Friday, April 24, 2020

पसंद है मुझे सुनना
अपनी प्रशंसा मगर
आप से करने कभी
कहा हो तो बताओ?? 

Thursday, April 23, 2020

12 लाख से अधिक वार्षिक आय पर
आयकर में कोविड-19 सरचार्ज
लाना उचित होगा
देश हमारा है-मजदूर का सहयोग जरूरी है

अत्यावश्यक सेवाओं में जान की बाजी लगा रहे जनसेवकों ने
आदर्श रखा है जिससे सीख
हम सभी जनसेवक
अपने राष्ट्रदायित्व ईमानदारी से निभायें

विपक्ष,व्यवस्था में कमी रेखांकित करने में लगा है
विपक्ष,क्या तारीफ कर सकेगा?
कि आपदा को थोड़े में सीमित कर रखा है
#ग्लास_आधा_भरा_है

विरोधी की अच्छाई की प्रशंसा का साहस नहीं हो तो
(नुक्ताचीनी करने के बजाए) चुप रहने का विवेक तो हममें होना ही चाहिए ..

Monday, April 20, 2020

माँ, तुम्हारी होना चाहता हूँ ...

माँ, तुम्हारी होना चाहता हूँ ...

दीदी ने पूछा मुझ से
अंतिम समय है माँ का
क्या तुमने
क्षमा माँगी माँ से

कहा मैंने, जिनके हृदय में
मेरे लिए क्षमा, मेरे जन्म से
हिम्मत नहीं कि
शब्दिक क्षमा माँगू, उनसे

देख, उन्हें पोती रिची के
नयन झर झर बहते हैं
वे बोलीं ना रोओ बेटी
यहाँ, ना देह अपनी किसी की

पूछा स्वर्ग से, बाबूजी ने
माँ के लिए कर सके कुछ तुम
मेरी चुप्पी पर बोले- न करो रंज कि
काल समक्ष हर कोई लाचार है

भाई असहाय, पूछा उसने, भैय्या
समझ न आता, क्या करें हम
मैंने कहा- भाई जितना हो सके
सेवा सुश्रुषा बस कर दो तुम

एक समय था बाबूजी को 
माँ शर्मिला लगा करती थीं
तन से नहीं अब मन से माँ 
तब की शर्मिला से सुंदर हैं 

अब जीर्ण काय लेटी माँ का 
शक्तिशाली काल के आगे
साहस ना डिगता है 
कि आत्मा का बिगड़ना कुछ ना है 

सारे दृश्य व्यथित मुझे करते हैं
भावुक हृदय में विचार ये भरते हैं  

माँ, तुम्हारे कर्ज उतारने 
मैं, बेटा कामना करता हूँ 
अगले जन्म में माँ, मैं  
माँ, तुम्हारी होना चाहता हूँ 

माँ, तुम, मेरा बेटा होना कि 
माँ होकर, उऋण मैं हो पाउँगा   

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
21.04.2020



दिल अगर पाषाण हुआ
तो वह धड़कता क्यूँ है
पैदा हुआ मानव तो
जानवर कोई बनता क्यूँ है

हँसने का मन न रहा
जब से हिंसक जानवर हम हुए
भला! जानवर कोई
हँसता है?? 😭😭

Sunday, April 19, 2020

यूँ मिलते हैं अपने से कुछ जिन्हें
विशेष अनुराग हमसे होता है
मगर माँ तुमसे मिली ममता का
सुखद सा अनुभव न कोई दूजा है

दैदीप्यमान सितारा ...

दैदीप्यमान सितारा ...

इसे संयोग ही कहें, इतने बड़े संसार में, सुनयना एवं मैं लगातार समानांतर एवं साथ साथ चलते आये थे।
स्कूल/कॉलेज के वे दिन आज भी, मेरी स्मृति में ताजे हैं।
सुनयना नाम अनुरूप सुंदर ही नहीं, बौध्दिक रूप से विलक्षण लड़की रही थी। वह परीक्षा परिणाम में, अव्वल तो रहती थी।
वह, सभी साँस्कृतिक प्रतियोगिताओं एवं मंचन में भी, हिस्सा लेती थी।  उनमें, उसका होना, मेरे जैसी लड़कियों को पुरस्कार से, वंचित होना निश्चित कर देता था।
ऐसे हर अवसर पर, पुरस्कृत होते हुए, प्रसन्नता से दमकता, उसका सुंदर मुखड़ा, और ज्यादा ही निखरा हुआ होता था।
उस समय मुझे लगता कि, सुंदर से सुंदर परिधानों एवं आभूषणों में सजी धजी, वहाँ विराजित अन्य युवतियों की, चमक दमक उसके सम्मुख, फीकी पड़ जाती थी।
मेरा पूरा ही शैक्षणिक जीवन, उसकी आभा से प्रभावित रहा। कहना उचित होगा कि वह दीपक ज्योत सी प्रकाशित रही और मैं, दीपक के नीचे के अंधकार सी रही थी। 
ऐसे ही, मेरे पुरस्कृत होने की कामना, सदैव अधूरी रहती थी। तब भी मैंने ऐसे आयोजन में भाग लेना बंद नहीं किया था। 
महाविद्यालय में आते आते, यह अवश्य हुआ था कि ऐसे आयोजन में, हिस्सा लेते हुए, मैंने स्वयं को सबसे निचले स्थान पर रखना सीख लिया था। अर्थात, अच्छा प्रदर्शन कर सकने की योग्यता होते हुए भी, ऐसा न करना। 
सुनयना मेरी सहेली थी। वह मेरा मनोबल बढ़ाने वाली बातें कहती थी। मैंने उससे यह राज छिपाये रखा था कि निचले क्रम में दिखने में, मुझे आनंद आने लगा था।  
जब कोई सहपाठी प्रतियोगी, अपने प्रदर्शन से असंतुष्ट होती तब सूची में, अपने नीचे भी, कोई नाम (मेरा भी) देखती तो उसे राहत अनुभव होती थी। उसकी कुंठाओं में कमी का कारण, मुझे, मैं होती सी लगती थी। इस तरह उनकी ख़ुशी के माध्यम होने में, मुझे प्रसन्नता अनुभव होती थी।  
ऐसे समय बीतता गया था। जैसा मैंने लिखा, सुनयना का संयोग, हमारे पूरे जीवन रहा। 
शिक्षा पूर्ण होने के उपरान्त सुनयना और मेरा विवाह, मुंबई आईआईटी से शिक्षित क्रमशः सुरेंद्र एवं उपेंद्र (मेरे पति), से हुआ था। दोनों साथ ही 'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' में वैज्ञानिक की तरह कार्यरत थे। और आपस में, मेरे एवं सुनयना के तरह ही, मित्र भी थे। 
विवाहिता हो जाने पर भी, सुनयना अपनी विशिष्टताओं सहित, साहित्य एवं साँस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेती रही थी। 
सुरेंद्र से उसे, घर एवं बाहर मिलते प्रोत्साहन के कारण वह इस क्षेत्र में एक चर्चित नारी होने में सफल रही थी। 
मुझे उसकी ऐसी सफलता पर बहुत ख़ुशी होती रही थी। मुझे सुनयना की सहेली कहलाये जाने में आत्मिक सुख एवं गौरव अनुभव होता था। 
ऐसे ही बीतते गया समय, कल तक आया था। कल, हम सबके जीवन में एक अभूतपूर्व उपलब्धि बन के आया था। 
इस वर्ष के पद्म विभूषण से पुरस्कृत व्यक्तियों  की सूची, भारत सरकार ने, कल जारी की थी, जिसमें एक नाम उपेंद्र का भी था। 
इस पर बधाई देने सुरेंद्र और सुनयना, हमारे घर आये थे। हम सभी बैठक कक्ष में, आराम की मुद्रा में चाय आदि के साथ, वार्तालाप का आनंद उठा रहे थे। 
गर्मजोशी से बधाई एवं आभार के उपरान्त हमारी चर्चा यूँ रही थी-
सुनयना : (सुरेंद्र के तरफ इशारा करते और हँसते हुए) भाईसाहब, ये तो मुझे सपोर्ट करते हुए मुझ पर समय लगाने में ज्यादा व्यस्त रहे, अन्यथा आप वाली, अलंकरण सूची में इनका भी नाम होता। 
सुरेंद्र: (हँसते हुए) सुनयना, सही कह रहीं हैं, उपेंद्र। मैंने विवाह बाद इनमें, विशेषतायें देखीं तो संकल्प किया कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को अलग रख मैं, इन्हें, इनकी महत्वाकांक्षा अनुरूप बढ़ावा दूँगा।
हमारे समाज में नारी दशा सुधारने की आवश्यकता रही है। इस हेतु मैं, इन्हें सफल नारी का उदाहरण जैसा समाज सम्मुख रखना चाहता था। 
मैं सफल रहा हूँ। मुझे दुःख नहीं कि मैं, पद्म विभूषित नहीं किया जा रहा हूँ। मुझे, तुम्हें और सुनयना को सफल व्यक्ति के रूप में देखना, सुख दे रहा है। 
उत्तर मैंने दिया : (सुरेंद्र की ओर देखते हुए) सच कहा भाईसाहब, अगर आपने सुनयना की प्रतिभा को उभरने नहीं दिया होता तो, नारी के साथ अन्याय के दोषी आप होते। निश्चित ही आज के युवाओं के लिए, आपका त्याग, प्रेरणा बनेगा।        
(अपनी बारी आने पर,मितभाषी) उपेंद्र:  हमारा देश आज (अपने सीने पर हाथ रखते हुए) जिसे, सफल देख रहा है उसके पीछे (मेरी तरफ ऊँगली उठाते हुए), ये हैं। 
मैंने, इनकी महत्वाकाँक्षा, इनकी डायरी के किसी पृष्ठ पर पढ़ी थी। जिसमें, ये स्वयं को, वह व्यक्ति होता, देखना चाहती हैं, जो दूसरों की ख़ुशी का कारण बन कर, खुश होता है। 
अतः प्रकट में यह अलंकरण मेरा है। लेकिन, किसी भी मंच पर, मुझे यह स्वीकार करने में, संकोच नहीं कि पद्म विभूषण की, अधिकारी ये हैं। जिनके, मेरे पीछे होने के कारण, देश को यह सेवा देने में, मैं सफल हो सका हूँ। 
(अचंभित) सुनयना: (अपनी आकर्षक आँखे बड़ी कर, मेरी तरफ देखते हुए) तुम, बचपन से मेरे साथ हो। तुम इतनी गहरी हो कि मैं, तुम्हारी थाह नहीं पा सकी हूँ।  
सच में, मेरी प्यारी सखी, तुम, नारी जगत का, एक दैदीप्यमान सितारा हो ..
-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
19.04.2020

Friday, April 17, 2020

मेरा हीरो ...

मेरा हीरो ...

अंतिम दृश्य में वह मर गया था। मॉल में, मूवी देख रहे सभी दर्शक स्तब्ध रह गए थे। मेरा हाल और ज्यादा बुरा था। इस काल्पनिक दृश्य की वेदना से, मैं स्वयं को उबार नहीं पा रही थी। मुझे प्रतीत हो रहा था, क्या रह गया! इस दुनिया में, जब मेरा हीरो ही नहीं बचा।
मेरा हीरो ज़िंदा है, फिर यह यकीन करने के लिए, बाद के दिनों में लगातार, उसकी एक के बाद एक, कई मूवीज, मैं अपने लैपटॉप में, सबसे छिप कर देखती रही थी।
घर में मम्मी-पापा यह समझ खुश होते थे कि बेटी, बहुत लगन से, पढाई कर रही है।
यह बात उस समय की थी, तब मैं कक्षा 11 की छात्रा थी। वे दो साल मेरे भविष्य की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे। तब की मेहनत और परिणाम के आधार पर, मेरे कॉलेज एवं आगे की संकाय (faculty) तय होनी थी।
मैं, मेरे हीरो के प्रति, मेरी दीवानगी में, मेरा आवश्यक अध्ययन, सुनिश्चित न कर सकी थी।
मैं उसकी मूवीज फिर फिर देखती थी। उसके वॉल पेपर, अन्य फोटोज और उसके गाने देखा करती थी। उसके सारे सोशल प्लेटफॉर्म्स पर फैन क्लब एवं उसकी प्रोफाइल को फॉलो करती रही थी।
ऐसे में जब कक्षा 12 का परिणाम आया, वह मेरी संभावनाओं की दृष्टि से निराशाजनक था।
तब भी मम्मी-पापा ने कोई नाराजी नहीं दिखाई थी। किसी किसी स्टूडेंट्स के आत्मघात करने या अवसाद में होने के हादसों से, मैंने, उन्हें पहले से ही, भयाक्रांत रहते देखा था। उनका नाराज न होना कदाचित इसी भय का परिणाम था। 
मैं अपने दिल से मजबूर थी। मैंने इन सबसे, कोई सबक नहीं लिया था। मैं, मेरे हीरो को, उसी तरह फॉलो करती रही थी।
अब मैं बी ए व्दितीय वर्ष की छात्रा थी। अभी देश और दुनिया पर कोविड-19 महामारी का खतरा छाया हुआ था। पिछले, कई दिनों से मैं लॉक डाउन में घर में सीमित रह गई थी।
इस निर्मित परिस्थिति में, घर में, मम्मी का हाथ बँटाते और दुःखद समाचार सुनते हुए मेरा दिमाग अन्य तरह से प्रभावित हुआ था।
मेरे हीरो से संबंधित, ऐसा कोई समाचार नहीं दिखाई पड़ रहा था, जिसमें उसका कोई त्याग प्रमुख होता।
यह कहीं नज़र नहीं आया कि मानव नस्ल पर आसन्न खतरे में, उसने कोई दान दिया हो। या, नफरत से सुलग रहे, हमारे देशवासियों के मन को, अपने कुछ अच्छे शब्दों से तसल्ली पहुँचाई हो। उसके द्वारा अंधविश्वास दूर करने एवं नागरिकों में जागृति लाने के कोई प्रयास किये जाते नहीं सुनाई पड़े थे।
मैं उसके तरफ से पहली बार निराश हुई थी।
तब गूगल पर उपलब्ध, मैंने उसका विकिपीडिया पढ़ा था।  वह आयु में मेरे पापा से बड़ा था। सिनेमा में आने के पूर्व, वह, हम जैसे ही मध्यम वर्गीय परिवार में पला बड़ा था।
फिर मेरे दिमाग में एक स्टोरी आई जिसे मैंने यूँ लिखी -

