Sunday, July 28, 2013

चंचल मन

चंचल मन
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चंचल मन पर ना रख सकें काबू जब 
जीवन तमाशा बन जाता है 
मिल जाए फिर कुछ भी हमें तो  
जो भले रही थी वर्षों कामना पाने की 
कुछ दिन में हम उससे उब जाते हैं  

मन के इस स्वभाव को समझ कर 
मन को इतना ना समझा सकें कि 
ना हो आतुर नई नई कामना पाने को 
मिलेगी हम फिर उब जायेंगे उस नई से 
अगर वह वस्तु तो इतना बुरा होगा हमसे 
नई नई अनेकों जल्दी जल्दी जो बदलेंगे 
हमें लगेंगे बहुत अधिक रुपये पैसे 
जुटाने जिसे अनैतिक हमें होना होगा 

लेकिन जिसे बदले वह नहीं कोई वस्तु 
वह यदि है हमारा कोई मनुष्य साथी तो 
चंचल मन के कारण उबने की आदत से 
छल उससे कर आहत ह्रदय को कर देते हैं 

ऐसे चंचलमना बढ़ते यदि जायें तो 
बहुत तो होंगे चंचलमना और 
साथ ही बढ़ेंगे आहत ह्रदय मनुष्य भी 
चंचलमना इक मानसिक रोगी 
और आहत ह्रदय एक दुखी व्यक्ति है 
जिस समाज में बहु मानसिक व्याधि 
और बहुत हैं ऐसे दुखी मनुष्य तो 
वह समाज नहीं सुखी बन सकता है 
और मानवता वहाँ अस्तित्वहीन होती है

इस विवरण से यदि सहमत हम तो 
तो चंचल अपने मन पर रखें नियंत्रण 
जिससे रुकेगी अनैतिकता और 
छल कपट निर्मूलन हो सकेगा 
समाज हित इससे होगा सुनिश्चित 
और मानवता अनवरत प्रवाहमय रहेगी 

--राजेश जैन 
28-07-2013

Saturday, July 27, 2013

नेक सलाह

नेक सलाह
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सलाह तो देता सच्ची किन्तु अगर ना रुचती हमारे बन्धु -बहना
ना मानो तुम नहीं शिकायत और नहीं नई कोई सलाह है कहना
मानो ना मानो बन्धु -बहना पर कामना सर्वकुशलता से तुम रहना
कचोटती ना मान नेक सलाह देख समस्याओं में तुम्हारा उलझना

सलाह देना नहीं चाहते गर तुम्हें आ जाये स्वयं समस्या सुलझाना
लेकिन अनदेखी सलाह करना और फिर तुम्हारा उलझन में पड़ना
जीवन के इस अजीब स्वरूप से जब आता कोई डरावना हमें सपना
बन्धु -बहना हमारी तुम, व्यथा उत्पन्न करती देती हमें हार्दिक वेदना

क्यों नहीं स्वयं समर्थ? तुम हो सफल और समर्थ बनो रखी कामना
सलाह फिर ना मानना और उलझन में हमारी सलाह तुम हमें देना
सलाह और मार्ग दिखा परिवार-समाज-देश को उन्नति पथ ले जाना
भटक गए मानव उन्हें तुम सच्चे बन मानवता जीवन्त कर दिखलाना

--राजेश जैन
28-07-2013

शब्द क्रांति

शब्द क्रांति
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बहुत चलीं तलवारें
बहुत चल चुके तीर
दागी गईं अनेक गोलियां
आईं रक्त रंजित क्रांतियाँ
जीते गए युध्द अनेकों
मरने और मारने वाले
अतीत सभी होते गए
बुराइयाँ कायम अभी भी
समस्या भी हैं वर्तमान
हम लायें शब्द क्रांति
मारी जाएँ सभी बुराइयाँ
ख़त्म हो जाएँ समस्यायें
रक्त बह चुका बहुत
अब ना बहे अब किसी का
पृथ्वी को इस रूप तराशें
देख जिसे स्वर्ग जल उठे
धरती हमारी माँ होती
हम बेटे का दायित्व निभाएं
आओ पृथ्वी को ऐसी
स्वर्ग से सुन्दर हम बनायें
और मानवता को
देवता से आगे हम बढायें
--राजेश जैन
27-07-2013

Wednesday, July 24, 2013

जागरूकता

जागरूकता
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प्रातः कालीन भ्रमण का चक्कर तीन कि. मी . जाने और तीन कि. मी . वापिस आने का है . कई बार विलम्ब होने पर लौटते  में स्कूल कॉलेज के बच्चे टीचर्स का ट्रैफिक आरम्भ हो जाता है . 
इस सीजन में कॉलेज आरम्भ होने के बाद एक बेटी को नियमित पैदल कॉलेज जाते देख रहा हूँ . और उसका कॉलेज तक का रास्ता तीन कि. मी . होता है . वैसे पैदल चलना कोई बुराई नहीं है . किन्तु पढने वाले स्टूडेंट के लिए जाने आने में लगाने वाला समय (सवा -डेढ़ घंटे ) और उससे हुई थकान के बाद लेक्चर में मन लगाना कुछ परेशानी का लगता है . उसी समय कुछ और युवतियों ( लेक्चरर -स्टूडेंट्स ) को स्कूटी पर सिंगल भी लगभग वही मार्ग पर जाते देखता हूँ . उस समय लगता है कि इस बेटी को कोई (नारी ही ) अपने साथ क्यों बिठा नहीं ले जाती ,या यह बेटी क्यों नहीं परिचय बढ़ा किसी युवती के साथ यह अंडरस्टैंडिंग कर लेती . 

मेरी बेटी ने 6 साल स्कूटी से कॉलेज जाते हुए ऐसी अपनी फ्रेंड जिनके पास स्कूटी नहीं रही है . उन्हें पिक कर और ड्राप कर यह कार्य किया है . उसमें हमने हमेशा दो लाभ अनुभव किये हैं .
एक ... एक की अपेक्षा 2 साथ होने से हमें कुछ ज्यादा निश्चिन्ता रही .
दो ..... फ्रेंड की हेल्प हुई ही और उसका कुछ समय और थकान पढने के लिए बचा .

यह परस्पर सहयोग देश में हर स्तर पर बढ़ाकर  देश का फ्यूल बजट कम किया जा सकता है . कई  घंटों का मैनपावर बचा ज्यादा परिणाम कारी कार्यों में लगाया जा सकता है . और देश के सड़कों पर यातायात भार (ट्रैफिक लोड ) ,पार्किंग स्थल में वाहनों की भीड़ कम की जा सकती है . (कार में चार और बाइक में दो की क्षमता पर ऑफिस जाते हुए अधिकतर अकेले कार या बाइक में ,जाते आते दिखते हैं )

इसके लिए थोड़ी अहं (ईगो ) कम करने और परस्पर सहयोग और विश्वास बढ़ाने की आवश्यकता होती है . यह किया जा सकता है यदि हम देश और समाज को अपना मानें और उसके उन्नति और खुशहाली के लिए जागरूकता प्रदर्शित करें तो ...

--राजेश जैन 
25-07-2013

Sunday, July 21, 2013

नारी चेतना और सम्मान की रक्षा

नारी चेतना और सम्मान की रक्षा 
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नहीं प्रसंग किसी वस्तु में पर लगा चित्र विज्ञापन में है तो 
दुकानों में नहीं होती पहले किन्तु बैठी सीट पर वह हो तो 
कार्यालयों में नहीं होती पहले अब पहुँचती यदि वो हो तो 
महाविद्यालय तक कम पहुँची थी वहाँ मिले वह भी तो

रास्तों पर मिलती ढकी सी थी अब निकले खुले सिर वह तो
पहले कहती कम वह थी चपल चर्चाओं भाग लेती अब वो तो 
सकुचाती गृहसीमा सिमटी थी साथ कन्धा मिलाती अब वो तो
घर से निकल साथ भारतीय जाती अन्तरिक्ष तक वह अब तो 

सभी को लगे जगह आकर्षक जहाँ मिलती नारी अब है तो 
नारी की यह महिमा अगर और प्यारी हमें वह इतनी है तो 
क्यों रखते उसे हम डराकर उसे क्यों करते शोषण उसका 
क्यों करते अपमानित हम क्यों रोकते जन्म तक उसका 

बदलें उन परिस्थितियों को हम जिसमें रहती वह डरी सी है 
बदलनी सोच वह ख़राब करते उपयोग उसे हम वस्तु सा हैं 
अपने दोहरे इन मानदंडों की हमें करना चाहिए पुर्नसमीक्षा 
लायें व्यवस्था जिसमें हो नारी चेतना और सम्मान की रक्षा 

--राजेश जैन
21-07-2013


    

Saturday, July 20, 2013

सबको सुहाएगा इतराना

सबको सुहाएगा इतराना
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उमंग शक्ति और स्वस्थ युवा रह कौन नहीं जो इतराया
सफलता जब कदम चूमती है तब कौन नहीं जो इतराया
कुछ सफलतायें निरंतर आई तो क्यों गर्व से वह इतराया
अनुकूलतायें ज्यादा आई जीवन में क्यों इस पर इतराया

हर्षित हम क्या हमारा समाज सुखी जो वो ऐसा इतराता

नहीं कर सका भला समाज का फिर क्यों इतना इतराता
धर्म बढाई गाता ना निभाता स्वयं फिर क्यों वो इतराता
समस्याग्रस्त देश स्वयं एक समस्या फिर क्यों इतराता 

अवसर आयें जीवन में अच्छे तो अच्छा होता है इतराना 
पर अधिसंख्य आसपास दुखी तो नहीं अच्छा है इतराना
बनायें आसपास सुखी समाज फिर मिलकर सब इतराना
नहीं दुखी होगा देख अन्य कोई सबको सुहाएगा इतराना

--राजेश जैन 
20-07-2013
  

Friday, July 19, 2013

समुद्र से घिरे एक छोटे की कहानी

समुद्र से घिरे एक छोटे की कहानी
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प्राचीन काल में समुद्र से घिरा एक छोटा देश था . जिसमें राजा अति विलासिता प्रिय था . उसे प्रजा से कोई प्रेम नहीं था . वह राजा होने के नाते उनके प्रति अपने कर्तव्य बोध से बेखबर अपने एशो आराम में रहना पसंद करता था . उसे उसके राज दरबारी देख कानाफूसी करते जिसकी भनक राजा को लगी तो उसे चिंता हुई . राजदरबारी विलासिता के किस्से फैलायेंगे तो वह अलोकप्रिय हो सकता है . किसी दिन सेना और जनता विद्रोह कर सकती है . और उसकी विलासिता संकट में पड़ सकती है .

