Monday, February 17, 2014

संकोच लज्जा

संकोच लज्जा
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दुनिया को क्यों माने अपना
दुनिया जिससे अच्छी लगती
दुनिया जिससे अपनी लगती
दुनिया में छूट कहीं वे जाते हैं


हमें छोड़ना पड़ता कभी उन्हें
छोड़ हमें कभी जाना दुनिया से
या प्रिय वे दुनिया छोड़ जायेंगे
ना बनाऊंगा घर इस दुनिया में


दुनिया इतनी अजीब अगर है
आभासित ही अपना अपनी है
क्यों पडूं व्यर्थ की खींचतान में
क्यों जोडूँ मैं दिल यहाँ किसी से

इसलिए ढूँढूगा मैं ऐसी दुनिया
 भ्रम ना जहाँ होगी अपनी दुनिया
 उस दुनिया में ना साथी छूटेगा
 और न हमें छोड़नी होगी दुनिया


ह्रदय जुड़े नहीं संकोच करूँगा
लज्जा ना साथ छोड़ने की होगी
उस दुनिया में बने आशियाना
साथी वहाँ बनूँगा और बनाऊंगा


यह दुनिया सराय है इसलिए
सराय जान ही प्रयोग करूँगा
यद्यपि अच्छी परम्परा खातिर
स्वच्छ रखने के यत्न करूँगा


--राजेश जैन
18-02-2014

Saturday, February 15, 2014

संकोच

संकोच 
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अनायास घुसपैठ कहीं कर जाते हैं ,जीवन में
तौर तरीके वहाँ के हमें नहीं आते हैं ,अज्ञान में
वे और हम धर्मसंकट में पड़ जाते हैं ,संकोच में
कटु पर बाहर का रास्ता दिखलाते हैं ,विकल्प में
या वे हमसे कुछ कहने से कतराते हैं ,संकोच में
निकल बाहर हमें स्वयं आना होता है ,बेहतरी में
या तौर तरीके सीख पेश आना होता है ,भलाई में
त्याग दम्भ हठधर्मिता रहना होता है ,समाज में


--राजेश जैन

Sunday, February 9, 2014

सर्वकालिक सत्य एक कहानी

सर्वकालिक सत्य एक कहानी
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चार खरब चवालीस अरब एकहत्तर लाख तीन हजार दो सौ चौसठ वर्ष पाँच दिन पहले सृष्टि सृजनकर्ता को प्राणी नाम की वस्तु की कल्पना हुई . उन्होंने प्राणी बना दिया और पृथ्वी पर बसा दिया . पृथ्वी के जीवनक्रम तब से चलता आया है . इस वर्णित अवधि में तीस बार कोई ना कोई प्राणी प्रजाति विकास करती रही .प्राणी -सभ्यता चरम तक उन्नत हुई . फिर पृथ्वी के सौर मंडल में कुछ किलोमीटर के विचलन से जलप्लावन (प्रलय) हुआ . इस प्रलयंकारी घटनाओं में थल -जीवन  लगभग विनष्ट होता  रहा  . तीस बार अन्य प्राणियों की प्रजाति सभ्य हुई .  हर बार यही देखने में आया , जिस प्रजाति के प्राणी ने दो पैरों को हाथ के रूप में प्रयोग किया वही विकसित हुई  ,उसका मस्तिष्क ही उन्नत हो सका  . आखिरी जलप्लावन जिस में पृथ्वी का थल (प्राणी बसावट वाला हिस्सा ) जलमग्न हो गया . और महासागर के बीच टापू उभर आये . यह घटना चार करोड़ अस्सी लाख तीन हजार सात सौ इक्कीस वर्ष ग्यारह माह और उन्नीस दिन पुराणी है . जिसमें स्थल जीवन लगभग पूरा विनष्ट हुआ और महासागर पर उभर आये नए थल टापुओं पर आज के प्राणियों का आदिम रूप उत्पन्न हुआ.

