Monday, October 28, 2013

धर्म का अस्तित्व

धर्म का अस्तित्व
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धर्म का उथला ज्ञानी , धर्म उसको मानता है जैसा  उसके आज कट्टर मानने वाले स्वयं को प्रदर्शित करते हैं . ऐसे में धर्म को
दोषपूर्ण ढंग से मानने का प्रदर्शन यदि प्रधानता से प्रचारित होता है तो वास्तविक धर्म और उसकी अच्छाई पृष्टभूमि में छिप जाती है , और भ्रम धर्म में दोष का प्रतीत होता है . जबकि धर्म दोष रहित है तभी तो सभी अनुकूल /प्रतिकूल परिस्थिति में धर्म अनादि से अस्तित्व में बना हुआ है . धर्म के सच्चे ज्ञानी में प्रदर्शन की अभिलाषा स्वतः समाप्त होती है . बिना प्रचार के ऐसे धर्म ज्ञानी को जगत स्वयं पहचान लेता है . लेकिन जब धर्म के पूर्ण ज्ञान प्राप्ति की भावना दूसरे भौतिक सुखों की प्राप्ति की भाग-दौड़ में प्रमुख नहीं रह गई है . ऐसे में धर्म के नाम पर फैले अन्धविश्वास और पाखण्ड की ओट में छिपने से धर्म को नहीं बचाया गया तो आशंका  है कि हमारी आगामी पीढ़ियां धर्म के प्रति विमुख होती जायेंगी और धर्म अनुमोदित कर्मों और आचरण के प्रति उदासीनता से परिवार ,समाज ,राष्ट्र और विश्व में बुराई और अनाचार और जीवन अशांति का कारण बनेगी .

सभी अनुकूल /प्रतिकूल परिस्थिति में धर्म अनादि से अनंत तक अस्तित्व में तो रहेगा शंका नहीं है किन्तु अपने काल में हम बुराई से जूझते जीवन संघर्ष को बाध्य होंगें ...

--राजेश जैन
29-10-2013

नरक -स्वर्ग और धर्म

नरक -स्वर्ग और धर्म
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भारत में प्रचलित अधिकाँश धर्मों में प्राणी जीवन अनादि-अनंत बताया गया है . विश्व में दूसरे धर्म ऐसा नहीं बताते उन्हें कोई चुनौती नहीं देते हुये ,लेख में अपनी सहमति भी इसी आस्था में है निसंकोच लिख रहा हूँ . जिन धर्मों में "प्राणी जीवन अनादि-अनंत " बताया गया है , उनमें नरक -स्वर्ग (और ज्यादातर में मोक्ष भी ) का अस्तित्व भी माना गया है .
पृथ्वी पर और पृथ्वी तरह के अन्य ग्रहों में जिनमें भी जीवन है ,वहाँ प्राणियों के कर्मों अनुरूप ही जीवन में और आगामी जन्मों में प्रतिफल प्राप्त होता है .
अत्यंत अच्छे और स्वच्छ कर्मों के संचय से स्वर्ग और अत्यंत निकृष्ट कर्मों के संचय के प्रतिफल में नरक के जीवन पाने की अवधारणा है .
आजकल जब विज्ञान और गणितीय ज्ञान अधिकतर मनुष्य प्राप्त कर रहे हैं तब इन धर्म के आस्था वाले कुल में जन्म लेने के बाद भी प्रमाण के साथ नरक -स्वर्ग के अस्तित्व को सिध्द नहीं किये जा सकने के कारण उन्हें धर्म पर शंका होती है .वे विज्ञान और गणितीय उत्तर के तरह धर्म के सिद्धांत को पुष्ट करने का प्रमाण ढूंढते हैं . धर्म ग्रन्थ-शास्त्र के अनेकों उल्लेखों को तर्क और प्रमाण की कसौटी पर परखते हैं .
धर्म पर आस्था होनी चाहिए या नहीं इस विवाद में नहीं जाते हुए यह सुविधाजनक होगा की सीधे लेख का मंतव्य स्पष्ट किया जाए .
वास्तव में व्यवहारिक -भौतिक और विज्ञान के ज्ञान के विद्यालय जब बढे तो धर्म ज्ञान शंका कि प्रवृत्ति बढ़ी . जिससे हमारे कर्म और आचरण धर्म अनुमोदना अनुरूप कम होते गये और इनमें स्वच्छंदता बढ़ने लगी . जिससे पारिवारिक -सामाजिक और अंततः राष्ट्र और विश्व में सौहाद्र -विश्वास शांति कम होती गई . बुराई -अशांति इत्यादि दिनोंदिन बढ़ती गई  .
जीवन इस जन्म पूर्व था या नहीं , उपरान्त रहेगा या नहीं और इस जीवन के पाप पुण्य के लेखा -जोखा से स्वर्ग -नरक जाना होगा अथवा नहीं इस तरह धर्म में कही अनेकों बातों के प्रमाणिकता भले ही ना दी जा सके किन्तु धर्म विरुध्द कर्म और आचरण से आज जीवन-संघर्ष ना सिर्फ हमारे अपितु हमारे माँ-पिता ,भाई -बहन और बच्चों इस तरह सभी के बढ़ गए हैं . जो स्वतः प्रमाण है  इस बात का कि धर्म सच्चे हैं और मानव हित (और प्राणियों के भी हित ) में हैं .