उसने उपाय किया राज दरबारियों के और सेना वरिष्ठों के सुख-सुविधा ,निवास भवन में और वेतन में बहुत वृध्दि कर दी . खुश होकर राज दरबारियों ने कानाफूसी बंद कर  राजा के गुणगान आरम्भ कर दिए .
जिस तरह की चिंता पहले राजा की थी वह तो ख़त्म हो गई पर अब यह चिंता राज दरबारियों के और सेना वरिष्ठों को सताने लगी . राजा और हमारे विरुध्द जनता भड़क ना जाये .अन्यथा राजा को खतरा होगा . यह राजा बदला तो सब सुख-सुविधा में कमी हो जायेगी .

उन्होंने मिल बैठ उपाय किये . और सुरक्षा की दृष्टि से अनेकों नियम -कानून जनता पर लागू करवाने का प्रस्ताव राजा को आवश्यकता समझाते हुए रखा . राजा इस सूझबूझ पर खुश हुआ और फिर उसकी सहमति से देश में प्रस्तावित नियम-कानून लागू कर दिए गये .

उन नियमों के दायरे में किसी भी पेशे से धन -अर्जन करना कठिन हुआ तब अपनी समृध्दी -वैभव बढ़ाने के लिए कुछ लोगों ने इन्हें तोड़ने का दुस्साहस किया . जब सेना ने उन्हें नियमों का हवाला दे समझाया तो उनमें से कुछ ने सेना के समक्ष राजदरबारियों के ऐशो आराम और तुलना में अपने अभावों का विवरण रखा . सेना यह सोच प्रसन्न हुई कि राजा और स्वयं सेना पर इन्होनें ऊँगली नहीं उठाई है . अतः उन्हें नियमों के उल्लंघन के लिए दंड नहीं देते हुए . नियम विरुध्द अर्जित धन का कुछ हिस्सा स्वयं ले उन्हें छोड़ा . ये लोग थोडा देना पड़ा और ज्यादा बचा लिया गया सोच खुश हुए और अब उन्होंने नियम उपेक्षा कर धन -अर्जन करना अपने पेशे में सम्मिलित कर लिया .

धीरे धीरे कुछ और लोगों ने देखादेखी यही रास्ता अपने पेशे में शामिल कर लिया . लेकिन अब इसकी चर्चा राज्य में होने लगी . जो दुस्साहस ना कर सके और वंचित रहे उन्होंने जब तब इकठ्ठा हो चर्चाएँ प्रारम्भ कर दी . समृध्द हुए , सेना और राज  दरबारियों  को ये सभायें आशंकित करने लगी . विद्रोह हुआ तो सब सुख-सुविधा ना चली जाये .इस दृष्टि से समृध्दशाली , सेना और राज दरबारियों ने मिल मंत्रणा की उपाय निकाल प्रस्ताव राजा की स्वीकृति हेतु तैयार किया गया . राजा तर्कों से सहमत हुआ . और उसने  स्वीकृति दे दी .

दूसरे दिन से राज्य में हर मील पर मनोरंजन भवनों का निर्माण आरम्भ करवाया गया और दो महिनों में राज्य में नौ सौ से ज्यादा मनोरंजन स्थल प्रारम्भ कर दिए गए . जिनमें दिन और रात के अधिकाँश समय मनोरंजन के लिए नृत्य -गायन और प्रेम क्रीड़ा के दृश्य देखने के लिए उपलब्ध होने लगे . इससे उसमे कार्य करने वाले लोगों की आय भी बढ़ गई उनकी प्रतिष्ठा भी बदने लगी और इस तरह समृध्दी कुछ और लोगों के हिस्से में आ गई .

अब वंचित जो अभी भी अधिसंख्य ही थे . वे उन सभाओं को भूल गये जिनमें वैभव शाली लोगों के विरुध्द असंतोष की चर्चा होती थी .

वे उन मनोरंजन स्थलों की शोभा बढ़ाते . और अपने दुखड़े भूल मनोरंजन से मिलते सुख से संतोष करते .
लेकिन तब वंचितों की युवा होती पीढ़ी अभावों से विचलित हुई . वे विद्यालयों में इस पर चर्चा करने लगे . जो फिर समृध्दों के कानों तक पहुँची . उपाय फिर निकाला गया और कुछ ही दिनों में मनोरंजन के कार्यक्रमों में युवाओं को इनामों की राशि और उन्हें मनोरंजन कार्यक्रमों में कलाकार का अवसर दिलाते ,सब्जबाग दिखाते प्रस्तुतियां दिखाई जाने लगी . जिन्हें देख युवा अब वहाँ स्पर्ध्दा में भाग लेने लगे . जो थोड़े चयनित होते या इनाम जीतते उनकी समृध्दी बढती . शेष अपने को प्रतिभा हीन मान समझौता कर लेते ...

एक दिन समुद्र किनारे खड़े होकर एक दार्शनिक अपने देश की ओर निहारते हुए सोच रहा था ..
उसे लगा विलासिता को  पुष्ट करने वाली यह नीति -संस्कृति .. मानवता या समाजहित की दृष्टि से कहीं भी उचित नहीं लगती अतः इसका फैलाव किसी अन्य देश या विस्तार आगे के काल के लिए ठीक नहीं है .. वह चिंतित हो एक महात्मा के पास दौड़ा गया .
उनसे उन्होंने पूरा विवरण और अपनी आशंका सुनाई .."विस्तार अन्य देश या  आगे के काल तक गलत संस्कृति का " ना जाए ..
इस विचार से उन्होंने उस देश को विश्व मानचित्र से अदृश्य कर दिया ..
लाखों वर्ष संस्कृति से विश्व अछूता रहा .. ना जाने आधुनिक विकसित मनुष्य मस्तिष्क को कैसे इस अप -संस्कृति की भनक लग गई ..

--राजेश जैन
19-07-2013


 

Wednesday, July 17, 2013

धर्म

धर्म
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गणित की एक क्लास में शिक्षक पचास विद्यार्थियों (Students) को एक थ्योरम पढाते हैं . और फिर एक प्रश्न (गणित ) उस आधार पर हल (सॉल्व )करने देते हैं . कुछ विद्यार्थी (Student) कर नहीं पाते हैं .कुछ करते हैं  उसमें से कुछ शीघ्रता से और कुछ विलम्ब से कर पाते हैं . थ्योरम एक ही है . पढ़ाने वाले शिक्षक एक ही हैं फिर भी विद्यार्थियों के प्रदर्शन में भिन्नता है . स्पष्ट है उनकी ग्रहण करने की प्रतिभा और पढाते समय ध्यान अलग -अलग था . या थ्योरम जिस पूर्व गणितीय ज्ञान (Base) पर निर्भर था उसका अध्ययन और अभ्यास (practice) अलग अलग विद्यार्थियों का अलग -अलग था . अतः थ्योरम  किसी को ठीक , किसी को त्वरित और किसी को त्रुटिपूर्ण समझ में आया .

शिक्षक का अपना स्वयं का ज्ञान और पढाये जाने की शैली भी बच्चों को प्रभावकारी ढंग से समझने में कारण हो सकती है .फिर शिक्षक जो गणित का गुरु है . वह भी गणित के किस स्तर तक का ज्ञाता है ,यह भी महत्वपूर्ण होता है .आवश्यक नहीं गुरु जो प्राथमिकी गणित के अच्छे शिक्षक हैं. वह महाविद्यालयीन गणित में भी उतने  अच्छे पारंगत हों  .

अब वही थ्योरम जिस बच्चे को अच्छा समझ आ गया वह किसी अन्य को बताएगा तो सम्भावना है सही बताये . लेकिन जिस बच्चे को स्वतः सही समझ नहीं आया अगर कोई उससे समझने वाला हुआ तो सम्भावना है कि वह गलत ज्ञान ही पायेगा .

धर्म जो अनादि अनंत माना गया है .अर्थात सृष्टि से पूर्व भी धर्म का अस्तित्व था और सृष्टि के नष्ट हो जाने के बाद भी धर्म का अस्तित्व रहेगा . स्पष्ट है चिरकाल से धर्म सिध्दांत रूप में मनुष्य को उपलब्ध रहा है . मनुष्य ने जीवन में अनेकों धर्म देखे . एक या कुछ पर श्रध्दा रख उसके अनुयायी रहे . हर अलग धर्म के मानने वाले कम भी हों तो भी करोड़ से कम आज किसी भी धर्म के अनुयायी ना होंगे . और ऐसे करोडों अनुयायी धर्म के सहस्त्रों वर्षों से हैं .

