Saturday, October 31, 2020

 #दृष्टिकोण

किसी मनुष्य का गला रेत कर मार डालना

उतनी साधारण बात नहीं जितनी 

उदर पोषण के लिए किसी मूक प्राणी की हत्या है 

मनुष्य का मनोमस्तिष्क अन्य प्राणियों से उन्नत होता है 

जिसमें अनंत अभिलाषायें, भावनायें एवं जीवन सपने होते हैं 

अतः यह तन ही नहीं, अरमान भरे मन की हत्या भी होती है 

जो लाखों गुना बुरा कर्म एवं जघन्य अपराध होता है। 

rcmj

 मेहनत से भी नहीं मिले कुछ

तब भी मेहनत करना नहीं छोड़ें

किस्मत पर कोई जोर न हमारा

मेहनत जरूर हम कर सकते हैं

Friday, October 30, 2020

हाँ, मैं जीना चाहती हूँ! (2)

 

हाँ, मैं जीना चाहती हूँ! (2)

आज सुबह मैं, सोकर उठी तो नया उदित होता सूरज, मुझे कुछ अधिक ही मनभावन अनुभव हुआ था। आज मेरी वार्षिक परीक्षा का, अंतिम पर्चा था। मेरी आज के विषय की हो चुकी तैयारी से मैं, संतुष्ट थी। 

पेपर के पूर्व आज और पढ़ने की मुझे, आवश्यकता नहीं लग रही थी। इससे मेरे, ध्यान में ना जाने कुछ और ही बातें चलने लगी थी। मुझे यह विस्मित कर रहा था कि परीक्षा के पूर्व, ऐसा सब मेरे दिमाग में क्यूँ चल रहा है। 

दरअसल मैं, पिछले कुछ महीनों को याद कर उसमें खो गई थी। 

मैंने, लॉकडाउन के समय में, ऑनलाइन कोर्स के माध्यम से, सेफ होने का ज्ञान अर्जित किया था।  

पिछले दिनों मैंने, चित्रकारी भी सीखी थी ताकि जो जीवन दृश्य मुझे, मनोहारी लगते हैं, उन्हें मै, कूची से कैनवास पर उतार सकूँ। 

कोविड19 के समय में मै, पूरी सावधानी से रही थी कि मैं, इसकी चपेट में आने से, स्वयं को बचा सकूँ। साथ ही पिछले महीने से मैं, कोविड19 के खतरे होते हुए भी, परीक्षा के परचे देने बाहर निकलती रही थी।

यह सब सोचते हुए मैं, विचार-मंथन में पड़ गई कि मैं, आज परीक्षा समाप्त होने के बाद, इस वर्ष अपनी अगली कक्षा की पढ़ाई के साथ- समानांतर ही, और किस बात की विद्या प्राप्त करूं। 

फिर मैंने तय किया कि मैं, इस वर्ष से आईएएस प्रवेश परीक्षा के लिए कोचिंग करुँगी। 

यह सब मेरा करना और आगे की योजना बनाना, इस बात का द्योतक था कि मैं, अपना जीवन अत्यंत अच्छे स्तर तक पहुँच कर, जीना चाहती थी। 

फिर समय हो जाने पर पेपर देने कॉलेज जाने के पूर्व मैंने, पापा एवं मम्मी को साथ बिठाया था। फिर उनकी गोद में मैं, कुछ समय के लिए लेटी थी। 

वे दोनों ही, मेरे ऐसे प्यार से भावुक हुए थे। उनकी आँखें स्नेहासिक्त में नम हो गईं थीं। उनके आशीष के साथ मैं, घर से निकली थी। 

घर के दरवाजे पर खड़े हुए उन्हें मैं, पलट पलट कर देखते हुए आगे बढ़ी थी। पापा-मम्मी को ही नहीं, अपने घर-द्वार को भी मैं यूँ देख रही थी कि जैसे, इस दृश्य एवं इस छवि को मैं, अपने अंतर्मन में स्थाई रूप से अंकित कर लेना चाह रही हूँ। 

फिर मैंने, यह सोचा था कि आज कॉलेज से लौटकर, इस दृश्य को मैं, कैनवास पर उकेरुंगी। 

इन सब विचारों के साथ मैं कॉलेज आई थी। परीक्षा पेपर, मेरी आशा अनुरूप बहुत अच्छा हुआ था। 

फिर पेपर समाप्ति के बाद, परीक्षा कक्ष से मैं, अपनी फ्रेंड के साथ अत्यंत चहकती हुई बाहर निकली थी।   

हम, पैदल कॉलेज गेट के बाहर आये थे। उस समय धूप पूर्ण प्रखरता से छाई हुई थी। सूर्य, जगमगाता हुआ अधिकतम प्रकाश बिखेर रहा था। 

अभी हम, कुछ कदम ही चले थे कि आकस्मिक रूप से, रास्ते को रोकते हुए हमारे सामने, एक कार आ खड़ी हुई थी। 

हम कुछ समझ नहीं सके थे। तब मेरी, आशंका सही निकली थी, यह दुस्साहस उसी का था। मैंने, उसे कार से निकलते देखा था।  

मैं उसके मंतव्य समझ पाती उसके पूर्व ही झपटते हुए उसने, मुझे, मेरे बाजुओं से पकड़ लिया था।  

वह, मुझे पुनः जबरन उठाकर अपहृत करने के उद्देश्य से कार में, ले जाना चाहता था। 

मेरे दृष्टि से गिर गए,  उस लड़के के साथ मैं, जा ही नहीं सकती थी। 

मैं प्रतिरोध करने लगी थी। उसकी पकड़ से छूट कर मैं, बचने के उपाय में इधर उधर भाग रही थी।

जब उसने, मुझ पर कट्टा ताना और मुझे लगा कि अभी ही मैं, मारी जाऊँगी, तब मेरे मस्तिष्क पटल पर सर्वप्रथम, मेरी मम्मी-पापा के मातम में, रोते-बिलखते हुए चेहरे उभरे थे।

पल भर में ही, एक साथ कई विचार मेरे मस्तिष्क में आने-जाने लगे थे।

मुझे याद आया कि मेरे बचपन से लेकर अभी तक, किस प्रकार मेरी प्रसन्नता सुनिश्चित करने के लिए, पापा-मम्मी, अपनी खुशियों एवं सुविधाओं को, मेरे लालन पालन में त्याग दिया करते थे। 

मुझे स्मरण आया कि कैसे दिन भर के कार्यों में, पापा व्यस्त रहते थे ताकि उन्हें, आय कुछ अधिक हो जाए। जिससे मेरे पसंद किये जाने वाले खिलौने, वस्त्र, आभूषण, मेरे पढ़ने के लिए अच्छी अच्छी पुस्तकें और मेरी चाही अन्य वस्तुयें भी वे, मेरे लिए ला सकें। 

मुझे यह भी याद आया कि मेरी एक किलकारी एवं मेरे मुख पर दिखती प्यारी सी हँसी देख वे कैसे, अपने दिन भर की थकान एवं चिंताओं से मुक्त अनुभव करते थे। वे, मेरी थोड़ी सी ख़ुशी में ही अत्यंत खुश हो जाते थे। 

मुझे स्मरण हो आया कि मेरी मम्मी कैसे, मेरे बुखार और अन्य तकलीफों के समय में, कैसे रात भर जागा करती रहीं थीं। कैसे वे कोई  भोजन सामग्री कम देख स्वयं, कम खातीं और वह पकवान जो मुझे स्वाद लगता, मुझे दिया करतीं थीं।

कैसे नई नई रेसिपी पढ़ पढ़ कर वे, मेरे लिए हर वह सामग्री बनाया करती जिन्हें मैं, अपने फ्रेंड्स के टिफ़िन में देख ललचाया करती थी। 

कैसे मेरी हर गलती के लिए, उनके हृदय में क्षमा होती। कैसे वे, पास-पड़ोस के बच्चों से, मेरे झगड़े में, मेरी गलती अनदेखा कर उन पर ही झगड़े का दोष मढ़ दिया करतीं। 

मुझे मम्मी एवं पापा का युवा दिखता मुख, उनका सुगठित, बलिष्ठ एवं अत्यंत ही आकर्षक सी उनकी देहयष्टि स्मरण आये थे जो, मेरे 4-5 वर्ष की मेरी उम्र में, उनके हुआ करते थे। 

फिर स्मरण आई, मुझे बड़ा करने के अपने अपने जीवन संग्राम के बीच, आज निस्तेज हो गई उनके मुख एवं शरीरों की अधेड़ावस्था वाली दशा। 

मुझे ये सब स्मरण करते हुए इस प्रश्न से अत्यंत पीड़ा हुई कि क्या शेष रहने वाला था, मेरी आज मौत हो जाने पर, इनके पास? 

