Sunday, March 31, 2013

भ्रामक प्रसार से बचना

भ्रामक प्रसार से बचना
--------------------------
जब हम ज्यादा प्रकाशित स्थान से कम प्रकाश (अँधेरे ) में पहुँचते हैं . या कमरे के प्रकाश-पुंज को बुझाते हैं तो उस अल्प प्रकाश में अचानक हो जाने से जितना संभव है उतना देखने के लिए हमारी आँखों को अभ्यस्त होने में कुछ पल लगते हैं . जब तक कम उजाला है . हम कामचलाऊ स्थिति ही देखने और समझने का यत्न करते हैं . रोशनी वापिस आने पर हम पुनः स्पष्ट देख ने लगते हैं .

इसी तरह जिस विषय -वस्तु का हमें ज्ञान नहीं है... . उसमें आने पर हमें कुछ समय लगता है , जब हमें कुछ समझ आना आरम्भ हो पाता है . और अभ्यास और प्रयत्न बढ़ने पर हमें ज्यादा सच्चा ज्ञान होना प्रारम्भ होता है . जब तक दक्षता नहीं है ,कामचलाऊ ज्ञान से आगे बढ़ना होता है .

व्यस्तता के आज के युग में हम अधीर हो ,ज्यादा अभ्यास नहीं करते . कामचलाऊ ज्ञान किसी विषय का हमें होता है . उससे निष्कर्ष निकालते हैं . उसी से कहना और तर्क कर प्रसार करते हैं . हमारा किसी भी बारे में पूर्ण ज्ञान ना होने पर ऐसा करना भ्रम का प्रसार करना होता है . और भ्रामक सामग्री पढ़ देख दूसरे दिग्भ्रमित होते हैं . इस तरह हम अनायास एक बुरा कार्य करते हैं . भ्रमपूर्ण धारणाएं अगर किसी के मन में स्थापित हो जाएँ . तो उन्हें बदलना ज्यादा श्रम और समय मांगता है जिसकी कमी सभी ओर है . हमारे पास फेसबुक है हम कुछ भी लिख सकने और प्रसारित करने में समर्थ हैं . इसलिए हमें ज्यादा सतर्क व्यवहार इस पर करना चाहिए . जिससे इस पर व्यय किया जाने वाला हमारा समय समाज उपयोगी हो . समाज और मानवता के हित में हो . हम कितने भी धनी क्यों ना हों . दूसरों का सहयोग की हमारी क्षमता सीमित ही होगी . पर दूसरों से सच्चे ज्ञान का आदान-प्रदान , विचार-विमर्श के माध्यम से जो सहयोग और भलाई की जा सकती है . उसकी कोई सीमा नहीं है . इसे हम समझें और गंभीरता समझ अपनी लेखनी से जितना बन सके भलाई प्रसारित करें . आज इसकी आवश्यकता बहुत है .. 

Thursday, March 28, 2013

परोक्ष दोष की सजा

परोक्ष दोष की सजा
----------------------
एक विद्रोह की परिस्थिति बनना .नियंत्रण में कुछ लोगों का मारा जाना . प्रतिक्रिया में एक प्रमुख की हत्या फिर प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया में सैकड़ों हत्याएं यह संक्षिप्त विवरण पिछली शताब्दी के एक दुखद घटनाक्रम का है .जिससे  देश में चला आ रहा  भाईचारा को खतरा उत्पन्न हुआ  . देश के प्रमुख सम्प्रदाय में से दो जिनमें अटूट सौहाद्र एवं प्रेम का इतिहास शताब्दियों से चला आ रहा था . एकबारगी आपसी संघर्ष की राह पर आ गए . एक दिन में प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया में देश के विभिन्न हिस्सों में हुई सैकड़ों हत्याओं में निर्दोष और मासूम सम्मिलित थे . निर्ममता में मारे गए  हमारे देश के भाई /बेटे जिन परिवारों के सदस्य थे , जिनके रिश्तेदार और आत्मीयजन थे वे गहन मातम में पहुँच गए थे .एक पूरा सम्प्रदाय एकाएक हुए इन अत्याचारों से गहरे मानसिक आघात में था . पूरे देश के शांतिप्रिय जन भी इन हत्याओं और अत्याचार से व्यथित था . वह चाह कर भी उस सम्प्रदाय से सम्वेदना और उनके दुखों को बाँटने में असमर्थ था . आपसी विश्वास इस बुरी तरह प्रभावित हुआ था .
इतने बुरे दिनों को काट लेना अत्यंत कठिन था . पर वाह मेरे देश के संस्कार , सहनशीलता , सहिष्णुता और शांतिप्रियता की समूचे विश्व में मिसाल नहीं मिलेगी .  विश्व आश्चर्यचकित था , जिस तीव्रता से देश का आम जीवन सहज हो गया था .
लेकिन मारे गए निर्दोषों के आत्मीय जन कैसे इतनी सरलता से विछोह भूल सकते थे . मनुष्य जीवन इतना आसान थोड़े ही होता है ,पा लेना . जिनके साथ होने से किसी को अपनी दुनिया आबाद लगती है .दुनिया में उनका ना होना और वह भी किसी के द्वारा मार दिए जाने का कटुतम करतूत के कारण . दुनिया ही लुट गई होती है .जिन दुर्भाग्यशाली परिवारों के साथ ऐसा हुआ उसकी वास्तविक असहनीयता को कोई और अनुभव कर ले संभव नहीं है .
ऐसे में प्रतिक्रिया में उनके ह्रदय में बदले का विषबीज उत्पन्न हो जाए ,अस्वाभाविक नहीं होता . इस प्रतिक्रिया को कभी सतह पर लेखों , आव्हानों और कभी हिंसक रूप में देखा जाना भी अस्वाभाविक नहीं है . हमें ,उनको हुई मानवीय क्षति का कुछ प्रतिशोध भुगतना ही होगा .बहुत मात्रा में इसे विस्मृत करने की महानता उन्होंने दर्शायी है पर यदाकदा अभी भी इसे देखा जाता है . हमने यद्यपि किसी हिंसा में हिस्सा नहीं लिया ,उसका दोष हम पर प्रत्यक्षः नहीं है .पर परोक्ष दोष इसलिए हम पर है , क्योंकि  हम इन हत्याओं और हत्यारों को रोक नहीं सके .
इस हमारे दोष के लिए पीड़ित परिजनों के अभिशाप और कोसे जाने वाले शब्दों ,किये जाने वाले अपमान पूर्ण व्यवहार को हमें सहन कर लेना होगा .ऐसे अपमान के बीच भी हमें उनके अश्रु पोंछने के भाव ही रखने होंगे . उनके मानसिक और ह्रदय के शूल देते घावों को आत्मीय व्यवहार की मलहम  भी हमें लगानी ही होगी .
हम मनुष्य होकर क्यों मानवता को उस शीर्ष पर स्थापित नहीं कर सके ? जहाँ मनुष्य के प्राण  इस तरह जोर जबरदस्ती में लेने का अन्यायपूर्ण विचार किसी के ह्रदय में ना आता हो .
जब तक हम ऐसा ना कर सकेंगे ,हमें कभी अपनों की और कभी अन्यों की बारी से इस तरह अकाल मौत के घाट उतारे जाने की विवशता झेलनी होगी . (वैसे मनुष्य साथी को अन्य  मानना भी दोषपूर्ण है अगर कोई मनुष्य है तो वह गैर नहीं हमारा अपना होता  है ,यह सच्ची मानवता है .) . मानव हनन तो घोर अमानवीयता है ही  .
हर ऐसे दुखद घटनाक्रम के बाद हिंसा पिछले की तुलना में कम करना हमारा लक्ष्य हो . किसी भी अन्य वैज्ञानिक उन्नति या किसी भी हमारे स्वप्नीय उपलब्धि के पहले  हम मनुष्य "शून्य जन हत्या"  के स्तर का सुख की अनुभूति कर सकें  . ऐसा मानवता का इतिहास यह मानव  समाज रच सके  . हमारी सर्वप्रथम कामना यह हो .

 

Tuesday, March 26, 2013

यह पुरुष निर्लज्जता -मर्दानगी ?

यह पुरुष निर्लज्जता -मर्दानगी ?
---------------------------------------

वर्षों पुरानी वह होली का दिन .  सिध्दांत और आनंद दोनों अविवाहित एक स्थान पर पदस्थापना में एक क्वार्टर में रहने लगे पूर्व परिचय ज्यादा नहीं पर अब मित्र जैसे रह रहे थे . विभागीय कालोनी में होली खेलने उपरांत , आनंद ने कहा , हमारे समाज के दूर के रिश्ते के लोग हैं . उनसे होली खेल आता हूँ .
वहां से आनंद वापिस आया तो अत्यंत प्रसन्न लगा .सिध्दांत ने जिज्ञासा प्रकट की तो बताया , उनके  यहाँ विवाह योग्य कन्या है . होली के बहाने उससे छेडछाड कर ली . सिध्दांत ने पूछा उसने विरोध नहीं किया ?
आनंद .. अपन इंजिनियर हैं ना , लगता है वे लोग उसके मेरे से विवाह को उत्सुक हैं ,अतः खुश ही हैं .हमारी बढती निकटता से .
सिध्दांत .. क्या तुम विवाह करोगे उससे ?
आनंद  .. नहीं , लड़की दिखने में तो ठीक है , पर आधुनिक नहीं है . मेरे मैच की नहीं है .
सिध्दांत .. फिर तुमने जो किया वह उचित है ?
आनंद ने उत्तर नहीं दिया . सिध्दांत सोचने लगा . भारतीय परिवार में दाम्पत्य जीवन में पति और पत्नी शारीरिक रूप से परस्पर एकाधिकार पसंद होते हैं . वह कन्या आनंद से नहीं ब्याही जाती है . और आज से बनने आरम्भ एक  आशा के महल के वशीभूत वह मासूम कन्या आनंद की अनुचित और छली इस तरह की गतिविधियों को सहन कर बाद में इन्कार उसे मिलेगा तो क्या दृश्य होगा .
आनंद किसी और से ब्याह का लेगा . बाध्य हो उस कन्या को किसी और को पति रूप वरण करना होगा . क्या वह अपने पति या किसी और से लज्जा वश इस किस्से की चर्चा कर सकेगी .शायद नहीं . उसे निश्चित ही जीवन में समय समय पर पछतावा और स्वयं पर धिक्कार से दुखी होना पड़ेगा .
पर आनंद , वह अपनी पत्नी से तो नहीं पर यार, दोस्तों से यह किस्सा मर्दानगी के रूप में बताकर आनंद लेगा .
सिध्दांत ,जिसका  इस विषय में यह सिध्दांत है , कि क्षणिक सुख के लिए किसी नारी को इस तरह ठगना  जिससे स्वयं विवाह को लेकर गंभीर नहीं हों बिलकुल अनुचित है सोच रहा है 
क्या यह पुरुष निर्लज्जता -मर्दानगी है ?
 