"हीरो ने इस देश में बेशुमार ख्याति, बेहिसाब धन वैभव एवं बेहद प्यार, पिछले तीस वर्षों में अर्जित किया था।  ऐसे में, इसी देश पर आई, कोरोना विपदा की घड़ी में वह अत्यंत भावुक हो गया था। उसने अपनी 4000 करोड़ की संपत्ति में से, अपना बँगला-कार एवं 5 करोड़ रूपये बैंक खाते में छोड़, बाकि पूरा धन पीएम केयर्स फण्ड (PM CARES Fund) में दान दे दिया। 
देश वासियों से वह, टीवी समाचार चैनलों पर, कौमीय नफरत और धार्मिक अंधविश्वास छोड़, कोरोना से एकजुट लड़ने की अपील करता दिखाया जाने लगा। उसके भारी भरकम दी गई दान राशि के कारण, देशवासियों ने उसे अत्यंत गंभीरता से सुना। अपील का असर अत्यंत सकारात्मक हुआ। नागरिकों ने नफरत भुला, अंधविश्वास छोड़, सौहार्द्र एवं सहयोग का परिचय दिया। इस सबसे भारत, दुनिया का ऐसा पहला देश बना, जिसमें कोरोना का संपूर्ण उन्मूलन किया जा सका। " 

अपनी लिखी यह कहानी, उस दिन मैं बार बार पढ़ती रही। कुछ दिन मैंने प्रतीक्षा की कि, मेरे हीरो के तरफ से, मेरी कहानी में उल्लेखित जैसी कोई पेशकश की जायेगी।
मगर मैं, निराश हुई।
मुझे, दुःखी हृदय से, यह स्वीकार करना पड़ा, कि यह हीरो, मेरा हीरो नहीं हो सकता। यह मात्र प्रचारित हीरो है। वास्तविक नायक (रियल हीरो) होने के उसमें अंश मात्र भी लक्षण नहीं हैं। 
तब मैंने, उसे जहाँ जहाँ फॉलो किया हुआ था,  हर उस साइट पर अनफॉलो कर दिया। मैंने मैथ्स पढ़ा हुआ था। मुझे मालूम था कि-
10 करोड़ 6 सौ सोलह में एक प्रशंसक, कम होने का असर, नगण्य है। 
मुझे तब भी, ऐसा करते हुए, आत्मिक संतोष अनुभव हुआ। 
मैं समझ पा रही थी कि पिछले 4 सालों में उसे दिल में बसाये रखने के कारण,  अपने जीवन में मैं, अत्यंत पिछड़ गई हूँ।
मैंने संकल्प किया कि अब आगे, भरपूर भरपाई करुँगी। मेरे जीवन का समय, मैं किसी फेक हीरो को प्रमोट करने में नहीं अपितु स्वयं को प्रोन्नत करने में लगाऊँगी ... 


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
18.04.2020

Thursday, April 16, 2020

कोविड-19 (विवाह) मैरिज ..

कोविड-19 (विवाह) मैरिज ..

पत्रक

हमने, माधुरी-जयेश दोनों को साथ वीडियो कॉल पर लेकर बात की है। दोनों ने स्वेच्छा से शपथ पूर्वक परस्पर, एक दूसरे को जीवन संगिनी / साथी स्वीकार किया है।
अतः समय एवं परिस्थिति को देखते हुए, इस नई रीति (कोरोना विवाह) के साक्षी होकर, हम माधुरी-जयेश के विवाह को स्वीकार करते हैं।

दिनाँक 05.04.2020                                         
 भवदीय     

जयेश एवं माधुरी ने ऐसे प्रमाण पत्र, क्रमशः अपने मम्मी-पापा, अपने मामा-मामी, अपने बुआ-फूफाजी एवं दो पडोसी युगल से, वीडियो कॉल उपरांत विवरण पत्र, जैसा लिखवाया था।
इस पर, उनके दिनांकित, हस्ताक्षर करवाये थे। फिर इन विवरण पत्रों की मोबाइल स्कैनर से, पीडीएफ इमेज, व्हाट्सअप के जरिये प्राप्त कीं थीं। उनके प्रिंटआउट लेकर तीन सेट्स तैयार किये थे।
इन के साथ इन्होने, अपने अपने घोषणा पत्र की, एक प्रिंटेड प्रति भी लगा दी थी।
अपने घोषणा पत्र में दोनों ने यह घोषित किया था-

घोषणा पत्र 

मैं माधुरी /जयेश अपनी अंतरात्मा को साक्षी रख यह घोषित करती/करता हूँ कि अपने इस जीवन के लिए, मैं जयेश/माधुरी को अपना/अपनी जीवन साथी/संगिनी स्वीकार करती/करता हूँ।

दिनाँक 05.04.2020                                           
भवदीय   

वास्तव में, तीन माह पूर्व जयेश-माधुरी की सगाई हुई थी। एवं तब ही विवाह तिथि 5 अप्रैल 2020 की नियत हुई थी।
कोरोना विपदा के कारण जारी किये गए, लॉक डाउन से, 26 मार्च को ही, दोनों को एवं परिवार को, यह विवाह तिथि स्थगित करनी पड़ी थी।
यूँ तो बाद की तिथि पर, विवाह हो जाना कोई विचित्र बात नहीं थी। मगर इस स्थगन को, माधुरी के अति आधुनिक तरह के विचार वाले मस्तिष्क ने, अलग तरह से लिया था।
उसने, जयेश से मोबाइल पर, कोविड-19 मैरिज की अपने दिमाग में उपजी, पध्दति से अवगत कराया था।
जयेश ने, इस पर कहा था कि यह तो लिव इन रिलेशन तरह से हो जाएगा, जिसमें, कोई धर्म सम्मत, विवाह रस्म नहीं रहेगी।
माधुरी ने कहा था, निभाना हम दोनों को है। जब हम इसे लिव इन रिलेशन नहीं विवाह ही मानेंगे तो समस्या कहाँ है?
वैसे भी यदि लॉक डाउन नहीं होता तो, हमारा विवाह तो, समाज परंपरा अनुसार ही, संपन्न होने वाला था। 
फिर, जैसे ही कार्यालयों में कामकाज सामान्य होगा। हम जाकर, वहाँ, अपना विवाह पंजीकृत (रजिस्टर्ड) करा ही लेंगे।
जयेश ने फिर सवाल किया था कि, विवाह, रीति रस्म पूर्वक नहीं होने से हमारे आगे के जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है।
माधुरी ने इस पर कहा था कि, जयेश, दुनिया भर के हर हिस्से में, लोग अपने अपने धर्म सम्मत रीति रिवाजों से शादी करते हैं। तब भी खासी बड़ी सँख्या में ये विवाह, विच्छेद, तलाक या डिवोर्स के जरिये टूट रहे हैं।
वचन अदायगी रस्म जैसी ही होती है, वचन निभाने के प्रति ज्यादा लोग नहीं गंभीर दिखते हैं। 
ऐसे में हम, आवश्यकता जनित, इस नई आविष्कृत पध्दति से, शादी करें तथा इसे गंभीरता से निभा दिखायें तो, यह अन्य के लिए भी अनुकरणीय होगा। 
जयेश ने फिर शंका उठाई कि तुम्हारे तर्क, मैं सहमत भी करलूँ तो, हमारे परिवार-रिश्तेदारों में सहमत करा लेना, कठिन होगा।
तब माधुरी ने हँसते हुए कहा था, आप भूल रहे हो कि आप, योग्य अधिवक्ता और मैं, चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। हम यदि तर्कपूर्ण ढंग से, उन्हें समझायेंगे तो, हमारे प्रस्ताव को सम्मति मिलने में कठिनाई ना होगी।   
ऐसा तय किये जाने के बाद से, दोनों ने परिवार में चर्चा और अपने अपने परिचित रिश्तेदारों को मोबाइल कॉल के जरिये मनाना आरंभ किया था।
दोनों के मम्मी-पापा को, राजी करने में, दोनों को ही, विशेष प्रयास करने पड़े थे। दोनों ही इकलौती संतान थे। दोनों के पालकों की, उनके विवाह के, भव्य आयोजन की कामना थी।
तब माधुरी ने तर्क रखा था, हम जैसे परिवार समाज में आडंबर की खर्चीली रीति रखते हैं। जिसकी नकल, आर्थिक रूप से कमजोर परिवार करते हैं। और अनावश्यक ही, स्वयं पर ऋण का बोझ बढ़ा लेते हैं।
हम सादगी से विवाह का उदाहरण पेश करें तो समाज में इसका अच्छा प्रभाव पड़ सकता है।
तब एक अटपटा तर्क उनके पालकों की ओर से आया था कि - ये हमारी नकल करने वाले लोग, औलाद (कम) पैदा करने में, हमारी नकल क्यों नहीं करते?
इस के उत्तर में, जयेश ने प्रश्न किया था कि अगर बच्चा एक गलती करता है, तो क्या माँ-पिता बदले में, उसके साथ, दूसरी गलती करते हुए दिखाई देते हैं? 
इस तरह मान मनौव्वल के बाद उन्हें, सबकी स्वीकृति मिल गई थी। 
फिर पूर्व तय विवाह तिथि 5 अप्रैल 2020 को ही, बिलकुल ही नई पध्दति से, दोनों ने, अपने को, विवाह सूत्र में बाँध लिया था। 
हनीमून पर बाहर जाना संभव नहीं था। अतः परस्पर, दोनों के प्यार भरे दिल को समझने का, कोई नया तरीका भी खोजना था।
समय अनुकूल तथा परिस्थितियों अनुसार प्रासंगिक दोनों ने फिर कुछ तय किया था।
जयेश ने अपने मित्र, प्रसिध्द बेकरी कारोबारी से, एक करार किया एवं अगले दिन 6 अप्रैल से ही, उसकी बेकरी के प्रतिदिन के उत्पाद को, उसके ही सप्लाई वैनों के प्रयोग से, गरीब मजदूर के परिवारों में, जिनके दैनिक अर्थ उपार्जन के काम लॉक डाउन से, संभव नहीं हो पा रहे थे में, मुफ्त वितरण करवाना आरंभ करवा दिया था। 
परोपकार के इस कार्य में, माधुरी और जयेश, पूरे दिन साथ होते थे। वे, एक दूसरे के दिलों को समझते थे। और अपने ह्रदयों को, नित परोपकार की सुखद अनुभूतियों से, भरते थे।
उन्हें आत्मिक सुख अनुभव होता, जब भूखे गरीब बच्चे, उनकी मानवीय संवेदनाओं से प्रेरित वितरित की जा रही भेंट को पा, खुश होते थे।
जयेश माधुरी ने यह काम 3 मई 2020 तक नियमित जारी रखा।
देश में, 4 मई 2020 से कोरोना उन्मूलन के साथ ही, जन जीवन सामान्य होना आरंभ होने लगा और जयेश-माधुरी ने, इस परोपकारी कार्य की आवश्यकता न बचने से, तब इस क्रम को, विराम दिया था।
माधुरी सी.ए.थी, जिसने इस कार्य में, व्यय राशि 27 लाख 83 हजार होना बताई थी।
जयेश-माधुरी ने इसे, विवाह रिसेप्शन एवं हनीमून पर व्यय निरूपित किया था।
साथ ही, लगभग एक माह के इस समय को, अपना हनीमून बताते हुए, दोनों ने साथ ठहाका लगाया था। 
पूरे घटना क्रम पर दृष्टि रखते हुए, दोनों के, परंपरागत विचार वाले पालकों ने अनुभव किया था, कि समय की माँग अनुसार अगर हम परंपराओं में अच्छे परिवर्तन लायें तो यह हमारी, बुध्दिमानी एवं समाज हित होते हैं। 
उन्हें, इधर उधर, जब माधुरी-जयेश की प्रशंसा होती सुनने में आता तो, वे गौरव अनुभव करते, वे, प्रसन्न होते और सोचते कि संतान किसी की हों, तो ऐसी हों।    
विवाह कार्यालय में, अपना विवाह पंजीयन करवाने जब दोनों पहुँचे थे तो, एक अधिकारी ने टिप्पणी की थी कि ,
बिन रीति रिवाज के, आपके विवाह के भविष्य को, जानने की मुझे जिज्ञासा रहेगी। 
इसके उत्तर में, जयेश माधुरी को कुछ कहना नहीं पड़ा था। बल्कि, उत्तर, वहाँ उपस्थित अन्य अधिकारी ने दिया था - आप, शायद इन्हें पहचान नहीं पा रहे हैं।
जयेश-माधुरी, इस समय हमारे शहर के, सबसे ज्यादा चर्चित नाम हैं।
विवाह उपलक्ष्य में, इन्होने जो परोपकारी कार्य का उदाहरण रखा है, वह राष्ट्र भावना एवं मानवता का अव्दितीय उदाहरण है। 
इस पावन कर्म की बुनियाद पर आधारित, इनका दांपत्य बंधन, निश्चित ही अनुपम होगा, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं।
जयेश माधुरी ने हाथ जोड़ अभिवादन एवं आभार व्यक्त करते हुए मुस्कुराते हुए विदा ली थी एवं वहाँ उपस्थित लोगों को छोड़ा था, उनके पीठ पीछे की, चर्चा के लिए ...



