Tuesday, October 30, 2012

दर्शन गोष्टी -- भारतीय संस्कृति की रक्षा

  दर्शन गोष्टी - भारतीय संस्कृति की रक्षा                   

                          समय में परिवर्तन पिछले 30  वर्षों में अधिक तीव्र गति से हुआ .  जीवन ज्यादा व्यस्तता का हुआ . दूरदर्शन , नेट , फ़िल्मी और मोबाईल फोन माध्यमों से देखी और पढ़ी जाने वाली सामग्रियां प्रचुर मात्रा में सर्वत्र उपलब्ध हुयीं . पाठ्यक्रमों में भी नए विषयों का समावेश हुआ  . इन सारी देखी और पढ़ी जा सकने वाली सामग्रियों से हम मनुष्य जन क्या पढ़ा जाना चाहिए और क्या नहीं ? तय करने में चूक   करने लगे .  बहुत से विषयों में हमने  संक्षिप्त मार्गों  की तलाश की . व्यस्तता में इन मार्गों का अनुशरण करते अपने मंतव्य भी पूरे  करने आरम्भ किये . श्रवण और दर्शन की जाने वाली सामग्रियों की इस तरह प्रचुरता के मध्य हमने इनमें भी  संक्षिप्त मार्ग अपनाया . हमने स्वयं से निर्णय करने में कम समय लगाया , यह देखा दूसरे क्या पढ़ और देख रहे हैं , उसे अच्छा माना और उन्हीं सामग्रियों का इस हेतु उपयोग किया .
              बहुमत की राय महत्व  की होती है कई सन्दर्भों में यह सिध्द भी होता रहा है  . पर जब व्यस्तता में हम ही ज्यादा सोच विचार करने में असमर्थ रहे , तब अन्य  ज्यादा सोच विचार के ही पठन ,श्रवण और दर्शन की सही सामग्री का चयन कर रहे होंगे . इस पर शंका तक का विचार हम नहीं कर सके . भौतिक प्रगति में तो हमारा दूसरे का अनुकरण या नक़ल उचित सा भी सिध्द हुआ . और ऐसा करते हुए  आधुनिक साधनों ,सुविधाओं और विषयों में हमने उन्नति अनुभव की .  हम तथा परिजन इस उपाय से ज्यादा सुविधाजनक जीवन शैली में जीने लगे . पर मानवीय दृष्टि  और सहस्त्रों वर्षों में हमारे पूर्वज द्वारा अनुभव और विचार पूर्वक बनायीं मर्यादा , परम्पराओं और सिध्दांतों के बारे में हमारा  पठन ,श्रवण और दर्शन कम होने से हम सहज ही इनसे दूर होते गए .चूँकि आधुनिक इन माध्यमों के जनक पाश्चात्य महादीप (यूरोप तथा अमेरिका )  थे . अतः इन माध्यमों पर वहां की जीवन शैली और संस्कृति की प्रचुरता थी .  ये सब ज्यादा देख और  पढ़ हम उसे सामान्य रूप में लेने लगे . जब इसे इस तरह स्वीकार करने लगे तो आचरण , व्यवहार और हमारे कर्मों में धीरे धीरे यह शैली आने लगी .  चूँकि युवा वर्ग हमारी संस्कृति के विषय में कम देख और पढ़ पा रहा था, अतः अपनी भाषा , पहनावा    , खानपान , जीवन शैली ,परम्पराओं और मर्यादाओं को तजने में कोई धर्म संकट या संकोच नहीं हुआ .