अतः किसी का भी किसी धर्म विशेष को गुण रहित कहना  अनुचित हो सकता है .क्योंकि किसी दोष पूर्ण सिध्दांत में इतनी लम्बी अवधि तक आस्था बनी रहना और वह भी करोड़ों की संख्या में मनुष्यों की संभव नहीं है 
धर्म मस्तिष्क का समझने का  विषय रहा है . उन्नत मस्तिष्क मानवों को प्राप्त है .  जो सिध्दांत धर्म के प्रतिपादित हुए हैं वे मानवों के भलाई के ही हैं उसे धर्म की यह  समझ होनी चाहिए . सभी धर्म निश्चित ही मानवता को पुष्ट करते हैं . ऐसे में मानवता को पुष्ट करता कोई भी धर्म मानवों को क्षति नहीं पहुंचा सकता .

इसलिए जब धर्म के नाम पर संघर्ष आते हैं तो वह किसी भी धर्म अनुरूप नहीं हैं . जिस प्रकार गणित के एक सिध्दांत को अपनी या गुरु की प्रतिभा से अलग अलग रूप में विद्यार्थियों ने समझा होता है . उसी प्रकार धर्म के सिध्दांत को भी समझने का अंतर है .
निश्चित ही धर्म का सिध्दांत तो शंका रहित  मानव और मानवता के भले का होता है . (ऊपर उल्लेखानुसार ) . लेकिन जैसा लेख किया गया धर्म सहस्त्रों वर्ष से मनुष्यों के बीच विद्यमान रहा है . उसे कालान्तर में समझने और समझाने वाले अलग अलग प्रतिभा के मनुष्य रहे हैं . और अलग अलग स्तर के विद्वान् और अनुयायी द्वारा धर्म समझा और समझाया गया है .

धर्म निर्विवाद रूप से  मानवता के भलाई की दृष्टि से  होता है . लेकिन धर्म के नाम पर यदि संघर्ष उत्पन्न होता है जो मानवों को (किसी भी धर्म के अनुयायी ) क्षति पहुंचाता है यानि हिंसा का कारण बनता है तो वह धर्म का दोष नहीं . उसे त्रुटी पूर्ण ढंग से निभाने की मानवीय प्रयास दोषी होता है .

ऐसे में हमें धर्म के हवाले से अपने संघर्ष उत्पन्न कराते कर्म को सच्चा सिध्द करने के स्थान पर अपने धर्म का अनुशरण करने के हमारे ढंग की समीक्षा करनी चाहिए .

जब "हम अपना धर्म निभाने के प्रयास या दृष्टि में ऐसा (अन्य मनुष्य को क्षति का कारण )  कर बैठते हैं  तो धर्म की श्रध्दा में एक अधर्म दूसरों का अहित ( उसकी निजता का हनन ) करते हुए करते हैं ".
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यह दो  दिन पूर्व का लेखक का स्टेटस था . जिस पर  प्रबुध्द मित्र ने विस्तृत रूप से कहने लिखा था . उनकी बात को मान रखते हुए  लेखक ने धर्म जैसे संवेदनशील विषय पर लिखने का साहस किया है . जिसमे सतर्कता तो पूरी रखी है जिससे किसी भी कथन पर कोई विवाद ना हो . तब भी किसी की किसी आस्था , या भावना को कोई ठेस लगती है तो अनायास हुए मेरे अधर्म के लिए  अग्रिम क्षमा चाहता हूँ ...

--राजेश जैन 
17-07-2013

Monday, July 15, 2013

सुविधा प्रधान जीवन शैली

सुविधा प्रधान जीवन शैली
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क्रिकेट के खेल के उदहारण से बात आरम्भ करता हूँ . जो बल्लेबाज गेंद को बल्ले पर आने के पूर्व ही समझता है और अपने स्ट्रोक को नियंत्रित और नियोजित करता है . वह शतक और फिर शतकों का शतक भी लगा पाता है . स्पष्ट है किसी बात को समस्या बनने से पहले या पानी सिर से ऊपर पहुँचने के पूर्व यदि समझ लिया जाए तो हम आनंद से नियंत्रित और नियोजित सफल  जीवन जी सकते हैं . और अपना देश अपना समाज अच्छा बना सकते हैं .

भारतीय संस्कृति , प्राचीन काल से ही विकसित रही है . भव्य भारतीय मानव सभ्यता , हमारी परम्परायें मानवता और समाज हित की दृष्टि से सर्वकालिक प्रमाणित और अनुकरणीय रही हैं . ये मनुष्य के आचार और व्यवहार में इस तरह संतुलन की हिमायत करती हैं जो ना केवल मनुष्य के स्वयं के हित में होता है ,बल्कि परिवार , देश समाज और सम्पूर्ण मानवता के लिए हितकारी होता है .

विकसित देशों की व्यवस्था वहाँ की सुविधा जनक जीवन शैली हमें आकर्षित करती हैं . दूर से किसी को भी वह आकर्षक लगेगी सहज है . लेकिन अभाव के बीच और अव्यवस्थाओं में जिस तरह हम अस्तित्व और स्वाभिमान बचा सकते हैं वे नहीं बचा सकते .
क्योंकि हमारे पीछे समृध्दता (आर्थिक नहीं मानसिकता ) का जो इतिहास रहा है जो संस्कार रहे हैं वे हमें समस्याओं में भी सहिष्णु रखते हैं . उपभोग हमारे जीवन शैली में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है किन्तु उतना जितना न्याय ,नैतिकता और स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक है . भारतीय मनुष्य जीवन में उपभोग का इस तरह महत्व है तो अन्य जीवन सिध्दांत भी हैं जिनसे मनुष्यता सार्थक होती है . वे अन्य जीवन सिध्दांत हैं परस्पर विश्वास , भाईचारा , संवेदनशीलता और समय आने पर त्याग . धन वैभव तो छोटी बात है प्राण तक हँसते हुए त्याग दिए जाते हैं .

दूसरी संस्कृति में भी ये बात हो सकती हैं . लेकिन जिस बात को प्रमुख कर हमारी अब की पीढियाँ पाश्चात्य देशों के तरफ आकर्षित हो रही हैं वह है उपभोग प्रचुरता . जी हाँ वहाँ की आर्थिक सम्पन्नता और सुविधायें किसी की भी उपभोग लालसा की पूर्ती सरलता से कर सकती हैं . हम लालसा के वशीभूत उपभोग प्रधान जीवन के दूसरे कष्टों को अनदेखा करते हैं .

जीवन में एक समय उस तरह की जीवन शैली के लिए अन्याय ,अनैतिकता का आश्रय लेते हैं . इस सब के बाद जुटायी सुविधा और उपभोगों से संतुष्ट नहीं हो पाते . तब भारतीय जीवन शैली के महत्व को मानते हैं . लेकिन पुरानी अपनी  खराबियों और संकोच के कारण समझने के उपरान्त भी उस पर पूरी तरह वापिस नहीं आ पाते हैं . तब पछतावे में रहने को बाध्य होते हैं .

गेंद को बल्ले पर आने पर समझने से जिस तरह बल्लेबाज गलती कर सकता है वैसा ही जीवन में चीज समस्या बने तब समझी जायेगी तो गलती होने के संभावनाएं होती हैं .

अत्यधिक उपभोग महत्वाकांक्षाओं में व्यस्त होने से बचकर अगर जीवन के कुछ प्रारम्भिक वर्षों में भारतीय जीवन शैली के महत्व को यदि हम समझ लें तो सफलताओं के शतक तो बनायेंगे ही . अपने समाज को संस्कृति अनुरूप सभ्य मानव समाज रूप में विकसित करते हुए अपने देश को ऐसा बनायेंगे . जिसमें बाहरी लोग आने को लालायित होंगे .. हम विदेश जाने को नहीं .
 
--राजेश जैन
16-07-2013

Saturday, July 13, 2013

पहचान (Identity)

पहचान (Identity)
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मशीन बिगड़ जाये ,वस्तु ख़राब हो जाये और ठीक ना हो पाए तो अलग की जाती है . फेंक दी जाती है .बदल दी जाती है . पर पहचान बिगड़ या ख़राब हो जाये तो भी अलग नहीं की जा सकती और ना ही फेंकी जा सकती है . विकल्प सिर्फ खराबी या बिगाड़ का कारण पहचान कर उसे ठीक करने का बचता है . पहचानने का विवेक ना हो तो या पहचान कर ठीक करने की इक्छा शक्ति ना दिखाई जा सके तो उसी पहचान (ख़राब )  के साथ जीवन बिताना पड़ता है।
सब कुछ अनुकूल हो विवेक और इक्छा शक्ति प्रबल हो तो पहचान बदल दी जा सकती है .पुनः अच्छी पहचान मिल सकती है . और आनन्द पूर्वक सही जीवन बिताते अन्य के अच्छे जीवन के लिए सहायक हो सकते हैं .कुछ लोगों को जब पहचान सुधार लेने का आत्मविश्वास नहीं होता या किये उपाय प्रभावी नहीं होते तो वे उस स्थान को बदल लेते हैं (अपनी मातृभूमि से)  दूर  जा बसते हैं .
यहाँ तक जो उल्लेख किया गया वह पारिवारिक और व्यक्तिगत पहचान के लिए लागू होती है .

