निराशा ही मिलेगी .

 अति विलासिता एक तरह की जंग (rust) ( जिस प्रकार लोहे को जंग कमजोर करती है ) है जो मनुष्य में जब लगती है तो मानवता के लिए हानिकर होती है और मनुष्य समाज को कमजोर करती है .

हम समाज निर्माण के लिए सजग होने के साथ  सतर्क भी बने .

राजेश जैन 

Sunday, April 21, 2013

रावण होता तो वह भी शर्माता


रावण होता तो वह भी शर्माता
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रावण महाविद्वान था ,इसका अहंकार भी उसे था . सीताजी को उठा ले जाने के बाद भी उसने जबरन शील नष्ट भी नहीं किया .
लेकिन अहंकार और सीताजी -हरण के कारण उसे बुरा माना जाता है . इसलिए बुराई के प्रतीक में उसका जिक्र हो रहा है .

आज की बुराई तो ऐसी हैं जिन्हें देख रावण होता तो वह भी शर्माता .. बल्कि शर्म के मारे मर जाता .. श्री राम की आवश्यकता नहीं होती रावण वध के लिए .

अन्य पर दोषारोपण समाधान नहीं


अन्य पर दोषारोपण  समाधान नहीं 
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हमें नहीं लगता सभी हम अच्छे नहीं हैं . किन्तु हमारे अच्छे होने के बाद भी आसपास समाज में बहुत कुछ अच्छा  नहीं है .

* यात्रा पर निकलते हैं . जब तक सकुशल वापिस नहीं पहुँचते कुछ आशंकायें मन में होती हैं .

* बच्चे ,घर के बाहर स्कूल ,कॉलेज या बाजार जाते हैं समय ज्यादा लगा कुछ आशंकायें मन में होती हैं .

* किसी कार्यालय में अपने किसी प्रयोजन का आवेदन लगाया कब हमारा कार्य संपन्न होगा शंका रहती है. 

* सामग्री (दूध ,फल अन्य खाद्य ) क्रय किया शंका ,हानिकर मिलावट तो नहीं होगी ?

* परीक्षा कोई दी , परिणाम में कोई अन्याय तो नहीं होगा हमारे साथ ?

* न्याय-मंदिर में कोई पक्षपात के शिकार तो न होंगे आशंका होती है .

* आधा कि. मी. पैदल चलते हैं ,बच्चे से लेकर बड़ों के मुख से अपशब्द ,गालियाँ सुनने मिलेगीं .
 
 जो आसपास हैं हम अच्छों में से ही तो हैं. फिर क्यों इतने छल ,अविश्वास ,लालचियों और अपराधियों  का भय .
हम अच्छे नहीं हम यह नहीं मानते .दूसरा भी स्वयं को ख़राब नहीं मानता या जानता . फिर आसपास क्यों इतनी खराबियाँ ?
हमारे अच्छे होने के बाद भी आसपास इतनी शंकाएं ,आशंकाएं और खराबियां , संकेत करती हैं हमें और अच्छा बनना चाहिए .

हम सभी को और अच्छा बनना चाहिए .
अन्य पर दोषारोपण की प्रवृत्ति कोई समाधान ना दे सकेगी .नहीं बदलेंगे तो दिनोदिन बदतर होगीं परिस्थितियाँ .

सीता स़ा चरित्र


सीता स़ा चरित्र
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पूजे जाते मर्यादा पुरुषोत्तम राम युगों से देश में 
हाय विडंबना बनता
 मनुज रावण जहाँ तहाँ आज 
कहलाती पूज्या ,वन्दनीय और जननी नारी लेकिन
घिघियाती वह लाज बचाने परपुरुष सम्मुख आज

पुरुष साथी हमारे, घर के बाहर भी बनो मुखिया
उठालो अपने कन्धों पर जिम्मेदारी समाज की
जन्मते, रह कोख में नौ माह देकर वेदना जिन्हें
उतारें हम ऋण मिटा पीड़ा उन 
निर्दोष नारी की 

बार बार कर रहे नारी लाज को तार तार, उन्हें
सिखलायें सबक, दंड प्रताड़ना वैसी ही देकर
ना करे फिर कोई निरादर, अत्याचार उन पर  
प्रभावी रोकथाम हेतु शपथ लें सब मिलकर 

तजें, अगर बुरी दृष्टि, कामना 
स्वयं हमारी यदि 
फिर रोकें देखने,परोसने अश्लीलता माध्यमों पर 
रोकें नशे ,नशीली सामग्री निर्माण, व्यवसाय की 
दुष्प्रभाव में जिसके होते नित अपराध अबला पर 

जीवन मजे के लिए और मजे सिर्फ दैहिक संबंधों में 
आधुनिकता के नाम प्रचारित विकृत धारणा ये बदलें  
सीता स़ा पत्नी-चरित्र चाहें, पर नारी सीता श्रध्दा से देखें
सच्ची राम भक्ति होगी यह मर्यादा पुरुषोत्तम के देश में 





Friday, April 19, 2013

Commit & Rollback

Commit & Rollback
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हम सॉफ्टवेअर डेटाबेस में काम करते हैं तो वहां किसी बदलाव को पक्का करने के लिए commit और बदलाव को रद्द करने के लिए rollback स्टेटमेंट लिखते हैं . 

लेकिन जीवन समयचक्र में हमें किसी भी बदलाव के लिए rollback का विकल्प नहीं मिलता है .अतः अपने जीवन के प्रत्येक पल में किया या होने वाला बदलाव इतना नियन्त्रित और अच्छा होना चाहिए ताकि ऑटोमेटेड होने वाले commit के बाद हमें वह अप्रिय ना लगे .

हर बीतने वाला क्षण यद्यपि भविष्य में उस जैसा कोई और क्षण तो बनाया जा सकता है .पर बिलकुल वही कभी नहीं होता . हम जीवन में लापरवाही में बहुत से ऐसा समय बिता देते हैं जो हमें तो प्रिय होता है पर अन्य को अप्रिय लगता है . ऐसे प्रिय क्षण बहुधा अति निज स्वार्थ के होते हैं . जो commit होते जाते हैं . फिर हमारे जीवन को जब दूसरे अपनी तरह से देखते हैं तो उसमें ढेरों बुराई दिखाई देती है . इन कमजोर क्षणों के बीतने के बाद कभी हमें स्वयं को ऐसे बीते प्रिय पल अपने ही अन्य दृष्टिकोण में अप्रिय लगते हैं .

