Thursday, January 31, 2013

सफलता असफलता

सफलता असफलता
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कई बार हमने देखा -सुना है , जिनके जन्मजात या किसी दुर्घटना में शारीरिक अंग क्षति से वे विकलांग हो जाते हैं . वे कुछ ऐसे कारनामे कर गुजरते हैं . जिनकी (जिस तरह के कार्य विकलांग कर दिखाते हैं ) सफलता पर शारीरिक रूप से पूर्ण अधिकांश मनुष्य भी शंकित होते हैं .
विकलांगों की इस तरह की सफलता के बारे में चिंतन से कारण जो समझ आता है वह यह लगता है . विकलांग को अपनी शारीरिक हीनता की सच्चाई मालूम है , अतः इस असमर्थता के कारण उनके चित में भटकाव नहीं है . असमर्थता की जानकारी रहते वे जिस एक या कुछ लक्ष्य जीवन के लिए तय करते हैं . अपनी पूरी सामर्थ्य और शक्ति उस दिशा में लगा देते हैं . जिससे उन्हें वह सफलता मिलती है , जो कई पूर्ण समर्थ के जीवन में सपना ही बन छूट जाती है .
शारीरिक पूर्णता वाले हम जैसों की सफलता-असफलता के कारणों पर गौर करें तो लगता है , व्यक्ति अपना कोई लक्ष्य तय करता है . उस दिशा में पूरा श्रम करता है . उसे लगता है उसे अपेक्षित सफलता मिलनी चाहिए वह नहीं मिल रही है ,विचलित हो उस दिशा में श्रम छोड़ देता है . अधिकांश ऐसे अवसर में यह अधीरता के कारण सफलता से वंचित हो जाना होता है . वास्तव में श्रम और समय व्यय करने के के उपरांत जब उसका प्रतिफल मिलने का समय आ रहा होता है अधीरता में व्यक्ति उससे कुछ पहले अपना लक्ष्य दिशा बदलता है और सफल होते होते असफल रह जाता है .
आशय लिखने का यह है , लक्ष्य सोच समझ के तय किये जाएँ .यदि लक्ष्य अच्छे और परहितकारी भी हैं तब धैर्यवान रह उस दिशा में समय और परिश्रम करते जाएँ तो मुझे विश्वास है हम सब सफल हो सकते हैं . अपने मंतव्य जीवन में पूरे कर सकते हैं

 

बच्चा न्याय बोध भूलता है

बच्चा न्याय बोध भूलता है

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पड़ोस का एक छोटा बालक , चार-पांच वर्ष का , कुछ 2-3 महीनों से बच्चे वाली छोटी साईकिल प्रतिदिन बहुत लगन से सीखता और चलाता दिखाई देता था . हमारा घर एक गली में जिसका दूसरा सिरा डेड एंड है , में है .और छोटे बच्चे का उस सड़क पर खेलना या साईकिल चलाना कोई खतरा नहीं उत्पन्न करता . उससे मेरी छोटी मोटी बात करने की आदत है . एक जन . (नए साल) पर उसे नई साईकिल दिलाई गई थी . मैंने आफिस से लौटते समय उसे नई साईकिल पर मजे से घूमते देखा तो , मैंने उसके साइड में अपनी कार रोकी . दरवाजा खोल कर उससे बात की

मै .. नई साईकिल है ?

बालक .. हाँ में सर हिलाता है .

मै .. इसे मुझे दे दो , बदले में मेरी इस कार को तुम रखलो .

बालक .. घबराहट के भाव के साथ नहीं में सर हिलाता है .

तब तक कुछ बड़े बच्चे आ जाते हैं . मेरे मजाक को समझते उससे कहते हैं , ले लो विकी .. कार बड़ी है . बच्चा इस तरह समझाये जाने पर और डरता है . और रुआंसा सा दिखता है . तब मै उसको भयमुक्त करने के लिए कहता हूँ .. ठीक है ,विकी अभी नहीं बदलते , अपनी पापा -मम्मी से पूंछ कर कल बता देना . बालक इस से भयमुक्त हुआ दिखाई दिया और सहमती में सर हिलाता है .तब मै अपनी गाडी आगे बढा लेता हूँ .

उस दिन बाद मैंने उससे कोई बात नहीं की फिर भी अपने टेरेस से उसे साईकिल चलाते अक्सर देखता हूँ .