लेकिन जब भाषा ,धर्म या राष्ट्रीयता की बात की जाये . तो वह वस्तु से तो भिन्न है ही (वस्तु फेंकी जा सकती है ) , व्यक्तिगत से भी भिन्न होती है ( व्यक्तिगत पहचान के लिए स्थान परिवर्तित किया जा सकता है ) . किन्तु भाषा ,धर्म या राष्ट्रीयता की पहचान एक विस्तृत पहचान होती है इन्हें स्थान परिवर्तन से भी परिवर्तित करना आसान नहीं होता . जो लोग देश भी बदल देते हैं तो भी कई कई पीढ़ी तक उसी भाषा ,धर्म और राष्ट्र से पहेचाने जाते हैं .
इस तरह किसी भाषा धर्म या राष्ट्रीयता की पहचान में कोई बिगाड़ आये तो एकमात्र विकल्प बिगाड़ के कारण पहचान कर उन कारकों को नष्ट कर इनकी (भाषा धर्म या राष्ट्रीयता)  पहचान को पुनः स्थापित करना ही बचता है .यही सर्वमान्य,तार्किक  और उत्कृष्ट होता है .
पिछले लेख में हिंदी के कम प्रयोग पर आज शर्माने और अगली शताब्दी में भारतीय कहलाने में शर्म की आशंका का जिक्र बाध्यता और अप्रियता में लेखक ने आज के चलन की दिशा देखते हुए किया था .
उसी परिप्रेक्ष्य में इस लेख की  भूमिका बनी है .

वास्तव में शताब्दियों की परतंत्रता से जन्मा हीनता बोध ही शायद है जिससे इंग्लिश प्रयोग में आधुनिकता ,प्रगति और स्मार्टनेस मानी जाने लगी है . और मातृभाषा (हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषायें )  प्रयोग में पिछड़ापन और शर्म अनुभव होती लगती है .

अगर ऐसी स्थिति है तो आत्मविश्वास से उपाय करने चाहिए ताकि मातृभाषा और भारत की पहचान ऐसी हो जाए जब उसके प्रयोग और पहचान से किसी को भी अपने भाषा और राष्ट्र पर जो हो "वह गर्व और गौरव के सिवा कुछ और ना हो" .

हम पढ़ें ,लिखें और इसे प्रयोग करें . इसके प्रयोग में आधुनिकता मानें . भारतीय भाषाओँ में उल्लेखित अपनी परम्परा ,संस्कृति और धर्म सम्मत उपाय ,रहन सहन ,खानपान ,आचरण और मर्यादाएं जानें और निभाएं .. जिनसे प्राचीन भारत भव्य और दुनिया के आकर्षण का केंद्र था .

विज्ञान और नई  तकनीक के लिए अँग्रेजी का प्रयोग अच्छी बात है . लेकिन उसे आधुनिकता या प्रगति के आडम्बर और घमंड से ना करें . वर्जित नहीं है किन्तु अंग्रेजों के ही सिर-माथे पर इसे इसे रहने दें . हम इसे जितना महत्व दिया जाना यथोचित है उतना दें उससे कुछ ज्यादा देना हमारी उदारता (यह भी भारतीय संस्कृति है ) होगी . पर अपनी मातृभाषा से ज्यादा महत्व इसका ना बढ़ाएं . शिरोधार्य मातृभाषा ही करें .श्रृध्दा मातृभाषा में ही रखें . पहचान राष्ट्र (भारतीय ) और मातृभाषा की ही रखें .

हम जितने शीघ्रता से इस सच को पहचानेगें उतने ही शीघ्र अपनी मातृभाषा ,राष्ट्र और अपनी संस्कृति के प्रति न्याय और आदर कर सकेंगे .

जब ऐसा होगा तब वे कारण स्वयं बन जायेंगे . जब हम भव्य अपने भारत की पहचान पुनः स्थापित करने में सफल हो कर मानवता और समाज हित का मार्ग अपनी इस पावन माटी में प्रशस्त कर लेंगे ...

भारत की पहचान अगर हमारी असावधानी से मिटी तब शर्म की बात हिंदी के प्रयोग की नहीं बल्कि यह होगी की सब में ज्यादा जनसँख्या पर पहुँचने वाला यह देश . अपने अरब से ज्यादा बाँकुरों के होते पहचान तक ना बचा सका .. 

अभी पानी सिर तक नहीं पहुँचा है इस लज्जाजनक स्थिति पर पहुँचने से अभी बचा जा सकता है ...

(अग्रिम क्षमा के साथ .. थोड़ी आक्रमकता से शब्दों के प्रयोग के लिए )

--राजेश जैन 
14-07-2013


Friday, July 12, 2013

Bad Impression (हिंदी ) ?

Bad Impression (हिंदी ) ?
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फेसबुक पर कई हिंदी साहित्य समूह में सक्रिय सदस्यों पर दृष्टिपात करने पर उसमें अधिकाँश अस्सी के दशक के पूर्व जन्मे ही मिलते हैं . फिर पिछले लगभग सवा वर्षों पर फेसबुक पर आने के बाद हिंदी में लेख ,कथा और काव्य रूप में भारतीय परम्पराओं ,संस्कृति और भारतीय विभिन्न धर्म अनुमोदित आचरण को प्रमुख करते विभिन्न समूह (साहित्य के अतिरिक्त ) अपनी पोस्ट /स्टेटस नियमित लगाता रहा हूँ . उन्हें पढ़ने वालों की संख्या... और  उनकी आयु वर्ग को देखते हुए लेखक (और कदाचित साहित्यकार समूह भी ) कुछ विचार करने की आवश्यकता समझता है ..

आधुनिक विषयों की पाठ्य पुस्तक अंग्रेजी में थी (
लेखक ने भी कॉलेज , अँग्रेजी माध्यम से किया ) अपने बच्चों को  अँग्रेजी माध्यम से पढाया यह सत्य है . ज्ञान प्राप्ति के लिये और कई भाषाओँ का ज्ञान दोनों दृष्टि से इंग्लिश आना उचित ही थे .
पर जिस तरह अस्सी के दशक और बाद में जन्मे भारतीयों ने हिंदी के प्रति उपेक्षा और उदासीनता प्रदर्शित की है .वह हो सकता है किसी के लिए पूर्व कल्पित हो मुझे इसकी कल्पना नहीं थी .
यही नहीं जिन्हें इंग्लिश अच्छी आ गई है वे हिंदी बोलने लिखने में एक तरह हीनता अनुभव करने लगे हैं .उन्हें
यह संदेह होता है . हिंदी के उपयोग से उन्हें हलके से लिया जाएगा ( Bad impression ) और  उनके कहे लिखे का कम प्रभाव पड़ेगा .

वस्तुतः आधुनिक विषयों को लिखने वाले पश्चिम के विद्वान थे विज्ञान,कंप्यूटर और नई तकनीक वहां ज्यादा उन्नत हुई . यह सत्य है . अतः इन विषयों की पुस्तकें वहां की भाषा इंग्लिश में ज्यादा अच्छी थी (थोड़ी पुरानी बातें अब हिंदी में स्तरीय पुस्तकें आ गई हैं ) . इस दृष्टि से उन्हें रेफ़र करना अनुचित नहीं था . इस हेतु इंग्लिश का ज्ञान और प्रयोग भी कहीं अनुचित नहीं कहा जा सकता .

लेकिन युवाओं से एक बात जो उन्हें मालूम भी होगी . निवेदित करना चाहता हूँ . मानव सभ्यता ,मानवीय परम्परा ,अध्यात्म , धर्म और संस्कृति की दृष्टि से भारतीय समाज ज्यादा भव्य 
और अग्रणी था और है .चूँकि ये इस भूमि की धरोहर है अतः ये भारतीय भाषाओँ (संस्कृत , पाली ,दक्षिणी  और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ ) के साथ हिंदी में बहुत ही विस्तृत और प्रभावकारी स्वरूप में उपलब्ध होता है .अन्य देशों के विद्वानों ने भारत की भाषाओँ का अध्ययन कर यहाँ के वेद ,ग्रन्थ और शास्त्रों का अपने भाषा में अनुवाद कर अपने देशों में उपलब्ध कराया . तब वहाँ की मानव सभ्यता विकसित हुई .

युवाओं (और कुछ पिछली पीढ़ी में भी ) में जैसी उदासीनता ,उपेक्षा और हीनभावना हिंदी के प्रति प्रदर्शित हो रही है . उससे वे हिंदी में इस भव्य विरासत को कभी पढ़ ना पायेंगे .हमारे साहित्यकारों का प्रशंसनीय सृजन आगामी समय में निरर्थक तो जाएगा ही . दुःख इस बात का होगा जो भारतीय मर्यादाओं ,धर्म और संस्कृति को नहीं पढ़ पायेंगे वे भविष्य में नाम मात्र के भारतीय रह जायेंगे ..

अभी हिंदी लिखने बोलने और पढने में शर्मा रहे है ,ऐसा ना हो अगली सदी में युवाओं की आगामी (मेरी भी ) भारतीय मानने/ कहने में भी शर्माने लगे ..

अगर भारतीय होना गर्व की बात लगती है .तो भारतीय भाषाओँ ..अपनी मातृभाषा पर गर्व रखना होगा .. भले हम इंग्लिश के प्रकाण्ड विद्वान बनें . हमें हिंदी मंचों पर आना होगा .. हिंदी में लिखना ,बोलना और पढ़ना होगा ... फेसबुक पर हिंदी चलन बढ़ाना होगा .जो थोड़े युवा इस लेख को पढ़ लें . वे अपने आयुवर्ग में इस आवश्यकता पर अवश्य विचार विमर्श करें ..


