Sunday, December 29, 2019

प्रतीक्षायें ....

प्रतीक्षायें  ....

मुझे, मेरी चेतना का आभास जब होना प्रारंभ हुआ, मुझे, सर्वप्रथम गोदी में लेकर दुलारने वाले कुछ चेहरे अनुभव हुए थे। कुछ ज्यादा समझ आने पर जिन्हें, मैंने माँ-पिता दादा-दादी या चाचा, बुआ इत्यादि ( और भी हमारे बड़े) रूप में जाना था।
आरंभ में मुझे बस खाने-पीने को मिलने की प्रतीक्षा होती थी। फिर मेरे साथ कुछ गतिविधियाँ मुझे कष्टकारक लगने लगीं थीं। जैसे मुझे नहलाया जाने पर पानी का ठंडा स्पर्श या आँखों में साबुन से जलन (ऐसे ही कुछ और चीजें) तब मुझे इसके जल्दी ही पूरा हो जाने की प्रतीक्षा होती थी।
फिर मुझे बाल-मंदिर/स्कूल जाना पड़ने लगा। वहाँ मुझे प्रतीक्षा छुट्टी होने की होती थी। छुट्टी मिलने के पश्चात खाना - पीना, खेलना-कूदना तथा अन्य मनोरंजन सुलभ होते थे। अतः छुट्टी की प्रतीक्षा तभी नहीं, चाहे वह वक़्त स्कूल/कॉलेज में पढ़ने का या फिर सर्विस करने का रहा हो, मुझे पूरे जीवन रही थी।
स्कूल/कॉलेज जाना लाचारीवश जब आदत में शामिल हुए, तब प्रतीक्षा शनिवार की शाम आने की रहने लगी थी। जिसके बाद का दिन मुझे तुलनात्मक रूप से, अपनी मनमर्जी की ज्यादा आजादी वाला प्रतीत होता था।
इस बीच ऊधम-मस्ती में मेरे हाथ-पाँव भी टूटते रहे या अन्य चोटें लगती रहीं थीं। तब प्रतीक्षा प्लास्टर/पट्टी के निकाले जाने वाले दिन की होती थी। जिनसे शारीरिक टूट-फूट के दर्द से छुटकारा मिल जाता था।
स्कूल-कॉलेज में ही मानसिक यातनाओं का एक समय बार बार आता था। जी हाँ, आप सही समझ रहे हैं - ये परीक्षाओं का वक़्त होता था। तब इनकी समाप्ति की प्रतीक्षा होती थी। इनकी समाप्ति से ही एक और बात की प्रतीक्षा हो जाया करती थी कि परिणाम आयें और ऐसे आयें ताकि घर में किसी को रोष न हो जाये।
स्कूल/कॉलेज में प्रतीक्षा के ऐसे सिलसिले चलते चलते जीवन में कुछ और बातों की प्रतीक्षा रहने लगीं थीं। यथा बड़े-भाई बहनों के विवाह आदि, कुछ त्यौहार, उत्सव ऋतुओं के आने की तथा ऐसी घड़ियों के आने की, जिसमें प्रिय लगते कोई कोई लोगों के दर्शन मिला करते थे।
क्रिकेट/टेनिस मैच के होने से लेकर अखबार या किसी पत्रिका के नए अंक आने जैसी और कुछ बाते भी मेरी प्रतीक्षाओं में समाविष्ट रहतीं थीं।
स्कूल की अंतिम परीक्षा जिसके परिणाम से कॉलेज तय होना था और कॉलेज की अंतिम परीक्षा जिसके परिणाम से अच्छी नौकरी तय होना था के परिणामों की भी बड़ी प्रतीक्षा मुझे रही थी।
ऐसी सभी प्रतीक्षा का अंत कभी मनोनुकूल भी होता था कभी प्रतीक्षा अधूरी भी छूटतीं और उसका समय निकल जाता था।
प्रतीक्षाओं के इस जीवन क्रम में अवसर ऐसे भी आये थे, जब हमने, नहीं चाहे, अपनों के साथ गँवाये थे। तब हमारे अन्य परिजनों ने समझाया था।इसे जीवन क्षणभंगुरता का कटु यथार्थ का होना निरूपित किया था।
जीवन का यह स्वरूप भी अप्रिय चीज नहीं था। मेरी इसके प्रति ललक टूटने पर पुनः फिर से बन जाने से यह बात अनेक बार प्रमाणित हुई थी।
मेरे जीवन में एक बार मनोहारी मुकाम, प्यार के मौसम का भी आया था। मेरा अच्छी योग्यता अर्जित करने के पीछे छिपा, एक विचार तब यथार्थ हुआ था।
मेरे मन में आयु अनुरूप मधुर भावनाओं के कमल खिले थे। कोई अनजान प्रेयसी मिले, मुझे प्रतीक्षा रहने लगी थी। मेरे जीवन में यथा समय उस मनोवाँछित प्रेयसी का तब आगमन हुआ था। जागी आँखों का देखा सुखद सपना मेरे जीवन में तब साकार हुआ था।
अब प्रतीक्षा अनोखे रूप में सामने आयी थी। जब प्रेयसी का सानिध्य होता तब प्रतीक्षा समय आने का नहीं, यह समय बीत न जाए इसकी होती थी। लेकिन समय का भरोसा करना ठीक नहीं होता, समय ने, यथा अनुसार मुझे यह सिखा दिया था। मधुर लगता समय भी निश्चित ही अतीत होता था।
प्रतीक्षा फिर हुई थी कि प्रेयसी, जीवन संगिनी बने।
यहाँ समय का आभार करूँगा, जिसने तब धोखा नहीं किया था। यहाँ भाग्य का आभार भी करूँगा कि मिली, मेरी प्रेयसी और जो मेरी जीवन संगिनी भी हुईं, वह इतनी अधिक पात्र थीं कि मुझे, "स्वयं" उनके लिए उचित पात्र होने का संदेह बना रहा था।
विवाह हुआ, तब हम दोनों की आयु ऐसी थी जिसमें जोश, उमंग, सकारात्मकता अपने चरम पर थी। तब हमें समय और दुनिया यूँ लगे थे  कि जैसे हमारी ही मुट्ठी में है। समय का इससे बड़ा सुखद भ्रम और कोई नहीं था। इसके बाद, समय ने जीवन को ऐसी चकरघिन्नी बनाया कि 30 वर्ष कैसे बीते पता नहीं चला था।
कुछ नितांत व्यक्तिगत अनुभूतियाँ रहतीं और कुछ स्वार्थ पूर्ति की प्रतीक्षा अर्धचेतन में बनतीं जिनमें कुछ पूरी, कुछ अधूरी होती थीं। प्रत्यक्ष में मैं कई जिम्मेदारी और मजबूरियों को निभाते चलता गया था।
परिवार में तब प्रतीक्षा अनुसार बच्चे जन्मे थे, प्रतीक्षा अनुसार उनके स्कूल, कॉलेज, सर्विस और उनके विवाह हुए थे, इसलिए समय के कई बार निर्मित मेरे भ्रमों/प्रतीति पर भी मैंने धोखे की शिकायत की कोई एफआईआर दर्ज नहीं की।
मैंने तय किया था मगर, जब भगवान से साक्षात्कार करूँगा, इस बात पर अवश्य उनसे अपना विरोध रखूँगा कि अगर अपने परिजन/मित्र जब हमें आप प्रदान करते हो, तो उन्हें हमसे छीन क्यों लेते हो?
दादी-दादा, पिता-माँ, चाचा-चाची, श्वसुर पापा, सासु-माँ बुआ-फूफा और परिजन, गुरु, मित्र और हितैषी आदि मेरे अपने, बारी बारी छिन जाने से बार बार, निर्मित कटु मानसिक स्थिति को लेकर जीवन के ऐसे स्वरूप का विरोध-विचार मन में उत्पन्न होते आया था।
मैं एहसान फरामोश नहीं जो ऐसे हर मौके पर, वक़्त की इनायत का शुक्रगुजार भी रहा था, जो बीतते बीतते हमें वह क्षमता दे जाता था, जिसमें मैं अपनों के विछोह के बावजूद भी जी पाता था। भगवान को धन्यवाद भी लिखूँगा कि वह मुझे विवेक देता था, जिसके कारण मैं इन खो गये सब अपनों को, अपने ही अस्तित्व में सम्मिलित पा लेता था, और फिर फिर आगे कि जीवन यात्रा पर जग के प्रति और अधिक जिम्मेदार होते हुए, निकल पड़ता था।
जिनका वियोग हुआ वे सारे मेरे, अपने अस्तित्व के समाप्ति के बाद मुझमें समा कर मेरी प्रेरणा बनते जाते थे। मेरे मिले इस जीवन को सार्थक करने में मेरे मनोबल होते जाते थे।
ऐसे निभाते मैं बहुत चल गया था। अतः समय मेरी परीक्षा और ना लो यह अनुनय करता था। तुम्हारे कदम मिलाते हुए अब मेरे अपनों के और विछोह के का सामर्थ्य नहीं रह गया था।
नई नई होती प्रतीक्षायें फिर उनके पूरे हो जाने के सिलसिले में कड़ीकड़ी, जुड़-जुड़ मेरी जीवन यात्रा अब अभूतपूर्व मंजिल पर पहुँच गई थी। यात्रा अब प्रतीक्षातुर से प्रतीक्षांत में परिणीत हुई थी।
पीछे जिन राहों पर चलकर यहाँ मैं पहुँचा हूँ, वे जीवन मार्ग सब ध्वस्त होकर, ऐसी गहरी घाटियों में परिवर्तित/निर्मित हुए हैं, जिनमें गिर जाऊँ तब भी अतीत का फिर मिलना संभव नहीं है। अब पीछे के सारा जीवन क्रम मेरा मेरे मानस पटल से विस्मृत भी हो गया है।
आगे के दृश्य में -
"एक बहुत विस्तारित स्वर्णिम पर्वत श्रृखंला है, जिस का ओर छोर नहीं है और जिसकी ऊँचाई आसमान चीर देने वाली प्रतीत हो रही है।  पर्वत के मध्य से स्वच्छ जल एक प्रवाह रूप में धरा पर गिरता हुआ एक दूर तक जाने वाली लंबी सरिता का रूप धारण कर ले रहा है। स्वर्णिम पर्वत पर जहाँ तहाँ गुलाबी आभा लिए दरकीं हुईं झिर हैं ,जिसमें से गिर रहा नीर इस सरिता में मिलता जाता है। 

सरित-नीर अपने रंग में पर्वत की स्वर्णिम आभा, गगन की नीली आभा और गुलाबी झिर के समिश्रण से किसी स्वर्ण हार सदृश्य दिखाई पड़ रहा है ,जिसमें नीलम और गुलाबी नगीने जड़े हुए हैं। ऐसे मनोरम दृश्य के बीच एक छोटे समतल पर मैं एकला खड़ा हूँ। मुझमें किसी बात की प्रतीक्षा अब नहीं बची है। इस मनोरम प्रदेश से एकमात्र मार्ग पर्वत पार करने का है। जिसे कोई 'जीवन' पार करने की कोशिश करे तो सदियों में संभव नहीं है। मगर 'मौत 'ने एक क्षण से भी छोटे समय में मुझे, वह अनंत ऊँचाई वाला लगता पर्वत पार करा दिया है।"

अब पर्वत के उस पार सामने है एक अनुपम दृश्य ...     