उनके लिए मुझे दया एवं गहन करुणा की अनुभूति हुई कि अब उनके, मेरे बड़े किये जाने के लिए अपने सुख एवं सुविधा के किये, समस्त बलिदान व्यर्थ हो रहे थे। 

व्यर्थ जा रहा था, उनका अपने खून से, मेरी जीवन बेल को सिंचित किया जाना भी। 

मुझे विचार आया कि अपवाद ही कोई ऐसे माँ-पिता होते होंगे जिनका, अपनी युवा संतान की मौत देखना, उनके आगे के जीवन में उन्हें, मृतप्राय सा ना बना देता होगा। 

यह अनुभूति मेरे लिए अत्यंत विषाद पूर्ण थी कि पिछले बीस वर्ष के उनके जीवन सुख, मेरे भविष्य एवं जीवन बुनियाद रखने में, उनके त्याग के भेंट चढ़ गए थे। 

अब मेरी, इस आसन्न मौत के हो जाने के बाद से, उनके जीवन के बाकी रहे, बीस तीस वर्ष मेरी हो रही इस दुर्गति की पीड़ा, सहते सहते चले जाने वाले थे। 

यह यक्ष प्रश्न मुझे विचलित कर रहा था कि ईश्वर, ऐसी वेदना किसी माता-पिता को क्यों सहन करने को लाचार करता है? 

फिर मैंने एक आवाज सुनी, साथ ही एक गर्म लावा सा, मेरे माथे को बींधता अनुभव हुआ। उसने, मुझ पर गोली दाग दी थी। क्षणांश में ही मुझे तीव्र वेदना अनुभव होने लगी। मैं, धरती पर लहूलुहान गिर गई थी। 

इस प्राण घातक वार से तड़फती मेरी देह एवं मेरे मर्माहत मन में, मेरी प्रथम प्रतिक्रिया उसके प्रति, तीव्र घृणा की हुई थी। 

मुझे विचार आया कि मैं, प्रतिभाशाली एवं रूपवान लड़की के लिए इस संसार में, एक ऐसा लड़का कहीं निश्चित रहा होगा जो मुझे, अपने सिर-आँखों पर बिठाये रखता और अपने भाग्य पर इतराया फिरता। 

वहीं इसी संसार में, एक यह नराधम है, जिसने मुझे रक्त रंजित कर मेरे कोमल तन-मन को यूँ आहत, सड़क पर किसी आवारा जानवर की तरह बिछा दिया था। 

मुझे मारने के तुरंत बाद मैंने, उसे भागकर कार में बैठते देखा था। 

तब इस कायर पुरुष के ऐसे भागने से, उसके लिए, मेरे दिमाग में, व्यंग्य पूर्ण सराहना आई कि - वाह वाह! अपनी माई के तू, बहादुर लाल! एक निहत्थी, निर्दोष लड़की को अकाल मार कर तू तो, तीस मार खां हो गया है। 

ऐसे मुझे, मार डालते समय, उसे, उसकी अपनी, जीवन ललक का कोई विचार नहीं आया था। मुझ कोमलांगी एक लड़की के, सामने वह शेर हो गया था। मगर जब मुझे मारने के अपराध पर, मिलने वाले अपने लिए प्राणदंड की आशंका दिखाई दी तो वह, डर कर किसी चूहे जैसे भागा जा रहा था। 

हाँ, मुझे यह पता है कि तू अपने मजहब की, सच्ची इबादत का भ्रम पालने वाला एक निकृष्टतम झूठा प्राणी है। 

आज, तुझे लड़का या पुरुष कहना, मुझे, मेरे द्वारा, मनुष्य प्रजाति का घोर अपमान लगता है। 

तू किसी जानवर जैसा, दिमाग विहीन हिंसक प्राणी है। अरे ओ! दिमाग-शून्य दुष्ट प्राणी, तू सोच ही नहीं सकता कि जैसा तू समझता है यह, तेरे मजहब की तेरे द्वारा इबादत है, वह वास्तव में, तेरे द्वारा, तेरे अपने मजहब का, घोर तिरस्कार है। 

मुझे मारने के दुस्साहस का तेरे द्वारा, माना जा रहा कारनामा वास्तव में तेरे मजहब की दृष्टि में एक जघन्य एवं कुत्सित करतूत है। जिसकी जानकारी होने पर, दुनिया तुझ पर एवं अनावश्यक रूप से तेरे मजहब पर थू थू करेगी। 

ऐसे में जिस मजहब का तू उपासक कहलाता है, वह मजहब अपने ऐसे उपासक होने की अनुभूति से खुद को शर्मसार अनुभव करेगा। 

उस मजहब के अधिकांश धर्मावलंबी, दुनिया के सामने अपना मुहँ छिपाने को विवश होंगे। अपने मजहब की फेस सेविंग के लिए उन्हें, ना ना प्रकार के बहाने और तर्क सोचने होंगे। ताकि तेरे (और उनके) मजहब के भले होने का, अन्य कौमों में, विश्वास बनाये रखा जा सके। 

अब मेरी, अंतिम श्वास लेने का क्षण आ गया था। 

उस क्षण में मेरे विचारों की दिशा में करवट ली थी। मुझे अच्छा लग रहा था कि वह भागकर मेरी हत्या उसके द्वारा की गई है, इस सच को छिपाना चाह रहा था। मैं सोच रही थी कि उसकी यह कोशिश सफल हो जानी चाहिए। 

मैं जानती थी कि भगवान राम के द्वारा रावण को मारे जाने से, रावण का नाम राम जी के साथ, हमेशा के लिए जुड़ गया है। 

मैं, अब नहीं चाह रही थी कि इसे मेरी हत्या का दोषी सिध्द किया जाए। अन्यथा उसका नाम ऐसे ही, मेरे साथ (राम के रावण जैसा) अप्रिय रूप से जुड़ जाएगा। 

फिर मैंने यह सोचा कि इसे प्राणदंड भी नहीं दिया जाना चाहिए। 

मैंने साँप में, एक ऐसी प्रजाति का होना सुना था। जिसके एक साँप को मारने से हजार साँप पैदा हो जाते हैं। मुझे लगा कि यह उसी तरह का प्राणी है जिसके प्रजाति के, एक को मारो तो हजार पैदा हो जाते हैं। 

यह तो वैसे उस साँप प्रजाति से तुलना किये जाने योग्य भी मुझे, नहीं लग रहा है। उस प्रजाति के सर्प तो विष विहीन होते हैं। जबकि यह तो अत्यंत विषैला निकृष्ट प्राणी है, जो मानवता को डस रहा है और इस जैसों के कारण दुनिया से, मानवता अस्तित्व खो देने पर विवश हो रही है। 

इसे मारा नहीं जाना चाहिए बल्कि स्वयं ही इसे, अपनी मौत मरने देने के लिए छोड़ देना  चाहिए ताकि, इस एक को फाँसी दिए जाने के बदले में, हजार ऐसे दुष्ट पैदा ना हो सकें। 

अंतिम विचार इसे लेकर पुनः धिक्कार का आया कि यह उस कौम का सदस्य है जिसके अनुयायी दुनिया में 186 करोड़ हैं। मुझे इसकी कौम पर दया आई। 

इस जैसे कुछ, उस के कौम के सदस्य और हैं जिनके, अमानवीय कृत्य उस कौम के अन्य 185 करोड़ से अधिक लोगों को सिर झुकाने को मजबूर करते हैं। 

ये 185 करोड़ से अधिक अनुयायी, बुरे काम खुद नहीं किये जाने के बावजूद, बाकी विश्व की दृष्टि में संदिग्ध हो जाते हैं एवं उनकी नफरत के पात्र हो जाते हैं। 

फिर मेरा ब्रेन डेड हो गया था। अर्थात मैं, मर चुकी थी। 

अगले कुछ क्षणों में मेरे सड़क पर पड़े मृत पार्थिव शरीर से, मेरी आत्मा अलग हो रही थी। इन  क्षणों में, मेरी आत्मा इस सहित सभी प्राणी मात्र के लिए, क्षमा धारण कर रही थी।

अंततः इस क्षमा भाव के धारण करने के साथ, मेरी आत्मा, परमात्मा के रूप में बदल रही थी। 

तब, मेरी कहानी के अंतिम क्षणांश में, यह परमात्मा,  इस संसार से, दूर मोक्ष में जा विराजी थी।       


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

30-10-2020


Thursday, October 29, 2020

हाँ, मैं जीना चाहती हूँ!

