Thursday, May 27, 2021

सन 2121 ….

 

सन 2121 …. 

दो दोस्त राम और श्याम, बहुत दिनों बाद ट्रेन में मिले थे। यद्यपि आज दूर से भी संपर्क में रहने के कई प्लेटफार्म (उपाय) थे। साथ ही मोबाइल कॉल भी जरिया हो सकता था। मोबाइल नं. एक दूसरे के पास थे भी मगर दोनों की व्यस्तताएं इतनी थी कि वे अंतिम बार राम की शादी में, चार साल पहले मिले थे। 

तब से मिलने का संयोग आज बना था। गृहनगर जाने के लिए अलग अलग स्टेशन से दोनों, एक ही ट्रेन की एक ही कोच के, एक ही केबिन में आ बैठे थे। 

दोनों ने साथ खाना खाया था। एक दूसरे के हाल चाल पूछे-जाने थे। इस बीच रात के 9.30 बज गए थे। केबिन में लोअर बर्थ, एक माँ और उनकी युवा बेटी की थी। जब माँ, सोने की तैयारी करते दिखी तो राम की अपर बर्थ पर, अपनी बातों का सिलसिला जारी रखने के लिए, श्याम भी चढ़कर साथ बैठ गया था। 

उनकी बातों से सोने वालों को व्यवधान न हो इस दृष्टि से दोनों धीमे स्वर में बात करने लगे थे। 

श्याम बोला - क्या समय आया है। हम वर्षों से मित्र रहे हैं मगर लगता है मित्रता का हमारा रिश्ता मात्र नाम का रह गया है। 

राम ने हँसकर कहा - यह तो फिर भी ठीक है कि अभी मिलने पर हम मित्रवत तो हैं। कल्पना कर यार, कि सन 2121 में, कोई अब के रिश्ते बच भी पाएंगे या नहीं?

श्याम सोचते हुए बोला - यार, यह प्रश्न तो तुम्हारा विचारणीय है। आज कहीं दो भाई साथ नहीं देखे जाते। भाई-बहन साथ नहीं घूमते दिखाई नहीं पड़ते। 

राम ने आगे जोड़ते हुए कहा - संतान की प्रगति में बाधक ना होने के विचार से वृद्ध हो रहे माँ-पिता, वृद्धाश्रम का मुँह कर रहे हैं। 

श्याम ने चिंतित हो कहा - हमारी पीढ़ी विवाह करने की जगह लिव इन रिलेशनशिप को महत्व दे रही है। पति पत्नी का रिश्ता यूँ मिटने को हो रहा है। 

राम ने कहा - इसलिए तो श्याम मेरे मन में यह प्रश्न आया है कि प्राथमिक माँ-बच्चों, भाई-भाई, भाई-बहन और पति-पत्नी के रिश्ते ही जब आज मुश्किल हो रहे हैं तो अन्य रिश्तों की क्या बिसात? आज के 100 वर्ष बाद इनमें कौन से रिश्ते बचे रह सकेंगे?

श्याम ने कहा - राम, मेरी समझ में मानव संतति क्रम चल सके इस हेतु कम से कम “माँ-बच्चे” का रिश्ता तो रहेगा ही।  

राम ने विचार करते हुए कहा - मेरी समझ में, बच्चा तब कहेगा। हमें पैदा करके इस औरत (माँ) ने मुझ पर कोई अहसान थोड़े ही किया है। मैं तो इसकी “काम वासना पूर्ति” की प्रोसेस का बाई प्रोडक्ट हूँ। 

श्याम ने पूछा - क्या, कोई बच्चा यह नहीं देखेगा कि उसे, उसकी माँ ने पाल पोसकर बड़ा तो किया है?

राम ने कहा - शायद नहीं! बच्चे का तर्क होगा, यह तो मेरी शक्ल और बाल सुलभ क्रियाएं इसका (माँ) मनोरंजन करती थी इसलिए इसने मुझे बड़ा किया है। 

श्याम ने पूछा - माँ-बच्चे का रिश्ता ही यदि नहीं रहा तो फिर तब, मनुष्य समाज में रिश्ते क्या होंगे?   

राम ने कहा - रिश्ते, व्यावसायिक और वासना के बचेंगे। एक मनुष्य दूसरे के लिए एक भौतिक वस्तु की तरह होगा। जब तक एक के हित दूसरे से सधते रह सकेंगे तब तक उनमें रिश्ता होगा। अन्यथा उनमें, दुश्मनी और नफरत का रिश्ता ही, स्थाई रूप में रहेगा। 

श्याम ने पूछा -  मगर भाई! क्या आज कोई उपाय नहीं कि हम पर आसन्न यह “संवेदनहीन मानव समाज” होने का खतरा टाला जा सके?

राम ने कहा - यही तो मनुष्य की क्षमता की सीमा होती है। कई बार समस्या सामने होती है, समाधान उसे कोई सूझता नहीं है। 

दोनों के बीच कुछ पलों की चुप्पी व्याप्त हुई थी। तब नीचे के बर्थ से आवाज आई - नहीं मैं, आप से सहमत नहीं। मानव में क्षमता असीमित और लगभग भगवान जितनी ही होती है। मनुष्य इसका प्रयोग करना भुलाए रखता है। जब उसे अपनी क्षमता का भान होता है वह हर समस्या का समाधान निकाल लेता है। 

राम और श्याम ने एक साथ ही चौंकते हुए नीचे देखा था। मद्धम रोशनी में उन्होंने युवती (बेटी) को यह बात कहते हुए देखा था। 

युवती की बात सुनकर, श्याम ने पूछा - क्या आप हमारी बातें सुन रही थीं?

युवती ने कहा - हाँ, आप दोनों में हो रही बातें, मुझे रुचिकर लग रही थी। सॉरी, मैंने कान लगाकर सब सुना है। 

श्याम ने तब पूछा - तब आप बताओ कि 2121 में रिश्तों को इस तरह बदरूप होने से कैसे रोका जा सकता है। 

युवती ने उत्तर दिया - मेरी समझ से, मनुष्य आज जिस मार्ग और दिशा की ओर चल रहा है उसका नाम बदलना होगा। 

अब राम ने अधीरता से पूछ लिया - मैं समझा नहीं, आप क्या कहना चाहती हैं। 

युवती ने कहा - आज जिसको, आधुनिकता की दिशा बता कर उस ओर सब आकर्षित हो रहे हैं, मानव की चलने की इस दिशा को ‘पुरातन दिशा’ में चलना कहना होगा ..... 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

27-05-2021

          

 


Wednesday, May 26, 2021

बेटी ही होना …

 

बेटी ही होना … 

मैं जब कॉलेज में पढ़ता था तब साथ में पढ़ने वाली एक लड़की रागिनी से मेरे हृदय में प्रेम अनुभूति जन्मी थी। रागिनी मेरे प्रेम से अनभिज्ञ रही थी। मैंने कभी नहीं देखा था कि रागिनी किसी लड़के में, अपना दोस्त होने जैसा भी कुछ व्यवहार करती हो। 

कदाचित रागिनी के मन में किसी सहपाठी लड़के की परिभाषा, मात्र पाठ्यक्रम विषयों को लेकर चर्चा करने की ही थी। मुझे लगता था कि वह कभी किसी लड़के को अपना मित्र या प्रेमी का स्थान नहीं देती थी। 

यह समझने पर मैंने, रागिनी से उसे लेकर अपने एकतरफा प्रेम को कभी भी व्यक्त नहीं कर सका था। यद्यपि तब घर में मैं, सुबह-रात जब भी अपने अध्ययन से ऊब जाया करता तब अपने हृदय पटल पर (कल्पना में) रागिनी को ले आया करता था। अपनी जागी आँखों से देखे ऐसे सपनों में मैं, उस से अपना परिणय होना भी देखा करता था। मेरे ये सपने यहाँ पर ही नहीं रुक जाते थे। बल्कि मैं इससे आगे भी देखा करता था। मैं, रागिनी को अपनी, एक बेटी की माँ होते देखा करता था। मेरी कल्पना में, अपनी एकलौती संतान का ‘बेटी ही होना’, मेरी रागिनी के प्रति अपनी पसंद के कारण से होता था। 

समय बीता था। मेरी महाविद्यालयीन शिक्षा पूर्ण हुई थी। 

रागिनी कभी भी मेरे मन में रहे उसके प्रति मूक प्रेम का, तनिक भी आभास नहीं पा सकी थी। इस तरह तब, रागिनी को लेकर मेरे सपनों पर विराम लग गया था। मैं अपने जॉब के लिए, अपने गृह नगर से 1200 किमी दूर महानगर में आ गया था। महानगर के लंबे चौड़े क्षेत्र में किन्हीं कामों में लगते अधिक समय और मेरे जॉब की व्यस्तताओं में, मुझे घर से औसतन 13-14 घंटे बाहर रहना होता था। ऐसे में घर पहुँच कर खुद को आराम देने के अतिरिक्त मुझे कोई विचार नहीं रह जाता था। तब वर्षों मनो मस्तिष्क पर छाई रही रागिनी, अप्रत्याशित शीघ्रता से मेरी कल्पना से बाहर चली गई थी। वह कॉलेज के बाद क्या कर रही है? कहाँ रहती है? इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं रही थी। 

फिर चार वर्ष का समय तेजी से बीत गया था। इस बीच मेरी बहन का विवाह हो गया था। बहन के विवाह के बाद मेरे मम्मी, पापा चाहते थे कि मुझे भी अब अपनी पसंद की कोई लड़की देख कर विवाह कर लेना चाहिए। 

एक दिन मेरी मम्मी ने पूछा था - बेटे, क्या कोई सहकर्मी या महानगर की कोई अन्य लड़की, तुमने अपने विवाह के लिए देखी है?