 
              भारतीय सिनेमा और दूरदर्शन ने भी यह ज्यादा दिखाया . या अगर हमारी संस्कृति प्रधान कुछ निर्माण भी किया तो उसे ज्यादा लोकप्रियता मिले इसलिए उन निर्माणों में भी मसाला रूप में पाश्चात्य सामग्री डाली . इसमें हम बुराई नहीं देख रहे हैं . इन सामग्रियों का निर्माण व्यवसायिक दृष्टि से किया जाता है. अतः अधिक आय हो इस लक्ष्य  से , इस तरह मसालों के समावेश और उससे मिलती लोकप्रियता के कारण उन्हें (निर्माण करने वालों को )  लुभाने लगा तो अस्वाभाविक नहीं था .      लेकिन व्यवसायिक सफलता  के लक्ष्य में एक चिंतन गंभीरता से नहीं हो सका . वह था जो मसालों के कारण ऐसे फिल्म या धारावाहिक देखना पसंद करते हैं वे कौन हैं . क्या वे प्रबुध्द वर्ग के हैं या  दैनिक आवश्यकताओं को जूझते   और जीवन संघर्ष में थक जाने वाले हैं . जो विवेक विचार करने का समय ही नहीं निकाल सकते इसलिए गहन विषय पर उनकी सोच का अभ्यास नहीं रहा है .लोकप्रियता , बहुमत की राय तो दर्शा रही थी लेकिन बौध्दिक स्तर नहीं प्रकट कर सकती थी . बहुमत की राय यदि बौध्दिक स्तर की कमी के बाद है तो उसका औचित्य संदिघ्न   होता है . 
                इस तथ्य को जानते हुए अथवा अनजाने में अनदेखा किया गया . जो इस देश की संस्कृति से मेल नहीं खाता था  . उनका चित्रांकन करते हुए प्रदर्शित कर बेहद धन कमाया गया . धनी बन जाने के बाद या  तेजी से बनते देख  कुछ और धनवान जो पहले हिकारत से इन्हें देखते थे . इन क्षेत्रों में आ कर धन उपार्जन करने लगे. फिर लोकप्रियता के नाम मसालों की मात्रा और बढती चली गयी . लगातार ऐसा देख इसे ही जीवन स्वरूप समझ हम  संस्कृति , सिध्दांत और परम्पराओं से दूर होते गए . समय आया अब कम युवा ही हमारी संस्कृति ,जीवन शैली क्या थी क्या होना चाहिए इस पर विचार करते हैं .
                     जब प्रचार और प्रकाशन माध्यम कम थे तो लोगों तक ज्यादातर अच्छा साहित्य ही पहुँचता था . जिसे पढ़ते हुए उसके   महत्व को समझा जा सकता था . कवि  सम्मलेन  ,साहित्य गोष्टियाँ ,काव्य गोष्टियाँ होती थीं . स्तर के नाट्य मंचन करने वाली संस्थाएं और कलाकार थे . स्तर से देखा और दिखलाया जाता था. अच्छा देख और समझ कर लोगों में मनो ग्रंथिया और विकृतियाँ कम थी . मर्यादा पालन होता था . अन्य को यथोचित सम्मान से देखा जाता  और व्यवहार होता था .
                 इसलिए समाज में कुछ अधिक शांति और अहिंसा अस्तित्व में थी . सामाजिक अवसरों पर मेल मिलाप और गर्म जोशी थी स्वार्थ परस्ती कम थी . जिनसे प्रेरणा मिलती थी वे  विचारक ,दार्शनिक और साहित्यकार थे , धर्म गुरु थे , घर के बुजुर्ग और बड़े सदस्य थे , समाज सुधारक थे . फिल्म और धारावाहिक में होते लाभ में इनके निर्माण में जिन्होंने रूचि दिखाई वे धनवान थे या जल्दी धनवान बन गए लोग थे . (जो इन क्षेत्रों में सक्रिय थे और अब जीवित नहीं वे इस टिप्पणी के दायरे में नहीं हैं) . सारे  धनवान ऐसा कर रहे थे यह नहीं कहता  . सारे ऐसे निर्माण करने वाले ऐसा ही कर रहे थे यह भी नहीं दावा करता .  (जिन्हें भी ऐसा पढ़ते यह लगे कि उन्होंने इस दृष्टि से कोई सृजन नहीं किया , और उनका निर्माण गंभीरता और समाज हित को ध्यान रख ही किया गया था वे भी टिप्पणी के दायरे से बाहर हैं ) . यह अवश्य लिखूंगा , अधिकांश निर्माताओं ने जो निर्मित किया उसमें नैतिकता ,सांस्कृतिकता , और चारित्रकता    में क्रमश गिरावट होती गयी.
                                              निर्माताओं या  शीघ्र धनार्जन को लक्ष्य करने वालों ने जो निर्माण किया और प्रदर्शित किया उसे देख दर्शक ने "धन दर्शन" की प्रेरणा ही ली . धन भारतीय समाज में प्रधानता पाने लगा . सबसे पहले कुछ और नहीं केवल धन का चिंतन  प्रमुख होने लगा . लाभ सिर्फ धन के रूप में ही देखा जाने लगा . सोच , समझ ,संस्कृति , नैतिकता , चरित्र और जीवन लक्ष्य किस तरह प्रभावित होंगे ? यह सोच बहुत कम प्रबुध्दों में सीमित होता गया. अच्छे साहित्य और साहित्यकार का महत्त्व घट गया . काव्य गोष्टी , साहित्य गोष्टी और कवि सम्मलेन क्रमशः कम होते गए . पैसे की सत्ता बड़ी तो साहित्य लेखन के तरफ उदासीनता बढती गयी. जो इस विधा के जानकार थे उन्होंने भी बाध्य हो वह लिखना आरम्भ किया जो आम मांग होती थी.

                    फलस्वरूप अराजकता , भ्रष्टाचार , आडम्बर , अश्लीलता , स्वार्थ और सिध्दांत हीनता   का हर दिशा में बोलबाला होने लगा . पुरानी  पीढ़ी के बचे लोग अचंभित थे क्या और कैसे सब इस तेजी से परिवर्तित हो गया .युवा पीढ़ी बिना परम्परगत जीवनशैली , संस्कृति और भारतीय मानदंड को पहचाने उसे पुरातन पंथी कह तजने लगे . जो सेलुलर पर्दों पर दिखाया गया उसे आधुनिकता और जीवन के मजे कहने लगे और इस और प्रवृत्त होने लगे .
             भारतीय संस्कृति और मर्यादाओं की ओर तो मनुष्य समाज को लौटना ही होगा . पर इसको अनुभव करने में हमारे अपने समाज और संतति को कितना समय लगेगा यह कहना तो संभव नहीं है .लेकिन लेख में उल्लेखित चिंताओं से अगर सहमती लगे तो हमें विचार करना चाहिए और उपाय किये जानने चाहिए.
                  घरों में हो रही किटी पार्टी , पिकनिक स्थलों पर हो रहे फ़िल्मी तर्ज के नृत्य , और जब तब होते फ़िल्मी अन्ताक्षरी और होउसी और इसी तरह के ज्यादा मनोरंजक प्रचलन को तजना होगा .   कम मनोरंजक लेकिन प्रेरणा देती  काव्य गोष्टी , साहित्य गोष्टी और दर्शन गोष्टी (दार्शनिकों द्वारा ) को  गृहों ,पिकनिक स्थलों में बढ़ावा देते प्रचलन में लाना होगा . इसे आधुनिकता और आधुनिक विचार और जीवन शैली के रूप में प्रचारित करना होगा . साहित्यकार , कवि और दार्शनिक का उत्साहवर्धन करना होगा . स्वयं के अन्दर विद्यमान  दार्शनिक     और साहित्यकार  को तराशना होगा .    ये उपाय ही हमारी सांस्कृतिक विरासत को हमारी युवा पीढ़ी में पुनरजीवित कर सकेगी ,उसकी रक्षा कर सकेगी . तब समाज में शांति और सुरक्षा बढ़ेगी . तब हमारा परस्पर सम्मान की परंपरा पुनः दृष्टव्य हो सकेगी . तब हमारा रहन सहन , वेशभूषा और खानपान फिर भारतीय हो सकेगा .तब ही हमारी चरित्र और मर्यादाओं को फिर पुराने स्तर मिल सकेंगे .

