Thursday, May 31, 2012

बड़े संघर्ष कि आवश्यकता

बड़े संघर्ष कि आवश्यकता

                                व्यस्तताओं के इस युग में हम ह्रदय के उस भाग तक ही उतर पाते हैं जो हिस्सा उथला होता  है.अपनी समस्याओं के समाधान वहां से खोजते हैं जिससे समाधान भी उथला ही होता है और असरकारी और लम्बी अवधि तक समस्याओं से निजात नहीं दिला पाता है.हम अपने साथी मानवों का मनोविज्ञान उसकी हमसे अपेक्षा और उसके दुःख-दर्द भी इन्ही उथले ह्रदय से समझते हैं और न्यायसंगत ढंग से अन्य से व्यवहार करने में असमर्थ होते हैं.हम समय निकालें तसल्ली रखें और फिर गंभीरता से अपनी या अन्य कि अपेक्षा और अपने दायित्वों पर विचार ह्रदय  के गहरे में उतर करें ,सागर सद्रश्य ह्रदय भी गहरा होता है और जिस तरह सागर कि तली में मोतियों के भंडार मिलते हैं उसी तरह ह्रदय के गहरे भाग में मानवता के बेशकीमती मोती मिलते हैं .जिनको व्यवहार में सजाने पर हमारा व्यवहार /आचरण   दर्शनीय और अनुकरणीय बन जाता है.हमें सब समस्याएँ अपनी सी लगती है और जब हम इन्हें अपना मान समाधान तलाशतें  हैं तो वह कल्याणकारी होता है.व्यस्तता के इस युग में भी दुनिया के शोरशराबे से दूर ह्रदय के अन्दर जा मंथन चलाने से प्राप्त अमृत जब हम और दूसरे उपयोग करेंगे तो चहुँ- ओर वातावरण कल्याणकारी ही बनेगा.
                             मैंने रसोई में कभी काम नहीं किया था ,मेरी पदस्थापना के स्थान पर जब मेरी पत्नी घर या मायके जातीं तब देखे आधार पर में खुद रसोई तैयार करने कि कोशिश करता चाय या खिचड़ी जो भी बनती वह बेस्वाद होती किसी को बताये वगैर खुद किसी तरह खा पेट भर लेता,पत्नी जब लौटतीं तो बतातीं कि बर्तन इस तरह जला दिए गएँ हैं कि साफ़ करने में दिनों लगेंगे.उन्होंने तब बताया कि बर्नर पर तेज आंच में पकाने से बर्तन तो जलता ही है और स्वाद भी अच्छा नहीं बनता पौष्टिकता भी कम मिलती है.तब मुझे समझ आया उतावली चीजों को बिगाडती  है.बर्नर पर कम और ज्यादा आंच के सेटिंग होती है अनुभव से आता है कि कब कम और ज्यादा इसे रखा जाना चाहिए 
                                  अनुभव का एक महत्त्व होता है , किशोरवय बच्चे और नवयुवा हर पीढ़ी में यह समझते आयें हैं कि बड़े तो पुराने ज़माने कि बताते हैं उनकी सलाह अनदेखी कर स्वछंदता से आधुनिकता के तर्क कर आचरण कर मनमानी करते हैं और अवसादों में बाद में ज़िदगी बसर करने विवश होते हैं पुराने   अंधविश्वास कुछ कुप्रथाएं और लोक व्यवहार अनुचित थे और आधुनिक दौर के कुछ साधन और तरीके अनुकरणीय हैं .अपने पूर्वाग्रह त्याग दोनों काल कि बुरी चीजें (पुरानी कुप्रथाएं ,अंधविश्वास और लोक व्यवहार और नई अति स्वछंदता ) अलग कर पुरानी अच्छाईयां  और आज कि उन्नत विज्ञानं सोच साधनों से अपना व्यक्तित्व और आचरण अलंकृत कर एक सर्वकालिक खुशहाल समाज के सपने को साकार कर आगामी संततियों को भव्य विरासत देनी चाहिए.
                              पिछले लेख में संघर्ष को वर्जनीय बताया था उससे उलट   आज मैं एक बड़े संघर्ष की आवश्यकता बताने जा रहा हूँ .जो संघर्ष वर्जित बताया गया था वह परस्पर दो व्यक्ति,दो समूह,दो पक्ष और व्यवस्था के खिलाफ जनता का था .जिस संघर्ष को मैं औचित्यपूर्ण मानता हूँ वह मानव ह्रदय के अन्दर ऐसा संघर्ष है जो मानव के निजी गुणों एवं अवगुण ( यदि कोई हों तो) के बीच होना चाहिए. ऐसे में गुणों से संघर्ष में कुछ अवगुण मिटते हैं तो मानव व्यवहार गुण प्रधानता से  होगा जिससे समाज में वातावरण सुधारने में सरलता होगी .चूँकि ऐसा संघर्ष प्रत्येक मानव ह्रदय में चलाने की आवश्यकता है अतः यह एक सबसे बड़ा संघर्ष होगा. हमारा समाज देवों का नहीं है ,अतः मनुष्य का आदर्शतम होना भी उनके समतुल्य तो नहीं बना पायेगा पर आदर्श के तरफ बढ़ते मनुष्य समाज का अंतर जानवरों के समाज से तो बढेगा . और मनुष्य व्यवहार में जो कभी कभी जानवरीयत  दिखती है वह ख़त्म होगी .
                              मैंने रसोई में बर्नर की आंच कब कम और कब अधिक होनी चाहिए इसको समझने की आवश्यकता पर बल इस कारण दिया है , क्योंकि  मनुष्य ह्रदय में भी मानसिक उर्जा एक तरह की ऊष्मा पैदा करती है यह ऊष्मा  जब ज्यादा तेज सेट होती है तो व्यवहार में   उग्रता ,क्रोध और अभिमान  दर्शित होती है और हमारा खुद का ह्रदय ही सबसे पहले झुलसता है यह अन्य के सम्मान और हितों को भी  झुलसाती है .यदि मानसिक उर्जा पर मनुष्य का उचित नियंत्रण होता है तो मद्धम -मद्धम ऊष्मा से हमारा ज्ञान परिपक्व होता है .और जब हम परिपक्वता से व्यवहार करते हैं तो सभी दिशा में सुगंध, शीतलता और प्रसन्नता की बयार फैलाते हैं . सब मानव ऐसा कर रहें हों तो सोचिये सामाजिक वातावरण कैसा बनेगा.
                             हम परलोक सुधारने की दिशा में जागरूक हैं लेकिन इस लोक में जिसमे हमें 80-100 वर्ष जीना है और हमारी सन्ततियां हजारों वर्ष आती जाएँगी तो इसे भी हमें क्यों नहीं सुधारना चाहिए .इस प्रयास में संचित होते हमारे पुण्य कर्म हमारा परलोक भी तो सुधारेंगे ही.
                              इस तरह हमारा लोक परलोक दोनों सुधरे यही है परम हार्दिक भावना


Friday, May 25, 2012

जीती बाज़ी कैसे गवां गया वह


जीती बाज़ी कैसे गवां गया वह

                                   उसका जन्म अभावों की बस्ती के घर में गरीब परिवार में हुआ .बचपन से जैसे -तैसे जीवन यापन के उपाय में थक हारते माता-पिता को पाया .आसपास अभावों जनित कलहपूर्ण वातावरण उसे कभी अजीब न लगा क्योंकि जन्म से आदत हो गयी थी.वहां १०-२० रुपये की मामूली रकम पर बैर  जीवन भर का ,उपचार को तरसते बच्चों और युवाओं की असामयिक मौतें और अगले समय खाने को कुछ होगा या नहीं ऐसे दुःख , ऐसी चिंता आम थीं.वह जन्मजात प्रतिभा मिलने से इस विपरीत परिस्थिति में भी अच्छी पढाई और मिले कर्जों के सहारे मेडिकल कॉलेज में दाखिला पा डॉक्टर बन निकला .ऐसी उपलब्धि उस बस्ती में बहुत बिरली बात थी.दूसरों से अप्रभावित और अपने साथ के छात्रों से अलग व्यवहार रख अपने संकल्प और कर्मों से उसे ऐसी सफलता मिली थी.चिकित्सक  बनते ही अच्छे चिकित्सालय  में नौकरी मिली ,उसने एक क्लिनिक भी निजी बना लिया .कर्जा चुकने लगा दिन पर दिन आय बढ़ने लगी .चिकित्सा व्यवसाय में अन्य सफल व्यक्तिओं के बीच रहने से अब वह आलीशान  बंगले , अच्छे वाहन और सुख सुविधाओं के आधुनिक साधन और सुविधा के बारे में सोचने लगा था .धीरे धीरे उनकी व्यवस्था भी होते गयी .
                                    बचपन में किसी से प्रभावित रहने वाला अब बदल रहा था कठिनाई से भला जूझता था पर सफलता के संक्षिप्त रस्ते न अपनाये थे .अब ऐसे उसके सिध्दांत वह भूल रहा था .नए परिवेश में बचपन से अपनाई विशिष्टता खोती जा रही थी . वह औरों की नक़ल करने लगा था.वह संभ्रांत जैसा बन गया था .वह बचपन ,जीवन की कठिनाइयों को भूल रहा था जिसमें गुजर कर वह यहाँ आज आया था .लगता है उसने आवश्यकता से ज्यादा सबक ग्रहण कर लिया था बचपन के अपने आर्थिक अभावों से  .जिसके वशीभूत वह दो तीन पीढ़ियों तक के लिए वैभव ,सम्रध्दी बटोर लेना चाहता था.वह अपने दायित्व भूल रहा था अन्यथा स्वयं के विकास के समानांतर गरीब बस्ती और अपने बचपन के साथी परिचितों और वहां के बड़ों के विकास में अपना कुछ योगदान देता.अपने बंगले से पहले एक अस्पताल वहां ,वहां के गरीब और पीड़ितों के लिए बना देता ,अभी तो उसकी सुविधा जनक जीवन की आदत भी नहीं थी जो छोड़ पाना कष्टकर  होता .वह इसी परिवेश में पला और बड़ा हुआ था ,यहाँ की कठिनाइयों से बखूबी परिचित था .अगर ऐसा मनुष्य ही वहां सुधार की भावना न रख पाया था तो ऐसों से आशा व्यर्थ थी जो चिकित्सक या अन्य बड़ी हैसियत में इन कठिनाइयों के वगैर पंहुचे  थे. उन्हें तो ठीक-ठीक इन विपरीतताओं का अनुमान भी नहीं होता और उनकी व्यस्तताओं में इन्हें  समझने को समय नहीं था .अगर प्रेरणा और त्याग के लिए वह तैयार नहीं था तो समझा जा सकता है कि क्यों समाज सुधारने के चुनौतियों के आगे क्यों लोग हार जाते हैं.

