Sunday, December 30, 2018

प्रिय तारीख़ में यह वक़्त जब दर्ज किया होगा
लिखेगा लिखने वाला हमने ये साथ जिया होगा


दर्द दिल में तो शायरी में उतर जाएगा

दर्द दिल में लिए बेचारा किधर जाएगा 

Friday, December 28, 2018

ख़्वाहिशों पर जोर नहीं हमारा - हम एक हो गए
राह ए ज़िंदगी में हमारे - रंज ओ गम एक हो गए 

Wednesday, December 26, 2018

गैर तुम तो क्या -
दिल में प्यार रखने में हर्ज क्या है
दिल मुझे -
प्यार रखने के लिए कुदरत ने दिया है

Tuesday, December 25, 2018

साथ नहीं हुए थे जब तक, हमारे काम किया करते थे
जब साथ कर लिया उनसे, हमसे काम लिया करते हैं

ये ज़िंदगी तू क्यूँ इतना मेरे लिए -
मेरे लिए, का शोर करती है
देख और भी हैं ज़िंदगी जो तुझसे -
अपने लिए उम्मीद रखती हैं

ख़ुशियाँ अगर कम हैं - चलो वे तुम्हें मिलें
बिन ख़ुश रहे भी हम- ज़िंदगी चला लेते हैं

Monday, December 24, 2018

मयस्सर हुई ज़िंदगी में जो इशरत जरा सी
गुमान यूँ हो गया जैसे ख़ुद हम खुदा हो गए
मयस्सर - लब्ध/प्राप्त  ,इशरत - भोगविलास/वैभव

ख्याल ए यार को फुर्सत हमें नहीं
शुबहा मगर
कि वह ख्वाब ओ ख़्याल में अपने
रखता हमें होगा


Sunday, December 23, 2018

गर बात वह ना रहे जिससे ज़िंदगी बेहतर लगती थी
तो बेहतरी यह कि 'औरों की ज़िंदगी की वजह' हो लें

Saturday, December 22, 2018

यह सफर बीत जाएगा - साथ मिलते, बिछड़ते
तुम याद वही रखना - जो दिल ख़ुश रखता है

यह ज़िंदगी मिली मुझे - सबकी ख़ुशी के सबब बनने को
माफ़ कर देना मुझे - गर मैं परेशानी का सबब बनता हूँ

ज़िंदगी से हासिल कुछ - साथ, क्या कोई कभी ले जाता है
ज़िंदगी में हासिल वह हो - जो इंसानियत को मिल जाता है 

Friday, December 21, 2018

किसी की कमी पर उलाहना दूँ मैं तो -
मेरी हिमाकत कहना
इंसान खुद मैं भी हूँ -
जानता हूँ इंसान में कमी हो सकती है

ख़ासियत आप में तो ख़्वाहिश मशहूरियत की होगी
महसूस किया भीतर इंसान तो पसंद इंसानियत होगी

Wednesday, December 19, 2018

उपयोगिता

उपयोगिता ..

समय आता है जब हमारी पारिवारिक और सामाजिक उपयोगिता लगभग समाप्त हो जाती है। तब हम एक तरह से भार होते हैं। ऐसे में हम अपने नखरे - फरमाइशें और अपेक्षायें ज्यादा रखें तो यह परिवार और समाज पर हमारा अतिरिक्त भार हो जाता है। इस भार को निर्वहन में परिवार और समाज से चूक होने की संभावना भी बढ़ जाती है , उस पर यदि हम चिढ़चिढ़ायें या गुस्सा करें तो पहले ही हुए भार को हम औरों के लिए असहनीय बना देते हैं। पूर्व में हम कितने भी प्रिय , सम्मानीय या जिम्मेदार रहें हों , आज की व्यस्ततायें हमारे करने वालों में विस्मृत हो जाती हैं।
अतः हम औरों के लिए कुछ न कुछ अपनी उपयोगिता ज्यादा से ज्यादा समय तक बनाये रख सकें यह कोशिश हमारी होनी ही चाहिए। फिर भी जब हम अनुपयोगी हो ही जायें तब अपने खर्चे , अपेक्षायें और क्रोध को नियंत्रित कर , हमें एक सरल व्यक्ति बन जाना चाहिए। यह सब करने के लिए हमें यह प्रमुख नहीं रखना चाहिए कि हम किसी के माँ - पिता हैं , अपितु यह स्मरण करना चाहिए कि एक बेटे या बेटी के रूप में हमने अपने माँ - पिता या  माँ - पिता तुल्य सासु जी , श्वसुर जी के लिए उनके ऐसे समय में कितना और कैसा किया है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
20-12-2018