               आज ही कीजिये    किटी पार्टी के स्थान पर ऊपर दिखाई कोई गोष्टी . जन्म दिन में फ़िल्मी नृत्य या गीत  की जगह सुनिए बुलाकर किसी कवि से जन्म और जीवन पर कोई ओजस्वी साहित्यिक कविता .  साहस कीजिये और यह कीजिये . ना सिर्फ बच्चे के संस्कार सही होंगे बल्कि  पूरा भारतीय समाज बदलने लगेगा . फिर पाश्चात्य देश भारतीय संस्कृति की ओर लालाइत दिखेंगे . फिर मनुष्य जीवन रहस्य को समझने इस देश की ओर आने लगेंगे.   

हो जागरूक ये कर्तव्य निभाएं

हो जागरूक ये कर्तव्य निभाएं

एक सरोवर ,थे जिसमें  देखे
खिलते सुन्दर बहुरंगी कमल

आसपास अब कुछ कारखाने
बिन परिशोधन हुए है मिलता

सरोवर इस में प्रदूषित जल
हैं करते निवास जो आसपास

वे देते इसमें कई गंदगी डाल
सरोवर होता अब गंदगी सरोबार

जन्में जो बच्चे बाद हैं ,नहीं
उन्हें पूर्व सुन्दरता का भान

वंचित हैं आज के ये बच्चे
पूर्व इस प्राकृतिक सौंदर्य से

सजग आज ना हों हम यदि
मनु संतति पर होगा अन्याय

हम बड़े और प्रिय बच्चे हमें
होते  कर्तव्य जो बड़े होने के

हो जागरूक ये कर्तव्य निभाएं
रही संतति पर करें न्याय

Saturday, October 27, 2012

कारण अर्नब पुत्र आपके

कारण अर्नब पुत्र आपके

हुए आप आज एक बरस के
कारण चिरंजीव अर्नव आपके
दीपा और लोकेन्द्र गए बदल
रहने हाजिर दुलार करने को

लोकेन्द्र को नापसंद अब होता
घर छोड़ आपको कॉलेज जाना
दीपा चिढती उन गृह कार्यों से
घंटों दूर जो रखते प्रिय आपसे

नहीं मानते दोष इन दोनों का
हर वह बनता इनके जैसा ही
जिनका बच्चा आपसा प्यारा
सुन्दर आप बाल कन्हैय्या से
 
आपकी चितवन एक अदा सी
किलकारियां  गूंजती संगीत सी
हुआ पूर्ण सुमधुर एक सपना
उत्पन्न हो रहे कई सपने पर

सपूत प्रसिध्द कई इस देश के
बनना आप तो उनसे बढ़कर
ना हो अगर संभव ऐसा तो
कम से कम बनना उन जैसा

कामना शुभ जन्मदिन आपका
बधाई  लोकेन्द्र और दीपा को
आये हजारों बार ये  शुभ दिन
कामना देंखे लोकेन्द्र संग दीपा  


  
 

वैभव संग्रहण

वैभव संग्रहण

व्यर्थ करूँ नहीं जीवन यह अपना

करते हुए धन और वैभव संग्रहण

हुआ सिध्द जब यह अनन्त बार

छोड़ यहीं इसे सब चले हैं जाते

 

यत्न करूँगा अपनी  प्रतिभा से

बुनूं ज्ञान से शब्द नित ही ऐसे

लिखूं लेखनी से शब्द ऐसे जो

करूँ प्रचार इन शब्द ऐसों का

 

प्रतिपादित हो सके शब्द मेरे से

शब्दों में है शक्ति ऐसी जिनसे

मिल सकती है सच्ची सद्प्रेरणा

पाकर  मनुष्य इन से सद्प्रेरणा

 

प्रेरित होगा सुधारने कर्मों को

देख कर अपने सब सुधरते साथी  

होगा जन जागृत इस समाज का

समाज आएगा अच्छे मुकाम पर

 

कहे जाएँ  भले शब्द यह  मेरे

पर नहीं मानता शब्द ये मेरे

हुआ योग्य लिख सकूँ ये शब्द

ले और पा ऋण इस समाज से 

 

अतः संपत्ति यह समाज की

भ्रम ना पालूं  मान इसे अपनी

और करूँ ना कोई अभिमान 

देख जला रावण अभिमान 

   

जिस माटी ने जिस समाज ने 

दी जब  योग्यता मुझे जो ऐसी

होता व्याकुल देख पर ऐसा

अप्रसन्न मनुष्य है समाज में

 

लेना अनमोल साथ आपका मुझे

हमें मिलकर करने उपाय हैं ऐसे

दूर बुराइयाँ हो हमारे समाज से

प्रसन्न मनुष्य हो इस समाज में  

 

ऋण है मुझ पर जो समाज का

चुके तभी यह मुझ पर से तब

जब हों हम सफल इस ध्येय में

और जब होगा समाज स्वस्थ



Thursday, October 25, 2012

दूरदर्शी माँ ------

दूरदर्शी माँ

              आशीष बेटे , चुपचाप यहाँ बैठ ये खा ले , प्लेट में दो बेसन के लड्डू रख अपने कमरे का दरवाजा बंद कर मम्मी कह रही थी . आशीष को लड्डू बहुत पसंद थे , तुरंत खाने लगा था . खाते हुए यह भी सोच रहा था चाचा के लड्डू मांगने पर मम्मी ने उन्हें कहा था . लड्डू अब  . ख़त्म हो गए हैं.