 

हाँ, मैं जीना चाहती हूँ!

अगर आज मैं, जीवित होती तो कहती -

हाँ, मैं जीना चाहती हूँ!

फिर कहती कि - हाँ मैं, जीना चाहती हूँ!

बार बार कहती कि - जी हाँ, मैं, जीना चाहती हूँ!

मैं आपको बताती हूँ कि - उसने, 1 वर्ष पहले मुझे, अपहृत कर लिया था। उसके चंगुल से तब मैं, किसी तरह से छूटी थी। 

मैंने, उसके विरुध्द, पुलिस रिपोर्ट भी की थी। 

मुझे इस कटु सत्य का ज्ञान था कि - जब तक मैं, जीवित हूँ, तब तक मुझ पर, उसके द्वारा किये गए अपराध की जानने-समझने की, किसी को फ़ुरसत नहीं है। उसके विरुध्द, अपने जीवन की मेरी लड़ाई में, किसी अन्य की कोई रूचि नहीं है। 

मुझे समझ आता था कि - समाज की रीति-नीति खराब हो चुकी है। 

कोई लड़की जब जीना चाहती है और वह किसी तरह जीवित है, तब तक किसी को फ़ुरसत नहीं कि - उसकी सुरक्षा तथा उसके मूलभूत जीवन अधिकार की चिंता तथा उसकी सुनिश्चितता करे। 

मुझे आभास था कि - हाँ, यदि मैं किसी के अत्याचार में, मार दी जाती हूँ तब अवश्य ही मीडिया जागेगा, राजनीति भी की जायेगी। तब मेरे गुणगान-बखान करने एवं संवेदना जताने भीड़ भी जुट जायेगी। 

मैंने एवं मेरे परिवार ने तब, अपनी बेबसी और इसे दुःखद रूप से अपनी, अकेली की समस्या होना पहचान लिया था। 

राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले, उसके शक्तिशाली परिवार के समक्ष, अपनी सामर्थ्य सीमा अल्प अनुभव करते हुए, मेरे पापा ने उससे समझौता कर लिया था। 

उसके परिवार ने तब आश्वासन दिया था कि - आगे से वह, मेरा पीछा नहीं करेगा।

अपनी बेटी को जीती-जागती देखने के लिए मेरे पापा, मम्मी एवं परिजनों की, यह लाचारी ही थी। 

बात को कुछ दिन हुए तब, स्कूल में एक दिन, किसी अन्य कक्षा की एक लड़की, मेरे पास आई थी। वह मेरी पूर्व परिचित नहीं थी। उसने अपना नाम सबीना बताया था और मुझसे कहा था - तुमने समझौता करके ठीक किया। 

मैंने अचरज से उसे देखा कि, वह कैसे जानती है। मेरे मनोभाव समझते हुए वह बोली थी - 

हमारे, मौहल्ले में, इस अपहरण एवं समझौते की चर्चा रही थी।

उसी ने आगे कहा - वह, तुमसे प्यार करता है। 

मैंने कहा - यह प्यार तो नहीं होता! जो जबरन अपहरण करे। 

फिर स्वयं एक निष्कर्ष की तरह कहा - 

यह, दो घंटे का सिनेमा नहीं, पूरे जीवन का प्रश्न है।  जिसने मेरे ना कहे जाने का, आदर नहीं किया है। उसके लिए मेरे मन में, कोई सम्मान नहीं है।        

सबीना ने कहा - तुम, उसके प्यार को एकतरफ़ा छोड़ दो। कुछ दिनों में तम्हारी उपेक्षा से वह स्वयं, तुम्हें भुला देगा। मेरे पीछे भी गैर कौम के लड़के पड़ते हैं। मैं अपने लिए, प्यार से भरे, उनके दिल को समझती हूँ। फिर अपने परिवार की, ऐसे प्यार को अनुमति नहीं जानते हुए, अपनी उदासीनता एवं चुप्पी से, उनसे पीछा छुड़ा लेती हूँ। 

मैंने कहा - मेरा प्रकरण इतना सीधा नहीं है। यह मुझे लव जिहाद प्रेरित लगता है। 

सबीना ने प्रतिक्रियात्मक स्वर में कहा - नहीं, यह हमें बेकार ही बदनाम करने वाली बात उड़ाई गई है। 

मैंने कहा - सबीना, मैं खुली सोच रखने वाली 21 वीं सदी की लड़की हूँ। मुझे अन्य जाति या कौम में शादी करने से भी ऐतराज नहीं है। फिर भी मैं, उससे शादी की कभी सोच ही नहीं सकती। वह तीन-चार सदी पुरानी तरह की, सोच रखने वाले मुल्ला-मौलवियों के द्वारा प्रचारित की जाती, कट्टरता वाली शिक्षा से प्रभावित है। 

सबीना ने मेरी बात पर ऐतराज जताते हुए कहा - यह तुम, हमारे मज़हब को बदनाम करने के लिए प्रचारित की गई बात, बोल रही हो। 

मैंने कहा - सबीना, मज़हब के बारे में मैंने कुछ नहीं कहा है। मेरी बात मुल्ला-मौलवियों की दकियानूसी एवं भ्रामक सीख पर है। तुम मेरी एक ही बात का सही तर्क पूर्ण उत्तर दे दो। मैं, स्वयं को गलत मान लूँगी। 

सबीना ने पूछा - हाँ कहो, तुम क्या, कहना चाहती हो?

मैंने कहा - मैंने, #नुसरतजहां के द्वारा अन्य कौम में, शादी करने के विरुध्द, फतवा सुना है। तुम बता सकती हो कि, तुम्हारे लड़कों ने, जब अन्य कौम में शादी की हैं तब उनके विरुध्द कहीं कोई फतवा किया गया है। 

सबीना सोचने वाली मुद्रा  में दिखाई दी। फिर हार सी मानते हुए बोली - हाँ ये तो है। 

फिर उसके दिमाग में कोई उत्तर सा आ गया था। उसने व्यग्र हो कहा था - हो सकता है, ऐसे फतवे, होने - ना होने के, सही कारण, मैं नहीं जानती हूँ। संभव है कोई, मुझसे ज्यादा जानकार व्यक्ति, तुम्हें इसका तर्क पूर्ण उत्तर दे सके। 

मैंने सहमत ना करने की मुद्रा सहित कहा - मैं तो, और भी ढेरों प्रश्न कर सकती हूँ। मगर तुम्हें समझाने की व्यर्थ होने वाली कोशिश मैं नहीं करूँगी। मैं जानती हूँ, तुम्हें कटु सच, सुनना पसंद नहीं आयेगा। 

सबीना ने कहा - यह, तुम नहीं तुम्हारे पूर्वाग्रह कह रहे हैं। 

मैंने कहा - सबीना, मैं तुम्हें कहने नहीं आई हूँ। तुम ही जब आई हो तो यह अवश्य सुन लो कि   

- अब सभी कौम-नस्ल में समाज, सोच एवं संस्कृति बदल रही है। कदाचित तुम्हारी कौम में भी यह होने लगा हो।