Tuesday, December 18, 2018

इक ही बुराई मुझमें - पर मुझे समझ न आती है
हर बुराई की वजह - मुझे औरों में नज़र आती है

#बेचैन_करती_है

बनी रहे मेरी नज़र के सामने - मोहब्बत की यह धुंध
साफ़ नज़र में - मंजर पर नफ़रत का साया दिखता है

तब
मर्माहत तो इंसानियत होगी ही
जब मरते दम तक
फ़क्त खुद की ख़ातिर हम जीते रहें

अपेक्षा - हमें, तुमसे कोई नहीं अपेक्षा - सिवा तुम्हारी ख़ुशी के कोई नहीं

Monday, December 17, 2018


राह ए ज़िंदगी में - हम उन्हें देखते खुश पड़े थे

संग-ए-राह कह - उन्होंने तरफ हमें कर दिया

मिली जिंदगी मेरी,
रंगहीन रेखाचित्र सी थी
मिला प्यार तुम्हारा,
खूबसूरत रंगीन तस्वीर हो गई

उसने एहसानों के बदले दरख़ास्त इक कर दी

कि मर जाऊँ जब मैं - अपने अश्क़ रोक लेना

Sunday, December 16, 2018

वह कलम जो बात बेबात चल दिया करती है
उसे बेच
अब चश्मा लिया
जिससे नज़र औरों के ख़ूबसूरत कलाम पढ़ा करती है

तुम्हें पसंद नहीं रह गया - मेरा लिखा,
पढ़ना
तुम्हारी ख़ातिरदारी में रहेंगे - वादा याद कर,
लिखना छोड़ दिया
एक आम ज़िंदगी अस्सी साल की होती है यानि लगभग 30000 दिनी। मुस्लिम की ज़िंदगी के अस्सी दिन ( बकरी ईद के) घटा दें तो 29920 दिनों में एक मुस्लिम और एक अन्य कौम के माँसाहारी इंसान में कोई फ़र्क नहीं रहता। ये 80 दिन मुस्लिम ज़िंदगी के ख़ास दिन हैं - वे उन्हें निजी तौर पर स्मरण रखें , और अन्य कौम के लोग उन्हें भुला सकें तो नफ़रत, रंजिश, ख़ूनख़राबा और दहशतगर्दी से इस दुनिया को काफी हद तक छुटकारा मिल जाएगा। 

Tuesday, December 11, 2018

वज़ूद को हम अपने
खुद जान जो लेते
हर इंसान को हम
सम्मान दिया करते 

Monday, December 10, 2018

मेरे कलाम यूँ - बेहतरीन होने से रह गये
आपकी नजरें इनायत हुईं नहीं - क़त्ल हो गये

हमारे क़त्ल का गुनाह हम -
माफ़ तुम पर करते हैं
हम जी रहे हैं जैसे -
उसे लोग ज़िंदगी नहीं कहते हैं

उस मुक़ाम से निकल आये हैं -
जिसे इश्क़ कहते हैं
अब मंज़िल है वह हमारी -
जिसे ज़िंदगी कहते हैं