               शाम को मम्मी उसे मंदिर जबरन भेजती , आशीष नहीं जाना चाहता था . वहां पंडित जी समझाते हमेशा सच कहना चाहिए .आशीष चाचा से बोले मम्मी के झूठ और पंडित जी की बातों के बीच मानसिक द्वन्द में रहता .इसलिए मंदिर आना उसे पसंद नहीं आता . मंदिर आने से शाम को स्कूल का गृहकार्य भी पूरा नहीं कर पाता . मम्मी उसे बहुत दुलार से रखती अक्सर गलत बातों में भी उसका पक्ष लेती और दूसरों से लड़ तक पड़ती . अतः उसे अपनी मम्मी दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी लगती .वह जिद्दी भी हो गया . स्कूल में गृहकार्य पूरा न होने से डांट और सजा मिलती . मम्मी कम पढ़ी होने से उसे स्कूल गृहकार्य में सहयोग भी न कर पाती .इन सब के बीच आशीष की पढने में रूचि कम हो गयी .
           बड़ी क्लास में वह अपेक्षित प्रदर्शन न कर सका , प्रवेश परीक्षाओं में भी सफल न होने से डोनेशन दे किसी तरह एक कॉलेज में प्रवेश पा सका .आज कॉलेज में नौकरी में चयन हेतु आखिरी कैंपस अवसर उसे मिला था , पर पहले की तरह इसमें भी वह लिखित ही पास न कर सका .घर उदास पहुंचा तो मम्मी को सुन बड़ा दुःख हुआ .मम्मी भी उदास हो बोली , बेटा क्या कोई भी चयन नहीं हुआ . मम्मी और दुखी न हो अतः झूठ बोला हाँ ,मम्मी, पर उसे मालूम था 20 साथी चयनित हो गए थे .

                 मम्मी पर पूरी श्रध्दा होते हुए भी , आज अब वह यह सोच रहा था .काश मम्मी पढ़ी लिखी होती और बचपन से उसकी शिक्षा को ज्यादा गंभीरता से लेती .मम्मी के हितैषी होने पर उसे कोई शंका  भी नहीं थी. पर पछतावा इस बात का था ज्यादा जानकारी के अभाव में उसके भविष्य के लिए निश्चित ही मम्मी दूरदर्शी न रही थी .काश मम्मी ममत्व के साथ सही मार्गदर्शन कर पाती .

             आशीष अब संकल्प ले रहा है , वह पत्नी रूप में समझदार का चयन करेगा . ताकि उसके बच्चे इस कठिनता से बचें जिसमे आज वह आ फंसा है .इस तरह उसके बच्चे को दूरदर्शी माँ मिले .

Tuesday, October 23, 2012

शुभकामना विजयादशमी पर

शुभकामना आपको मन से

                            राजेश की विजयादशमी पर  

---------------------------------------------------------------------------------------

कभी था जीवित एक रावण
                                     उसके मुख थे होते दस
सहस्त्रों गए अब वर्ष बीत
                              किया गया उसका जब वध 
प्रत्यक्ष रावण नहीं अस्तित्व
                            मनुष्य कर्म में  उसका वास
दस मुख उसके दस बुराइयाँ
                            मनु आचरण में फैली सर्वत्र 
सदियों से दिखता बुराई रूप
                           मै देखूं रावण को निम्न रूप
प्रथम मुख अति काम वासना
                                     फैलाये जो व्यभिचार
दूसरा मुख अश्लील सामग्री
                              मनुष्य ह्रदय में घोले विष 
तृतीय मुख है हिंसा का
                            अत्याचार में दिखे चहुँ ओर
मुख चौथा आतंकवाद का
                                जाते मारे मासूम अनेक
पंचम मुख प्रतीक स्वलालच
                             हर लेता जो अन्य का हक़
मुख छटा है छल कपट का
                          जिससे देता अन्य को धोखा
झूठा चरित्र है सातवाँ मुख
                             करे रोज जिससे भ्रष्टाचार
आठवां मुखड़ा है कायरता
                         दे कन्या भ्रूण हत्या अंजाम
नवम मुख है अन्याय जो
                             दे लोभ दहेज़ में प्रताड़ना
नौ ये बुराई जी लेने से
                           दसवां मुख बने अभिमान
करते हर वर्ष दहन पर
                          होता है अमर इससे रावण
अन्यथा आज जलाया तो
                         हो क्यों अगले वर्ष उत्पन्न
चाहें यदि मिटाना रावण
                         करनी होगी सही तजबीज
जलाया क्या वही था रावण?
                             नहीं जलाने वाले रावण
सिध्द ये होगा तब ही
                         मिटे जब बुराई समाज से
पहचाने उस रावण मुख को
                               करता जो हममें वास
कर साहस जलाएं उसे
                           जो करता है हममें वास
सब कर सकें जब ऐसा
                          शुभ दशहरा अवसर पर
विश्वास ना दिखेगा रावण
                    विजयादशमी में अगले वर्ष
अन्यथा रहें जलाते नित वर्ष
                     समझ सही छद्म रावण को
रखें अमर गर रावण को
                    सच्चे होंगे ? हम राम भक्त
जलाएं अन्दर स्व-रावण को
                  होगा सिध्द हम है राम भक्त
शुभकामना आपको मन से
                  राजेश की विजयादशमी पर 
  