इस नए प्राणी संस्करण में मनुष्य वह प्राणी रहा जिसने अपने सर के पास वाले दो पैरों को हाथ की भाँति प्रयोग आरम्भ किया . उसका मस्तिष्क सर्वाधिक गतिशील हुआ और शक्तिशाली ढंग से विचार-कल्पनाओं को परिणाम में बदलने योग्य होने लगा . इस तरह  निरन्तर विकास और सभ्य होते हुए  मनुष्य सभ्यता के आज की मंजिल पर है .  आज से सत्ताइस साल चार माह नौ दिन पूर्व उसका जन्म हुआ है . इस भव्य जीव को यह शीघ्र ही मालूम हो गया है कि सर्वकाल की तुलना में उसका आज के मनुष्य रूप का जीवन कितना छोटा है . वह अनंत -अनंत प्राणियों में जो जन्म लेते और मरते रहे हैं उनके बीच एक के रूप में नगण्य जैसा ही है . इस तरह एक मनुष्य रूप में चाहे जो स्वार्थ पूर्ती, भोग-उपभोग को समर्पित अपना जीवन लगा दे , उसे कुछ भी मिल गयी उपलब्धियों के बाद भी सर्वकाल के महा मानचित्र में उसका महत्त्व शून्य से बढ़कर कुछ नहीं होने वाला है.

वह आज निश्चय  कर रहा है कि वह अपने मस्तिष्क ,आचरण -विचार और कर्मों को लालसाओं के अधीन नहीं होने देगा . अपने शेष जीवन को अपने निस्वार्थ भाव और नियंत्रण से जीकर ऐसा उदाहरण आगामी मनुष्य समाज के सम्मुख प्रस्तुत करेगा जिससे सद्प्रेरणा लेकर आगामी मनुष्य संतति ऐसा समाज बना सकेगी ,जो आगामी जलप्लावन (प्रलय) से नाश के गर्त में जाने वाले जीवन तक हुए प्राणी के जीवनक्रम का सबसे सुन्दर - सुखी और निर्मल समाज कहा जायेगा. ……

--राजेश जैन
09-02-2014

Friday, February 7, 2014

टूट गिरे ना कोई तारा

टूट गिरे ना कोई तारा
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सामर्थ्य हरेक इंसान का
ऊँचा उठने का होता है
जगमग करते तारे जैसे
गगन पर छाने का होता है

प्रदर्शन ऐसा न करता तो
इंसान से संवेदना होती है
खेद देख दुर्गति, हमें वह
आकाश से टूटा तारा लगता है  

स्थापित अनेक सितारे हैं
आसमान पर प्यारे लगते हैं 
प्रखर बन सकते वे भी किन्तु
प्रखर हो सूरज एक ही बनता है

भूलकर अपना सामर्थ्य इंसान
एड़ियां रगड़ मर जाता है
कुछ चमकते सितारे बनते
पर सूरज बनने से रह जाते हैं

सितारे बनकर दूसरों की 
नयनों में ही बस रह जाते हैं
आगे भी प्रगति हो सकती
भूल, वहाँ कैदी बने चले जाते हैं

अन्धकार में भटक गया और
आज आपस में ही टकराता है
इंसान को आलोक दे ऐसा
एक सूरज तुरंत चाहिए है

सितारे बन स्थापित हो गए
इंसानी समाज के आसमान में
टूटा तारा ना बने कम से कम 
एक छाये सूरज सा आसमान में

आलोक से जिसके प्रकाशित होये
समाज पृथ्वी पर के इंसानों का
आपस में ना टकराए इंसान
छाये हुए आज के अन्धकार में

अगर कैदी हुए सितारे को
निकालें अपनी आँखों की कैद से
स्मरण तब होगी उसे क्षमता
बनकर चमकेगा सूरज जैसा

नहीं बनाना हमें नया सितारा
हश्र जो उसका यों होता है
या तो स्वयं हम बने सूरज या
करें मदद उसकी बन सकता जो सूरज है