उक्त अंश को पढ़ते हमारे मन में प्रश्न आ सकता है ,क्या अपना जीवन हमें दूसरों की टीका टिप्पणी को ध्यान करते जीना चाहिए ? उत्तर अंशतः ना है . पर हमें जीने का तरीका वह चुनना चाहिए जो स्वहित के साथ ही परहित में भी हो . फिर ऐसे लोगों का हमें अनदेखा भी कर देना चाहिए जो हमारे इस तरह के जीवन के लिए भी टीका करने बैठे होते हैं . वे हमारे हितैषी नहीं होते हैं .

मनुष्य रूप में जन्म लेकर  जीने वाले कई तरह से जीवन जीते और चले जाते हैं .

एक - सिर्फ अपने सुख के लिए , दूसरों के सुख-दुःख से कोई सरोकार नहीं .
दो -  ज्यादा अपने सुखों के लिए, धार्मिक या सार्वजानिक दिखावे के लिए थोड़ा अन्य के सुखों के लिए .
तीन - अपने सुख के साथ अन्य की सुख की चिंता और उसके लिए काम करते हुए .
चार - अपने सुखों की चिंता कम पर दूसरों के  दुःख मिटाने के लिए अधिक .
पाँच - सिर्फ दूसरों के  दुःख मिटाने के लिए उसी में अपना सुख पा लेने के लिए .

अगर सद्बुध्दि हमें तीन ,चार और पाँच के तरह जीवन यापन की मिली है तो बहुत ही उत्तम है . ऐसे पल commit होते जाएँ हमारे जीवन में हमें कोई चिंता नहीं होनी चाहिए .

समाज और मानवता के लिए हितकारी है ये .
हमें अन्य जीवन मनुष्य रूप मिलेगा या नहीं .और मनुष्य रूप मिलेगा भी तो यह सद्बुध्दि हमें मिल सकेगी या नहीं इसका कोई निश्चितता नहीं है . इस जीवन में यह हमारे साथ है तो इस जीवन को तो हम सार्थक कर ही लें .

राजेश जैन 

Thursday, April 18, 2013

नारी सम्मान रक्षा में हमारा योगदान



नारी सम्मान रक्षा में हमारा योगदान
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                       बच्चे छोटे होते हैं बाहर की हर बात आकर माँ-पिता को बताते हैं . दस-बारह वर्ष के होते हैं . तो स्कूल ,खेल के दौरान लड़ाई झगड़ों की घटनाओं की घर में चर्चा करते हैं, तो कभी अप्रिय डांट -डपट मिलती है . उससे बचने के लिए बच्चा क्या बताना है क्या नहीं बताना है यह अपनी बुध्दि से यहाँ तय करने लगता है . माँ -पिता को ना बताकर जिन्हें अपने फ्रेंड समझता है उनसे बताता (शेयर) करने लगता है . और यहाँ यह मासूम स्वयं ही अनजाने में अपने जीवन में खतरे का मार्ग प्रशस्त कर देता है .

                   उसकी स्वयं की बुध्दि विकसित हुई नहीं है . हम-उम्र फ्रेंड भी इसी तरह के हैं . अच्छे -बुरे का ज्ञान नहीं है . इधर उधर अनेकों तरह की बुराईयाँ फैली है . अल्प-बुध्दि से उनमें क्या उचित है सोचता और मित्रों से समझता है . यह उसे नहीं मालूम होता ,घर में माँ -पिता संसार में उसके सबसे बड़े हितैषी (well wisher ) हैं . थोड़ा और बड़ा होता है तो सोचे -समझे तरीके से ख़राब रास्ते की और प्रेरित करने वाले मिल जाते हैं .
हमारा समाज बालक (पुरुष) की खराबियाँ सरलता से स्वीकार करता है .उन्हें भूल सुधार करने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं . पर बालिका ( बाद की नारी ) के लिए हमारा ह्रदय इतना विशाल नहीं है . उनकी कुछ ही भूलों का परिणाम उनके पूरे जीवन को बुरी तरह प्रभावित करता रह सकता है . अतः सतर्कता हेतु उल्लेख वैसे तो सभी के लिए है पर विशेष कर किशोरियों और युवतियों का ध्यान यहाँ अपेक्षित है .

                       उन्हें स्कूल /कॉलेज और वर्क प्लेस में ये बताने वाले बहुत मिलेंगे कि माँ -पिता पुराने विचारों के होते हैं . फिल्मों ,टीवी और नेट पर भी ऐसे ही भ्रमित करने वाले लोग (अपने अपने स्वार्थ पुष्ट करने वाले ) ढेरों मिल जाएंगे . जो आधुनिकता के नाम पर दुष्प्रेरित कर किशोरियों और युवतियों से ऐसी भूल करवाने के प्रयास करेंगे . जिससे उन तरह के लोगों का कुछ स्वार्थ सिध्द होते हैं . पर इससे किशोरियों और युवतियों का आगे का जीवन बहुत मुश्किलों का हो जाता है .

                   घर में माँ-पिता आज के कुछ अच्छाई और प्रगति कारक साधनों के कम जानकार तो हो सकते हैं . और इस कारण उनसे सलाह कई बार उतनी उपयोगी ना भी मिले . पर यह मानना आवश्यक है कि उनसे बड़ा हितैषी दुनिया में दूसरा नहीं होता है .अतः कुछ कम उपयोगी उनकी बातों को धैर्य से मानना उचित है . उनका जीवन अनुभव बच्चों को सुरक्षित तरह से निश्चित ही अच्छे (थोडा कम हो सकता है ) की तरफ बढायेगा . जबकि अन्य द्वारा प्रचारित उनकी भलाई ज्यादा अच्छा तो शायद ही करे हानि होने का अंदेशा उत्पन्न करेगी . कोई दूसरा अपनी अपेक्षा को मिलाते हुए ही हमारी भलाई चाहेगा . जबकि माँ पिता इसके अपवाद होते हैं . बच्चों की भलाई के लिए अपने हित तज देना उनसे बढ़कर किसी को नहीं आता है .

                   आधुनिकता में सभी अच्छाई नहीं है . निसंदेह कुछ अच्छाइयाँ हैं . हम आरंभिक समय तो माँ-पिता के मार्गदर्शन में चलें . एक उम्र आते आते हम स्वयं समझदार होती हैं . फिर हम स्वयं योग्य होती हैं. हमारी अपनी समझ ही हमें पुराने परम्पराओं में से अच्छाई और आधुनिक साधनों और तरीकों (प्रचारित आधुनिकता में बुराइयाँ अनेक हैं ) की अच्छी बातों का भेद करना सिखाती है. . माँ पिता के हितकारी मार्गदर्शन में हमसे कोई भूल नहीं होती है . हम अपराध बोध या अवसाद में नहीं होने से अपनी पूर्ण योग्यता अपने हितों (और अन्य के भी ) में लगा कर जीवन में अनेकों से काफी आगे हो जाते हैं .