    


Monday, October 22, 2012

रक्तदान देता है जीवनदान

रक्तदान देता  है जीवनदान

-------------------------------


रक्त निर्माण होती सहज प्रक्रिया ,सर्व प्राणी में
जब होते वे ,युवा, पूर्ण और शारीरिक स्वस्थ

दुर्भाग्य जीवन में किसी किसी  का कभी है आता

कमी निर्माण या दुर्घटनावश जब चाहिए उन्हें रक्त


सम्मिलित वे स्वाभिमानी भी चाहें जो ना सहायता
पर होता नहीं चूंकि रक्त कोई उपलब्ध वस्तु सा अतः

बाध्य होते परिजन उनके चाहिए उन्हें यह सहायता

भाग्य ,युवा और हम स्वस्थ शरीरी दे सकते जो रक्त




होता मनुष्य है विवेकवान जो देने तत्पर सहायता
बैठा मन में पर भय भ्रम का सुई चुभने से होता दर्द
 

थोड़ी होती पीड़ा यह ,लाभ पर इसके अत्यंत अधिक
मिलता किसी को जीवन आगे ,एवज में इस पीड़ा के 


आओ सोचे गंभीरता से हम ,बारे में पावन भलाई के
करें साहस सह पीड़ा तनिक,आओ हम करें रक्तदान

सब करें शब्द प्रदान इसे जब ,हमने किया महादान

पर नहीं सिर्फ यह महादान ,बल्कि होता जीवनदान


जीवन देता मनुष्य मात्र को केवल एक इश्वर ,अतः
लौटे जब हम देकर रक्त ,तब होते समकक्ष इश्वर के


भारत है वह देश पाता विश्व  उन्नत मानव संस्कृति
योगदान रक्तदान में करें ऐसा हो जाएँ इसमें भी अग्रणी
 





  

Sunday, October 21, 2012

आधिपत्य

                              आधिपत्य                             

                             हम प्रत्येक अच्छी ,आकर्षक ,नई ,आधुनिक , सुविधा जनक या सुन्दर वस्तु ,स्थान या मनुष्य साथी को देखते हैं , तब सहज मानवीय प्रवृत्ति के वशीभूत उसे पाने ,  आधिपत्य  करने या उस पर अपने नाम जोड़ने की इक्छा करने लगते हैं .अन्य शब्दों में कहें तो उसका पीछा करते हैं या पीछे भागते हैं. हम इसलिए भी करते हैं क्योंकि अपने बचपने से ऐसा करते लगभग सभी को देखते हैं. अतः ऐसा करना सही मानते हैं. हम ऐसा इसलिए भी करते हैं क्योंकि ऐसा होने पर हम स्वयं भी प्रसन्नता अनुभव करते हैं. अधिकांश पूरा जीवन ऐसा ही करते बिता देते हैं. या अधिकांश अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा ऐसे व्यतीत करते हैं . अपवाद हुए हैं , जिन्होंने जैसा सब करते हैं उससे अलग ढंग से जीवन जिया है . या प्रारंभिक जीवन सब जैसा जिया फिर अपने अनुभव से ,विवेक से समझदारी से जीवन उत्तरार्ध्द   में अपना जीवन पथ परिवर्तित कर लिया . बाद के जीवन में वे किसी की   पीछे नहीं भागे .  तब उनमें से कुछ के  पीछे शेष विश्व भागने लगा . उनके पदचिन्हों पर
 चलने लगा उनको आदर्श मान उनका अनुकरण करने लगा .
                           
                   पूरे विवरण का सार यह कि जिन्होंने सबके जैसा जीवन जिया वे सर्व साधारण जैसे आये (मनुष्य जीवन में ) और   सर्व साधारण जैसे ही चले गए .  पर जो दूसरे जैसे करने या बनने  की चिंता से मुक्त हुए वे वे सर्व साधारण जैसे आये मगर गए असाधारण की तरह. मनुष्य सभ्यता के यहाँ तक विकसित होने में योगदान थोडा सर्व साधारण मनुष्यों का तो है . पर वे थोड़े जो असाधारण सिध्द हुए उनका योगदान अत्यंत अधिक रहा जिने मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग जीवन पध्दति , शैली और विकास           प्रदान                  किया .महान दार्शनिक , साहित्यकार , वैज्ञानिक और महात्मा ऐसे उदाहरण देखने मिलते हैं . जिनके जीवन वृतांत पर गौर करें तो पाएंगे उन्होंने दूसरे क्या करते हैं वह नहीं देखा और सोचा .निश्चिन्त होकर स्वयं   विवेक       और ज्ञान का प्रयोग करते          हुए          अपने उद्देश्य ,लक्ष्य और कर्मों में तल्लीन रहे .जिससे उनका जीवन पूरा होते होते, अन्य          मनुष्यों          ने           उनकी महानता          को पहचान लिया उन पर श्रृध्दा    की    और उनका अनुकरण भी किया .