--राजेश जैन 
13-07-2013

समस्या बढाती नारियों के पथ में

समस्या बढाती नारियों के पथ में
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फेसबुक पर पोस्ट लाइक और कमेंट्स जो कथा कहते
साहित्यकार कवि ह्रदय व्याकुल हो आह ही कह सकते हैं

प्रकृति भ्रमण प्रेमी घर बैठे भ्रमण सुख अनुभूति करते
सौन्दर्य प्रेमी सुन्दर दृश्य लगा ,देख आनंदित हो जाते

दुर्लभ थी अश्लीलता वह सुलभ अनेकों राह भटक जाते हैं
अध्ययन से मन उचटता प्रतिभा नहीं पूरी निखार पाते हैं

विडंबना अनमोल रत्न जवाहर सा साहित्य फिंकता कूड़े में
काँच सा चमकता सौन्दर्य पसंद किया जाता है बहुतेरों में

सुन्दर दृश्य, तीर्थ अरुचि पर्यटन रूचि जन्माते है भक्तों में
अश्लीलता प्रदूषण फैला समस्या बढाती नारियों के पथ में

हुआ करता जो था ऊपर पाश्चात्य प्रभाव में हुआ अब नीचे
शीर्षासन कुछ समय किया जाये तब ही लाभकारी होता है

धारण करें जूते सिर पर और पैरों में पगड़ी तो ना शोभा देती
चलन मानवता अनुरूप समाजहित ही प्रगति ला सकती है
  
राजेश जैन 

Thursday, July 11, 2013

जीता (यमक अलंकार प्रयोग "जीता" के दो अर्थ )


 जीता (यमक अलंकार प्रयोग "जीता" के दो अर्थ )
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खेल ,पढाई में कोई ट्राफी वह नहीं जीता था
आलस्य , संकोचों में मौन जीवन जीता था
देखता सुनता यह जीता वह जीता रहता था
निरंतर देख ये बढ़ रहे संकोचों में जीता था

प्रश्न स्वयं से किया क्यों नहीं कुछ वह जीता
उत्तर मिला लगन बिना न कभी कोई जीता
बीती बिसार नहीं पछताया क्यों वह न जीता
सच्ची राह का ले संकल्प वह अब जीता था

सश्रम कर्तव्य निभाते साथी-विश्वास अब जीता
मिले इस विश्वास से आत्मविश्वास से वह जीता
कई डिगते बिन डिगे सदमार्ग वह चलता जाता
दिखता अकेला, ओढ़ समाज दायित्व को जीता

अनुभव सदमार्ग से जो मिले जीवन में जीते
लिपिबध्द करते हुए सादे शब्दों में अब जीता
होती बातें पर-आलोचना की वह न ऐसा करता
स्वतः अपना आलोचक बन अब जीवन जीता

असफलता पर जो स्वतः कभी धिक्कारता था
खेल ,पढाई में कोई ट्राफी वह जब ना था जीता
मिटी शिकायत जब लाया समक्ष लिख कविता
जिन्होंने पढ़ा उनका हार्दिक आशीर्वाद वह जीता

कोई करोड़ तो कोई कार या ट्राफी तो कई जीते
बिरले अब जो दुआ और विश्वास सबका जीतते
वह जीतना क्या जीतना जो अनेकों ने जीता था
जो मिलता परहित के लिए जीते वह बिरले जीतते

धन ट्राफी कार जीत आलीशान घर स्वयं बनाता
किन्तु विरक्त देख अभावों में समाज कैसे जीता है
सबको लगता वह हारा जब उसे लगता मै जीता 
मशीन बनते मनुष्य वह तब मनुष्य जीवन जीता      


कल्पित शील्ड उसकी जो लाये मनुज में मानवता
निस्वार्थ इक्छा देखे जीतते किसी को जीवन जीते

--राजेश जैन 
11-07-2013

Tuesday, July 9, 2013

आशंकाएं

आशंकाएं
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आज प्रातः कालीन भ्रमण को निकला तो छतरी नहीं रखी थी .. लगभग दस मिनट में ही लगने लगा कि तेज बरसात होगी .. फिर थोड़ी हल्की रिमझिम हुई , जिसमें आनंद-अनुभूति ही हुई और  बादलों की कालिमा कम हो गई . भ्रमण में परेशानी और भीगने की आशंका निर्मूल ही सिध्द हुई ..
आशंकाओं का यही स्वरूप है .. जीवन में जिन बातों को आशंकित रहते हैं ..उनमें अधिकांश घटती नहीं हैं (अच्छी बात है ) .. कुछ आशंकाएं सच होती हैं जिनसे हमें जूझना पड़ता है .. यही सच हो गयी हमारी आशंकाएं फिर हर बात में हमें आशंकित करने लगती हैं .
आशंकाओं से बचाव के लिए , समय पर उपाय दूरदर्शिता और सावधानी कहलाती है . लेकिन कभी -कभी आशंकाओं से भयभीत होकर हम निष्क्रियता को प्रवृत्त हो जाते हैं  . चूँकि कुछ ही आशंकाएं कटु सच होती हैं ,अधिकांश निर्मूल साबित होती हैं . अतः हमें निष्क्रिय नहीं होना चाहिए . जीवन में सक्रियता ही जीवन आनंद का कारण बनता है ,बशर्ते सक्रियता सही दिशा अच्छे आचरणों और कर्मों में हो   .

आजकल शासकीय विभागों में ऐसे आशंकित निष्क्रिय सेवकों  बहुसंख्या में मिलते हैं .. जिन्हें भय होता है कि अच्छे से कार्य करेंगे तो उनके ऊपर कार्यबोझ बहुत आ जायेगा .. 
इन्हें अपने पर से कार्य टालने के लिए तरह तरह की युक्तियाँ करनी पड़ती है .इनमें इतनी ऊर्जा (Energy) खर्च करनी पड़ती है जितने में वे कार्य का निष्पादन भी कर सकते हैं . मेन पॉवर का व्यर्थ जाना ही राष्ट्र की विडंबना है . इससे सभी ओर अव्यवस्था या अपर्याप्त व्यवस्थाओं का बोलबाला है . सभी परेशान होते हैं .. लेकिन उपाय में सक्रिय होने से डरते हैं .
जब सभी भयाक्रांत रहेंगे तो व्यवस्थाएं सुधरेगी कैसे ?
जब स्वयं अपने लिए (अपनी व्यवस्थाओं के लिए ) हम त्याग ,श्रम और उपाय नहीं कर सकते तो कौन दूसरा ऐसा मिलेगा जो अपनी छोड़ हमारी चिंता करेगा और हमारे लिए परिश्रम करेगा ..

(ऊपर शासकीय विभाग इसलिए लिखा क्योंकि इनमे कार्य करने वाला या नहीं करने वाला दोनों लगभग एक जैसा वेतन और पद पर वर्षों रह सकते हैं ... इनमें ऐसा कोई प्रभावी सिस्टम नहीं है जो कर्मठ ,निष्ठावान और ऑनेस्ट को ज्यादा उत्साहित करता हो .. जबकि अशासकीय विभागों में ज्यादा परिणाम देने वाले के उन्नति के अवसर अधिक मिलते हैं )

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सही दिशा में श्रम-उन्नतिशीलता

सही दिशा में श्रम-उन्नतिशीलता
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मनुष्य के युवाकाल  , शारीरिक सौन्दर्य और युवा शारीरिक क्षमताओं को आधुनिक और पाश्चात्य जीवन शैली में  ज्यादा महत्व और पसंद दी जाती है .
लेकिन प्राचीन और भारतीय संस्कृति में जीवन के हर काल का अपना महत्व माना जाता रहा है . इस तरह से प्रौढ़ता की अवस्था का महत्व युवाकाल से ज्यादा नहीं मानें तब भी वह उससे कम भी नहीं होता .
वास्तव में पैतीस-चालीस  वर्ष की आयु तक .. शारीरिक क्षमता तथा शारीरिक सौन्दर्य जीवन काल के... शिखर पर आ चुकता है .. इसके बाद उत्तरोत्तर धीमी गति से इसमें कमी आना आरम्भ हो जाती है .

युवा काल इसलिए भी पसंद किया जाता है क्योंकि इस उम्र तक पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व कम ही सर पर आये होते हैं . शरीर पूर्णतः स्वस्थ होने से आहारचर्या में स्वतंत्रता होती है . विवाह और जीवनसाथी का मिलना भी नया होता है . नन्हें -नन्हें गोद में/आँगन में खेलते बच्चे (आजकल बच्चा ) बहुत प्यारे लगते हैं . कहीं भी घूमने फिरने में आलस्य नहीं होता . धन वैभव का संग्रह की अपेक्षा उपभोग पर व्यय ज्यादा प्रमुख होता है .

स्पष्ट है कि कन्धों पर उत्तरदायित्व कम और उपभोग स्वतंत्रता प्राप्त होती है .. निश्चित ही जीवन ज्यादा  सरलता से चलता है . सरल स्थिति को निभाना आसान होता है इसलिए युवाकाल पसंद किया जाता है .

जब स्थिति पैतीस-चालीस के बाद बदलनी आरम्भ होती है .. तब शारीरिक क्षमता तथा शारीरिक सौन्दर्य ढलान पर आने लगता है जिम्मेदारी कन्धों पर आते जाती है . प्रौढ़ता आने की आहट मिलने लगती है . दिनचर्या में लापरवाही ज्यादा हुई तो कुछ स्वास्थ्य समस्याएं भी उत्पन्न होने लगती हैं .

भारतीय संस्कृति में पूरे जीवन काल की पध्दति और महत्व है . किन्तु पाश्चात्य प्रभाव में आयु बीतने के बाद भी युवा दिखने और बने रहने लालसा मन में समाई रहती है .
संस्कृति जब उपभोग को सीमाओं में रख पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों के निर्वहन को प्रेरित करती है . लेकिन हम दूसरों को देख आडम्बरों से ही चमत्कृत होते हैं . चूँकि आयु शरीर पर असर करती है अतः उस को निष्प्रभावी करने की चिंता और उपायों में लग हम असफल होने लगते हैं .. उसकी(उपभोगों ) चिंता करते हैं .और जीवन जितना कठिन नहीं होना चाहिए .. उससे अधिक कठिन बनाते हैं .