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
29.12.2019


Friday, December 27, 2019

कोई न कोई नज़रिया यहाँ
जरूर होता है जिसमें
बहुत अच्छी बात भी कोई
महज़ बेवकूफी लगती है

बात अपनी जरूर कहिये
मगर इस बात को तैयार रहिये
होंगे अपने कुछ यार जरूर जो
कही को बेवकूफ़ी बतायेंगे

वह तो ख़ुदा भी नहीं
जिसके वज़ूद पर सब को एतबार हो
कोई न देता अहमियत तुझे
मतलब ये नहीं कि तेरा कोई वजूद नहीं

मेला है मंदिर में मगर
वहाँ भगवान अकेला है
स्वारथ के जगत में समय किसी को
उसकी सीख समझने का नहीं

Thursday, December 26, 2019

मेरी माँ - कितना अधिक चाहती हैं, मुझसे!

मेरी माँ - कितना अधिक चाहती हैं, मुझसे!


आरंभ से ही आरंभ करना उचित होगा। अबोध से मैं जब सुबोध होने लगा, मैंने, मिला घर भरापूरा पाया था। मुझे सब के बीच माँ का सामीप्य उनका दुलार ज्यादा सुहाता था। घर में भाई बहन भी थे, मेरी माँ को बच्चों, घर, परिवार, समाज और धर्म के दायित्व देखने होते थे। इन सब के बीच उन्हें समय कम होता था। मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो देखा वे सभी से थोड़ी ज्यादा सरल एवं शाँत चित्त थीं। उन्हें गुस्सा या चिड़चिड़ाते मैंने कभी नहीं देखा था। यह सब तो तब शायद हर माँ और हर गृहणी की विशेषता होती थी।
समय बीतते गया और जब मुझे चींजे और स्पष्ट दिखने लगीं तो मैंने अनुभव किया कि उनमें, एक ऐसी विशेषता थी जो मुझे परिवार-नातेदार में किसी और में दिखाई नहीं पड़ती थी। वह उनकी निशर्त जीवन शैली थी। 


"उनको घर परिवार, पास पड़ोस और समाज में सभी की शर्त स्वीकार्य होती थी जबकि ऐसा करते हुए उनकी अपनी कोई शर्त नहीं होती थी। "

आज जब मैंने जगत देख लिया अब मुझे समझ आता है कि यह बात साधारण नहीं होती। मेरी माँ, यूँ तो देखने में एक साधारण मनुष्य ही समझीं/कही जायेंगी। मगर वे साधारण नहीं असाधारण हैं। 

"कोई आसान खेल नहीं अपने अस्तित्व को औरों के अस्तित्व में विलोपित कर देना। वह भी कुछ पल या कुछ दिन नहीं, अपितु संपूर्ण जीवन में यही कर दिखाना। "


वे कुछ अपवाद रहे मनुष्य में समाविष्ट हैं। उनकी सरलता, सहजता, शाँत चित्तता और निशर्त जीवन शैली के जीवन में, मैंने कभी कभी थोड़ा अपवाद देखा है। उनका अपना मायका ऐसा था,जिसमें उनके पिता और उनके बड़े भाई, उनकी आठ वर्ष की उम्र तक ही चल बसे थे। तब हमारी नानी और मेरी माँ का जीवन यापन, हमारे मौसा जी के परिवार के साथ होता था। बचपन में वहाँ नानी जी, मौसा जी एवं मौसी जी को मिलने पर हमें पता चलता था कि मेरी माँ में ये विशेषतायें कैसे आयीं थीं।
अपवाद की जो बात मैंने की है, यहाँ उनके मायके में मेरी माँ में हमें देखने मिला करती है (अब जब नानी जी, मौसा जी एवं मौसी जी नहीं हैं तब भी)। ललितपुर उनका मायका है।  जहाँ होने पर उनके स्वर और व्यवहार में कुछ अधिकार बोध का होना प्रकट होता है। यहाँ परिस्थिति से सभी साधारण किंतु विचार और आचरण से महान, हमारे अपने, निवासरत रहे/हैं। जिन्होंने मेरी माँ को हृदय से यथोचित आदर और अनुराग दिया है।  मुझे यह देख कर प्रसन्नता होती है, मेरी माँ के जीवन में अपने लिए रहीं थोड़ी शर्तें कभी कभी यहाँ होकर पूरी होती रहीं हैं।
मैं फिर स्वयं पर और मेरी माँ की चर्चा पर लौटता हूँ। वे स्वयं धार्मिक सँस्कार में पली बड़ी होने से, हम बच्चों से (हम चार भाई बहन हैं) भी उनकी अपेक्षा धार्मिक पाठ को पाठशालाओं में जाकर समझना और कंठस्थ करने की होती थी। मेरे भाई-बहन इन अपेक्षाओं पर खरे थे, मगर मेरी पढ़ने में रूचि कम रही है अतः मैं यह नहीं कर पाता था। बाद में मैं इंजिनीयरिंग पढ़ने बाहर रहा और फिर बाहर ही सर्विस करने लगा था। 

धार्मिक क्रम में, मैं जो पिछड़ा, वह पिछड़ापन मेरा आजीवन बना रहा है।  पाँच वर्ष हुए हमारे पिता जी का साया हम सब पर से उठ गया। माँ, तब से नित कमजोर होती गईं। अब पिछले दो वर्ष से जोड़ों की अकड़न से वे बिस्तर पर हैं। मेरे छोटे भाई के परिवार में उनकी यथोचित देखभाल और सेवा हो रही है। उनका वजन अब 25-30 किलो से ज्यादा नहीं रह गया है। लेकिन उनमें विपरीत शारीरिक स्थिति में भी विशेषतायें बनी हुईं हैं। वे सिर्फ एक समय भोजन ग्रहण करती हैं। लगभग पूरे समय मोक्षमार्ग का ध्यान करती हैं। शिथिल शारीरिक स्थिति में भी वे मानसिक रूप से पूर्ण सक्रिय हैं। जीवन भर पढ़े-गुने, धार्मिक पाठ का स्मरण उनका सदा बना रहता है। 

उनका जीवन एक कमरे में सिमट गया है मगर उसमें भी उनकी कोई शर्त नहीं है। उनसे कोई अलग किस्म की बात करें उसमें उनकी कोई रूचि नहीं है। मेरी बड़ी बहन वडोदरा में है उन्होंने इस बात को समझा है। वे नित दिन फोन पर उन्हें कोई कोई धार्मिक पाठ सुनाती हैं। मेरी बहन जो सुनाती हैं उन्हें सब याद है फिर भी वे आनंद पूर्वक सुनती हैं। 


उपरोक्त में जैसा मैंने लिखा धार्मिक क्रम में मैं उनका पिछड़ा हुआ बेटा हूँ। मै दूर से उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाता हूँ ( जब मैं सपत्नीक इंदौर जाता हूँ तब हम उनकी सेवा सुश्रुषा कर पाते हैं )।  मुझे लगभग दो महीने पहले अहसास हुआ कि उन्हें यदि धार्मिक पाठ मैं भी सुनाऊँ तो उन्हें ज्यादा प्रसन्नता होगी। तब से मैं प्रत्येक अवकाश के दिन 1 घंटे उन्हें धार्मिक पाठ सुनाने लगा हूँ। उन्हें इससे बहुत ख़ुशी होती है। वे मेरे अवकाश के दिन में मेरे मोबाइल कॉल की प्रतीक्षा करती हैं। 


वे मुझसे अलग अलग पाठ सुनाने कहती हैं। पिछले दो सप्ताह से वे मुझसे #भक्तामर पाठ भी सुनाने कह रहीं हैं। इस मंत्र में #संस्कृत के 48 कठिन #श्लोक हैं। जिन्हें सही उच्चारित करना मेरे लिए बड़ी कठिनाई का सबब होता है। उन्हें सब कंठस्थ है लेकिन मुझसे सुन कर उन्हें बहुत अच्छा लगता है।
सप्ताह में 1 बार 1 घंटा ऐसा करना किसी को भी लगेगा कि-

"कितना थोड़ा सा चाहती है मेरी माँ, मुझसे। यह वे जानती हैं और मैं जानता हूँ कि मुझसे वे कितना विशाल चाहती हैं।" 

वास्तव में मुझसे मेरी सद्गति के लिए मोक्षमार्ग पर चलने की अपेक्षा करती हैं। जानने वाले जानते हैं यह बहुत दुष्कर कार्य होता है। उनका विश्वास है कि उनकी प्रेरणा से मैं ऐसे धार्मिक पाठ में लग कर यह कार्य कर सकूँगा।
निशर्त प्रतीत होते उनके जीवन में एक और बहुत अद्भुत संगम मैं देखता हूँ। हमें लगेगा कि उनका जीवन
"अपने लिए जिये तो क्या जिये -तू जी ऐ दिल ज़माने के लिए"
इस पँक्ति को चरितार्थ करता है। 

उनके जीवन में इस लौकिक प्रतीति की जीवंतता से मिलता, स्वयं उनके स्व-हित की महान भावना का संगम मुझे दिखता है, जिसमें वे मोक्ष प्राप्त कर जन्म मरण के चक्कर से मुक्त होने की अभिलाषी होती हैं।

बचपन से बहुत अच्छाई की शिक्षा उन्होंने हमें दी है। मेरी दो बेटियों को दीं हैं। उनके छत्रछाया में उनकी दो बहुओं के जीवन को बहुत निखार मिला है। वे अपने सभी नाती-पोते-पोतीनों की प्रेरणा स्त्रोत रहीं हैं। वे कहती रहीं हैं -

"बुराई की चर्चा से भी बुराई को प्रसार मिलता है। बुरी बातों का जिक्र न करके अच्छाई पर बात करने से बुराई मिटती है ... " 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
27.12.2019

Tuesday, December 24, 2019

हूँ तो, मैं एक अम्मा ही ...