होली ऐसा पावन अवसर है .मेल मिलाप का बहाना और बैर दूर करने का अवसर कोई इसे इस तरह प्रयोग तो ना करे ...

होली की बधाई शुभकामनायें


होली की बधाई शुभकामनायें 
-----------------------------------

ग्रीन होली आज प्रांसगिक 
नहीं त्वचा हानिकर रसायन
जल संकट नहीं बढाती 
ना बनती जलप्रदूषण कारक 

होली प्राचीनतम उत्सव है 
जो करता था बैर दहन 
अगर बढ़ता है वैमनस्य तो 
कोई भले कहे होली उसे 
मुझे ना लगती होली वह

इस समूह पर फेसबुक पर 
हम खेल रहे होली आज 
जो बढ़ाये आपसी स्नेह 
और हमारे परस्पर विश्वास 

Monday, March 25, 2013

मनुष्य ,मानवता और भगवान

मनुष्य ,मानवता और भगवान 
------------------------------------
सभी मनुष्य में भगवान होने की क्षमता है . हम दूसरे भगवान की उपासना में उनके ,उल्लेख और चर्चा में अपना समय लगाते हैं .भगवान में मनुष्य की श्रध्दा सहज स्वाभाविक है . लेकिन उसमें इतनी लीनता जिससे हम अपने में विद्यमान भगवान की पहचान न करें . उचित नहीं है . मनुष्य जन्म के उपरांत समुचित बौध्दिक विकास और सांसारिक अनुभव मिलने तक तो अपने भगवान को तराशना संभव नहीं है . पर जीवन के कुछ वर्षों बाद हमें यह योग्यता मिलने लगती है जब हम स्वयं में भगवान तराश सकते हैं . योग्यता होने पर भी प्रयोग नहीं किये जाने से हम मनुष्य जीवन व्यर्थ करते हैं .

भगवान तराशा जाना  आरम्भ करना और भगवान बन पाना शेष रहना मानवता है . इस तरह मानवता वह पथ है जिस पर चलकर मनुष्य से भगवान का स्वरुप प्राप्त हो सकता है .

भगवान बन जाना कठिन तो नहीं पर भगवान ना भी बने तो प्रयास में हम मानवता के पथ पर चलते हैं . जो मनुष्य समाज हित का कारण तो है ही ...
(किसी की मान्यता ,श्रध्दा को आहत करना लेख का अभिप्राय नहीं है . ऐसा लगे तो सूचित करें तो लेख रिमूव किया जायेगा )


Sunday, March 24, 2013

व्यक्तिगत नहीं यह

व्यक्तिगत नहीं यह ...

मै प्रत्येक रविवार अपनी पत्नी का  rf तक  घरेलु खरीदारी के लिए साथ करता हूँ . सामान्यतौर  पर में बाहर कार में ही बैठा रहता हूँ जितनी देर वे rf में होती हैं . कार में बैठे 3 रविवार पहले मैंने , सामने के मेडिकल शॉप में एक युवक( सुन्दर ,स्मार्ट)  को आकर्षक अंदाज में सिगरेट के कश लेते  और धुयें के छल्ले बनाते देखा . चाहते हुए भी मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा . 
पिछले रविवार को भी यह दृश्य वहां उपस्थित था .तब मुझे रहा नहीं गया . मैंने उनके सिगरेट के ख़त्म होने की प्रतीक्षा की , फिर कार से निकल उनकी शॉप पर बैठे सहायक से उन्हें दूर आने का संकेत किया . वे बाहर आये .
मैंने अपना परिचय दिया , उनसे नाम जाना . उन्हें बुरा ना मानने की स्वीकृति के साथ उन्हें बताया कि पिछले समय से आपकी स्मोकिंग मै देख रहा हूँ . आप का स्टाइल अच्छा लगता है .पर सिगरेट पीना ठीक नहीं है . कम करते हुए इसे छोडिये .
सुनकर उनके चेहरे पर व्यथा सी उमड़ी , शायद उन्हें अपरिचित द्वारा उनकी आदत पर इस तरह टोका जाना अच्छा नहीं लगा . शायद यह भी लगा हो कि ये करना ना करना उनका व्यक्तिगत प्रश्न है . किन्तु प्रत्यक्ष में उन्होंने कोई अनादर ना करते हुए कहा ..
सर , मेरी वाइफ को भी इसीसे आपत्ति है मै स्वयं फार्मा में हूँ ,जानता हूँ इसकी खराबी ,पिछले कुछ दिनों से रेट बढ़ गया है . कम रखने की कोशिश करूँगा .
मैंने उन्हें कहा।। धन्यवाद तथा मुझे प्रसन्नता होगी यदि इसे आप कम दें तो .. हाथ जोड़े और 
फिर पत्नी के आने के बाद वहां से चला आया .
आज पुनः गया , आधे घंटे से अधिक समय तक कार में बैठा , उन्हें निहारते रहा . आज वे सिगरेट नहीं पी रहे  थे . ख़ुशी हुई .
पर एक शंका मन में थी कहीं ,उन्होंने मुझे देख कर यह सावधानी तो नहीं ली है ?

स्मोकिंग के प्रभाव से जब हम अपने किसी साथी (मनुष्य ) को परशानी में पड़ते देखते हैं तो पीड़ा हमें भी होती है यह मसला इसलिए किसी सिगरेट पीने  वाले का व्यक्तिगत नहीं , हम सभी का है . 


   

Saturday, March 23, 2013

मनुष्य का मूल स्वभाव -अच्छाई

मनुष्य का मूल स्वभाव -अच्छाई
-------------------------------------

आपसे में सहमत हूँ . लेकिन कुछ प्रकरण में सही प्रेरणा सफल हो सकती है और तब कोई अपनी बुराई अनुभव कर उन्हें दूर कर लेता है . बहुत कुछ ज़माने के ट्रेंड पर भी निर्भर करता है . जब पब या बार में जाना अच्छा नहीं माना जाता था , तब कोई भी हिचक के साथ छुपते वहां जाया करते थे . फिर कुछ के देखादेखी कुछ और जाने लगे तो जाने वालों की संख्या बढ़ने लगी .
वैसे ही बुराई अनुभव होने पर भी बुराई कोई ना छोड़ता दिखे तब दूसरा भी ऐसा ही करता है . लेकिन जब इसे छोड़ने वालों की संख्या बढ़ने लगे तो देखादेखी दूसरे प्रेरित हो ऐसा करने लगेंगे .
मुख्य प्रतिरोध किसी बात को प्रारम्भ कर पाने में होता है . आरम्भ हो चुकी बात जारी रखना उतना मुश्किल या चुनौती पूर्ण नहीं होता है .
पहले बुराई कम थी ,बुराई करते देखे जाने और उसका कोई ख़राब प्रतिफल नहीं मिलता देख यह हमारे समाज में बढ़ रही है .
लेकिन इसकी दिशा बदली जा सकी तो निश्चित ही बुराई छोड़ना आरम्भ और इस प्रकार बुराई कम होना देखा जा सकता है .
जब आदत हो जाती है तो बुराई मनुष्य सरलता से अपनाता है . आदत अभ्यास से बदली जा सकती है .दूसरे प्राणियों को तो मै कम जानता हूँ पर मनुष्य के बारे में जो मेरी समझ है वह यह है कि मनुष्य बुराई पर जाने के विकल्प को आरम्भ में बाध्यता में ही स्वीकार करता है .
अन्यथा मनुष्य को मूल स्वभाव अच्छाई का है जो उसे जन्मजात मिलता है . यह धारणा अपनी भ्रमपूर्ण भी है तो बुरी नहीं है . अन्यथा समस्या (बुराई ) के समक्ष हमारे झुक जाने की आशंका हो जायेगी . ऐसे में बुराई दूर करने के प्रयत्न और कम होते चले जाने की सम्भावना बनेगी जो मानवता और समाज हित की दृष्टि से ठीक संकेत नहीं होगा .