मैंने कहा था - मम्मी, कई लड़कियाँ मेरे ऑफिस में हैं। कई लड़कियाँ, कई कई बार मेरी सोसाइटी या ऑफिस-घर के बीच आने जाने में मुझे, बार बार मिला करती हैं। उनमें अच्छी भी बहुत हैं। मगर अपने व्यस्त दिनचर्या में मैं, गृहस्थी बसाने की हिम्मत नहीं कर पाता हूँ। अतः इस दृष्टि से मैंने, उनमें से किसी को देखा नहीं है। 

मम्मी ने फिर कुछ नहीं पूछा था। उन्होंने इस उत्तर में ही, अपने अनुसार अर्थ लगा लिया था। तब चार महीने बाद मैं ऑफिस में ही था तब मुझे, मम्मी ने एक लिंक व्हाट्सएप की थी। उसके साथ लिखा था - तुम्हारे लिए हमारे पास एक रिश्ता आया है। यह लिंक उस कन्या के फेसबुक की है। तुम इसमें से देख-समझ लो और अपना उत्तर बताओ तो हम, उन लोगों को अपनी ‘हाँ अथवा नहीं’ कह सकें। हमें, लड़की का घर परिवार अच्छा लगा है। 

मैं अपने कार्य में व्यस्त था। मैंने लिंक पर जाने की कोई कोशिश नहीं की थी। फिर वीकेंड आया था। मैं, उस दिन देर से सो कर उठा था। मैंने, आये हुए टिफ़िन में से भर पेट खाया था। उपरान्त मैं, फिर सो गया था। दोपहर बाद चार बजे उठा था। फिर मैंने बहुत देर तक शॉवर लिया था। तत्पश्चात तरोताजा होकर, अब क्या किया जाए सोच रहा था। तब मुझे मम्मी के व्हाट्सएप का स्मरण आया था। मैंने लैपटॉप में खोल कर, मम्मी की भेजी गई लिंक पर क्लिक किया था। 

मेरी आँखों के सामने तब जो खुला था वह मुझे सुखद आश्चर्य प्रदान करने वाला सुसंयोग था। यह लिंक रागिनी के फेसबुक प्रोफाइल की थी। फौरन ही अधिक कुछ नहीं देखते हुए मैंने, मम्मी को कॉल किया और कहा - 

मम्मी, यह लड़की मुझे पसंद है। 

मम्मी खुश हुईं थीं। फिर दो महीने में ही रागिनी और मेरा विवाह हो गया था। 

रागिनी ने अपनी कंपनी में अनुरोध करते हुए ट्रांसफर लिया था। वह मेरे साथ महानगर आ गई थी। एक दिन प्रणय सुख लेने के बाद रागिनी ने मुझसे कहा - 

मैं सोच भी नहीं सकती थी कि कॉलेज बाद हम कभी फिर मिलेंगे और अगर मिलेंगे भी तो ऐसे परिणय सूत्र में आबद्ध होकर।

इस पर, ना जाने क्यों अपने मन की ना बताते हुए मैंने, रागिनी के मनमोहक रूप को देखते हुए, मुस्कुरा भर दिया था। तब मुझे लग रहा था इसके पीछे कारण कदाचित मेरा पुरुषोचित मनोविज्ञान था। जिसमें, कोई पुरुष प्रेमी होकर तो अपनी प्रेमिका से छोटा बन कर, उसके आगे पीछे घूम सकता है मगर वही, पति होकर अपनी पत्नी के सामने स्वयं को छोटा नहीं दिखा सकता है। 

दिन बीते थे। तीन वर्ष बाद हमारे घर, पुत्र ने जन्म लिया था। हमारे कॉलेज समय में, मैंने रागिनी से अपनी बेटी होने का सपना देखा था। मन ही मन मुझे निराशा हुई थी। फिर भी यह पुत्र हमारा था। अतः उस मासूम से कुछ ही दिनों में मुझे, अपने प्राणों से बढ़कर प्यार हो गया था। 

हमारे सुखमय मधुर साथ में तीन साल और बीत गए थे। एक रात मैंने, रागिनी से कहा - मेरी प्रिय रागिनी, अपनी पहली संतान बेटी होती तो मैं दूसरे के लिए कभी नहीं कहता। 

रागिनी ने आधी कही बात से ही मेरा पूरा आशय समझ लिया था। उसने, मुझे बात पूरी करने नहीं दिया था बीच में ही कहा था - 

ना बाबा, यह मुझसे नहीं हो सकेगा। और, आप भी बड़े अनूठे पति हो, सब बेटे की इच्छा करते हैं, आप को बेटी चाहिए है। 

मैं क्या कहता। तब मैंने रागिनी को, कॉलेज के समय के अपनी जागी आँखों से देखे गए सपने का सच बताया था। 

रागिनी ने तब हँसते हुए कहा - बड़े बंद किस्म के पुरुष हैं, आप! कभी आभास ही नहीं होने दिया मुझे, आपने। और तो और यह बताया भी तो विवाह होने के छह साल बाद। यदि पहली ही, हमारी बेटी हो जाती तो मुझे लेकर अपने तब के प्यार की बात, आप शायद मुझे जीवन भर नहीं बताते। आप के मन में यदि यह भय है कि कुछ कहने-करने से आप मुझसे छोटे हो जाएंगे तो उसे त्याग दीजिए। मैं जीवन में कभी आपको, अपने सामने छोटा नहीं पड़ने दूँगी। 

मैं झेंपते हुए हँसा था। मैंने उत्तर दिया - रागिनी, आप ऐसी लड़की थी कि आपमें गरिमा बोध (डिगनिटी) देख कर मैं तो क्या कोई अन्य लड़का भी, आपसे ऐसा कुछ कहने का साहस नहीं कर सकता था। मुझे, आपसे, आपकी जैसी ही एक अपनी बेटी चाहिए है।  

रागिनी ने इसे अपनी प्रशंसा की तरह लिया था। अपनी प्रशंसा भले किसे पसंद नहीं होती है। वह बहुत खुश हुई थी। साथ ही लजा भी रही थी। उसने अपना सिर मेरे सीने में छुपाया था फिर कहा - 

अगर दूसरा भी बेटा हुआ तो फिर आप, मुझसे अगले बच्चे की नहीं कहना। 

मैं रागिनी की इस स्वीकारोक्ति से खुश हुआ था। मैंने कहा - 

हाँ प्रिय, यह एक ही बार है। ऐसा ना हुआ तो भी मैं फिर नहीं कहूंगा। माय प्रॉमिस। तब आपकी और देश की सोचते हुए मैं, अपनी अपूर्ण रह गई एक अभिलाषा मानते हुए उसे त्याग दूँगा। हमारी जनसंख्या चीनियों से अधिक हो जाए ऐसा मैं कभी नहीं चाहूंगा। मैं जानता हूँ की भारत से क्षेत्रफल में चीन तिगुना बड़ा है। 

समय बीता था। 

आज रागिनी प्रसूति कक्ष (लेबर रूम) से अस्पताल के कमरे में लाई गई तो प्रसव वेदना सहन करने के बाद अत्यंत थकी हुई थी। वह मुझे सामने देखते ही बोली - भगवान नहीं चाहता तो यह मुझसे नहीं हो पाता कि मैं बेटी को जन्म देती। अब आप खुश हो जाओ कि आज मैंने, आपको एक बेटी ला दी है। 