                         वह जीती बाज़ी हार रहा था .उसने युवा होते तक विराट हो रहे अपने व्यक्तित्व का आगे विकास रोक लिया था .अपने विराट होते अस्तित्व का आकार स्वयं छांट दिया था .उसने अन्याय सिर्फ अपने साथ ही नहीं किया था बल्कि उस जन्म देने वाले के साथ कर दिया था जिसने विशिष्टता से तराश एक जन्मजात प्रतिभा के साथ उसे पृथ्वी लोक  में भेजा था .वह सिर्फ सामान्य मनुष्य ही  रह गया था जबकि योग्यता उसे आसाधारण बनने कि प्रदत्त थी 
जीती बाज़ी इस तरह हारा था

Wednesday, May 23, 2012

संघर्ष वर्जित

संघर्ष वर्जित

                                                       मनुष्य अपनी बुरी भावना एवं  बदनीयत के  वशीभूत कभी इतना दुष्ट हो जाता है कि दूसरे की जान लेने और उसे शारीरिक आघात  पंहुचा देने को उतारू होता है ,इज्जत और मर्यादा (नारी की) तार-तार करने में भी कोई शर्म अनुभव नहीं होती है  .ऐसे दुष्ट मनुष्य को इस नीयत से सामने पा विवशता में किसी को क्या करना चाहिए इसकी  कोई कारगर सलाह नहीं हो सकती ,प्रभावित जन के साथ क्या परिस्थिति है ,उसकी समझ उस समय कैसे काम कर रही है और उसके पास क्या शक्ति और साधन हैं उस अनुसार दुष्ट से बचाव में हर संभव उपाय करने ही चाहिए ,यहाँ संघर्ष तो बाध्यता है ऐसे संघर्ष न किये जाएँ ये स्वयं पर अन्याय ही होगा.मनुष्य मनुष्यवत ही व्यवहार करे सामाजिक वातावरण ऐसा होना चाहिए. इस हेतु उपरोक्त या ऐसी ही कुछ अपवाद-स्वरुप परिस्थिति को छोंड़े (जहाँ संघर्ष ही विकल्प होता है) , तो अन्य किसी भी समय संघर्ष के स्थान पर परिस्थिति को बौध्दिक चातुर्य से निपटाना बेहतर विकल्प होता है.
इस  हेतु हमें संघर्ष के विज्ञानं को समझना होगा एक छोटे द्रष्टान्त से तर्क वितर्क करें...
                                                  " राह चलते मुझसे गलती हुयी मेरा वाहन एक अन्य से जा टकराया उसको चोट एवं उसके वाहन को कुछ क्षति हुयी,इससे उग्र हो उसने मेरी कालर पकड़ी मेरी जूते और घूसों से पिटाई कर  डाली  ,अपराध बोध से मैंने वह अपमान सहन कर लिया उसने क्षति पूर्ती की राशि मुझसे रखवा ली तब उसने अपनी राह पकड़ी ,और व्यथित सा मैं रवाना हुआ."
                                                    दो  के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति बनी वाहन-दुर्घटना में दोनों पीड़ित पक्ष थे उसे चोट और वाहन क्षति से और मुझे उसकी उग्रता से. इससे लाभ ये हुआ की मै सड़क पर ज्यादा सतर्क हो गया लेकिन इसका अप्रत्यक्ष नुकसान ये था  कि उसकी उग्रता एवं मेरे अपमान से आगे आने वाले ऐसे सारे अवसरों पर जब हम आमने सामने हो सकते थे उसमे हम कभी मित्रता अनुभव न कर सकेंगे और हो सकता है किसी परिस्थिति में आपसी सहयोग आवश्यक हुआ तो सहयोग शंकित रहेगा यानि  की एक स्थायी बैर का खतरा हो गया . उग्रता के कारण  उसके आक्रमण से मेरी  मानसिक ऊर्जा अपने बचाव मै लग गयी .घटना तो घटित हो चुकी  थी चोट की वेदना और वाहन क्षति तो हो गयी थी बल बौध्दिक लगाया होता ( मानसिक उर्जा का इस्तेमाल उग्रता के स्थान पर ) तो परिद्रश्य कुछ इस प्रकार  भिन्न हो सकता था .
                                                     उसके मनोभाव नियंत्रित रहते ,गलती का अहसास मुझे होता ,मैं उसे और उसके वाहन को खड़ा करने मै मदद करता ,चोट पर संवेदना दर्शाता उपचार हेतु अस्पताल ले जाता ,वाहन repair करवाता ,हार्दिक क्षमा याचना करता ,संघर्ष से बचाव में खर्च मेरी मानसिक ऊर्जा का इस तरह उपयोग से वातावरण सहयोग का बनता भविष्य में उसके साथ होने पर हम मित्रता अनुभव करते और जब भी आवश्यकता होता  हम आपसी सहयोग से मुश्किलें आसान करते  .
                                               समाज में जहाँ तहां दो लोगों में ,दो समूहों में ,दो पक्षों में छोटे तथा मध्यम और व्यवस्था   के खिलाफ जनता के विशाल  संघर्ष आम हो चले हैं. वैचारिक भिन्नता ,निहित स्वार्थ और अभिमान इसमें प्रमुखता से जिम्मेदार लगता है.इन संघर्षों में बाहुबल के प्रयोग  से एक दूसरे को दबाया जाता है.भ्रम से कोई विजेता माना  जाता है   ,विजेता दर्प में आता है जबकि हारा अपमान की ज्वाला में जलता है ,दोनों में वैमनष्यता स्थायी हो जाती है ,हारा छुप कर अथवा अपनी शक्ति बड़ाकर  प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष आघात भविष्य में पूर्व विजेता को देने का प्रयास कर कभी बाजी पलटने में सफल होता है अब विजेता और पराजित बदल जाता है और यह सिलसिला चल निकलता है दोनों पक्ष अन्दर से भयग्रस्त /असुरक्षित अनुभव करते हैं ,संघर्ष का ऐसा अस्तित्व समाज में होगा तो कैसे हम खुशहाली सुनिश्चित कर संकेंगे.वास्तव में जब हम बाहुबल का प्रयोग करते हैं तब हम बौध्दिक/मानसिक सामर्थ्य  को भूलते हैं मानसिक उर्जा का लापरवाह प्रयोग से गंवाते हैं.नकारात्मक  प्रयोग कर अपने को सकारात्मक सोच का धनी सिध्द करते में लगे होते हैं भ्रम रखते हैं खुशफहमी पाले होते हैं स्वयं और ओरों को सिर्फ हानि पहुंचा रहे होतें हैं .
                                              संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने पर हम अधीर ना हों मानसिक सामर्थ्य का भली-भांति प्रयोग कर प्रारम्भिक लाभ का मोह छोड़ें शुरुआत में कुछ त्याग करें तो दीर्घकालिक लाभ में हो सकतें हैं शुरूआती हार कालांतर में जीत सिध्द हो सकती है .साथ के मानवों से समानता की मानसिकता रखें तो बौध्दिक चरमता सुनिश्चित होती है मनुष्य कम बलशाली होते हुए भी बलशाली और हिंसक जानवरों से अपना बचाव और समय समय पर उन्हें पराजित सिर्फ अपने मानसिक चातुर्य से कर पाया .जानवर वहीँ रह गए मनुष्य विकास के इस शिखर पर पंहुचने में सफल हो सका.
                                               इतना सब मानव ज्ञान,मानसिक सम्रध्दी और वैचारिकता से पा सके हैं .इतना बड़ा उदहारण समक्ष है पर हम ही अपना बौध्दिक बल की शक्ति भुला चूक करते हैं और विवेक की जगह कई बार शारीरिक शौर्य से अपने ही मानव भाई को जीतने और उन्हें चुनौती दे संघर्ष पैदा कर अशांति बढ़ाते हैं .फिर दरवाजे मजबूत, चारदीवारियां ऊँची करते हैं, कुत्ते पालते हैं और चौकीदार बैठा कर भी असुरक्षा बोध पाले रहते हैं. बाहर गया परिजन जब तक घर वापस न आ जाये उसका भयमिश्रित इंतजार करते नैन दरवाजे पर रखते हैं.
                                          क्या ऐसा नहीं लगता कि सामाजिक परिद्रश्य बदला जाना चाहिए ? थोडा ह्रदय बड़ा करें ,थोडा त्याग करें दूसरों को सम्मान दें .धैर्य रख वैचारिकता से समस्या का हल निकालें और सद्कर्मों के उदहारण समाज के सम्मुख स्वयं रखें,सच्चे नायक के तरह समाज के सम्मुख रहें . अच्छे और सच्चे का अनुकरण कर धीरे धीरे परिवर्तन आएंगे. रोग दीर्घकाल से रहा हो तो उपचार ज्यादा समय ले सकता है .उतावली नहीं करनी होगी. पूर्वज फलदार वृक्ष इस भावना से लगाते आये हैं की फल उनकी आगे की पीढ़ी को मिलेंगे . इस परिपाटी पर चल समाज में अच्छे फल आगामी संतति को मिलें इस हेतु अपना कुछ त्याग कर इसके बीज आज बोने चाहिए.