जीवन का स्वरूप ऐसा है ... जब युवा काल के विदा होने से जीवन में कुछ कमी आनी आरम्भ होती हैं तो उसकी प्रतिपूर्ति के अवसर भी सुलभ होते हैं .
 हम पहले पारिवारिक और फिर सामाजिक उत्तरदायित्वों का अनुभव कर उसे यथा प्रकार  निभाते हैं तो हमारी मानसिक सुन्दरता बढती है .. हो रही शारीरिक सौन्दर्य की कमी को यह सुन्दरता निष्प्रभावी करती है .


पारिवारिक और फिर सामाजिक उत्तरदायित्वों के उचित निर्वहन से हमारी वैचारिक क्षमता बढती है . जो नई पीढ़ी को संस्कार और सद्प्रेरणा उपलब्ध कराती है . युवाकाल की अपेक्षा आई शारीरिक क्षमता में गिरावट की प्रतिपूर्ति मानसिक वैचारिक क्षमता करती है .

शारीरिक क्षमता से  हम स्वयं का कुछ भला करते हैं और सृजन श्रम से कुछ संरचनाएं भी  देते हैं इसका महत्व तो होता ही है किन्तु सही वैचारिक क्षमता से राष्ट्र,समाज और मानवता को बेहद ही सच्ची दिशा दे सकते हैं .
राष्ट्र और समाज हित की दृष्टि से किसी युवा का योगदान से ,प्रौढ़ (परिपक्व ) का योगदान बीसा ही हो सकता है .. क्योंकि सही दिशा में किया श्रम उन्नति प्रशस्त करता है .  सच्ची दिशा में युवा क्षमताओं को उपयोग और प्रेरित करना बहुत प्रासंगिक है .जो मानवता और हमारे समाज हित में है ..

प्रौढ़ता में कर्तव्यों का अनुभव कर मिले अवसर पर न्याय करने की भावना .. और एक सिस्टम के लिए महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को  सफलता से निभाने की अनुभूति आनंदित करती है ..
प्रौढ़ता पर पहुँची वर्तमान  पीढ़ी को इसका आनंद अनुभव करना चाहिए ना कि बीते को वर्तमान बनाने की चिंता करनी चाहिए .
बीता वर्तमान नहीं हो सकता किन्तु सही जीवन संचालन से बीते और वर्तमान से अच्छा भविष्य हो सकता है वह भी सिर्फ अपना ही नहीं ... बल्कि राष्ट्र का ,समाज  और सम्पूर्ण मानवता का भी...

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Sunday, July 7, 2013

सुरम्यता

सुरम्यता 
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रिज रोड जबलपुर में प्रातः/सांध्य कालीन भ्रमण के शौकीन कोई अगर पिछले आठ -नौ महीने के गेप के बाद अब जाए . तो एक स्थल देख अचंभित होगा .. उजड़ा भूमि खंड एक आज बहुत ही सुरम्य -नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत कर रहा है .. भ्रमण कर्ता उसमें सैर करते आनंदित हैं और स्वास्थ्य पुष्ट करते हैं .

कुछ भूखंड तो प्राकृतिक रूप से दुनिया में अपने नयनाभिरामी के लिए प्रसिध्द हैं .. जबकि कुछ स्थल विकसित कर सुरम्य बनाये गए हैं . और कुछ अब भी प्रतीक्षारत हैं कि कभी किसी को उनकी सुरम्यता निखारने का विचार आएगा जिस पर कार्य कर वे भी अपनी सुरम्यता के लिए प्रख्यात और लोकप्रिय हों जावेंगे .

भूमि माटी निर्जीव वस्तु है अतः इस सुन्दर अपेक्षा पूर्ति के लिए मनुष्य या प्रकृति पर निर्भर है . किन्तु जीव तत्व वह भी मनुष्य इस अपेक्षा के लिए अन्य पर निर्भर नहीं है . वह चाहे तो स्वयं ही अपने आपको सुन्दर गुणों से परिपूर्ण विकसित कर सकता है . अगर यह सुन्दरता किसी में होती है तो वह स्वतः प्रतिष्ठित और लोकप्रिय होता है . चाहे यह सुन्दरता उसमे जन्म से प्रकट रूप में दर्शित भले ना होती हो .

वस्तुतः सभी मनुष्य में सद्गुणता जन्मजात होती है .. किसी का परिवेश ,संस्कार उसे बचपन से ही निखार देता है . पर इसके (यथोचित लालन पालन ) अभाव में जन्मजात यह सुन्दरता छिपी रहती है . कुछ को सत्संग ,सद्प्रेरणा और स्वतः आत्मिक अनूभूति से सद्विचार जीवन में  किसी समय आ जाता है . तब वह गुणों की सुन्दरता निखार अपना मनुष्य जीवन सार्थक कर मानवता को धन्य कर समाज हित का कार्य कर लेता है .

कुछ आजीवन दूसरे सब क्या करते हैं ...तथा थोथे आडम्बरों में सम्मोहित रहते .. उन्हें (आडम्बरों और अन्य  लोकप्रिय) को पुष्ट करने में जीवन बिता अपने जन्मजात प्रतिभा को यों ही अनुपयोगी छोड़ स्वयं से और मानवता के साथ ही अपने सामाजिक दायित्वों से छल करते हैं .

फिर भले समाज और युग उन्हें सफल माने अथवा नहीं स्वतः अपने को अच्छा और सफल बताते उसका ढिंढोरा पीटते /पिटवाते हैं .(मीडिया इत्यादि के सहारे से ) ...

यह तो तब इतिहास ही रह जाता है ... जो शायद ही इन व्यर्थ झांसो में आता है .. वह प्रतिष्ठित उसे ही करता है .. जो योग्य होता है .शेष तो भीड़ और भूतकाल की गहराई में कहीं लुप्त हो जाते हैं ..

खैर इतिहास को अपना काम करने दे पर अपनी जन्मजात प्रतिभा अनुरूप अपने सद्गुणों को हम निखार स्वयं को सुन्दर बनायें इस शुभ भावना सहित आज के लेख का विराम ...


परिवार

परिवार 
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बिना हेर फेर, व्यवस्था व्यय आवश्यकता पहचान कर
वह ,आय पर कर पच्चीस हजार प्रति माह चुकाता है ..

सब्जी क्रय पर भाव देख चिंतित तो बहुत होता फिर भी
विक्रेता के उतरे चेहरे देख 
बिन मोलभाव कीमत चुकाता है

अनाज कीमत में आई वृध्दि पर व्यय बोझ बढ़ता किन्तु
कर स्मरण कृषक परिश्रम श्रध्दा भाव से भाव भर देता है 

बच्चों की भारी शिक्षा शुल्क से व्यय संतुलन बिगड़ता पर
गुरु ना रहें अभाव में विचार से आदर शुल्क का करता है 

पत्नी बताती बढ़ी माँग जब वेतन हेतु गृहकार्य सेविका की
सोच बढ़ी महंगाई से गरीब कष्ट का सहमत उसे कर देता है

पत्नी इनकी देख मनोवृति नहीं रखती बहु महत्वाकांक्षा
रसोई में स्वयं मेहनत से शुध्द,स्वादिष्ट भोज्य बनाती है

बच्चे ना ललचायें नाना प्रकार पैक्ड भोज देख कर अतः
पौष्टिक और संतुलित भोज्य विधि नित सीख बनाती है
प्रातः जल्दी उठ लगती बच्चों के उचित संस्कारों के लिए 
पठन पाठन और गृहकार्य हेतु मार्गदर्शन उनका करती है

इस समर्पित गृह दिनचर्या में नहीं मिलता अधिक समय
रात्रि होती आधुनिक प्रतीक पार्टी में नहीं वह जा पाती है
सीमित पति आय में श्रृंगार हेतु उपलब्ध ना बहुत साधन
तो भी श्रम व शुध्द पौष्टिक सेवन से रूप स्वयं निखरता है
बच्चे तो बच्चे कहलाते नहीं किन्तु वे रहते बच्चे इसलिए
श्रम-संघर्ष-समर्पण देख माँ-पिता का जिम्मेदार वे बनते हैं

सीधी सच्ची और न्याय संगत सोच और जीवन शैली से
जीवन बीतता नियंत्रित व सानंद सुखद उस परिवार का

चिकित्सा उपलब्ध शरीर समस्या शारीरिक स्वास्थ्य हेतु पर  
धन्य उनका भगवान जो उन्हें स्वस्थ मानसिकता देता है


Friday, July 5, 2013

भारतीय पुरुष - नारी अपेक्षा

भारतीय पुरुष - नारी अपेक्षा 
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भारतीय पुरुष अपेक्षा को समझाने के लिए पहले हमें भारतीय परिवार को समझना होगा .. जो पचास वर्ष पूर्व हुआ करता था .एक युवा पुरुष के  परिवार में माँ -पिता (बुजुर्ग) ,पत्नी ,बहन (जिसका विवाह होना प्रतीक्षित ) और छोटे स्वयं के बच्चे होते थे . बहन और पत्नी से अपेक्षा गृहकार्य ,माँ-पिता की देखरेख और बच्चों लालन पालन की थी . स्वयं धन उपार्जन के लिए व्यवसायरत होने से जब घर में आये तो उचित महत्त्व अपेक्षा करता था . पत्नी और बहन से सद-चरित्रता और बाहरी पुरुषों से उचित दूरी निभाना भी अपेक्षा रखता था . जहाँ तक नारी (पत्नी-युवा बहन ) के दृष्टिकोण से देखें तो वो पुरुष के नित्य बाहर रहने की अभ्यस्त थी .और इस बात से भी बहुत सरोकार नहीं था कि जब स्वयं घर की नारी से विशेष कर सद-चरित्रता और बाहरी पुरुषों से उचित दूरी की अपेक्षा करता .. "यह पुरुष" ,दूसरी नारियों (घर के बाहर की ) जो उसके व्यवसाय और बाहर किसी के कारण संपर्क में आती हैं . 
उनके साथ उनके पारिवारिक पुरुषों की इसी तरह की अपेक्षा की रक्षा करने में कितना सहयोगी है या नहीं ?