-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
17.04.2020
      

Tuesday, April 14, 2020

फ़िक्र नहीं
क्या मानता मुझे ज़माना
फिक्र में रहा मैं कि
तुम्हें बचाना था
कोरोना से तो
निबट लेगी ये दुनिया
बहाना ले
इंसानियत याद कराना था

RCMJ

तुम निरूपित कर लेना ...

तुम निरूपित कर लेना ...

बचपन से ही मैं, अपने लिए जीता व करता आया था, तब भी मैं, बेटा बहुत अच्छा था। 
अपने लिए हर बात में ज्यादा हिस्सा ले लिया करता था, तो भी मैं, भाई बहुत अच्छा था। 
सभी रिश्तों में प्यार, स्नेह मुझे बहुत मिलता था, लेकिन विनम्रता से पेश आने एवं अपनी वाक पटुता के बल से, मैं, अन्य सभी की तुलना में, रिश्तेदार बहुत अच्छा था। 
धन अर्जन, अच्छा कर लेता, जिसे स्वयं के शौक खाने, पीने वस्त्रों अपने बँगले, कार और स्वयं को प्रोन्नत करने पर व्यय करता, लेकिन थोड़ा परिचितों और रिश्तेदारों को भेंट-उपहार पर व्यय करता, इससे मैं, मददगार बहुत अच्छा था। 
पत्नी और बच्चों पर अपना दबदबा बहुत रखता, उनसे भी मेरे हित बहुत सधते, मगर, थोड़ी उनकी फ़िक्र और भविष्य की योजना, मैं, तय कर देता, इससे दुनिया में उन्हें, मुझसा पति या पापा दूसरा कोई न लगता था।       
ऑफिस में, मैं, साहब होकर काम करता, मातहत से सब वह कार्य संपन्न कराता, जिनके बलबूते उपलब्धियाँ मिलती, वह मेरी कहलातीं, मगर थोड़ा सा मित्रवत व्यवहार और उनकी नियतकालिक चरित्रावली में, टिप्पणियाँ अच्छी अंकित कर देता, इससे मैं, बॉस बहुत अच्छा कहलाता।
   
ये, वे सब थे, जो मुझे अपना मानते या परिचित, मित्र या मातहत होकर अपनापन दिया करते थे। 
इसके समानान्तर जीवन में, एक और समूह होता था, यह मुझे मेरे पासपड़ोस में मिलता, विद्यालय आदि में मिलता, जहाँ मैं पढ़ता, कार्यालय, शहर में मिलता, जहाँ मैं सर्विस करता था। 
इनमें कुछ पराये अपने से होते, कुछ अपने भी पराये सा व्यवहार करते। अपने हितों की रक्षा करते हुए, थोड़ा विचार, व्यवहार, परोपकार, मैं, उनमें भी करता था। 
मगर यहाँ, मुझे उनकी प्रशंसायें तो दिखावटी सी मिलती और पीठ पीछे की निंदायें/आलोचनायें बहुत मिलतीं थीं।     
यथा-
मुझे, अच्छे परिणाम मिलते तो सुनने मिलता, योग्यता तो नहीं लगती, लगता है, भाग्य, इसका साथ दे रहा है। 
दान आदि करता तो सुनने मिलता देखो, दानवीर दिखने को, ये, मरा जा रहा है।
मितव्ययी हो बचत करता और उसे सुविधा, साजो-सामान एवं घर, अच्छा करने इत्यादि में, लगाता तो कहीं सुनाई पड़ जाता कि, ये,ऊपर की अच्छी कमा लेता है।   
अनुशासित रह, स्वास्थ्य वर्धक दिनचर्या और खानपान रख, एवं नियमित व्यायाम से, अपने शरीर सौष्ठव से अपनी उम्र से, अच्छी लगती फिटनेस, सुनिश्चित करता तो, इसमें, परिहास यह सुनने मिलता कि देखो, इसके रसिक तबीयत को, इस उम्र में रंगीला रतन बना फिरता है। 
यूँ, अपने और पराये के दो वर्ग और कतार रुपी, समानांतर पाँतों पर मेरी जीवन रुपी गाड़ी चलती आई थी। 
इस तरह, एक दीर्घ कही जाने वाली जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, अब मैं नब्बे बसंत देख चुका था। 
मेरे ईश्वर ने यहाँ भी मुझे अनुग्रहित किया था। 
हृदयाघात से, मर जाने वाली अनुभूति, के बिना, उन्होंने, मेरे प्राण नहीं लिए थे। अपितु उन्होंने, पिछले एक वर्ष से मुझे बिस्तर से, लगा रखा था। 
जिसमें, मैंने, अपनों की देखरेख बीच, घर में ही, अच्छा एकांत और शांति पाई हुई थी। 
जहाँ, यह संभव हो सका था कि, निरपेक्ष रूप से, मैं, अपने पूर्व जीवन को, समालोचक दृष्टि से स्वयं, देख पाया था। 
अब, यह मेरे इस जीवन का, अंतिम पल है, जब, मेरे मन में, यह विचार आया है कि 
तुम, जैसा तुम्हें अच्छा लगे, मेरे जीवन को, निरूपित कर लेना, मगर, मैं संतुष्ट हूँ कि मैं सार्थक जीवन जी पाया हूँ। 
फिर मैंने पूर्ण धीर भाव से, अंतिम श्वाँस ली थी .. 



-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
14.04.2020

Sunday, April 12, 2020

नहीं छोड़ना उसे कुहकुहाना
न उसे कोरोना से घबराना है
ऋतु आई जब अमिया की तो
कोयल को प्रिय गान सुनाना है

चाहिए रानी लक्ष्मीबाई सी वीराँगना (2) ..

चाहिए रानी लक्ष्मीबाई सी वीराँगना (2) ..

कल रात ही मैंने, प्रिंट आउट्स निकाले हुए थे, जिसमें अपने टीम के सदस्यों को 'क्या करना और क्या नहीं करना' (Do's & Don'ts) का स्पष्ट उल्लेख था।
गंतव्यों के पहुँचने तक ही, सभी टीम सदस्यों ने मेरे द्वारा वितरित प्रिंट आउट्स को पढ़ लेना था, जिनमें सार यह था कि -
"हम, अपने कम पढ़े-लिखे, गरीब नागरिकों की सहायता के प्रयोजन से, काम करने वाले हैं। यह काम स्वस्फूर्त है, हमने ही करना तय किया है, यह हमें स्मरण रखना है। 
हमारे हितग्राहियों के, किसी भी उत्तेजित करने वाले व्यवहार पर, हमें रिएक्ट नहीं करना है। विनम्रता से पेश आते हुए, उन्हें भी विनम्रता की तरफ बढ़ाना है। हमारा दायित्व, उन्हें जागरूक करना भी है, ताकि उनके आसपास कोई संक्रमित हो तो, उससे वे अपना बचाव कर सकें।"
अपने गंतव्यों पर पहुँच कर, हमारी टीमों ने, क्षेत्र के पार्षद द्वारा नियत कीं, कुछ खुली सी दस जगहों में, टेंट लगाये थे।
तब, अपने साथ लायी सामग्रियों से, हर टीम के पाँचों सदस्यों द्वारा दिन भर, पूरी-चटनी बनाई थी।
8 पूरी प्रति पैकेट, मय चटनी के, लिफाफों में रख, ऐसे पैकेट, उन लोगों में वितरित किये गये थे, जिनके खाने की व्यवस्था, उनके घर में, किसी किसी कारण वश नहीं हो पा रही थी।
हमने पैकेट देते हुए सबसे यही अनुरोध किया था, जिसके घर राशन उपलब्ध है, वे यह मदद न लें।
डिस्टैन्सिंग के लिए चूने की मार्किंग की थी। जिससे हर व्यक्ति को ठीक दूरी बनाये रखते हुए, सामग्री प्रदान की जा रही थी।
साथ ही हितग्राहियों को, संक्रमण न फैलने देने के लिए साफ़ सफाई और अन्य सावधानी के बारे में बताया जा रहा था।
अपने साथ लाये रुमाल/गमछे, उन्हें, मुहँ में बाँधे जाने के लिए भी, हमने वितरित किये थे।
रात्रि 8 बजे तक साथ लाई हुई, पूर्ण सामग्री के उपयोग से, हर टीम ने 300 की औसत से, भोजन पैकेट वितरित किये थे।
फिर सब टीमें जहाँ से सुबह निकलीं थीं, वहीं इकठ्ठी हुई थीं। सभी सदस्य पहले दिन के कार्य के, आशा अनुरूप संपन्न होने से खुश थीं। और अगली सुबह फिर, आज जैसे ही कार्य के लिए संकल्पित भी थे। फिर सभी, अपने अपने घर के लिए, रवाना हो लिए थे।
दूसरा दिन भी लगभग पहले जैसा ही बीता था। जिसमें, दो बातें अलग हुईं थीं।
पहली, नेहा की टीम पर, शराब के नशे में एक व्यक्ति, अश्लीलता और दुर्व्यवहार से पेश आया था।
नेहा ने यह स्थिति, विनम्रता और वाकपटुता से यह कहते हुए सुलझा ली थी कि
"भैय्या, आप से करबध्द प्रार्थना है कि आप, अपनी ख़राब करनी से, हमारी सहायता से, लाभांवित हो रहे, अपनी बस्ती वालों को वंचित न कीजिये। अगर आपकी, इस तरह की हरकत से, हमने यह काम बंद किया तो, कुछ मासूम बेचारे, भूखे रहने को विवश होंगे। "  
शराबी तो शायद नहीं समझ सका था लेकिन वहाँ उपस्थित अन्य पर, अपेक्षित प्रभाव हुआ था। उपस्थित लोगों और महिलाओं ने इस बात को समझा था और किसी तरह उसे, वहाँ से हटा लिया था।
दूसरी बात यह हुई थी कि एक टीवी समाचार चैनल के कैमरामैन एवं संवाददाता ने, हमारे कार्य को सभी दस जगह रिकॉर्ड किया था। रात होते होते जिसका प्रसारण पूरे देश ने देखा था।
हम सभी का उत्साह, इससे कई गुणा बढ़ गया था। कम से कम यह, मेरे पूर्व विचारे गए अनुसार हुआ था। साथ ही अपेक्षा से ज्यादा शीघ्रता से, दूसरे दिन ही हो गया था।
तीसरे दिन, इस प्रसारण का लाभ मिला था, हमारे पास और वोलिंटिअर्स ने संपर्क किया था। जिससे आगे के दिनों में, हमारे कुछ सदस्यों को बारी बारी छुट्टी का विकल्प उपलब्ध हो गया था।
एक और फायदा यह मिला था कि दानवीरों ने हमारे लिए आवश्यक सामग्री एवं वाहन आदि के खर्चे उठा लिए जाने का प्रस्ताव किया था। हमने जिसे सहर्ष स्वीकृत किया था।
जिससे आरंभिक तीन दिनों में मेरे द्वारा लगभग 1.5 लाख रूपये के व्यय के बाद, मुझ पर आर्थिक भार और नहीं पड़ा था।
तीसरे दिन तक, हमें मिली इन सफलताओं के समाचार ने, आगे के दिनों में, इस मॉडल पर काम करने के लिए, देश भर की महिलाओं को प्रेरित किया था।
और फिर इससे कोरोना के लॉक डाउन के बीच भी, हमारे देश में हर व्यक्ति की उदर पूर्ति का उपाय निकल गया था। वह भी बिना आपाधापी एवं बैर वैमनस्य के।
बाद के दिनों में अनाज और अन्य आवश्यक वस्तुयें भी हमारे टेंट तक, समाज के दानवीर पहुँचाने लगे थे। जिनके वितरण से घरों के भोजन अभाव खत्म हुए थे। जिससे, हम पर भोजन पैकेट के दबाव भी कम होने लगे थे। 
इस परोपकारी कार्य से देश भर में सरकार, प्रशासन और पुलिस को अत्यंत राहत मिली थी।
फिर वह दिन आया जब  "वह चुनौतियाँ भी आ सकती हैं, जिनकी तुम्हें अभी कल्पना ही नहीं"  पापा जी का ऐसा आगाह किया जाना मुझे स्मरण आया था। दुर्भाग्य से हमारे कार्य के ग्याहरवें दिन मेरी तबियत ख़राब हुई थी।
शौर्य और मेरा टेस्ट कोरोना पॉजिटिव आया था। संतोष वाली बात यह हुई थी कि बच्चे एवं पापाजी का टेस्ट नेगेटिव आया था।
मेरे संपर्क के सदस्यों के टेस्ट भी नेगेटिव रहे थे। और हमारी रखी गई सावधानी से, दूरी रखते हुए, हमारी टीम के भोजन वितरण से, सामग्री ग्रहण करने वालों तक भी, संक्रमण फैला नहीं था।
ऐसा प्रतीत होता है, हम तक, कोरोना संक्रमण बैंक से आया था।
शौर्य और मैं अस्पताल में भर्ती हुये थे। मेरी अनुपस्थिति में टीम कोआर्डिनेशन एवं अन्य प्रबंधन का दायित्व मेरी शिष्या, नेहा ने अथक परिश्रम, अदम्य साहस एवं दृढ इक्छाशक्ति से निभा लिया था।
अंततः कुछ दिनों के उपचार में शौर्य और मैं स्वस्थ हो घर लौटे थे। मगर आगे 14 दिन सावधानी के लिए, हमें आइसोलेशन में रहना पड़ा था।
इस तरह मेरा दिया जा सकने वाला योगदान, मैं कर न सकी थी। ऐसे मेरी व्यक्तिगत उपलब्धियाँ कम रह गईं थीं। 
ऐसे परोपकार के कार्यों में ये सब बातें तब गौड़ हो जातीं हैं, जब हम परम उपलब्धि (Ultimate Achievement) पाने में सफल रहते हैं।
फिर वह शुभ समय आया था। हमारे देश में हर स्तर पर त्याग, समर्पण एवं सहयोग ने, मई 2020 के अंत तक, अत्यंत कम जनहानि रखते हुए देश को कोरोना मुक्त करा लेने में सफलता मिली थी। जो शेष विश्व की जनहानि की तुलना में न्यून रही थी।
देश और परिस्थिति के दृष्टिकोण से यह बहुत सही समय पर (Timely) हुआ था। अन्यथा बरसात के आ जाने पर, इतनी व्यवस्थायें रख पाना कठिन होता और देश में बड़ी मात्रा में जनहानि सहित अराजकता फैलने का पूरा अंदेशा होता।
अंत में मेरी अनुशंसा पर बिना शोध पत्र पूर्ण किये, विश्वविद्यालय द्वारा नेहा का पीएचडी प्रदान की गई।
तब से, हमारी अत्यंत प्रिय नेहा को, हम स्नेह अनुराग से, वीरांगना लक्ष्मी बाई कहते और वह खिलखिला के हँस देती ..       