Monday, May 21, 2012

नारी पुत्र पुरुष -माथे पर नारी शोषण का कलंक

'नारी- पुत्र' पुरुष - माथे पर नारी शोषण  का कलंक


                                       पुरुष किसी न किस नारी के पुत्र रूप जन्मता है और प्रत्येक नारी पुरुष पिता की बेटी होती है मतलब साफ़ है पुरुष नारी से अत्यंत पवित्र एवं करीबी रिश्तों से बंधा होता है.फिर यह अत्यंत दुखद और निन्दाजनक है की ऐसी नारी के पुरुषों द्वारा  शोषण का एक विस्तृत और प्राचीन इतिहास रहा है.ऐसा तो नहीं है की हर पुरुष नारी शोषण में प्रत्यक्ष रूप में जिम्मेदार है पर यदि पुरुष की इस नारी  माँ एवं बेटी की दयनीय हालत है तो हर पुरुष परोक्ष रूप में जिम्मेदार होता है.क्योंकि इस स्थिति से नारी को नहीं उबारा जा सका है तो या तो पुरुष ने प्रयत्न नहीं किये हैं या उसके प्रयास अपर्याप्त रहे हैं . जिससे नारी आज भी यह दुर्गति भुगत रही है. यद्यपि सभी नारी शोषण की शिकार होती नहीं हैं पर ऐसी भाग्यशाली नारियों को भी दुर्भाग्यवश ऐसे ढेरों किस्से देखने और  सुनने मिलें हैं जब कोई अन्य अबला की मर्यादा दुष्ट पुरुष द्वारा तार-तार की गयी हो. 
                                    नारी से सहयोग के भाव दर्शाने के पीछे भी पुरुष के कुटिल इरादे छिपे होने की घटनाएँ हुईं हैं ,जिसने नारी जो ममता,करुणा और स्नेह का सागर अपने ह्रदय में समाये रखती है अब पुरुषों के सच्चे सहयोग को भी शंकित हो देखती है और यह बेहतर  मानने लगी है की भले ही कमजोर शारीरिक शक्ति हो पर अब अपना जीवन संग्राम अपने बल पर लड़ेगी.कुछ पुराणिक और ऐतिहासिक अपवादों को छोड़ें तो नारी के जुटाए गए साहस के बावजूद अपर्याप्त शक्ति के चलते वह पुरुष बर्बरता से अपना बचाव करने में असमर्थ होती है.
                                   पुरुष द्वारा नारी शोषण या इसका विचार किया जाता है तो वह यह सोचने में क्यों असमर्थ होता है कि एक नारी उसकी माँ तो निश्चित है ,जबकि जीवन-संगिनी के रूप में ,बहन के रूप में और बेटी के रूप में भी वह किसी नारी से करीबी रिश्ते में हो सकता है. क्या ऐसा सोच वह अपनी कुटिलता (नारी के प्रति ) नियंत्रित नहीं कर सकता? अगर कोई ऐसा कृत्य करने को उध्दत है तो अन्य नर उसे क्यों नहीं रोक पाते.इतिहास तो बीती बात है जिसे बदला तो नहीं जा सकता पर क्या हम वर्तमान बदल कर अच्छे भविष्य के लिए आज नींव न रख पाएंगे जो आज और आने वाले कल  में वास्तविकता  में नारी को गरिमामयी स्थान दे सके.
                                अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमें अपनी सज्जनता,वीरता और ज्ञान पर इतराना छोड़ देना चाहिए.प्रत्यक्ष में हम नारी हितैषी बनते हैं बहन और बेटी के चरण छूते हैं,माँ का दर्जा भगवान से बड़ा बताते हैं लेकिन अंधकार और दीवारों के पीछे एक नारी की  लाज हरने और अन्य तरह से शोषण को नहीं हिचकते  या दूसरे करते हैं तो उन्हें रोकने का साहस नहीं दिख पाते .यह तो मर्दानगी नहीं होती .खुद अत्याचार करता और उसे  चरित्र हीन बता फिर लाचारी का दोहन करने की भूमिका बनाता है.
                                 रात्रि का अंधकार तो सूर्य रौशनी के जैसा उजाले में  परिवर्तित नहीं किया जा सकता पर पुरुष ह्रदय के ऐसे अंधकार को जिसमें वह अँधा हो अपनी माँ,बेटी भी ऐसी मजबूरी में हो सकती हैं यह नहीं देख पाता और  एक कमजोर नारी की विवशता पर भी दयनीयता   पर तरस नहीं खाता  .
                                  सज्जन पुरुषों की प्रेरणा से उसके विवेक को जाग्रत कर मिटाया जा सकता .सामाजिक अधिकांश समस्याओं का समाधान का प्रभावकारी सूत्र नारी का यथोचित सम्मान है.पुरुष शारीरिक बल माँ की कोख से जन्म ले ,उसकी छत्रछाया में पल हासिल करता है माँ के इस एहसान का क्या यह सिला होना चाहिए की बेटे जैसा या भाई जैसा पुरुष उसकी इज्जत पर हाथ डाले .एहसान का सही बदला हम चुकाएं उसकी सम्मान की सच्ची व्यवस्था बनायें.
                                हर परिवार में पुरुष(और नारी भी) घर के नारी सदस्यों की (प्रमुखता से) चाहे वह माँ,बहन या बेटी हो उनके उच्च चरित्र की अपेक्षा करता है ,फिर खुद चरित्रवान रहने के महत्त्व को क्यों नहीं अपने में समझता ,अगर पुरुष सर्वत्र   चरित्रवान होगा तो सभी परिवार की नारियों का उच्च चरित्र सुनिश्चित किया जा सकेगा .हमें न्यायप्रियता का परिचय दे दोहरे मापदंडों से मुक्त होना पड़ेगा .
                               जब जब मनुष्य ने शत्रुओं या समस्याओं  से एकजुट  हो लड़ा है विजित ही हुआ है.फिर नारी शोषण की प्रवत्ति जिससे भाईचारा और सुरक्षा खतरे में पड़ी है क्यों नहीं हम एकता से निबटने का प्रयास करते  ,अगर समस्या का समाधान किया जा सकेगा तो नारी शोषण के वीभत्स किस्से ख़त्म होंगे ,हमारे  खुद के घरों की नारियां भी समाज में भयमुक्त विचरण कर संकेंगी औरों को भी लाभ ही होगा.पुरुष माथे से नारी शोषण के कलंक को मिटाया जा सकेगा.
                            हमारी मान्यता है  कन्या-दान से हमारा परभव सुधरता है आदर करें उस मान्यता का. हमारी बेटी नारी ही है  ,भारतीय पुरुष नारी के सम्मान के वे उदहारण पेश करें ,नेतृत्व कर  विश्व के पुरुषों को  नारियों  को गरिमामय स्थान पर बैठाने  की प्रेरणा दें.ताकि नारी  भोग की वस्तु जैसे प्रयोग और शोषण से बच पायें  .
                        नारी शोषण के अस्तित्व को पुराने इतिहास तक सीमित कर दें और वर्तमान और आगे के लिए स्वस्थ परम्परा की नींव रख सर्वकालिक श्रेष्ट मानव  होने का कीर्तिमान अपने नाम करें.