                        तात्पर्य यह कि सब जैसा हम भी जियें कोई खराबी नहीं है . पर जैसा दूसरा करते हैं  हमें वही करने की बाध्यता कतई नहीं  है. हम अपनी विवेक बुध्दि और ज्ञान अनुसार सबसे अलग तरह भी अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं . ऐसा हमारा जीवन ना सिर्फ हमें संतोष देगा बल्कि अगर हमारे कर्म परहितकारी सिध्द हुए तो दूसरों के जीवन पथ को आलोकित भी करने में सफल होगा .      
                           अब विचार करें सब क्या करते हैं . कुछ सामान्य बातों से ही ये समझें . सब अच्छा से अच्छा संभव है वस्त्र पहनना चाहते हैं . सबसे अच्छा और स्वादिष्ट अधिक खाना चाहते हैं . अपना बंगला सबसे बेहतर करना चाहते हैं . अपनी मान प्रतिष्ठा और प्रशंसा सर्वत्र चाहते हैं. अधिकतम सुविधा से रहना चाहते हैं. जीवन में अमर हो जाना चाहते हैं . सफलता शीघ्र और अधिकतम पाना चाहते हैं. अपना ज्ञान और सूझबूझ सर्वाधिक कहलवाना चाहते हैं. अपने परिवार में सुन्दर ,सुशील पत्नी ,बच्चे ,भाई-बहन होना पसंद करते हैं . अपनों पर कोई विपत्ति न आये यह चाहते हैं.ऐसा नहीं है तो इसके उपाय ,इस हेतु छीना-झपटी और उचित अनुचित प्रयत्न करते हैं. हासिल कर सके तो और अधिक चाहने लगते हैं. नहीं होता है तो बेचैन होते हैं. इन क्रमों और कर्मों में जीवन का प्रारंभ कब जीवन संध्या पर आ पहुँचता है . पता नहीं पड़ता और फिर चौंकते हैं और भयभीत होते हैं .भ्रमों में कभी सबसे खुशहाल और कभी लाचार मानते अभिमान और हीनता बोध के बीच दोलन करते रहते हैं .    

   अब बारी है इस विवेचना की , जो असाधारण हैं या असाधारण बन चले गए हैं , उनके कर्म आचरण इन्हीं बातों में क्या रहे  ? वस्त्र धारण यानि बाह्य स्वरूप और मर्यादा के लिए ,उन्होंने जो सहज , सरलता से मिला उसे धारण किया , इस पर विशेष महत्त्व नहीं दिया . उनका ध्यान इस बात पर ज्यादा रहा कि उनके मन और ह्रदय में धारण किये गए विवेक विचार श्रेष्ठ रहें . भोजन आम तौर पर शाकाहारी , और सात्विक रखा जिसमें मात्रा भी उदर पूर्ती के लिए जितनी आवश्यक है उस पर ध्यान दिया . अन्य भोज्य यदि ग्रहण किये भी तो उस पर ध्यान रखा कि उसकी व्यवस्था न्यायोचित ढंग से की गयी हो . उन्होंने इस पर विशेष ध्यान दिया कि जिनके बीच वे रह रहे हैं. उनको भी उदर  पूर्ती के लिए आवश्यक मात्रा मिल पा रही अथवा नहीं. अगर आवश्यक हुआ तो उन्होंने अपनी थाली में से बाँट कर अन्य को आवश्यक मात्रा मिल सके यह सुनिश्चित करने की चेष्टा रखी.रहने के लिए अपने निवास को जीवन में उन्होंने अस्थायी ही माना , क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान पूरे जीवन में रहा कि जीवन बाद धरती पर एक छोटे से टुकड़े पर उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता है. यह अवश्य कोशिश रही कि मिले आवास को साफ़ सुथरा रख आसपास भी  अन्य साफ़ सुथरे तरीके से जीवन यापन करें. सुविधा उन्हें क्या उपलब्ध है ? इस पर विचार में व्यर्थ समय गंवाने के उन्होंने इस का चिंतन और उपाय किया कि दूसरों को आवश्यक सुविधा कम से कम जो पर्याप्त मानी जाती है वह उपलब्ध हो सके.   मान ,प्रतिष्ठा और प्रशंसा पर उनका मन कभी आकुल-व्याकुल नहीं रहा . यद्यपि उनके कर्मों और आचरण ने धीरे -धीरे अन्य के बीच स्वतः ही मान, प्रतिष्ठा और प्रशंसा में क्रमशः वृध्दि दिलवाई . अमरत्व के तरफ बेफिक्री दिखाई . भली भांति इस बात को समझा . एक दिन आये को जाना ही होता है. जीवन कि दीर्घता कितनी है इस पर नियंत्रण किसी का नहीं है, यह ज्ञान रखा . जितने उपाय संभव हैं उस अनुसार जीवन बचाव किया . और फिर जितना जीवन मिला उसे सद्कर्मों , सदाचार  और परहित में लगाया . इसे ही स्वहित भी माना और जीवन सार्थकता इसी में देखी. अगर गृहस्थ रहे तो  पत्नी ,बच्चे ,भाई-बहन और अन्य परिवार जन दैहिक रूप से सुन्दर हैं या नहीं इस पर चिंता न कर उनके गुण विचार और व्यवहार सुन्दर हो इसे प्रमुख किया और उसके उपाय और प्रेरणा दी. प्रतिकूलताओं को विपत्ति मानने के स्थान पर   कभी अनुकूलता और कभी प्रतिकूलता को जीवन स्वरूप माना . जब इस तरह के कर्म और विचार रहे तो उनके आचरण और प्रेरणाओं में छल -कपट और छीना-झपटी का अभाव रहा और जहाँ आवश्यक रहा त्याग उनके जीवन में हमेशा देखने मिला . अवसरों पर जीवन तक त्याग देने /बलिदान की मिसालें उनके द्वारा दी गयी.जीवन के  प्रारंभ से जीवन संध्या तक एक एक क्षण को जीवन्तता से जिया .मनुष्य और प्राणी समाज कि भलाई को जीवन लक्ष्य रखा . जीवन के कुछ समय साधारण बिताने के बाद किसी प्रेरणा से असाधारण में परिवर्तित हुए तो उस प्रेरणा के बाद उनका लक्ष्य ,कर्म और आचरण यही हुआ .