--राजेश जैन
28-10-2013
 

Thursday, October 24, 2013

"इस प्यार" का मेरे


"इस प्यार" का मेरे
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जिसे "प्यार" आज करते हैं प्रचारित सब 
वैसे प्यार के लिए नहीं हूँ मै उपलब्ध
गृह में है लक्ष्मी जिसे दिया है वह प्यार मैंने
किन्तु प्यार नहीं संकीर्ण समा जाए इतने से अर्थ में

जो प्यार का समंदर चाहिए आज दुनिया को
जिससे मानवता निर्मल प्रवाहित है धरातल पर
हित और कुशलता लिए जो चाहिए समाज को
प्यार का समंदर मै रखता हूँ दिल में संजो अपने

और देने को रहता बेताब भरपूर उसे सबको
गर सम्मान किसी को है "इस प्यार" का मेरे

--राजेश जैन
25-10-2013

Wednesday, October 23, 2013

क्या होता है प्रेम ,क्या होता है जन्मदिन और क्या होता है भारतीय दाम्पत्य

क्या होता है प्रेम ,क्या होता है जन्मदिन और क्या होता है भारतीय दाम्पत्य
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साठ वर्ष पूरे करने पर जन्मदिन के अवसर पर पति ने पत्नी के लिए जो उपहार सोचा और विचार किया वह मिसाल है भारतीय रीति , नीति , प्रेम , अच्छाई और संस्कृति की जिसे देखकर प्राचीन भारत की ओर विश्व आकर्षित होता था .

"मुंबई के 1 पति ( आदरणीय कहें , अनुकरणीय कहें , सच्चे नायक या Hero कहें उचित ही होगा ) ने पत्नी को क्या पसंद आता है उसे ध्यान रख छह सौ एक , नेत्र रोग पीड़ितों के ऑपरेशन का व्यय वहन करने का अनूठा उपहार साठ वर्ष पूरे करने पर अपनी अर्ध्दागिनी को दिया "

धन्य है यह जोड़ी ,दीर्घजीवी हो हमारी हार्दिक शुभकामनायें .

आधुनिक आज के पाश्चात्य चलन में जहाँ स्त्री पुरुष के बीच सम्बन्ध बहुत अस्थ्याई प्रकृति के हो गए हैं . जहाँ विश्वास ही नहीं रह गया कि प्यार कहलाता दैहिक आकर्षण किस दिन और किस छोटी सी अवधि में नापसंदगी में परिवर्तित हो जाएगा . विवाह तो होने ना पायेगा और हो भी गया तो कब बंधन टूट जायेगा या तोड़ लिया जाएगा , वहाँ स्थायित्व के ऐसे प्रेम का उदाहरण निश्चित ही इस पीढ़ी के विचार और अनुकरण का विषय होना चाहिए .
प्रौढ़ावस्था या कहें वृध्द हो चलने के बाद भी प्रेम में वह गर्मजोशी है जिसमें जन्मदिन उपहार के पीछे लाखों रुपये व्यय किये जा रहे हैं . वह भी उस भलाई के लिए जिससे छह सौ एक पीड़ितों के लिए दुनिया अच्छे से देख सकने का मार्ग प्रशस्त होगा ,और निजी सुख कोई भौतिक वस्तु के उपभोग का ना होकर एक अभूतपूर्व सयुंक्त मानसिक प्रसन्नता का होगा .