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12.04.2020

Saturday, April 11, 2020

दिमाग में भरा नफरत का कूड़ा
मैंने सब निकाल फेंका है
खतरे को लेकर संशय में हूँ मैं कि 
खतरा कोरोना से या नफरत से है

कोरोना संक्रमितों के
उपचार चिकित्सक कर रहे
स्व-विवेक से नफरत संक्रमण का
उपचार मैं कर रहा हूँ
RCMJ
मम्मा,
एक रक्षा सूत्र, आप
बाँधों ना!
कोरोना वॉरीअर्स
की कलाई में जो-
"मानव गुणों से हो सुसज्जित
स्वयं के प्राणों को संकट में डाल
संक्रमित रोगियों के प्राण रक्षा
करने में, दिन रात एक कर रहे हैं"
RCMJ 

आज चाहिए रानी लक्ष्मीबाई सी वीराँगना ..

आज चाहिए रानी लक्ष्मीबाई सी वीराँगना..

विश्व-विध्यालय में, मैं इतिहास की प्रोफेसर थी। मैं स्वयं डॉक्टरेट थी। कई छात्र छात्राओं ने, मेरे मार्गदर्शन में पीएचडी की थी/कर रहे थे। नेहा भी इस समय मेरी ऐसी विध्यार्थी थी।
उसने पीएचडी का विषय "आज चाहिए रानी लक्ष्मीबाई सी वीराँगना" चयन किया था।
उसे गाइड करने के लिए, मुझे भी रानी पर, गहन अध्ययन करने का सौभाग्य मिला था। इस सबमें, मैं उनकी अनन्य प्रशंसक हुई थी।
रानी झाँसी के अतिरिक्त, मैं एक और व्यक्ति से अत्यंत प्रभावित थी। ये, डॉ॰ वर्गीज़ कुरियन थे, जो हमारे देश मे सफेद क्रांति के प्रणेता थे।जिन्होंने अद्भुत प्रशासनिक कौशल और समर्पण का परिचय देकर, कोआपरेटिव के माध्यम से, दुग्ध उत्पादकों को अच्छे जीवन अवसर उपलब्ध कराये थे। डॉ॰ कुरियन ने, सहकारिता में, उपलब्धियों के माध्यम से, देश/समाज सेवा का, अभूतपूर्व कीर्तिमान भी रचा था।
इन दो आदर्शों ने प्रेरित कर मुझे यह ललक दी थी कि काश! मैं, अपने जीवन में, कुछ ऐसी उपलब्धियाँ अर्जित करूँ। 
फिर दुनिया पर, यह कोरोना संक्रमण विपदा आई थी। मेरा तभी से, इसमें अपनी कोई भूमिका लेने का मन करने लगा था।
लॉक डाउन के कारण मुझे, छुट्टियाँ मिली हुईं थीं। अपने 8 एवं 5 वर्षीय दो बेटों, बैंक अधिकारी पति (जिनकी ड्यूटी जारी थी) एवं पापाजी (पति के पिता) के बीच, घर में सानंद रह रही थी।
साथ ही सोते जागते, हर समय, मेरे मन में वैचारिक घोड़े दौड़ते रहते थे। सरकार एवं प्रशासन के समक्ष, कोविड-19 से पेश आ रही चुनौतियों में, निपटने में, सहायक होने के लिए, मेरे अपने योगदान का प्रकार खोजती रहती थी।
तब एक नई समस्या उत्पन्न हो गई थी। हमारे नगर के झुग्गी-झोपड़ी में संक्रमण सामुदायिक प्रसारण चरण (Community Transmission Stage) में आ गया था।
 नारी ह्रदय में ममता एवं करुणा का वास, ज्यादा होता है।
मुझे हजारों के मारे जाने की आशंका दिखने लगी। लगने लगा कि अभाव में एवं कम पढ़े लिखे, वहाँ के लोगों को, उनके घर तक भोजन की व्यवस्था न की जा सकी तो, अराजकता फ़ैल सकती है। सरकार, प्रशासन और डॉक्टर्स की मुश्किलें और बढ़ सकती है। साथ ही कोरोना से मौत विकराल रूप ले सकती है।
चुनौतीपूर्ण इस परिस्थिति में मेरे दिमाग में एक योजना आई थी।
अपने दो आदर्शों में से एक, मुझे प्राण तक बलिदान करने को प्रेरित कर रहीं थीं। दूसरे सहकारिता आंदोलन के नेतृत्व की, मुझे, सूझ बूझ ग्रहण करने को प्रेरित कर रहे थे। दिन में मेरे मन में, इसकी विस्तृत कार्य विधि ने आकार ले लिया था।
अब मुझे प्रतीक्षा थी, शौर्य (मेरे पति) के ड्यूटी के बाद घर लौटने की।
रात्रि भोजन के पूर्व पापा जी, शौर्य और मैं पापा जी कमरे में अधलेटे से चर्चा कर थे। तब मैं, अपनी ठानी बताने के लिए, तन कर बैठ गई थी। उन्हें, अपनी योजना का ब्यौरा सुनाया था। मैंने फिर उनसे, उनके परामर्श के लिए पूछा था।
शौर्य से पहले, पापा जी ने उत्तर दिया था- बेटी, तुम्हारा कार्य दो चार दिनों का नहीं, महीनों का हो सकता है। तुम, सोच लो बनाये रख सकोगी यह हौसला? जबकि वह चुनौतियाँ भी आ सकती हैं, जिनकी तुम्हें अभी कल्पना ही नहीं।
मैंने दृढ़ता से कहा था- पापा जी, मुझे ज्ञात है कि मेरे इस कार्य में मेरी, जान तक जा सकती है।
पापा जी ने कहा था - ठीक है बेटी, घर में, सबके लिए भोजन तैयार करना और बच्चों की सम्हाल मैं ले लेता हूँ। मेरी ओर से, हाँ है।
अब गेंद, शौर्य के पाले में थी।           
हमेशा की तरह अपने ओंठों पर मन मोहिनी, मृदु मुस्कान (जिस के कारण, कभी मैं उसकी प्रेम दीवानी हो, उन पर, अपना दिल हार बैठी थी)  लाते हुए, शौर्य बोले थे-
मुझे, एक महान पत्नी का पति के, पहचान बनने की ख़ुशी होगी।
फिर, बच्चों सहित सबने एक साथ भोजन ग्रहण किया था।
सोने जाने के पूर्व मैंने कार्य/योजना क्रियान्वयन की, रुपरेखा एक रजिस्टर में दर्ज की थी। फिर अति उत्साह में मन को संयत किया था, और सोने के लिए, शौर्य के बगल में जा लेटी थी। जानती थी कि पर्याप्त सोना, फिटनेस एवं कार्य दक्षता की दृष्टि से आवश्यक था।
अगला दिन रविवार था। पापा जी, बच्चों के साथ और रसोई में बिजी रहे थे।
सबेरे से ही शौर्य ने, मोबाइल पर पहले, उस स्लम एरिया के पार्षद के सहयोग का आश्वासन प्राप्त किया। तत्पश्चात कुछ उनकी सहायता एवं कुछ अपने कॉंटॅक्ट के जरिये,  मेरी योजना में आवश्यक, दस पिक अप वाहन, दस तखत, इतने ही सिलेंडर,चूल्हे, टेंट-चेयर, पाँच क्विंटल आटा, आवश्यक नमक किराना, 100 किलो, टमाटर, प्याज मिर्ची आदि तथा पेपर लिफाफे आदि की व्यवस्था कराते रहे। जिसके होने के बाद लगभग पचास हजार का व्यय एक दिन के लिए अनुमानित था। यह मैंने अपनी बचत में निकालना तय किया था।
फिर शौर्य ही ने पचास महिलाओं एवं कुछ ड्राइवर वाहन के परमिट, पास भी अरेंज करा लिए थे।
मैंने अपनी सह-शिक्षिकाओं एवं विद्यार्थियों में से नेहा सहित, 50 को अपनी योजना विवरण सुनाते हुए, अपने सद्कार्य एवं प्रयोजन में हिस्सा लेने को राजी किया था।
मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही थी कि शौर्य के सहयोग से, एक दिन में ही इतनी व्यवस्थायें कर लीं गईं थीं।
इससे अगली सुबह से ही हमारी योजना क्रियांवित किया जाने का रास्ता प्रशस्त हो गया था।
जिस तरह चुनाव में मतदान दल, चुनाव बूथ के लिए प्रस्थान करते हैं (मुझे मतदान कराने का अनुभव था), उसी तरह, सभी साधन सामग्री के साथ, नियत समय पर हम सबने, दस टीम में विभक्त होकर, अपने अपने साधन सामग्री के साथ झुग्गी झोपडी इलाके  के दस चिंहित स्थानों की ओर रवानगी ली थी। 



(शेष भाग अगली पोस्ट में)
-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
11.04.2020

 



Thursday, April 9, 2020

एक घर की जिम्मेदारी ...

एक घर की जिम्मेदारी ....