हूँ तो, मैं एक अम्मा ही ...

यहाँ की भाषा में हमें शरणार्थी कहा जाता है। हमें रहने के लिए जो जगह दी गई है उसे कैंप कहा जाता है। यहाँ आये हमें दो साल हुए हैं। अपनी और अपने छह छोटे बच्चों के पेट भरने के लिए मुझे कैंप से निकल कर खेतों में मजदूरी तलाश करनी होती है। जिस दिन मजदूरी नहीं मिलती उस दिन अपने दो दूध मुहें बच्चों (लाचारी दिखाने) को लेकर मैं भीख माँगा करती हूँ।
आज, मैं आधे घंटे से उस दुकान पर खड़ी हूँ, जहाँ भीख में पहले मुझे 5 रू का सिक्का भी मिला है। लेकिन दुकान पर बैठे आदमी का ध्यान मेरी तरफ नहीं है। वह  तन्मयता से टीवी देख रहा है। अब, मैं भी वही देखने- सुनने लगी हूँ। उस आदमी का ध्यान अब, वहाँ से हटा है, उसने दया से देखते हुए आज मुझे 10-10 के दो सिक्के दे दिए हैं। बीस रूपये में खाने का बहुत सा बासा सामान मिल गया है। जिसे, मैंने कैंप में आ कर अपने बच्चों में बाँट दिया है। थोड़ा मैं लेकर पास के एक वृक्ष के नीचे आ बैठी हूँ।
धीरे धीरे खाते हुए मैंने टीवी पर जो देखा सुना है उसके बारे में सोच रही हूँ। उस पर, यहाँ के पुलिस वालों ने चार लोगों को मार दिया दिखाया जा रहा था, जिन्होंने एक लड़की के साथ जबरदस्ती करने के बाद उसे मार डाला था। उसे सोचते हुए मुझे अपनी याद आ गई थी।
वह पहला देश था, जहाँ मैं पैदा हुई थी। मालूम नहीं मैं कितने साल की हुई थी। दो तीन बार, उस वक़्त, कुछ कुछ दिनों में मुझे खून आने लगा था। जो कुछ दिन बाद अपने आप ठीक हो जाता था। अम्मा को बताया था, उसने कहा था ठीक हो जाएगा। ऐसे समय वह पुराने फ़टे कपड़े मुझे दे देती थी। जिसे मुझे बाँध लेना होता था।
तब शायद यह चौथी बार हुआ था। उस दिन ऐसे ही कपड़े बाँधे थे और अम्मा के साथ खेत पर काम कर रही थी। कपड़ा बदलने में थोड़ी दूर आई थी। छिपकर मै, यह कर रही थी। तब मेरे बाप जैसी उमर का एक आदमी आया था। उसने मेरा मुहँ बंद कर जो काम किया था, वैसा मैंने, कभी कभी अपनी अम्मा के साथ बाप को करते देखा था। मेरे साथ ऐसा होते हुए और लोगों ने देखा था। मुझे दर्द बहुत हो रहा था फिर भी, तीन ऐसे और लोगों ने यही मेरे साथ किया था। 
मुझे होश नहीं रहा था। फिर आधे होश में मालूम हुआ था, अम्मा आई थी ढूँढ़ते हुए। मुझे लादा था और घर ले गई थी। इस बार खून बंद होने में बहुत दिन लग गए थे। मैं घर में पड़ी रहती थी।
टीवी पर देखी घटना से अलग जबरदस्ती करने वालों ने मुझे जलाया नहीं था। अब समझ आता है मुझे, उस देश में हमारे साथ ऐसा करने वाले को सजा का डर नहीं होता था। इसलिए मेरी जान नहीं ली गई थी। मेरी अम्मा और बाप ने भी कहीं शिकायत नहीं की थी। ना ही वहाँ की पुलिस ने उन जबरदस्ती करने वालों मारा था।
जब मै ठीक हुई थी। मेरे बाप ने, मेरे से बहुत बड़े आदमी के साथ, मेरी शादी कर दी थी। वह, कहता था मुझे प्यार कर रहा है। मगर करता वैसी ही जबरदस्ती था जैसी, उन चार लोगों ने की थी।
मैं, बिलकुल भी पढ़ी लिखी नहीं हूँ। इसे प्यार कहूँ या जबरदस्ती जिसमें, मैं छह औलादों की अम्मा हो चुकी हूँ। यहाँ कैंप में मेरे से मेरी उम्र पूछने पर मैं जबकि, बता नहीं सकी तो पूछने वाले ने मुझे अठारह साल की बताया था और कॉपी में लिख लिया था।
इस बीच शादी होने से लेकर अब तक, हम देश देश भटकते हुए, इस तीसरे देश में आये हैं। कहते हैं, हम यहाँ शरणार्थी हैं। इस देश की आबादी दुनिया में सबसे ज्यादा होने वाली है, अतः हमारे लिए यहाँ जगह नहीं है। हम सबको वापिस जाना पड़ेगा।
मैं बिना पढ़ी लिखी 18 साल में छह बच्चों की हुई अम्मा को, यह समझ नहीं आता कि यह क्या हो रहा है मेरे साथ? जिस देश मै हम रहते थे, वहाँ से हमें खदेड़ा गया। दूसरे देश से भी हमें खदेड़ दिया गया। यहाँ कहते हैं, हमारे लिए यहाँ भी जगह नहीं। 
हालात ये हैं तो, मुझे पैदा क्यों किया गया? मेरे सिर्फ  18 साल की होते तक ही, प्यार या जबरदस्ती कहूँ, मुझ से,  छह औलादें क्यों पैदा करवा दी गईं हैं। मैं तो, भूखी रह लूँ, रहते ना बने तो किसी कुएं मै कूद मरुँ। मगर इन मासूम को कैसे छोड़ूँ? प्यार मुझे दुनिया में किसी से नहीं! लेकिन कैसी है मजबूरी?  मेरी असहाय हालत में, मुझसे प्यार के नाम पर जबरदस्ती पैदा किये गए, इन छह मासूमों के लिए! मैं, कैसा अजीब है यह मन मेरा ? यह भी नहीं मान सकती कि इनसे मुझे प्यार नहीं!
मैंने सुना है बहुत सुंदर सुंदर सड़कें हैं, दुनिया में बड़े बड़े आलीशान घर हैं। बहुत बहुत पढ़े लिखे एक से बढ़कर एक कई महान लोग हैं। बहुत दौलत है इनके पास। 
अरे ओ दौलत वालों, अरे ओ पढ़े लिखे लोग, अरे ओ आलीशान बँगलों में रहने वालों - जरा मेरी सोचो। मुझे पैदा होने से रोको। मुझसे कई कई औलादें पैदा होने से रोको
और ऐसा अगर रोकने की ताकत नहीं तो, मुझे वह देश दे दो, एक छोटा घर दे दो। जहाँ मुझे भले कोई प्यार करने वाला न हो, मगर जबरदस्ती करने वाला कोई न हो। मुझे निकालो उस आदमी के चँगुल से जो कहता घरवाला हूँ तेरा। कहता है प्यार, और करता है जबरदस्ती मुझ पर, और साल बीतते न बीतते एक और औलाद रख देता है मुझ पर। 
दया करो मुझ पर, पैदा हो गए जो मुझसे उन्हें प्यार न करूं तो क्या करूं - अम्मा हूँ इनकी
मेरी तंद्रा में यह सब चल ही रहा है कि अब तीन बड़े बच्चे जो चल लेते हैं, मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ आ गए हैं। मैं शिकवे शिकायत और नहीं रख सकूँगी इन्हें देखना है मुझे अब -
ओ दौलत वालों, बँगलों में रहने वालों, पढ़े लिखे महान लोगों, तुम और तुम्हारी औलादें सलामत रहें! तुम्हें तुम्हारे जो भी हैं देश मुबारक रहें!
मेरे मन में आये अनर्गल विचारों के लिए मुझे माफ़ करना! अभी छह हैं! कुछ और हो जायेंगे, शायद!  चाहे बेइज्जत करो! चाहे लाचार करो! चाहे हवस अपनी मुझ पर शाँत करो! 

लेकिन हूँ तो, मैं एक अम्मा ही, इन्हें पालना होगा मुझे ..   ...       

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
25.12.2019

Monday, December 23, 2019

बेशक वह मर्ज ना था
वह अर्ज करना मेरा
 फर्ज समझ करता हूं
 हुआ जो गर्जना मेरा


इन पगडंडियों पर कदम बढ़ा
 वीरानो तरफ चले जाएंगे

दुनिया यही रहेगी
मुसाफिर हम चले जाएंगे

Sunday, December 22, 2019

दिमाग़ के बंद कपाट खोल डालो
समझो सारी बात फिर
चाक चौबंद ज़िंदगी अपनी
खुशियों में सपाट जी डालो

#समझ_यार_मेरे कहते हैं नासमझी किसी की माफ़ कर देना इंसानियत है मगर नासमझ ही नहीं, जो नासमझ नहीं वह भी भुगत रहा है

दंगाई ..

दंगाई .. 