आज परिदृश्य बदला ज्यादातर घरों में युवा पुरुष के साथ माँ -पिता और बहनें परिवार में साथ नहीं हैं .. पुरुष तो व्यवसाय /नौकरी के लिए घर से निकलता ही है . पत्नी भी निकल रही है . नारी क्योंकि पढ़ी लिखी होने लगी है . और गृहस्थी में लगने वाले आज के सुविधा -साधन और बच्चों की बढ़ी अपेक्षाओं की पूर्ती में अकेले पुरुष के द्वारा अर्जित धन उतना पर्याप्त नहीं होता इसलिए .

नारी (पत्नी)  तो पुरुष के नित्य बाहर रहने की अभ्यस्त थी ही लेकिन पुरुष के लिए नारी का बाहर निकलना नया है . एक तरफ नारी के अर्जित धन से गृहस्थी चलाना सरल हो रहा है तो घर में पहले की अपेक्षा बच्चों और गृहकार्य के लिए आठ -नौ घंटे की अनुपस्थिति उसे अखरती है . अखरने वाली एक और बात पुरुष के लिए यह भी है जितना possessiveness  (अधिपत्य भाव  ) वह पत्नी पर पचास वर्ष पूर्व  रख रहा था .बदले हुए परिदृश्य में उसमें बहुत कम ही बदलाव ला पाया . जबकि 8 घंटे घर के बाहर रहते हुए नारी भारतीय पुरुषों की इस अपेक्षा पूर्ती में विभिन्न कारणों से सफल नहीं हो पाती .

नारी तो एक तरह से बाध्य होकर गृह-देहरी पार कर बाहर आई है .  विशेषकर नन्हें शिशु या छोटे बच्चों की माँ तो अपने नन्हें बच्चे को अंक से जुदा कर सीने पर पहाड़ रख ही गृह से निकलती है . जब नारी-पुरुष ने मिलकर अपने गृह-व्यय और वैभव अपेक्षा बढाई है तो मिलकर ही भारतीय परिवेश से , परंपरागत मानसिकता से मेल खाता समाधान और एक उचित सामंजस्य व्यवहार में लाना होगा . 

इसलिए भारतीय परिवेश में वर्किंग वीमेन ( व्यवसायरत) के लिए प्रतिदिन के वर्किंग ऑवर - 4 करने से भारतीय परिवार और समाज को दोनों तरह से पुष्ट किया जा सकता है ..
एक ..बढ़ी पारिवारिक आय 
दो .. नारी का आत्मविश्वास और धन-उपार्जन क्षमता 
तीन .. बच्चों की उचित देखरेख और संस्कार .. 
चार .. पूर्वान्ह में ड्यूटी से ..घर के बाहर के नारी विरुध्द अपराधों की रोकथाम .
पाँच .. पुरुष अपेक्षापूर्ती में कमी के दुष्परिणाम से  परिवार बिखराव (divorce ) से  बचाना   .

हमें दुनिया के किसी अन्य हिस्से के रहन सहन के ढंग की ठीक वही नकल नहीं करना चाहिए . बल्कि हमारी परंपरा ,हमारी मानसिकता ,हमारी संस्कृति और हमारी धर्म मर्यादाओं के अनुरूप सिस्टम निर्धारण करना चाहिए ...

Wednesday, July 3, 2013

पत्र

प्रिय बेटी,

"जन्म -दिन की बहुत बहुत शुभकामनायें "

निरंतर अब तक पूरे समय माँ-पिता के साथ स्नेह ,लाड़ दुलार ,छत्रछाया और मार्गदर्शन में आज समर्थ होकर . बहुत बच्चों से अलग तरह की (बहुत अच्छी ) बन इस वर्ष जीवन में अपने लगभग आत्म-निर्भरता पर आते हुए अब कुछ दिनों में देश में अलग -अलग स्थानों अलग -अलग भाषा-भाषियों ,अलग -अलग परिवेश में पले पढ़े ,अलग -अलग उम्र और ओहदों पर पदस्थ लोगों के बीच तुम्हें जाना है .

जीवन के दूसरे चरण में जीवन में तुम्हारे दायित्व और भूमिका परिवर्तित हो रही है .अपने पूर्ण आत्म-विश्वास और निर्भीकता से तुम उस पर कार्य करना . इस समय का उपयोग अपनी पूरी सूझबूझ और परिश्रम से अपने को इतना समर्थशाली और अच्छा बनाने में करना ,जिससे तुम्हारे पर किसी की भी ,जो भी अच्छी अपेक्षा होगीं उसे तुम अच्छे से निबाहने में सफल हो सको .

वह अपेक्षाकर्ता तुम्हारा स्वयं का जीवन ,तुम्हारा परिजन ,तुम्हारे मित्र ,तुम्हारे कलीग ,तुम्हारे देशवासी या तुम्हारा धर्म या मानवता चाहे जो हो किसी को तुमसे निराशा ना हो .. और यदि सीमित सामर्थ्य से हो भी तो निराशा जितनी कम हो कोशिश रखना .

तुम्हें दिया गया एक अनोखा नाम ...को एक अच्छे पर्यायवाची (या अर्थ ) से निरुपित किया जा सके, यह प्रयास निरंतर करना .
इस हेतु किसी चिंता या टेंशन में रहने की आवश्यकता भी नहीं है . हर कोई महान तो नहीं हो सकता ..पर जितनी तुम्हारी क्षमता है उसकी अधिकतम उपलब्धि ,तुम्हें और तुमसे जुड़ते प्राणी मात्र को सुखी करेगा ..
पुनः-
"जन्म -दिन की बहुत बहुत शुभकामनायें "

पापा
04-07-2013

गुरु भूमिका - आज का परिवेश

गुरु भूमिका - आज का परिवेश
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शिक्षक ,गुरु या आज ज्यादा प्रचलित संबोधन टीचर ,लेक्चरर ,प्रोफेसर  उनके शिष्य (स्टूडेंट) के जीवन के लिए क्या सहयोग करते हैं ?

वास्तव में मनुष्य यदि अन्य प्राणियों से जुदा है या उसका विकसित समाज और सभ्यता है . तो उसके मूल में मनुष्य के शरीर में विद्यमान उन्नत मस्तिष्क का होना है . जो अन्य प्राणियों में उतना शक्तिशाली नहीं है .

यह  मनुष्य मस्तिष्क प्राणियों की तुलना में जीवन को अत्यंत अधिक सृजनशील और रचनात्मक बना सकता है .
अब अगर देखें तो मनुष्य भी आपस में बहुत अधिक उन्नत और बहुत पिछड़ जाने के अंतर से अलग पहचान और प्रतिष्ठा जीवन में हासिल कर पाते हैं . और जीवन में सफल और जीवन सार्थक होने की उपलब्धि इस तरह कुछ को मिलती है और बहुत वंचित भी रह जाते हैं .

किसी मनुष्य की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है .. कि उसे प्राप्त उन्नत मस्तिष्क में उसके बचपन और शिक्षा काल में कितना सच्चा , तकनीकी ,वैज्ञानिक और नैतिक (इत्यादि ) ज्ञान डाला गया है . दूसरे शब्दों में मस्तिष्क की कितनी क्षमता सच्चे और सूक्ष्म ज्ञान के लिए उपयोग की गई है . मस्तिष्क का प्रयोग विनाश कारी या बुरे तरह के ज्ञान के लिए तो नहीं किया गया है
या शिक्षाकाल में उसे (मस्तिष्क को ) कम प्रयोग कर रिक्त तो नहीं छोड़ दिया गया है .

इन सबके लिए गुरु का दायित्व  बनता है . बच्चे का प्रथम गुरु माँ-पिता और परिवार होता है . बाद में स्कूल -कॉलेज के गुरु के ऊपर ये जिम्मेदारी होती है . जिन बच्चों को अच्छे गुरु और पूरी शिक्षा अवधि मिल पाती है . वे आगे अपने जीवन में ज्यादा सफल और सृजन कर देश समाज और मानवता के प्रति अपने कर्तव्य निभाते हैं .
गुरु ,पालकों ,देश और धर्म का नाम ऊँचा करते हैं .

इसलिए अच्छे शिक्षा तंत्र के लिए अच्छे शिक्षकों का होना अनिवार्य तो है ,साथ ही शिक्षारत बच्चे भी शिक्षा (ज्ञान ) के महत्व को जितना शीघ्रता और अच्छे से समझें .. उनके हित में होता है ...

गुरु और शिष्य के सयुंक्त प्रयत्न से  शिष्य सफलताओं के चरम पर पहुँच कर समाज  को  बहुत सुखी कर  सकते हैं  . या ऐसा ना हो पाने पर समाज  बहुत बुरा बन सकता है .

लेकिन क्षमता और सामर्थ्यवान युवाओं की अध्यापन में आज अरुचि दिखाई देती है .जिससे  भविष्य के अच्छे समाज की आशा में प्रश्न चिन्ह दर्शित होता है

 

Tuesday, July 2, 2013

छोटी सी बातें

छोटी सी बातें
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दिखती साधारण और छोटी सी बातें जुडी (interlinked ) होती हैं और बड़े अर्थ भी उनमें निहित होते हैं .