मैंने रागिनी के माथे पर हाथ रखते हुए प्यार से देखा था। फिर कहा - 

मेरी प्रिय रागिनी, भगवान भी चाहते तो मुझे बेटी नहीं दे सकते थे अगर आप तैयार न हुईं होतीं। 

रागिनी मुस्कुरा दी थी। फिर होंठों पर प्यारी मुस्कान लिए हुए ही, उसने आँख मूँद ली थी थी। अब वह सोना चाहती थी ... 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

26-05-2021


        

 

         


Tuesday, May 25, 2021

अगर आग है मुझमें …

 

अगर आग है मुझमें … 

अगर आग है मुझमें

तो नियंत्रण खुद पर रखना होगा

हर मासूम को इस ज्वाला से

झुलसने से बचाना होगा


अगर आग है मुझमें

उन्हें अपनी लपट में लेना होगा

मानवता खो देते हैं जो

दुष्ट वृत्ति उनकी जलाना होगा


अगर आग है मुझमें

निराशा का नाम मिटाना होगा

छले जाने से ठंडी हुई जिजीविषा जिनमें

उनको ताप प्रदान करना होगा


अगर आग है मुझमें

मानव जीवन को संबल देना होगा

औरों को मौत दे रहे जो 

उन्हें इस आग में भस्म करना होगा 


अगर आग है मुझमें

मुझे सतर्क पुरुषार्थ करना होगा

समाज अच्छाई सेंकते हुए 

समाज बुराई को जलाना होगा  


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

25-05-2021


Sunday, May 23, 2021

मैं ...

 

मैं ...

जब मुझे समझ आने लगी थी तब से ही मुझमें उत्कंठा वह लड़का, वह युवा (या आज वह बूढ़ा) बनने की होती रही थी, जिसकी लोग प्रशंसा करते हैं। जिसकी प्रतिभा और उपलब्धि को लोग प्रशंसनीय बताते हैं। जिनकी संगत करने को लोग लालायित रहते थे। मैं लड़का था इसलिए किशोर या युवा वय में ऐसा भी चाहता था कि जिस लड़की को लोग अच्छा कहते हैं, वह लड़की मुझे भी पसंद करे। 

यह मुझमें बोध आना आरंभ होने के बहुत बाद में मैंने समझा था कि उत्कंठा होना अलग बात होती है और लक्ष्य प्राप्त करने के अच्छे पुरुषार्थ कर पाना, दो अलग अलग बात होती हैं। 

महान हो जाने की उत्कंठा तो कदाचित ऐसे व्यक्ति में भी होती है जो सबसे अधिक वंचित या पिछड़ा समझा जाता है। अतः उत्कंठा होना एक साधारण सी बात होती है जो सब में पाई जाती है। जबकि अच्छे पुरुषार्थ करना और उसमें निरंतरता बनाए  रखना जो किसी व्यक्ति को महान बनाती है, वह बिरले ही मानव में होती है। वह अपनी उत्कंठा अनुरूप, पुरुषार्थ कर पाता है और महान हो जाता है। 

यहाँ मैं, वैसे महान लोगों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो प्रचारित तो महान रूप में हैं या हुए हैं। मगर जिनके पुरुषार्थ महान नहीं हैं। ये कुछ निपट स्वार्थी लोग हो सकते हैं, जो दूसरों की प्रगति में अड़ंगा डाल कर खुद आगे हो जाते हैं। या अति विलासी लोग हैं जो तत्कालीन प्रचार तंत्र को अपने धन या अन्य तरह से प्रभावित कर, महान कहे जाने लगते हैं। अन्य किसी की दृष्टि में ऐसे (छद्म) महान लोगों को, मैंने कभी भी महान नहीं समझा था। 

इसे मैं अपनी सही समझ मानूँ या नहीं यह, इस सामान्य (Generic) कहानी के पाठक को तय करना है कि मेरी समझ सही है या गलत? जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझे अपनी ऐसी समझ पर संतोष रहा है। मेरी इसी समझ के कारण मैंने कभी किसी की नकल नहीं की है। 

अतः नकल नहीं करने से, मैंने हिंदी सिनेमा का महानायक होना नहीं चाहा है। मैंने, किसी स्पोर्ट्स का भगवान होना नहीं चाहा है। ऐसे ही मैंने किसी प्रदेश या देश का मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री होने की अभिलाषा नहीं रखी है। इससे पाठक, मेरे ऐसे लिखने को ‘अंगूर खट्टे हैं’, कहने वाला भी प्रतिपादित करते हुए मुझ पर हँस सकते हैं। तब उनके मुझ पर ऐसे हँस लेने पर ना तो कोई शिकायत होगी और ना ही अपने में कोई हीनता अनुभव होगी। उनका साथ देते हुए मैं भी स्वयं पर हंस कर उनके मनोरंजन किए जाने से आनंद विभोर होऊंगा।  

मैं नकल प्रवृत्ति को अपने से दूर रख पाने में सफल रहता था। यदि कभी धनवान लोगों के जैसे धनी होने या स्मार्ट कहे जाने वाले लोगों के जैसे स्मार्ट होने की अभिलाषा, मुझमें किसी पल में जागृत भी होती और इससे मन कहीं या कभी कमजोर भी होता तो मैं दृढ़ता से इस कमजोरी को अपने मनो मस्तिष्क पर हावी होने से रोक दिया करता था। 

अब मैं यह प्रसन्नता से कह सकता हूँ कि आज मैं, जो भी हूँ जैसा भी हूँ, वह किसी की नकल नहीं करने के कारण मेरे मौलिक स्वरूप (Originality), अस्तित्व (Existence) और व्यक्तित्व (Personality) के अनुरूप (मैचिंग) ही है।

मैं, वापस विषय पर अर्थात अपनी उत्कंठा और अपने किए पुरुषार्थ पर आता हूँ। और यह उल्लेख करता हूँ कि जब तक मैं पढ़ता रहा तब तक मेरी उत्कंठा रही थी कि मैं, अव्वल आने वाले सहपाठी जैसा अव्वल आऊं। यद्यपि यह कभी नहीं हो पाया था। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं, कभी उतने पुरुषार्थ नहीं कर सका जो अव्वल आने वाला कोई विद्यार्थी करता था। यहां इसे मैं अपनी प्रतिभा में कमी मानना स्वीकार नहीं करूँगा। बल्कि ऐसा लिखूंगा कि मैंने अपनी प्रतिभा व्यर्थ की थी। ईश्वर जितना सामर्थ्य दूसरों को देता है उतना देने में ईश्वर ने, मेरे साथ कोई पक्षपात नहीं किया था। 

समय चलता रहा था मेरा शिक्षा काल बीत गया था। इसमें मेरी उपलब्धि औसत रही थी। हालांकि इतनी योग्यता मेरी हो गई थी कि अपनी आजीविका के लिए मुझे किसी अनैतिक व्यवसाय या भ्रष्टाचार करने की सोचना नहीं पड़ता था। 

यह भी जुदा बात थी कि शायद आजीविका कठिन हो रही होती तो भी मैं, ऐसा करने की नहीं सोचता। यहाँ कोई पाठक सोच सकता है कि अनैतिक काम करने या भ्रष्टाचार करने में भी साहस जरूरत होती है, ऐसा (दुस्) साहस मुझमें था ही नहीं। 

अब मैं सर्विस में आ गया था। मैंने अपने आसपास में मुझसे अधिक हमारे क्षेत्र एवं विषय के जानकार देखे थे। तब मेरी उत्कंठा, उनके समान जानकार (Knowledgeable) होने की होती थी। यहाँ भी मेरे पुरुषार्थ कम ही रह जाते थे। निश्चित ही पूरे जीवन में कुछ तरह के पुरुषार्थ मेरे हमेशा ही कम रहे थे। 

फिर अपने 35 से अधिक वर्षों की सार्वजनिक क्षेत्र की सेवा में मैंने, एक और निराला सच जाना था कि जो व्यक्ति पढ़ने में मुझसे अच्छे परिणाम प्राप्त कर सके थे या जो संबंधित क्षेत्र के मुझसे अच्छे जानकार रहे थे, उनमें से बहुतों से अधिक मैंने अपने विभाग को अपने योगदान दिये थे। यहाँ मेरे पुरुषार्थ, देश और समाज निर्माण के लिए जितने अपेक्षित होते हैं उतने हो सके थे। 