युवाओं को उन तथाकथित सेलेब्रिटी का अनुकरण त्यागना चाहिए जिनके लिए पुरुष-स्त्री का सम्बन्ध सिर्फ दैहिक सम्बन्ध और मन बहलावे के लिए अल्प काल का होता है . जो अनेकों से बहला-फुसलाकर लालच देकर सम्बन्ध कायम करते हैं ,कहीं छिपे तौर पर कहीं खुले रूप में "लिव इन रिलेशनशिप " का व्यभिचार स्वयं तो करते ही हैं . अपने को बतौर हीरो प्रचारित करवा कर अनेकों फॉलोवर बना कर उन्हें इस दुष्पथ पर चलने की गलत प्रेरणा देते हैं .

अगर हमारा मीडिया अनुकरण हेतु उपरोक्त मिसाल को कवरेज नहीं देता है  तो युवा स्वयं इसे प्रचारित करें और इस प्रसंग से शिक्षा ग्रहण करें .. क्या होता है प्रेम ,क्या होता है जन्मदिन और क्या होता है भारतीय दाम्पत्य जिससे हमारा भारतीय परिवार अटूट होता था  और समाज सुखी और स्वच्छ मानवता का उदाहरण बनता था .

--राजेश जैन
24-10-2011

Tuesday, October 22, 2013

मनुष्य पूर्ण जीवन

मनुष्य पूर्ण जीवन
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अस्सी वर्ष या अधिक एक मनुष्य पूर्ण जीवन माना जाता है . जन्म के उपरान्त पूर्ण शरीर विकसित होने में अठारह -बीस वर्ष लगते हैं . सांसारिक ,व्यवहारिक , वैज्ञानिक ,गणितीय या अन्य ज्ञान जिनसे आगे जीवन सही चले अर्जित करते हुए उम्र पच्चीस -तीस की हो जाती है . सामाजिक प्राणी मनुष्य को सामाजिक परम्परा और व्यवस्था (और शारीरिक आवश्यकता के) अनुसार इस बीच विवाह-बध्द होना होता है . बूढ़े होते माता-पिता और नव-विवाह से आये गृहस्थ दायित्व पूरे करने के लिए उसे आजीविका धन -अर्जन के साधनों में लगना होता है . लगभग पचपन -साठ वर्ष की उम्र तक ये दायित्व भी पूरे होते हैं .

इस उम्र में पहुँचने पर सामान्यतः बीस -पच्चीस वर्ष हमारे पास शेष होते हैं . जिन्हें हम चाहें तो विवेकपूर्ण रूप से बिना पराधीनता से जी सकते हैं .

* अपनी कामनाएं , जीवन आशायें , पारिवारिक दायित्वों के लिए हम पहले अनैतिक हो गए हों , न्यायप्रिय ना रह सके हों . स्वार्थवश छल -कपट ,असत्य का सहारा लिया हो . चाहें तो इसको सुधारते हुए  कम लाभ पर व्यापार , चिकित्सक हों तो कम शुल्क पर उपचार सेवा कर सकते हैं .

* लम्बे पूर्व जीवन में अच्छे बुरे बहुत अनुभव हमें हुए हों , उनमें क्या परिवार ,समाज और राष्ट्र के भलाई का है उस अच्छे के वाहक प्रचारक और शिक्षक बन सकते हैं . जो बुरा किया ,देखा और सुना उसके बुरे प्रतिफल के प्रति युवाओं को सचेत कर सकते हैं .

* अगर धन -वैभव पर्याप्त है तो अपने हिस्से ( बिना पारिवारिक -कलह ) का धन समाज में निर्धन के उपचार , शिक्षा ,वस्त्र या भोजन में सहायता के लिए व्यय कर सकते हैं . या नगर -समाज में बहुत कमी है , किसे हम धन -सहायता से सुधार सकते हैं उस पर व्यय कर सकते हैं .

* धन बहुत नहीं है विशिष्ट ज्ञान अगर हमें है तो उसकी जिसे आवश्यकता है उसे निशुल्क या साधारण शुल्क पर कक्षाएं लगाकर ज्ञान दान कर सकते हैं .

* व्यवहारिक ज्ञान है , शरीर स्वस्थ है . भागदौड कर सकते हैं तो विभिन्न कम जानकार जरुरतमंद को दिशाज्ञान -निर्देश देते हुए उनका ऐच्छिक कार्य पूरा कराने में सहायक हो सकते हैं .