तब भी ये मुल्ला-मौलवी, औरतों तथा मर्द के लिए अत्यंत अधिक भेदभाव की व्यवस्था देते दिखाई पड़ते हैं। मैं, ऐसी सोच से प्रभावित किसी लव जिहादी से शादी नहीं कर सकती। मैं आत्मघाती रूप से, अपने खुले जीवन अवसरों को, संकुचित सोच में बंद करने की भूल नहीं कर सकती। मुझे तो, यह तक पसंद नहीं कि कोई ऐसा लड़का, मुझे लेकर, अपने दिल में एकतरफा प्यार भी रखे। 

सबीना को मेरी बातें पसंद नहीं आई थी। चुप ही रहकर वह, तब चली गई थी। 

दिन बीते थे। मैंने अपने अपहरण वाली, कटु बात बिसरा दी थी।  

फिर मैं अपने अवसाद से उबर सकी थी। मुझे, मेरे युवा सपने, उत्साहित करने लगे थे। मैं सोचती थी कि मैं औरों जैसी, साधारण नहीं हूँ। मैं एक विलक्षण लड़की हूँ। मुझे, पता नहीं था कि - और युवा भी ऐसा ही सोचते हैं या नहीं।

मैं सोचती थी कि - मैं, जीवन में औरों जैसी साधारण रह जाने वाली नहीं हूँ। मुझे लगता था कि भविष्य में मैं, निश्चित ही श्रेष्ठ मानवों की अग्रणी पंक्ति में स्वयं को स्थापित कर सकूँगी। 

स्वयं को ऐसा विलक्षण मानना, सच है या यह मेरा भ्रम है, यह देखने के लिए, मेरा पूरा जीवन, मैं जीना चाहती थी। 

सबीना तब एक दिन, स्कूल में एक बार फिर मेरे पास आई थी। उसने कहा था कि - 

जैसा तुम समझती हो, हमारे सभी लड़के ऐसे नहीं है। मेरे चार भाई हैं। तीन की शादियाँ, हमारी ही लड़कियों में हुई है। चौथे भाई भी हममें ही, शादी करने की कहते हैं। लव जिहाद, मात्र कल्पना है। इसका कहीं, कोई अस्तित्व नहीं है। 

मैंने तब कहा - मैं, अपनी सच्चाई आज तुम्हें बताती हूँ। 

फिर मैंने उससे विस्तार पूर्वक कहा -      

कुछ समय से मुझे, ऐसी अनुभूतियाँ होने लगी हैं, जिसके होने से कोई लड़की, अपने आगामी जीवन साथी की कल्पनायें और सपने देखने लगती है। 

इन सपनों में भी मैं, जानती हूँ कि अभी मेरी प्राथमिकता, मेरी उच्च शिक्षा अर्जित करना है।  

मैं, जानती हूँ कि कहीं मेरा जीवन साथी भी है। वह अभी जहाँ भी है, पढ़ने के प्रति, मेरे जैसा ही गंभीर होगा। इस समय उसका लक्ष्य अपनी जीवनसंगिनी का विचार रख, वह योग्यता अर्जित करने का होगा, जिससे भावी जीवन में, अपने सपने पूरे कर सकने की क्षमता, किसी में खुद, सुनिश्चित होती है। 

ऐसे में, मुझे जो चाहिए वह जीवन साथी, यह अपहरण का अपराधी लड़का, कभी नहीं हो सकता है। इसे तो मेरी इक्छा, आदर एवं स्वाभिमान की समझ ही नहीं है। 

कोई भी लड़की, उस लड़के को कैसे पसंद कर सकती है जो सिर्फ अपनी ही अभिलाषाओं की समझ रखता हो। जिसे, अपनी प्रिया (वह जानता है) की, अभिलाषाओं की समझ ही न हो।

 अपहरण करने वाले ऐसे लड़के को, कोई लड़की, चाह ही कैसे सकती है, भला? 

उसने मेरा अपहरण किया था। वह मेरी दृष्टि से गिर चुका है। तब भी, मैंने उससे समझौता एवं क्षमा किया था कि मैं, उसका भविष्य अपनी नाराजी से बिगाड़ ना दूँ।

सबीना तब यही कह सकी थी कि - हाँ, बात तो तुम सही कहती हो। मैं भी, कुछ ऐसा ही सोचती हूँ। 

यह सबीना से हुई मेरी अंतिम मुलाकात थी। फिर मेरा स्कूल पूरा हुआ और मैं कॉलेज में आ गई थी। ऐसे फिर, सबीना आगे कभी मुझे नहीं मिली थी।    

(यह कहानी काल्पनिक है, यह कोई यथार्थ घटना नहीं कहती है) 

(शेष अगले भाग में)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

29-10-2020


Tuesday, October 27, 2020

पूर्ण न्याय..

 

पूर्ण न्याय..  

मैं, उस 15 वर्षीया पीड़िता की बड़ी बहन हूँ, जिस पर बलात्कार हत्या का प्रकरण, आठ महीने पूर्व देश में अत्यधिक चर्चा में रहा था। मेरे द्वारा अब, लगाई जनहित याचिका से, वह प्रकरण देश में पुनः चर्चा में आ गया था। 

वह प्रकरण, अत्यंत दुःखद हादसा था। जिसमें रात 10 बजे खेत से लौट रही, मेरी सबसे छोटी, 15 वर्षीया बहन को, एक ड्राइवर एवं उसके खलासी ने, मिलकर ट्रक में उठा लिया था। दुष्कृत्य करने के बाद, उसे गाँव से 10 किमी दूर सुनसान सड़क पर छोड़ दिया था। 

मेरी, इस पीड़िता बहन को, सुनसान रात में अकेली पाकर, दो और लड़कों ने, उस पर बलात्कार किया था एवं फिर उसकी निर्ममता से हत्या कर दी थी। 

तब विपक्षी दलों ने मौका देखकर खूब, राजनीति की थी। जिससे, राज्य सरकार एवं राज्य पुलिस की बहुत छिछालेदार हुई थी। इस निर्मित हुए दबाव में, पुलिस ने गिरफ्तार आरोपियों को, एक घटना क्रम का बहाना बना कर, एनकाउंटर में आरोपियों को मार डाला था। 

सरकार ने भी, हमारे पीड़ित परिवार में से, मुझे सरकारी स्कूल में, चपरासी की नौकरी दे दी थी। साथ ही हमारे परिवार को, पचास लाख रूपये की सहायता राशि दी थी। जिसके बाद प्रकरण का, राजनैतिक, मीडिया एवं जन विरोध, उदासीन कर दिया गया था। 

अनु कंपा रूप बतौर, मुझे नौकरी प्राप्त हुई थी। ऐसे में मेरी याचिका चौकानें वाली थी। इसमें उल्लेखित कारण, लोगों को अचंभित कर रहा था। मुझसे, मेरी महिला वकील ने, शुल्क ना लेते हुए याचिका दायर करवाई थी। जिसमें उल्लेख किया गया था कि -

याचिकाकर्ता मैं, 20 वर्षीया लड़की, अभूतपूर्व रूप से अपने, सामाजिक दायित्व का परिचय दे रही हूँ। मैं इसमें, अपने पिता के शराब पीकर, अपनी माँ से की गई बात का खुलासा कर रही हूँ।

सात दिन पूर्व नशे में धुत्त, मेरा पिता, मेरी माँ को, गालियाँ देते हुए कह रहा था कि -

तूने, एक के बाद एक, चार लड़कियाँ पैदा कर दी थीं। जिन्हें, मैं ही मार डालने की सोचता था। अगर मैं मार देता तो मैं, आज जेल में होता। 

भगवान, जब किसी पर कृपावान होता है तब, छप्पर फाड़ के देता है। हमारी, एक लड़की को उसने, औरों से मरवा दिया है। मुझे, पचास लाख मिल गए हैं। बड़ी को, नौकरी मिल गई। मजे ही मजे हैं, अब तो हमारे। 

पिता की इस बात ने मुझे मर्माहत किया था। उस रात वह मुझे, मानव जाति पर, कलंक लग रहा था। 