ऑन्टी एवं दीदीयों, की रोजमर्रा की डाँट-फटकार, शिकायतें भी लगता है, एक तरह का मनोरंजन ही होता था।
विकल्प कई होते थे, जैसे- एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो।
या       
कोई ज्यादा ही भड़क रहीं हों तो,  बिना दिल पर लिए, ईंट का जबाब पत्थर से दे दो, और सिर झटक के, (नज़र बचा के) हँस लो, इत्यादि।
ऐसी बहस में, ज्यादा ही कोई बुरा मान गई, तो भी क्या होता था!
ज्यादा से ज्यादा, उस घर का काम छूट जाता था।
इसकी भी, फ़िक्र नहीं करनी होती थी, काम खुद करने की फुरसत नहीं आज मालकिनों को, यहाँ छूटता तो कहीं और लग ही जाता था।
ऐसे ही दस घरों में विभिन्न तरह के काम करते हुए, मैं, लगभग पंद्रह हजार कमा लेती थी। किसन (मेरे पति) मजदूरी से 25 हजार कमा लाते थे। बूढी सास सहित दो छोटे बच्चों के परिवार में, इतने से ही खर्चा अच्छी तरह चल जाता था। कुछ बचत भी हो जाती थी। जिसे हम बैंक में जमा करा देते थे।
यह सब बातें, 20 मार्च के पहले की, बीती बातें हुईं थीं। उस दिन के पहले, कुछ दिनों से कोरोना, कोरोना सुनाई पड़ रहा था।
21 मार्च से इसका डर बढ़ गया था। सब काम-धंधे बंद होने लगे थे। गाड़ी, ट्रेनें बंद होने लगीं थीं। टीवी खोलो तो, डरावनी बातें पता चलतीं थीं। आसपास के परिवार, सब गाँव जाने लगे थे।
तब किसन ने कहा था, हम कहीं न जायेंगे।
फिर किसन और मुझे, मालिक, मालकिनों ने काम पर आने को मना किया था। लेकिन विश्वास दिलाया था कि बिना काम किये के, आधे पैसे देंगे। 
हमने संतोष किया था कि 18-20 हजार भी हुए तो, किसी तरह गुजारा चल जाएगा।
दस दिन हुए थे आस पास सूनापन रहने लगा था। कामकाजी हम, बिन काम के घर बैठे तो हाथ-पैर में दर्द लगने लगा था।
अच्छा यह हुआ कि हमारे शहर में कोरोना नियंत्रित हो जाने से, थोड़ी छूट हो गई थी।
मेरे पास में 5 घर ऐसे थे, जहाँ परिवार में जवान तथा दीदी भी सर्विस करती थीं। अब, उन घरों में, दीदी के घर पर रह जाने के कारण, मेरे न होने से भी, काम की विशेष तकलीफ, नहीं रह गई थी।
मुझे चिंता उन 5 घरों की हुई, जहाँ अंकल-ऑन्टी रिटायर्ड थे और घर में दो ही, ऐसे सदस्य थे। मैंने, मोबाइल से इन घरों में काम पर आने को पूछा था तो, वे ख़ुशी से तैयार हुए थे। 3 अप्रैल से, मैंने इन घरों में काम फिर शुरू कर दिया था।
"तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो
तुमको अपने आप ही सहारा मिल जाएगा"
हमें, गाने की इन दो पंक्तियों ने, ऐसा सहयोग करने को प्रेरित किया था।
पहले दिन ही, नूतन ऑन्टी ने, जो शौकिया सिलाई भी करतीं थीं, उन्होंने, मुझे घर में उनके द्वारा सिले हुए मुँह, नाक कवर करने वाले, 100 कपड़े (मॉस्क) दिए थे। अंकल ने, सावधानियाँ बताईं थी। सावधानियों एवं मॉस्क के प्रयोग से मैंने, उस दिन से काम शुरू कर दिया था।
बहुत से मजदूर/माली गाँव चले गए थे। इसलिए मेरे वाले घरों में, गमलों एवं बगिया की देखरेख नहीं हो पा रही थी। किसन के लिए कहे जाने पर, मैंने उसे इन घरों में काम पर लगवा दिया था।
गीता ऑन्टी के घर में, जहाँ वे चिढ़चिढ़ बहुत करती थीं, उनके घर अंकल की पेंशन कम थी। मुझे दिए जाने वाले पैसों को लेकर भी काटा काटी होती थी। सामान्य हालातों में, मैं, उनके, काम नहीं करने की, सोचा करती थी। लेकिन गीता ऑन्टी-अंकल सबमें ज्यादा बूढ़े थे। मैं न करूँ तो, उन्हें कोई दूसरा, मिलने वाला नहीं था।
इतने दिन, मैंने काम नहीं किया तो सारा घर अस्त-व्यस्त हुआ था। अतः इन विशेष परिस्थिति में मैंने इस घर को नहीं छोड़ने का फैसला लिया हुआ था।
हम घर में टीवी भी देखा/सुना करते थे, जिस पर सभी तरफ से आपसी सहयोग की अपील सुनने मिलते थी।
मेरा गीता ऑन्टी के घर 10 तारीख का महीना चलता था।
शायद गीता ऑन्टी ने मेरे काम न करने वाले दिनों में, मेरे काम करने के महत्व को, पहचाना था। पिछले दिनों में वे,मुझसे बहुत प्यार से पेश आ रहीं थीं। आज जब में काम कर वापिस जाने लगी तो, उन्होंने मुझे रोका था।
जो मेरा पैसा कई बार माँगे जाने के बाद, मुश्किल से ही और काटा काटी के उपरांत देतीं थीं, उन्होंने इस बार, बिना कटौती के पूरे 1000 रूपये देने के लिए, मेरे तरफ बढ़ाये थे। मेरे लिए उनका, यह व्यवहार आश्चर्यजनक था। लेकिन मैंने भी, कुछ और तय कर रखा था। मैंने पैसे लेने से मना कर दिया था।
वे चौंक गईं, कहने लगीं, ऐसा क्यों, क्या तुम्हें और ज्यादा चाहिए हैं?
मैंने कहा, नहीं, मैं, आपके घर, बिन तनख्वाह के काम करुँगी।
उन्हें संशय हुआ कि मैं किसी नाराजी में मना कर रहीं हूँ। वे मुझे लेने को मनाने लगीं, और बोलीं, बेटा क्यों नाराज हो? हम बूढ़ों का, तुम्हारे सहारे बिना चल न पायेगा।
मैंने कहा, ऑन्टी, मैं नाराज नहीं हूँ।
उन्होंने पूछा, फिर तनख्वाह क्यों नहीं ले रही हो।
मैंने कहा - ऑन्टी, हमारे प्रधान मंत्री, हम सब से अनुरोध कर रहे हैं कि, मुसीबत के इस समय में,  हम सब, एक घर की जिम्मेदारी लें।
इस पर, मैंने, आपके घर के काम की, जिम्मेदारी लेना तय किया है।
मेरे उत्तर पर ऑन्टी मुझे विस्मय से यूँ देख रही हैं, जैसे किसी बेसुरे ने लता मंगेशकर जैसे सुर ताल में कर्णप्रिय, मधुर गायन, सुना दिया हो ... 
-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
10.04.2020
   
अपने आग्रह तो
मैं चाहता कि सब मानें
औरों के आग्रह से मगर
मतलब न रखता हूँ
मनुष्य हूँ मुझे मिला
उन्नत मस्तिष्क है
फिर भी विवेकवान का
परिचय न रखता हूँ

नुसरत अंजुम ... (कहानी)

नुसरत अंजुम ...  (कहानी)


मिनी ब्रेड पर मक्खन लगा कर स्वयं मुझे खिलाते हुए बहुत ही प्यार से मुझसे कह रही थी-
पापा, इतना काम करोगे तो बीमार पड़ जाओगे।
मैंने जबाब दिया था-
बेटी, चिंता न करो। इस तरह के मौके बहुत नहीं होते, जब हमें मानव समाज को इतना देना होता है। 
दीपा, (मेरी पत्नी) भी ब्रेक फ़ास्ट के लिए, डाइनिंग टेबल पर साथ थीं हम पापा-बेटी को सुनते हुए वे, हल्के से मुस्कुरा बस रहीं थीं।
मिनी ने कहा-
पापा, अच्छा नहीं लगता, आप 18-18 घंटे काम पर रहते हो, लगातार 20 दिन हो गए हैं।
मैंने, प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-
बेटे, लेकिन रोज वापिस तो आ जाता हूँ ना! 
तुम्हारे दादा ने, जब मैं कॉलेज पढ़ता था, एक बार कहा था, 'बेटे, कभी मौके आते हैं, जब हमारा जीने से भी अच्छा, मर जाना होता है। मानवता के लिए, कभी ऐसे बलिदान का अवसर आये तो, तुम मरने से भी नहीं डरना।'
मिनी बेटे, तात्पर्य यह है कि मानवता हमसे आशा कर रही है, अभी जितना दे सकते हो, दो अपना इसके खातिर। 
दीपा तब पहली बार, बोलीं थीं-
काम जितना बन पड़े कीजिये, मगर अशुभ न बोलिये।             
मैंने मुस्कुरा कर दोनों के कंधे, प्यार से थपथपाये थे।
फिर पोर्च में अपनी गाड़ी में आ बैठा था। ड्राइवर ने गेट बंद किया था। कार चलने लगी तो मैंने कहा-
आबिद, ऑफिस चलो। 
मैं पुलिस अधीक्षक था। स्वास्थ्य कर्मियों पर, हमारे एक इलाके में, कल हुई, पथराव एवं बदसलूकी की घटना पर, राज्य सरकार ने अत्यंत नाराजी ज़ाहिर की थी। मुझ पर एवं जिलाधीश पर, जिससे अत्यंत मानसिक दबाव था।
कार्यालय में अपने अधीनस्थ, दस अधिकारियों से बैठक करते हुए, मैं कह रहा था-
सख़्त कार्यवाही से लोग डरेंगे जरूर, मगर उनके दिमाग का शरारत/अपराध करने वाला कीड़ा, इससे मरने वाला नहीं है। उसी से उलझ, इस विपदा की घड़ी मेंजिससे, हम देश और समाज को रचनात्मक योगदान नहीं दे सकेंगे।
फिर मैंने, अपने दिमाग में आई योजना, उन्हें सुनाई थी। उनको विकल्प दिया था कि जो चाहें, वही मेरे साथ चलें, जान को खतरा हो सकता है। अतः जो घरेलू जिम्मेदारीवश, जान पर खेलना न चाहें, उन्हें अभी छूट है। चार अधिकारी, जिसमें एक लेडी भी थी ने, मेरे साथ, यह खतरा उठाने का विकल्प लिया था।
मैंने कलेक्टर महोदय को मोबाइल कॉल के जरिये, अपनी योजना बताई थी।
उन्होंने कहा था-
मैं इस हेतु प्रशासनिक कवर देता हूँ। मगर आप सोच लीजिये, यह युक्ति काम न आने पर, आपकी जान खतरे में हो सकती है। सरकार हम पर सख्त कार्यवाही करेगी सो अलग।
मैंने उन्हें आश्वस्त किया था-
नहीं, यह सब नहीं होगा,सर !
मेरे आत्मविश्वास ने उन्हें, सहमति को बाध्य किया था। 
फिर हम उस इलाके में पहुँचे थे। कल हुई घटना पर, पुलिस कार्यवाही के भय से, वहाँ सब घर में बंद दिख रहे थे। हमारे साथ आई, ट्रैक्टर ट्राली में, पत्थर रखे हुए थे। 1 छोटे चौराहे में, मेरे 4 मातहत साथी एवं मैं, वर्दी में नहीं थे, मेरे हाथ में स्पीकर था। मैंने, कहना शुरू किया था-
मैं, पुलिस अधीक्षक अपने चार साथियों के साथ आपके बीच निहत्था आया हूँ। साथ में पत्थर भी लाया हूँ। जो आपके प्रयोग के लिए हैं।
कोई और शोरगुल न होने से, मेरी आवाज गूँज रही थी।
मैंने कहना जारी रखा था-
जिस प्रकार, हम आये हैं उससे, आपको, कोई खतरा नहीं है।  
मैं, अपील कर रहा था कि-
यहाँ आइये, या फिर आप घर से ही सुनें, और बाहर आयें तो, आपस में दूरी रखने तथा मास्क की सावधानी रखें।
 फिर रुका था, इन्तजार किया था। एक-दो करके, 3-4 मिनटों में, हमारे आसपास, करीब 100 पुरुष-स्त्री आ गए थे। ज्यादातर ने, पहचान छिपाने के लिए, मुहँ पर कपड़ा या नक़ाब डाला था, मगर यह कपड़ा/नकाब कोरोना के खतरे की दृष्टि से अच्छा था।
अब बहुत ही संयत, मधुर और ओजस्वी संबोधन का दबाव मुझ पर था। मेरी योजना की सफलता इसी पर निर्भर थी।
मैंने आगे कहना आरंभ किया-
कल आप में से कुछ लोगों ने, हमारी स्वास्थ्य एवं प्रशासन की टीम जो, आपकी ज़िंदगी की फ़िक्र में, सेवा देने पहुँची थी, पथराव किया, जिसमें तीन युवा  डॉक्टर्स एवं स्टाफ बुरी तरह जख्मी हुए हैं। 
आप सोचिये, जिन की मदद से, हममें से जो, कोरोना संक्रमित हैं, उनकी प्राण रक्षा की जा सकती है। वही अगर घायल रहे तो कैसे, यह संभव होगा?
मैं बोलते हुए रुका था, देख रहा था की आसपास भीड़ धीरे धीरे, आठ सौ हो गई थी।
हमारी स्थिति शिकार के लिए बँधे पाड़ों  जैसी थी, सामने की भीड़ में, कुछ लोगों की हिंसक प्रवृत्ति रूपी शेर, कभी भी, हम पर हमला कर सकता था।
फिर मधुर स्वर में आगे कहा था-
जो विपत्ति आज हम पर आई है, उसे हराने के लिए हमें आज़ादी के संघर्ष के तरह का जज़्बा रखना होगा, एक जुट रहना होगा। तभी ज़िंदगी की जीत होगी और मौत हारेगी। आप देखिये हम पाँच निहत्थे, अपने प्राणों तक का बलिदान देने के लिए, रानी लक्ष्मीबाई, सुभाष चंद्र बसु, चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंग तथा राजगुरु की तरह तैयार हैं। 
कोरोना पर हमारी जीत, आपके, हमें मिले सहयोग पर निर्भर होगी। हमने पिछले 20 दिनों में, कोई बर्बरता की हो और यदि, आप, हमें दुश्मन की तरह देखते हैं, तो आप हम पाँचों की हत्या कर दीजिये। पत्थरों से मारे जाने के लिए, हम ये पत्थर लाये हैं। 
आप आइये, इन्हें उठाइये और हमें मार दीजिये। अन्यथा मौका दीजिये कि हम आप की नहीं अपितु अन्य नागरिकों पर भी आसन्न विपत्ति से, सबकी रक्षा के लिए, कारगर व्यवस्था बना सकें। 
फिर रुक कर कहा-
अब मुझे और कुछ नहीं कहना है। आप को ही करना है, हमसे सहयोग या हमारी हत्या। 
फिर मैं, चुप हो गया था।
तब भीड़ में से दस-बारह लोग, ट्रॉली की तरफ बढ़ने लगे थे।
ठहरो!,
तभी, एक कड़कती नारी आवाज ने, उनके बढ़ते कदमों को रोक दिया था। वह बढ़कर मेरी तरफ आई थी, मुझसे माइक लिया था। लग रहा था, उसे वहाँ के लोग, पहचानते थे और वहाँ उसका प्रभाव, अच्छा था।
उसने, चेहरे पर से, नक़ाब हटाया था। वह लगभग 40 वर्षीया, सुंदर स्त्री थी। उसने, हमारे लिए, माइक पर अपना परिचय देते हुए, कहना प्रारंभ किया था-
मैं, नुसरत अंजुम कॉलेज में प्रोफेसर हूँ। 
फिर भीड़ की तरफ मुखातिब हो, इस तरह कहती गई थी-
माना कि हमें, पुलिस से एवं देश के अनेक लोगों से शिकायत है। मगर इनके कहने पर आज, हाथ में पत्थर नहीं उठाना है। हमारा, उठाया हरेक पत्थर, देश और दुनिया की मीडिया द्वारा भयानक रूप से बयान किया जाएगा। 
पहले से ही, हमारे विरुध्द फैली नफरत, इनके मारे जाने पर और बढ़ेगी। इससे, हम सबकी ही नहीं, अपितु दुनिया भर के हमारी कौम के लोगों की गुजर बसर में मुश्किलात बढ़ेगी। ये दुरुस्त फरमाते हैं, कम से कम कोरोना वायरस से लड़ाई में, इन्होने कोई काम, हमारे विरुध्द, नहीं किया है। 
आज इस समय में हम सारे बैर-वैमनस्य अलग रखें। इनको सहयोग कर हम कोरोना से जंग को जीतें। तथा इससे हम ज़िंदगी बचा सकने में कामयाब रहें तो, अपने हितों की लड़ाई बाद में लड़ें। 
ये महोदय, अपनी तुलना महान सेनानियों से, कर रहें हैं। हम आज बतायें, हम भी, देश के लिए सेवाओं और बलिदान की, एपीजे अब्दुलकलाम साहब एवं शहीद, परमवीर, अब्दुल हमीद मसऊदी की परंपरा, बढ़ाने वाले लोग हैं। 
हम घर वापिस जायें। 'शबे शबे बरात' की इबादत,घरों में करे। यह देश, हमें अपने मजहबी विश्वास बदलने नहीं कहता है। इबादत से नहीं रोकता है। 
शुक्रिया!
नुसरत के इस संबोधन का, उपस्थित लोगों पर, अच्छा असर हुआ था। लोग, हमें मारे बिना, घर लौटने लगे थे।
अपने पीछे की स्वास्थ्य टीम को वॉकी-टॉकी के जरिये हमने, क्षेत्र में परीक्षण पुनः शुरू करने के लिए कहा था। आश्चर्यजनक रूप से आज, उन्हें सभी का सहयोग मिला था। तीन घरों के लोग, संक्रमण संदिग्ध मिले थे, जिन्हें अस्पताल पहुँचाया गया था।
हमारा अहिंसक, विनम्र आखेट, सफल हुआ था, हमने हिंसक प्रवृत्ति रुपी शेर को मार गिराया था। 
यह घटना देश ही नहीं अपितु वर्ल्ड मीडिया पर चर्चा का विषय बनी थी।
पूरे देश में जागरूकता बढ़ाने में, सहयोगी सिध्द हुई थी।
अभी मैं, देर रात घर लौटा हूँ। दीपा एवं मिनी प्रतीक्षा करते मिलीं हैं। दोनों बहुत खुश भी हैं। दोनों ही, मुझसे, गले मिली हैं।
शिकायती स्वर में तब, मिनी ने कहा है-
पापा, सूझबूझ आपकी थी, जान पर खतरा आपने लिया था। मीडिया पर मगर, गुणगान नुसरत अंजुम के हो रहे हैं।
मैं बहुत थका हुआ हूँ मगर, मैंने मुस्कुराकर बेटी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा है
बेटे, कभी कभी, समाज हित में जो परिणाम अपेक्षित होता है, वह कैसे सुनिश्चित किया जाता है, उसका तरीका और उसका श्रेय किसको मिलता है, यहाँ वह गौड़ (महत्वहीन) हो जाता है। 