Friday, March 22, 2013

अनुप्रास अलंकार (भलाई)


अनुप्रास अलंकार (भलाई) 
----------------------------

भागम भाग के युग में भैय्या 
भलाई भाषित हो रही बिरली 
भलाई भावना यदि जो भैय्या 
जो भाती ह्रदय को आपके 

तब हम करते भले भजन 
और लिखते भलाई भली-भांति 
इससे होती भलाई जग की पर 
इतनी भलाई है नाकाफी 

भार जब उठाते जग भलाई का 
भले लेख और भले वचनों के साथ 
करें हम भले कर्म और आचरण भी 
भलाई तब बनाये भला समाज 

भला लगेगा तब भारत अपना 
यात्रा होगी भली संपन्न 
बच्चे पढें भली भांति हमारे 
भरपेट भोजन सहज भरणपोषण  

ना भागे भाई कोई भारत छोड़ 
जो भली आजीविका यहीं मिले 
मन भावन भवन सबको और 
भले सब तो भाता साथ यहीं मिले 

भलाई भारत की पहचान रही है 
भलाई इस माटी की गंध रही है 
भला कार्य और भलाई प्रवर्तन 
सब करें यही भली भावना  


Thursday, March 21, 2013

मानवता की समाज में शीर्ष पर पुनर -स्थापना

मानवता की समाज में शीर्ष पर पुनर -स्थापना
-----------------------------------------------------
प्रभात कालीन भ्रमण से लौट रह था वह . रास्ते में भीड़ कम थी .एक बन्दर का छोटा बच्चा सड़क पार करने दौड़ पड़ा .और अचानक आ रही बाइक से टकरा कर बेसुध सड़क पर औंधा पड़ गया . देख उसका ह्रदय करुणा से भर गया . मुहं से चीत्कार का सा स्वर निकला . तुरंत कुछ नहीं समझ सका .तभी सामने ऑफिस में गार्ड नजर आया उससे पानी की गुहार लगाई . गार्ड मटके से एक गिलास जल भर लाया . बन्दर के ऊपर जल के छींटे मारे गए . बन्दर की चेतना लौटी . वह उठा कुछ अजीब तरह से चलता सड़क के किनारे चल पड़ा . उसके चलने के अंदाज से उसके पैरों (और हाथों ) की अंदरूनी चोट का आभास मिल रहा था . उसे राहत अनुभव हुई लगा बन्दर बच जायेगा कदाचित .
बन्दर कष्ट से ही सही सड़क किनारे पहुँचा देख ,उसने कदम आगे बढ़ा लिए .
आगे के भ्रमण में अपने व्यवहार की समीक्षा करने लगा . बन्दर टकरा कर बेसुध से होश में आया . क्या जल के छींटे के प्रभाव से ? या टकराने के बाद बीते 2-3 मिनट के बाद स्वयं सुध वापस आया उसका .
सोचा प्राण बचे उसके . उसमे जल सहायक सिध्द हुआ भी या नहीं ,महत्वहीन है . पर तुरंत बचाव का नेक विचार आना ऐसे क्षण में , सिध्द कर रहा था अन्दर का मनुष्य अभी जीवित है  .
विपरीत वातावरण में भी यदि मानवता शेष है किसी में तो आशा की किरण है, और हम आशावान रह सकते हैं किसी दिन फिर मानवता सभ्य इस मनुष्य समाज में शीर्ष पर स्थापित हो सकेगी .

 

Wednesday, March 20, 2013

सच्चा सम्मान
----------------

सम्मान कहा जाता उसे है , जो होता छोटों का बड़ों के प्रति
स्नेह भी एक सम्मान होता है , जो बड़े करते छोटों से अपने

परिवार और घर से निकलें तो हम करते गुरु का सम्मान
अपरिचित जो मुश्किलों में आते काम देते हम उन्हें सम्मान

मिलता सच्चा स्नेह हमें यदि भले अपरिचित भी कोई तो
बनते वे हमारे आदरणीय वे हम लौटाते हैं उन्हें सम्मान

नारी रखती क्षमता शिशु भार कोख में नौ माह झेलने का
भले ना माँ स्वयं की पर जननी है हम देते उन्हें सम्मान

कितने ही बड़े या उच्च पदस्थ हों ना भूलें करना सम्मान
बड़ा वैमनस्य भी दूर हो जाता है जब देते बैरी को सम्मान

प्रकट में करते पर छोड़ रहे पीठ पीछे हम करना सम्मान
मधुरता निश्चित होती वहां जहाँ रहता है सच्चा सम्मान

प्रतिक्रिया में भी कटुता आवे हम कर रहे थे यदि सम्मान
समझें संस्कार दोष रखें करुणा ,जारी रखें करना सम्मान

 

Sunday, March 17, 2013

मेरा फेसबुक एक वर्ष - एक लेखा जोखा

मेरा फेसबुक एक वर्ष - एक लेखा जोखा 
-----------------------------------------------

20 मार्च 12 वह दिन इसके पहले ना चाहता था , यहाँ आना पर इस दिन आ गया फेसबुक पर कुछ लक्ष्य लेकर .
अब एक वर्ष हो रहे हैं ,आंकलन कर रहा हूँ , उद्देश्य पूर्ती कितनी सफल /असफल रही .
पांच  खण्डों में लेखा जोखा प्रस्तुत है .
1. व्यय . 2. प्राप्त . 3. लाभ .4. हानि . 5.निष्कर्ष 

1. व्यय-  फेसबुक के लिए नेट चार्जेज ....                               9000/
               लगभग 1000 घंटे का समय व्यय (पारिश्रमिक)  150000/    (नौकरी से मुझे 108000 रु मासिक . मिलते हैं अतः 108000/720=150                                                                  ......................................................................................................................................................रु प्रति घंटा मेरा पारिश्रमिक 
               अन्य व्यय (बिजली , लैपटॉप डेस्कटॉप डेप .)         5000 /
इस तरह आर्थिक रूप से लगभग 164000/ रु व्यय माना जा सकता है जो कहा जाए तो थोडा भी होता है और बहुत भी .
2. प्राप्त - लक्ष्य था 50 वर्ष से अधिक का जीवन हुआ था , परिवार ,समाज और देश से प्रमुख रूप से कुछ लेता ही आ रहा था , इनके मेरे पर इन्वेस्टमेंट पर मेरे द्वारा रिटर्न थोडा ही रहा था . ऋण काफी शेष था लौटाना . प्रतिदान के लिए लेखन माध्यम से कुछ लौटाऊं यह तय किया था . लौटा अधिक नहीं सका  क्षेत्र मेरा सीमित रहा जिसमें यह प्रसारित रहा (मेरा लेखन कार्य ) . साथ ही लेखन ओजस्वी नहीं हो सका . प्राप्त में यही कहा जा सकता है .. आरम्भ किया जा सका और निरंतरता रही  यही संतोष प्राप्त हुआ . किसी से बैर नहीं बढाया , मधुरता ही प्रमुख रही यह भी प्राप्त श्रेणी में उल्लेखनीय है .

3. लाभ - अपरिचित फ्रेंड बने जो भारत में मेरे पड़ोस से लेकर विभिन्न शहरों में , तथा देश के बाहर भी रहते हैं . इनसे प्रोत्साहन ,मार्गदर्शन , स्नेह, सम्मान ,प्रेरणा मिलती रही . लेखन में उत्तरोत्तर सुधार  आया . काव्य कुछ इस वर्ष के पहले ना लिख पाया था . कुछ इस विधा में रचनाएँ लिख सका . फेसबुक पर अपनी आई डी के अतिरिक्त अपने समूह और पेज बनाये . ग्रुप तो सफल नहीं रहे पर पेज से आशायें जागी पेज  निम्न हैं ...
अ .- प्रेरणा-मानवता और समाज हित      बी .- नारी चेतना और सम्मान रक्षा 
इसके अतिरिक्त नेट पर ब्लॉग लिखा . A SEED TO PLANT TODAY  ( प्रस्तुति पूरी हिंदी में है ,सिर्फ नाम अंग्रेजी में था . ) जब क्रिएट किया था स्वयं हिंदी में की-इन नहीं करना जानता था . इसी वर्ष यह भी सीखा . लाभ इस तरह उत्साहवर्धक मानता हूँ 

4. हानि - हालांकि किसी की निजता में दखल मंतव्य नहीं था . फेसबुक पर नया था अनुभव नहीं अतः अति-उत्साहित हो शीघ्र दायरा बढ़ा लूं उस नियत से अपरिचितों को फ्रेंड रिक्वेस्ट , सन्देश प्रेषित करता रहा (आरम्भ के महीनों में ) .. किसी में मर्यादा हीन आशय या शब्द नहीं थे . पर कुछ ने(विशेषकर अपरिचित बहनों ने )  इस तरह पसंद नहीं किया ( सन्देश के जबाब में कुछ नहीं भेजा ) और दो तीन ने मुझे ब्लाक भी किया .जब मनन किया तो बहनों ने इस तरह किया तो सहज लगा . क्योंकि (सभी नहीं पर ) हम पुरुषों ने उनकी उदारता को छलने का एक चलन सा जो बना रखा है .अपरिचितों को फ्रेंड रिक्वेस्ट लेकर  एक बार मुझे फेसबुक की ओर से वार्न भी किया गया . इस सब से सीख लेकर मैंने सुधार तो किया पर अब सफाई भी प्रेषित करने से संकोच है . हानि में इसे उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि अनजाने में कुछ साथियों को मानसिक पीड़ा मेरे अनाधिकृत प्रयासों से हुई . और कुछ अपरिचितों की ब्लाक लिस्ट में मै अप्रिय रूप से सम्मिलित हूँ .

5 .निष्कर्ष - मानवता , समाज हित, नारी चेतना और उनका सम्मान मेरा प्रमुख चिंतन विषय है .मेरे पेजों के माध्यम से मुझे सक्रिय बने रहना उचित प्रतीत होता है . अपनी जीवन-संगिनी ,श्रीमती रचना जैन को भी को एडमिन रख मै  अपने मंतव्यों को आगे की दिशा जारी रखूँ स्वयं ऐसा मानता हूँ ... आप आदरणीय /आदरणीया जो पूरा पढने की उदारता मेरे साथ रख रहे हैं . अपनी राय दें .
नोट - मेरे किसी भी पोस्ट में यथा संभव धर्म ,जाति ,राजनीति या व्यक्ति विशेष कभी दुर्भावना से लक्ष्य नहीं बनाया जाए , यह सतर्कता प्रमुख रहती है .


मानवता और समाज हित

मानवता और समाज हित
-------------------------------
प्रदर्शनी में विभिन्न स्टाल लगे होते हैं .दुनिया को एक प्रदर्शनी रूप में देखें . प्रदर्शनी में कुछ स्टाल पर भीड़ आकृष्ट होती है . जबकि कुछ ऐसे होते हैं जहाँ बिरले ही पहुँचते हैं और रूचि लेते हैं .

आज की दुनिया का प्रदर्शनी रूप ये है . स्टाल के नाम निम्न हैं ...