और लोग जाते हुए देखे थे, मैंने। देख मैं भी गया था उनके साथ। पत्थर उठा मैं भी लग गया था, आड़ ले लेकर पुलिस वालों पर बरसाने। कई पत्थर फेंके थे मैंने। तब मेरा फेंका हुआ एक पत्थर, जा लगा था एक पुलिस वाले के चेहरे पर। मेरे इस निशाने की साथी दंगाईयों ने दिल खोल कर तारीफ़ की थी। मैं भी अपनी इस बहादुरी पर फख्र करता घर आया था।
रात मैंने सभी के बीच अपना कारनामा लहक लहक कर घर में सुनाया था। सुनकर उन्हें समझ नहीं आया था - खुश हों, मेरे (बेटे के) कारनामे पर या इस बात का रंज मानें। फिर रात का खाना खाकर अपने बिस्तर पर सोने के लिए आया था। तब पीछे, मेरी बहन आई थी। राज की बात बताने के अंदाज में बोली थी, भाई- आप जो बता रहे थे बाहर किसी और को न कहना। पड़ोस के मुजीब चच्चा के घर में शाम से कोहराम मचा है।  चच्चा, अस्पताल में भर्ती हैं उन्हें आज भीड़ के द्वारा फेंका हुआ एक पत्थर लगा है। उनकी एक आँख फूट गई है। यह सुनकर मैं सन्न रह गया था। मुझे याद आया मुजीब चच्चा पुलिस इंस्पेक्टर हैं। वही हैं जिनकी बेटी, शमीम पर मैं दिल ओ जान से फ़िदा हूँ।
मुझे अब दंगाईयों में शामिल होने का बेहद अफ़सोस हो रहा था। हो न हो मुजीब चच्चा ही शायद मेरे पत्थर के शिकार हुए थे। अब उल्टा मैं, बहन से इल्तिजा करने लगा था, सायरा तुम मेरी पत्थर वाली बात बाहर किसी से न कहना। नहीं तो शमीम तो मेरी जानी दुश्मन हो जायेगी। सायरा भी फिक्रमंद दिखाई दे रही थी।
रात मैं सो न सका था। चच्चा की फ़िक्र में करवटें बदलता रहा था। शमीम से मेरा एक तरफा इश्क, इस कड़ुवी सच्चाई से खतरे में पड़ा हुआ दिखाई पड़ रहा था।
सुबह खैरियत पूछने के बहाने, मैं उनके घर गया था। मैंने अफ़सोस ज़ाहिर किया था। शमीम का भाई बेहद भड़का हुआ था। कह रहा था - कमीना, (और भी कई अपशब्द कहता है) बस पता चल जाये वह पत्थर मारने वाला कौन है। दोनों आँखे फोड़ कर रख दूँगा उसकी। उसका प्रलाप सुनकर मेरी घिग्घी बँध गई थी। जल्द एक तरह से पीछा छुड़ा कर वहाँ से उठा था, मैं।
मैं सदमे की हालत में था। दिन में घर से निकल नहीं सका था। दोपहर खाना खा कर लेट गया था। रात नींद नहीं हुई थी, सो नींद लग गई थी। सायरा ने झिझोड़ कर जगाया था।  वह कह रही थी, भाई, बाहर चलो, पुलिस आई है। हड़बड़ाकर मै आँगन में आया था। #पुलिस ने मेरे हाथों में हथकड़ी डाल दी थी। मुझे किसी #सीसीटीवी कैमरे से #पत्थरबाज के रूप में पहचाना गया था।
पुलिस मुझे ले जा रही थी। पीछे पलट कर मैंने देखा था।  शमीम ने मुझे देखते हुए देखा था, और उसने खँखार कर सामने थूक दिया था ..   

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22.12.2019

Thursday, December 19, 2019

आशंकायें ...

कभी पढ़ा था - मनुष्य की 70% आशंकायें उन बातों की होती हैं जो उसके जीवन में होती ही नहीं हैं, लेकिन उनसे भयग्रस्त रह कर वह अपना वर्तमान का आनंद नहीं उठा पाता है।
लिखना-पढ़ना अप्रिय है कि अकेले हमने वर्तमान का आनंद ही नहीं खोया है अपितु, हमने इन काल्पनिक आशंकाओं के निबटने के उपाय करने में नई आशंकाओं को जन्म दे दिया है।
हमने आशंकाओं से निबटने के लिए अपनी जनसँख्या अपने क्षेत्रफल के अनुपात में बहुत अधिक बढ़ा ली है। अब हमें आशंका है कि इतनी बड़ी भीड़ में हमारे बच्चों की उनके जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति हो सकेगी या नहीं। वे साधन उन्हें मिल सकेंगे भी या नहीं जो किसी के जीवन में खुशियों के कारण होते हैं। आदि ..
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सब्सेडाइज्ड (subsidised) रेट पर उपलब्ध सामग्री का उपयोग करते हुए, सब्सेडाइज्ड शुल्क पर शिक्षा पाते हुए एवं स्कॉलरशिप प्राप्त कर पढ़ते हुए,
हमें अपने समाज और राष्ट्र का ऋणी होना चाहिए, जिसके (अदा किये) राजस्व से हमें हमारे जीवन/भविष्य को उज्जवल करने के अवसर मिलते हैं।
दुर्भाग्य एहसानफरामोश हम, उसी समाज, उसी राष्ट्र का खुशहाल परिवेश नष्ट करने का अपराध करते हैं।   
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देश सत्तासुख लालची नेताओं के विचारों से नहीं बनेगा, हमारे विवेक-विचार से बनेगा। आवश्यकता विवेक जागृत कर, कर्म किये जाने की है

Wednesday, December 18, 2019

#तन्हा_सफर_में_हर_ज़िंदगानी
हैं सर्द रातें और परायों के बीच रहना है

रजाई में घुस सो तो जायें - मगर जब उठें तब कहाँ जायें

दर्द की इंतहा यूं नहीं कि
मैं तन्हा हूं

दर्द में उदास यूं मैं हूं किकी
तन्हा तो तुम भी हो
पिछले 72 साल के यहाँ और वहाँ के घटना क्रम देखने से यह तो तय होता है कि - विभाजन, समाधान था ही नहीं

प्रश्न आ खड़ा हुआ है कि -क्या?
विभाजन की भूल को सुधार करने के लिए,
फिर एक राष्ट्र होने की,
संभावना तलाशी जाये!

जिसके जी में जो आये
आज सब कह रहे हैं
है कोशिश राष्ट्र के चिंतक दिखाई देने की-
 मगर ऐसे दिखाई नहीं दे रहे हैं

जितने सुरक्षा व्यय वहाँ से होते,नूसेन्स से निबटने के लिए करने पड़ते हैं
1 राष्ट्र होते तो उतने में विकास की गंगा वहाँ भी बहा सकते थे

क़ानून को क़ानून जैसा स्वीकार करने
और
अपना दिमाग अपने कर्तव्य पूरे करने में लगाने से ही
स्वयं और अन्य भी खुशहाल होंगे समझना होगा

Monday, December 16, 2019

ज़िंदगी ऐसी न हो
कि 'न होने का' अफ़सोस न हो
ज़िंदगी हो ऐसी 
कि 'होने का', अफ़सोस न हो

Sunday, December 15, 2019

मानव ..

मानव ..

कठिन कार्य सिर पर आये तो
रुला दिया करता है
साहस बटोर गर कर पाये तो
संतोष दिया करता है

रोना पड़े तुझे राजेश
रोने से मत हिचकना
औरों को गर न सुहाये
तू अकेले में रो लेना

दिखते जो वीर हँसते हुए
वे अकेले में रो लेते हैं
यूँ रोने और हँसने के बीच
दुष्कर कार्य कर देते हैं

स्वयं के लिए ले सरल विकल्प
तुझे कठिन विकल्प जो देते हैं
स्वयं आम रहने की जगह लेकर
तुझे खास होने के अवसर देते हैं

हाथ मिले अवसर को राजेश
न्याय गर तू दे देगा
दायित्व समाज प्रति पूरे करके
मानव होना सिद्ध कर लेगा

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
16.12.2019

Friday, December 13, 2019

ये अंकल, नंगे हो जायेंगे ...

ये अंकल, नंगे हो जायेंगे ! ... 

पाँच साल की रूपा, पुलिस के तलाश करने पर शहर से तीन किमी दूर वीरान जगह पर नाले के किनारे की झाड़ियों में बेसुध, लहूलुहान अवस्था में मिली थी। अस्पताल में भर्ती, उसे दर्द न हो इस हेतु अन्य उपचार के साथ नींद में रखने की दवायें दीं थीं। रूपा की माँ तुलसी, जो स्कूल में गणित की प्राध्यापक थीं। बेटी की इस हालत से अपने भाग्य को कोस रहीं थीं बेटा आठ साल का था। पति तीन साल पहले दुर्घटना में मारे गए थे। दो दिनों से लगातार रुआँसी थी। भगवान को कोस रही थी - मेरे साथ ही इतने अन्याय क्यों किये हैं तुमने? रूपा के पूरे शरीर पर जहाँ जहाँ जख्म नहीं थे, सुबकती हुई वह, जब तब दुलार से हाथ फेरने लगती थी।
तीसरे दिन रूपा की हालत सुधरी थी। तब उसे सेडेटिव नहीं दिए गए थे। उपचार के लिए, डॉक्टर, वार्ड बॉय आते या कुशलक्षेम जानने एवं  संवेदना जताने के लिए पड़ोसी सुधीर जी, और अन्य लोग, साथ उनके बेटे यदि आते या रूपा के बयान दर्ज करने पुलिस कांस्टेबिल आते तो रूपा का मासूम मुखड़े में भय दिखाई देने लगता, वह रोने लगती और माँ के तरफ मुहँ कर कहती -
मम्मी इन्हें बाहर करो - "ये अंकल, नंगे हो जायेंगे! या ये भैया नंगे हो जाएंगे! "बार बार ये हुआ तो बाल मनोविज्ञान को समझा गया। उपचार के लिए लेडी डॉक्टर, नर्स तैनात किये गए। विज़िटर्स में नारी सदस्य को अनुमति दी गई। रूपा के बयान लेडी पुलिस कांस्टेबिल ने दर्ज किये।
रात जब रूपा सो चुकी तो तुलसी दिन भर की बातों का स्मरण कर दिमाग में गणितीय सवाल लगा रहीं थीं -
डॉक्टर के वीभत्सता से किसी युवती के समक्ष नंगे होने की प्रोबेबिलिटी कितनी है?ऐसा ही करने की प्रोबेबिलिटी - 
  • वार्ड बॉय की कितनी है?
  • पड़ोसी, पुरुष की कितनी है?
  • पड़ोसन के कॉलेज पढ़ने वाले बेटों की, किसी अबोध बेटी के साथ ऐसा करने की प्रोबेबिलिटी कितनी है?
  • पुलिस की कितनी है?
  • ठेले लेकर घूमने फिरने वालों की कितनी है? 
  • यात्रा में साथ चलते अपरिचित पुरुषों की कितनी है?
  • देश के किस भूभाग में यह कितनी है? ... और ...
  • हृदय विदीर्ण कर देने वाला ये दुष्कृत्य जो मेरी अबोध बेटी के साथ किया गया, इस की करुणा और संवेदना को वर्णित करने वाले लेखक की ऐसे वीभत्स रूप से नग्न हो जाने की प्रोबेबिलिटी कितनी होगी? 
ऐसे तमाम मर्दों को वर्गीकृत करते हुए वह विचार करती रही।
फिर सोचने लगी 135 करोड़ की जनसँख्या में कितने मर्यादित हैं, कितने अनुशासित हैं, कितने शिक्षित/संस्कारित हैं, कितनो को अपनी प्रतिष्ठा दुराचार करने से रोक लेती है।
ऐसा सब गणित लगाते /सोचते हुए, कुर्सी पर बैठे बैठे उसकी नींद लग गई थी। निद्रा आगोश में उसका सिर, अबोध पीड़िता बेटी के सिर के पास उसके बिस्तर पर टिक गया था ....