              जब इस तरह की विभूति को अपने बीच अन्यों ने पाया तो उनके पदचिन्हों पर वे चलने लगे . उनको आदर्श मान उनका अनुकरण करने लगे .पूरे लेख का सार यही है . कभी किसी को कोई अन्य की देखा-सीखी करने की सोच विचार रखने की  कतई आवश्यकता नहीं है  . अच्छी बात स्वतः ही बिना विशेष विचार के वह ग्रहण कर सकता है. विवेक और विचारशीलता को पुष्ट करते वह अपनी कल्पनाशीलता और बुध्दिमत्ता से ऐसा अनूठा करता है , जिससे उसका कार्य मानव विकास के क्रम में मील का पत्थर बन जाता है .गगन में उड़ रहे हवाई जहाज , तारों में दौड़ रही बिजली , विश्व के एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजे जा सकने वाले सन्देश और चित्र विज्ञान में , और सदाचार को प्रेरित करते साहित्य और धर्म महान दार्शनिकों ,विचारकों और साहित्यकार का  अनूठापन ही है  . जिनसे मानव संस्कृति और विकास को दिशा और गति मिली .इन महा मानवों ने यह सब विश्व को सबसे अलग तरह सोच ,कर्म और आचरण से दिया . उन्होंने इसकी चिंता नहीं की दूसरे क्या कहते और करते हैं . अपने बारे में क्या कहा जा रहा है ,इससे भी उदासीन रहते हुए ही  उन्होंने  जीवन सार्थक कर विशेष योगदान इस विश्व और समाज को दिया . वे हमारे तरह साधारण नहीं असाधारण हो गए और इस दुनिया से इस हैसियत में विदा लेते हैं.       
         क्या हमें साधारण ही बने रहना है, हम यह सोचें . इसमें बुराई तो नहीं पर उपरोक्त वर्णित असाधारणता में ज्यादा अच्छाई दिखती है  .    हममें से प्रत्येक को यह क्षमता प्रकृति प्रदत्त मिली है . जिससे हम भी ऐसे असाधारण  बन सकते हैं . अगर हम चाहें तो इसे व्यर्थ गंवाने के इसका प्रयोग कर ऐसा अनूठा सोच और अनूठा योगदान अपनी और से दे सकते हैं . जैसा हुए इन अनूठों से अलग अनूठा हमें भी सिध्द कर सकता है. प्रारंभिक उपाय में हमें यही करना है कि हम इस चिंतन से मुक्त हो जाएँ सब क्या कर रहे हैं , सब क्या कह रहें हैं ? साथ ही चीजों को अपनी और खींचने के स्थान पर इस धैर्य  को धारण करें जो सहज सरलता से मिल रही है उसे मिलने दें . मिले में से भी पर्याप्त को उपयोग करें और अधिक को दूसरों में मिल बाँट लें. इतना त्याग इसलिए भी आवश्यक है कि जीवन खोते ही आधिपत्य में कुछ नहीं बचता . तथा इससे बच रहने वाले हमारे मनुष्य समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि हम क्या खाते रहे थे  ? क्या पहनते रहे थे या कहाँ और किस सुविधा से जीवन यापन करते थे ?
                           कृपया आयें प्रेरणा लें और मिले जीवन के 90 -100  वर्षों में जो बच रह गए हैं उनका उपयोग परोपकार में भी करें . अपना मनुष्य जीवन सफल और सार्थक करें .

Friday, October 19, 2012

नमन डॉक्टर

नमन डॉक्टर

----------------

                         20 वर्ष पहले इंटर्नशिप के आखिरी का समय स्मरण हो आया था .जब वह नागपुर चिकित्सा महाविद्यालय में हुआ करता था . दो  भाई बहन 10-12 वर्ष के टेबल टेनिस खेलने आने लगे थे ,ज्ञात हुआ था दून स्कूल में पढ़ते हैं ,छुट्टियों  में आये हैं यहाँ . लड़की अत्यंत जहीन , स्वच्छ वस्त्रों और धीमे स्वर में बात करने वाली बहुत सुन्दर तो नहीं पर आकर्षक  थी . वय   में लगभग  15 वर्ष छोटी होगी, पर विपरीत लिंगी थी उसने सहज   एक आकर्षण  अनुभव किया था तब . फिर वह पढाई पूर्ण होने पर चला आया था वापिस . तब से विस्मृत कर चुका था उस एक तरफ़ा प्रेम को ,नाम भी भूल गया था वह उसका  .

 

                          कुछ दिन पूर्व भ्रमण से लौटते ,एक लगभग तीस वर्षीया युवती जो अपनी छोटी बिटिया के साथ खड़ी थी  ,स्कूल बस की प्रतीक्षा में उससे समय पूछा था , सेल फोन नहीं  था , उस समय पास . घडी पर निगाह डाली बंद थी वह , तब भी अंदाज कर समय बता दिया था 7 .40 . फिर देखा था कुछ जाना पहचाना था चेहरा और अंदाज था उस युवती का . 