*  सच्चा धर्म अंगीकार करते हुए उसका सच्चा प्रचार भी कर सकते हैं . धर्म यदि सही तरह से ग्रहण किया या करवाया जाता है तो मनुष्य भला और सज्जन ही बनता है .
             यही नहीं जो उपयुक्त मानते हैं उपरोक्त से भिन्न ढंग से भी समाज -परिवार की भलाई की जा सकती है .अगर जीवन के बीस -पच्चीस वर्ष हम न्यायप्रियता ,दया और करुणाबोध  से जी सकें . तो जीवन सार्थक किया जा सकता है . जिस हमारी व्यवस्था -समाज की स्थितियों का उपहास सभी ओर दिखाई -सुनाई देता है . बिना गंभीरता के हम स्वयं भी इसका उपहास उड़ा लेते हैं अथवा सुन देखकर ग्लानि अनुभव करते हैं . उस सामाजिक परिदृश्य को हम ही बदल सकते हैं .

अन्यथा जीवन क्रम निजी दायित्वों के निर्वहन उपरान्त भी पूर्व अनुसार ही  ( अनीति का व्यापार , स्वार्थ अपेक्षा के छल , बहुत अच्छा महँगा भोजन -वस्त्र और सुविधा या बदनीयत से अन्य पर दृष्टि ) जारी रखते हैं तो संसार को बिना कुछ वापस दिए सिर्फ उससे लेते -छीनते हुए ही किसी दिन अनंत साधारण जैसे ही हम भी मिले मनुष्य चोले को अज्ञानी अन्य प्राणियों के भांति छोड़ते हुए काल -ग्रसित होकर संसार से अस्तित्वहीन होते हैं . भले ही जीवन में यह भ्रम हमें रहा हो कि हम बहुत उच्च पदस्थ ,प्रतिष्ठित ,सम्मानीय , ज्ञानी , अमीर , सुन्दर ,बलिष्ट या लोकप्रिय इत्यादि रहे हैं .

--राजेश जैन
23-10-2013

Monday, October 21, 2013

राजनीति और धर्म

राजनीति और धर्म
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राजनीति वह स्थान है जहाँ एक पक्ष होता है और एकाधिक विरोधी पक्ष होते हैं . विरोधी पक्ष सामान्यतः विरोध में तर्क ,प्रचार और बातें करता है . आदर्श राजनीति में अगर राष्ट्रहित ,समाजहित या मानवता को पुष्ट करने की नीति प्रस्तुत या पालन की जाती हों तो विरोधी भी उसका विरोध ना कर उसकी प्रशंसा करते हैं . लेकिन हमारा समाज या राष्ट्र भोगोपभोग प्रधान आधुनिकता और आडम्बरों के वशीभूत आदर्शों से दूर होता जा रहा है . ऐसे में आदर्श राजनीति भी इतिहास मात्र ही रह गया है . यहाँ स्वयं या अपने पक्ष में पाने की अपेक्षा ही प्रधान होती जा रही है . जो कुछ किसी को देने की चर्चा और प्रचार होता है वह मात्र बाध्यता और ऐसा दिखने का अभिनय ही होता जा रहा है .

इसके विपरीत धर्म वह स्थान है जहाँ पाने और देने दोनों की अपेक्षा बराबर होती है . यहाँ अपने लिए जीवन और परलोक में सुख की अपेक्षा होती ही है . अन्य को भी ऐसा ही सुख मिले यह भी भावना होती है . यहाँ दान और त्याग भी बराबर उत्साह और प्रसन्नता पूर्वक किया जाता है . आलोचनाओं से बचा जाता है और आलोचना दूसरे के स्थान पर स्वयम के आचरण और कर्म में ढूँढी जाती है .

ऐसे में राजनीति जब आदर्श से दूर हो गई है तब धर्म का उल्लेख और विरोध के लिए किसी धर्म के किसी अंश का आश्रय लेकर अपने पक्ष के तरफ पलड़ा झुकाने का प्रयास वास्तव में समाज और राष्ट्र के लिए हानिकर होगा . धर्म तो मानो या ना मानो धर्म ही रहेगा किन्तु आधे अधुरे प्रचार और तर्क से व्यस्त और भोगोपभोगपूर्ण आधुनिकता में लिप्त नई पीढियों में जिसे धर्म के अध्ययन की रूचि और समय कम पड़ रहा है अपने या अन्य धर्म के विषय में भ्रम पूर्ण ज्ञान ही मिलेगा . ऐसे में "धर्म जो अब तक परलोक और लोक सुधार की हमारी आस्था और श्रध्दा के कारण हमारे आचरण और कर्म इस तरह से नियंत्रित करता और करवाता था जिससे समाज और परिवार संरचना सर्व हितकारी होती थी  " ,वह प्रभाव आगामी पीढ़ियों पर से खोता जाएगा .