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
14.12.2019

अपराधी को कैद में डलवाना मुश्किल देख
हम खुद को कैद में करते हैं
पलते सँस्कार-शिक्षा विहीन कपूत जिस समाज में
निर्दोष रोज तिल तिल मरते हैं

Thursday, December 12, 2019

खुद को चुभा ने तुम्हारे
 शब्दों के तीर रख छोड़ें  है
कि मैं होश ना खो दूं
 मैंने यत्न कर छोड़ें हैं

गर हीन हो तुम हमसे
शर्म का विषय हमारा है
हमने छीन रखा वह तुमसे
जिस पर अधिकार तुम्हारा है

हीन रहकर तुम हमसे
एहसान हम पर क्या करते हो
श्रेष्ठता बोध हमें देकर
हमें जीवन सुविधा सुलभ करते हो

हीन रहकर तुम हमसे (#नारी)
एहसान हम पर क्या करती हो
श्रेष्ठता बोध हमें देकर
हमें जीवन सुविधा सुलभ करती हो

हस्ती नहीं किसी की
जो खरीद हमें ले जाता
तेरी निगाह में देखी मोहब्बत
अपने लिए हम तेरे हो गए

प्रश्न मान का बनाना कैसा

अपने निच्छल आग्रह नहीं मरने दूँगा
हेतु क्षमा याचना हाथ जोड़ कर लूँगा
व्यथित राष्ट्र बुराई से
उन्मूलन को श्वाँस रहते लगा रहूँगा

राष्ट्र के समक्ष न अभिमान दिखाऊँगा
समाज दायित्व का भार लिए झुक जाऊँगा
मेरा राष्ट्र मेरा समाज यह
प्रति इसके ऋण चुकाते जी जाऊँगा

तुम अपशब्द कहना सहन कर जाऊँगा
भाई बहन मेरे तुम यह नहीं भुलाऊँगा
कभी मेरा निर्दोष पक्ष तुम समझोगे
आशा लिए याचक बन सामने आऊँगा

इसे प्रश्न मान का बनाना कैसा
तुम अपने हो भूल जाना कैसा
मेरी सी कुछ हैं तुम्हारी आशायें
अपने लिए उचित तुम्हारे लिए अनुचित कहना कैसा

Wednesday, December 11, 2019

मेरे हृदय में समाया लेखक - फ़िलहाल मरने तैयार नहीं
दुआ करो मेरे मित्रों - कि अति शीघ्र ही यह मर जाये

मैं ... (कहानी)

मैं ... (कहानी)

मैं कम अक्ल था शायद! मुझे सूझता नहीं था किस बात को कैसे लिया जाना चाहिए? मुझे लगता है मैं भीड़ से ज्यादा प्रभावित होता था। जैसे और लोग करते दिखाई देते थे मैं वैसा करना सुविधा जनक मान लेता था।
मैंने आरंभ में समाज में शाकाहारियों की अधिकता देखी थी तब शाकाहारी था। फिर औरों को माँसाहार भक्षण करते देख, मैंने उससे परहेज खत्म कर दिया था।
लोग रात्रि पार्टियों में शराब पीकर गुलछर्रे उड़ाते देखे थे। मैंने भी ऐसा करना आरंभ कर दिया था। इससे बढ़े खर्च की पूर्ति के लिए मैं उनके देखा देखी रिश्वत लेने लगा था।
जैसा और करते मैंने भी अपनी सरकारी नौकरी के अतिरिक्त निजी व्यवसाय आरंभ कर दिया था। मेरे आउट्लेट पर दिन भर चाय/कॉफी एवं शाम से बंद होते तक वेस्टर्न स्नैक्स विक्रय किये जाते थे। जिन्हें निर्मित करने के लिए मैं जानते समझते हुए मिलावटी और कृत्रिम रसायनों से बनी सामग्री उपयोग करता था। ताकि अपना ज्यादा लाभ सुनिश्चित कर सकूँ। ज़ाहिर था, जल्द पैसे वाला बनने की लगी दौड़ में, मैं भी शामिल हो गया था। इस होड़ में मुझे दिखाई नहीं दे रहा था कि अपने उत्पाद से किस तरह के रोग - स्वादिष्ट भोज्य के भीतर औरों को असाध्य रोग परोस रहा था।
दरअसल मैं आजीवन कन्फ्यूज्ड रहा था। मुझे समझ नहीं आता था कि किस चीज को, किस परिप्रेक्ष्य में ग्रहण किया जाना चाहिए। मैं टिकट पर व्यय करते हुए घंटों ऐसे सिनेमा देखता जिसमें - हिलती डुलती कार में शारीरिक संबंध का होना इंगित किया जाना और ऐसे ही कितने अश्लील दृश्य होते। लेकिन किसी लेखक का, यूँ लिख देने में -
"मेरे वस्त्रों के भीतर मेरे अंदरूनी अंगों तक पहुँचते उनके हाथों का स्पर्श यूँ चुभता और जलाता हुआ अनुभव हो रहा था जैसे कि मुझ पर एसिड सा कोई पदार्थ उड़ेला जा रहा हो।" और "अर्धचेतन होने के पूर्व तो शायद सभी 10 बार मुझ पर से चढ़े उतरे थे"
 मुझे पॉर्न का शाब्दिक चित्रण दिखाई दे रहा था।
मैं, सिनेमा के वीभत्स डायलॉग जैसे
"Hum tum mein itne ched karenge, ki confuse ho jaoge ke saans kahan se le aur paade kahan se."
पर तो हँस हँस लोटपोट होता था। लेकिन कोई लेखक अपराध की गहनता दर्शाने यह लिखता क़ि -
"इन सबमें मुझे लग रहा था, मेरा मुखड़ा, रुलाई आँखों से निकलते अश्रु, नाक से निकल आई गंदगी, मुहँ से निकलती लार आदि से भयानक हो गया होगा। साथ ही भय से पेशाब और शायद मल भी मेरे वस्त्रों में निकल आये थे। इतनी सब गंदगी में अगर कोई और होते तो उनके वासना का खुमार उतर जाता। "
तो मुझे इस वीभत्स वर्णन से वितृष्णा होती।
साफ था कि चल गए नाम के मुहँ से जो निकला मुझे आदर्श लगता था।और साधारण किसी व्यक्ति का ऐसा ही वर्णित, मुझे साहित्य हत्या का प्रयास लगता था।
मैं अपने गर्भस्थ कन्या शिशु की तो हत्या कर देता। मगर औरों की लाड़ दुलार और अरमानों से बड़ी की गई बेटी से अपनी हवस मिटाने की हिकमत करता। और मेरी विचित्रता यह कि, ऐसी युवतियों को  हीन दृष्टि से देखता जो पुरुषों के छलावों की शिकार हुईं हैं। मगर जब लेखक, एक बेटी की मनः स्थिति में, जो दुराचार सहने के बाद उत्पन्न नैराश्य में यह कामना करती है, दिखलाता है कि
"सारी रात मेरा शरीर और मेरी रूह इनके कृत्यों से जिस प्रकार जलाई गई है। उसने मुझे यूँ जलाये जाने पर होने वाली वेदना को सहन करने की ताकत दे दी है। इन्होंने रात भर जो किया वह जरूर जघन्य अपराध था। लेकिन अब ये जो करने वाले हैं मुझ पर एहसान है। भला कौन! भारतीय नारी होगी जो इस घिनौनी हरकत को झेल जीना चाहेगी?"
इसकी प्रतिक्रिया में मेरा तर्क यह होता था-

"स्त्री के साथ रेप या कुछ घटे तो इसका मतलब यह नहीं कि वह समाज में रह ना सके".
मेरे पास पूरे जीवन सुविधा जनक तर्क थे, जिनसे मैं अपने बुरे और समाज अहितकारी कामों को भी उचित ठहरा देता था। मुझे यह स्पष्ट ही नहीं था कि मानवता , समाज हित और अपने परिवार की नारी सम्मान और सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में किस बात का मुझे बहिष्कार करना चाहिए, किसे ग्राह्य करना चाहिए।
मैं उसे हतोत्साहित करते रहा था। जो अपराध का करुण पक्ष दिखला कर, किसी अपराध उत्सुक व्यक्ति को अपराध के तरफ प्रवृत्त होते, रोक देना चाहता था। मैं भीड़ के साथ था। मैं समाज निर्माण को इक्छुक दिखने के लिए भीड़ के साथ नारेबाजी कर लेना बस, अपना दायित्व पूरा कर देना मानता था।
यह करने के बाद मैं शनिवार इतवार रात्रि का इंतजार, व्यग्रता से करता जब टीवी पर "रियलिटी शो" का मसालेदार प्रसारण होने वाला होता। ऐसा करके मैं, आधुनिक, पाश्चात्य और प्रगतिशीलता का खुले विचार वाला होने की आत्म-मुग्धता में रहता था।
सारी ज़िंदगी मैंने उन लोगों को प्रोमोट किया था, जिन्होंने अपनी प्रस्तुतियों से समाज में, नारी के सम्मान हनन, उन पर शोषण के कृत्यों के नए नए तरीके परोसे थे। मैंने प्रत्यक्ष में, स्वयं को महान समाज निर्माता दिखाने का अभिनय सफलता से कर लिया था।
आज मैं मर गया हूँ। मेरा मानवीय दायित्व विहीन जीवन इतिहास हो गया है। मैंने अपनी आगामी पीढ़ियों के लिए वह परंपरा और वह परिवेश छोड़ा है, जिसमें वे देश और समाज का अपमान अनुभव करेंगे। जिसमें पूरा जीवन वो अपने आदर और सुरक्षा पर खतरे के अंदेशे में रहेंगे।
मगर मुझे इससे क्या! मैंने तो अपनी ज़िंदगी का पूरा लुफ्त उठा लिया था ....