--राजेश जैन
08-02-2014

जीवन परिपूर्णता

जीवन परिपूर्णता
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जीवन परिपूर्णता
एक अनुभूति ऐसी है
सबको मिल सकती है
न मिलती किसी को है
जीवन परिपूर्णता के लिए
चाहिए ना बहुत कुछ लेकिन
बहुत कुछ है मिला जिन्हें
उन्हें अनुभूति ये होती नहीं
धन ले आएगा बहुत कुछ और
जीवन लगेगा सफर सुहाना सा
अनुभूतियाँ होगी तरह तरह की
पर खटकेगी तब भी अपरिपूर्णता 
वैभव के आने जाने को और
भोग-उपभोग की उपलब्धता को
सहज लेने अगर की कला साधें
हो या ना हो बहुत कुछ तब  
होगी अनुभूति परिपूर्णता की

--राजेश जैन

परिपूर्णता

कितना दे दिया जीवन तुमने
इतना पाया पाकर अघा गया
इतना उदारता से मुझे दिया
बताओ प्रतिदान मैं क्या दूं ?


--राजेश जैन

प्रेम परिपूर्णता
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अब आ पहुँचा प्रेम हमारा इस मुकाम पर
कहाँ कुछ अपने लिए आशा रही मुझे कोई
तुम जीवन में चाहो जो सब मिले तुम्हें
गर त्याग से मेरे, मिले, हूँ आतुर तज देने


--राजेश जैन

दृष्टि परिपूर्णता
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सुन्दरता नहीं शक्ल की
हमने देखी यहाँ अक्ल की
मन से सुन्दर आप हैं ही
फ़ोटो में भी सुन्दर आप हैं



--राजेश जैन
07-02-2013








 

Wednesday, February 5, 2014

लौटा दो "भारत रत्न"

 लौटा दो "भारत रत्न"
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"भारत रत्न" वह सम्मान है जो भारत राष्ट्र या समाज के निर्माण में प्रेरणा दूत बने व्यक्ति को दिया जाता है ."भारत रत्न" राष्ट्र नागरिकों के  व्यक्तित्व निर्माण या राष्ट्र का जनजीवन सुलभ करती अधोसंरचना निर्माण में प्रेरणा दूत बने व्यक्ति को अभूतपूर्व योगदान के लिए दिया जाता है.

किसी अन्य को क्यों मिला या किसी को क्यों नहीं मिला इस पर लेखक कुछ नहीं लिखना चाहता लेकिन जब तुम्हें मिला तो अवश्य लेखन को मन होता है.

एक खिलाडी के तौर पर तुम्हारी प्रशंसकों की भीड़ में लेखक भी सम्मिलित रहा है . स्थापित होने वाले तुम्हारे हर अगले कीर्तिमान की अधीरता से प्रतीक्षा वर्षों करता रहा है. स्थापित किये तुम्हारे हर कीर्तिमान के समय ऐसा आनन्द अनुभव किया है जैसे निजी कुछ अनमोल हासिल हुआ है.  इस सब के बाद तुम्हें अर्जुन ,पद्मश्री इत्यादि मिले अच्छा लगा.  किसी खिलाडी के लिए उपलब्धि होती है.  लेकिन "भारत रत्न" मिला और तुमने ग्रहण किया आनंद नहीं एक बैचैनी उत्पन्न करता है लौटा दो इसे.

वस्तुतः मनोरंजन और देश को गौरव के पल तो अनेंको अवसर पर बहुत दिलाये तुमने . किन्तु व्यक्तित्व निर्माण , समाज निर्माण या देश के युवाओं को स्व-व्यक्तित्व निर्माण की प्रेरणा  ऐसा कुछ तुमने अब तक नहीं दिया या दिया भी है तो अभूतपूर्व जैसा कुछ नहीं है. समस्याओं से घिरे हमारे राष्ट्र या समाज का जीवन सरल करने का कोई बहुत बड़ा कार्य तुम्हारे द्वारा किया जाना शेष है .