Saturday, May 19, 2012

कोयल की मधुर कुहुक के पीछे

 कोयल की मधुर कुहुक के पीछे


                                   कोयल या तो शर्मीली है या संकोची है या हीनता (अपने कालेपन से) की शिकार है तब ही अपनी मधुर कुहुक -कुहुक भी वह व्रक्ष या झुरमुटों में छिप कर सबको सुनाती है .हम उसकी मधुर वाणी से आनंदित होते हैं कोयल के छिपकर पुनीत कार्य को हम अन्य द्रष्टिकोण से रख सकते हैं . कोयल महान है हमें और प्राणी जगत को मधुरता श्रेय की चाहत बिना बांटती है. परोपकार करते हुए अपने अस्तित्व को छुपाने का प्रयास करती है .परिचय देने में कोई रूचि नहीं रखती और अस्तित्व की प्रकटता सिर्फ कर्म से देती है .श्रेय से सरोकार शायद इस भावना से प्रेरित हो न रखती है कि इससे उसे कोई अभिमान न हो जावे .शायद यह भली-भांति जानती है कि अभिमान चिरकाल कायम नहीं रहता है.
                                  सोचें तो लगेगा कि जगत उलटी रीत अपनाता है. हम बुरे समझे जाने वाले कृत्य छिपाकर करते हैं ,यदि हम इन्हें ना छिपायें और यदि हम बेशरम नहीं हैं तो बुरे कृत्य के प्रति दूसरों की भाव-भंगिमा और नापसंदगी की प्रतिक्रिया देख हम स्वयं स्वतः ही उन्हें तिलान्जित कर दें.हम अपने अच्छे कार्य समाज को दिखा कर प्रचारित करते हुए अंजाम देते हैं .हमें बड़ी प्रसन्नता होती है . प्रसन्न होना अच्छी बात है लेकिन आवश्यकता से अधिक दिखावा हमें विख्यात करता है और अहम् बोध कर हम अभिमानी हो सकते हैं.अपवाद मिलते है जब बहुत ही पवित्र कार्य अंजाम दिए गए प्रसिध्दी और मान भी मिला पर आचरण की सरलता और सादगी कायम रही.हम बहुत ही अच्छे पवित्र कर्म करते हों हमें ज्ञान और रूप या वैभव प्रचुरता में मिला हो फिर भी सबका सीमा से ज्यादा प्रदर्शन एक और द्रष्टि से उचित नहीं लगता वह यह कि हम अपने साथ के मानवों को अनजाने में अपने से हीन होने का बोध करा देते हैं जो अधिकांश में हीन भावना जन्माता है. हीनता अनुभव करता कोई भी अवसादग्रस्त हो सकता है.किसी में कुछ कमी है तो ज़िन्दगी की ज्यादा विकट चुनौतियां तो वैसे भी उसके हिस्से में ज्यादा है. हमारा ऐसा प्रदर्शन और व्यवहार उसे अपमानित सा अनुभव करा सकता है .हमारा उद्देश्य ये कदापि नहीं होता पर कुछ प्रकरणों में हीनता और अन्य चुनौतियां झेलता कमजोर मनुष्य आत्महत्या तक को प्रवत्त हो अपना अमूल्य मानव रूप तक असमय त्याग देता है .यदि हमें ज्यादा मिला है और हम ज्यादा उपलब्धि हासिल कर पाने में सफल हुए हैं तो हमारा दायित्व बड़ा हो जाता है हमें अपने से कमज़ोर का हाथ थामकर उसे साहस दिलाना होता है ताकि वह कठोर हकीकतों का तुलनात्मक सुविधा से सामना कर पाए.
                               उदहारण मिलते हैं जब कमज़ोर और उपेक्षित मानव ने ऐसा कुछ कर दिखाया है जो समर्थ भी ना कर सकें हों.उन्होंने अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना लिया होता है.हम सामर्थ्यों का बंधुत्व भाव मिले तो पिछड़ रहे मानव भी वह योगदान दे सकते हैं जो एक स्वस्थ समाज बनाने में बहुमूल्य सिध्द हो जाये.
रेत से तेल निकलना अतिशयोक्ति अलंकार के प्रयोग से कहा जाता है .लेकिन वास्तव में अगर प्राणी मानवजन है तो वह इतना हीन या कमज़ोर नहीं होता कि उससे उपयोगी कुछ न कराया जा सके. हमारी प्रशंसा ,प्रेरणा और उसके मनोविज्ञान की हमारी समझ उससे भी बहुत अनुकरणीय कार्य को अंजाम दिला सकते हैं.जो यथार्थ में हमारी कार्यक्षमता का ही परिचायक होता है. कार्यक्षमता से प्रदत्त नेतृत्व ज़माने को सही दिशा दे मानव विकास यात्रा में उल्लेखनीय उपलब्धियों का कारण बनता है.
                             हम बहुत प्रबुध्द हैं हमारी कार्यक्षमता शंकित नहीं है फिर हमारे समाज में इतनी समस्याएं हैं. मुझे लगता है सिर्फ कमी सामूहिक रूप से चुनौतियों से ना निपटने के कारण है. क्या हमें इसका बीड़ा उठाना चाहिए अपना हाथ बढ़ाये मेरा हाथ और कंधे से कन्धा मिला जूझने की मेरा वैचारिक साथ सदा होगा .

Wednesday, May 16, 2012

सीमित मानव सामर्थ्य

सीमित मानव सामर्थ्य



                                             हमारे करीबी रिश्तेदार लगभग तीन वर्ष पूर्व कुछ स्वास्थ्यगत समस्याओं के कारण जब जांच कराने गए तो परीक्षणों उपरांत उन्हें केंसर बताया गया .यह रोग उन्हें जानने के पूर्व ही नुकसान पहुंचा  रहा था. उनकी शारीरिक शक्ति इस परिक्षण की रिपोर्ट आने के पहले ही काफी क्षीण हो चुकी थी.रोग एडवांस स्टेज  में था और उससे नुकसान की गति ज्यादा तीव्र हो चुकी थी .मनुष्य साधारण तौर पर अच्छा खा आसानी से जीवनोपयोगी तत्व अवशोषित कर लेता है .पर इस गंभीर रोग ने उनकी भूख और पाचन गतिविधि प्रभावित कर दी थी. वे ज्यादा भूख अनुभव नहीं कर पा रहे थे जो खाते पाचनतंत्र के साथ न देने से लाभ न ले पाते थे.शरीर दिन प्रतिदिन कमज़ोर होता जा रहा था .चिकित्सा एवं दवाओं से भी शक्ति ह्रास एवं रोग नहीं थम पा रहा था .उनका सहयोगी स्वभाव था करीबी मानवों की आवश्यकताओं (अच्छे-बुरे समय ) पर तुरंत सहयोग को तत्पर   हो जाते थे . अब वे अपनों के सहयोग के बिना चंद कदम चलने में असमर्थ होते जा रहे थे .खून जो स्वस्थ मनुष्य शरीर में बिना प्रयास सहज ही बन जाया करता है. वह दवाओं और उपचार से भी उनके शरीर में  नहीं बढाया जा पा रहा था .परिजन सेवा में लगातार लगे थे उपचार हेतु अच्छे अस्पतालों एवं चिकित्सकों के चक्कर बढ़ जाने पर भी दवाओं का असर न होता था .धन बहाया जाना भी सहायक न सिध्द होता था ,बावजूद इसके उनकी मानसिक प्रणाली इस गंभीर रोग से अप्रभावित थी .
                                            उनसे मिलने सेवा भाव से सपत्निक हम पंहुचे थे उन्हें मालूम हुआ हम बच्चों को उनकी पढाई के कारण छोड़ कर आये हैं तो हर दिन वे हमसे वापस लौटने कह रहे थे. कहते आप वापस जाएँ बच्चे परेशान होते होंगे.हमने बताया की हमारे पास पड़ोस के परिचित उनका ध्यान रख रहें हैं. तो उन्होंने कहा "जो माँ-पिता ,बच्चों के लिए करते हैं दूसरा कोई कभी नहीं कर सकता" .  यह मुझे दी उनकी अंतिम शिक्षा थी.इसके लगभग १८ दिन बाद समस्त मानवीय उपायों  और सामर्थ्य लगा देने पर भी १ रात्रि उन्होंने अंतिम श्वांस ले हम परिजनों से अंतिम विदाई ली.
                                         मानवीय सामर्थ्य हर तरह से सक्षम होता और उनका जीवन बढाया जा सकता तो अपनी बेटी का विवाह करते, विवाह होते देखते .अपने जिस बेटे को अपनी प्रेरणाओं ,संस्कारों से  I. I . T . में शिक्षा हेतु प्रवेश दिलवाने में सफल हुए थे . आज उसे संस्थान के व्यय पर प्रशिक्षण हेतु  अमेरिका जाता देख गौरवान्वित अनुभव करते. वे प्रखर बुध्दिमान थे धार्मिक रूचि उनमे युवाकाल में जाग्रत हो चुकी थी उन्हें उसका और अधिक ज्ञान निश्चित ही होता . वे प्रकाश स्तम्भ बन परिजनों ,परिचितों और समाज के पथ को आलोकित करते .ऐसी ना जाने कितनी संभावनाएं उनके सिर्फ 50 वर्ष की उम्र में इस तरह गमन से विराम पा गयीं थी उनका भौतिक अस्तित्व अब नहीं रहा यह विश्वास करने में हमें वर्षों लग गए जब पिछले लगातार ढाई सालों से हमारे अच्छे बुरे समय में हमारे साथ खड़े दिखाई न दे रहे थे.  
                                 मानवीय सामर्थ्य की सीमित सीमाओं का अहसास और भी अल्पायु संभावनाशील मनुष्यों का दुखद अवसान देखने से जब तब हमें करना पड़ता है.मानवीय सामर्थ्य /नियंत्रण (मानवीय जीवन बचाने की द्रष्टि  से) यथा समय हम अनुभव कर पांए  तो अपने सुख सुविधा और सम्रध्दी पूर्ण जीवन के बीच  ऐसे दायित्व स्वीकार कर सकें जिससे इस कठोर सच्चाई को  कि "जो माँ-पिता ,बच्चों के लिए करते हैं दूसरा कोई कभी नहीं कर सकता" . को हम बदल दें .शायद यह तो हमारे सामर्थ्य में है कि जो हम अपने बच्चों के लिए करते हैं उस तरह ही दूसरे बच्चों के लिए कर दें. हमारी तनिक दृढ इक्छाशक्ति और मानसिक सम्रध्दी से तुरंत तो नहीं पर धीरे धीरे हममें यह गुण ला दे सकती है.
                                  पिछले दिनों कार्यालय से लौटते वक़्त मार्ग में अपनी कार से इंडिकेटर देते हुए लगभग ९० अंश दाहिने घर कि दिशा में मुड़ा तो मेरी गति नियंत्रित होने पर भी एक बाइक सवार सामने कार से आ टकराया .मैं अनायास हुए हादसे में कुछ भी न कर  सका .युवक को सामने गिरा देख अत्यंत चिंतित मनोदशा में मैं कार से उतरा तो युवक को उठता देख थोड़ी राहत हुयी .उसे हाथ में चोट आई थी दूसरे हाथ से वह उसे दबा  रहा था.मैंने सकुशल अनुभव कर उससे कहा तुमने इंडिकेटर क्यों ignore किया तब वह पीड़ा में भी विनयपूर्वक मुझसे बोला सर, मुझसे भूल हो गयी, मेरा बिलकुल भी ध्यान नहीं गया , आज में बहुत बच गया. उसकी सज्जनता देख मुझे वेदना हुयी .थोडा  नुकसान मेरी गाड़ी का थोडा बाइक का जरुर हुआ .लेकिन युवक सुरक्षित था बड़ी राहत मिली. वह किसी घर का कुलदीपक और आय को स्त्रोत था .भले ही गलती मेरी नहीं थी लेकिन तब भी उसे गंभीर कुछ हो जाता तो मेरे विवेक न्यायालय  में में दोषी साबित होता और आत्मग्लानि जीवन भर कि होती.
                                         हमें करुणा रखनी चाहिए भले ही गलती किसी और की भी होने से उसको हानि होती है . इसका बचाओ यदि हमारी सावधानी से होता है तो हमें यह करना चाहिए . कोई असावधानी या अज्ञान के कारण गलत मार्ग पर जाता दिखे तो थोडा हमें ही क्यों न कुछ सहन करना पड़े तब भी हमें उसे रोकने पर समय लगाना है.
                                            जब हम दूसरों का और दूसरे हमारा लिहाज़ और हिफाजत करेंगे तो ही सामाजिक खुशहाली का वातावरण निर्मित किया जा सकेगा .   