* अनाप -शनाप धन अर्जन अतिशीघ्र
* समाज में उच्च प्रतिष्ठा स्थान अतिशीघ्र
* स्वयं के प्रति अन्यों की अंधश्रध्दा
* हमारा धर्म सर्वश्रेष्ठ "__________" (ऐसे लगभग 20 , रिक्त स्थान पर विभिन्न धर्म के नाम )
* हमारी भाषा सर्वश्रेष्ठ "_____________" (ऐसे लगभग 200 , रिक्त स्थान पर विभिन्न भाषा के नाम )
* हमारी मनुष्य नस्ल श्रेष्ठ "_____________" (ऐसे 2 , रिक्त स्थान पर विभिन्न शब्द )
* विपरीत लिंग प्रति आकर्षण बढ़ाना

और भी ऐसे कुछ हैं

इन सारों पर भीड़ भरपूर है .

कुछ स्टाल जहाँ स्थान तो बहुत है . पर इक्के दुक्के ही कभी दृष्टव्य होते हैं ... उन स्टाल पर से साइन बोर्ड तक अब नहीं बचे हैं .

मैंने आज उस प्रदर्शनी में प्रवेश किया ... निर्जन से पड़े स्टाल की और कदम उठे .. वहां से खड़े हो जब भीड़ वाले स्टालों की ओर निहारा ... आपाधापी के दृश्य (और संघर्ष ) देख पीड़ा हुई ह्रदय रोता सा लगा .

कहीं आपाधापी के बीच हास्य के दृश्य भी पैदा हो रहे थे .. देख हँसी सी आ रही थी उनकी व्यग्रता उस वस्तु पर देख जिनसे उन्हें बहुत हासिल होने का भ्रम होने वाला था . जबकि वहां हासिल नहीं कुछ गवां देना "कटु सत्य" है .
मुझे ना रोना पसंद है और ना ही दूसरों की दुर्दशा पर हँसना ही पसंद है .
उपरोक्त "दुनिया प्रदर्शनी" पर एक ही विचार ह्रदय में कौंधता है .
"हम देखादेखी किसी भीड़ का हिस्सा ना बनें . भीड़ में स्वयं सोच-विचार की शक्ति कुंठित हो जाती है . हम भीड़ से अलग खड़े होने का आत्मविश्वास स्वयं में पुष्ट करें . जब हम भीड़ से अलग खड़े हो सोचते और देखते हैं तो हमें भीड़ क्या खराबी कर रही है दृष्टिगोचर हो सकता है . फिर हम भीड़ को चाहें तो वह रास्ता बताने की हिम्मत कर सकते हैं कि क्या देश,समाज और मानव उन्नति और कल्याण के लिए उचित है . हालांकि भीड़ की सोच से अलग विचार रखने में एक खतरा अवश्य हो सकता है .भीड़ को विपरीत विचार या बात रुचिकर नहीं लगने पर हमारे पर पथराव हो सकता है हमारे कपडे फाड़े जा सकते हैं . हमारे प्राण तक लिए जा सकते हैं . लेकिन मानवता की रक्षा समाज के हित के लिए किसी भी इस तरह की आशंका और खतरों से निराश और हतोत्साहित हमें नहीं होना चाहिए "
हम किसी का विरोध नहीं करते . हमारा एकमात्र विरोध बुराई से है .....
--राजेश जैन
17-03-2013

Saturday, March 16, 2013

कालजयी रचना

कालजयी रचना
----------------
सूरज तुम उदित हो रहे प्रतिदिन
तुम से ग्रहण कर सकूं आलोक इतना 
कर सकूं आलोकित उनकी दुनिया 
जो होते हुए सूरज तुम्हारे भी 
विडम्बना भोगते जीवन अँधियारा 

गर मै ऐसा ना कर सकूं तो 
मुझे शिकायत होगी स्व-प्रतिभा से 
अगर तुम नहीं बना सकती मुझे सामर्थ्यवान तो 
क्यों मिला मुझे अधूरा  सा मनुष्य रूप यह 

सहायता करो हे सूरज और प्रतिभा मेरी 
मै उठा रहा लेखनी प्रतिदिन 
सामर्थ्य दो इस लेखनी में मेरी 
कर सकूं रचित रचना ऐसी 
कालजयी रचना  निमित्त बने जो  
 
जिससे ज्ञान चक्षु बनें योग्य इतने  सबके 
देख सकें जो पर वेदनाओं को भी 
जो दिखने लगे करुण दृश्य यह आज का 
तब ही तो होगें सही उपाय, व्यवस्था 
मुझे विश्वास यह मनुष्य प्रतिभा पर ...


Friday, March 15, 2013

जीवन की नश्वरता

(हमारी एक भारतीय बहन दुर्घटना में चली गई, यह दुर्घटना थी
पर रोज अकाल मौतों के प्रत्यक्ष /परोक्ष कारण स्वयं मनुष्य क्यों बनता है ? )

जीवन की नश्वरता
----------------------
प्राणी मात्र के जीवन की नश्वरता
क्षणभंगुर जीवन सत्य विडम्बना
दुखद समाप्त जीवन सम्भावना
होती पूरी गर मिलता पूरा जीना

एक पल पहले था जो जीव शरीर में
हाय दुर्घटना ना शेष अब शरीर में
हे मानव ऐसा सुन्दर विश्व बनाओ
ना हो शिकार कोई असमय मौत का

मातम ना देखें हम युवा अवसान का
हाय अनहोनी पितृ मातम में आती
प्रिय बेटी कोई इस तरह चली जाती
ह्रदय फटता कैसे सहें विछोह परिजन

हम समझते स्वयं को बड़ा बुध्दिमान
हांके ढींग बहादुरी की अपनी बहुत
बनायें ना फिर, दुनिया इतनी प्यारी
ना जा सके मनुष्य असमय ऐसे कोई
--राजेश जैन
15-03-2013

Thursday, March 14, 2013

नारी तुम पड़ सकती हो सब पर भारी

नारी तुम पड़ सकती हो सब पर भारी
-----------------------------------------
नारी अगर तुम ना आओ प्रलोभनों में
अगर ना बनो किसी चरित्रहीन प्रशंसक
पढो अगर भव्य नारी रूप इतिहास से
नारी तुम पड़ सकती हो सब पर भारी

घर से निकलो शालीन और मर्यादा में
अवयस्क गर मानो माँ-बापू निर्देशों को
पढने व कार्यों में अपने ध्यान लगाओ
नारी तुम पड़ सकती हो सब पर भारी

नहीं कहता तुम ना बनो आधुनिका
उन्नति तुम्हारी बनने आधुनिका में
पर संस्कृति संतुलित आचरण करके
नारी तुम पड़ सकती हो सब पर भारी

नहीं हीन भारत में तुम जन्मी इसलिए
दृढ़ आत्मविश्वास यह मन में लाओ
आदर बड़ों का स्नेह छोटों को देकर
नारी तुम पड़ सकती हो सब पर भारी

नेतृत्व तुम करो पिछड़ी नारियों का
अंधविश्वास ,अंधश्रध्दा नारी मन से
निरर्थक मान्यता समाज से दूर हटाकर
नारी तुम पड़ सकती हो सब पर भारी

 

Tuesday, March 12, 2013

परिवार संस्कृति

परिवार संस्कृति
--------------------
मनुष्य का परिवार में रहना , और परिवार को खुशहाल रखना मानवता है .
विवाह के पूर्व पुरुष या नारी अपने जीवन साथी में जिन गुणों की खोज और अपेक्षा करता है . विवाह उपरान्त कुछ वर्षों में हममें से कई युगल उन गुणों के प्रति परस्पर बेहद उदासीन हो जाते हैं . जबकि एक दूसरे के इन गुणों को परस्पर निखारने उन्हें अपने जीवनसाथी में प्रोन्नत करने में सहायता करना ,ना केवल जीवन-...साथी के लिए अच्छा है अपितु वह परिवार और स्वस्थ्य समाज के लिए भलाई का कारण होता है .
आज अपनी प्रवृत्ति बाह्य संस्कृति के प्रभाव में हम बेहद चंचल बना ले रहे हैं . और वैवाहिक सबंध को अपने मनमुटाव के बीच नीरस बनाते हैं . यह बहाना ले फिर उन गुणों की खोज और अपेक्षा दूसरों में करते हुए . अपने परिवार हितों को खतरे में डालते हुए समाज में बुराई बढ़ाते हैं . अनचाहे परिवार बिखरने के कारण जुट जाते हैं .
मृग-तृष्णा भांति भटकने लगते हैं .फुसला कर या जोर जबरदस्ती से अन्य से सम्बन्ध के यत्न किये जाते हैं . ऐसे विवाहोत्तर सम्बन्ध की कटु सच्चाई यह होती है . चंचल प्रवृत्ति का व्यक्ति जो अपने विवाहित साथी के प्रति ऑनेस्ट नहीं हुआ ,वह मनबहलाव के लिए उपयोग किये जा रहे किसी अन्य परिचित या व्यक्ति का कभी सगा नहीं हो सकता .

अति चंचल प्रवृत्ति समाज में कई बुराई और समस्या का कारण बन उभर रही है . हम अपनी इस कमजोरी पर नियंत्रण करें और मानवता को पुष्ट करें .

सिर्फ मनुष्य ही वह प्राणी है जो परिवार बना जीवन यापन करता है . परिवार संस्कृति बनाये रखना इसलिए मानवता को पुष्ट करने के लिए सर्वथा आवश्यक है ...