तब यह विचित्र सत्य मैंने पहचाना कि यह आवश्यक नहीं होता कि कोई हमसे अधिक जानकार या हमसे अधिक मेधावी व्यक्ति ही, श्रेष्ठ रीति नीति क्रियान्वयन या श्रेष्ठ (आउटपुट) परिणाम देता है। अपनी लगन और समर्पण के द्वारा कोई कम श्रेष्ठ व्यक्ति भी श्रेष्ठ योगदान दे सकता है। 

सार यह निकलता है कि अलग अलग समय में हर किसी का जीवन, कभी किसी (या बहुतों) से पिछड़ते और कभी उस (/उन) से बढ़त लेकर चलता जाता है। 

अब अगर मैं आज प्रातः काल के अपने भ्रमण में इस तरह चलता हूँ कि मेरा सीना बाहर और पेट अंदर होता है और तब मैं अपनी पूरी ऊँचाई 5’11” जितना ऊँचा दिखाई पड़ता हूँ तो मुझे यह प्रतीत होता है कि कम से काम आज मैंने अपने समवयस्क बहुत लोगों से बढ़त ले ली हुई है। 

मैं जानता हूँ कि ऐसा होने पर भी मुझमें, इस पर गर्व करने की उत्कंठा नहीं होनी चाहिए। यह प्राणी जीवन है। इसका स्वरूप क्षणभंगुर होता है। जीवन में किस पल यह बढ़त या पिछड़ने का क्रम खत्म हो जाए और प्राणी पंचतत्व में विलीन हो जाए इसकी किसी को भी और कभी भी कोई आश्वस्ति नहीं रह सकती है। 

हमारे द्वारा जीवन पुरुषार्थ करते हुए जिया जाना चाहिए। मानव में असफलता का रंज और सफलता पर गर्व होना स्वाभाविक तो होता है मगर इन दोनों ही परस्पर विपरीत (भाव) स्थितियों से कम से कम समय में उबर जाना श्रेयस्कर होता है। 

हमें जल और वायु जैसे बनना चाहिए जो कितनी भी दूषित हो जाएं, लंबे प्रवाह में जो स्वतः ही अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

23-05-2021


Wednesday, May 19, 2021

महत्वाकांक्षा कितनी विशाल …

 

महत्वाकांक्षा कितनी विशाल … 

मुझे अपनी योग्यता एवं अपनी बुद्धिमत्ता का अभिमान रहता था। मैं अपनी पत्नी, रसिका को इस कसौटी पर अपने से हीन मानता था। 

इसलिए जब रसिका ने मुझे दवाओं के काले धंधे में पड़ने से, मुझ पर अपनी रुखाई के जरिए दबाव बनाकर दृढ़ता से रोका तो मुझे, अपनी इस धारणा की पुष्टि हो गई थी। मैं सोचता था ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’, इसी को कहते हैं। जब यह अवसर था कि जिन औषधियों की कमी पड़ रहीं थीं, उनकी अधिक मांग पर, उसका प्रयोग अतिरिक्त लाभ कमाने में किया जाए। तब स्कूली मास्टर की टीचर बेटी (रसिका) ने अपने सिद्धांत का, अवरोध मेरे सामने खड़ा किया था। यह हमारे घर आती लक्ष्मी के मार्ग में बाधा भी थी।

मेरी लाचारी थी मुझे, जिसके साथ नित दिन रात पूरे जीवन रहना था उसे, रुष्ट करके मैं, अपने मन की शांति नहीं खोना चाहता था। अपनी ऐसी विवशता में, मैंने उन औषधियों को स्टॉक करने का विचार त्याग दिया था। जो भी स्टॉक, तब मेरे पास था उसे भी मैंने डीलर को वापिस कर दिया था। 

यह दवाएं लौटाते समय डीलर, मुझे ऐसी दृष्टि से देख रहा था कि जैसे मैं कोई विचित्र या लुप्तप्राय प्राणी हूँ। मुझे मन मसोस कर रह जाना पड़ा था। फिर कुछ दिनों बाद ही मेरे घर-दुकान पर पुलिस ने छापा मारा था। सात दिन पहले अगर यह छापा पड़ा होता तो मेरे पास से नकली दवाओं की जब्ती होती और शायद मैं रासुका में धर लिया जाता। मुझे जमानत के लाले पड़ जाते। तब मेरी रसिका और मेरा बेटा सिद्धांत दर दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाते। 

छापे वाली रात, जब रसिका शांत चित्त सो चुकी थी तब मैं स्वयं को उसका बड़ा आभारी अनुभव कर रहा था। हल्की रौशनी में सोते हुए उसका निश्छल मुखड़ा देख मेरा मन कर रहा था कि जिस श्रद्धा से मैं, अपनी माँ के चरण स्पर्श करता था वैसे ही मैं, रसिका के चरण छूलूं। 

बड़ा विचित्र होता है पति होने वाला यह अभिमान! इस विचार के तुरंत बाद, इसके  विपरीत विचार भी मेरे मन में आ गया था। मैं खुद से पूछने लगा कि क्या तेरा इरादा ‘जोरू का गुलाम’ होने का है? 

रसिका को लेकर भावावेश में मन में उमड़ी श्रद्धा को, इस बात ने नियंत्रित कर दिया था। मैंने चरण तो नहीं छुए थे मगर अपने आभार बोध के वशीभूत, रसिका के सोते हुए खुल गए अधरों पर, प्यार से एक हल्का चुंबन ले लिया था। यह क्रिया मैंने अत्यंत सावधानी और हल्के से की थी। मैं चाहता था कि रसिका की नींद में कोई विघ्न ना पड़े। 

रसिका के अर्धचेतन मन ने मगर, इसका नोटिस ले लिया था। उसके हाथ किसी की अनाधिकृत हरकत को रोकने वाले अंदाज से, मेरे सिर पर आए थे उसने मुझे परे धकेला था। फिर नींद में ही रसिका ने दूसरी ओर करवट ले ली थी। इससे मुझे हँसी आ गई थी। फिर मैं, स्वयं सोने की चेष्टा करने लगा था। 

अगले दिन ही मैंने अपनी शॉप में बैनर टांग दिया था। जिसमें लिखा था कि यहां “दवाओं पर बीस प्रतिशत का डिस्काउंट दिया जाता है”।

इस बात को फैलने में देर नहीं लगी थी। मेरी दुकान पर ग्राहकों की नित दिन भीड़ बढ़ने लगी थी। रसिका को मेरे द्वारा यह बात बताने पर, उसने मुझे शॉप में पीपीई में रहने को कहा था। अब तक रसिका के सामने मुझमें अपनी बौद्धिक रूप से श्रेष्ठ होने वाली मनोग्रन्थि (Superiority complex) समाप्त हो गई थी। मैंने इस समय के खतरे पर उसके विज़न को महत्व दिया था। अब मैं शॉप में दिन भर पीपीई में रहता था। 

पंद्रह दिन हुए मेरी दुकान में बिक्री इतनी बड़ी थी कि कम लाभ में व्यापार करने पर भी मेरी आय, कालाबाजारी से होने वाली आय के बराबर होने लगी थी। मैंने एक रात रसिका से कहा - रसिका अब मैं, अवैध व्यापार नहीं करने पर भी उतना ही कमा सकने में समर्थ हो रहा हूँ। 

रसिका ने खुश होकर कहा - यह कितनी अच्छी बात है। ग्राहकों की सेवा का पुण्य भी मिल रहा है और लक्ष्मी जी भी हम पर खुश हैं। 

तब मैंने दुखी होने का अभिनय करते हुए कहा - मगर इस सब में हमारे साथ, एक बात बड़ी दुखदाई हो रही है।  

रसिका ने चिंतित हो मेरा मुख देखा था फिर पूछा - क्या बात दुखदाई है? मुझे बताइए। हम अभी ही उसका समाधान खोजते हैं। 

मैंने कहा - दिन भर पीपीई में रहने और इतने अधिक ग्राहकों से लेनदेन करने में मैं बुरी तरह थक जाता हूँ। जिससे घर आने पर मुझमें, तुम्हें प्यार करने की शक्ति ही नहीं बच पाती है । 

मेरी बात सुनकर रसिका हँस पड़ी, बोली - हमारे विवाह को अब दस साल हो गए हैं। अब आप का, मेरे साथ होना ही मुझे, आपके प्यार का अनुभव करा देता है। धैर्य मुझमें है थोड़ा धैर्य आप भी रखिए। हमारे देश पर से यह संकट जल्द दूर हो जाएगा। तब तक आप अपने ग्राहकों को प्यार से दवाएं उपलब्ध कराएं। अभी यह बात ही आपके, बेटे सिद्धांत के और मेरे लिए सुखद है। 