Tuesday, May 15, 2012

पितृत्व-मातृत्व कैसे अनुभव में अत है...

पितृत्व-मातृत्व कैसे अनुभव में अत है...

                                                                                     बचपन से अपने घर में स्थानीय किस्म के फल जैसे आम ,अमरुद ,सीताफल और अन्य मौसमी फल टोकनियों से लाये जाते थे .तबसे ही में उन टोकनियों पर सबसे अच्छा दिखने वाला फल पाने सबसे पहले लपकता था.मेरी यह आदत बन गयी थी.यह आदत उस दिन टूटी जब मुझे पिता बने कुछ साल हुए थे.एक दिन ऐसी ही फल की टोकनी के तरफ मेरे हाथ के साथ ,मेरी तरह ही बढ़ता मेरी बेटी का नन्हा हाथ मैंने  देखा.यह देख मेरा हाथ थम गया था.मेरी बेटी अच्छा सा फल ले अत्यंत प्रसन्न थी.उसकी नन्ही सी यह ख़ुशी देखने  पर मेरी आदत हमेशा को हवन हो गयी .उस दिन आत्मिक रूप से मेरे बच्चों के प्रति कर्त्तव्य का अहसास हुआ कि बच्चों की ख़ुशी और उनकी जरुरत पूर्ति पिताओं का दायित्व है वे हमारे आश्रित ही पलते हैं.उस दिन में यह सोच पाया कि मेरी माँ और पिता जब सामान घर लाते तो पहले खाना या चुनना उन्होंने क्यों नहीं किया और क्यों ये मौका हम बच्चों को मिलता रहा था.
                                                                        पौराणिक कथाओं से आज तक पिता-माता के दुलार-त्याग की गाथाओं के उदाहरण और दौर आज तक होते आ रहे हैं.मैंने बचपन से लेकर उस दिन तक ऐसी कई गाथाएँ पढ़ी थीं.बेटी के जन्म पर भी कुछ पितृत्व बोध हुआ होगा लेकिन गंभीरता से पितृत्व उस दिन वास्तविकता में समझ सका था. माता-पिता सिर्फ यही करते हैं ऐसा नहीं ये तो मात्र बात रखने के लिए एक द्रष्टान्त है इस प्रकार के अनेक त्याग और स्नेह और हितैषी होने के भाव ताजीवन मिलते हैं.मेरे पिता ने सिर्फ ऐसा किया ये भी सत्य नहीं ,सभी के माता पिता ऐसे ही और इस से बढे त्याग भी करते मिलेंगे.पढने से कुछ अनुभव होता है, लेकिन वास्तविक अनुभूति व्यस्तताओं की आधुनिक शैली में कभी ही हो पाती है. आज के मशीनी  तरह के मानव जीवन में पिता और बच्चे कर्म एवं कर्त्तव्य भी ज्यादा भावुक,सोचे बिना करते हैं. मैं 33-34  वर्ष की उम्र में  पितृत्व क्या होता समझ सका  .यदि  पहले  बचपन में अपनी कुशाग्रता से इसे समझ पाता तो शायद और अच्छा मानव बनता.
                                          माता तो पिता से भी महान होती है .कथाओं में उनकी प्रशंसा के लिए शब्द कम पड़ते देखे और सुने जाते हैं.लेकिन मातृत्व की इस तरह की यथार्थ अनुभूति कोई नारी ही उचित रूप से वर्णन कर सकती है.अगर मैं यह प्रयास करू तो वह सुना और देखा के आधार पर ही हो सकता है.
                                                     उक्त लेख का प्रयोजन कतई मेरे बच्चों को हमारे त्याग और दुलार के गुणगान करने का नहीं है.पर प्रबुध्द मानवों एवं कल के लिए प्रबुध्दता प्राप्त करते आज के बच्चों को इसके माध्यम से यह रेखांकित करना जरुर चाहता हूँ कि कैसे आपके माता-पिता आपको बड़ा और योग्य बनाने में स्नेह,हितैषी और त्याग भावना वगैर कहे चुपचाप जेहन में रखते हैं.अगर इसे थोड़ी भावुकता से हम समझ सकें तो निश्चित ही हमारी मेहनत कर्म और आचरण ज्यादा जिम्मेदारी पूर्ण होंगे.हम ज्यादा अच्छा प्रदर्शन अपने क्षेत्र में कर पाएंगे और हमारी उपलब्धियां भी ज्यादा हो जायेंगी.  आज के सामाजिक वातावरण में चहुँ ओर भौतिकता का बोलबाला दिखाई  दे रहा है.हर कोई ज्यादा दौलत बनाने या इस हेतु योग्य होने को प्रयत्नशील है.इसलिए स्वार्थ प्रवत्ति दिनोंदिन बढती जा रही है . जो अप्रत्यक्ष रूप से खुशहाल रहे समाज को क्षति पहुंचती है.

                                                यदि हम पिता-माता के प्रति ज्यादा जिम्मेदारी अनुभव कर सके तो यह भी समझ संकेंगे की क्या वे अपने बच्चों में देखना चाहते हैं.कोई भी माता-पिता जहाँ बच्चों को दूसरों से पिछड़ता नहीं देखना चाहता वहीँ वह यह भी चाहते हैं की उनका लाडला नशे से दूर रहे,खराब कर्म ना करे ,किसी विवाद या संघर्ष का हिस्सा न बने और सबसे अधिक चरित्र अपना उच्च रखे.
                                                 माता पिता के अरमानों का लिहाज करता बच्चा जब स्कूल /कॉलेज या अपने कार्य क्षेत्र में होता है तो इसका ख्याल कर व्यवहार और मेहनत कर  ज्यादा नेक मानव बन अपने माता-पिता से शाबाशी हासिल करता है.इस तरह यदि ज्यादा बच्चे अच्छे मानव बनने की दिशा में बढ़ेंगे तो क्यों कर हमारा आगामी समाज अशांत और असुरक्षित होगा.विज्ञानं द्वारा आविष्कृत नए नए साधनों और आत्मिक रूप से ज्यादा अच्छे मनुष्य हो हम खुशहाली से पूर्ण समाज में खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे होंगे. हमें क्यों यह गम तब रहेगा की बीता समय जैसी सज्जनता ,दयालुता त्याग भावना और उच्च चरित्र अब नहीं दिखता. अगर  ये सब अच्छा हमें लगता है तो हम इसे साकार कर दिखाएँ .
                                              बहुत सी अच्छी बातें धर्मग्रंथों ,उच्च साहित्य में लिखी मिलतीं हैं आपको जानकार हैरानी होगी कि जितनी लिखी जा सकी उससे कई गुनी अलिखित मनुष्य ह्रदय में उनके अवसान के साथ चिता में समाती रहीं हैं.हर मनुष्य में अच्छाइयों का भंडार होता है .अच्छाई वह सोचता है दैनिक जीवन में अन्य चुनौतियों से जूझता उन्हें भूलता जाता है,नया उच्च विचार फिर उत्पन्न होता है कुछ दिनों में उसे भी भूलता है.हम कोशिश करें कुछ वक़्त निकालें स्वयं लिखने का प्रयास करें ,लिखते वक़्त आत्ममंथन होता  है  वैचारिकता उच्चतम शिखर पर होती है मंथन से अमृत और विष प्रथक होते हैं.प्राप्त अमृत का हम स्वयं, औरों को भी सेवन कराएँ .असर कुछ अरसे में परिलक्षित होगा हमारी संततियों के लिए सामाजिक वातावरण खुशहाली का निर्मित होगा.
यही आज के प्रबुध्दजनों  का सामाजिक दायित्व है जिसे हमें न्याय देना है.
 

Monday, May 14, 2012

क्यों है कन्या पक्ष हीन हैसियत में ?

क्यों है कन्या पक्ष हीन हैसियत  में ?