नुसरत अंजुम ने आज, वास्तव में. मुझसे बढ़कर सूझबूझ का परिचय दिया है...   


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
09.04.2020

Tuesday, April 7, 2020

जिससे किया प्यार हमने
क्या उलाहना उसे देना
लाचारी कोई होगी उसकी
दुःख में साथ नहीं जो होता है  

#No_Hate_Speech



सब तो हैं इंसान यहाँ
कुछ इंसानियत तो सबमें है
मानवता न निखार सका इनमें
तो यह कमी मुझमें है

जितना हक़ देश पर हमारा
उतना ही अधिकार तुम्हारा है
कोई फिकरा ग़मगीन करे तुम्हें
तो माफ़ी चाहता दिल हमारा है

जीवन पथ ...

जीवन पथ ...


आपने, ही तो अपने बीच प्यार की शुरुआत की थी।
मैं रुआँसी हो बोल रही थी।
हमारे, द्वार गाजे बाजे और बारात ले आप ही आये थे।
मेरा शिकायती कहना जारी था। चेतन, सुन रहा था बोल कुछ न रहा था।
दो जन्मे बच्चे, आपके ही तो हैं, जिनने मुझ में आकर्षण घटाया है।
चेतन अभी भी चुप था।
मैं बोली, चुप क्यूँ हो, कहने को नहीं कुछ आपके पास?
इस बार, समझाने के स्वर में चेतन बोला।
तेरी बात मानता हूँ ना, क्या कहूँ इसमें?       
मेरी रुलाई फूट पड़ी, रोते हुए मैं बोली- तो क्यूँ, आपके पास नई नई लड़कियों के कॉल आने लगे हैं?
देख तू, गलत समझ रही है। ये ऑफिस कुलीग हैं या कॉलेज फ्रेंड हैं, मेरी!
झुँझलाहट सहित मैं बोली- पहले तो नहीं आ रहे थे ऐसे कॉल! माना ये सही है, तो फिर सामने बैठ कर ही क्यूँ नहीं बात करते, आप?
वह चुप हो गया था। शायद और झूठ कहने से बच रहा था।
यह हमारे बीच, चेतन के अवैध प्रेम संबंधों को लेकर, बात करने का पहला मौका था।
उसके, ऐसे कॉल आने के सिलसिले जारी रहे थे। और, हम दोनों में बातें, तकरार में, फिर दैनिक ही, इससे बढ़ती हुई कटुता के साथ होने लगी थीं। 
फिर आया था वह दिन, जब  चेतन ने चिढ कर, कुछ युवतियों से अपने विवाहेत्तर , संबंध होना स्वीकार लिया था।
मैं, स्वयं एक युवती हूँ, यह सुन कर मुझे, सबमें पहले तो इस बात पर रोष आया था कि
"किसी के घर तोड़ने वाले अवैध संबंध रखने पर ऐसी युवतियों को ग्लानि क्यों नहीं होती। "    
फिर, मैंने चेतन से ये अवैध संबंध, अभी ही खत्म करने के लिए, बच्चों की कसम उठाने को कहा था।
इसके जबाब में, उससे बेहद ही घटिया बात कही थी कि-
"तेरे को, मेरे इन संबंध से आपत्ति है, तो तू कर ले, कुछ ऐसे संबंध! मैं नहीं खत्म कर सकता इन्हें, समझी।"             
अब मुझे लग गया था कि चेतन, अभी जितना गुस्से में दिख रहा है, मैंने और कुछ कहा तो, मेरी और बच्चों पर शामत आ सकती है।
मुझे उस समय चुप कर लेना ही उचित लगा था।   
हमारे बीच नाराजी में, हम साथ रह तो रहे थे, मगर पत्नी-पति वाला ज्यादा कुछ नहीं रह गया था। चेतन को परवाह भी नहीं थी, उसने बाहर प्रबंध किये हुए थे।
फिर आया कोरोना संकट, जिसमें लॉक डाउन कर दिया गया। चेतन का ऑफिस जाना बंद हो गया। अवैध संबंध भी, उन युवतियों के तरफ से स्थगित कर दिए गए कि उन्हें संक्रमण न हो जाए।
चेतन घर बैठकर, चार दिनों, पहले जैसे तना रहा था।
पाँचवी रात, फिर उससे रहा नहीं गया था। जब बच्चे सो गए, तब मुझे अपने पास खींचने लगा था। मैंने उसके हाथ अपने ऊपर से हटा दिए थे। मैंने, मुहँ फुलाये रखा था।
वह चिरौरी सी करने लगा। बोला - सुन तो, तू पत्नी है मेरी। मेरे बच्चों की माँ है।
मैंने बोला, नहीं, ऐसे नहीं चलेगा। आपको पहले मेरी सुननी होगी।
बच्चों की नींद में खलल न पड़े, यह सोचकर वह, मेरे हाथ पकड़कर, मुझे ड्राइंग रूम में ले आया और बोला - चल तू बोल आज, मैं सुनुँगा।
हम सोफे पर आमने सामने आ बैठे थे।
क्या कहना है, यह सोचने के लिए, मैंने, कॉफी का बहाना किया था, बोली थी, मैं, कॉफी बना लाती हूँ, फिर कहूँगी। तब तक बैठकर, आप सोचिये।
फिर वह जब कॉफी पीने लगा, दो चुस्की कॉफी की मैंने भी ली, फिर प्रश्न किया, बोलूँ मैं?
चेतन हँसते हुए बोला, आज सब बोल दे, मैं सुनुँगा।
मैंने बोलना शुरू किया -
हममें बँधा दाँपत्य सूत्र, दोनों ही तरफ की कोशिश, से मजबूती पाता है। आपने मालूम नहीं कैसे!, अपने सँस्कार गँवा दिए। और अपनी तरफ से इस बंधन सूत्र को कमजोर करने लगे। 
मगर मुझे भली-भाँति भान रहा कि मेरे पापा ने अपनी हैसियत से बढ़कर, मेरे विवाह पर खर्च किया है, इसलिए नहीं कि मैं, इसे तोड़कर फिर उनके ऊपर अपना उत्तर दायित्व रख दूँ। 
(मैंने, उसके मुख पर दृष्टि डाली फिर थोड़ा रुककर आगे बोली) -
मैंने तय किया अपना विवाह सूत्र, कमजोर, मैं न करुँगी। अपनी बुध्दिमानी से आपको भी और कमजोर न करने दूँगी। 
मेरे बच्चे, आपके भी बच्चे हैं, इनका कोई और पापा नहीं होने दूँगी।         
मुझे, आप, यह वादा करो कि लॉक डाउन अभी और पंद्रह दिनों का है। इसमें आप अपने किये पर आत्म मंथन करोगे।
इस शर्त पर मुझे आपके बाँहों में आने में कोई ऐतराज न होगा।
चेतन बोला - चल वादा करता हूँ।
बाद में उस रात उसने कहा था - तेरा  यूँ हताश, उदास और ठंडी सी रहना, मुझे अखर गया है। 
फिर चेतन पिछले सप्ताह भर, बच्चों को स्नेह से खिलाता, मेरे साथ ज्यादा प्यार से पेश आता और अक्सर अकेले, गहन सोच में डूबा रहता।
आज 06 अप्रैल की रात हम, फिर ड्रॉइंग रूम में कॉफी पी रहे थे। आज, मैं चुप थी वह बोल रहे थे-
तू सुन, धन्य मेरा भाग्य, जो कोरोना हम पर विपदा सा आया है। मुझे यह फुरसत नहीं मिलती तो, मैं कभी यह सब, सोच नहीं पाता। अपनी निकृष्ट करनी को, कोई तर्क देता रहता और, तेरे और बच्चों के जीवन पर अनावश्यक चुनौतियों की परिस्थिति निर्मित कर देता। 
पिछले सात दिनों में, मैं, तेरा व्यवहार देखता रहता, फिर निगाह अपनी तरफ फेरा करता। तुझमें, कोई कमी नहीं दिखाई पड़ती। अपने में ऐसी काम लोलुपता दिखाई पड़ती जिससे हासिल कुछ नहीं होना था। 
मेरी शारीरिक सुख की चाह, मुझे मृगतृष्णा जैसी ही भटकाती रहती। 
एक से नहीं, फिर दूजी से नहीं और फिर अनेकों से भी नहीं, मेरी तृष्णा शाँत नहीं होती। ऐसे भटकने से हासिल कुछ होगा नहीं, मैं यह रियलाइज कर सका हूँ। 
मैं, तेरे और अपने बच्चों के साथ ही कुछ भी हासिल कर सकता हूँ, अन्यथा कुछ मिलना, सिर्फ भ्रम है हासिल होने का। 
मैं वादा करता हूँ अपने अवैध सारे रिश्ते खत्म कर लूँगा। 
अब से आजीवन, अपने जीवन पथ पर, मैं, तुझे साथ लिए चलूँगा  ....   

 -- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
07.04.2020
  

Monday, April 6, 2020

अपनी नफ़रत पर काबू नहीं करे वह इंसान कैसा!
मोहब्बत नहीं, नफरत गर हो तो देश बनेगा कैसा!

डैड, क्या कहते हैं आप?

डैड, क्या कहते हैं आप?