यद्यपि रसिका का कोई अन्यथा प्रयोजन नहीं था मगर मुझे स्मरण आ गया था कि नकली दवाओं के स्टॉक सहित अगर मैं, धर लिया जाता तो आज रसिका और सिद्धांत से दूर मैं, जेल की हवा खा रहा होता। मैंने अनुभव किया कि पत्नी-बच्चे के साथ रह पाना भी प्यार ही है और सुखद भी है। 

प्यार से मैंने रसिका को अपने आलिंगन में लिया था। फिर थकान की अधिकता से उसके इर्दगिर्द, मेरी बांहो की पकड़ स्वमेव ढ़ीली पड़ गई थी। तब गहरी निद्रा के आगोश में जाने के पहले मैंने अनुभव किया था कि रसिका ने, किसी बच्चे जैसे, मेरे हाथ पाँव को व्यवस्थित करते हुए मुझे करवट से सुलाया था। फिर मुझ पर चादर ओढ़ा कर मेरे बाजू में स्वयं लेट गई थी। शायद तब रसिका मोबाइल पर कुछ पढ़ने लगी थी।      

अगली सुबह रसिका ने मुझसे कहा - सिद्धांत को खिला पिला दिया जाए और पढ़ने लिखने के कार्य सहित खाने की कुछ उसकी मन पसंद सामग्री, उसे दे दी जाए तो वह पाँच छह घंटे घर में अकेला रह सकता है। 

मैंने बोला कुछ नहीं था, प्रश्न पूछती दृष्टि से रसिका को निहारा था। उसने मेरा प्रश्न समझा था वह बोली - 

मैं यह कहना चाहती हूँ कि अभी मेरी छुट्टियाँ चल रही हैं। मैं शॉप पर रहकर आपका हाथ बँटा सकती हूँ। आपका साथ देने से, रोगियों के लिए कम दर पर दवाएं बेचने का पुण्य, थोड़ा मुझे भी मिलेगा। इससे आप पर कार्य का भार भी कुछ घट जाएगा। 

मैंने सहमति देते हुए कहा - हाँ यह ठीक रहेगा। कुछ दिनों में तुम शॉप का काम समझ जाओगी तो समय असमय आवश्यकता पड़ने पर अकेले भी दुकान का काम देख और कर सकोगी। चलो कल से 12 बजे से पांच छह घंटे के लिए, तुम शॉप पर आ जाया करना। 

रसिका ने कहा - अच्छे काम में देर क्यों करना, मैं आज से ही आ जाउंगी। 

फिर मैं पहले, शॉप पर आ गया था। लगभग दो घंटे बाद सिद्धांत को भोजन आदि करा कर और उसे पढ़ने को कार्य देकर, अपनी स्कूटी से पीपीई में रसिका शॉप पर आ गई थी। 

पहला दिन होने से मैंने, उसे दाम गणना कर, कैश या गूगल पे से भुगतान लेने के लिए काउंटर पर बिठाया था। स्वयं अध्यापन कार्य करती होने से, रसिका को यह कार्य सही और त्वरित गति से कर लेने में अधिक समय नहीं लगा था। अगले कुछ ही दिनों में उसने रैक्स में दवाएं कैसी रखी गई हैं, यह बात भी समझ ली थी। 

अब उसके सामने एक ही समस्या रह गई थी कि जो प्रिस्क्रिप्शन, प्रिंटेड नहीं होते थे और डॉक्टर की लपेटा लिखावट में होते थे उसमें से दवाओं के नाम समझने में रसिका को कठिनाई होती थी। पंद्रह दिन लगातार आने के बाद, रसिका इस कार्य में भी दक्ष हो गई थी। 

अब रसिका के सहयोग से हर ग्राहक पर लगने वाला औसत समय कम हो गया और हमारे ग्राहक संख्या में और वृद्धि हो गई थी। 

इस अवधि में कमाई तो और बढ़ी ही थी साथ ही जीवन में अब से अधिक संतुष्टि वाला कोई समय, मुझे स्मरण नहीं आता था। यह देश पर आपदा के समय में हमारी बड़ी उपलब्धि थी। 

18+ को वैक्सीन मिलने लगने से दस दिन पूर्व, बारी बारी से जाकर हम दोनों ने वैक्सीन का पहला डोज भी ले लिया था। मेरी ओर से कोई असावधानी हो जाने से, ग्यारहवें दिन मुझ पर तकलीफ आई थी। मुझे स्वास्थ्य संबंधी परेशानी अनुभव हुई थी। लक्षण कोरोना वाले होने से मैंने, अपने को घर में अपने कमरे में बंद कर लिया था। 

शॉप पर रसिका को अकेला जाना पड़ा था। हम दोनों के कोरोना टेस्ट में रसिका की रिपोर्ट नेगेटिव और मेरी पॉजिटिव आई थी। डॉक्टर से कंसल्ट करने पर उन्होंने कहा था कि ‘वैक्सीन की एक डोज’ लगी होने से, आप का कोरोना संक्रमण घर पर ही ठीक किया जा सकता है। डॉक्टर के परामर्श अनुसार मैं, घर पर निर्देशित परहेज एवं दवाओं के सेवन में रहने लगा था। तब शॉप का सारा काम रसिका को अकेले ही देखना पड़ रहा था। 

रसिका को परहित की लगन ऐसी लगी हुई थी कि हर दिन 16-16 घंटे काम करते हुए उसने रसोई, सिद्धांत, मुझे और शॉप के काम की बड़ी निपुणता से संतुलन रख देखरेख कर ली थी। 

15 दिनों बाद जब मैं कोरोना नेगेटिव हुआ तब तक देश में कोरोना दूसरी लहर पर अच्छा नियंत्रण किया जा चुका था। अब तक शॉप के सभी काम में रसिका मेरे समतुल्य ही निपुण हो चुकी थी। एक रात मैंने रसिका से कहा - 

रसिका तुम्हारा साथ मिलने से मेडिकल शॉप पर, हमारे काम और आय में काफी वृद्धि हो गई है। तुम टीचिंग छोड़ो और मेरा साथ दो। इससे हमारा जीवन स्तर बहुत सुधर जाएगा। 

रसिका ने नहीं में सिर हिलाया था। मैं हैरत में था कि रसिका, धन की ओर यूँ उदासीन क्यों रहती है। धन की तरफ वह, अन्य जैसे आकृष्ट क्यों नहीं हो पाती है। मैंने पूछा - इस इनकार का कारण मुझे बताओगी, रसिका?

रसिका ने कहा - धन के पीछा करने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण नहीं किया जाए तो कितना ही हो जाने पर वह कभी भी पर्याप्त नहीं लगता है। मैं अभी ही हमारे पास जितना है उससे संतुष्ट हूँ। 

फिर वह कुछ कहते हुए रुक गई थी। मैंने पूछा - तुम क्या कहते कहते रुक गई हो, रसिका? 

रसिका ने कहा - आपको कारण समझाने का प्रयास करूंगी तो आप, मेरा हर जगह टीचर बन जाने का मजाक बनाओगे। 

मैंने हँसते हुए कहा - चलो बता भी दो, अभी मैं मजाक नहीं करूंगा। 

रसिका ने कहा - 

आज देश के बच्चों को समर्पित टीचर की उपलब्धता कम है। ऐसे में मैं टीचिंग छोड़ दूँ तो एक और ऐसा टीचर कम हो जाएगा। इसलिए मैं टीचिंग करते रहना चाहती हूँ। मुझे देश की नई पीढ़ी के जरिए अपने देश का कल, स्वर्णिम होते देखने की अभिलाषा है।  

उसका मुखड़ा देखते हुए मैं सोचने लगा था कि एक साधारण सी इस अध्यापिका की महत्वाकांक्षा कितनी विशाल है …  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

19-05-2021


 



Tuesday, May 18, 2021

तुम जैसी जीवन संगिनी …

 

तुम जैसी जीवन संगिनी … 

यार तुम भी बड़ी विचित्र औरत हो। जब पति ज्यादा कमाई करने लगता है तो दुनिया की हर औरत खुश होती है। एक तुम हो कि मुंह फुलाए बैठी हो। 

यह बात मुझसे, मेरा पति सुखबीर गुस्से में कह रहा था। 

मैं पहले ही, सुखबीर से अपने विचार कह चुकी थी। मैं चुप ही रही थी। इससे सुखबीर का गुस्सा और बढ़ गया। उसने शब्दों की गरिमा त्याग कर कहा - 

अब तू मुंह से कुछ बकेगी भी या कुत्ते जैसा सिर्फ मैं ही भौंकते रहूँ?