                                                           उम्र होने और धनार्जन की समर्थता आ जाने पर मेरे विवाह की चर्चा आरम्भ हुई थी.कुछ कन्या पक्ष से और उन्ही में से एक के प्रति हमारे पक्ष से रूचि दर्शायी गयी .कन्या अपने माँ-पिता सहित भाई -बहनों में बहुत चहेती और लाडली थी .मुझे अपने मन में उसके प्रति सबसे ज्यादा आकर्षण अनुभव हुआ. घर में मेरी पसंद को सबने सहमत किया कन्या की माँ-पिता की भी इक्छा हुई और हम दोनों के परिवार ने सामाजिक रीत से अपनी मनोकामना अनुसार सहमत हो हमारा विवाह संपन्न करा दिया.परिणीता बन ये मेरे से और हमारे  परिवार से आ जुडी.विवाह के पूर्व हमारी कल्पनाओं अनुसार बाद के समय में हम एक-दूसरे की शारीरिक ,मानसिक और अन्य सभी आवश्यकताओं को समझते उन्हें पूरे करने के यत्न करते अपने परिवार की नैय्या साथ-साथ खेते अपने जीवनपथ पर अग्रसर हो चले थे.बच्चे जब जन्मे तो एक अतिरिक्त बंधन उनके माध्यम से निर्मित हुआ जो हम दोनों को और मजबूत जोड़ में बांधता रहा .                                                    
                                                         मैं सोचता हूँ हम दोनों के विवाह के पूर्व दोनों ही परिवार में पुरुष और नारी दोनों थे.दोनों ही परिवार की अगली पीढ़ी के लिए कुछ बेटे और बेटियां नवयुगुलों में जन्म लेते रहे.दोनों ही परिवार पूर्व में कभी कन्या पक्ष और कभी लड़के पक्ष हो कई विवाह अवसरों में किसी किसी के सम्मुख आते रहे थे और आगे भी आते रहेंगे.ऐसे में मै अचंभित रहा कि हमारे समाज में विवाह के अवसर पर एवं विवाहोपरांत कन्या  पक्ष का दर्जा लड़के  पक्ष कि तुलना में क्यों हीन माना जाता है.हमारे उदहारण से ही समझे तो यदि मेरे पत्नी के मायके में यह जरुरत थी कि उनकी बेटी विवाह योग्य हुयी है तो उसका विवाह किया जाना चाहिए.उसी समय मेरी और मेरे परिवार कि भी यह आवश्यकता थी कि एक सुयोग्य बहु घर आ हमारे घर की जिम्मेदारियों का प्रशिक्षण लेते हुए उचित समय में स्वयं जिम्मेदारी निभाने लगे.मैं अपने परिवार से दूर रहने कहीं किसी अन्य परिवार में नहीं  जा रहा था .लेकिन बड़े लाड -दुलार से पली और बड़ी हुयी अपनी बेटी को मेरे श्वसुर-सास ने हजारों वर्ष से चल रही परंपरा अधीन दिल पर पत्थर रख रोते ह्रदय और अश्रुपूर्ण नेत्रों से एक अजनबी परिवेश में भेजा. जबकि उनके मन में समस्त आशंकाएं रहीं होंगी कि उनकी इस लाडली को अपेक्षित अपनत्व और यथोचित सम्मान हमारे घर मिलेगा भी या नहीं .यह अपेक्षा कितनी बाद में पूरी हुई यह विषय नहीं है.
                                                       उल्लेख  इस बात का किया जाना है समस्त आशंकाएं रहीं तब  भी  बेहद विशाल ह्रदय रख अपनी दुलारी बेटी को उन्होंने अपने से दूर कर लिया था ,त्याग उनका महान था हमारे परिवार को पली बड़ी पूर्ण युवती प्राप्त हुई थी ,उन्होंने कन्यादान किया था हमें दान हासिल था .दान देने वाला बड़ा और ग्रहण करने वाला छोटा होता है .फिर इस विवाह में हमारा ससुराल पक्ष हमसे हीन कैसे होता था ,यह रीत मुझे अजीब लगती है क्या आपको लगती है ? या आपका परम्परावादी मन भले ही परम्परा स्थापित सिध्दातों से विपरीत भी होने पर उसे बदलने का साहस नहीं करने कि सलाह देता है. 
                                                        अगर ऐसा नहीं है और हमें लगता है कन्या पक्ष को भी समान समतल पर लाकर आगे के लोक-व्यवहार होने चाहिए. तो कौन इसकी शुरुआत करेगा.कोई मानव दूसरे गृह से आकर तो हमारी इस त्रुटिपूर्ण रीत को सुधारने में रूचि नहीं दिखायेगा .तो पहल किसने करनी होगी ,मुझे या मैं दूसरे का मुंह तकूँ, मेरी दूसरे से अपेक्षा उचित नहीं होगी .मुझे ही यह पवित्र शुरुआत करने का साहस प्रदर्शित करना होगा .हम सभी कभी बेटी पक्ष और कभी बेटा पक्ष होते हैं हम सभी का एक जैसा दायित्व इस सोच को बदल कर उचित व्यवहार करने का बनता है.अब क्या इस को बदलने का कोई मुहूर्त हमें निकालना होगा  और उस तक इंतज़ार करना चाहिए ? नहीं. आज से इसे आरम्भ कर देना चाहिए क्योंकि पवित्र उदेश्यों से किये जाने वाले कर्म का कोई मुहूर्त नहीं होता.इसे जिस घड़ी सोचे तब ही शुरू किया जाना मानवता के लिए कल्याणकारी होता है.
                                                             नारी, समाज में कई चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों  से जूझती है बहुत कि चर्चा अभी संभव नहीं है.पर विवाह आयोजनों से ही जुडी वधु पक्ष कि दयनीय स्थिति जो दहेज़ की है के उल्लेख वगैर लेख /आव्हान   अधूरा रह जायेगा .  वर पक्ष वधु पक्ष से उनकी प्रिय बेटी तो हथियाता ही है पर इस दुःख से विकल वधु पक्ष पर कई प्रकरणों में एक और ज़ुल्म करता है .अपने बेटे की गृहस्थी बसाने के तर्क पर एक लम्बी सी फेहरिस्त वधु पक्ष के सामने रख लिस्ट में उल्लेखित  जेवरात ,गाड़ी ,सामान और नगद की मांग करता है .पीछे कारण शर्म त्याग कर यह बताया जाता है की लड़के को योग्य बनाने के लिए उसकी पढाई पर उन्हें बहुत व्यय कर देना पड़ा है.हम यहाँ अपने स्वयं से पूछे कि क्या हमने अपना बेटा कन्या वालों कि ख़ुशी के लिए पढाया और योग्य किया होता है या इस बात में हमारी अपनी ख़ुशी और महत्वाकांक्षा विद्यमान होती है? हमारी मानवीयता तब और सो जाती है जब हम कन्या पक्ष कि हैसियत से बढ़कर दहेज़ के लिए दबाव बनाते हैं. हम सामाजिक न्याय कि सीमाओं के अतिक्रमण कर बेशरमी प्रदर्शित करते हैं.हमारी दूरदर्शिता को भी मोतियाबिंद लग जाता है जब हम ये भी देख नहीं पाते कि जब हम कन्या पक्ष हुए हैं या आगे भी होंगे तो हमारी लाचारी का (बेटी के विवाह संपन्न करने का) अन्यायपूर्ण शोषण लड़का पक्ष पहले कर चुका है आगे फिर कर सकता है.   हम वैसे तो भुला दी जाने लायक ख़राब छोटी सी बात स्मरण में रखे रहते हैं लेकिन हैरत होती है इतनी बड़ी बात के लिए हमारी अल्प स्मरण -शक्ति  देख कर .
                                                          हम मानव नहीं राक्षस बन जाते हैं जब अपनी भोग-विलास लिप्सा  और भौतिक महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत जब कई तरह शपथ (सात फेरों के दौरान) उठाकर और वधु पक्ष को बरगला कर (हम विवाह पूर्व यह उनसे कहते हैं कि बहु नहीं बेटी तुल्य मानेगे आपकी बेटी को) उनसे कन्यादान करवा कर प्राप्त की गयी उनकी प्राणप्रिया बेटी का अपनी दहेज़ लोलुपता में वध कर देतें हैं या उसे आत्म-हत्या कर लेने को विवश कर देते हैं .वहां हम अपने घर में कई और वह अबला अकेली होती है ऐसी वीरता क्या मानव करता है या दानव? हम जीवन के बहुतेरे स्वप्न लिए अपनी ही आश्रित एक कमज़ोर नारी का इस तरह अमूल्य मानव जीवन का असमय खात्मा कर देते हैं.

                                                  राक्षसी इस प्रवत्ति को बनाने वाली हमारी धन/सुविधा लोलुपता पर अपना मानसिक नियंत्रण क्यों नहीं स्थापित करते ?क्यों हम सरासर धोखेवाज़ बनते हैं धोखेवाजी से क्या बहुत हमें हासिल हो जाने वाला होता है क्या वह एक मानव के जीवन से बढ़कर होता है ?
                                                   धोखेवाज़ मानव ही मानव समाज की शांति और खुशहाली का हनन करता है . हमें अपनी संतति को बेहतर सामाजिक वातावरण के लिए राक्षसी ऐसी हमारी प्रवृतियों पर काबू कर खुद परिवर्तन कर अन्य के समक्ष  प्रेरणा स्त्रोत बन प्रस्तुत होना होगा.
 