मेरी रचना

मेरी रचना
------------

 आभार माँ-पिता , निमित्त जो जन्म के तुम्हारे
संस्कार ,लाड़ और नाम जो दिया तुम्हारा रचना

देखा नहीं तुम्हें मैंने किन्तु नाम जब सुना रचना
... प्रभावित इससे हुआ मैं रूप देखने से पहले रचना

मेरे माँ -पिता की तुम बनी प्राण प्रिय बहु रचना
सद्बुध्दि ,भाग्य मेरा मै तुम्हे ब्याह लाया रचना

तुमने संवारा लाड़ ,संस्कार से बेटियों को रचना
जब मेरा ध्यान,समय रहा विभाग कार्यों में रचना

प्रेम ,सहयोग ,त्याग व समर्पण से तुम्हारे रचना
परिवार नैय्या चल रही कुशलता से अपनी रचना

हमें ना पता तुमसे अच्छी बहु ,पत्नी तुमसे रचना
मिलीं ,ना मिली किसी और भाग्यवान को रचना

कामना सब पायें बेहतर या तुमसी पत्नी रचना
जिससे बने खुशहाल परिवार और संस्कारी बच्चे

अनूकुलतायें और सहयोग से तुम्हारे प्रिय रचना
मै पा रहा प्रेरणा रचने कथा, लेख ,कविता रचना

आजीवन रहे आभार ह्रदय में मेरे,बच्चों के रचना
शुभकामनाएं हार्दिक तुम्हारे जन्मदिन पर रचना

Monday, March 11, 2013

जीवन बुनियाद

जीवन बुनियाद
-----------------
कोई भी विशाल निर्माण (भवन , ब्रिज इत्यादि ) की मजबूती में सर्वप्रथम जो बात महत्वपूर्ण होती है .वह उसकी  बुनियाद पर निर्भरता है . अर्थात भूमि के ऊपर का दर्शित प्रत्यक्ष महल की आयु , वह भूमि के अन्दर जिस बुनियाद पर निर्मित है की गहराई तथा मजबूती पर निर्भर करता है .

यही बात वृक्ष में भी देखी जा सकती है . भूमि के ऊपर दिखने वाले कई प्रजाति के वृक्ष विशाल आकार के दिखते हैं . लेकिन हजारों वर्ष की आयु उन वृक्षों को मिलती है जिनकी जड़ भूमि के भीतर विशाल आकार और गहराई तक फैलती है . 

उपरोक्त उल्लेख को पढ़ सभी को यह प्रश्न उठेगा कि सर्वज्ञात इस लौकिक सत्य के माध्यम से कहा क्या जाने वाला है ? लेखक को ज्ञात है आज सभी का समय बहुत कीमती है , जिसे व्यर्थ व्यय करना सभी को बेहद अखरता है . अतः संक्षिप्त में वह बात रख रहा हूँ .

जीवन शैली में आई व्यस्तता के कारण हम किसी बात को गंभीरता से सोच नहीं पा रहे हैं . हम सभी उतावलेपन का शिकार होते चले जा रहे हैं . हम सभी को व्यग्रता शीघ्र धन उपार्जन की है . शीघ्र मान प्रतिष्ठा की है . शीघ्र अपनी विशाल कोठी और आरामदेह वाहन की है . शीघ्र ही विभिन्न लौकिक सफलताओं की हैं . हम किसी से कम बनने या रहना नहीं चाहते हैं .

इस उतावलेपन के कारण आसपास अन्य  सभी जो  करते हैं हम उस पर अंधाधुंध अनुकरण करने का प्रयत्न करने लगते हैं . इस कमजोरी या उतावली में हम बहुत सी बातों को महत्त्व नहीं देते .

हमारी योग्यता क्या है , हमारा परिवेश क्या है ,हमारे संस्कार क्या हैं , हमारे पारिवारिक ,सामाजिक ,राष्ट्रीय और मानवीय दायित्व क्या हैं . और हमारी व्यक्तिगत रूचि के विषय क्या हैं . ये सारे प्रश्न के सही उत्तर पाए बिना . हम  अंधाधुंध अनुकरण के साथ बिना ठीक जीवन बुनियाद के अपने जीवन को जीना चाहते हैं . फिर    जीवन में अवसाद झेलते हैं और सच अनुभव जब होता है तो विभिन्न अपराध बोधों में घिरे होते हैं . एक तरह की बेध्यानि में जीते 70-80 वर्ष के होते हैं , तो विभिन्न अपेक्षाओं की पूर्ति होते ना देख जीवन संध्या में निराश और पछतावे में होते हैं .

स्वतंत्रता को 65 वर्ष हो गए . स्वतन्त्र होने के पूर्व परतंत्रता ही प्रमुख समस्या लगती थी . उपरोक्त अनियोजित जीवन बुनियाद  और भ्रामक और छद्मता के अनुगामी हो आज जिस मंजिल पर देश और समाज आ पहुंचा है . कतई स्वस्थ नहीं है .

हम सतर्क हों . बुनियादी सुधार अभी संभव हैं . उसके लिए हममें से प्रत्येक को स्वयं की जीवन बुनियाद सुधार लेनी चाहिए . अन्यथा हम धराशाही हो सकते हैं . हमारा देश और समाज दूसरी अप-संस्कृति के हाथों पुनः परतंत्र हो सकता है .

हममें से प्रत्येक विभिन्न प्रतिभाओं के साथ जन्मा है . अपनी प्रतिभा को पहचाने . अपने कर्तव्यों को पहचाने . अपने आचरण और कर्मों में धीरे-धीरे सुधार लायें .
और याचक के रूप में शेष विश्व के समक्ष ना जाते हुए ,दूसरों को अपने उपहास का अवसर ना दें . लेखक ज्यादा कुछ सलाह नहीं दे सकता आप अपने विवेक और न्याय से ही सलाह करें ....


Saturday, March 9, 2013

प्रेरणा -मानवता और समाज हित


प्रेरणा -मानवता और समाज हित 
----------------------------------------
जीवन एकरसता बदल जाए 
ये सोच साथ फेसबुक पर आए   
हम छाया चित्र प्रदर्शन को लाये 
सब अपनी रचना साथ यहाँ छाये  

हम निकालें समाज हित यहाँ से 
हम बड़ा सकें मानवता इस सहारे 
मनोरंजन और विचार विमर्श से 
कर सकें बुराई नियंत्रण साथ  में 


गड़ाते नेत्र मॉनिटर पर 
करते नेत्र ज्योति कम 
समय बहुमूल्य व्यय करते 
ब्राड बेन्ड पर करके व्यय 

यद्यपि नहीं यह व्यापार 
किन्तु इतना निवेश हमारा 
कुछ हासिल हो बदले में इसलिए 
प्रेरणा -मानवता और समाज हित 

के माध्यम उपस्थित होता नित मै  
त्रुटी युक्त अनुमोदन होता बुरा 
अनुमोदन तब ही आप आप करें 
अगर उद्देश्य उल्लेखित होता पुष्ट 

राजेश जैन 
09-03-2013

https://www.facebook.com/PreranaManavataHit

कृष्णा

कृष्णा

 4 जून 1978 - ज्ञानचंद आज दुखी, किस्मत को कोस रहे हैं। 3 पुत्रियों के कल तक पिता थे। आज पत्नी को प्रसव वेदना हुई, अस्पताल ले जाते वक़्त वे पुनः पुत्री जन्म से आशंकित थे। ऑपरेशन कक्ष से दरवाजा खुलने पर नर्स को निकलते देख ज्ञानचंद की चिंता चरम पर पहुंची। किसी तरह कंठ से बोल निकले पूछा। डिलेवरी नार्मल हुई ना? बेरुखी से नर्स ने कहा, हां, आप के बेटी जन्मी है। लगा कानों में किसी ने गरम शीशा उड़ेला हो। ज्ञानचंद, लोक लाज वश भी भाव-भंगिमा में प्रसन्नता नहीं दर्शा सके, उन्हें सदमे से उबरने में 10-15 मिनट लगे। तीन दिन बाद अस्पताल से पत्नी और नवजात बेटी को घर लाते समय तक वह साधारण आर्थिक परिस्थिति के गृहस्थ काफी हद तक सामान्य हो चुके थे। परिवार में ज़िन्दगी सामान्य ढर्रे पर चलना आरम्भ हो चुकी थी। रीति से पुत्री का नामकरण करते हुए नाम रखा गया "कृष्णा"। कृष्णा, अपनी बड़ी तीन बहनों (एक पाँच, दूसरी तीन और तीसरी दो वर्षीया ) के कौतुक का विषय हो गई। तीनों उसे गोद में लेने, हंसाने और खिलाने की कोशिश करतीं। माँ का ध्यान अपनी अपेक्षा कृष्णा पर ज्यादा देख अपनी उपेक्षा से रूठती भी थीं। 

समय धीमे धीमे बीत रहा था दो-ढाई वर्ष की वय में ही कृष्णा दूसरे बच्चों से ज्यादा समझदार प्रतीत होने लगी। बाल सुलभ उसकी हरकतें, सामान्य माँ-पिता को अत्यंत प्रिय लग सकती थी किन्तु ज्ञानचंद और उसकी पत्नी, पुत्र ना होने तिस पर चार पुत्रियों के होने से दुखी रहते, उन्हें यह देख भी प्रसन्नता ना होती। 

अभाव ग्रस्त भारतीय परिवार में जिस तरह बच्चे पलते हैं, वैसा लालन-पालन कृष्णा और उसकी बहनों का होता रहा। यद्यपि स्कूल में कुशाग्रता के कारण कृष्णा अपनी शिक्षिकाओं और सखियों में शीघ्र चहेती हो गई। घर में अपनी ओर माँ-पिता की बेध्यानी और अभाव के बाद भी शिक्षिकाओं और सखियों के स्नेह में बिना विशेष पीड़ा के कृष्णा कक्षा और उम्र में बढ़ने लगी। 16-मई 96 को कृष्णा के बारहवीं के परिणाम की पूर्व संध्या पर भोपाल से फोटोग्राफर और अखबार टीम कृष्णा का इंटरव्यू लेने आई। किसी को इसका कारण कुछ समझ नहीं आया था। दूसरे दिन समाचार पत्र में इंटरव्यू के साथ कृष्णा के मेरिट में प्रदेश में द्वितीय स्थान के प्रकाशित समाचार से, पहली बार कृष्णा को लेकर घर में प्रसन्नता देखने मिली थी। ये प्रसन्नता कृष्णा के लिए ज्यादा दिन नहीं रही। उसकी चिकित्सा विज्ञान में रुचि को अनदेखा कर माँ-पिता ने दकियानूसी सोच रख, उसे बाहर भेज कर शिक्षा दिलाने की मनाही कर दी। कृष्णा में जागृत हुई अनायास महत्वाकांक्षा, वहीं दमित हो गई। अभाव में प्रसन्नता से समझौते की अभ्यस्त किशोरी छिन्दवाड़ा में ही, कला संकाय में पढ़ते हुए अच्छे अंकों से स्नातक परीक्षा पास करने में सफल हुई। और पोस्ट ग्रेजुएट के लिए प्रवेश लिया। 