क्यूँ कीजिये?
नफ़रत हमसे
इक इंसान के लिए मोहब्बत नहीं है?
दिल में तुम्हारे

Sunday, December 9, 2018

निहायत अविवेकपूर्ण व्यवस्था थी , भारत की आज़ादी देते हुए ब्रितानी हुकूमत की और आज़ादी लेते हुए महत्वाकांक्षी हमारे सियासत दारों और मज़हबी दृष्टि से अपने हित लोलुप धार्मिक ठेकेदारों की जिसके अंतर्गत आज़ादी के साथ ही यह मुल्क विभाजन को मजबूर हुआ। मानवता की दृष्टि से नितांत अदूरदर्शिता पूर्ण दृष्टि ने कितने नामी गिरामी शख्सियत को उनसे मूल से उखाड़ कर उन्हें अवसाद और गुमनाम हो जाने को बाध्य किया। कितने के जमे व्यवसाय - उद्योग सत्यानाश हुए उन्हें छोड़ कर किसी को इस तरफ और किसी को उस तरफ फिर अपनी ज़मीन बनाने के चुनौती पूर्ण काम मिले। कितने ही लोगों ने अपनी जानें गँवाई। और इस उपमहाद्वीप में बहन बेटी और बहुओं से मापी जाने वाली खानदान की इज्जत को क्या नहीं कलंक और मानसिक अवसादों का सामना करना पड़ा जब सभी कौम के मर्दों में सोया हुआ दरिंदा जाग उठा जिसने छोटी सी बच्ची से लेकर बूढी औरतों को अपनी हवस का शिकार बना उनकी आबरू तार तार कर दी , इनमें से अनेकों शरीर इस यातना और बेइज्जती के कृत्यों को सहन नहीं कर पाया कुछ मर गईं , कुछ को दरिंदों ने मार डाला। यह इस उप महाद्वीप का घिनौना इतिहास लिखा जाने वाला वक़्त था। अदूरदर्शी तब के नीति निर्धारकों ने भारत और पाकिस्तान का वह कारण दे दिया था जिससे उत्पन्न परस्पर नफरत से कई पीढ़ियों को बदले की तथा रंजिश की आग में जलते हुए एक दूसरे पर वह कहर बरपाना था जिसमें लोगों को दहशत के साये में जीना था। परस्पर सौहार्द या मोहब्बत की मधुरता से मिलने वाले ज़िंदगी के लुफ़्त से वंचित , नफ़रत दिल में रख उसकी जलन स्वयं को ष्ण और दूसरों की इसकी आग में झोंकना था। 
इस प्रकार कहें तो 1947 ईसवी तक का मानव इतना सभ्य नहीं हो सका था जो यह समझ सकता कि तोड़ना नहीं एक दूसरे को जोड़ना मानवता के हित में होता है। यही जुड़ना उस विश्वास और सहयोग की बुनियाद होती है जिससे हर ज़िंदगी को खुशहाली की बुनियाद और धरातल देती है। 
2018 ईसवी में अगर इस सच को हम पहचान लें और पूर्व इंसानी पुश्तों की गलतियों से उपजे परिवेश को बदलने की कोशिश की शुरुआत करें तो मानव सभ्यता की परिपक्वता साबित करेगा जिसमें हम वह धरातल बना सकेंगे जब भारत पुनः एक होगा और परस्पर विश्वास - सहयोग से ऐसा मुल्क बनना आरंभ करेगा जो दुनिया को इंसानियत की मिसाल और संस्कृति देगा। दुनिया को भारत पुनः संस्कृति और सभ्यता का नेतृत्व देगा जिससे पूरी दुनिया में भाईचारा और अम्न का साम्राज्य होगा। 
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

Saturday, December 8, 2018

मोहब्बत की दरकार थी ज़िंदगी को
दहशत के साये में मजबूर है जीने को

हसरत हो कि
ज़िंदगी कोई मोहब्बत से बेजार न हो
तो आ जाना
अकेले ही मैं एक कारवाँ हो चल पड़ा हूँ 

इम्तिहान ..

इम्तिहान ..

किसी हादसे के ठीक पहले

वह लम्हा भी आता है

जिसमें दिमाग़ में

एक ख्याल कौंध जाता है

सामने इंसान या अपनी गाड़ी को बचाऊँ 

पशोपेश में दिल तेरा पड़ जाता है 

जिस दिन होने देगा गाड़ी का नुकसान

और इंसान को तू बचा लेगा

उस दिन इंसानियत का इम्तिहान

तू पास करके दिखा देगा 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

08-12-2018

Friday, December 7, 2018

ज़िंदगी गुज़र रही है बाकि भी यूँ गुज़र जायेगी
ये सोच के चुप रहना ठीक नहीं
ज़िंदगी और परिवेश नई पुश्तों को ठीक मिले
मुनासिब है इसके लिए हम प्रेरणा बनें

यूँ तो करने से तुम्हारे कुछ भी फ़र्क पड़ना नहीं है
मगर इससे निराश हो तुम्हें लक्ष्य छोड़ना नहीं है 

Wednesday, December 5, 2018

मर्जी आपकी अपनी है ,
कोई जोर उस पर मेरा नहीं
एक उम्र है तब तक सब है ,
फिर जोर तुम्हारा मेरा नहीं

दुश्मन तो मेरे,
सभी दोस्त हो रहे थे
हैरत में मैं दोस्त मेरे,
तब तुम दुश्मन क्यूँ हो गए