Sunday, May 13, 2012

मेरी महत्वाकांक्षा -मेरी अन्तकालीन योजना

 मेरी महत्वाकांक्षा -मेरी अन्तकालीन योजना

                                                              लगभग एक दशक पूर्व में यहाँ पदस्थ हुआ था .पिछले स्थान पर मेरी सुबह सैर की दिनचर्या थी ,इसे यहाँ जारी रखते मुझे ३-४ वर्ष हुए तब एक दिन मुझसे २५-३० वर्ष बड़े एक संभ्रांत सम्मानीय ने मुझमे दिलचस्पी दिखाते मुझे एक "गुलाब पुष्प" भेंट किया .जब मैंने उनसे परिचय जानना चाहा तो उनके चेहरे पर  हैरत  झलकी ,अपना परिचय भी मैंने दिया .उनसे जब तब सैर पर आमना सामना होने लगा और उन्हें मै हाथ जोड़ अभिवादन करता. सैर पर सामना सपत्निक  जब हुआ तो एक दिन पारिवारिक परिचय भी बड़ा. पर ये सब सैर तक सीमित रहा .इस बीच मुझे ज्ञात हो गया के वे अति प्रतिष्ठित एवं अति सपन्न व्यक्ति हैं.तब मुझे समझ आया पहले परिचय पर वे क्यों मेरे पूछने पर हैरान थे. उन्हें यहाँ कर कोई जानता था.उनके कभी कभार घर आने के शब्दों का मै आर्थिक  स्तर के अन्तर से  संकोच वश पालन ना कर सका .३-४ वर्ष  योंही छोटी मोटी भेंट कभी अकेले कभी सपत्निक उनसे होती रही . फिर उनका सैर पर दिखना बंद हो गया.एक दिन उनके बंगले के सामने कार से उतरते उनकी पत्नी को देख मेरी पत्नी ने जिज्ञासा वश उनसे पूछा तब मालूम हुआ कि वे अस्वस्थता के कारण कुछ महीनों से अस्पताल में भर्ती हैं. एक दिन हम उन्हें अस्पताल में देखने पंहुचे वे बिस्तर पर थे अत्यंत कमज़ोर हो गए थे ,चाहकर भी बोल नहीं पाते थे ,पर दिमाग सक्रिय था थोडा सा हाथ उन्होंने उठाया था उससे लगा कि वे हमें पहचान सकें है ,पत्नी अस्पताल कर्मी और बेटे-बहु की मदद से देखरेख कर रही थीं. थोडा सा ही वे खा पा रहे थे जल्द ठीक होने की उम्मीद नहीं दिखती थी. पत्नी उन्हें धर्म -पाठ सुनाती. हम बोझिल मन वापस आये . एक साल और बीता मेरी पत्नी  पुनः पता करने अस्पताल गयीं. उनकी हालत में कोई सुधार नहीं था .पत्नी ने मुझे बताया तो बड़ी करुणा हुयी .
                                                          सोचने लगा की दो वर्ष होने को आये उन का मन सक्रिय था उन्हें क्या लगता होगा अपनी इस दयनीय सी दशा में.वो अजनबी को जिस तरह गुलाब देते थे उनके और भी कर्म अच्छे रहे होंगे उसकी स्मृति शायद उन्हें राहत ही दे पाते होंगे .उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की मेरी कामना रही है,मुझे ख़ुशी भी होती है की लम्बे समय से उनका बेटा इतने मंहगे अस्पताल में उन्हें उपचार हेतु रख पाता है .अपने पित्र-ऋण को उतार पा रहा है.
                                                          किसी हादसे या ह्रदयघात से अचानक  मौत ना होती है तो किसी को भी जिंदगी की सांध्य बेला में पराश्रित हो कुछ समय या वर्ष गुज़ारने पड़ सकते हैं. ऐसे मैं यदि मानसिक सक्रियता भी गवां दे तो पछतावा जैसी कोई बात नहीं होती.किन्तु शारीरिक पराश्रित हों पर मन सक्रिय है .तो बड़ी व्यथा तब होती है कि उनके अपने बच्चे अपनी व्यस्तताओं से उनका बहुत ख्याल नहीं रख पाते .अपनी इतनी उपेक्षा पर वे उन्ही बच्चों के प्रति शिकायत /उलाहनों के साथ किसी दिन संसार से विदा होते हैं जिन्हें उन्होंने बढे प्यार -दुलार और अरमानों से पाला बड़ा और योग्य बनाने में अपनी हस्ती भुला दी थी.संवेदनशील बच्चे जीवन भर अपने माँ-पिता के इस तरह अवसान और अपनी लाचारी का पछतावा रखते हैं. कालांतर में यही क्रम दोहराया होता है अब बारी बूढ़े हो गए तब के बेटे की होती है.
                                                            हम जीवन के लिए समय समय पर योजना बनाते हैं उन्हें क्रियान्वित करते जीवन में आगे बढ़ते हैं .पर अंत समय की विवश ऐसी मानसिक दशा जिस में हम अपने प्राणप्रिय बच्चों से भी शिकायतें रखने मजबूर होते हैं में सहज रह पाने की योजना क्यों नहीं आज बना ले. हममें से अधिकाँश  ऐसे समय में अपने इष्ट -ईश्वर और धर्मग्रंथों के आश्रय से मानसिक शान्ति ,और कुछ अन्य प्रकार से अपेक्षित शांत अवस्था सुनिश्चिता करें.
                                                       आपकी ऐसी योजना जानना मेरा अधिकार नहीं.किन्तु मेरी योजना का खुलासा में यहाँ उचित समझता हूँ.जीवन के शेष समय में अपने पारिवारिक और संबंधितों के साथ विभागीय दायित्वों को न्यायसंगत ढंग से पूर्ण करने के बीच में मैं अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति जाग्रत रहूँगा. मैं न केवल अपने बच्चों का बल्कि उनके बच्चे और उनके बच्चे के बच्चों के साथ समस्त मानव संततियों के लिए एक शांत ,सुरक्षित और खुशहाल समाज की जरुरत पर जोर दे उसे सब में फैलाता, सभी से साथ लेता सभी को साथ देता उसकी रचना की नींव और उसके निर्माण का शुभारम्भ अपनी पूर्ण क्षमता और योग्यता से करने प्रयत्नशील रहूँगा .अपने तर्कों/लेखों  से सभी प्रबुध्दजनों के सामूहिक प्रयास/सहयोग  इस दिशा में देने का बार बार आग्रह बिना संकोच करता रहूँगा.इस के बीज जहाँ तहां फैलाता रहूँगा .आशा करता रहूँगा की कुछ बीज तो अंकुरित हों,कुछ  तो पौधे बनें और विकसित होना प्रारंभ हों .जीवन के अंतिम दयनीय शारीरिक अवस्था में अपने अपूर्ण सपने में भी इस विश्वास से की स्वस्थ समाज के लिए बाकी कार्य आगे की पीढ़ी इससे जागरूकता पा पूरी कर सकेगी अपना मानसिक संबल बनाये रख जीवन की पारी सहज समाप्त करने तैयार रहूँगा.मैं अपने बच्चों की किसी भी मजबूरी के प्रति बिना शिकवे/शिकायत अपनी आंखे मुन्दने के पूर्व सभी की मानसिक सम्रध्दी की प्रार्थना करूंगा.

क्या हमारे दायित्व और कर्म होने चाहिए

क्या हमारे दायित्व और कर्म होने चाहिए 


                                                                               जीवन में हमारे लक्ष्य बेहद सावधानी से तय किये जाने चाहिए जो हमारा तो चाहा  लाभ सुनिश्चित करे ही और मानवता का भी भला करे या कम से कम कोई नुक्सान तो ना ही करे. कोई लक्ष्य हम निर्धारित करते हैं उस हेतु कुछ महीनों /वर्षों  लगातार उस दिशा में कार्य और प्रयास करते रहना होता है .लक्ष्य की सफलता का कोई आकार या आकृति हमारे जेहन में हो सकती है. इस दिशा में हम सक्रिय रहते है तब किसी दिन हमें अपनी सफलता पर शक होता है .हमें हताशा सी लगती है जितनी जल्दी हो सके हमें इस से उबरना चाहिए .अगर उसी दिन संभव न हो सके तो आशा की नई किरण लेकर आई अगली सुबह  नए उत्साह से पुनः लक्ष्य की दिशा में हमारे कर्म बढ़ाने में जुट जाना चाहिए. हमारी निरंतरता और कर्मठता हमें हमारा लक्ष्य अवश्य दिलाती है .यद्यपि सफलता की आकृति/आकार हमारे अनुमान से कुछ अलग हो सकता है . 
                                    एक बैंक कर्मी रोज़ अपने हाथों /नज़र के सामने ग्राहकों से लेन देन तथा खजाने में रखने निकालने के बीच करोड़ों रूपये देखता है .महीने भर में ऐसे रूपये की मात्रा अरबों में हो जाती है.लेकिन उसे महीने के अंत में वेतन 1 लाख का मिलता है.क्या इस कर्मी को हताश होना चाहिए ,अरबों रूपये के लिए उसके कर्म और समय देने के प्रतिफल में सिर्फ 1 लाख की प्राप्ति ? कर्मी निराश नहीं होता पुनः अगले महीने और अपने retirement  तक सिलसिला जारी रखता है.
                                 हमारे जीवन में ऐसे ही दुनिया में हम बहुत जलवे देखते हैं .हमें लगता है हम बहुत थोडा ही इनमे से हासिल कर पा रहे  हैं या दूसरे की तुलना में हमें थोडा ही मिलता है.दुनिया के जलवे अरबों की भांति वे रूपये हैं जो बैंक कर्मी को दैनिक कार्य के दौरान द्रष्टव्य होते हैं. हमें हमारे हिस्से में आये जलवों से उसी तरह संतोष दिखाना है जिस तरह बैंक कर्मी अपने वेतन से पाता है. यदि बैंक कर्मी कर्तव्यच्युत हो कोई हेरफेर करे तो उसे मानसिक तनाव और भय होगा.यह हेरफेर अन्य की जानकारी में आ जाये तो उपहास या अपमान उसे झेलना पड़ सकता है .यदि हेरफेर ज्यादा मात्रा में किया गया हो तो दंड भुगतना पड़ सकता है और हिस्से में जो मासिक 1 लाख आते थे उससे भी हाथ धोना पड़ सकता है.उसी प्रकार हमें जीवन में अपने हिस्से के जलवों से संतोष रखना होगा अन्यथा हमारी भयग्रस्त /तनावपूर्ण मानसिक दशा हो सकती है .हमारी अनुचित कोशिश हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को नुकसानदायी हो सकते हैं,और जो आज हमारे सहज जलवे है वे भी हाथ से निकल सकते हैं.
                                   हमारे बड़े लक्ष्य जिसके लिए वर्षों हमें पुरुषार्थ करना होता है के दौरान कई मौकों पर अपनी सफलता में संदेह होने से हमें हताशा हो सकती है .हताशा की स्तिथि में अपना वह लक्ष्य छोड़ कोई अन्य लक्ष्य बना लें तो पिछले लक्ष्य के पिछले प्रयास बिना प्रतिफल के व्यर्थ हो सकतें हैं. हमारा  ऐसा स्वभाव हमारी जबतब की हताशा में हमें नए लक्ष्य को मोड़ सकता है . ऐसी भूलभुलैय्या   में भटक समय गुजार देने पर एक ही बिंदु के आसपास रह जाने से हमारी कुल उपलब्धि यही होगी की जिंदगी व्यतीत हो गई.
                                       ज़िन्दगी की इन हताशाओं /निराशा में कमज़ोर ना पड़ उनसे ज़ल्द उबरते हुए अपने लक्ष्य की दिशा में निरंतर दृढ कदम बढ़ाते जाना होता है.लक्ष्य की तरफ संकल्पित प्रयास ज़िन्दगी व्यतीत करने के साथ हमारी सफलता को मूर्त रूप प्रदान करती है.
                                    बच्चे छोटे होते हैं अपने आसपास और घर में दूसरों को कुछ करते/बोलते देखते हैं.स्वमेव वैसा ही करने का प्रयास करते हैं और कुछ थोड़े और कुछ ज्यादा प्रयासों से सीखते जाते हैं. जैसे साईकिल चलाते अन्य को देख वह साईकिल की मांग करता है आने पर खुद के प्रयासों और हमारे सहयोग से चलाने में प्रवीणता प्राप्त कर लेता है.अभिप्राय यह है की बच्चे जो होता हुआ देखते हैं उसका अनुकरण करते हैं.ऐसे में हम परोपकार ,भलाई और अपने सद्कर्मों की मिसाल उनके समक्ष ना रखेंगे तो कैसे वे सीखेंगे . समाज के वर्तमान से परोपकार ,भलाई और  सद्कर्मों की मिसाल विलुप्त होंगी तो क्या ये सिर्फ इतिहास की वस्तुएं ना रह जाएँगी . फिर समाज की सुरिक्षित ,शांति  और खुशहाली की हमारी अपेक्षा के बदले क्या हमें और हमारी संतति को मिलेगा हम स्वयं सोच सकते हैं.
                        हम पुनः विचार करें की क्या हमारे दायित्व और कर्म होने चाहिए ..