              तब यह भी हमें ज्ञात होता है धन वैभव मात्र से जीवन सफलता का प्रचारित पैमाना अनुचित है . जीवन सार्थक करने के लिए इससे पृथक भी बहुत सी बातें महत्व रखती हैं . हम आगे इस तरह निर्णय करते हुए अपना हित तथा नारी गरिमा बढ़ा सकती हैं . और अन्य के लिए सच्ची प्रेरणा बन सकती हैं . जब हम भली होगीं तो आने वाली पीढ़ी के अच्छे संस्कारों की सुनिश्चितता भी होती है .

नारी सम्मान रक्षा में हमारा योगदान महान हो सकता है .

Tuesday, April 16, 2013

LET IT BE

LET IT BE
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धन उपार्जन के लिए अथक मेहनत करने वाला  पिता अर्जित  धन व्यय करते हुए विवेक विचार से व्यय औचित्य का परीक्षण करता है . जबकि उनका संचित धन के पीछे लगा कठोर परिश्रम का ज्ञान कभी कभी संतान को नहीं होता . अतः वे व्यय करते समय ज्यादा गंभीर नहीं होते .जिससे अपव्यय के साथ  उनमें दुरव्यसनों के उत्पन्न हो जाने की सम्भावना होती है .

व्यय औचित्य की सच्ची दृष्टि उनको मिलती है ,जिन्होंने ने उसके अर्जन में जीवन ,श्रम और न्याय लगाया होता है . इस तरह से अर्जित धन कहते हैं परिवार में कभी बुराई नहीं लाता है . अतः समाज को बुराई से बचाना है तो स्व-अर्जित धन में से व्यय को प्रेरित करना आवश्यक लगता है . 
माँ-पिता का संचित किया धन मूल आवश्यकताओं पर व्यय किया जाए . जबकि विलासिता के लिए व्यय स्व-अर्जित धन में से किया जाए तो हर परिवार बुराई रहित हो सकते हैं . और जो समाज बुराई -रहित परिवारों से मिलकर बनेगा वह स्वतः कम बुराई वाला समाज होगा .

देश की जिन पीढ़ियों ने बलिदानों ,त्याग और वीरता के बल पर देश स्वतन्त्र कराया उन्हें तो स्वतंत्रता का मूल्य पता था . उन्होंने परतंत्रता की विवशता भी अनुभव की हुई थी . अतः स्वतन्त्र भारत के पुनर्निर्माण में वे गंभीर थे . लेकिन ज्यों -ज्यों वह पीढ़ी देश में कम बचती गई और ज्यों-ज्यों स्वतंत्रता को मिली अवधि बढती गई . उसके ( स्वतंत्रता प्राप्ति ,तथा परतंत्रता की विवशताओं) पीछे लगे बलिदान ,परिश्रम और वीरता का अहसास कम होता गया .

हमारा राष्ट्र के प्रति कर्तव्य होता है यह विवेक सोता गया . जबकि राष्ट्र से हमें क्या मिलना चाहिए यह अधिकार बोध बढ़ता गया . हमने आत्मावलोकन के लिए कभी समय नहीं निकाला . मोटी दृष्टि में हमें अन्य लोगों के दोष दिखे ,सूक्ष्मता से जो दोष अपने में दिख सकते थे उस दृष्टि का प्रयोग ही हमने छोड़ा .

आपसी दोषारोपण की स्वतन्त्र भारतीय शैली में व्यक्तिगत शांति -सुख किसी किसी को मिला .पर वह गौरव जो भारतवासी होने का हम रखते थे क्रमशः कम होते जा रहा है . ऐसा गौरव बढ़ाने के लिए सामूहिक प्रयास से भारत देश का गौरव बढ़ाये जाने की आवश्यकता होती है .

पर हम आपस में कहीं अपनी भाषा ,कहीं अपनी जाति ,कहीं अपने धर्म और कहीं कहीं अपने प्रदेश को श्रेष्ठ बताने या बनाने में संघर्ष रत होते हैं . जो इस देश की प्रगति नहीं देखना चाहती वे बाह्य शक्तियां हमारी इस कमी का उपयोग कर जब -तब हमारे आपसी संघर्षों के बीच कोई चिंगारी डाल देते है. जिससे भड़कती ज्वाला में हम बुरी तरह झुलसते हैं . और इस दृश्य से (दूसरों के कष्ट से मानव नहीं )  दानव प्रसन्न होता है .

क्या हम सब इसे समझना चाहेंगे ? या LET IT BE की उदासीनता से इसे जारी रखेंगे ....

Sunday, April 14, 2013

मात्र भोगवाद पर आधारित आयोजन

मात्र भोगवाद पर आधारित  आयोजन
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सवा सौ वर्ष पूर्व जब विदेश में शिक्षा के लिए जाना बेहद कठिन होता था . तब वे वहां जा रहे थे . उनकी माँ ने शराब ना पीने का वचन लिया था . उन्होंने आजीवन निभाया . राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने में पूरा जीवन लगाया . और मारे भी गए तो अमरता मिली पूरे विश्व में उनके समर्थक और अनुगामियों की  कमी नहीं .
पर विडंबना जिनका अच्छे संस्कार के लिए उल्लेख घर घर किया जाता है और अपनी संतति को उच्च संस्कार प्रदान किये जाते रहे हैं . उनका स्वयं का पुत्र शराबखोर और वेश्यागामी. हुआ और  उनके जीवन में एक शूल बनता था .

उसी तरह कई पीढ़ियों ने पराधीनता से मुक्त होने के लिए जीवन अर्पित और बलिदान दिया . और शताब्दी तक इसकी लड़ाई लड़ी .विडंबना स्वतन्त्र होने के बाद की पीढ़ियों को इसका महत्व अनुभव नहीं होता .
देश परतंत्र तो नहीं रहा पर विचार परतंत्र रहे और इस कारण विदेशी संस्कृतियाँ हमारी भव्य संस्कृति पर हावी ही रही  . देश और समाज से सांस्कृतिक मेलजोल , परस्पर सौहाद्र और शांति कम होते गई  . जश्न के नाम पर देर रात्रि की पाश्चात्य पार्टी संस्कृति सभी ओर दिखाई पड़ने लगा  . जिसमें खानपान तो ताम्सिक है ही वहाँ नियत ,दृष्टि,आचरण और कर्म मानवीय सीमा का उल्लंघन करते हैं .

मात्र भोगवाद पर आधारित इन आयोजनों को हम उन्नति और आधुनिकता निरुपित करते हैं .