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12.12.2019

Tuesday, December 10, 2019

सीन रिक्रिएशन - फिर उदित हुआ एक काला सूरज ...

सीन रिक्रिएशन - फिर उदित हुआ एक काला सूरज ...

गुलाबी रंग का सलवार सूट पहनी उस लड़की को मैंने स्कूटी खड़ी कर कैब में जाते देखा था। उसके आकर्षक अंगो और सुंदर मुखड़े ने मुझे आवेशित कर दिया था। तुरंत ही मेरा मस्तिष्क उसे भोगने की युक्ति करने में सक्रिय हो गया था। तय था कि स्कूटी लेने वह वापिस आएगी। मैंने आसपास लोगों की नज़रें बचा उस स्कूटी के पहिये की हवा निकाल दी थी। सजी-धजी सुंदर और धनवान लड़कियों को भोगने को इक्छुक मेरे कुछ और साथी थे, जिनसे शीघ्रता से चर्चा कर मैंने एक घृणित योजना तय की थी।
आशा अनुरूप वह शाम को स्कूटी लेने पहुँची है। स्कूटी में हवा नहीं देख वह परेशान सी दिख रही है। तब गऊ की सिधाई अपने मुखड़े पर ओढ़ मैंने उसके समक्ष मददगार होना दिखलाया है। उसके पास विकल्प नहीं होने से, उसने मेरे झाँसे में आ हवा भरवाने के लिए मेरी मदद स्वीकार की है। अब मैं स्कूटी धकेलने लगा  हूं वह मेरे साथ चलने लगी  है।
लगभग पचास कदम पर अब मेरा दूसरा साथी भी आ गया है मुझसे उसका बात करता देख लड़की और ज्यादा परेशान दिख रही है। उसने कदम कुछ धीमे किए हैं लगता है वह अब मोबाइल पर किसी से बात कर रही है।
यह हमारे लिए शुभ संकेत नहीं है। हम अब ट्रक तक शीघ्र पहुंचना चाहते हैं। हमने कदम तेज किए हैं। भयभीत सी वह लाचारीवश हमारे पीछे साथ चल रही है। लगभग 300 मीटर पर अब हम अपने ट्रक तक पहुंच गए हैं। हमें ट्रक के साइड में पहुंचता देख, हमारे दो और साथी ट्रक के दोनों गेट से उतरे हैं। अब मैंने स्कूटी सड़क के किनारे झाड़ियों तरफ धकेल दी है। मेरे बाकी के तीन साथियों ने लड़की से मोबाइल छुड़ा लिया है। उसके मुंह पर हाथ रख हम सबने उसे उठाकर ट्रक धकेल कर बैठा दिया है। हम सभी अब ट्रक में बैठे हैं। मैं अब ट्रक चला रहा हूं। हम पूर्व निर्धारित स्थान जो कि यहां से लगभग 25 किलोमीटर दूर है, पहुंचना चाहते हैं। लड़की प्रतिरोध कर रही है चिल्लाने की कोशिश में है। यह समझ उसके ही दुपट्टे से हमने उसका मुहँ बाँध दिया है। वह मदद के लिए व्याकुल दिख रही है। हम पर काम वासना आवेश सवार है। हम चारों के घर में किसी की बहन है, किसी की बेटी है किसी की पत्नी है। किसी की यदि नहीं भी है तो माँ तो सभी की है। कामान्धता से दुष्प्रेरित हमारे हृदय में उनके साथ कोई ऐसा करे तो कैसा होगा, न तो यह विचार आ रहा है, ना ही इस लड़की को भोगने के अतिरिक्त कुछ दिखाई दे रहा है।
मेरे अतिरिक्त मेरे 3 साथियों ने उसके हाथ पाँव दबा रखे हैं। मैंने ट्रक की गति बढ़ाई है। अब लगभग 20 मिनट में मैंने पुल तक का रास्ता तय कर लिया है। यहाँ सुनसान और सिर्फ रात का अंधेरा है। हम आसानी से लड़की को उठाकर नीचे पिलर के किनारे आ गए हैं। जहाँ हमने लड़की के ही कपड़ों से उसके हाथ-पाँव बांध दिए हैं। मुंह पर से कपड़ा हटा उसकी नाक बंद कर हम जबरन अपने साथ लाइ हुई शराब के घूँट घूँट उसके गले में उतार रहे हैं ताकि नशे के प्रभाव में उसका प्रतिरोध कम हो जाये और वह हमें सहयोग करने लगे।
लेकिन अपेक्षित असर नहीं हो रहा है। वह लगातार रो रही है, हमें भैय्या भईया बोल छोड़ देने को गिड़गिड़ा रही है। हमें उसका भैया कहना बिलकुल भी नहीं भा रहा है। आजकल कौन है भला जो किसी पराई सुंदर युवती से भैय्या/चाचा आदि संबोधन पसंद करता है! उसने रो रो कर अपना सुंदर मुखड़े का आकर्षण खत्म कर लिया है। लेकिन हमारे भीतर समाये अमानुष के लिए मुखड़े का आकर्षण या उसकी कोई याचना के महत्व नहीं रह गया है। हमने उसके मुहँ में कपड़ा ठूस दिया है, ताकि उसके रोने चिल्लाने की उसकी आवाज सुन, कोई आकर हमारा प्लान चौपट ना कर दे।
अगले छह घंटे तक हम सभी ने अपनी मनमानी की है। इसके बाद वह लड़की अचेतन जमीन पर पड़ी है। शराब का नशा हमारा काफूर हो चुका है। हम बहुत थक चुके हैं। सामान्य रातों में इतने थकने के बाद हमें गहरी नींद आ जाती है। लेकिन आज हमने जो किया है उससे डर कर हमारी नींद उड़ गई है। घृणित काम करके हमें अपनी हुई भीषण गलती का अहसास हो गया है। हम समझ चुके हैं हमारे कृत्य उजागर होते ही हमारे परिवार का, सारे पुरुषों का और हमारे राष्ट्र का सिर बाकि विश्व, मानवता और संपूर्ण नारी जाति के समक्ष लज्जा से झुक जाने वाला है।
यह करने के बाद होना यह चाहिए था कि हम सब पेट्रोल स्नान कर खुद को अग्नि के समक्ष कर दें। लेकिन जो हम इतने मनुष्य होते तो यह करते ही नहीं। हमें अपने हैवान को आवरण देकर फिर मनुष्य दिखना है। हममें नैतिक साहस भी नहीं कि हम इस घृणित कार्य की सजा के लिए जलने की पीड़ा भोगें और अपनी इहलीला अपनी कम उम्र में ही खत्म कर लें।
हमने इन सबका एकमात्र उपाय जानकर बेसुध पड़ी लड़की को पेट्रोल स्नान कराया है और उस पर तीली डाल उसे आग के हवाले कर दिया है। जलने की पीड़ा से बेसुध इस लड़की में ना जाने कहाँ से शक्ति आ गई है वह उठ खड़ी हुई है बचने के उपाय में इधर उधर दौड़ लगा रही है। हम उसकी वेदना के साक्षी होकर स्वयं को धिक्कार तो रहे हैं। किंतु तब भी हमारा जो जीवन जीने योग्य नहीं बचा है, उसे जीने का लालच नहीं छोड़ पा रहे हैं।
लो अब वह लड़की धराशाई हो गई है। हमें इत्मीनान हो गया कि वह मर गई है।
अब हम चारों को अपने बचाव के लिए खुद को सामान्य दिखाई देना है। हम पर अँगुली उठाते अन्य सबूतों को नष्ट करना है। इसकी मंत्रणा करके हमने निर्णय ले लिए हैं और उस पर काम करने के लिए हम घटना स्थल से पलायन कर रहे हैं।
अब प्रातः की पौ फटने को है। देश की धरती पर आज फिर एक काला सूरज उदित होने को व्यग्र है ...

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
11.12.2019


Monday, December 9, 2019

मेरी क्षमा याचना ...

मेरी क्षमा याचना ... 