दो टूक कहा जाए तो इस दिशा में अब तक अनायास अवरोध ही बने हो .  जब हजारों घंटे, करोड़ों लोगों ने स्टेडियम और दूरदर्शन के सामने तुम्हारे खेल देखने में व्यर्थ किये. इन देखने वालों ने जीवन के अमूल्य समय जिससे उनका व्यक्तित्व निखरता , अपने परिवार के लिए कुछ अतिरिक्त करते तुम्हारे लिए व्यर्थ किये. घंटों अपने कार्यालीन,व्यवसायिक  या अन्य दायित्वों को नहीं निभाया. विद्यार्थी ,पढ़ते और अपनी योग्यता बढ़ाते इससे विमुख रहे. यद्यपि इन  सब का आरोप तुम पर नहीं है , तुमने किसी से अपने खेल देखने का कोई निवेदन नहीं किया था. किन्तु इस दृष्टि से विचार करने पर भी तुम्हारी "भारत रत्न" की पात्रता नहीं बनती.

"भारत रत्न" का चयन करते हैं वे महान नहीं होते हैं , किन्तु तुम यदि महान होते तो "भारत रत्न" तुम ग्रहण नहीं करते.परम्परा से हट कर किसी खिलाडी को क्यों ये दिया जाना चाहिए? ये सोचते.  और "भारत रत्न"  के योग्य बनने के आगामी जीवन में उपाय करते ,यह तुमसे अपेक्षित था. तुम्हारा जीवन बहुत शेष है . शेष जीवन में राष्ट्र निर्माता के रूप में पहचान बना सकते हो.इस समाज और इस राष्ट्र को एक सच्चे मानवता दूत की आवश्यकता है, तुम्हारे लिए ऐसा बनना सरल है . तुम्हारा जीवन बहुत अभी बाकि है दुनिया में ख्यात हो , कैमरे तुम पर फोकस हैं, तुम्हारी बात को प्रचार करने को सब अधीर हैं. इस हैसियत से कुछ करना किसी दूसरे की तुलना में तुम्हारे लिए आसान है.

लौटा दो आज  "भारत रत्न" .फिर शेष जीवन में करो योगदान इस दिशा में  .और योग्य बन कर प्राप्त कर लो "भारत रत्न" वापस. सभी खुश होंगे. महान खिलाडी से महापुरुष बनो , महानता दिखाने का साहस करो , झपटकर सभी हासिल कर रहे हैं , तुम भी ऐसे ना बनो.

अस्वस्थ हो चली परंपरा की दिशा तुम मोड़ सकते हो.  स्वस्थ परंपरा डालने के लिए  लौटा दो "भारत रत्न" .

-- राजेश जैन
06-02-2014      

जीवन गणित

जीवन गणित
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छल कपट कितने भी करें , हासिल कुछ ना होगा
शून्य मौत से गुणा होकर , रहा शेष शून्य ही होगा


बुरे कर्म बुरे आचरण ये ऋणात्मक उपलब्धियां
जीवन का गुणा मौत से हो शेष शून्य ही रहती हैं  


अच्छे हों आचार-विचार ,कर्म और व्यवहार हमारे 
वे शून्य होने पर भी मानव समाज भला बनाते हैं


प्राणी जो भी करे जीवन में हासिल शून्य ही होगा
भला करे तो निजी नहीं मानवता को हासिल होगा


छल कपट कितने भी करें , हासिल कुछ ना होगा
शून्य मौत से गुणा होकर , रहा शेष शून्य ही होगा


जीवन उपलब्धियाँ निज दृष्टि से शून्य हो जाती हैं 
ले पीढ़ी आज संकल्प तो मानवता को हासिल होगा


त्याग किया अपनी लालसाओं का, महान उन्होंने
पा तब मानव सभ्यता की इस मंजिल पर लाया है


जीवन गणित के इस साध्य को हमें साधना होगा
भुगत रहे हम समाज बुराइयाँ हल उसका ये होगा


छल कपट कितने भी करें , हासिल कुछ ना होगा
शून्य मौत से गुणा होकर , रहा शेष शून्य ही होगा


अंकगणित से ये भिन्न जीवनगणित ज्ञान होता है
शून्य से गुणा होकर भी समाज हिस्से शेष रहता है


छल कपट कितने भी करें , हासिल कुछ ना होगा
शून्य मौत से गुणा होकर , रहा शेष शून्य ही होगा


--राजेश जैन
05-02-2014


Monday, February 3, 2014

मन से सच्चा

मन से सच्चा
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तन पर क्या ,
तन कैसा है ?
जो यही निहारे
ज्ञान में बच्चा है