सोचता हूँ , बच्चे पर लौकिक ज्ञान की ज्यादा परत नहीं चढ़ी है . तब तक तो न्यायप्रिय है और लालची भी नहीं . कौनसी वस्तु उसकी है उसे वह ही अपनी लगती है . बताये जाने पर भी की कोई अन्य वस्तु कीमती है वह उस और नहीं ललचाता है . अपनी आवश्यकता जितना ले लेता है , उससे ज्यादा में उसकी रूचि नहीं होती है .हम बच्चे के विवेक को विकसित नहीं मानते तब भी वह प्रकृति से न्याय के मार्ग पर ही चलता है . उसे किसी अन्य की कीमती चीज भी मिल रही है तो उसे नहीं चाहिए है . उसे यह भी मालूम है वह साईकिल चला पायेगा . कार उसके सामर्थ्य में नहीं .

सोचने को मजबूर करता है जो बातें हम बाद में सिखाते हैं , शिक्षा दिलवाते हैं , उससे बड़े होने पर उसी बच्चे में स्वार्थी ,संग्रहण प्रवृत्ति आती है . वह लाभ हानि का हिसाब करने लगता है . लाभ दिखता है , तो अन्य के सामान को हड़पने की तरकीबें भी लगाने लगता है .

इससे ऐसा लगता है , हम व्यवहारिक शिक्षा जो बच्चों को दिलाते हैं . और जो अपने कर्म और आचरण करते हैं . उसे देख जो संस्कार ग्रहण करता है .उससे बच्चा न्याय बोध भूलता है . आसपास से प्राप्त शिक्षा उसका मानसिक विकास करती है या बिगाडती भी है यह प्रश्न चिन्ह बनता है . 

Monday, January 28, 2013

बैर मिटे सबके मन में


बैर मिटे सबके मन में    
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होते हैं संघर्ष अधिकार अपने हासिल करने के लिए  
उतरते अन्य तब संघर्ष में अपने हित बचाने के लिए   
हासिल और बचाते संघर्ष में हो जाती हिंसा अनायास  
पक्ष जिसे होती जन क्षति बनती उनके ह्रदय में फांस 

संघर्ष क्रम निरंतर चलता कभी यह कभी वह जीतता 
संघर्षों में जो अपने प्राण गंवा लौट नहीं घर आ पाता  
प्रियजन उसके दुखी होते कई अनाथ हो श्राप में जीते 
खुशियाँ अस्थाई मनाते वे इस बार संघर्ष में जो जीतते 

लड़ते जिस पर यहीं छूटती मरकर वे कहीं और पहुँचते  
जिन्हें संघर्ष में हासिल होती छोड़ कभी वे भी मर जाते 
छीना झपटी संघर्ष में किसी को कुछ ना हासिल होता 
भूखे को भोजन दिलाने से संतोष सच्चा प्राप्त होता है 

सब छूटना सबका ही है जब जानते सब इस सच को तो  
स्वयं क्यों न त्यागते तब अन्य की थोड़ी ख़ुशी के लिए 
त्याग की अगर वीरता लायें संघर्ष होंगे धीरे धीरे कम
ना हो संघर्ष जन्य जन हानि तो बैर मिटे सबके मन में    

राजेश जैन 
--28-01-2013

Sunday, January 27, 2013

सुरम्य साहित्य उद्यान


सुरम्य साहित्य उद्यान
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कोई लगाते सुरम्य उद्यान और कोई सजाते गृह आलीशान 
कोई करते नित आविष्कार और कोई बनते अधिक धनवान   

ज्यों बढ़ते जीवन पथ में जुटते सच करने सब अपने सपने 
कुछ करते नक़ल दूसरे की और कुछ के लक्ष्य निराले होते 

बहुत पा लेते जीवन सुख और कुछ रह जाते उदास भटकते 
करते पुरुषार्थ सम्पूर्ण प्रतिभा से पर कुछ सीमा होती सबकी 

जीवन पूर्ण हो जाता अनेकों का पर रह जाते मंतव्य अधूरे 
अपनों को दुःख बहुत होता जब जाते यों देखते अपने को 

भले ना पहुँचूँ मै लक्ष्य पर और रह जाएँ मेरे स्वप्न अधूरे 
मै रखूँगा पावन उद्देश्य और होगा यत्न निराला बनाने का  

आरम्भ है प्रयास लगाने का एक सुरम्य साहित्य उद्यान 
विस्तृत हो आकाश पृथ्वी पर बिन सीमा का बने उद्यान

लगाऊं नित नूतन पौधा साहित्य रूप पुष्प खिलें जिनमें   
सुरभित पुष्पों से आत्मज्ञान और विवेक जागृत हों सबमें 