उधर नागपुर में हेमंत जिसके पिता, राजनीतिक दबदबा रखते थे ने 3 वर्ष पूर्व समाचार पत्र में छपे इंटरव्यू तथा कृष्णा के फोटो से प्रभावित हो, कृष्णा को अपने सपनों में बसा लिया था। इस वर्ष जब हेमंत के पिता दिवाली बाद, उसका विवाह करने के लिए गंभीर दिखे तो हेमंत ने कृष्णा से, अपने विवाह की इच्छा प्रकट कर दी। 

31 जुलाई 99 को लड़के वालों और वह भी राजनीतिक दबदबे वाले प्रतिष्ठित घराने से, स्वयं विवाह का प्रस्ताव, कृष्णा के पिता को दूरभाष पर मिला तो खुशियों का स्तर कृष्णा के मेरिट में आने वाले दिन से भी ऊँचा जा पहुंचा था। 

आमंत्रण अनुसार, आज 9 अगस्त को कृष्णा और पिता, हेमंत के परिवार और निकट सम्बन्धियों से मिलने जा रहे हैं। जिससे दिवाली बाद विवाह तय करने को दिशा मिल सके। सुबह घर से रवाना होते समय बरसात और मौसम के रुख से पिता चिंतित थे। बस जो उन्हें मिली वह भी बहुत ठीक नहीं थी। अन्य यात्री भी असुविधा अनुभव कर रहे थे। बरसते पानी में धीमे गति से बस सौंसर पहुंची थी। बस यात्रियों की असुविधा और बढ़ गई जब पता चला कि आगे नदी में बाढ़ से नागपुर रोड अभी बंद है। 

आधे घंटे खड़े रहने के बाद जब बारिश कुछ थमी तो ड्राईवर ने इस आशा से की अब बाढ़ उतरने के आसार हो रहे हैं, बस आगे बढ़ाई थी। बस जब जाम नदी पर पहुंची तो पानी का स्तर उतरता दिख रहा था। कुछ देर खड़े रहने पर जब पानी रोड पर लगभग दो फुट ही रहा तो आगे के कुछ वाहनों ने पुल पार करना आरम्भ कर दिया। कुछ को पार कर लेने के बाद, इस बस के ड्राईवर ने भी यात्रियों के भयभीत होने पर भी बस पुल पर उतार दी थी। कृष्णा आगे जीवन की कल्पनाओं में खोई कुछ जागी कुछ सोई थी। ड्राइवर की जल्दबाजी से असहमत थी। पर कुछ ना कर सकी। 

"बस के पानी में उतरते ही हिचकोले अनुभव कर उसका कलेजा मुँह को आता है। आधे पुल पर पहुँचने पर एक धड़ की आवाज के साथ बस पानी तरफ झुकती है। चीख पुकार मचती है। कृष्णा को चारों तरफ पानी का अहसास होता है। आँख बंद हो जाती है सांस लेने में कठिनाई होती है। जागी आँखों में चल रहे सपने गुम हो जाते हैं। छटपटाहट कुछ देर रहती है फिर कृष्णा की चेतना लुप्त हो जाती है। "

खोजियों और गोताखोरों को अगले दिन अन्य यात्रियों के साथ कृष्णा का शव (पानी में फूला हुआ ) मिलता है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के हृदय में उमंग, भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और जीवन सपनों की सुखद कल्पना होती है। जिसे तमाशबीन कृष्णा के शव को देखते हुए समझ नहीं सके थे कि किन अपूर्ण कामनाओं को अपने सीने में लिए, मासूम यह युवती अचानक दुनिया से चली गई थी। 


(नोट -  9 अगस्त 1999 को हुई छिन्दवाड़ा म प्र जिले की ह्रदय विदारक बस दुर्घटना में एक भी यात्री जीवित ना बच सका था। 14 वर्ष पूर्व अपने तब की जीवन दृष्टि और कल्पना से बस में मारे गए यात्रियों के अकाल गमन से अधूरे उनके जीवन स्वप्न को, कृष्णा के काल्पनिक पात्र को माध्यम से चित्रित करने का मैंने प्रयास किया था। कृष्णा, अगर ऐसी अकाल मौत का शिकार ना होती तो कृष्णा का आगामी जीवन क्या हो सकता था, यह कल्पना भी मेरी डायरी में लिपिबद्ध है। आज जब में इसे, की-इन कर रहा हूँ तो उसमें अपने 14 वर्ष के और जीवन अनुभव से कुछ संशोधन कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। यथार्थ को पलटते हुए कृष्णा की बस दुर्घटनाग्रस्त नहीं होती है।) आगे - 


कृष्णा आगामी जीवन की कल्पनाओं में खोई कुछ जागी कुछ सोई थी। वह, ड्राइवर की जल्दबाजी से असहमत थी। पर कुछ ना कर सकी। (ऊपर वर्णित कहानी के अंतिम से पहले, पैराग्राफ के इस वाक्य को निम्न तरह संशोधन के साथ कहानी का यह भाग आगे यूँ बढ़ता है )


कृष्णा आगे जीवन की कल्पनाओं में खोई कुछ जागी कुछ सोई थी। ड्राइवर की जल्दबाजी से असहमत थी। उसने ड्राइवर से बस रोकने कहा। प्रत्युत्तर में

ड्राइवर -- सब तो निकाल रहे हैं, हम भी निकल लेंगे। 

कृष्णा -- अगर आप जाना चाहते हो तो हम सब को उतार दो। 

ड्राइवर बस किनारे कर रोक कर यात्रियों के तरफ प्रश्नात्मक दृष्टि से निहारता है। 

ज्ञानचंद ने कृष्णा को इस दृढ़ रूप में पहले नहीं देखा था। वे अचंभित होते हैं। कुछ और यात्री भी कृष्णा से सहमति जताते हैं। ड्राइवर इस विरोध के कारण खिसियाया सा है। तब पीछे एक बस का हॉर्न सुनता है। उसका ड्राइवर अपनी बस आगे बढ़ाता हुआ इस बस ड्राइवर की तरफ कटाक्ष दृष्टि से देखता है। कृष्णा बस से उतर कर उस बस के सामने खड़ी हो, उसे भी नदी के पानी को पुल से नीचे के स्तर पर आ जाने की प्रतीक्षा करने कहती है। वह ड्राइवर नहीं मानता है। कृष्णा को सामने से हटने कहता है। ज्ञानचंद, कृष्णा का हाथ पकड़ सड़क से किनारे की ओर हटाते हैं। 

उस बस का ड्राइवर और कुछ यात्री, कृष्णा पर हँसते हुए, उन्हें पीछे छोड़ते हैं। वह बस आधे पुल पर जा कर डगमगाती है। फिर दुर्भाग्यपूर्ण तरिके से पलट कर नदी की तीव्र धार में क्रमश डूबते जाती है। पुल के दोनों ओर के यातायात रत लोगों को यह डरावना दृश्य दिखता है। वहां हाहाकार मचता है। कोई कुछ कर सकने में असमर्थ है। उपस्थित तैराक भी पानी के तीव्र वेग से भय खाते हैं। नदी में उतरने तैयार नहीं होते। 

देखते देखते बस में उपलब्ध 50-55 लोग, असमय काल का ग्रास बन जाते हैं। कृष्णा कुछ ही पल पहले उनके हँसते मुख और अभी के डरावने दृश्य के तुलना से सदमे में पड़ बिलख कर रो पड़ती है। क्यों ना हो युवतियां स्वभावतः भावुक होती हैं। उधर इस बस के यात्री भयग्रस्त तो हैं पर चर्चा कर रहे हैं। कृष्णा ने पुल पर दुर्घटना का पूर्व आभास कर लिया था। उन्हें लग रहा है, इस मासूम सी लड़की ने आज, उनके प्राणों की रक्षा की है। इस बीच प्रशासनिक अमला आकर पुल पर यातायात रोकने का आदेश जारी कर राहत कार्य में व्यस्त हो जाता है। 

घर, वापिस आकर ज्ञानचंद, हेमंत के पिता को दूरभाष पर वृतांत सुनाते हैं। हेमंत का परिवार इसे सुन कृष्णा में, दैवीय शक्ति होना मानता है। मिलने का कार्यक्रम स्थगित किया जाता है। फिर दशहरे बाद एक दिन छिन्दवाड़ा पहुंच कर, हेमंत के परिवार वाले कृष्णा से, हेमंत के रिश्ते की स्वीकृति चाहते हैं। कृष्णा भी उन सब से प्रभावित होती है। 

3 - दिसंबर को विवाह दिन तय होता है। विवाह हो जाता है। कृष्णा को मायके से अलग, ससुराल में पारिवारिक और आर्थिक पृष्ठभूमि सुदृढ़ मिलती है। कृष्णा, पढ़ाई आगे जारी रखती है। हिंदी साहित्य में शोध कर डॉक्टरेट करती है। उसके श्वसुर विधायक निर्वाचित होते हैं। कुछ वर्षों में मंत्री भी बनाए जाते हैं। कृष्णा को इस बीच एक पुत्र की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है। 

हेमंत के सहयोग से प्रतिभावान कृष्णा को, स्व-व्यक्तित्व निर्माण का अवसर मिलने लगता है। समाज में नारी दशा पर स्वयं का अनुभव और आसपास नारियों की असमर्थता पर वह अत्यंत संवेदनशील होती है। 2007 में फेसबुक पर आकर, नारी में प्रेरणा और संबल बढ़ाने की दिशा में सक्रिय होती है। अपना समर्थन जुटता देख कृष्णा का उत्साहवर्धन होता है। वह फेसबुक पर 2013 में, एक पृष्ठ "नारी चेतना और सम्मान रक्षा " निर्मित करती है। 