कल प्रातः काल भ्रमण पर निकला तो बारिश की रिमझिम चल रही थी .एक जगह एक तीस -पैंतीस वर्ष की युवती जो स्कूल टीचर होगीं .अपनी स्कूटी खींचती जा रही थी . मैंने उनसे पूछा क्या हो गया . उन्होंने बताया पानी चला गया है स्टार्ट नहीं हो रही है . मैंने फिर पूछा कहाँ जाएँगी .. उन्होंने बताया सेंट थामस स्कूल के पास मेकेनिक है वहां . वहाँ से जगह 1 कि  मी के फासले पर थी वे बरसाती पहने हुए थीं . उनकी परेशानी कुछ कम कर दूं इस विचार से मैंने सहयता को पूछा उनके हाँ करने पर मैंने अपनी छतरी उन्हें दी .और उनकी गाड़ी मेकेनिक शॉप तक खींच ले गया . पीछे पैदल चलती आकर उन्होंने धन्यवाद कहा .. मैंने तब विदा ले अपना भ्रमण जारी रखा .

1 कि मी , बरसाती पहन कर पैदल चलना कठिन था ऐसे में वे गाड़ी खींचती और उसे ठीक करा कर जब स्कूल पहुँचती तो शायद  थक कर बच्चों को पढ़ा सकने की हालत में ना होती . अगर वे तीन पीरियड पढाती  हैं तो पचास बच्चों के 3 घंटे व्यर्थ ना जाना .. देश के प्रतिभा विकास के एक सौ पचास घंटे बचाते हैं 

पुरुष कई बार रास्ते में फिकरे कसते , छेडछाड करते हैं अतः अजनबी पुरुष पर एकाएक विश्वास कर पाना नारियों के लिए कठिन हो गया है . ऐसे में सच्ची निस्वार्थ सहायता के ये कार्य उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि सभी एक जैसे नहीं होते हैं .

निर अपेक्षा ,निः स्वार्थ सहयोग के किस्से बिरले होते जा रहे हैं . ऐसे में छोटी ही सही ऐसी सहायता परोपकार भाव अस्तित्व में बनाये  रखते हैं .
हम कह कर गुड मोर्निंग ,शुभ-प्रभात ... किसी की सुबह अच्छी बना पाते हैं अथवा नहीं .. पर कल मुझे उनकी सहायता के बाद के थैंक्स ,अपने सहयोगी भाव से सुबह अच्छी होती लगी .. और शायद छोटी सी हेल्प के बाद उन्हें भी अपनी मोर्निंग अच्छी लगी होगी ..

इन सबके साथ पुरुष उदारता की बात अपने लेखों में करता हूँ .. उसका छोटा पर ठीक क्रियान्वयन भी इस कर्म से होता है ...

सामाजिक स्वस्थ परम्परा और सौहाद्र भी इससे जुडा  है ...

राजेश जैन 
03-07-2013

वीमेन अर्निंग वर्क मॉडल (अंश-2)

वीमेन अर्निंग वर्क मॉडल (अंश-2)
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जिन्होंने
पिछला लेख
पढ़ा (लाइक किया या नहीं महत्व नहीं है ) और कमेंट किये , 
उन्हें करबध्द  हार्दिक धन्यवाद .
उल्लेखित विचारों पर  असहमति- सहमती ज्यादा महत्व नहीं रखती है .पर भारतीय समाज में जिन चुनौतियों से नारी जूझ रही है ... उसे देखते हुए उन्हें बेहतर संरक्षण आवश्यक है ...

आदिकाल से नारी संरक्षण के लिए पुरुष उत्तरदायी रहा है . हम जिन परिवार-घरों में रहते हैं .उसमें नारी सदस्य होती हैं .उनकी सुरक्षा के उपाय हम करते हैं,व्यवस्था बनाते हैं  ,उन्हें पालन करने कहते हैं . वे उसे पालती भी हैं . लेकिन कई बार घर के बाहर की परिस्थितियों में इन सब सावधानी के रहते हुए भी वे परेशानी से जूझती हैं .

जब ये सावधानी ,उपाय और व्यवस्था कई बार बेअसर होती हैं ऐसी स्थिति में आवश्यक लगता है कि हम जो कर्तव्य घर में निभाते हैं . उसे और विस्तृत करें . घर के बाहर अपने समाज में वे उपाय और व्यवस्था दें .जिनसे एक परिवार में नारी को जो दायित्व हमारे समाज में दिया जाता है उसे वे ससम्मान और सुरक्षित रहते हुए निभा सकें . साथ ही उन परिस्थिति में जब घर की आय वृध्दि में उनका धन अर्जन को बाध्य होना पड़ता है तब उसे भी पूरी कुशलता के साथ वे पूरा कर सकें .

हमारे समाज में नारी करुणा और त्याग का नाम है, तो पुरुष के चरित्र में वह उदारता भी है. जिससे वह कमजोर का सहारा बनता है . ऐसे में नारी जब दोहरी भूमिका में होती है (घर -परिवार के गृहकार्य और धनार्जन को कार्य या व्यवसाय में ) तब उनकी शारीरिक और मानसिक  स्थिति से वे अनेकों बार कमजोर पड़ती है. ऐसे में पुरुष चाहे वह अपना हो या अजनबी, बिना अन्यथा अपेक्षा के नारी की सहायता करे .

वे सफल नारियाँ जिन्होंने घर के बाहर प्रतिष्ठा और धन अर्जित की ,जिन्हें बेहतर परिवेश और मार्गदर्शन मिले वे भी इस कार्य को बेहतर ढंग से पूर्ण करने में अधिक सहायक हो सकती हैं . वे, नारी के घर -परिवार की व्यथा और बाहर की लाचारियों को बहुत भली तरह जानती हैं .

भारतीय समाज में नारी उस विकल्प पर ना जाती जबकि उसे घर की देहरी धन अर्जन को पार करनी पड़ती है . किन्तु नारी के साथ कभी जीवन इतना कठोर  भी हुआ है जब वह धन की कमी के कारण अपने बच्चों के  उदरपूर्ती और अपनी लाज के बचाव के लिए असमर्थ हो जाती है .  

अगर हमारी पारम्परिक समाज- व्यवस्था में नारी को ऐसी सुरक्षा नहीं मिली है , तो नारी में शिक्षा और धन अर्जन क्षमता का होना अनिवार्य हो जाता है .
ऐसे में बाहर आई नारी के दोनों तरह के दायित्व निर्वाह के लिए हमें सुविधा जनक स्थितियाँ निर्मित करना होगा .

यह "नारी चेतना और सम्मान रक्षा " के साथ ही "मानवता और समाज हित" भी है .

यह कतई आवश्यक नहीं की इस दिशा में लेखक के सुझाव सम्पूर्ण दूरदर्शिता पूर्ण हो . सब मिलकर इस दिशा में एक अच्छा मॉडल तैयार करें ...

--राजेश जैन 
02-07-2013

Monday, July 1, 2013

वीमेन अर्निंग वर्क मॉडल

वीमेन अर्निंग वर्क मॉडल
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आज नारी व्यवसाय और धनार्जन हेतु घर की देहरी लाँघ बाहर निकली है. यह नारी ,परिवार और समाज हित में ही है .बहुत सी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुईं जब नारी में धनार्जन क्षमता या घर के बाहर के आत्मविश्वास की कमी स्वयं नारी और परिवार के लिए अभिशाप सिध्द हुआ .किन्तु निम्न बातों को ध्यान करते हुए उसका कार्य में भूमिका और प्रतिदिन लगने वाला समय प्रचलित से अलग ढंग से तय होना चाहिए ..
* भारतीय संस्कृति और परिवार में नारी गृहकार्य में बहुत महत्वपूर्ण  भूमिका में है . बल्कि परिवार की मजबूत बुनियाद के लिए ज्यादातर समय उनकी उपलब्धता घर में आवश्यक है .
* पति ,बच्चे  (संस्कार और लालन -पालन) और परिवार सदस्य की निर्भरता किसी भी अन्य के तुलना में नारी पर सर्वाधिक है .
* नारी को शारीरिक शक्ति पुरुषों की तुलना में बहुत कम मिलती है .
* नारी के विरुध्द घर के बाहर शोषण की अधिकांश घटनाएं अपराह्न के बाद के समय में ज्यादा होती हैं .

लेखक ने घर के मुखिया ,कार्यालय में अधिकारी के रूप में तथा भारतीय समाज में एक संवेदनशील सदस्य के रूप में देखा और अनुभव किया उस को आधार रख ही उल्लेख है .
बच्चों के उचित संस्कार , स्वच्छ और पौष्टिक भोज्य ,घर की साफ-सफाई और पास पड़ोस से स्वस्थ संबंधों के मूल में नारी प्रमुख योगदान देती है . नारी की प्रतिदिन ज्यादा घर से अनुपस्थिति निश्चित रूप से इनमें से कुछ या सभी बातों को बुरी तरह प्रभावित करती है .
 
भारतीय परिवेश पश्चिमी से बहुत जुदा है . यहाँ नारी एक पुरुष से दाम्पत्य सूत्र में बंध कर ताजीवन उसे निभाती है .
कार्यालय में लम्बी अवधि की नौकरी में उसे घर के दायित्व स्मरण आते हैं . जो उनकी कार्यालयीन आउटपुट तथा दक्षता प्रभावित करते हैं .

ऐसे में मुझे लगता है की नारी के व्यवसाय या कार्यालयों में किसी भी एक दिन में चार घंटे से ज्यादा अवधि देश/समाज /परिवार/नारी (स्वयं ) और प्राकृतिक न्याय हित में नहीं है .
पुरुष, उदारता का परिचय देते हुए नारी के कार्य और जिम्मेदारी इस तरह तय करें .साथ ही इतनी अवधि में कार्य के बदले में भी उसे पुरुष (समकक्ष से ) 75 % वेतन स्वीकृत करें .

भारत में नारी वीमेन अर्निंग वर्क मॉडल इस तरह डिजाईन किया जाए तो समाज की बहुत तरह की समस्या कम की जा सकेंगी ..