न्यायप्रियता आये सबमें और समझें सब परस्पर संवेदना  
परस्पर स्नेह उमडे ह्रदय में और उतरे वह आचार कर्म में  

बँटता मनुष्य विश्व में बनी बात बात की सीमा रेखाओं से  
सीमा सब टूटें व स्वतन्त्र मनुष्य हो जो स्वभाव है उसका   

ऐसा बिन सीमा एक सुरम्य साहित्य उद्यान हम लगायें 
समवेत यत्न से होगा पूरा अतः सहयोगी आप हस्त बढ़ाएं  


Saturday, January 26, 2013

सुरम्य उध्यान ,रिज रोड , जबलपुर


सुरम्य उध्यान ,रिज रोड , जबलपुर 
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नियमित भ्रमण हेतु मै रिज रोड जाता हूँ , वहां एक घाट , जिस पर कपड़े धोये जाते थे . लगभग डेढ़ -दो वर्ष से वहां कपड़े धोने बंद कर दिए गए थे . क्षेत्र बड़ा है . और पिछले समय से उजाड़ ही था . 3-4 माह पूर्व से वहां परिवर्तन का क्रम नियमित भ्रमण में दिखता था . कल 26-जन . पर उस स्थल को समारोह आयोजित कर सार्वजनिक प्रवेश के लिए खोल दिया गया है . उजाड़ सा बना क्षेत्र अब सुरम्य (जैसा नाम ) उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया है .वहां भ्रमण पथ बनाये  गए हैं . उसके आसपास सुन्दर घास और रंग-बिरंगे पुष्पों के पौधे रोप गए हैं . आसपास खुला और स्वच्छ आवोहवा तो है ही . मनोरम दृश्य भी हैं . 
सुबह मैंने भी सैर के बीच एक चक्कर उसमें पूरा किया . वहां पदस्थ किये गए गार्ड से परिचय और सामान्य चर्चा भी की . उस सुरम्यता के बीच चर्चा में आंतरिक ह्रदय के अदृश्य शूल अनुभव कर पीड़ा अनुभव हुई . जिसे आप से शेयर कर रहा हूँ .

पेट पर मार ... तैनात गार्ड (नाम पूछा है , पर उल्लेख नहीं करूँगा ) ने स्वतः बताया , 1980 में एक निगम की सेवा में आया था , 1993 में एक मुख्यमंत्री (नाम आदर नहीं ,शिकायत पूर्ण स्वर में लिया गया था ) ने निगम बंद करने का फैसला ले लेने से 2002 में उसकी छटनी कर दी गई . परिवार पालना इस तरह कठिन हुआ . तब से इस तरह के कार्य प्रयत्न पूर्वक हासिल कर संघर्ष रत रहते , परिवार और स्वयं का जीवन बिताता हूँ .गार्ड ने जानकर यह मुझे नहीं बताया कि यह मेरी जिज्ञासा मात्र नहीं है बल्कि चर्चा का उल्लेख यहाँ फेसबुक पर करूँगा . बात करते मुझे भी ऐसा विचार नहीं था . पर किसी के सीने में दर्द का अस्तित्व कैसे हो जाता है और उसे कितने लम्बे अंतराल तक भी नहीं मिटाया जा सकता है .
यह रेखांकित करना आवश्यक लगा . वास्तव में हमारा व्यवहार और नीति (यदि हम उस हैसियत में हैं  तो) इस तरह नहीं होनी चाहिए , जिससे किसी के पेट पर प्रहार होता हो . अगर ऐसा किया जाना आवश्यक भी हो तो विकल्प उपलब्ध कराये बिना ऐसा नहीं किया जाना चाहिए .

सार्वनिक सेवारत  भाग्यशाली के लिए .. हम जिनकी सेवा निरंतर जारी है, वे इसके महत्त्व को समझ कर्तव्य के प्रति निष्ठावान रहें और सेवा में अवैध लाभ लेने की अपनी कमियों को दूर करते हुए . इस देश के हर कार्यालय को मानवीय सुरम्यता प्रदान करें .

सुरम्यता .. उद्यान की या प्रकृति की सुरम्यता तो संरक्षित की ही जानी चाहिए अपने देश और समाज में चहुँ ओर मानवीय सुरम्यता के लिए हमें गंभीरता से  कर्तव्य निर्वहन करने के लिए अपने स्वार्थ साधने की प्रवृति से मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए . जिस दिन हमारे अच्छे की चिंता देश और समाज में हम स्वयं नहीं बल्कि अन्य करने लगेंगे . उस दिन यह देश और समाज से कहीं और जाना हमें अखरेगा और हमारी मातृभूमि की नैसर्गिक तथा मानव निर्मित सुरम्यता शेष विश्व के लिए अनुकरणीय बनेगी .