राजनीतिग्य अपने को ,अपने दल को अन्य पर श्रेष्ट साबित करने के लिए चाहे जो करें किन्तु धर्म के धूर्तता पूर्ण उपयोग ना करें तो उचित होगा अन्यथा आगामी स्वयं की पीढ़ियों के लिए भी सद्प्रेरणा और सदविचार देने वाले धर्म महत्त्व और उपयोगिता के लिए प्रश्न चिन्हित होने लगेंगे . तब परिवार परिवार और समाज समाज नहीं बचेगा और मनुष्य जीवन हर तरफ अविश्वास और असुरक्षा में तनावों और चिंताओं में ही बीता करेगा .

--राजेश जैन
22-10-2013

Sunday, October 20, 2013

धर्म

धर्म
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धर्म बहुत से माने जाते हैं . धर्म सहस्त्रों वर्ष पुराने हो गए हैं .  जिसके हम अनुयायी हैं उसके शास्त्रों में उल्लेखित घटनाओं पर ,सिध्दांतों पर ,चमत्कारिक स्वरूप पर हमें मानने में कोई शंका नहीं होती है . किन्तु प्रमाणित नहीं किये जा सकने के कारण अन्य  धर्म के अनुयायी उस पर विश्वास नहीं करते जबकि उनके स्वयं के धर्म में भी ऐसा बहुत कुछ होता है जिसे वे मानते हैं ,किन्तु दूसरे प्रमाणिकता पर शंका करें तो प्रमाण दिया जाना संभव नहीं होता . अर्थात आस्था है तो विश्वास कर लिया जाता है और अनास्था कि स्थिति में जिस पर (अन्य धर्म ) लाखों /करोड़ों का विश्वास होते हुए उसे प्रमाणों के अभाव में हम मानने /स्वीकार करने को राजी नहीं होते हैं .

सिध्द होता है कि धर्म तो अपनी -अपनी आस्था का है . विभिन्न धर्म (और उसके धर्मावलम्बी ) आपस में एक दूसरे को चुनौती देने को तत्पर हो सकते हैं . लेकिन एक तथ्य में किसी भी धर्म के अनुयायी को मानने में कोई संदेह नहीं होगा , वह यह है कि "उनके धर्म को जो सच्चे रूप से में जानता और पालन करता है वह पूरे प्राणी जगत के लिए भले ही भला नहीं होवे लेकिन मनुष्य मात्र के लिए भला ही होता है " . फिर भले ही अन्य मनुष्य किसी जाति /समाज ,दरिद्र अथवा रोगी ही क्यों ना हो .

जिन भगवान या अवतारों से किसी भी धर्म की उत्पत्ति या परम्परा चली है उन्होंने कभी नहीं चाहा या कहा कि उन्हें लाखों /करोड़ों माने . उन्होनें जीवन में सुखी रहने और परलोक अच्छा करने ( जिन धर्मों में जीव अनादि -अनंत माना है ) के सिध्दांत और मार्ग बताये हैं , उपदेश दिये हैं और पालना या ना पालना जीव विशेष पर छोड़ा है . होनहार अनुरूप स्वतः सभी की श्रध्दा आचरण और कर्म होते हैं . लेकिन ऐसा होने पर भी अनुयायी अपने धर्म के पालन करने वालों की संख्या पर जोर देते हैं . और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करते हैं .

हमारा लिखने और पढने का आशय यही होना चाहिए , कि हम अन्य के धर्म आस्था को अपने तरफ करने की अपेक्षा ना करें . यह अपेक्षा अवश्य करें कि धर्म का उथला ज्ञान ना रख  सभी अपने अपने धर्म को पूरे सच्चे स्वरूप में जाने और माने . ऐसा हो सका तो मानव समाज सुखी हो जाएगा .