मेरी माँ, अपने निकम्मे एवं नशेड़ी पति (मेरे बाप) के अत्याचारों से त्रस्त रही थी। वह, रईसों के घर चौके बर्तन एवं कपड़े धोकर, जैसे तैसे, हम बच्चों को पालती थी। उसका पति (मेरा बाप), उसकी ऐसी कमाई में से भी उसे, मार पीटकर, अपने नशे के लिए, रूपये ले लिया करता था। 

देश सरकार की घर घर शौचालय योजना में, मेरे पिता ने पाँच हजार का लोन लिया था। मगर शौचालय बनवाये बिना उस पैसे को, अपने नशे के लिए उड़ा दिया था। 

इस कारण से घर में, शौचालय नहीं होने था। उस रात, मेरी पीड़िता बहन ने, शौच के लिए जाने में, रात होने से, मेरे पिता को अपने साथ चलने के लिए भी कहा था। लेकिन नशे में धुत्त रहने से वह, साथ नहीं गया था। उसी रात, उसे अकेली देख, दुष्ट लोगों ने, उसे उठा लिया था। बाद में वह, निर्ममता से मार डाली गई थी। 

याचिका में, अंत में मैंने लिखा गया कि - 

मेरे पिता से, 50 लाख की राशि, जिसे वह अपनी अय्याशी पर खर्च कर रहा है वापिस ले ली जाए। उस पर शौचालय लोन के दुरूपयोग का प्रकरण चला कर उसे जेल भेजा जाए। मेरी माँ, अपने काम एवं मेरी नौकरी से, स्वाभिमान से, अपना घर खर्च चलाने को इच्छुक हैं। 

मेरे द्वारा, न्यायालय से यह भी प्रार्थना की गई थी कि - 

मेरी मारी गई बहन को, ‘आधा नहीं पूरा न्याय’ दिलावाने के लिए मेरा बाप, पिता होने की योग्यता नहीं रखता है।  उसी की तरह के देश में, अन्य और भी बाप बन जाते हैं। ऐसे लोग, पिता होने के लिए अपात्र होते हैं। 

ऐसे लोगों को, आगे से पिता बनने से, रोकने संबंधी व्यवस्था बनाई जाए। जिससे, ऐसे बलात्कारी हो जाने वाले दुष्ट लड़के एवं बलात्कार एवं हत्या से मारी जाने वाली दुर्भाग्यशाली लड़कियाँ, देश में आगे और ना होने पायें। 

न्यायालय ने अभूतपूर्व रूप से अनुकरणीय, मेरी, इस याचिका का स्वीकार कर लिया था। न्यायाधीश ने, प्रशासन को सर्वप्रथम मेरी, सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए त्वरित निर्देश दिए थे।

तब, पूरे देश में, मेरे साहस एवं नैतिकता की, भूरी भूरी प्रशंसा की जा रही थी। मीडिया ने मुझे, अयोग्य पिता की, योग्यतम संतान, निरूपित किया था। 

अब देश भर में सभी की उत्सुकता, इस याचिका पर, न्यायालय के दिए जाने वाले, निर्णय जानने की थी। 

मेरी याचिका को स्पीड कोर्ट ने, सुनवाई में लेते हुए, सातवें दिन ही निर्णय सुनाया था। जिसमें पीड़िता के (मेरे) पिता को, सरकार द्वारा दी गई पचास लाख की राशि, लौटाने के निर्देश दिए गए थे। 

साथ ही घर में शौचालय निर्माण का भी आदेश, मेरे पिता को दिया गया था। माननीय न्यायलय ने, केंद्र सरकार को भी निर्देश दिए थे कि -

सरकार, इस आशय का विधेयक लाकर पारित करवाये, जिससे यह व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके कि - 

“कोई भी नव युगल, विवाह करते हुए, उनकी आगामी संतान जन्मने के पहले, पिता-माता होने के दायित्व समझ सके। उसके उपरांत ही बच्चे जन्म दिया करें। 

न्यायालय के आदेश के परिपालन में, भारत सरकार ने “पालक-अभिभावक होने की पात्रता” संबंधी विधेयक के लिए, अनुशंसायें देने के लिए, ख्यातिलब्ध समाज सेवियों की, एक कमेटी गठित की। इस कमेटी में, आश्चर्यजनक रूप से, पीड़िता की (मैं) याचिका कर्ता बहन को भी, एक सदस्य नियुक्त किया गया। 

एक महीने में इस कमेटी ने, अपनी अनुशंसायें सरकार को सौंप दी। जिसके उपरान्त सरकार ने लोकसभा में विधेयक लाया, जिसमें निम्न प्रावधान, प्रस्तावित किये गए - 

देश के, एक करोड़ रूपये से अधिक, व्यक्तिगत वार्षिक आय वाले व्यक्तियों के लिए, यह अनिवार्य किया गया कि वे देश के, (सभी) जिलों में, एक अपना एनजीओ स्थापित करें। 

ये एनजीओ, 50 हजार से कम सालाना आय वाले, लड़के-लड़कियों के विवाह के समय (विवाह की तिथि से तीन महीने पहले से, तीन महीने बाद अर्थात छह महीने की अवधि में), इन एनजीओ के माध्यम से, पालक पात्रता संबंधी सात दिवसीय प्रक्षिक्षण अनिवार्य रूप से लें। ऐसे प्रशिक्षित होने का प्रमाण पत्र वे, विवाह पंजीयन कार्यालय में अपने विवाह के, चार महीने के अंदर अनिवार्य रूप से जमा करवाएं। 

ऐसा ना किये जाने पर विवाहित युगल को, छह माह के कारावास का प्रावधान भी, प्रस्तावित किया गया। ऐसे दंडित युगल को, तब यह प्रस्तावित प्रशिक्षण, उस जिले में कार्यरत एनजीओ द्वारा, कारावास में दिलाया जाना निर्धारित किया गया। 

प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम में वे विषय, नवयुगलों में चेतना लाने के लिए रखे जाना प्रस्तावित किये गए, जिसका ज्ञान होने से, ऐसे नव युगल, अपने होने वाले, बेटे-बेटी का यथोचित रूप एवं संस्कार सहित, लालन पालन कर सकें। 

ऐसे प्रशिक्षित माता पिता के बेटे, यदि भविष्य में स्त्रियों पर, बलात्कार के दोषी पाए जाते हैं तब उनके माता पिता पर भी आपराधिक प्रकरण दर्ज किया जाए। जिसमें 2 वर्ष तक कारावास के, दंड का प्रावधान भी रहेगा।  

सरकार ने ऐसे प्रशिक्षित, नई पीढ़ी के पालक-अभिभावक हो जाने पर, यह आशा जताई कि - 

आगे के समय में, देश में कन्या भ्रूण हत्या रुक सकेंगी। देश में स्त्री-पुरुष अनुपात में सुधर आ सकेगा। 

बच्चों का दायित्व पूर्ण, लालन पालन बेटे-बेटियों के साथ भेदभाव पूर्ण, व्यवहार की संभावना भी खत्म करेगा। 

आशा जताई गई कि ऐसे लालन-पालन मिले, बड़े हुए, आगे के समय के बेटों के द्वारा, लड़कियों पर बलात्कार किये जाने की घटनायें बंद हो सकेंगीं। 

साथ ही इन जागरूक माँ-पिता के होने से यह आशा भी दर्शाई गई कि - 

वे लड़के-लड़की में भेद किये बिना अपनी संतानों की संख्या, सीमित रखेंगे। जिससे आगे के समय में देश की जनसंख्या वृध्दि दर में, भी कमी आएगी। 

एनजीओ द्वारा इस तरह से समाज सेवा करने के एवज में, उन्हें, एनजीओ संचालन पर 40 लाख रूपये तक की व्यय की गई राशि को, आयकर में छूट वाली, आय बताने की सुविधा दी गई। 

विधेयक पेश करते हुए सरकार ने, सदन में यह आशा दिखाई कि - 

इस तरह से, उच्च आय वर्ग व्दारा, यह सामाजिक दायित्व ग्रहण करने पर, देश के सामाजिक वातावरण में सुखद बदलाव आएगा। 

यह विधेयक, लोकसभा एवं राज्यसभा, दोनों में निर्विरोध पारित हुआ। 

जिस दिन राष्ट्रपति द्व्रारा, इस पर हस्ताक्षर किये गए तब मुझे एक, प्रेस कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित किया गया। 

इसमें, मैंने, इसे मेरी पीड़िता बहन के अतिरिक्त, ऐसी अन्य दुर्भाग्यशाली पीड़िताओं को भी, मरणोपरांत मिला ‘पूर्ण न्याय’ मिलना बताया .. 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

27-10-2020

             


Sunday, October 25, 2020

आदर्श

आदर्श ..