मैं इस तू तड़ाक का बुरा मानना चाहती थी। मगर सुखबीर के इतने गुस्से में होने पर मुझे हँसी आने को हुई थी क्योंकि उसने स्वयं के कहने को ‘कुत्ते का भौंकना’ कहा था। मैंने अपनी हँसने वाली प्रतिक्रिया पर नियंत्रण किया था। मैंने तब संयत स्वर में दृढ़ता सहित कहा - 

मुझे आपका अधिक कमाना, बुरा नहीं लगता है। यह मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि जिस तरह दवाओं और इंजेक्शन की कालाबाजारी के जरिए आप औरों जैसे बन कर कमा रहे हैं, वह ठीक नहीं है।

सुखबीर मेरे उत्तर दिए जाने से कुछ शांत हुआ था। उसने शब्दों की मर्यादा का पालन करते हुए कहा - 

तुम समझती क्यों नहीं इस तरह अधिक कमाई के अवसर हर समय नहीं आते हैं। मुझ जैसे छोटे मेडिकल स्टोर वाला तो एक साधारण कमाई ही करता हुआ पूरा जीवन बिता देता है। अब अगर मुझे तुम्हारे कुछ सपने साकार करने हैं तो थोड़ा खतरा लेकर यह कार्य करना तो पड़ेगा ही। 

अपने सिद्धांतविहीन कर्मों का आरोप, मुझ पर मढ़ देने वाला सुखबीर का बहाना मुझे दुखी कर गया था। मैंने रुखाई से अपने मोबाइल पर एक पोस्ट जिसका शीर्षक “फिर दिला देना मुझे, नए कंगना …” अपने मोबाइल पर खोल कर, पति की ओर बढ़ाते हुए कहा - 

मुझे जो कहना है उसका सार इस कहानी में है। आप इसे पढ़ लो और स्वतः समझ लो। मैं आपसे बहस में पड़कर, आपको और गुस्सा नहीं दिलाना चाहती। 

मेरी रुखाई और दृढ़ता से सुखबीर कुछ नरम पड़ा था। उसने मेरा मोबाइल लिया और पढ़ने लगा था। मैं रसोई में जाकर काम करने लगी थी। 

रात का भोजन - सुखबीर, मेरे आठ वर्षीय पुत्र सिद्धांत और मैंने एक साथ किया था। तब ऐसा लग रहा था कि सुखबीर मुझसे बात करना तो चाहता है मगर सिद्धांत के कारण कुछ कह नहीं पा रहा था। 

फिर सुखबीर बेडरूम में चला गया था। मैंने जानबूझकर टीवी पर सिद्धांत के पसंद की एक बच्चों की, मूवी लगाई और उसके साथ बैठ गई थी। सुखबीर से बातों में उलझने से बचने के लिए मैं, सिद्धांत का प्रयोग ढ़ाल जैसा कर रही थी। 

डेढ़ घंटे बाद सिद्धांत को उसके कमरे में सुलाकर जब मैं, बेडरूम में पहुँची तो सुखबीर सोया नहीं था। मेरे बिस्तर पर लेटते ही उसने मुझे अपनी ओर खींचा था। मैंने उसके हाथ अपने पर से हटाते हुए कहा - 

मुझे, अभी आपका किया जा रहा काम और आपकी बातों ने मानसिक ठेस पहुँचाई हुई है। अभी आपके साथ देने का मेरा मन नहीं है। आप सो जाओ और मुझे भी सोने दो। 

सुखबीर ने मेरी उससे बचने की कोशिश का बुरा माना था। उसने, मुझसे विपरीत करवट ले ली थी। फिर जब तक मुझे नींद नहीं आई तब तक मैं, सुखबीर पर मानसिक दबाव बनाने की, अपनी तरकीबों को स्वयं ही सही ठहराती रही थी। 

अगले तीन दिनों मैंने हमारे बीच यह तनातनी बनी रहने दी थी। सुखबीर के घर पर रहते मैं, सिद्धांत को अपने साथ रखती ताकि सुखबीर, मुझसे व्यर्थ बातों का अवसर नहीं पा सके। 

चौथे दिन सुखबीर मेरी रुखाई की उकताहट में धैर्य नहीं रख पाया। दोपहर का भोजन करते समय जब सिद्धांत भी हमारे साथ था, वह चुप नहीं रह पाया था। उसने मुझसे कहा - 

तुम क्या समझती हो जिसकी कहानी तुमने मुझे पढ़ने दी है वह लेखक कोई महान समाज सेवा कर रहा होगा? लिखना या कुछ बक देना सरल काम है उसमें ना तो कोई श्रम लगता है और ना ही कोई परेशानी झेलनी पड़ती है। बहुत सरल होता है जो मन में आए लिख दो, जो दिल में आए बोल दो।      

मैं मन ही मन खुश हो रही थी। मुझे लग रहा था कि मेरे निर्मित मानसिक दबाव में उसकी यह खीझ, मेरे प्रयास की सफलता दर्शा रही है। प्रकट रूप से उत्तर में मैंने कहा - 

चलो मान लेती हूँ कि लेखक जो लिख रहा है वैसा वह कर नहीं रहा है। अगर ऐसा है भी तो, उसकी कथनी और करनी में अंतर, लेखक की अपनी समस्या है, हमारी नहीं। फिर भी आप, मुझे एक बात बताओ कि लेखक की कहानी में कौन सी बात सही नहीं है जिसे हमारा मान लेना ठीक नहीं?

सुखबीर कुछ उत्तर नहीं दे पाया था। फिर भोजन पश्चात वह शॉप पर चला गया था। उस रात सुखबीर देर से घर आया था। सुखबीर के आ जाने पर तब चल रहीं मेरी चिंताएं मिटी थीं मगर उत्सुकता बनी रही थी। मैंने पूछा - 

आप इतनी देर से कभी नहीं लौटते, आज क्या हो गया जो 10 बजा दिए? सिद्धांत भी सो गया, आपका इन्तजार करते करते। 

सुखबीर ने हँसकर कहा - 

कोई नहीं सो जाने दो सिद्धांत को, वह थक गया होगा। अब तुम खुश हो लो कि तुमने मेरे में सिद्धांत जगा दिया है। पिछले दिनों से जिन इंजेक्शन और दवाओं की कालाबाजारी चल रही है और जिससे मुझे अधिक कमाई मिल रही थी, उसका बचा स्टॉक आज मैं डीलर को, कुछ घाटे में लौटा आया हूँ। मुझे घर आने में देर उसी के हिसाब किताब में हो गई है। 

इस बात से मैं खुश हुई थी। तब सुखबीर ने फ्रेश होकर खाना खाया था। उस रात बिस्तर पर हम दोनों विपरीत करवट नहीं सोए थे। हममें अब संबंध फिर सामान्य और सुखद हो गए थे। 

इस बात के छह दिन बाद, दिन में असमय ढाई बजे डोर बेल बजने पर, मैंने दरवाजा खोला तो सामने चार पुलिस वाले खड़े थे। मैंने कहा - 

मेरे पति अभी शॉप पर हैं। घर में मैं अकेली हूँ। 

तब उनमें जो इंस्पेक्टर था वह बोला - 

यह बात हम जानते हैं। दरअसल आपके घर और दुकान का सर्च वारंट जारी हुआ है। आपकी दुकान की जांच दूसरी टीम कर रही है। घर की जांच करने हम आए हैं।  

मैंने उनके द्वारा दिखाया वारंट देखा था। फिर उन्हें बिना किसी प्रतिरोध के, जांच करने दी थी। पूरे समय मेरा बेटा सिद्धांत सहमा खड़ा रहा था। उन्होंने जांच के नाम पर पूरा घर उलट पुलट दिया था। लगभग एक घंटे में वे चले गए थे। 

मुझ पर घर वापस व्यवस्थित करने का बड़ा काम आ गया था। जिसे परेशान होकर करते हुए भी मैं खुश थी। हमारे घर से आपत्ति जनक कुछ भी बरामद नहीं किया गया था। जैसा सुखबीर ने मुझे बताया था उससे, शॉप से भी जांच दल को कुछ आपत्तिजनक मिलेगा इसका भय मुझे नहीं था। 

उस रात भी सुखबीर देर से घर लौटा था। वह थका हुआ मगर खुश था। उसने आते ही मुझसे कहा - 