--राजेश जैन
21-10-2013

Saturday, October 19, 2013

धर्म और अपनी श्रेष्ठता

धर्म और अपनी श्रेष्ठता
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अपनी श्रेष्ठता अन्य पर दर्शाने के लिए हम कई उपाय करते हैं . और  इस हेतु हममें से -

* कोई रूप -सौन्दर्य का सहारा लेता है .
* कोई युवा अवस्था की शक्ति उपयोग करता है .
* कोई धन वैभव प्रदर्शित करता है .
* कोई इत्र -वस्त्र आदि के ब्रान्ड धारक बनता है .
* कोई अपनी अर्जित कला प्रस्तुत करता है .
* कोई बाहुबल आजमाता है.
* कोई दूसरों की शारीरिक कमी पर शब्द प्रहार करता है .
* कोई किसी के हीन कुल -जाति अथवा दरिद्रता पर चोट करता है .
* कोई हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा के वार्तालाप के बीच अंग्रेजी प्रयोग आरम्भ करता है .
* कोई अपना अर्जित ज्ञान बघारता है .
* कोई दान ,परोपकार ,सहायता और भलमनसाहत के कर्म करता है .
  अगर ये सारे प्रभाव करते नहीं जान पड़ते तब हम अपने धर्म के किसी अंश को उध्द्रत करते हैं .

जबकि धर्म का ना तो पूरा ज्ञान हमें होता है . और ना ही पूरी तरह से हम अपने धर्म का पालन करते हैं .
अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने के लिए सुविधाजनक, विवेचना पलड़ा अपने पक्ष में झुकाने के लिए करते हैं .

वस्तुतः धर्म तो वह मार्ग हैं जिसका पूरा ज्ञान सच्चे तरह से हो जाए तो अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शन का मोह ही टूट जाता है .
और आचरण इस तरह हो जाते हैं जिससे श्रेष्ठता देखने -सुनने वाले को स्वतः अनुभूत होती है .

--राजेश जैन
20-10-2013

Friday, October 11, 2013

लौटायें मिली निधि मातृभूमि से ,ये ही महानता है

लौटायें मिली निधि मातृभूमि से, ये ही महानता है
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नहीं संदेह योग्यता पर उनकी
नहीं शंका लगन -प्रतिभा पर भी
गौरव राष्ट्र को उनकी उपलब्धि पर
हतप्रद कर पाश्चात्यजनों पर ,जड़ती जो चुप्पी है

उनने खर्चे पच्चीस वर्ष अपने यौवन के
और दिया बहुत मनोरंजन भी
बदले इस खर्चे और मनोरंजन के
दिया राष्ट्र ने स्नेह ,सम्मान अभूतपूर्व है

खाते -पीते कुल से वे थे
वैभव मिल गया इतना अब
खाने -पीने से निश्चिन्त जिससे
आगामी कई पीढियां उनकी है

लेलें विदाई अवस्था आई विदा होने की
रिक्तता पूर्ति होगी कोई नई प्रतिभा से
आधा जीवन निकला इस तरह
जो खोया, पाया उससे कई गुना है

पाया बहुत ,आई बारी लौटाने की अब
धन है बहुत ,ना भागें अब धन के पीछे
ना करें विज्ञापन पाश्चात्य बढ़ावे के
संस्कृति प्रति लायें जागृति आज ,ये आवश्यकता है

परखें स्वयं सामर्थ्य अपना
बना सकें तो बनायें वातावरण ऐसा
जी सके प्रत्येक स्वाभिमान से जिसमें
लौटायें मिली निधि मातृभूमि से ,ये ही महानता है

--राजेश जैन
12-10-2013

Thursday, October 10, 2013

बहुत दे चुका राष्ट्र और क्या दिलाना चाहते हो ?

बहुत दे चुका राष्ट्र  और क्या दिलाना चाहते हो ?
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मीडिया ,बहुत दे चुका राष्ट्र  और क्या दिलाना चाहते हो ?

वे हजारों घंटे जिसमें पढ़कर बनता स्वयं महान
दिए देखने में उनका खेल बना दिया उन्हें महान

व्यय किये हजारों रुपये बचत और मेहनत के अपने
देखा इतना बने लोकप्रिय और कमा हुए अरबपति वे

जूठन भी हर समय भोजन को मिल जाए तो है भाग्य
निर्धन ,वृध्द लाचार मर जाते यहाँ उपचार अभाव में
नारी ,बेटी ,बहन सुरक्षित नहीं इस देश -समाज में
आशा जिनपर परिवार आजीविका की भटकते हैं ऐसे युवा

समस्याओं और बुराई का दिखता नहीं कहीं पर अंत
ऐसा है हमारा स्वतन्त्र भारत करने के जिसमें स्कोप अनंत
हैरत ,ऐसे में असमंजस उन्हें क्रिकेट बिना मै जियूँगा कैसे ?

--राजेश जैन
11-10-2013