रिश्ता धीरे धीरे खत्म हो रहा था

मुझे पता भी था

मगर अजीब था मेरा आशावाद

नया कोई आदर्श रिश्ता मिल जाएगा


काश! रिश्ता बचा लिया होता

आदर्श वही बन जाता

बना बनाया कोई आदर्श नहीं मिलता

यह उसी रिश्ते के रहते मैं समझ पाता


अब ना मेरा वह रिश्ता रहा

ना कोई मुझे आदर्श मिला 

ठोकर खा के गिरने से सिर्फ

आहत स्वाभिमान मेरा बचा

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

24-10-2020


मैं ही हूँ ..

मैं ही हूँ .. 

यह कुछ दिन पूर्व की बात है, जब मेरी बेटी नाश्ता करते हुए अपनी माँ से कह रही थी - 

ना जाने माँ,  मेरी फ्रेंड तनुजा को क्या हुआ है। पहले तो वह, पिछले सात दिन कॉलेज नहीं आई। 

उसने इन दिनों में, मुझे फेसबुक, मोबाइल एवं अन्य जगह ब्लॉक कर दिया है। फिर वह, कल कॉलेज आई, तब भी मुझसे बात ही नहीं कर रही है।

उसने, अपनी सीट भी बदल ली एवं मेरे से दूर जा कर बैठ रही है।

मेरे कान, माँ-बेटी की बातों पर ही लगे थे। मगर मैंने, मोबाइल पर कुछ पढ़ने की व्यस्तता दिखा कर, उनकी बातों मैं भाग नहीं लिया था। फिर मैं, अपना नाश्ता जल्दी खत्म कर टेबल से उठा गया था।     

आज - मुझे एक आयोजन में मेरे हाथों रावण पुतला दहन हेतु आमंत्रित किया गया है, चूँकि मैं एक विख्यात सिनेमा निर्माता हूँ। 

अपनी ऑडी कार में मैं, अपनी पत्नी एवं न्यायाधीश का कोर्स कर रही बेटी के साथ, उस कार्यक्रम में जा रहा हूँ।      

वहाँ जाते हुए मैं, मन ही मन हँस रहा हूँ कि रावण वध, ये लोग मेरे हाथों इसलिए करवा रहे हैं कि अपनी पिछली मूवी में मैंने, भगवान राम पर, एक लोकप्रिय हो गई, आरती दिखलाई थी। 

जबकि, कोई जानता था या नहीं लेकिन मैं, अपने कलंकनीय दुष्कृत्यों को जानता था और यह भी जानता था कि ये इतने घिनौने एवं अमानवीय हैं कि रावण ने भी शायद, इतने बुरे कर्म नहीं किये होंगे। 

कार्यक्रम में मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया गया था। आखिर क्यों नहीं किया जाता, मुझ में लोग, वह संभावना देखा करते हैं कि मैं, उन्हें या उनके बेटा/बेटी को, सिनेमा में ब्रेक दे सकता हूँ। 

कार्यक्रम के बाद घर लौटते हुए, मेरी बेटी ने मुझसे पूछा - 

पापा, बुराई के नाम पर हजारों वर्षों बाद भी, आज तक रावण का पुतला दहन किया जाता है। क्या रावण के पाप इतने अधिक थे कि उसका रिकॉर्ड टूट नहीं सका है?

मैंने, अभी ही रावण (बुराई के प्रतीक) को जलाया था, शायद उस पुण्य का प्रभाव था कि मैं, अपनी बेटी से झूठ नहीं कहना चाहता था। मैंने कार में ड्राइवर के होने को ध्यान रख कहा - 

बेटी, इस पर मुझे विस्तार से कहना होगा, अतः घर पहुँचने पर बात करते हैं। 

घर आने पर बेटी नहीं भूली थी। उसने फिर यही पूछा, और मैं भी उससे सच कहने के अपने निश्चय पर ही था। मैंने उसे बताया - 

बेटी, रावण से अधिक बुरा व्यक्ति ढूँढने के लिए, तुम्हें घर के भी बाहर जाने की जरूरत नहीं है। उस दिन तुम, अपनी फ्रेंड तनुजा के बारे में बता रही थीं। उसका तुमसे दूर हो जाने का कारण मैं हूँ। मैंने, उस पर दुष्कृत्य किया है। 

दरअसल वह, एक दिन मेरे ऑफिस आई थी। तुम्हारा हवाला देकर तनुजा, अपने लिए मुझसे, मेरी आगामी फिल्म में रोल देने के लिए कह रही थी। 

मैंने, उसके अभिनय कला की परख के बहाने से, उसे स्टूडियो में अलग कमरे में ले जाकर, उस पर जबरदस्ती की थी। 

पूर्व में भी मैंने, प्रतिष्ठित परिवारों की ऐसी और भी, युवतियों एवं लड़कियों पर जबरदस्ती की हुई थी। इसलिए मुझे अनुभव था कि ये, अपनी बदनामी के डर से मुहँ नहीं खोला करतीं हैं। 

तुम्हारी फ्रेंड होने से मुझे, तनुजा को यूँ तो बेटी की दृष्टि से देखना चाहिए था मगर, अपनी कामांधता में मैंने उसका शील भंग किया है। 

रावण ने तो अपनी बहन के अपमान के बदले की भावना में, सीता जी का अपहरण किया था। सीता मैय्या के ना कहने पर रावण ने, उनके शील का मान भी रखा था। 

इस दृष्टि से देखने पर, रावण से बड़ा पापी तो, मैं ही हूँ। 

आज भी, रावण का पुतला जलाने का कारण, यह नहीं है कि रावण से अधिक बुरा व्यक्ति संसार में फिर कोई हुआ नहीं है। वर्तमान में ही, उससे बुरे व्यक्ति अनेक होंगे। 

रावण, भगवान श्री रामचंद्र जी के हाथों, मारे जाने से अमर है। इसलिए बुराई के नाम पर दुनिया, उसका स्मरण एवं उदाहरण किया करती है। 

मेरी बेटी ने पूरा सुन लेने पर अत्यंत विषाद एवं घृणा से, इतना ही कहा था - 

धिक्कार है, पापा कि मैं, आपकी बेटी हूँ। 

अगले दिन मुझे सुबह ही, अपने मातहत कर्मी के फोन से ज्ञात हुआ कि मेरी बेटी ने, मेरी जानकारी के बिना, मेरी कही गई बात को रिकॉर्ड कर लिया था। जिसे उसने, रात ही नेट पर अपलोड कर दिया था। बेटी के द्वारा यह अपलोडेड रिकॉर्डिंग, वायरल हो गई थी। 

उसी दिन, मेरे विरोध में, भड़के लोगों ने, मेरा ऑफिस, आग के हवाले कर दिया। इसके बाद, कई दिनों तक मेरा, घर से निकलना कठिन हुआ।  

यद्यपि मेरे विरुध्द, कोई प्रमाण नहीं था। फिर भी इस रिकॉर्डिंग के आधार पर, न्यायालय में जन याचिका लगा दी गई। 

तब मैंने, बेटी से कहा - 

बेटी, तुम भूल गई कि मैं, तुम्हारा पिता हूँ। फिर भी मैं नहीं भूलूँगा कि तुम मेरी बेटी हो। यद्यपि मुझे हानि बहुत हुई है लेकिन इसे, तुमसे अपने रिश्ते के लिए मैं, सहन कर लूँगा। 

फिर मैंने बेटी के मोबाइल पर देखा कि वह, इसे भी तो रिकॉर्ड नहीं कर रही है। इसकी जाँच एवं पुष्टि कर लेने के बाद मैंने कहा - 