हेमंत के सहयोग से कृष्णा, एक मासिक हिंदी पत्रिका भी इसी नाम से प्रारम्भ करती है। प्रबुध्द पुरुष और जागरूक नारी का ओजस्वी लेखन "नारी चेतना और सम्मान रक्षा " फेसबुक पृष्ठ और पत्रिका को लोकप्रिय बनाता है। इससे धीरे धीरे इस देश की और समाज की नारी का आत्म-विश्वास बढ़ता है। नारी की दशा धीरे-धीरे सुधरने लगती है। 

2023 आते आते देश की नारी में भारी बदलाव दृष्टिगोचर होने लगता है। कुछ दशक पूर्व की नारियों की प्रवृत्ति जिसके वशीभूत वह पाश्चात्य संस्कृति को आधुनिक और अनुकरणीय मान पाश्चात्य नारी बनने की दिशा में बढ़ती थी, बिलकुल बदल जाती है। देश और समाज को एक सशक्त नेतृत्व, कृष्णा के रूप में मिलता है। 

भारतीय गरिमा से पूर्ण नारी रूप आधुनिकता का प्रतीक बन जाता है। 2030 आते आते अकेले भारतीय ही नहीं शेष विश्व की नारी भी, इस आधुनिकता के पथ पर चलने लगती है। नारी अब भोग की वस्तु जैसी प्रयुक्त नहीं हो रही है। ना ही पुरुष इसे, इस हलके रूप में देखने की धृष्टता कर रहा है ना ही नारी अपने इस तरह के उपयोग (शोषण ) को अब तैयार है। 

कृष्णा 2032 तक विश्व की सबसे चर्चित महिला हो जाती है। विश्व चैनल पर दिए अपने इंटरव्यू में वह राज की बात बताती है। 

9 अगस्त 99 को बस दुर्घटना में वह स्वयं मर गई है, यह मानती हुई कृष्णा, अपने शेष जीवन को समाज की धरोहर मानने लगी थी। उसके बाद से उसे अपने स्वहित के लिए जीने की कोई इच्छा नहीं रह गई थी। कृष्णा अपने इष्ट ईश्वर, द्वारा इस अवसर को एक पुनर्जन्म लिया मानती है। ईश्वर का संकेत समझकर, अपने जीवन को, मानवता और समाज हित में प्रेरणा देने को समर्पित करने का संकल्प लेती है।  कृष्णा अपना जीवन इसी ध्येय में लगाये हुए है। आज की नारी की स्थिति को इस रूप में ले आ सकने का मूल कारण कृष्णा, यही बताती है। 

इसी तरह और 20 वर्ष सक्रिय रहते हुए, सन 2052 में साधारण परिवार में जन्मी, और 74 वर्ष के जीवन में असाधारण व्यक्तित्व में परिवर्तित कृष्णा की, जब मृत्यु  होती है, तो पूर्ण विश्व इसे अपनी व्यक्तिगत क्षति मान कर बिलखता है। । 

इस कृष्णा के काल्पनिक पात्र प्रेरणा से निर्मित "नारी चेतना और सम्मान रक्षा " फेसबुक पेज का यूआरएल निम्न है। । 

https://www। facebook। com/narichetnasamman/

----राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

10-03-2013



Friday, March 8, 2013

कष्टमय जीवन को आमंत्रण


कष्टमय जीवन  को आमंत्रण
--------------------------------
तहसील मुख्यालय के छोटे नगर (वारासिवनी म .प्र  .) की आज से 30-35 वर्ष की सच्ची घटना है . एक बाबा एक दिन वहां पहुंचे . थोड़े अभावों और  कम पढ़े लिखे मौहल्ले में अपना ढेरा  जमाया . अंधविश्वासों के कारण कुछ लोग बाबा के पास जुटने लगे . उन्हें भोजन और मान मिलने लगा .वे चमत्कारों की बातें करते . लोगों का कौतुहल जागा .बाबा ने एक रात बताया वे सुबह चारपाई उड़ा कर दिखायेंगे . दूसरे दिन सुबह सड़क पर एक खटिया सहित 10-15 लोग बाबा के साथ इकठ्ठे हुए . बाबा ने खाट के चारों पाँव को चार भिन्न व्यक्तियों  के कंधे के ऊपर हथेली पर रखवाया . कुछ मन्त्र उच्चारित किये . फिर कहा देखो खटिया उड़ रही है . खाट हथेली पर रखे लोगों ने कहना आरम्भ किया हां उड़ रही है और एक दिशा में वे और खाट लिए  बाबा के पीछे  दौड़ने लगे . बाबा ने दौड़ते अन्य लोगों को भी बारी बारी खटिया हथेली पर रख खटिया के उड़ने को अनुभव करने कहा . सभी ऐसा करते ,पुष्टि करने लगे . खटिया उड़ रही है . उन्हें आगे दिशा में चला रही है . उस दिन 200-250 मीटर दूर तक अन्य लोगों ने दृश्य अपने घर-दूकान से देखा . कुछ चमत्कार से सहमत और कुछ कोरी अंध-श्रध्दा  कहे सुनते देखे गए .
इस तरह दूसरे दिन भी बाबा ने यह चमत्कार दिखाया उस दिन भीड़ में 80-90 लोग शामिल थे . तीसरे दिन चर्चा ज्यादा बड़ी सुन हरिशंकर जी भी भीड़ में पहुंचे , उन्हें देख कुछ और पढ़े लिखे लोग भी आ जुटे . बाबा को ससम्मान अभिवादन करने से हरिशंकर जी से बाबा प्रसन्न हुए . उन्होंने खटिया का एक पैर हथेली पर रखने हरिशंकर जी को दिया . और तीन अन्य साथियों के साथ हरिशंकर जी ने भी अनुभव किया . खटिया के साथ वे भी खटिया उड़ रही है कहते दौड़ने लगे . बाकि तीन पावों  से तो लोग बारी-बारी बदल खटिया का उड़ना परिक्षण करते रहे पर हरिशंकर जी का उत्साह बना हुआ था . वे सामने वाले खटिया के पाँव के नीचे बने हुए थे .

आज दूरी भी ज्यादा हो गई और खटिया का उड़ना जारी था . देखने वाले आश्चर्य कर रहे थे , हरिशंकर जी जैसे समझदार को क्या हुआ है . व्यर्थ बातों में आ गए हैं . खैर खटिया उड़ते हुए 1 किलोमीटर से ज्यादा दूरी तय करते बाबा के साथ पुलिस थाने के द्वार से अन्दर पहुँच थम गई थी . हरिशंकर जी ने रिपोर्ट दर्ज करा ढोंगी बाबा को पुलिस के हवाले किया . और अंध-श्रध्दा के बाबा के खेल को विराम लगा .

यह घटना स्मरण करने की वजह है वह है ...

देश में व्यभिचार ,सिध्दांत -नैतिकता विहीन धन अर्जन , स्वार्थ-परस्ती और छल-कपट की खाट के नीचे बहुसंख्यक इकठ्ठे हो रहे हैं . कहते जा रहे हैं हम उन्नति कर रहे हैं , आधुनिक हो रहे हैं . हम उन्नति कर रहे हैं , आधुनिक हो रहे हैं  के नाम पर प्रचलित मर्यादाओं ,परिवार संस्कृति और परहित भाव को ताक पर रख दिया है . इस छद्म आधुनिकता की दिशा में देश बढते हुए कहाँ तक अनैतिक हो जाएगा इससे  वैयक्तिक लालसाओं और सुविधा सम्मोहन और व्यस्त जीवन शैली में हम में अधिकांश बेपरवाह होकर अपने मनुष्य जीवन को बेमोल गवां रहे हैं . इतना होता तो चिंता नहीं थी पर हम अनायास अपने आगामी सन्तति के  आज से अधिक कष्टमय जीवन  को आमंत्रण दे रहे हैं ...

अपनी संतानों के अपराधी


अपनी संतानों के अपराधी
-------------------------------
देश में लड़कियों ,युवतियों और महिलाओं पर कई किस्म के शोषण नित प्रतिदिन होते देखे सुने जाते हैं . पढने जाने वाली बेटियां घर से स्कूल और कॉलेज तक इन चर्चाओं में पढ़ती हैं . उन्हें हर समय अपने ऊपर जोर जबरदस्ती न हो भय रहता है . इस भयभीत दशा में बीतता समय उनकी कार्यक्षमता और आत्मविश्वास को बुरी तरह प्रभावित करता है . यह देश आज 25-30 करोड़ किशोरियों का देश है . आज की यह किशोरियां कल की पीढ़ी की जननी हैं . इनका सही विकास ,सही नैतिक और व्यवहारिक शिक्षा और घर के बाहर सुरक्षित विचरण यदि हम उपलब्ध नहीं करा सके तो आगामी पीढ़ी जो इन की गोद में पलेगी के सही संस्कार और शिक्षा की सुनिश्चितता अपेक्षा नहीं की जा सकेगी .

देश को मिलने वाले आगामी नागरिक सच्चे नहीं होंगे तो देश का भविष्य आज से बेहतर नहीं हो सकेगा . 

अगर हम अपने देश के वातावरण को आज से अच्छा बनते देखना चाहते हैं तो हमें भारतीय नारी जो हमारी अपनी माँ ,बहन या बेटी है के प्रति अपनी दृष्टि निर्मल करनी होगी . जहाँ भी यह हमारे साथ है वहां अपने आचार -व्यवहार से उसे पूर्ण सुरक्षित होने का विश्वास दिलाना होगा . तब नारी का भारतीय पवित्र और पूज्य रूप भविष्य में मिल सकेगा . जो अपने त्याग ,करुणा और दुलार के लिए प्रसिध्द रहा है .