राजनेता के तौर पर मेरा कद बहुत बड़ा है। इससे, एक बड़ा वर्ग मेरा प्रशंसक है। या यूँ कहिये के मेरी शक्तिशाली होने और तंत्र पर प्रभाव होने से, मुझ से लाभ उठाने के इच्छुक लोगों का मेरे इर्द गिर्द जमावड़ा है। जिनमें पुरुष नारी और युवा बूढ़े सब हैं।
मेरे इर्द गिर्द, नित कई तरह के आयोजन होते हैं। ये कार्यालय में भी होते हैं, जहाँ मेरा, अधीनस्थ बड़ा स्टाफ होता है। मेरे ऑफिस में विज़िटर्स भी बहुत होते हैं। मैं शिरकत करता हूँ जिनमें, ऐसी रात्रि पार्टियाँ भी, बहुत होती हैं, जहाँ, औरत मर्द, जाम भी टकराते हैं।
ऐसी सब जगह, प्रकट में, सभी के साथ, मुझे मधुरता से पेश आना होता है। समय समय पर, जन प्रतिनिधि के चुनाव में, अपना चुना जाना यूँ ही सुनिश्चित होता है। नेता, मंत्री, बने रहने के लिए, सभी के मत चाहिए जो होते हैं।
अपने मन की मगर कहूँ तो, मुझे इन सब में पसंद होता है, आकर्षक युवतियों से घिरा होना।
यह मेरा मन दर्पण है, जिसमें, मुझे सब झलक जाता है। इस मन दर्पण के सामने, मैं स्वयं की करतूतें छिपाना चाहूँ तो भी छिपती नहीं हैं।
मै अपनी ख़राब करनी को यहाँ, अच्छाई के श्रृंगार की परत भी देना चाहूँ, तब भी इस दर्पण में यह कुरूपता छिपती नहीं है।
मैं यह कहूँ कि अक्सर कई युवतियों के हित में, उन्हें नियम कायदों से विलग लाभ प्रदान करवा देता हूँ। ऐसी युवतियों से इसके एवज में उनसे कुछ दिल का सुकून पा भी लेता हूँ, तो इसमें बुरा क्या है? लेकिन नहीं, यह मन दर्पण, जिसे बदला भी नहीं जा सकता, इसे मेरी खराबी जैसा, दिखा दिया करता है।
मेरा डायरी लिखने की आदत विद्यालीन समय से है। उस समय की मन निर्मलता में, मैंने, डायरी लिखते हुए, इसमें सच ही लिखने की आदत बनाई हुई थी।
सफलताओं के मद में यद्यपि, मेरे काम तो ख़राब कर दिए, मगर डायरी में सच लिखना, मैं अब भी जारी रखा करता हूँ।
सुंदर युवतियों के साथ, मेरी ओछी हरकतें भी, मैंने अपनी डायरियों में बिन लाग लपेट के, और सही लिखी हुई हैं।
मुझे इस बात का अंदाजा भी है कि इनमें से कुछ भी या एक भी डायरी, मेरे विरोधियों के हाथ लग जायें, तो मुझे कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
मुझे ज्ञात है, जिन्हें कानून में अपराध बताया गया है एवं हमारी समाज मर्यादायें धिक्कारती हैं जिन पर, मैंने ऐसे अनेक कार्य किये हैं। जिनका स्वयं मेरी हस्तलिपि में किसी को मिल जाना, मेरी स्वीकारोक्ति जैसा प्रयोग किया जा सकता है। जिससे अदालत मुझे कारावास भेज सकती है या मेरा सार्वजनिक जीवन में चरित्र हनन, सरलता से किया जा सकता है।
किसी पेशेवर तरह के अपराधी के हाथ ये डायरी या इनमें से कोई 1 ही, लग जाये तो, मुझसे ब्लैक मेलिंग का सिलसिला आरंभ हो सकता है। जिसका अंत मेरी मौत तक चल सकता है।
इन सब खतरों के बाद भी, मेरी लिखी डायरी, मैं दो कारणों से नष्ट नहीं करता हूँ।
एक कारण यह है :-
इसे पढ़कर, मुझे अपनी मर्दानगी पर नाज़ होता है। मैं गिन पाता हूँ कि कितनी युवतियों से, किस किस तरह की यौन हरकतें/करतूतें मैंने की हैं।
जिसे बेड टच निरूपित किये जाते हैं, वे काम मैंने, अपनी चालाकियों से, कैसे कैसे, इतनी सारी युवतियों के साथ किये हुए हैं।
इन्हें मैंने, कभी कार्यालय में, कभी रात्रि पार्टीज में और कभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में, अपनी धूर्तता से और झूठी छवि बनाये रखते हुए, अंजाम दिए हैं।
डायरी में मैंने, अपनी ही लेखनी से, श्रृंगार रस के प्रयोग से बहुत ही अच्छी भाषा में, प्रत्येक किस्से लिखे हैं।
हर पृष्ठ एक कहानी हो गया है। पुरुष नज़रिये से, हर कहानी में, मधुर रस भरा है, कि कैसे? किसी युवती के साथ भीड़ से नज़र बचा के किस तरह के, बेड टच का आनंद लिया जा सकता है। अवश्य ही, हर किस्सा, नारी दृष्टिकोण से करुण एवं वीभत्स रस का उदाहरण है।
बेड टच की एक शुरुआत से, किन किन युवतियों को, कैसे कैसे, मैं अपने बिस्तर तक ले आ सका हूँ, यह कुटिलता भी देखी जा सकती है।
किन्हें, चालाकी और अपने शक्ति से, प्रभावित करते हुए, मैंने उनकी सहमति से सब किया है।
और किन के साथ मैंने, उनकी सहमति बिना, जबरदस्ती से किया है। और अपने प्रभाव से, जबरदस्ती के पहले या बाद, उनके लिए किये फेवर के माध्यम से, उनको कोई व्यवसायिक लाभ दिलाते हुए, उन्हें चुप रहने को विवश किया है।
इन डायरियों में, यह भी उल्लेख है कि कितनी युवतियों ने, मुझे पहचान कर, मेरी शुरूआती करतूतों में ही, मुझसे किनारा किया है और, कितने से मेरे संबंध कुछ महीनों / सालों चले, जिनसे ऊब कर,बाद में, मैंने ही किनारा लिया है।
मुझे तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि मेरी ही उम्र का, कोई अति लोकप्रिय कुँवारा सिने अभिनेता भी यदि, मेरी डायरियाँ पूरी पढ़ ले तो अवसाद ग्रस्त हो सकता है कि, जितनी सुंदरियों के सहमति से, या जबरदस्ती के सुख मेरे हैं, उसके आगे, उसके तो कुछ हैं ही नहीं।
अन्य शब्दों में लिखूँ तो यह सही होगा कि, मैं यह लिखूँ कि, किसी विकृत मानसिकता के मर्द, जिसे अपने मनोरंजन के लिए, अश्लील साहित्य या कामुक वीडियो की दरकार होती है, उनसे भिन्न, ऐसी जरूरत, मेरे लिए, मेरी खुद की डायरी पूरी करती हैं।
जब कोई युवती का संग न हो और मेरी रात तन्हा हो, तब शराब की चुस्कियों बीच, मैं इनमें से किसी डायरी को, आनंद लेते हुए पढ़ लेता हूँ।
डायरी को नष्ट न करने का दूसरा कारण यह है कि:-
मेरे लिए, आत्मघाती सिध्द हो सकने वाली ये डायरियाँ, मेरे लिए, अब तक लाभकारी रही हैं। अब की, मेरी 54 की उम्र तक, मेरी दो बार शादी हुईं हैं।
पहली पत्नी का साथ, मेरा 15 सालों का रहा था।
जब मैं उससे बहुत ऊब चुका था, तब सुनियोजित तरह से एक दिन मैंने भूल का अभिनय करते हुए, उस समय तक लिखी डायरी तक, उसकी पहुँच सुलभ कराई थी।
मुझे आज भी याद है कि कैसे? मेरे से छिपते हुए, उसने दो दिनों में, सारी डायरियाँ पढ़ ली थी।
उसने, मुझसे, तीसरे दिन, बेडरूम में लड़ाई की थी। और तब, हमारी 12 साल की हुई बेटी की, फ़िक्र न करते हुए, चौथे दिन कार चलाते हुए, ब्रिज की रेलिंग तोड़, कार सहित नदी में गिर, उसने आत्महत्या कर ली थी।
आत्महत्या वाला सच, मुझे ही मालूम था जबकि, दुनिया की नज़र में, यह दुर्घटना थी।
दूसरी पत्नी से, मेरा वैवाहिक जीवन तीन वर्ष ही चला था। वह तथाकथित बेड टच से शुरू हुए, सिलसिले के बाद, मेरी पत्नी बनी थी।
उससे विवाह के तीन वर्ष के बाद, उससे ऊबने पर एक दिन मैंने, उसे भी पूर्व आजमाई तरकीब के तहत ही, सुनियोजित तौर से, अपनी डायरियाँ पढ़ने के अवसर सुलभ कराये थे।
मेरा मंतव्य इस बार भी पूरा हुआ था। अपने पति पर यौनिक तौर पर एकाधिकार अभिलाषी, जैसा किसी भारतीय पत्नी में, सहज अधिकार बोध होता है, उसी भावना के अधीन इस पत्नी ने भी, एक रात मुझसे लड़ाई की थी। और फिर, हमारे पाँच सितारा होटल में स्टे के एक दिन, पाँचवे तल से गिर कर, वह मृत पाई गई थी।
इस बार, कुछ खोजी पत्रकार, इसे दुर्घटना मानने तैयार नहीं थे। वे इसे हत्या सिध्द करने के लिए, मेरे पीछे लगे थे। कुछ के मुँह बंद कराने के लिए, किसी किसी बिचौलिए के जरिये, उन्हें खासा पैसा भी भिजवाया था, ताकि उनके मुंह को बंद रखा जा सके।
अंततः, बिना किसी राजनैतिक हानि के, मुझे, इससे भी समय के साथ, निजात मिल गई थी।
प्रभावशाली हैसियत में मेरा जीवन, यूँ ख़ुशी से बीत रहा था कि तब एक नई बात, दुनिया में उभर के, सामने आई थी।
यह थी, मी टू नाम का अभियान, जिसमें सफल लोकप्रिय और पैसे वालों के विरुध्द उनके यौन अपराध का खुलासा करते हुए, उनकी यौन रूप से शोषित की गईं, औरतें सामने आने लगीं थीं।
यह अभियान हमारे देश तक भी पहुँच गया था।
जीवन का यही वह वक़्त था, जब, मैं सबसे ज्यादा चिंताओं में रहा था। मुझ पर डर सवार हुआ कि इतनी औरतों में से कोई, या कुछ औरतें, मेरी करतूतों का भंडाफोड़ न कर दें।
मेरी खुश किस्मती रही कि ऐसी कोई महिला, मेरे विरुध्द मुँह नहीं खोल सकी थी।
मुझे इसकी वजह समझ आ रही थी कि मेरी पीड़ितायें, मेरी की हुईं मदद (फेवर) से एक समृद्ध और प्रतिष्ठा पूर्ण जीवन का आनंद ले रहीं थीं। मुझ पर आरोप लगा कर, वे स्वयं बदनाम नहीं होना चाहती रहीं होंगीं।
हमारी समाज में नारी से, ऐसे चरित्र की अपेक्षा एवं परंपरा ने मेरी लिए कोई मी टू समस्या या चुनौती खड़ी नहीं होने दी थी।
मगर मजेदार बात यह हुई थी कि मेरी दूसरी पत्नी के आत्महत्या के बाद, जिस ख्याति प्राप्त पत्रकार ने, मुझसे ब्लैक मेल किया था, मी टू की जद में वह आ गया था। उस पर, उसकी बेटी की फ्रेंड ने ही, यौन शोषण का खुलासा कर दिया था।
इससे भी मजेदार बात तो यह हुई थी, उसने मेरे पास आकर प्रार्थना की थी कि मैं अपने प्रभाव से, उसके विरुध्द मी टू मामले पर, कानूनी कार्यवाही को, शिथिल करवाने में मदद करूँ।  मैंने, उसे झूठा ढाँढस दिया था, मगर किया कुछ नहीं था। वह, आज जेल काट रहा है।
अब, समय ने करवट ली है। आज मैं अकेला हूँ। अपनी लत और औरतखोरी की रही आदत के कारण परेशान हूँ।
कोरोना संक्रमण के, पिछले दो महीनों से व्याप्त खतरों में, मैं नए किसी, बेड टच की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
युवतियाँ भी, सब दूर दूर, सावधानी से मिल रही हैं। मेरी ऐसी तनहाई को, दो माह हुए हैं। कोरोना ने मुझ पर, विकट मुसीबत खड़ी की है।
यहाँ, मैं इस मनःस्थिति में विचलित था। वहीं अचानक आज मेरी बेटी जो 21 वर्ष की हुई है, ने ब्रेकफास्ट पर अजीब बात की है।
वह कह रही है-
पापा, मुझे लगता है कोरोना जानलेवा संक्रमण तो है, मगर यह सदियों से एक वायरस से किसी पुरुष के इन्फेक्ट होने के खतरे के लिए मुझे, टीका (Vaccine) सा प्रतीत हो रहा है।
मैं उसकी इस बात पर, एक सवाल उठा कर फँस गया, मैंने पूछा:  निधि (मेरी बेटी का नाम) कौनसा वायरस?
वह किसी मंच पर वक्ता के जैसी, कहने लगी है कि-
पापा, वह वायरस, जिससे इन्फेक्टेड हुआ कोई पुरुष, हमारे समाज में, किसी स्त्री से बेड टच के, और उससे शारीरिक संबंध के, मंतव्य लिए घूमा करता है। 
पिछले कई दिनों से कोरोना के भय ने, ऐसे इन्फेक्टेड पुरुष को, किसी भी परिचित अपरिचित युवती से, कम से कम, तीन फ़ीट की दूरी रखने को विवश कर रखा है। 
जिससे मुझे लगता है कि हमारे समाज में, आज, नारी ज्यादा निर्भया हो रही है। 
मैं नहीं कहती कि प्राणघातक यह कोरोना वायरस, यूँ ही फैला रहे। मगर डैड, यदि यह रहता है तो कोई, सुंदर, लड़की/युवती के मन पर से, बेड टच और रेप का खतरा और भय उठ जाता है। 
फिर, किसी भी बहन या बेटी को पर्दे/बुर्के में, और सुरक्षा की दृष्टि से घर में कैद रहने के, अभिशाप से मुक्ति मिल जाती है।
फिर, आत्मप्रशंसा के भाव मुख पर लिए खिलखिलाते हुए मुझसे पूछती है -
डैड, क्या कहते हैं आप?
मुझे लग रहा है, जैसे किसी ने चोरी करते हुए, मुझे रंगे हाथ पकड़ लिया है।
एक खिसियायी मुस्कुराहट के साथ, मैं कहता हूँ- वाह निधि, क्या कहने तुम्हारे!
फिर काम की व्यस्तता का बहाना कर, जल्दी डाइनिंग टेबल छोड़ता हूँ।
मेरा दिमाग यह विचार लिए, असमंजस में है कि क्या? -
यह निधि का सहज विचार है या, इसने भी मेरी कोई डायरी पढ़ ली है ....