उन पर तरस आया नहीं तुम्हें,
चलो कोई बात नहीं
हालात से लड़ने की मिसाल,
उनकी ज़िंदगी होगी



इस कदर तो ख़राबी हम में न थी
कि सुधर न सकें
यह जरूर कि
मरम्मत में ही उम्र एक गुजर गई

बेशक़ गिरा लेने दो दुश्मनों को हमारी राह में शोले
हमने जोर ए आज़माइश में ही उम्र एक गुजार दी है

दुश्मन कई आये थे - ज़िंदगी में हमारी
और बात है कि - अब ख़ैर ख़्वाह वे ही हैं हमारे

यूँ ही बेखुदी में
दिन गुजर रहे थे
पहले - फ़िक्र ए आज़ादी की मसरूफ़ियत में
अब - आज़ादी की खामख्याल गफ़लत में

मुस्कुरा लेना हमारा
कभी मुश्किल नहीं होता
ग़र हसरतें हमारी
फ़क्त ख़ुद के लिए नहीं होतीं 

Monday, December 3, 2018

हमारे अपने नहीं वे भी खुशियों में जियें
उनके अपने हैं जिनकी खुशियाँ उनसे है

अक्ल और मौके हर ज़िंदगी में मगर -
क़ामयाब वो है
जिसे वक़्त पर अक्ल और मौका पहचानना -
आया है 

Sunday, December 2, 2018

कौन होगा ?

कौन होगा ?

इंसान वह जो नफ़रत के कारण अपनी आगामी पुश्तों पर , आसन्न खतरों में ज़िंदगी जीते देखना पसंद करेगा। नफ़रत से ख़ौफ़ में जीती कई पीढ़ियाँ गुजरीं , क्या इनकी आपसी दुश्मनी में गुजरी ज़िंदगी , एक ज़िंदगी में मिलने वाले मजे से वंचित नहीं रही? हम नफ़रत में इस कदर गुस्साये रहें यह हम पर खुद ही अन्याय है। जो दायित्व हम पर है , हम नहीं तो आगे की पीढ़ियों को निभाना होगा। जो आनंद जीवन में प्रेम - सौहार्द से मिलता है वह फिजाओं में नफ़रत घोल कर नहीं प्राप्त किया जा सकता। इतिहास की कलंक बनीं इबारतों को फिर फिर याद कर के आपस में खून की होली खेलना या अपने किसी जूनून (मज़हबी या सियासती) में हिंसा और नफ़रत की तरफ पीढ़ियों को उकसाना कतई इंसानियत नहीं है वह भी उन बेचारों को जिनकी अभी मूँछे भी नहीं आईं हैं। हमें ठंडे दिमाग से विचार करना होगा। यह समझना होगा कि नफ़रत से दुष्प्रेरित हो किया हमारा एक काम - इसी तरह के नफ़रत दुष्प्रेरित अनेक काम को प्रतिक्रिया में पैदा करता है। यह भी नहीं कि यह सिर्फ मेरे पक्ष का ख्याल है - इस देश या उपमहाद्वीप में रहने वाले सभी पक्ष को इस पर गौर करना चाहिए। दुनिया में सभ्यता का उदहारण जापान ही क्यों ?, समृद्धि का उदाहरण ऑस्ट्रलिया या यूएस ही क्यों? , विकास की मिसाल अन्य ही क्यों और प्रेम भाईचारे से एक हो जाने का उदहारण जर्मनी ही क्यों ?- यह उपमहाद्वीप भी या भारतवर्ष भी ऐसी सभी मिसाल पेश कर सकता है। पूर्व की भाँति सँस्कृति और विव्दता में और मानवता में विश्व का नेतृत्व फिर हम कर सकते हैं। ऐसा सब हो जाए तो यह आश्चर्य नहीं होगा। क्षमा और पूरी विनम्रता से यह मेरे मन की बात है। जिस से सहमत होना आवश्यक नहीं। मैं खुद को बहुत बुध्दिमान मानने का भ्रम नहीं रखता हूँ।


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

Saturday, December 1, 2018

लड़कपन के सपनों में अपने लिए सब सच्चा प्यार चाहते हैं
बड़े होकर मगर सब खुद ही सच्चा प्यार बनना भूल जाते हैं

वे महान बना गए थे , पावन ध्येय से कुछ सुपथ
पाखंडियों ने चल के उन पर , उन्हें भ्रष्ट कर दिए