पहला कारण:  अपनी अभिव्यक्ति प्रतिभा का परिचय देने के लिए मैंने अप्रिय होते भी पिछले दिन, अपनी कल्पना शीलता से उस एक बेटी की आपबीती लिखी जो गैर जिम्मेदार कापुरुष में हावी हो जाने वाली चरम वासना का शिकार हुई। फिर जिन्होंने अपने में छुपे डरपोक कापुरुष से दुष्प्रेरित होकर, अपने घिनौने अपराध का दंड भुगतने की कल्पना में, नैतिक साहस नहीं होने के कारण उसे मार डाला। मेरी क्षमा याचना भयावह रूप से अकाल मारी गई उस मृतक बेटी से (तथा उनके परिवार जनों से).
दूसरा कारण : विवेक बोध आ जाने के बाद, इस समाज और इस राष्ट्र में चालीस से अधिक वर्ष जीवन यापन करते हुए भी, मैं आदर्श और प्रेरणा रख सकने में असफल रहा। हमारे बाद आई पीढ़ी को, अगर मैं आदर्श और प्रेरणा के सच्चे उदाहरण दे सकने में समर्थ होता तो निश्चित ही आज कोई कापुरुष न होता। हमारे समाज में  हर कोई, किसी बेटी के साथ ऐसी भयावही, वीभत्स, घिनौनी और नृशंसता करने से हतोत्साहित होता। मेरी क्षमा याचना हमारी नई पीढ़ी से कि मैं अपने दायित्वों का सही निर्वहन न कर सका।
तीसरा कारण : नित दुराचार की शिकार उपरांत मारी जाती बहन बेटियों के प्रति संवेदना अनुभव होने से, मेरी लेखनी से, ऐसी आपबीती की रचना हुई जिसे "अनुपम  हिन्दी साहित्य" समूह के एडमिन्स द्वारा जबकि यह समूह के विव्दजनों के ह्रदय को क्षोभ एवं करुणा से उव्देलित कर रही थी, मानवीय संवेदना के आधार पर उपयुक्त नहीं मानते हुए इसे विलोपित कर दिया गया। अनजाने में वह कोण मेरी निगाह में नहीं आ सका, अतः  सभी एडमिन से क्षमा याचना।
चौथा कारण : सभी पाठकों से भी, जिन जिन को मेरा सृजन, पढ़े जाने योग्य नहीं लगा, उनसे भी मेरी करबध्द क्षमा याचना।
अंत में मेरा संक्षिप्त स्पष्टीकरण- आपबीती की रचना के पीछे मेरा उद्देश्य नारी गरिमा को क्षति पहुँचाने का कतई नहीं था। लिपिबध्द करते हुए पूरी सतर्कता से अश्लीलता को पुष्ट करने वाले शब्दों से भी मैं बचा था। मेरा एकमात्र उद्देश्य हर पुरुष के हृदय तक "नवयुवा उस बेटी के मनोभाव पहुँचाने के थे जो अपने परिवार और अपने सपनों के लिए आगे पड़ा जीवन जीने की जिज्ञासु होते हुए भी जघन्यता का शिकार हो अपमानित भी होती है और अकाल मार दी जाती है"। इसे रचते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि एक बार इसे पढ़ लेने वाला कोई व्यक्ति अपने जीवन में कभी ऐसा निंदनीय/घृणित काम नहीं करेगा। 

मैं अपने सामाजिक दायित्व बोध को देर से सही लेकिन अब पहचान पा रहा हूँ। इसलिए मैंने अपनी हर रचना प्रकाशित करते हुए अपने नाम के साथ अपनी माँ एवं (स्मृतिशेष) पापा का नाम लिखना आरंभ किया है। दोनों ही ये नाम आज मेरा धर्म है।  जो मुझसे कहते हैं - "हम तुम्हारे जन्म के निमित्त अवश्य हुए मगर अपना जीवन तुम्हें जग कल्याण में योगदान करते हुए स्वयं सार्थक करना है " ..  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
10.12.2019

Sunday, December 8, 2019

सीन रीकन्स्ट्रक्शन

सीन रीकन्स्ट्रक्शन-
उफ़, कितनी घिनौनी होती है ये पुरुष नग्नता ....


मैं दिन भर के काम से संतुष्ट भी थी और थकान अनुभव कर घर लौटने की जल्दी में भी थी। स्कूटी के पास पहुँची तो अगले पहिये में हवा न थी। दुःखी इधर उधर देख ही रही थी, तभी दो युवक मेरी तरफ आये थे। मैं तय नहीं कर पा रही थी कि इनसे सहायता लूँ या नहीं। तब इन दोनों ने जबरन सहायता का उपक्रम दिखाते हुए मेरी स्कूटी एक तरफ ले जाना शुरू कर दी थी। 
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी हालत में डरी हुई तो थी पर मूर्खता में, इस समय स्वयं से ज्यादा स्कूटी की परवाह करते हुए उनके पीछे चल रही थी। थोड़ा गेप बना, मैंने मोबाइल पर बहन को भी घटना की सूचना दी थी। 
आगे थोड़ा निर्जन स्थान था, जहाँ एक ट्रक खड़ा था। स्कूटी के पीछे चलते हुए मै जैसे ही वहाँ पहुँची थी, तभी ट्रक से दो और लोग कूदे थे और मै सम्हलती इसके पहले ही मेरे मुहँ पर ताकत से हाथ रख उन्होंने मुझे बलात उठा कर ट्रक में सवार कर दिया था। पहले ही साथ आ रहे दोनों युवक भी स्कूटी को झाड़ियों में धकेल ट्रक में आ बैठे थे। 
मैं उनके चँगुल में छटपटा रही थी। खुद को छोड़ देने और घर लौटने देने के लिए गिड़गिड़ा रही थी। विलाप कर रही थी। उन चारों की आँखों में मुझे जो दिखा था उसमें मुझे बचपन में पढ़ी कहानियों वाले दुष्ट राक्षस का साक्षात्कार मिला था। 
ट्रक चल पड़ा था। मुझे अब अंदेशा हो चुका था कि इनके चँगुल में, मैं शायद ही जीवित बचूँगी या बच भी गई तो जो बचेगा वह जीवन रहने योग्य न बचेगा। 
ट्रक चलने के साथ उनकी जबरदस्ती बढ़ गई थी। जो मेरे आत्म सम्मान को बुरी कदर आहत कर रही थी। अब मेरे हाथ पैर, मेरी ही ओढ़नी से बाँध दिए गए थे। चारों दुष्ट यूँ तो कद काठी और ऊपरी तौर पर मेरे आस पास रहने वाले सामान्य से युवकों जैसे ही थे, मगर मेरे वस्त्रों के भीतर मेरे अंदरूनी अंगों तक पहुँचते उनके हाथों का स्पर्श यूँ चुभता और जलाता हुआ अनुभव हो रहा था जैसे कि मुझ पर एसिड सा कोई पदार्थ उड़ेला जा रहा हो। विरोध की कोशिशों में मैं निढाल सी पड़ रही थी। तब उनने बोतलें खोल लीं थीं।
 मेरी आँखों में आँसू झर रहे थे। मेरी रूह तक रो रही थी, मगर इन वहशियों की आँखों में घिनौनी वासना के डोरे और मुख पर डरावने अट्टहास विजयी होने का भाव दर्शित थे। खुद शराब पीते हुए वे मेरे मुहँ को जबरदस्ती खोल मेरी नाक बंद कर बोतल से शराब उड़ेल रहे थे। जिसके घूँट कुछ, मेरे न चाहते हुए गले में उतर रहे थे सप्रयास उन्हें मैं बुलक देने की कोशिश कर रही थी। 
इन सबमें मुझे लग रहा था, मेरा मुखड़ा, रुलाई आँखों से निकलते अश्रु, नाक से निकल आई गंदगी, मुहँ से निकलती लार आदि से भयानक हो गया होगा। साथ ही भय से पेशाब और शायद मल भी मेरे वस्त्रों में निकल आये थे। इतनी सब गंदगी में अगर कोई और होते तो उनके वासना का खुमार उतर जाता।  ये इंसान होते तो शायद इस करुणाजनक मेरी हालत से इन्हें अपनी ही माँ/बहन/पत्नी/बेटी किसी का ख्याल आ जाता, लेकिन नहीं, ये इंसान नहीं थे। 
ना जाने कैसे इन्हें किसी नारी की कोख में स्थान मिल गया था। शायद दैत्य भी कोई इतना निर्दयी नहीं होता। अब एक जगह ट्रक रुक गया था। अँधेरे में कहीं ला, इन्होंने मुझे पटका था। फिर चीरफाड़ के, मेरे तन से सारे वस्त्र अलग कर दिए गए थे, और फिर शुरू किया था इन्होंने मेरे ऊपर चढ़ने उतरने का सिलसिला। 
कठोर भूमि पर पड़ा मेरा शरीर इनकी यातनाओं और जबरदस्त नोंच खसोट से लहूलुहान हो रहा था। मुझे इनकी हरकतों से यह विचार आया था कि "उफ़ ,कितनी घिनौनी होती है ये पुरुष नग्नता"।  
अर्धचेतन होने के पूर्व तो शायद सभी 10 बार मुझ पर से चढ़े उतरे थे। फिर मेरी चेतना लुप्त हो गई थी। न जाने कितनी और बार इन्होंने मेरे साथ अमानवीय घिनौने कृत्य किये थे। स्मरण नहीं कितनी देर बाद मेरी चेतना लौटी थी। 
तब मैंने इन्हें आपस में कहते सुना था, 'इसे जीवित छोड़ना अब ठीक नहीं'। फिर, एक को निगरानी के लिए छोड़ बाकि कहीं गए थे। मेरे शरीर की हालत तीव्र वेदनादाई थी। मुझे अहसास हो गया था मेरा कुछ वक्त ही और बचा है। "अब मैं अपने माँ - पापा और बहन के बारे में सोच रही थी। मेरा जिनसे प्यार भरा साथ अब, हमेशा के लिए छूट जाने वाला था। 
मुझे शिकायत हो रही थी कि क्या, यूँ मेरे अपमानित हो, मर जाने के लिए ये सारी उम्र त्याग कर मुझे पाल रहे थे। अपने लिए नहीं जी कर, बेचारे ये मेरे जीवन ख़ुशी के लिए चिंताओं में डूबे रहते थे। मुझे थोड़ा थोड़ा बड़ा करते करते ये नित दिन बूढ़े होते गये थे। इसके बाद भी अगर मेरी खुशहाली देखते, निश्चित ही ये अपने त्याग भूल, अपनी बिना ज्यादा हासिल के बिता दी ज़िंदगी से शिकायत नहीं रखते उसमें ही खुश होते।"
 
अब, आज मैं न बचूँगी
मेरे साथ हुए के विचार से 
बाकि पूरा जीवन 
ये सिहरते रहेंगे

मेरे जीवन में न, जिया जीवन अपने लिए 
मेरे मरने के बाद बाकि बचा कैसे ये जियेंगे 
हे ईश्वर तू होता है हमारा रखवाला कैसा?
ऐसे मरने के लिए हमें क्यों देता है जीवन 