क्या मनुष्य जीवन का अर्थ सिर्फ इतना है ?  फिर उनसे मुक्त क्यों हुए जो मात्र भोगवाद के लिए हमारे देश में राज चलाते थे और यहाँ का वैभव समेट -समेट कर अपने घर और देश भरते थे . उन्हें हटा यदि हम भी यह कार्य करेंगें तो सीधे -सच्चे तो वैसे ही ठगे से रहेंगे जैसे परतंत्रता में भी थे . स्वतन्त्र और परतंत्र के बीच क्या अंतर रहा ?

जालियाँवाला वाला बाग

जालियाँवाला वाला बाग
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94 वर्ष पूर्व का जघन्य हत्याकांड जो नागरिकों की रक्षक समझी जाती सरकार (हम पराधीन थे और शासन -विदेशियों का था ) द्वारा अंजाम दिया गया था . पंजाब के "जालियाँवाला बाग" में सशस्त्र सेना ने निहत्थे निर्दोषों के ऊपर गोलियों के सोलह सौ पचास राउंड दागे . हजार से अधिक निर्दोष जिसमें महिलाएं और मासूम बच्चे भी थे क्रूरता से मार दिए गए थे .
 किसी के साथ कोई अन्य तरह का अन्याय किया जाए ,उसकी क्षमा ,क्षतिपूर्ति और अन्य तरीके से कुछ हद तक भूल सुधार की जा सकती है . पर किसी के प्राण ले लिए जाना ऐसा जघन्य काण्ड होता है जिसकी भूल सुधार किसी भी तरह से संभव नहीं हो सकती . ऐसे क्रूरतम हत्याकांड सिर्फ इतिहास के काले पृष्ट पर हमेशा को दर्ज हो जाते हैं . इतिहासकार इस भावना से उन्हें दर्ज करता है जिससे स्वयं को सभ्य कहने वाला इसके बाद इस तरह के किसी जघन्यता में कभी हिस्सा न ले . 

जिस विदेशी मानव नस्ल के ऊपर इस जघन्यता का दोष जाता है . वह इस के लिए शर्मिंदगी प्रकट करने की हिम्मत जुटाने में 94 वर्ष का समय लेती है. (उनके प्रधानमंत्री शर्मिंदगी का लेख जालियाँवाला बाग में प्रविष्ट कर गए हैं .) घटना के दिन से आज तक और आने वाली शताब्दियों तक जब जब इसकी चर्चा हुई और होगी उनके सर शर्म से झुकने को लाचार होते रहेगें .
94 वर्ष हुए इतने ही बर्बर कुछ और घटनाएँ होती आयीं हैं . जो असभ्यता का ध्योतक है और ये कहती हैं मनुष्य के सभ्य होने में अभी और वर्षों -शताब्दियों की प्रतीक्षा करनी है .

उक्त घटना के शिकार उस समय ना मारे गए होते तो बीते 94 वर्षों के समय में कभी ना कभी स्वाभाविक मौत मर गए होते . इन 94 वर्षों में जलियांवाला में जिन्होंने बंदूकें चलाई या चलाने के आदेश दिए सभी मर गए होंगे . आशय यह 94 वर्ष एक जीवनकाल  से अधिक का समय होता है . ना मारे गए होते तो वे अपने जीवन सपने पूरे कर पाते .कुछ मानवता और समाज के बहुत ही भले भी कार्य कर पाते . लेकिन अपनों के ह्रदय में एक दुःख की तरह बस कर दुनियां से असमय ना चल बसते .

94 वर्ष हुए इसमें वे चले गए ,मारने वाले चले गए . देखने-सुनने  वाले चले गए . लेकिन अन्याय और क्रूरता का खून खराबा से आहत मानवता आज भी विद्यमान है और आने वाले हजारों वर्षों में भी शायद  मानवता पर लगा यह घाव बना रहेगा . 
"यह घाव मुझे एक याचक की तरह लगता है जो मानो सबसे कह रहा है ,दया मांग रहा है ,हे मानव , जिसने जन्म लिया है उस मनुष्य को आप असमय ना मारो ,प्रत्येक की स्वाभाविक मौत अपने समय तो उसे मार ले ही जाती है . उसके पूर्व उसे मिला पूरा जीवन जी लेने दो . हो सकता है पूरे जीवन में वह मानवता का वह अवतार बन जाए जो पूरे मानव समाज को सही पथ दिखा प्रसन्नता संपन्न समाज  की बुनियाद रख दे. "

मनुष्य रूप में हमारा  जन्म तय करने वाला हम सभी को यह योग्यता देता है . कृपया इस योग्यता का हम सभी पूर्ण प्रयोग कर सभी को सुखी बनाते हुए हम स्वतः सुखी हो सके इस हेतु समाज को अपना श्रेष्ठ योगदान अवश्य दें ...

Saturday, April 13, 2013

परहित में निहित स्वहित

परहित में निहित स्वहित
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हम अपनी पिछली पद-स्थापना वाले स्थान पर वरिष्ठ प्रथम श्रेणी रिटायर्ड अधिकारी के यहाँ किरायेदार थे .लगभग दस वर्ष पूर्व तक हम उनके यहाँ पाँच वर्ष तक प्रथम तल पर और वे भू-तल पर स्वयं सपत्नीक रहते थे . उनसे हमें लगभग माँ-पिता सा स्नेह मिला करता था .


दस वर्ष पश्चात आज उस भवन में ना हम, ना ही वे निवासरत हैं . अंकल-औंटी दोनों की मौत हो गई है . और हम जबलपुर  आ गए थे . पाँच वर्ष के उसी भवन में निवासरत रहते हम उसे अपना नहीं किराये के घर का  और वे भवन मालिक होने का भाव रखते थे .हमारे भाव में अलग -अलग विचार बसते थे . पर अब यहाँ वह अंतर नहीं  बचा . वह भवन अब ना तो उनका और ना ही हमारा निवास रह गया है .

यहाँ ये वक्तव्य नहीं दिया जा रहा कि किसी को अपना भवन निर्माण नहीं करना चाहिए . पर निर्माण के साथ अपनी अपेक्षा और उसकी उपयोगिता का ज्ञान हमें अवश्य होना चाहिए . जिस संसार को हम अपना मानते हैं और कई हथकंडे अपना कर दूसरों के साथ छल और विश्वासघात से भी नहीं चूकते उसका यथार्थ कुछ और होता है . हर अपनी लगती वस्तु और प्राणी अस्थायी रूप से हमारे या पराये होते हैं . यथार्थ में यह संसार पूरा का पूरा पराया हो जाता है .

इस पराये संसार में कई अवसर मनुष्य के जीवन में आते हैं . जब अपनी मानी गई किसी वस्तु या साथ छिनने या वंचित होने से हम इस कदर निराश होते हैं कि अपने जीवन से मोह छूटता हमें दिखता है .