तुम्हारी वे बातें मुझे उस समय बहुत बुरी लग रहीं थीं मगर उन्हीं के कारण आज मैं, जेल जाने से बच पाया हूँ। किसी ने शिकायत की थी कि मेरे पास नकली इंजेक्शन एवं दवाओं का स्टॉक है। जिसके कारण पुलिस ने हम पर दबिश दी थी। धन्य है तू, तेरे कारण छह दिन पहले ही, मैं वह सब स्टॉक डीलर का लौटा आया था। अब आज, वह डीलर तो हिरासत में चला गया मगर मैं आज़ाद हूँ। 

मन ही मन विचार करते हुए मैंने कहा - 

यह अच्छी बात है किंतु आपने अनजाने में ही सही, कुछ दिन पूर्व तक, नकली दवाएं बेचीं हैं। मरीजों को इससे परेशानी झेलनी पड़ी होंगी। उसका तो प्रायश्चित हमें करना ही चाहिए। 

मेरी बात सुनकर सुखबीर कुछ सोचने लगा था। फिर उसने कहा - 

हाँ, यह तुम ठीक कहती हो। मैं प्रायश्चित करूंगा। अब से, जब तक कोरोना खतरा खत्म नहीं होता मैं, अलग अलग कंपनी की दवाओं पर मुझे मिलते मार्जिन के अनुसार उन पर प्रिंटेड अधिकतम दर से, 20% या 10% कम दर पर, ग्राहकों को औषधियां बेचूँगा। 

मैं खुश हुई थी। मुझे महसूस हो रहा था कि कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में अब हम सरकार के साथ भागीदारी करने जा रहे हैं। 

उस रात सुखबीर ने स्नान किया था और फिर भोजन किया था। बाद में बिस्तर पर, हम जब सोने पहुँचे तो सुखबीर ने मुझे प्रणय आलिंगन में लेते हुए कहा - 

आज मुझे समझ आया है कि अपने बेटे का नाम सिद्धांत रख देने मात्र से उसका अच्छा नागरिक बनना सुनिश्चित नहीं हो जाता है। अपितु इसके लिए हमें उसके सामने सिद्धांत पालन करते हुए स्वयं जी कर दिखाना होगा। उसी से उसमें सही संस्कार पड़ेंगे और वह अच्छा नागरिक बन सकेगा। 

मैंने सुखबीर के सीने में सिर गढ़ाते हुए ‘हूँ’, बस कहा था। तब सुखबीर ने ही आगे कहा - 

तुम तो सिद्धांत प्रिय जीवन पहले से जीती आ रही हो। अब तुम्हारी प्रेरणा से मैं भी वैसा ही अच्छा जीने का तरीका अपनाउंगा। अगर तुम जैसी जीवन संगिनी सभी को मिले तो हमारा यह भारत, अपनी प्राचीन भव्यता पुनः प्राप्त कर सकता है। 

अपनी प्रशंसा से तब मैं चिर निद्रा में सो जाना चाहती थी। मुझे डर लग रहा था कि जागने के बाद यह मेरी मधुर अनुभूति किसी कटु यथार्थ में गुम ना हो जाए …      

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

18-05-2021


 

   