ओ मेरी माँ, ओ मेरे पापा, ओ मेरी बहना
न कह सकूँगी अंत में जो है मुझे कहना
माफ़ कर देना इन्हें ये बेटे हैं किसी माई के
इन्हें पैदा करने में नहीं दोष उस माई के 

मर के मैं देखूँगी
कैसे दिखाते कालिख पुते चेहरे अपने
जिन्हें कहते ये दुष्ट 
माँ, बहन, बेटी, पत्नी, भाई औ पिता अपने 

लो, अब बाकि तीन लौट आये हैं। अब सबने मुझ पर कोई तरल पदार्थ उड़ेला है। गंध से जो पेट्रोल मालूम पड़ता है। एकबारगी में जिंदा जलाये जाने की कल्पना से काँप उठती हूँ। लेकिन सारी रात मेरा शरीर और मेरी रूह इनके कृत्यों से जिस प्रकार जलाई गई है। उसने मुझे यूँ जलाये जाने पर होने वाली वेदना को सहन करने की ताकत दे दी है। इन्होंने रात भर जो किया वह जरूर जघन्य अपराध था। लेकिन अब ये जो करने वाले हैं मुझ पर एहसान है। 
भला कौन! भारतीय नारी होगी जो इस घिनौनी हरकत को झेल जीना चाहेगी?
मेरा जो होना था हो चुका है। मैं इन्हें कोई अभिशाप नहीं दूँगी। मैं चाहूँगी कि जिन माँ बहनों के हाथों तिलक, रक्षा सूत्र ये बँधाते हैं, उनकी रक्षा के लिए ये जीवित रहें। 
क्यूँकि, अगर किसी के माँ जाये होने पर, ऐसा ये किसी की बेटी के साथ कर सकते हैं तो और भी ऐसे कई माँ जाये होंगे "जो इनकी भी माँ-बहन और बेटी के साथ ऐसे घिनौने कृत्यों को उत्सुक होंगे"। इनके ना होने पर उन्हें ऐसा मौका सरलता से मिल सकता है। मैं अंत में यह चाहती हूँ, "जो मेरे साथ इन्होंने किया - इनकी माँ,बहन,पत्नी बेटी के साथ कोई न करे"।  
लो अब माचिस की 1 जलती तीली इन्होनें मुझ पर फेंकी है। आह कितनी तीव्र जलन मुझे होने लगी है। गला रुँधा हुआ है मेरा, चीख तुम तक ना पहुँचेगी, इससे कोई "ये न समझना कि अस्मिता यूँ नोचे जाने और जिंदा जलाये जाने से मुझे पीड़ा नहीं हुई थी"। 
मेरी अंतिम इक्छा "ओ, प्रिय मेरे देशवासियों - मेरी अधजली लाश पूरी न जलाना, इसे नुमाइश के लिए रखना, ताकि देख सकें लोग - "कोई सुंदर बेटी, अपनी लाज लुट जाने और जिन्दा जला दिये जाने के बाद कैसी वीभत्स रूप को प्राप्त है" और "कैसे जिसमें संस्कारहीन पुरुषों की करतूतों की तस्वीर प्रतिबिंबित होती है"। "मेरी इस हालत को देख ज़माना ऐसा न करने की सीख अगर ले लेगा। मैं संतोष कर ना लूँगी की मेरा मरना  व्यर्थ नहीं गया।" 
ओह्ह जिंदा जलने की वेदना कल्पना से बहुत अधिक दर्दनाक असहनीय है। अब मेरा हृदय खाक हुआ है - अलविदा, दिशा  .....


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
08.12.2019



Thursday, December 5, 2019

नहीं सोचता कि
है एनकाउंटर - अन्याय या न्याय
रेप हत्या मगर
है निश्चित - एक बेटी पर अन्याय

हो सकते हैं हर किसी के नज़रिये - अपने अपने अनेक
मगर
बहन बेटी के लिए नज़रिये - निश्चित रखना होगा नेक

Wednesday, December 4, 2019

बेटी नहीं, अब बेटे के जन्म देने के पहले सोचना होगा ...

बेटी नहीं, अब बेटे के जन्म देने के पहले सोचना होगा ... 

इस दौर का नारी जीवन सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण है। खुले दरवाजे के बाहर आधुनिक सँस्कृति में उसके लिए खुल गए अनेक अवसर हैं मगर हमारे समाज में नारी के प्रति पुरातन संकीर्ण दृष्टिकोण की व्यापकता में दिमाग के बंद दरवाजे उसके अवसर के लिए बढ़ते पाँवों में बेड़ियाँ डाल दे रहे हैं।
इन परस्थितियों में मानसिक व्दंद में जीतीं अनेक नारी, जब तब बलात्कार और चतुराई से रचे पुरुष फरेब में उनकी हवस का शिकार होकर, जीवन से हाथ धो रही है या जीवित भी है तो मानसिक रूप से अधमरी जीवन जीने को विवश है।
ऐसे में धन्य वे माँ-बाप जो न सिर्फ कन्या (बेटी) के अभिभावक होने का साहस रखते हैं अपितु पुत्र नहीं फिर भी देश के प्रति दायित्व बोध प्रदर्शित करते हुए, छोटे और उन्नतिशील परिवार का उदाहरण बनते हैं।
हर पुरुष किसी परिवार में बेटा और/या भाई है। हमारे समाज में वह जिस तरह नारी से छल, दुराचार और उनकी हत्या तक कर दे रहा है, उसे विचरते हुए  लेखक को लगता है वह समय आ गया है कि -


"बेटी नहीं, अब बेटे के जन्म देने के पहले सोचना होगा 

अपनी मनुष्य काया में मानवता को शरण देना होगा"


यूँ तो देश में हर तरफ कन्या भ्रूण, जन्मी बेटियाँ बहाने बहाने और दहेज बलि शिकार मारी जा रही हैं लेकिन हरियाणा की बात करें तो यहाँ जनसँख्या अनुपात चिंताजनक हो गया है। 1000 पुरुषों के बीच नारी सँख्या 831 रह गई है। 

"कि ऐसे नहीं चल सकेगी यह सृष्टि 

बदलनी होगी नारी प्रति अपनी दृष्टि

पुत्र जन्म के पहले हमें बारम्बार सोचना होगा 

गर जन्मा उसे नारी रक्षा सँस्कार में देना होगा"



नित हिंसा और दुराचार यूँ तो हमारे हृदय को हिला देते हैं।  हम बार बार करुणा और क्षोभ के सागर में गोता लगाते हैं। तब भी ऐसे सुविधाजनक विचार से कि "अपनी बुध्दिमत्ता से हम सीधे इसकी चपेट में नहीं आये हैं".  हमें ऐसी आत्ममुग्धता का त्याग करना चाहिए। यह विचार गंभीरता से करना चाहिए कि जब संपूर्ण राष्ट्र दुराचार/अत्याचार छल और हिंसा के साये में है तो इस राष्ट्र के नागरिक हम कैसे स्वयं को इसके दायरे से बाहर समझने की भूल कर रहे हैं।
एक बार फिर हमारे अंतर्मन में संकल्प आना चाहिए और अपनी सुविधा लालसा तज जीर्णशीर्ण हुई समाज संरचना को अपने दृढ इक्छाशक्ति के साथ पुनः बुलंदी पर स्थापित करने में योगदान देना चाहिए।


"पुनः अपनी भव्य सँस्कृति स्मरण करनी होगी 

रघुकुल रीत स्थापित करने कुरीतें तजनी होगी

फिर सीता रक्षार्थ दृढ हिम्मत संजोनी होगी

बुरे नर का वध कर हमें लंका जीतनी होगी"


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
05.12.2019
  

Tuesday, December 3, 2019

आदर्श और राजेश .... (सन 2144 की कहानी)

आदर्श और राजेश .... (सन 2144 की कहानी)


दो मित्रों की यह कहानी
समय कहता आज अपनी जुबानी 


पिछली सदी में सुनो मित्रों
आदर्श और राजेश मित्र हुआ करते थे
आदर्श के गुणगान हमेशा
राजेश को उसकी नकल प्रेरित करते थे


राजेश की भरपूर कोशिशें भी मगर
आदर्श जैसा उसे न बना पाती थी
राजेश इसलिए उदास हो जाता
उसकी उदासी आदर्श से न छिप पाती थी 


मित्र को प्रसन्न रखने के लिए
आदर्श उसे समझाता था
राजेश कभी समझ खुश होता
कभी मगर व्याकुल ही रह जाता था 


व्याकुल राजेश से एक दिन
आदर्श गंभीर हो बोले
क्यों रहते तुम यूँ उदास
जब तुम इतने सच्चे और भोले 


मेरी नकल जो करते हो
कम ही ऐसा और करते हैं
मुझमें जो गुण निहित हैं
महापुरुषों के मिले अच्छाई अंश हैं 


मेरा अणु अणु अच्छाई से निर्मित
मनुष्य में ऐसा नहीं संभव है
जहाँ हो तुम यथार्थ राजेश
पूर्ण स्वरूप मेरा कल्पना है


मनुष्य हो तुम राजेश,

अपने में व्यर्थ सारी मुझसी अच्छाई परखते

मेरी संगत से आई अच्छाइयों को
ऐसे तुम क्यूँ अनदेखा करते 


देखो आज मैं मरणासन्न पड़ा हूँ
मगर नहीं तुम मेरा साथ छोड़ते
करते लोग नमस्कार उदय होते सूरज को
मगर तुम मुझ अस्ताचल चले को थामते 

इस जग में अब वह समय आएगा
कल्पना में भी आदर्श न रह जाएगा
मैं तो आज ही मर रहा राजेश 
जब मरोगे

तुम ही कल्पना रह जाओगे

तुम्हारी अच्छाई की महिमा
तुम्हें आज मैं बता जाता हूँ
समय आ गया मित्र मेरे
यह आदर्श अब मर जाएगा 


आदर्श जब नहीं रहेगा
रह गई बाकी जो
उन थोड़ी अच्छाइयों के

विश्व गुणगान करेगा  


अच्छाइयों का स्मरण आने पर
मेरे मित्र राजेश तुम्हें याद करेगा 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04.12.2019