जीवन अनुभव कम रखते किशोर और युवा हमारे भाई/बहन और बच्चे बहुत ही छोटी बातों से निराश हो आत्महत्या जैसा दुर्भाग्य पूर्ण कदम उठाते हैं . कमजोर पल जिसमें ऐसा छिनना या क्षति होना इस कदम को दुष्प्रेरित करते हैं ,उस पल को थोडा धैर्य से सहन करें . .वास्तव में सिर्फ उतनी ही ख़ुशी और संभावनाओं के अवसर  किसी के जीवन में उपलब्ध नहीं होते. अपितु अगर अनमोल मिला मनुष्य जीवन पूरा जिया जाए तो  हमारी ख़ुशी और संभावनाओं के अनेकों अवसर प्रतिदिन अलग अलग ढंग और भेष में हमारे समक्ष आते हैं .
हममें से किसी को भी कितनी भी जीवन प्रतिकूलता क्यों ना देखना पड़े . स्वयं अपना जीवन अवसर  इस तरह नहीं खोना चाहिए .

इतने में ही हमारा स्वहित था और अब यह नहीं बचा तो कैसे हम जीवन जी पाएंगे .इस भ्रामक निराशा को कोई भी कभी भी अपने ऊपर हावी ना होने दे .

मनुष्य जीवन वास्तव में सिर्फ स्वहित की दृष्टि से हमें नहीं मिलता बल्कि इसमें परहित की अपार संभावनाएं भी होती हैं . अगर जीवन में स्वहित अपेक्षा पूरी ना होते दिखाई दें . तो आत्महत्या के बदले अपना जीवन हम परहित में जीना जारी रखें . ऐसा कुछ वर्ष भी हमने कर लिया तो वह प्रसन्नता मिलेगी जो शायद जिन्हें हम अपना स्वहित मानते हैं उनके बीच (उपलब्धता ) में रहते भी हमें ना मिलती .

वास्तव में परहित में ऐसा स्वहित निहित होता है . जिसका अनुभव करने आज कोई तैयार नहीं . ना ही इसके उदाहरण बहुत दृष्टव्य होते जो इसकी प्रेरणा दे सकें .

स्व-विवेक से हम ऐसा करना आरम्भ करें . यह मनुष्य जीवन सार्थकता है .यह मानवता भी है . और समाजहित के लिए इसका बढावा दिया जाना आज की प्रथम आवश्यकता भी है .
बुध्दिमत्ता
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आज सुविधा भोग लालसाओं के हावी हो जाने से बहुत विकार और मनोविकृतियों को स्थान मनुष्य ह्रदय में मिला हुआ है . इसलिए इसके प्रभाव में मनुष्य जीवन को हम उपभोग प्रधानता में जी रहे हैं . जीवन आदर्शों की शिक्षा ,चर्चाएँ बिरली होती जाने से मनुष्य जीवन वास्तव में कितना अनमोल है इसका विचार बहुत कम ही समय हमारे दीर्घ जीवन में हमें आता है .
सब कैसे जीवन यापन करते हैं यही हम देखा करते हैं . तर्क होता है जब सब ऐसा करते हैं तो हमें भी वैसा करने में क्या कष्ट है . इस तरह जीवन आदर्श की एक सीढ़ी दूसरे उतरे तो हम भी उतरने को तैयार हो जाते हैं . इस प्रकार उच्च आदर्शों से हम बहुत निम्नता के स्तर पर आते जा रहे हैं .जबकि आदर्श की सीढ़ी का प्रयोग उच्चता पर पहुँचने के लिए किया जाना चाहिए .
आदर्श वास्तव में मनुष्य जीवन में संतुलन बनाते थे . जहाँ उपभोग और त्याग के बीच , प्राप्तियों और दान के बीच ,विश्राम और श्रम के बीच तथा जिव्हा लिप्सा और पौष्टिकता के बीच सुन्दर संतुलन होता था . हम श्रेष्ठ भी होते थे तब भी दूसरे को हीन मानते व्यवहार नहीं करते थे . हम अहंकार से दूर रहते थे .
आज स्थिति विपरीत है . उतने श्रेष्ठ हम नहीं होते जितना समझते हैं . इस भ्रम विचार से व्यर्थ अहंकार हमारे में आ समाता है . कुछ व्यवहारिक शिक्षाएं दूसरे की तुलना में हमें ज्यादा मिल गई होती हैं . कुछ वैभव हमें ज्यादा उपलब्ध होता है . तब मुहँ से हम नहीं हमारा अहंकार बोलने लगता है .
आज के चलन में सामने चापलूसी में अन्य हमारी झूटी प्रशंसा बखान करने लगता है . हम उसे नहीं पहचान पाते क्योंकि हम अपने को ऐसा माने होते हैं . जबकि पीठ पीछे वही हमारी बुराई या हँसी उडाता है . जब पीछे कही गई बातें हमारे सम्मुख प्रकट होती है तो हमारा मन बडा दुखी होता है .

हम स्वयं सिध्दांतहीन जीवन जी रहे होते हैं , लेकिन अन्य से उच्च सिध्दांतों को पालते जीवन यापन की अपेक्षा करते हैं .
हमारे इस दोहरे चरित्र का संज्ञान हमारे बच्चे छोटे से बड़े होते अनेकों बार लेते हैं . वे भी दोहरा चरित्र का संस्कार ग्रहण करते है और जब आयु के साथ शिथिल होती शक्तियों के समय हमारे ही जुटाए वैभव के अहंकार में हमारे ही बच्चे हमारा अपेक्षित सम्मान और सहारे की हमारी अपेक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते . तब हम अकेलापन अनुभव करते हैं . हमें उस वैभव जोड़ने की प्रवृतियों पर पछतावा होता है ,जिसके प्रयास में हम छल करते थे .हम न्यायप्रिय नहीं रह सके थे . हम इतने व्यस्त रहे थे जिसमें हमें जीवन के 60-70 वर्ष कैसे बीते इसका ही अनुभव नहीं हो पाया था .
बच्चों को हम अभाव में ना पालें .अपनी जिम्मेदारी उनके प्रति निबाहें . पर उनमें हानिकर अहंकार ना आये उसके लिए स्वयं को अहंकार से दूर रखें . अहंकार हमारी दृष्टि पर एक भ्रम परत बन छा जाता है . जिसके प्रभाव में हम अनमोल मनुष्य जीवन संभावनाओं को ही नहीं देख पाते . और असाधारण बन सकने की अपनी प्रतिभा का प्रयोग ना कर साधारण रूप में जीवन जीते हैं . अपना और अपने माध्यम से समाज और मानवता का हित नहीं कर पाते .
हम समीक्षा करें यदि ऐसी कोई भूल हम कर रहे हैं तो तुरंत सुधारें .भूलों का अनुभव कर लेना अपने आप में बुध्दिमत्ता का परिचायक है . उन्हें सुधारना तो बुध्दिमत्ता के साथ मानवता हितकारी भी होता है ...