फिर दिला देना मुझे, नए कंगना …

 फिर दिला देना मुझे, नए कंगना …

सीमा पर अभी पिछले कुछ दिनों से, दुश्मन की ओर से हरकतों में बहुत कमी आई थी। ऐसा मैंने पिछले एक दशक में सीमाओं पर अपनी तैनाती के दौरान कभी नहीं देखा था। अतः यह मेरी सेना की सर्विस में मुझे अपने प्राण पर सबसे कम संकट वाला समय प्रतीत हो रहा था।
पिछले कई वर्षों की दुरूह क्षेत्रों में अपनी तैनाती से, मैं कठिन परिस्थितियों में रहने का अभ्यस्त हो चुका था। अभी मेरी तैनाती ऐसी ही एक मुश्किल सीमा पर थी जहां मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता था। कुछ समय से गश्त देने के अपने कार्य में हमें, कोई चुनौती नहीं लग रही थी। इस से हम खाते पीते और अपने साथियों के साथ बातें और मौज मस्ती में दिन बिता रहे थे। किसी किसी दिन रसद के लिए मुझे, समीपस्थ कैंप में जाने का अवसर मिलता था। तब मैं अपनी पत्नी आरती, अपने दो छोटे बेटे और अपने परिजनों से मोबाइल पर बात किया करता था।
आज जब ऐसा ही मौका मुझे मिला तो मैंने आरती से मोबाइल पर बात की थी। मुझे छह माह से अधिक समय हो गया था जब मैं अपनी विगत छुट्टी, परिवार के साथ बिताकर लौटा था। आरती इस कारण मेरे से विरह की वेदना फोन पर कहा करती थी। आज की बात में वह विरह वेदना से भी अधिक दुखी लगी तो मैंने पूछा - आरती क्या बात है, मेरे कॉल पर भी आज तुम खुश नहीं लग रही हो?
आरती ने बताया -
पिछले 15 दिनों में गाँव में कोरोना का प्रकोप बहुत बढ़ गया है। हर तीसरे चौथे घर में लोग बुखार खाँसी से परेशान हैं। अभी तक तो हमने अपने घर में कोरोना प्रवेश को रोक रखा है। तब भी हम सभी बहुत डरे डरे रहते हैं। अभी हम सब उतने ही डरे हुए हैं जितना सीमा पर डिस्टर्बेंस के समय आपकी कुशलता को लेकर डरते हैं।
मैंने अभी हाल में छुट्टी से लौटे अपने साथियों से कोरोना की दूसरी लहर से भयावह हो रही परिस्थितियों के बारे में सुन रखा था। फिर भी सरकार वैक्सीन और मरीजों के उपचार की भरसक कोशिश कर रही है यह भी पता होने से मैंने आरती को समझाते हुए कहा -
आरती अब तो सरकार ने 18 वर्ष से ऊपर के लोगों को वैक्सीन की अनुमति दे दी है। तुम सब वैक्सीन क्यों नहीं लगवा रहे हो? वैक्सीन लगने पर, सबका कोरोना का डर मिट जाएगा।
आरती ने बताया - यहां गांव के लोगों की बातों में आकर पिताजी और माँ ने अपनी बारी पर वैक्सीन नहीं लगवाई थी। अब जब हर घर कोरोना से प्रभावित होते जा रहा है तो जेठ जी अन्य की छोड़, उन्हें लेकर बहुत चिंतित रहते हैं। अब वैक्सीन के केंद्र पर भीड़ इतनी है कि जेठ जी कहते हैं वहाँ की धक्का मुक्की में कोरोना होने का खतरा, वैक्सीन से मिलने वाली राहत से अधिक हो गया है। वैक्सीन के लिए वहाँ पहुंचने वाले लोग कई कई बार बिना वैक्सीन के लौट रहे हैं। वैक्सीन की उपलब्धता पहले तो थी अब कम पड़ रही है।
मैंने सांत्वना देते हुए कहा - आरती, अधिक डर के रहने से इम्यूनिटी कम हो जाती है। सावधानी सहित निर्भय होकर रहो।
आरती ने बताया -
मुझे तो बहुत डर लग रहा है। हर दूसरे, तीसरे दिन गाँव में कोई मर रहा है। उपचार के लिए दवाएं और इंजेक्शन नहीं मिल पा रहे हैं। जेठ जी बता रहे हैं कि जिन्हें मिल पा रहे हैं उन्हें उसकी कई कई गुनी कीमत देना पड़ रही है। अस्पताल एवं दवाओं के बिल/कैश मेमो भी नहीं दिए जा रहे हैं। अगर अपने घर में किसी को जरूरत पड़ी तो हमारा दवा खरीदना और अस्पताल में उपचार करा पाना मुश्किल होगा। कैश मेमो नहीं मिलने से आप भी सेना ऑफिस से मेडिकल बिल नहीं ले सकेंगे।
अंत में मैंने आरती का ढांढस बढ़ाने का प्रयास करते हुए कहा - आरती, तब भी चिंता करने से कोई लाभ नहीं। सब लोग सावधानी रखो और कोशिश करो कि वैक्सीन लग जाए।
इस तरह हमने बात खत्म की थी। यह पहली बार था कि हम आपस में प्यार की कोई बात नहीं कर पाए थे। मैं आरती के मुंह से उसकी पसंद के गाने की दो पंक्तियाँ नहीं सुन पाया था - “एक तेरा साथ हमको दो जहां से प्यारा है, ना मिले संसार तेरा प्यार तो हमारा है”।
रसद लेकर वापस पहुंचा तो मेरा मन बोझिल और उदास था। रात मुझे देर तक नींद नहीं आई थी। आरती को तो मैं समझाते रहा था मगर माँ-बाबूजी को लेकर स्वयं मैं बहुत चिंतित हो गया था। मैं सोच रहा था देश की सीमाओं की रक्षा का भार मुझ पर था जिसे मैं भली भांति निभाता हूँ। देश में आई महामारी से, देश की अन्य एजेंसीज अर्थात सिविलियन को निबटना है। क्यों ये एजेंसी अपने पर दायित्व को मुझ जैसी नैतिकता एवं साहस से नहीं निभा पा रहे हैं।
सप्ताह भर मैं ड्यूटी करता रहा था मगर हृदय में विषाद बना रहा था। आठवें दिन परिवार के हाल चाल ले पाऊं इस हेतु, मैंने स्वयं ही रसद लाने की ड्यूटी ली थी। उस दिन आरती से जब बात हुई तो पता चला कि माँ-पिता, दोनों की हालत ठीक नहीं होने के कारण हॉस्पिटल में भर्ती करवाना पड़ा है। उनकी दवाओं एवं उपचार के लिए खर्चा बहुत आ रहा है। अतः आरती और उसकी जेठानी को अपने अपने कंगन बेच देने पड़े हैं।
तब मुझे याद आया था कि आरती को ये कंगन मैंने अपनी बचत राशि से खरीद कर, प्रथम प्रणय रात्रि पर अपने हाथों से पहनाए थे। मैंने कहा -
आरती, मेरी प्यार का दिया प्रथम उपहार बेचकर तुम दुखी हो क्या?
आरती ने शायद मुझे दुखी ना करने के लिए उत्तर सोच रखा था उसने कहा -
कोई नहीं जी, अभी माँ-बाबूजी अच्छे हो जाएं बाद में आप फिर दिला देना मुझे, नए कंगना।
मैं आरती के मुख की कल्पना करने में लगा था कि कैसे उसने अपने सजल नेत्रों को अपनी ओढ़नी से पोछ कर यह कहा होगा।
जब मैं लौट रहा था तब मेरी उदासी बढ़ गई थी। अगले दिन से शत्रु सेना ने अचानक गोलाबारी एवं फायरिंग शुरू कर दी थी। हमें उत्तर में कार्यवाही करना पड़ा था। पंद्रह दिन लगे थे जब शत्रु को सबक सिखाने के लिए हमें निरंतर मुस्तैद रह कर सख्त कार्यवाही करना पड़ा था।
हमारी बटालियन से हमारे तीन साथी वीरगति को प्राप्त हुए थे। इसी बीच मुझे सेना मुख्यालय से तीन दिनों के अंतर से दो बार सूचित किया गया था। मुझे, पहली बार पिताजी के एवं दूसरी बार माँ के देहांत की सूचना दी गई थी। सीमा पर हालात ऐसे थे कि बाबूजी एवं माँ के नहीं रहने पर भी मैंने छुट्टी की माँग करना उचित नहीं समझा था। अपनी ऐसी लाचारी और अपने पालकों को खोकर मैं अत्यंत भड़का हुआ था।
देश के नैतिकता हीन अवसरवादी लोगों पर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। जिन्होंने काला बाजारी और स्वयं के अधिक लाभ के लोभ एवं अन्य तरह से अपने हित साधने की कुत्सित भावना वशीभूत होकर, कोरोना पीड़ित लोगों के लिए सही व्यवस्था के हमारे सरकार के प्रयासों में सहयोग नहीं किया था।
अपना यह गुस्सा मैंने शत्रु सेना पर उतारा था। दुश्मन के छह जवानों को मैंने अत्यंत निर्ममता से मारा था। इसे सेना में मेरी वीरता माना गया एवं मुझे तुरंत पुरस्कृत करने की अनुशंसा सरकार को भेजी गई थी।
पंद्रह दिन से जारी सीमा पर बिगड़े हालात जब सुधर गए तो मेरे मांगने के पहले ही मुझे अवकाश स्वीकृत किया गया था। मैं गाँव पहुँचा था। मैं अत्यधिक व्यथित था। मेरे हर अवकाश पर मेरे घर पहुँचने की ममता से प्रतीक्षा करने वाले मेरे बाबूजी एवं माँ सदा के लिए जा चुके थे।
अभी की लड़ाई में, मेरी वीरता के किस्से प्रदेश एवं गांव तक, मेरे पहुंचने के पहले पहुंच गए थे। इस कारण गाँव एवं आसपास के बड़ी संख्या में लोगों के साथ ही, प्रदेश के मुख्यमंत्री संवेदना देने मेरे गाँव आए थे।
इस बड़ी भीड़ की प्रत्याशा में, सोशल डिस्टन्सिंग का विचार रख मेरे माँ-बाबूजी की तेरहवीं पर श्रद्धांजलि सभा बड़े मैदान में आयोजित की गई थी। इसी सभा में ही मुख्यमंत्री ने मुझे सम्मानित भी किया था। इस सभा में मुझे बोलने के लिए कहा गया था। मैं अत्यंत भाव विह्वल था।
माइक के सामने पहले तो मैं 2-3 मिनट खड़ा रह गया था। मैं कुछ नहीं बोल पाया था।
सभा में पिन ड्रॉप साइलेंस था। सब मेरे मुँह को ही तक रहे थे। तब मेरे व्यथित और रोष से द्रवित हृदय के रास्ते होते हुए, मेरे मुख पर यह शब्द आ पाए थे। मैंने कहा -
मेरे माँ-बाबूजी के संस्कार से मैंने नैतिकता, सिद्धांत एवं साहस की शिक्षा ली। आज मैं इस योग्य हूँ कि देश पर खतरा बनते प्रत्यक्ष शत्रु पर अपने मारक प्रहार से मैं, उनका वध कर देता हूँ। इस तरह से देश की सीमाओं पर आया संकट, टालने में मैं समर्थ रहता हूँ।
आज चहुंओर प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे सकने वाले कुत्सित, नैतिकता विहीन, स्वार्थी एवं अमानवीय विचार, मेरे देशवासियों के मन पर हावी हैं। वे इस महामारी के समय में भी परस्पर सहयोगी कर्म नहीं कर रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मैं ऐसा अनुभव कर रहा हूँ। मुझे अपनी इस लाचारी पर अत्यंत क्षोभ है कि इन अदृश्य विचारों पर भी मैं, दुश्मन पर किए जैसे मारक प्रहार नहीं कर सकता हूँ।
इन बुरे विचारों से दुष्प्रेरित मेरे बहुत से देशवासी, रोगियों की दवाओं एवं उपचार में भी अधिक से अधिक लाभ लिए जाने की जुगत में लगे हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि दवाओं सहित सभी दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर लागत से, कई कई गुना अधिकतम मूल्य अंकित होता है। यह कैसी राष्ट्र निष्ठा है कि इस विपदा काल में भी, अधिकतर निर्माता या विक्रेता अपना लाभ कम लेकर, एमआरपी पर डिस्काउंट देने का साहस और नैतिकता नहीं दिखा पा रहे हैं। उलटे इनकी कालाबाजारी करने में लगे हुए हैं।
ऐसे राष्ट्र अहितकारी विचारों पर, मैं मारक निशाना साध पाने में असमर्थ हूँ। सब लोग समझते हैं कि देश की रक्षा सैनिक का ही दायित्व होता है। अपने माँ-बाबूजी को कोरोना में खोकर, मैं यह मानता हूँ कि देश रक्षा का दायित्व सेना से अधिक, सिविलियन का है। ये हमारी आगामी पीढ़ी को ऐसी घिनौनी परंपरा नहीं दें, जिसमें गिद्ध से अधिक, किसी मरे व्यक्ति को खुद मनुष्य ही नोच नोच कर खाने का दृश्य प्रस्तुत करता है।
अगर देश में ऐसे विचार विद्यमान रहेंगे तो राष्ट्र सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकेगी। ऐसा चलता रहा तो देश को सुरक्षा देने वाली सेना के, सभी प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे। हम देश की सीमा तो बचा सकेंगे मगर देश की आत्मा नहीं बचा सकेंगे। आज देश एवं उसकी आत्मा की सुरक्षा, सैनिक के हाथों से अधिक सिविलियन के हाथ में है।
कहकर मैं माइक पर ही बिलख कर रो पड़ा था …
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
17-05-2021