मेरे पास बहुत पैसा है। और इसके बलबूते पर मैं, प्रभावशाली पदों पर बैठे, रावणों को खरीद लूँगा। आने वाले दिनों में, तुम देखोगी कि मैं, न्यायालय से निर्दोष साबित कर दिया जाऊँगा। 

न्यायालय में मुझ पर चले अभियोग को पुष्ट करने के लिए, ना तो तनुजा और ना मेरी शोषित युवतियों में से, कोई अन्य ही आई थी। 

इस रिकॉर्डिंग के संबंध में विरोध पक्ष के वकील द्वारा पूछे प्रश्न पर, मैंने न्यायालय को बताया कि - 

यहाँ पेश, रिकार्डेड ऑडियो कथन मेरा ही है। इसे मैं, अपनी निर्माणाधीन मूवी के दृश्य में, खलनायक से कहलवाने जा रहा हूँ। 

अपनी बेटी को मैं, यह कथन, उसकी जिज्ञासा में बता रहा था। उसने, इसे रिकॉर्ड किया था। 

हमारे बीच के वार्तालाप के पूर्व अंश, बेटी द्वारा हटाकर अपलोड किये जाने से ऐसा भ्रम हो रहा है जैसे कि यह मेरे किये अपराधों की स्वीकारोक्ति है। 

वकील ने पूछा कि - क्या कारण है कि आपकी बेटी ने ही, आपके विरुध्द यह दुस्साहस किया है? 

इसके उत्तर में मैंने, न्यायालय को बताया कि - मेरी बेटी अति-महत्वाकांक्षी है। उसने इस रिकॉर्डिंग से, स्वयं अपने को, देश और दुनिया में चर्चित करने के लक्ष्य से, यह सब किया है। वह अपने इस उद्देश्य में सफल भी हुई है। उसे देश विदेश में, इससे पहचान मिल गई है।  

तब मेरी बेटी यद्यपि न्यायालय में, मेरे विरुध्द रही थी। उसने अपनी रिकॉर्डिंग को सच्चा बताया था। 

फिर भी, मेरे विरुध्द, उसे पुख्ता साक्ष्य नहीं माना गया था। 

तब जज महोदय ने, मेरे निर्दोष होने का निर्णय पारित कर दिया था। 

निर्णय वाले दिन घर में, मेरी बेटी, मुझसे कह रही थी - 

आज जलने वाला तो निर्जीव रावण (पुतला) होता है, मगर ऐसा लगता है कि रावण दहन के दर्शकों में ही, कई साक्षात रावण होते हैं। विडंबना है कि इसे, जलाने वालों में भी कई, आप जैसे रावण होते हैं। 

उसकी खिसियाहट पर मैं, हँसा था। 

जिससे चिढ़कर बेटी ने आगे कहा - मुझे समझ आ गया कि रावण दहन, एक प्रतीक रस्म है जिसमें जलते रावण को देखते हुए, दर्शकों की दृष्टि अपनी बुराई पर जानी चाहिए। मगर खेद है कि दर्शक में कई व्यक्ति, अपनी ओर दृष्टि नहीं करते हैं। वे बुराई दूसरे में ही देखते रहते हैं।

इसे सुन मैं, “आज का रावण”, अपने, अत्यंत अधिक प्रभावशाली होने के अहंकार में, अट्टहास लगाता रहा था।     

तब बेटी ने, अपनी माँ से मुखातिब होकर को अपना निर्णय सुनाया - 

रावण से भी बुरे इस आदमी को अब मैं, पापा नहीं कह सकूँगी। यह घर छोड़ मैं, अलग रहने जा रही हूँ ..    

 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

25-10-2020

       

Saturday, October 24, 2020

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (6)

 

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (6)

इस भाग को अपलोड करते हुए अब, मुझे अपनी व्यक्तिगत अपेक्षा नहीं रही थी। 

‘मेरी कहानी’ को कितने व्यूअर मिलते हैं, से बढ़कर मेरे लिए, यह महत्वपूर्ण हुआ था कि इसे श्रोता-पाठक, देखें-सुने एवं इससे सीख-शिक्षा ग्रहण करें।

 मैं देखना चाहती थी कि मेरे देशवासी समाज एवं परिवार की अपेक्षा अनुसार, अपना जीवन अच्छा बनायें। 

आगे की ‘मेरी कहानी’ मैंने, अगली रात सोने के पूर्व पढ़ी थी -

मेरी कहानी अंतिम भाग 

फिर मैं, अपनी पढ़ाई करती एवं पापा से बीच बीच में ‘मार्गदर्शन रूपी उत्प्रेरक’ लेकर अध्ययन के माध्यम से, अपनी ‘क्षमता-योग्यता निखार की प्रोसेस’ में, अपनी लगन एवं उत्साह में वृध्दि करती। 

फिर सब कुछ अच्छा हुआ था। बारहवीं की परीक्षा तथा मेडिकल प्रवेश परीक्षा के परचे मैंने, आशा अनुसार अच्छे किये थे। बारहवीं में 95% स्कोर के साथ ही मेडिकल प्रवेश परीक्ष में मेरा स्कोर अच्छा रहा था। मुझे देश के प्रमुख आयुर्विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश मिल गया था। 

यह हम सब के लिए अत्यंत ही ख़ुशी की बात थी। मगर मुझे वहाँ जाते हुए दादी, माँ एवं बहन से दूर जाना उदास कर रहा था। यह मैं जानती थी कि मुझे सबसे ज्यादा दुःख, पापा से दूर जाने का हो रहा था। 

पापा ने यह अनुभव कर, मुझे समझाया था कि मोबाइल पर तो हम, हर समय संपर्क में रह ही सकते हैं। साथ ही तुम जैसे ही, अब मुझे तुम्हारी छोटी बहन पर ध्यान देना है। 

मैं, हॉस्टल आ गई थी। घर की अपेक्षा यहाँ रहना, मेरे लिए अत्यंत भिन्न अनुभव था। 

वैसे तो इस आयुर्विज्ञान महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी, कुशाग्र एवं अध्ययन में रूचि लेने वाले होते हैं। मगर यहाँ पहुँच पाने में सफल हो जाना, एक गुरुर सा अनुभव कराता है। इसके प्रभाव में, यहाँ का वातावरण लड़कों-लड़कियाँ को अति स्वछंद बना देता है। 

अब तक पढ़ने की जो बाध्यता इन्हें जकड़ी होती है उससे मुक्ति मिली सी अनुभव होती है। और अब तक रखे अपने अध्ययन अनुशासन में, जो इन्होंने नहीं किया होता है, वह सब करने की इन्हें, उतावली मचती है। 

इसी का दुष्परिणाम हुआ था कि परिचय समारोह में यहाँ के लड़कों ने, हम लड़कियों की तस्वीर ली थी। जिसमें से लड़की का चेहरा कंप्यूटर एप्प के प्रयोग के द्वारा, किसी दूसरे वीडियो में की युवती के चेहरे से बदल कर, फेक वीडियो बना दिया करते थे। 

मेरा भी ऐसा ‘फनी वीडियो’ बनाया गया था। जिसे मैंने, पापा को भेजा था। इसे देख पापा ने मोबाइल पर समझाया था - 

समय बदलने के साथ, रैगिंग के तरीकों में भी बदलाव आया है। ऐसी बातों के होने से तुम्हें, अवसाद करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें बस यह स्मरण रखना है कि देश के, इस सर्वोत्कृष्ट कॉलेज से तुम्हें, ग्रहण क्या करना है। 

मेरे पापा का, मुझ पर पूर्ण विश्वास था। वे नई तकनीक एवं उसके ख़राब प्रयोग के जानकार भी थे। मगर मेरे ही सेक्शन में पढ़ने आई राजस्थान की एक लड़की के साथ दुर्भाग्य से ऐसा नहीं था। लड़कों ने उसकी तस्वीर प्रयोग कर, उसका चेहरा, एक पश्चिमी अश्लील वीडियो में मर्ज कर दिया था। 