Saturday, May 12, 2012

क्या बदल सकते हैं हम?

 क्या बदल सकते हैं हम?

                                      प्रतिदिन भीख मांगते कुछ दरिद्र हमारे घर/प्रतिष्ठान के सामने होते हैं.उनमे से कुछ कई दिनों से स्नान भी ना किये हुए होते हैं.ऐसा मानव हमें अप्रिय लग सकता है,वह दुर्गन्ध फैलाता भी भी हो सकता है.ऐसे में हम उसे दान न दें .उससे कहें तुम नहा के आओ तो 5 रुपये देंगे.हो सके तो उसे 1 रुपये  का साबुन या शेम्पू का पाउच दे दें . यदि वह स्नान कर हमारे सामने पुनः आये तो उसे 5 रुपये दिए जा सकते हैं.उसके बाल या दाढ़ी बड़ी हो तो उसे कटिंग /दाढ़ी बनाने को कुछ और मदद दे सकते हैं.उसके कपडे मलिन हो तो अपने पुराने कपडे भी दे सकते है. वह बीमार लगे तो निशुल्क चिकित्सालय का पता दे उसे भेजने में सहायता या कर सके तो स्वयं उसे पंहुचा कर दवा/उपचार करवा सकते हैं
                                हमें सोचना है कि  दरिद्रता का हमारे आसपास इस तरह का घिनौना रूप हमारी मानवीय असंवेदनशीलता ही दर्शाता है.ऊपर दिए पूरे नहीं पर जो बन सके उतने अपनी क्षमता अनुरूप उपाय ही कर सकते हैं.अगर करने में कोई भी मानसिक  तनाव /अशांति अनुभव करें तो ये  परोपकार न करें .मानसिक शांति की कीमत  पर कुछ भी किया जाना उचित नहीं है. क्योंकि सामाजिक शांति तब ही संभव है जब उसमे सर्व मानव मात्र  शांत रहता हो.जहाँ तक दरिद्रता की घिनौनी तस्वीर है वह अपनी गति अनुसार (हम नहीं किसी दूसरेकी सहायता से  ठीक होगी ही  अन्यथा अस्वच्छ /दुर्गन्ध फैलाते गरीब के साथ तो वह ख़त्म होगी ही.

Friday, May 4, 2012

साधारण वेशभूषा में महामानव

साधारण वेशभूषा में महामानव

                                                                 किसी भी वक्ता ,प्रवर्तक महामानव या दर्शनशास्त्री द्वारा जब मंच से अच्छी बातें अच्छे विचार कहे या समाचार पत्र ,पत्रिका या किताबों में लिखा जाता है या इलेक्ट्रोनिक साधनों से हम तक पंहुचाया जाता है तो वे बहुत आशावादी नहीं होते हैं की हरेक श्रोता सुनाने के बाद बहुत जल्द उसे अपने आचरण में ला सकेंगे.क्योंकि प्रत्येक मानव को सोचने समझने के अलग संस्कार,परिवेश और शिक्षा मिली होती है .जिससे वह अपने खुद के द्रष्टिकोण एवं कर्म रखते हैं .मिलने वाले नए उपदेश एवं विचारधारा से मिलती जुलती सोच उनमे है तो ऐसी बातों का तुरंत प्रभाव उनपर पड़ता है किन्तु उनकी मान्यतों में अंतर ज्यादा हो तो सुने/पढ़े गए उपदेश /विचार तुरंत ग्रहण वे नहीं कर पाते हैं.लेकिन शिक्षा/उपदेश दे रहे व्यक्ति के विचार यदि ऐसे में चिंतन/मनन के लिए स्वीकार कर लिए जाते हैं उपदेशक को संतोष ही होगा.और उनका लेखन/कथन व्यर्थ नहीं जाता है.लोकप्रिय कहानी/सुप्रचारित घटनाएँ और विद्वानों ,महामानवों के जीवन के अंश के माध्यम से भी अच्छे विचार ,कथन और शिक्षा दी जा सकती है. लेकिन बिलकुल ही सामान्य घटनाओं से जो दैनिक जीवन में अक्सर देखी और घटित होती हैं के माध्यम से अच्छे आचरण और उच्च आदर्शों की प्रेरणा दी जावे तो यह शैली उन विवादों से परे होती हैं जो प्रसिद्ध कहानी/घटनाओं और महामानवों के प्रति पहले से पूर्वाग्रहों के कारण सुनाने /देखने वालों के मन में जन्म सकती हैं.
                                                        हम अपने आसपास स्वच्छ किन्तु साधारण वस्त्र और जूतों में बहुत और ब्रांडेड और कीमती वस्त्र और जूतों कुछ मानवों को पाते हैं.ऐसे कुछ मानवों से हम जल्द प्रभावित होते हैं किन्तु साधारण वस्त्र और जूतों में बहुतों को हम ज्यादा गंभीरता नहीं अनुभव करते हैं .हमें यह आज विचारना है की क्या ये भी ब्रांडेड और कीमती वस्त्र की अभिलाषा नहीं रखते होंगे ?बिरले उत्तर ही ना में मिलेंगे .तब क्या कारण होते हैं कि अधिकांश साधारण परिधोनों को विवश होते हैं. वे कारण हो सकते हैं कि किसी के पास कम धनार्जन का ज्ञान ,प्रतिभा और क्षमता हो,कोई कमा तो ठीकठाक लेता हो पर ज्यादा के (माँ,पिता सहित ) उदरपोषण का दायित्व निभा रहा हो, किसी का अपना गंभीर बीमारी से पीड़ित हो या चोरी लूट या छल के कारण अपना धन,वैभव गवां बैठा हो ,या धन कमाने में उच्च आदर्शों से समझौता ना करता हो .इन किसी भी कारण से  सिर्फ परिधानों कि भिन्नता से कोई कम सम्मानीय नहीं हो जाता है .ऐसे में यदि हमारे व्यवहार से दुखी और उपेक्षित हो अनैतिकता ,भ्रष्ट और बेईमानी से धन उपार्जन को कोई प्रवत्त हो जावे तो मानव समाज का भला नहीं होता.बल्कि मानव असुरक्षा और अशांति बढ़ने के आशंका ही जन्मती है. हमें सावधान रहना चाहिए कि ऐसी प्रवत्ति समाज में न बढे .हमारे प्रयास और व्यवहार ऐसे हों कि मानवों में जो भी अच्छे गुण विद्यमान हैं हों बने रहे और और बढाने में सहायक हों.बुरी लतों के कारण विपन्नता झेल रहे गरीबों को सम्मान न कर सकें तो ना सही पर उनसे सहानुभूति रख उनकी बुराई हटाने के उपाय हमें करने चाहिए.
                                        बहती सरिताओं  में  जहाँ तहां से अशुद्ध जल आ समाता लेकिन जलधाराओं ,प्रवाह में रहकर वह छनता जाता है और अशुद्धियाँ तलहटी में समां कर रेत और मिटटी में समां दूर हों जाती हैं.हमारा मन सरिता कि भांति है अशुद्ध और बुरे विचार ,आचरण  इसमें जहाँ तहां से घर कर ले सकते हैं. हम यदि मनन और चिन्तनशीलता का प्रवाह अपने ह्रदय में चलाते रहें तो सरित प्रवाह के जल सद्रश्य हमारे विचार ,आचरण निर्मल होते हैं.बुराई हमारे अंतर में जा विलोपित होती हैं.वृष्टि के अभाव में या ग्रीष्मकाल में सरिता में जल प्रवाह कम हो जाने पर प्रवाह हीनता  में जल अशुध्दता बढ़ जाती है ,उसी तरह विचारों के प्रवाह अवरूध्द होने से मन मलिनता बढती है .अतः अच्छे मानवीयता के विचार का प्रवाह निरंतर बनाये रखना चाहिए.
                                  हम प्रुबुध्द्जन अपने विवेक ,मनन और चिन्तनशीलता से वर्तमान समाज में आ गयी असुरक्षा और अशांति को दूर करने के प्रयास और उपाये कर सकते हैं. चूँकि खराबी की जड़  गहराई में पंहुची हुयी है अतः कुछ या एक दो के प्रयासों से इसका खात्मा नहीं हों सकता .सामूहिक प्रयासों से इसे थोड़ी दीर्घ अवधि में हटाया जाना संभव होगा . हम नहीं तो क्या हमारी सन्ततियां तो ज्यादा खुशहाल हों सकती है.
                                 आप मैं और अधिकांश मिल, विचारों का, आचरणों का ,जाग्रति का प्रचार और प्रसार करें ऐसी अनुकरणीय मिसालें दे सकने में समर्थ हों तो हमारा जीवन अकारथ न जावेगा. हम आने वाली संततियों के सही मायनों में माँ और पिता होंगे. और वे सुरक्षित और शान्ति के वातावरण में जीवन जियेंगे.