Thursday, April 11, 2013

सैध्दांतिक स्तर

सैध्दांतिक स्तर 
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सैध्दांतिक स्तर इस लेख में जहाँ उल्लेख है ,उसमें आध्यात्मिक ,चारित्रिक,सांस्कारिक स्तर  और धार्मिकता सम्मिलित किया गया है .
मनुष्य किसी भी घर परिवार में जन्म लेता है तो जन्म के समय से उसे एक सैध्दांतिक और आर्थिक स्तर अनायास मिलते हैं . जिसमें जीवन यापन का वह आरम्भ से अभ्यस्त हो पलता बढ़ता है . और जो भी शिक्षा के अवसर उसे मिलते हैं उस अनुसार अपना बौध्दिक विकास करता युवा होता है .

यहाँ उसे तय करना होता है कि वह अपने जीवन में सैध्दांतिक या  आर्थिक किस स्तर की कमी (अभाव ) अनुभव करता है और किस स्तर को ऊँचा उठाना उसके लिए आवश्यक है . लगभग पचास वर्ष पहले की भारतीय जीवन शैली में मनुष्य जीवन में  सैध्दांतिक स्तर को आर्थिक स्तर की तुलना में प्रमुखता मिलती थी . लेकिन आधुनिक कही जाने वाली आज की जीवन शैली में इसे पलट दिया है .

अब आर्थिक स्तर ,सैध्दांतिक स्तर  की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाने लगा है . हालांकि आर्थिक स्तर के ऊँचे करने के प्रयास में लेखक को कोई आपत्ति नहीं अनुभव होती . पर इसे ऊँचा करने में लगे बहुत से हमारे चाचा ,भाई और बेटे (अब नारियां भी धन अर्जन में आगे आयीं हैं ) न्याय प्रिय तरीके  भूलते हैं .वह आपत्तिजनक होता है . सिध्दांत स्तर ऊँचा रखने और इसके निरंतर प्रयास करने में न्यायप्रियता अगर प्रभावित होती है तो वह भली दिशा में ही होती है .


समाज में आज बुराई और समस्या बढ़ रही हैं उसमें आर्थिक प्रमुखता की प्रवृत्ति भी प्रमुखतः जिम्मेदार है .
आर्थिक स्तर और सैध्दांतिक स्तर के बीच एक संतुलन बहुत आवश्यक है . जो समाज और देश की बुराई और समस्या को कम करने में सहायक हो सकता है .

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में समय समय पर अपने जीवन यापन के ढंग की समीक्षा और पुनर्समीक्षा करने की आदत बनाये और निष्कर्ष अनुसार इसमें परिवर्तन करे तो स्वयं उनका ,परिवार का ,समाज का ,देश और मानवता का हित होगा .

इस तरह से प्राप्त मनुष्य रूप में जन्म और जीवन की सार्थकता भी हमें मिल सकेगी .

Wednesday, April 10, 2013

मानवीय और सामाजिक कर्तव्य

मानवीय और सामाजिक कर्तव्य 
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युवतियाँ (जो हमारी बहन और बेटियाँ हैं ) विशेष कर व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में कार्यरत या छात्रावास में निवास करते अध्ययनरत होती हैं . वे बहुत समय ऐसा पाती हैं जब किसी परिस्थिति में उन्हें क्या करना है या क्या नहीं करना है उसका निर्णय उन्हें स्वयं करना होता है . क्योंकि हर समय अनुभवी और बड़े परिवारजन उनके साथ नहीं होते हैं .अध्ययन या कार्यालयीन /व्यवसायिक विषय पर निर्णय तो उनके विषय दक्षता के ही होते हैं जो सही ना होने पर थोड़े कठिनाई या क्षति के साथ भूल सुधार और परिवर्तित किये जा सकते हैं .

जिन निर्णय के प्रभाव नारी जीवन पर विपरीत हो सकते हैं वे विपरीत लिंगीय आकर्षण से सम्बंधित हैं 
युवतियाँ घर के बाहर जहाँ भी अकेली (परिजनों से दूर ) होती हैं वहाँ अधिकतर पुरुषों की उनके आसपास सक्रियता इस नीयत से होती है कैसे वे युवती को प्रभावित कर लें ,उनकी निकटता उन्हें मिल जाए . अगर इसमें सफल हुए तो आगे बहुत सी मनबहलाव संभावनाओं  के द्वार उनके लिए खुल जाते हैं . यहाँ पुरुषों का एक ठीक विपरीत चरित्र देखा जा सकता है ,वही पुरुष जो घर में बहन ,बेटी या पत्नी से संस्कारों ,परम्पराओं और संस्कृति की दुहाई देता है , अन्य की बहन ,बेटी या पत्नी से आधुनिकता के नाम पर स्वछन्द व्यवहार की अपेक्षा और उसको प्रेरित करने लगता है .वह सफल अगर होता है तो फिर नारी उसके लिए सुविधा या उपभोग की वस्तु होती है .जब तक अच्छी लगी साथ रखी ,और पुरानी या असुविधाजनक लगी तो अलग कर दी . युवतियाँ अगर उनके मंतव्य समझने में भूल कर बैठी या विलम्ब कर बैठी तो उनका साथ करने का लिया निर्णय उनके आगामी जीवन पर दुष्प्रभाव कारक सिध्द हो जाने वाला होता है .
इन दुष्प्रभाव को जीते युवतियों के हावभाव से भनक जब तक घर के पुरुषों को पहुंचती है तब घर का परंपरागत पुरुष (पिता ,भाई ,पति इत्यादि ) युवती के दुःख में स्वयं दुखी हो लेता है . और यदि परिवार की नारी का शोषण उनकी सहनशीलता के बाहर होता है तो उनकी हिंसकता आत्मघाती /युवती के लिए हानिकारक/घातक  या फिर उस पुरुष की  ख़राब परिणिति का कारण बनती है . जो  किसी दूसरे  की बहन बेटी के साथ पथ भ्रमित करने वाली आधुनिकता का व्यवहार करते हैं. जबकि स्वयं की घर की नारियों के साथ वे परम्परागत ,उच्च चरित्र समर्थक पुरुष होते हैं .

अगर पाँच -दस प्रतिशत युवतियाँ भी इस तरह की स्थितियों (विपत्ति ) में जा पहुँचती हैं . तो समाज को इसका बहुत बुरा परिणाम भुगतना होता है . शोषित नारी अवसाद ग्रस्त ,दुखी होती है उसके परिजन दुखी हो जाते हैं .प्रतिक्रिया में यदि अपराधिक कृत्य  घटित हो गया तो स्वयं और दूसरे पक्ष के लोगों के गहन दुःख के कारण तैयार हो जाते हैं .और समाज में दुखी कोई विद्यमान हैं और यदि उनकी संख्या दस प्रतिशत तक की है तो समाज सुखी कैसे हो सकता है .