मन में क्या है
पढ़ मानवता नापे
ज्ञान से वो सच्चा है

सबके तन निहारता
ललचाता रहता
वासना भूख बढाता
वयस्क तो हो गया
मानवता में बच्चा है

तन और मन के
बीच संतुलन से
जीवन स्वयं का
और साथियों का
जो निखारे वह
ज्ञान में पक्का है

कैमरा पाया
वीडियो बनाया
प्रमुखता से तन
पर ही केन्द्रित है

सबकी दृष्टि अब
भड़कते तन और
भड़काऊ वस्त्रों पर
सीमित रह गई है

वासना ,स्वाद के
पीछे अगर हम
जिंदगी भर भागेंगे
इस मूर्छा में हम
जीवन यों ही
अपना व्यर्थ करेंगे   

तन चित्र उकेरता
अपूर्ण वह कैमरा है
मन के अन्दर के
रूप को उकेरेगा
उपकरण वह
हमें चाहिये है

मनरूप के फ़ोटो
उतर जायेंगे
मन की बुराई
जगजाहिर होगी
इस भय से
मानव घबराएगा

मन को सच्चा
मन को सुन्दर
बनाये रखने के
वह उपाय करेगा

मन से अच्छा
मन से सच्चा
जिस समाज में
मानव होगा

वह समाज
सभ्य बन पायेगा

आदिकाल से विकसित हो
बहुत दूर हम
आ चुके हैं
किन्तु बहुत दूर
इस लक्ष्य के पीछे
हमें चलना है

तन से सुन्दर
सुन्दर वस्त्रों से
कीमती आभूषणों से
हम सज चुके हैं

इनके साथ जब
मन से सुन्दर
मन आभूषण से
भी सज पाएंगे
तब ही सभ्य और
परिपूर्ण मानव
हम कहलायेंगे

--राजेश जैन
04-02-2014

Sunday, February 2, 2014

वरना

वरना
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होता है प्रयोग शब्द "वरना" जिस वाक्य में
वरना के पहले और बाद होते दो हिस्से उसमें
पहले में होते बहाने या दोष जिक्र अन्य के
बाद दम्भ असम्भव को सम्भव बनाते "वरना"

वरना को प्रयोग करें सरलता से अगर हम तो
पर नहीं स्व-दोष देखते होती दुनिया सुन्दर "वरना"

दुनिया है अपनी इस बात को समझें गर हम तो
लगायें ना लाँछन अन्य पर ना बनाये हम बहाने
रखें कर्म उज्जवल रखें दृष्टि और नीयत निश्छल
वाक्य प्रयोग "वरना" में न रहेगा दंभ जो है नश्वर

--राजेश जैन
02-02-2014

Saturday, February 1, 2014

सहारा बनूंगा

सहारा बनूंगा 
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ना जलो प्रगति से मेरी, परिचित मेरे
खुशहाल अगर मैं रहा ,सहारा बनूंगा

सोचते ऐसा सब परिजन अपने, लेकिन
जलने वाले परिजनों में से ही मिलते हैं

छोड़ें दीपक को जलने के लिए क्योंकि
जलकर स्वयं वो देता उजाला सबको

ना जलो प्रगति से मेरी, परिचित मेरे
खुशहाल अगर मैं रहा ,सहारा बनूंगा

जलकर परिजन ,परिचितों से अपने
जलाते रक्त उसका और अपना ही हम

अवरोध बन प्रगति पथ में अपनों की
काम आता बुरे वक्त में खोते वह सहारा

ना जलो प्रगति से मेरी, परिचित मेरे
खुशहाल अगर मैं रहा ,सहारा बनूंगा

ना हुए उन्नत, सहायक हों प्रगति में तो
परिजन थामे, हाथ उन्नति पथ में बढ़ते

प्रगति कर खुशहाल अगर परिजन होगा
जलने से बच स्व-ह्रदय प्रफुल्लित होगा

ना जलो प्रगति से मेरी, परिचित मेरे
खुशहाल अगर मैं रहा ,सहारा बनूंगा

राजेश जैन
02-02-2014