-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
06.04.2020

Sunday, April 5, 2020

यूँ तो चिकित्सा उपकरण कोई
दिल की धड़कन गिन लेते हैं
उनमें अच्छे ख्याल क्या बस रहे
साहित्य माध्यम से झलकते हैं

Saturday, April 4, 2020

कायरोना ...

कायरोना ...

मैंने, बचपन से ही, बाप को, जब मर्जी हो, अम्मा पर गुस्से में बरसते एवं उनकी पिटाई करते देखा था।
धारणा तभी से बन गई थी मेरी, कि पति नामक जीव को, पत्नी पर अत्याचार का वरदान है।
अम्मा को हर तीज, त्यौहार पर, पति की दीर्घ आयु के लिए व्रत, उपवास करते देखा था।
मुझे यह भी स्पष्ट हो गया था कि भले ही अधमरे होते तक पिटते रहे, मगर मरी नहीं है तो पत्नी को सुहागन ही बनी रहना है।
जैसे आज तर्क चलते हैं कि आर्थिक निर्भरता एवं कम शिक्षित होने के कारण, नारी की यह दशा होती है, मेरी अम्मा के प्रकरण में, ऐसा भी नहीं था।
मेरी अम्मा, मेरे बाप से ज्यादा पढ़ी थी। बाप चौथी और अम्मा इंटर, पास थी। बाप रिक्शा चलाकर कमाता तो, माँ, घरों में बर्तन झाड़ू पोंछा कर कमाई करती थी।
सच था कि बाप ज्यादा कमा लेता था।  मगर उसके निजी खर्चे भी ज्यादा थे। दारु, बीड़ी, तंबाकू तो थे ही, रंगीनियत भी उनका प्रिय शगल था।
साफ़ है, आर्थिक निर्भरता नहीं थी, अम्मा की बाप, पर। यह होने पर भी, छह बच्चे पैदा करना, उनके लिए खाना बनाना, उनकी देखरेख करना के साथ ही बाप नशे में घर लौटे तो पिटते हुए भी उसके पैर दबाना, उसके कर्तव्य थे।
क्यूँ न हों, आखिर परमेश्वर तो पति ही होता है ना! 
अपनी कुशाग्रता के कारण, पढाई के लिए, घर में मौजूद सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में भी, मैंने अम्मा के बढ़ावे के कारण कक्षा बारह तक की पढ़ाई की थी, वह भी अपनी कक्षा में शीर्षक्रम के सहपाठियों में गिने जाते हुए।
तब, ग्रामीण परिवेश में जैसा होता है, अठारह वर्ष की होते ही, मेरे बाप को मेरे ब्याह की फिक्र हुई थी। मेरी योग्यता को देखते हुए, उसने मेरे लिए योग्य वर ढूँढ लिया जो मेरे बराबर ही पढ़ा लिखा था। था तो पास के ही गाँव का मगर, मजदूरी हैदराबाद में करता था।
मुझसे छह वर्ष बड़ा था। सुना था, कमाई की बचत में से खरीद ली गई, उसकी एक खोली थी।     
बाप, अम्मा को खुद की बढ़ाई जैसे बता रहे थे- 'ख़ुशी' (मेरा नाम) बड़े शहर की ज़िंदगी देखेगी!
अभी से, चार साल पहले ब्याह हुआ। शुरूआती दिनों में ही मेरी किसी ऑफिस में सहायिका की नौकरी की जिद पर, पति ने हँसिया दिखाकर धमका दिया था, काट दूँगा, मेरी आज्ञा के खिलाफ कोई काम किया तो! 
पति नामक जीव का, यह रूप बचपन से ही देखभाला था, अचरज नहीं हुआ था। उससे भयभीत, उसकी दासी बन रहने लगी थी।
तीन साल में ही दो संतान जन्म चुकी थी, तब मेरे परमेश्वर ने मुझे एक घर में रसोई एवं गृह सेविका के काम की अनुमति दे दी थी।
जीवन यूँ ही चल रहा था, परमेश्वर जब सानिध्य चाहता, बहुत प्रेम से पेश आता और जब दारु पी, किसी बाहरी बात से दुःखी हो पहुँचता, कोई बहाना ले मेरी पिटाई कर देता।     
सब बचपन से मन में बैठी मेरी धारणा अनुरूप ही चल रहा था, ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं थी।
अभी जनवरी में ही पता चला, तीसरी संतान गर्भ में आ चुकी है। फरवरी से 'मिली मेम के' घर में भैय्या जी और उनकी बातों से सुनने मिलने लगा, कोई कोरोना वायरस, महामारी बन आया है दुनिया पर!
मार्च आया तो सब तरफ चर्चा होने लगी, कोरोना भारत में भी फैलने लगा है। भैय्या जी एवं मिली मेम तो, चिंतित दिखने लगे, लेकिन हमारी बस्ती में लोग डर की हँसी उड़ा रहते थे।
फिर मालूम हुआ 22 मार्च को कामधाम / मार्किट सब बंद रहने हैं। हमें घर में ही रहना है। दो दिन बाद ही बताया गया कि 21 दिनों सब बंद रहेगा।
काम नहीं होगा तो कमाई कैसे होगी? विचार कर परमेश्वर एवं आसपास के लोग,लुगाई सब, चिंता करने लगे।
26 तारीख को परमेश्वर काम पर नहीं गए थे। मुझे भी काम पर नहीं जाने कह रहे थे। मैंने बताया था, कुछ रूपये जमा कर रखें हैं। जाकर आती हूँ, मिली मेम, से रूपये, ले आऊँगी। परमेश्वर खुश हुआ था, अनुमति दे दी थी।
मिली मेम ने हाथ धुलाये थे, मुहँ में बाँधने को मास्क दिया था। मैंने काम करना आरंभ किया था। भैय्या जी एवं मेम टीवी पर न्यूज़ सुन रहे थे। तब में पोंछा लगा रही थी। टीवी पर कोई कहते सुनाई दिया था - मजदूर और गरीबों की सरकार को कोई परवाह नहीं है। सब बंद कर उन्हें भूखा मरने छोड़ा जा रहा है। 
मजदूर और गरीब के बारे में बात आने से, मैं पोंछा लगाते हुए साथ, टीवी को देखते-सुनते जा रही थी।
लेकिन तभी, भैय्या जी ने, गुस्से में टीवी बंद कर दिया था। अभी गुस्से में दिख रहे भैय्या जी वैसे खुशमिजाज और अच्छे व्यक्ति हैं। भैय्या जी लेकिन तब मेम से कह रहे थे -
मूर्ख बनाते हैं ये सब, हर वक़्त ही, सिर्फ वोट की ही युक्ति सूझती है। कभी गरीबी के कारकों पर, जन-चेतना के ठोस प्रयास ही नहीं किये हैं। गरीबी बनाये रखने में ही, अपना हित देखा है।
मेम ने पूछा- कैसे आती, जन जागृति ? मैं, काम के साथ, दोनों कान, उनकी बातों पर रखे हुई थी।
भैय्या जी ने कहना शुरू किया था -
गरीब को, बताया जाता कि अब,पहले जैसी परिस्थितियाँ नहीं रहीं, जिसमें 10 औलाद में तीन बच पाना भी संतोष की बात होती थी।
गरीब को यह विश्वास दिलाया जाना चाहिए था कि चिकित्सा विज्ञान उन्नत हुआ है। जन्मे हर बच्चे को बचा लिया जा सकेगा।
यह करते हुए, चिकित्सा सुविधा / तंत्र देश में सुलभ करते, जिससे गरीब इस बात की तसल्ली करता।
बताया जाता कि जो, ज्यादा बच्चे पाल सकते हैं। वे अमीर लोग, एक-दो पर सीमित हो गए हैं।
जबकि गरीब जिसके पास अभाव हैं, छह बच्चे करता है। इस तरह अपने पर और बच्चों पर ज्यादा अभाव लाद लेता है।
मजदूर को यह चेतना दी जाती कि नशे और जुयें पर उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च होता है। अगर यही (परिवार छोटा रहे तो) दो बच्चों पर, खर्च हो तो उनकी बेहतर शिक्षा सुनिश्चित हो सकती है।
 जिससे आगे के जीवन में उनकी संभावना बेहतर होती हैं और गरीब परिवार में जन्मा बच्चा आगे गरीब नहीं रह जाता है।
चुनाव के वक़्त कभी यह कभी वह खैरात बाँटी, लेकिन ठोस कार्यक्रम के जरिये उनको, अपनी एवं बच्चों की ज़िंदगी प्लान करने को प्रोत्साहित नहीं किया गया है। 
ये काम तो किये नहीं हैं, और गरीब/मजदूर से झूठी संवेदना दिखाते हैं। 
सत्ता पक्ष कोई अच्छी नीति भी लाये तो विरोध के स्वर मुखर कर देते हैं। पीछे कामना सिर्फ अपनी सत्ता की संभावना पुष्ट करने की होती है। 
धिक्कार है ऐसी राजनीति पर !
फिर आगे उनमें क्या बात हुई पता नहीं, मेरा उस कमरे में काम खत्म हुआ था। शाम को मेम से, मैंने अपने जोड़े पैसे लिए थे।
 ट्रेन/बस बंद कर दीं गईं थीं। अगले दिन 27 मार्च 2020 को हमारे बस्ती में भगदड़ का माहौल था। लोग अपने, बीबी, बच्चों सहित पैदल ही सुदूर अपने गाँव पहुँचने निकल रहे थे।
मेरे परमेश्वर ने भी यही किया था।
एक बच्चा उसकी गोद में, एक मेरी गोद में और एक मेरे गर्भ में लिए मुझे, चलना पड़ा था।
सामान्य व्यक्ति का भी, कुछ ही दिनों में कुछ सौ किमी चलना मुश्किल था। मुझ साढ़े चार माह की गर्भवती का, एक और बच्चे को लादे चलना तो अत्यंत ही मुश्किल था, मगर मुझे चलना था। मेरे परमेश्वर का आदेश था।
मुझे उसके हाथ में हँसिया होने का दृश्य, ऐसी हर कठिनाई के वक़्त याद आ जाता था। फिर मैं झींकते, मरते उसके आदेश पालन में जुट जाती थी।फिर छह दिन, कभी रेलपांतों पर और कभी सड़क पर चलते, जहाँ भी समाज सेवकों से खाना मिल जाता, उससे उदर पूर्ति करते हुए, ऐसे हम गाँव पहुँचे थे।
मेरे संतोष की बात यही थी कि तमाम परेशानी झेलकर भी, मैं जिंदा पहुँचने में सफल रही थी।
मेम/भैय्या जी के यहाँ, काम करते हुए, मुझे जिम्मेदार होने की प्रेरणा मिली थी।
मैंने, आस पड़ोस की औरतों को खुद ही हमसे दूर रहने की बात कही थी। हम कई जगह, भीड़ की आपाधापी में से होते हुए, आये थे। मुझे, टीवी से पता चला था ऐसे में हमारी संक्रमित होने की संभावना होती हैं।
औरतों ने, घर में अपने अपने मर्दों से, मेरी बात बताई थी। सब, हमसे खतरा जान कर, हमसे दूर रहने लगे थे।
हम ऐसे बिना बैनर लगाए, क्वारंटीन हो गए थे। 
फिर कोरोना खतरा खत्म हुआ था।
परमेश्वर को इस बीच, दारु, बीड़ी आदि नहीं मिले थे। बल्कि घर बैठे बैठे मेरी हालत और मेरी समझ बूझ को उसने अनुभव किया था। उसके व्यवहार में पहली बार मेरे प्रति कुछ सम्मान अनुभव हुआ था। 
हमने, इस औलाद के होने तक, वापिस हैदराबाद नहीं जाने का, तय किया था।
वह खेत के काम करने निकल जाता और मैं घर के कामों से निवृत्त हो आसपास की महिलाओं की मंडली इकट्ठी करती।
बड़े शहर से लौटी होने के कारण, उनको मेरी जानकारियों से, समझना अच्छा लगता था।
मेम के घर काम करते हुए, उनके सानिध्य में, मैंने जो सीखा था, उसके प्रयोग से, उनमें चेतना बड़ाई थी।
वे ज्यादा सफाई से रहने लगीं थीं। अपने बच्चों के लालन पालन में ज्यादा अच्छी हुईं थीं। नवयुवतियों ने कम बच्चे की शपथ ली थी।
फिर मेरी तीसरी संतान, बेटी का जन्म हुआ, हमने उसका नाम कायरोना रखा था...
-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
05.04.2020