स्थिति इतनी विकट यदि  नहीं बनी .पुरुष मित्र की चंचल मन प्रवृत्ति को युवती ने जल्दी भाँप लिया और छुटकारा ले लिया तो भी असफल (कुछ प्रकरण में एक से अधिक भी होते हैं , जब तक कोई समुचित साथ मिलता है ) सम्बन्धों  और उससे छले जाने की कटुता और एक तरह का अपराधबोध उसके सीने पर असहनीय भार के तौर पर आजीवन रहता है . (भारतीय परिवार में सदस्यों के चरित्रवान रहने की आवश्यकता लगभग प्रतिदिन चर्चा में रहती है ) .
यह एक तरह से सौ किलोग्राम के पीठ पर लदे अदृश्य भार के सदृश्य होता है .जिसको जीवन भर ढोते जाने की लाचारी छली गई नारी को निभानी होती है .

किसी के जीवन प्रारम्भ होने पर यदि जीवन लक्ष्य एक हजार कि .मी . के जीवन पथ पर चलने के बाद मिलता मान लेवें . तो इस अदृश्य भार  (सही निर्णय/सावधानी  ना लिए जाने के परिणाम स्वरूप ) को ढोने की लाचारी से जीवन पथ पर बढ़ते कदम शिथिल हो जाते हैं . ढोते -ढोते आरम्भ से कुछ अस्सी -सौ कि. मी . तक पहुँच ही जीवन श्वांस टूटती हैं . उच्च जीवन शिखर /लक्ष्य तक पहुँचने की योग्यता रहते हुए भी उससे बहुत दूर रहते हुए ही जीवन सार्थकता जिए बिना हमारी बहन /बेटी या माँ चली जाती है . 

नारी ममता /करुणा की देवी होती है . अपनी ही पुरुष संतान पर दोषारोपण नहीं कर पाती .बलवान होने से बेटा ,भाई ,पति या पिता उसकी निर्देश /सलाह या प्रार्थना की उपेक्षा करता है .
पुरुष के कुत्सित बहलावों में आ उस समाज के सुख की रक्षा में विफल होती है जिसमें स्वयं उसके पुत्र /पुत्रियों (जननी है नारी सभी की ) को जीवन यापन करना होता है .
छलने के प्रतिफल में पुरुष भी जीवन सार्थकता को पाने में असफल होता ही है . वह स्वयं गलत निर्णयों /अपनी भूलों को लादे वह भी जीवन पथ पर जीवन शिखर या लक्ष्य से बहुत दूर जीवन श्वाँस खो देता है .

हम  आदरणीय /प्रिय माँ /बहनों और बेटियों एवं अपने अपने पतियों की प्रिया पत्नियों से विनम्र अनुरोध करते  हैं . स्वयं इन भूलों में ना पड़ो. स्वयं को बचाओ. उन पुरुषों को बचाओ ,जो किसी ना किसी आप की  ही तरह की नारी का पुत्र,पति या भाई हैं .

आपका स्वयं का बचाव अपने सम्पूर्ण  स्वरूप में स्वयं के निकट पुरुष सम्बन्धियों  के साथ समाज का बचाव करने वाला सिध्द होगा . नारी  जननी है. संस्कारों की प्रथम प्रदाता भी है . अतः नारी  से अनुरोध का आरम्भ करते पुरुषों से भी अनुरोध है . हमें अपनी ही बहन ,बेटी या माँ जो  नारी रूप में इस समाज में रहती है के साथ .हम  नारी- गरिमा का ध्यान कर आदर पूर्वक व्यवहार करें  .परिवार, समाज और देश को सुरक्षित एवं विश्वसनीय बनाना हमारा परम कर्तव्य है .जन्मजात रूप से ही हम ज्यादा शक्तिशाली हैं अपनी शक्ति न्यायप्रियता में हम लगायें . कब तक हम सब अपनी भूलों का अनुभव ना कर दूसरों को दोषारोपित करने का क्रम चलाएंगे . तथा इस समाज को क्रमशः बुरा ,और बुरा बनाते चले जायेगें . यह दिशा बदलनी अभी ही से आरम्भ करें .  यह सभी का मानवीय और सामाजिक कर्तव्य है .

राजेश जैन 

Monday, April 8, 2013

सभी बनें प्रिय प्रतिभाशाली ऐसे



सभी बनें प्रिय प्रतिभाशाली ऐसे
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"केवल अपने हित ही जीकर,जो चला गया "

तो फिर क्यों कोई उसके गुणगान करे ?

होगी प्रतिभा किन्तु वह पर की किस काम की ?