उस वीडियो को आपस के व्हाट्सएप्प ग्रुप में अपलोड किया था। कई देखने वालों ने, उस पर भद्दे भद्दे कमेंट भी लिखे थे। इससे वह लड़की अत्यंत व्यथित हुई थी। फिर ना जाने कैसे वह फेक वीडियो, उसके परिवार तक पहुँच गया था। 

जिसे देख कर उसके पापा एवं बड़े भाई अत्यंत लज्जित एवं क्रोधित हुए थे। वहाँ राजस्थान में, ‘नारी गरिमा’ की आदर्श संस्कृति थी। मोबाइल पर उस लड़की ने, अपने पापा एवं भाई को इस वीडियो को, लड़कों की शरारत द्वारा निर्मित किया जाना बताया था। 

वे, ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग, ऐसी तकनीक नहीं जानते थे। उन्होंने, अपनी बेटी पर विश्वास नहीं किया था। दुष्परिणाम यह हुआ कि उस रात 2 बजे जब, हॉस्टल में सभी सो चुके थे, उसने छात्रावास में, चौथी माला से, कूदकर अपने प्राण गँवा दिए थे। 

ऐसे, इस समाज को, भविष्य में मिल सकने वाली, एक संभावित श्रेष्ठ महिला चिकित्सक के, अल्पायु में ही दुःखद प्राणांत हो गये थे। लड़की ने आत्महत्या के पूर्व, एक पत्र छोड़ा था। जिसमें स्पष्ट रूप से, आत्महत्या करने के कारण में, उस फेक वीडियो का उल्लेख किया गया था।     

इस हादसे को, साइबर क्राइम रजिस्टर करते हुए जाँच में लिया गया था। जाँच में दोषी मिले जिस सीनियर लड़के के द्वारा यह फेक वीडियो बनाकर अपलोड किया था उसे, कॉलेज से निष्कासित किया गया था। 

वह गिरफ्तार भी कर लिया गया था। उस पर अदालती प्रकरण दर्ज हुआ। स्पष्ट था कि दूर दृष्टि विहीन, की गई हँसी-मज़ाक का सिला, एक की जान एवं दूसरे का भविष्य ख़राब होने के रूप में मिला था। 

फिर आगे मैं, नये माहौल में रच बस गई थी। प्रायः नित दिन मैं, अपने घर से, मोबाइल पर वीडियो कॉल व्दारा सम्पर्क किया करती थी। अपने पापा से अपनी दुविधाओं एवं किसी भी अवसाद पर प्रोत्साहन की बातें सुनकर मैं,  अपने अध्ययन में पूर्व की भाँति ही समर्पित रहती थी। 

स्पष्ट था कि हॉस्टल में चलने वाली आधुनिकता के नाम पर बुरी गतिविधियों से मैं, अपने को बचा लिया करती थी। मुझे पता था कि इसके कारण, पीठ पीछे एवं सामने भी कई बार, मेरा मखौल उड़ाया जाता था। इससे मैं, विचलित नहीं होती थी। 

अंततः वह हुआ, जो मेरे पापा की, मुझे लेकर महत्वाकांक्षा थी। मैने 25 वर्ष की अपनी आयु में, एक विशेषज्ञ चिकित्सक की उपाधि अर्जित की थी। तब पापा के चाहे गए अनुसार मैंने, एक चैरिटी हॉस्पिटल में अपनी सेवायें अर्पित करना आरंभ कर दिया था। 

पापा की लिखी ‘मेरी कहानी’ यहाँ समाप्त हो गई थी। 

अगली सुबह मैंने, नाश्ते पर इस कहानी को लेकर अपनी अत्यंत प्रसन्नता बताई थी। तब पापा ने कहा -

बेटी, मैं भगवान नहीं हूँ। आवश्यक नहीं है कि तुम्हारे, ये आगामी वर्ष यूँ ही बीतें। यह ‘मेरी कहानी’ लिखने का मेरा आशय, इसमें किये उल्लेखों से तुम्हें, तुम्हारा जीवन लक्ष्य तय करने की प्रेरणा देना है। साथ ही, हमारे आसपास की बुराईयों का ज्ञान भी तुम्हें कराना है। ताकि इन बुराईयों से तुम अपना बचाव कर सको। 

इस पर दादी ने कहा - 

हर पिता का यह कर्तव्य होता है कि वह, अपने बच्चों का सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना सुनिश्चित करे। 

पापा ने सहमति जताते हुए, इसके बाद में, जो बात कही वह, माँ को दुःखी करने वाली हुई थी। पापा ने कहा - 

बेटी यह जरूरी भी नहीं कि मैं, तुम लोगों का बहुत समय साथ दे सकूँ। किसी के जीवन का भरोसा कब होता है?

इस पर माँ ने करुणा के सागर में डूब, कहा था - आप, ऐसी अशुभ बात नहीं कहिये, प्लीज। 

ये माँ का अपना अंधविश्वास था, जिसमें वे मानती थीं कि कहा हुआ, हो भी सकता है। तब दुर्योग भी हुआ था। पहले पापा को, फिर दादी को कोविड19 हो गया था। इससे माँ, बहुत डरी - सहमी हुईं थीं। तब उन्हें पापा का कहा गया वह अशुभ वाक्य बहुत डराता रहा था। 

पापा एवं दादी दोनों को, निमोनिया भी हो गया था। माँ, हॉस्पिटल में उनसे मिलना चाहतीं थीं तब भी उन्हें मिलने नहीं दिया जाता था। हम दोनों बहनें एवं माँ बहुत चिंता ग्रस्त रहा करते थे। माँ का वजन 4 किलो घट गया था। 

फिर डॉक्टर्स के उपचार ने काम किया था। 17 दिन बाद पहले पापा और फिर 23 दिनों में, दादी कोविड19 से जीवन की लड़ाई जीत कर, स्वस्थ घर लौटे थे। 

उन दिनों मैंने, डॉक्टर होने की शक्ति पहचानी थी। जिसका उपचार एवं सेवा, रोगी को मौत के चंगुल से छुड़ा ला सकता था। मैंने, पापा की लिखी ‘मेरी कहानी’ अनुसार स्वयं डॉक्टर होने का दृढ संकल्प ले लिया था।    

यह समय हमारे परिवार पर एक दुःस्वन की भाँति अत्यंत चिंताओं एवं पीड़ा देते हुए बीता था। फिर शनैः शनैः घर में पूर्वानुसार प्रसन्नता लौट आई थी। 

एक दोपहर भोजन उपरांत मैंने, पापा से शिकायती स्वर में कहा - 

पापा आपने, ‘मेरी कहानी’ सिर्फ आगामी तेरह वर्षों के लिए लिखी है। इसके आगे की क्यों नहीं लिखी है? 

पापा ने आकर्षक मुस्कान सहित कहा था - 

डॉक्टर होने के बाद स्वयं तुम इतनी समझदार हो जाओगी कि आगे के जीवन का यथार्थ तुम, स्वयं अपने कर्मों से लिख सकोगी। आशा है तुम्हारा जीवन, इतना गौरवशाली हो सकेगा कि इस पर कोई साहित्यकार तुम्हारी जीवनी लिखेगा। जिसे, पढ़ने वाले पाठक, अपने जीवन के लिए, तुम से प्रेरणा ग्रहण कर सकेंगे। 

मैंने खुश होकर कहा कि - 

आप मुझे मार्गदर्शन प्रदान करते रहना। इससे मैं, आपकी इस कल्पना को, साकार करने के लिए, अपने पूरे सामर्थ्य से प्रयास करुँगी। 

पापा ने तब कहा - 

बेटी, आगे समय वह भी आएगा जब, तुम्हारा पथ प्रदर्शक, मैं नहीं रह जाऊँगा। तब तुम, स्वयं ही बड़ी एवं समझदार होकर आगे की पीढ़ियों का पथ प्रदर्शन कर सकोगी। उस समय तुम, हमारा सहारा बनोगी और हम तुम्हारे आश्रित होंगे। 

“जीवन का स्वरूप ही ऐसा होता है। पहले बच्चे आश्रित होते हैं फिर वे बच्चे सबल होते हैं एवं उन्हें बड़ा करने वाले माँ-पिता बूढ़े होकर, उनके आश्रित हो जाते हैं”

 (समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

24-10-2020