दूरदर्शन पर डेली सोप और फिल्मों में आधुनिकता प्रदर्शित करने के लिए वे चरित्र नहीं दिखाए जाने चाहिए जो ना तो नारी का पूर्ण पाश्चात्य रूप है और ना ही भारतीय रूप है . बल्कि आधा अधूरा (भ्रमित )कन्फ्यूज्ड रूप है . जो कभी इस और कभी उस ओर झुक जाता है .

फिल्म और डेली सोप निर्माता धन कमाने के इस उपाय और लोभ से बचें . वे विश्वास करें ,हमारे संस्कृति और समाज की मर्यादा से संस्कारित नारी का भव्य रूप ही घर-परिवार ,समाज, देश और मानवता की दृष्टि से उत्तम है .

बाकि के विश्व में धन की बाहुलता से मानव जीवन जितना ही सुविधा पूर्ण हो पर वहां का परिवार और उनमे स्नेह और त्याग का बोध और बंधन  हमसे बहुत कम है . अय्याशी में जीवन बिताने वाले वहां के स्त्री पुरुष के मध्य सम्बन्ध बहुत अस्थाई बनते जा रहे हैं . स्त्री पुरुष के कुछ माहया वर्ष में  सम्बन्ध विच्छेद से उनकी संतान उनका आदर उतना नहीं कर पाती है ,जितना भारतीय माँ-पिता और बड़ों को मिलता है .

अचरज होता है . नक़ल अच्छी बात की नहीं , अपने से ख़राब वस्तु की कर क्यों हम अपनी अच्छाई खोते जा रहे हैं ? बेख्याली में थोड़े से मन बहलावे की कीमत पर हम अपना जो बुरा कर रहे हैं उसको हम ही भुगतेंगें सोच परे भी रखें तो  हमारे कर्म आचरण अनुचित ही  हैं  .
हम अपनी संतानों के अपराधी बन रहे हैं जिन्हें अपने स्वार्थ में सही जीवन पथ पर बढ़ाने के स्थान पर हम उन्हें इस पथ  से विमुख कर दे रहे हैं .  अभी विवेक-बुध्दि उनकी अपने भले बुरे को पहचान की पहचान की नहीं है . लेकिन जब हो जायेगी धिक्कारेंगे वे हमें ऐसे स्वार्थी माता पिता की संतान होने के लिए .


Thursday, March 7, 2013

प्रिय पुत्री

प्रिय पुत्री ,

तुमने मेरे जन्म-दिन पर पत्र लिखा था जिसमें लिखित एक एक भाव ने पत्र पढने के क्षणों को मेरे जीवन के अविस्मरणीय पल बना दिया था . उसके पूर्व मैंने तुम सहित दोनों बेटियों को घर के प्रति दायित्व बोध रखती , समझदार , और प्यारी तो माना था पर यह नहीं जानता था कि तुम और दीदी (तुम्हारी ) अपने साधारण पिता और परिवार के लिए ह्रदय में इस तरह के असाधारण भाव और सम्मान रखती हो . तुम्हें मै साइंस और इंजीनियरिंग की प्रतिभावान स्टूडेंट तो जानता था , पर ऐसे भावपूर्ण पत्र को लिख सकने की तुम्हारी क्षमता से अपरिचित था . अभी आगे भी पुत्रियों के प्रति मेरे दायित्व निभाना शेष हैं . इन्हें मै निभाने का कार्य और प्रयत्न जारी रखूँगा . पर तुम दोनों ने जिस तरह गंभीरता और सजगता से अपने कार्य और कर्तव्यों को समझा है , तथा अपने आचार और विचार रख शैक्षणिक समय का सदुपयोग कर रही हो , मुझे विश्वास होता है तुम दोनों ही परिवार, समाज और देश के लिए गौरव पूर्ण उपलब्धियां अपने जीवन में हासिल करोगी . यह विश्वास मुझे यह भी बताता है कि आगे के पुत्रियों और परिवार के प्रति मेरे कर्तव्य लगभग प्रयत्नहीनता  (एफर्टलेस)  से मै पूरे कर सकूँगा . तुम, दीदी और मम्मी (तुम्हारी) ने जिस तरह मुझे सम्मान ,प्रेम और सहयोग दिया है मै  परिवार के लिए कम प्रयासों से दायित्व निभा सका हूँ . जिससे ज्यादा समय और श्रम  मैंने अपने विभाग और इस तरह देश के सिस्टम को चलाने में लगाया है . अपने सामर्थ्य अनुसार ज्यादा प्रयास लगायें हैं . और आत्मिक -संतोष अनुभव किया है .
अब तक जीवन में  जिस स्थिति में आ सका हूँ . उसे मै परिवार ,समाज और देश से बिना मूल्य चुकाए मिला मानता हूँ .अतः मुझे प्रतिदान हेतु सामाजिक दायित्वों का अनुभव हो रहा है . एक उत्कंठा ऐसी उत्पन्न हो रही है कि  मै अपने समय के उन मानव साथियों का बड़ा भाई , या पिता समान कर्तव्यों को समर्पित करूँ जिन्हें जीवन में अपरिहार्य कारणों से या तो उचित संस्कार ना मिल सके हों या जिन्होंने बुरी संगतों में या बुरे सम्मोहनों में प्राप्त संस्करों को विस्मृत कर दिया है . जिस से वे स्वयं और समाज कठिन वातावरण में जीवन को बाध्य हो रहे हैं .मेरे मन में उन्हें फिर से संस्कारित आचार और कर्म की भावना जागृत करने के लिए जीवन का शेष समय लगा देने की भावना जोर मारती है . मै चाहता हूँ कोई भी युवती/युवक  मुझमें अपने भाई की , छोटी बच्चे  पिता सी , और बढ़ी महिलायें और पुरुष  बेटे सी छवि देख सकें .अपने लेखन के माध्यम से इसे प्रतिदिन करते हुए संतोष होता है . मुझे लगता है ऐसे और  प्रबुध्द इस प्रकार से सक्रिय हुए तो हमारा देश और समाज सुखी बन सकेगा . वंचित तथा देश के बहन , बेटियां और नारियां सम्मान और सुरक्षित होने का बोध कर सकेंगी .

आज तुम्हारा जन्म दिन है , उसकी तुम्हें बहुत बहुत शुभ-कामनाएं . तुमें यह बताना भी उचित होगा कि दोनों सपुतनियों को पा कर मुझे और तुम्हारी मम्मी को भी यह लगता है कि हमारे घर में विश्व की अच्छी बेटियों में से दो ने जन्म लिया है . तुम दोनों अपनी शिक्षा इसी तरह पूर्ण योग्यता से जारी रखो . और आधुनिकता में से अच्छाई और प्राचीन संस्कृति और संस्करों से अच्छाई ग्रहण करते हुए अपने आचार व्यवहार में संतुलन से   इसी तरह निरंतरता रखते हुए .. जीवन पथ पर पूरी भारतीय नारी के गरिमा के तरह अग्रसर होती जाओ .
तुम्हारा ,
पापा (राजेश जैन )
27-01-2013

Saturday, March 2, 2013

मन को स्पर्श- मानवता


मन को स्पर्श- मानवता
----------------------------
तन का स्पर्श भौतिक वस्तु है . भौतिक वस्तु की संख्या सीमित हैं . हर भौतिक वस्तु की भांति इसकी (तन का स्पर्श) सीमाएं हैं . पूरे जीवन में एक शरीर को दूसरे से स्पर्श चाहे वह हाथ मिलाये जाने ,आलिंगन ,ममता , सहयोग ,कामसुख या किसी भी प्रकार का हो कुछ संख्या तक ही पहुँचता है .
 
दूसरी और मन का सच्चे अर्थ में स्पर्श मानवता है . यह असीमित है . एक के मन को स्पर्श कोई तब ही कर सकता है , जब उसकी भलाई कोई कर सके .कोई भी  भलाई प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से  किया जाना संभव है . भलाई जीवन में और म्रत्यु पर्यन्त भी की जा सकती है . उदहारण के लिए देखें एक छायादार , फलदायी वृक्ष कोई लगाता है . अब वह जीवित है या नहीं ,पर ग्रीष्म में लू लपट से व्याकुल कोई पथिक उस वृक्ष की छाया में रूकता है , तो शीतल छाया और बयार के माध्यम से वृक्ष लगाने वाला उस व्यक्ति के मन को स्पर्श करता है . उसके फल जब किसी की उदर पूर्ती को उपलब्ध होते हैं . तब भी व्यक्ति के मन को स्पर्श किया जा सकता है .
 हम जीवन में दूसरों के भलाई के परोक्ष और अपरोक्ष बहुत से कर्म कर सकते हैं . जो हमारे जीवन में और उसके उपरान्त भी अनंत  प्राणी मन को स्पर्श कर सकते हैं . मनुष्य जीवन क्या है?  किस प्रकार सार्थक किया जा सकता है ? अगर हम सोच नहीं पा रहे हों तो इस दृष्टिकोण से देखें शायद जीवन दिशा मिल सके .
आज भौतिक चाह  के पीछे सब भागते हैं . जिनसे प्रेरणा ग्रहण की जा रही है या जिन्हें अपना आदर्श सब मान रहे हैं ,वे भौतिक से सम्मोहित हैं . स्वयं उसके पीछे भाग रहे अतः अपने पथगामी (followers) को भी दिग्भ्रमित कर उसी पथ पर चला रहे हैं . भौतिकता को पाने में परस्पर संघर्ष संभावित होता है . इस कारण मनुष्य समाज में संघर्षों को जहाँ तहां देखा और अनुभव किया जा रहा है . संघर्ष में सुख नहीं है .
सुख सहयोग में है . सहयोग के माध्यम से ही  मन को स्पर्श कर किया जा सकता है . सुख मानवता में है . मानवता को पुष्ट किया जाना आवश्यक है .
विचार आचरण और कर्मों की समीक्षा इस कसौटी पर स्वयं करें .
निश्चित ही आप स्वयं सुखी होंगें और दूसरों के सुख का कारण बन मानुष जीवन सार्थक कर सकेंगे . समाज हित का वातावरण बनाने में सहयोगी बन सकेंगे।