प्रतिभाशाली हम उसे कहेंगे

प्रतिभा से अपनी पहचाने जो

कहाँ जरुरत इस प्रतिभा उपयोग की 


प्रतिभाशाली हम उसे कहेंगे

मानव समाज का जो भला करे

जो ना देता जीवन अवसर तो

नहीं बनता मनुष्य भिन्न जानवर से

विचारो यह और भिन्नता लाओ

सदकर्म करो कुछ ऐसे, हे प्रिय ,प्रिया

आज जरुरत देश को इस योगदान की


प्रतिभाशाली हम उसे कहेंगे

जो मोड़े रुख मनु भटकाव दिशा का

कदम रोक दे फिसलन पथ पर उनके


प्रतिभाशाली हम उसे कहेंगे

जो आकृष्ट कर सके उस पथ की ओर

जिसके साथ साथ बहती सरिताएं

करुणा ,दया और स्नेह लिए प्रवाह में

आसपास जिसके तरुवर वे सुन्दर

जिनमें फलते फल परस्पर विश्वास के

मध्य क्यारियों में जिसके खिलते पुष्प

बनाते स्थल सुरभिमय जो


प्रतिभाशाली हम उसे कहेंगे

जो बनायें सुन्दर पथ ऐसे

परिवार ,मोहल्ले ,नगर अपने में

न सिर्फ देश अपने में बल्कि पूरे विश्व में


प्रतिभाशाली हम उसे कहेंगे

जो लगाये जन्मजात मनु प्रतिभा को

सर्वहिताय और सर्वसुखाय कर्मों में

जब बनेगा यह समाज , हे प्रिय ,प्रिया ऐसा

हमारा हित होगा अनायास ही पूरा


सभी बनें प्रिय प्रतिभाशाली ऐसे

भावना रखता में , हे प्रिय ,प्रिया आपसे

परहित में जो स्वहित अपने जीकर

जो चला गया हम कहे जायें, जाने पर ऐसा



परतंत्र विचारों , बाह्य संस्कृतियों के प्रति सम्मोहन से मुक्ति

परतंत्र विचारों , बाह्य संस्कृतियों के प्रति सम्मोहन से मुक्ति
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विदेशियों की परतंत्रता की जंजीरों से देश जकड़ा था हमारा आत्म-सम्मान ,स्वाभिमान विवशता में रोता था . हममें से जिन्होनें अतिरिक्त वीरता दिखाई ,उन्होंने प्राणों की ,परिवार की और अपनी जीवन लालसाओं को ह्रदय से परे कर राष्ट्र को स्वतन्त्र करने का लक्ष्य लिया .
उनमें अनेकों शहीद हुए , प्राणों की आहुतियाँ दे दी .इस विचार से उनके दूसरे भाई -बहन , बेटे- बेटियां स्वतन्त्र भारत में इस विवशता से मुक्त होंगे . देश के सभी हिस्सों से ऐसे वीर बलिदान हेतु आगे आये थे .
किसी क्षेत्र या जाति अथवा धर्म को कम या ज्यादा बताना एक तरह से उन लड़ाकों का अपमान ही होगा जिन्होनें देश को समग्रता से एक मानते और विचारते हुए अपने जीवन सुखों और प्राणों का बलिदान किया .
फिर भी पंजाब का उल्लेख अलग से करना होगा . इस माटी के सपूतों ने अदभुत वीरता और त्याग की अनेकों गाथाओं की रचना की .
ऐसे सभी सपूतों जिन्होनें जीवन और जीवन सुखों की आहुति दी, उनके ह्रदय में कहीं भी यह संकीर्ण भावना नहीं थी कि देश स्वतन्त्र होने पर कई हिस्सों में बँट जाए . फिर इस तरह चाहा जाना ,हमारे द्वारा उनके बलिदानों का अपमान करना सा लगता है .
देश स्वतन्त्र हुआ . उसके बाद इस तरह के बलिदानों की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए थी . स्वतन्त्र भारत में किसी को जीवन पर यह अपने जीवन सपनों को तज देने की लाचारी नहीं होनी चाहिए थी . और ना ही आत्मसम्मान और स्वाभिमान से किसी को कोई समझौता करना लाचारी होनी चाहिए थी . ऐसा सामाजिक और राष्ट्रीय परिदृश्य हम निर्मित करते तो स्वतंत्रता के वीरों /शहीदों को हमारे द्वारा यथोचित सम्मान या सच्ची श्रध्दांजलि होती .
अप्रिय है यह लिखना ऐसा परिदृश्य नहीं बना . स्वतन्त्र देश का स्वतन्त्र नागरिक  प्रभुत्व शाली राष्ट्रों का, उनकी जीवन शैली ,संस्कृति और तौर  तरीके से प्रभावित रहा और  पिछलग्गू  वैचारिक परतंत्रता में जकड़ा रहा .
इस परतंत्र विचारों के कारण हम अनायास उन शक्तियों को ही पुष्ट करते रहे जो इस उपमहाद्वीप की भव्य परम्पराओं और उच्च चरित्र को पनपते देखना पसंद नहीं करती थी . और इस कारण समय समय पर स्वतंत्रता के बाद भी बाह्य ताकतों ने हमें ही उपयोग कर हमारी घरेलु कलह को चालाकी से उग्र रूप प्रदान करने में सफलता पाई . भाई -भाई के बीच हिंसा उत्पन्न कर एक दूसरे के प्राणों का दुश्मन बनाया .

इस तरह जो शक्ति राष्ट्रीयता को पुष्ट कर सकती थी  वह विघटन में व्यय होती रही . 65 वर्षों बाद परिदृश्य यह है देश का युवा अपनी संस्कृति के बारे में कोई जानकारी नहीं रखता . परतंत्र विचारों को प्रसार करते आधुनिक साधनों पर वैश्विक संस्कृति से सम्मोहित हो सिर्फ और  सिर्फ भोग लोलुपता में आकृष्ट हो रहा है . जन्म यहाँ लेता है .बढ़ता पढता यहाँ है फिर अपने सपने तलाशने विदेशों में भविष्य ढूंढता है . और वहां हल्की श्रेणी का व्यवहार सहन करते हुए वहां के सिस्टम को पुष्ट करता है .
वहां भ्रमण कर या कुछ वर्षों निवास कर लौटे ,हमारे अपने  अपसंस्कृति का वाहक बन विभिन्न मंचों से आधुनिकता के नाम वह परोसते हैं .उससे धन और प्रतिष्ठा अर्जित करने में सफल होता कोई   दिखता है तो युवा या बच्चा जो देश हित के लिए ख़राब और गंभीर परिणामों को नहीं समझता ,सरलता जान इसकी नक़ल करते हैं


कब तक यह क्रम हम चलाएंगे . कब तक दूसरों की कुत्सित चालों को नहीं समझेंगे . इस माटी से बन कर यहाँ खून खराबा स्वीकार करेंगे . उस पर नियंत्रण के लिए अपेक्षित त्याग ना कर .यहाँ भविष्य नहीं रहा इस तर्क पर देश से पलायन करेंगें . अगर ये सब हमें स्वीकार है हम वैचारिक परतंत्रता में ही अपना हित जानते हैं तो क्या आवश्यकता थी इतने बलिदानों की कीमत में स्वतन्त्र होने की ?
यह यथार्थ यदि अप्रिय लगता है हमें , तो फिर  कुछ व्यक्तिगत त्याग को हम तैयार हों . लड़ें एकजुट हो वह लड़ाई जो हमें परतंत्र विचारों और बाह्य संस्कृतियों के प्रति सम्मोहन से  मुक्त कराये .
सच्चा स्वतन्त्र भारत बनायें . आपसी संघर्षों को हम ख़त्म करें .पूरे राष्ट्र का  वातावरण और परिदृश्य इतना आदर्श बनायें जिससे  यहाँ जीवन बिताना हमारे बच्चे विश्व में सबसे शांत और सुखद मानें .

हम ने  वह पराक्रम देखा है जिसमें अपने निजी हितों से ऊपर उठ अपनी आगामी सन्तति (बच्चों ) के हित को प्रमुख कर वीरता से बलिदान तक दिया गया  है .

आओ कुछ तो बलिदानी आगे आओ . जीवन बलिदान नहीं चाहते. कुछ जीवन सुखों और व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर इस भारत वर्ष की प्राचीन भव्यता को पुनः स्थापित करें . हमारे पीछे जैसे पहले था विश्व ,फिर वह हमसे मानवता की प्रेरणा लेने हमारे पीछे आये .