                       आज क्लिनिक में सपत्निक वह मरीज जांच और उपचार में था . पिछले मरीज के जाने के बाद अगले की प्रस्तुत पर्ची पर नाम अंकित था आधीन ,पुत्री ..राजील सक्सेना . राजील यह निराला सा नाम एक ही सुना था  . उसे याद आया उस लड़की का था शायद जो नागपुर में टेबल टेनिस खेलने आती थी ,अपने भैया के साथ . तब दरवाजे पर वही युवती अपनी  बच्ची के साथ  दिखाई दी  , कुछ दिन पूर्व समय पूछा था  जिसने . बच्ची बीमार थी , जाँच में वाइरल फीवर लगा था . दवा प्रिस्क्रिप्शन लिख समझाते हुए उसने ,युवती को बेटी संबोधित किया था . अन्य मरीज की जाँच करती डॉक्टर पत्नी कुछ चौंकी थी . पति के मुँह से इतनी बड़ी उम्र के लिए पहली बार बेटी का संबोधन अजीब लगा था . शाम घर पर पत्नी ने यह सवाल किया था . जिसे टाला था यह कहते कि , अब मै 45  का होने लगा हूँ , कुछ शब्द नए प्रयोग होने लगेंगे इस उम्र से आगे बढ़ने पर , पत्नी के चेहरे पर असहमति के भाव थे पर कहा कुछ नहीं था उनने .   

                        वह स्वयं विचार तन्द्रा  में चला गया  था . उसे याद आ रही थी , पढ़ी एक कहानी श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखित "उसने कहा था " जिसके काल्पनिक पात्र लहना सिंह ने एकतरफा प्रेम के खातिर ऐसी मौत सहज गले लगा ली थी, जिससे मौत की ऐसी सुन्दरता सिध्द हुई थी जो अभूतपूर्व तो थी ही आज तक भी मौत ऐसी सुन्दर न देखी और पढ़ी थी . डॉक्टर के पवित्र इस पेशे , और पवित्र सेवा के मिले इस अवसर के लिए अपने   एकतरफा प्रेम जिसे कुछ और रिश्ता देना अनुचित ही होता . अनुचित ऐसे भी कि जो भी अन्य सोचा जा सकता वह रिश्ता सफल हो या असफल , दो  नारियों के कोमल ह्रदय  को पुरुष के छल से और झुलसाने वाला ही सिध्द होता   . वह पतिव्रता  पत्नी के साथ ही एक मासूम युवती के साथ वह धोखा होता जो पुरुष ने समय समय पर नारी को दे कर समाज कि सुख-शांति को अत्यंत हानि पहुचाई है .उसने बेटी का पवित्र यह रिश्ता मान लेने का बड़प्पन दिखा दिया था .डॉक्टर का फर्ज पूरा किया था न केवल वह शारीरिक अस्वस्थता का उपचार कर रहा था , बल्कि   नारी के आहत ह्रदय को  भी अपने तरफ से और  क्षति पहुँचाने  से बचा था . ( लहना सिंह सी ) मौत को नहीं पर आज के स्वार्थपरस्त इस दुनिया में ऐसा सुन्दर जीवन जीवंत किया था ,जो सच ही एक डॉक्टर का परम कर्तव्य होना चाहिए ........


                                        नमन डॉक्टर , हार्दिक नमन आपको       

 

Saturday, October 13, 2012

श्रृंगार रस की जीवंत मूर्ति

श्रृंगार रस की जीवंत मूर्ति

-------------------------- ----

श्रृंगार रस की साक्षात् जीवंत तस्वीर हैं ,आज हम

सोने में सुहागा ,कुशाग्रता से भी धनी हैं आज हम

वैभव और प्रतिष्ठा हिस्से आई है ,अहो भाग्य हमारे

सारे युवा नहीं ऐसे मिले भाग्य जैसा आज हमारा

 

स्पष्ट स्वतः ये ,अग्रणी हैं जीवन पथ पर आज हम

भुल्लैया कई जिनसे संकट,अग्रता पर आज हमारी

विकसित ,क्षमताशीलता से उपलब्धियां बनें हमारी

संकल्प ,उच्च आदर्श हममें ,दृष्टि करे साफ आज हमारी

 

हो ना पाए ओझल लक्ष्य , संस्कारों से जो पाया हमने

परोपकार की बुझती जोत ,बचाएं सज्जनता से अपनी 

सब चाहते बचे भलाई समाज में ,अपेक्षा ये निभा लें हम

कर्तव्य अधिक महत्त्व का ,अग्रता से जो मिला आज हमें

 

अन्यथा जीवन शेष ५० वर्ष का ,बीत यों जायेगा हमारा

श्रृंगार नहीं तब ,रौद्र या वीभत्स रस ही सिर्फ रहेगा शेष

बन सकते  दया भाव से  उदाहरण ,वात्सल्य रस का हम

साकार जो हो सकता है , उज्जवल कर्मों  से आज हमारे   

 

अग्रणी थे रहकर अग्रणी ही ,ले सकते हैं मान विदाई हम

गर यापन करें अग्रणी सा मानव जीवन अपना अनमोल

सर्व सामान्य जोह रहे बाट ,आये कोई पथ प्रदर्शक नेक 

मानव समाज की है अपेक्षा , आये असामान्य ऐसा एक