आयें बच्चे और बड़े सभी सुरम्य उद्यान रिज रोड में शुध्द-सुगन्धित वातावरण का आनंद उठा अपने स्वास्थ्य को भी पुष्ट करें 
          

दूर क्षितिज में जीवन आशा की किरण


दूर क्षितिज में जीवन आशा की किरण (भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार की दुविधाएं )
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एक परिवार में यह हो रहा है . 2 बच्चे और माँ-पिता सदस्य हैं . बच्चे में पहली पुत्री और छोटा पुत्र है . दोनों कॉलेज जाते हैं . विशेषकर पुत्र पालकों के निर्देशों के अवहेलना करता है . और कई बार उनसे उलझ घर में अप्रिय स्थितियों का कारण बनता है . डांट -डपट निष्प्रभावी होती हैं , पिता उसे पीटे जाने को भी उसकी वय को देखते उचित नहीं मानते . अप्रिय स्थिति निर्मित होने के बाद विशेष रूप से पिता और पुत्र दोनों मन ही मन पछतावा करते हैं . पिता सोचता है मै भी इस उम्र में इस प्रकार हरकतें करने लगा था . क्या मै इस कारण इसकी अनदेखी कर दूं ? पर इससे मै  जीवन में पिछड़ गया ठीक शिक्षा पूर्ण नहीं कर सका अब संघर्षों में जीवन बिताने को बाध्य हूँ . अगर पुत्र को ना समझाऊँ तो क्या वह भी यही कठिन स्थितियों में जीने को बाध्य ना होगा ? जबकि उसके सपने तो आसमान छूने देखते हैं . 

इधर पिता से मार -डांट से अप्रसन्न होकर वह प्रतिक्रिया में उनसे मुहं लगने की बेशर्मी करता है . समय थोडा निकलता है और क्रोध थोडा शांत होता है , तो स्वयं पर ग्लानि करता है . सोचता है जिन पिता को अपने खातिर (बच्चों ) अथक परिश्रम और चिंता में समय /दिन बिताता देखता है . उनके घर में विश्राम के समय में भी उनका आदर न कर वह उन्हें चिंता और निराशा में डाल अच्छा नहीं करता . उसे स्वयं की लाचारियों पर पछतावा होता है . 

पिता- पुत्र ऐसा मानते हुए भी इन स्थितियों को नित आमंत्रित कर लेते हैं . इस तरह घर के चारों सदस्य अस्वस्थकर घरेलु वातावरण में घुटन अनुभव करते दिन बिता रहे हैं . एक दिन इस  स्थिति से बचने के लिए चारों शांतिपूर्ण ड्राइंग रूम वार्ता को सहमत होते हैं . और पिता पुत्र में संवाद इस तरह आरम्भ होता है ..

पुत्र .. आप हमेशा मुझे टीवी देखने, नेट सर्फिंग ,मोबाईल पर बातें और बाइक से घूमने पर रोक-टोक करते हैं , मुझे अच्छा नहीं लगता .    
पिता .. तुम्हारे पढने के लिए यह समय महत्वपूर्ण है . पढाई छोड़ इन बातों  पर ज्यादा  समय खर्च करने से तुम अच्छा रैंक न बना सकोगे इसलिए .
पुत्र .. पर मेरी उम्र के अधिकतर लड़के यही सब करते हैं , मुझ पर आप पाबंदी क्यों लगाते हैं ?
पिता .. मैंने बताया न यह तुम्हारे पढाई के लिए ठीक नहीं , और फिर इन बातों पर खर्च बढ़ने से घर चलाना भी कठिन होता है .
पुत्र .. घर तो चल रहा है , कहाँ तकलीफ है ?
पिता .. तुम्हारे इन खर्चों के लिए , मै , तुम्हारी मम्मी सालाना एक दो जोड़ी कपडे ही ले पा रहे हैं , तुम्हारी बहन को हम गाड़ी (स्कूटी) नहीं दिला  पा रहे हैं .और भी जगह मन मारते हैं .
पुत्र .. आपके पास बैंक में जमा है , क्यों नहीं दिलाते आप दीदी को स्कूटी  ?  
पिता .. बेटे अगर तुम पढने में मन लगा रहे होते और अच्छी रैंक ला रहे होते जिससे तुम्हारे अच्छे भविष्य का हमें विश्वास होता  तो मै ये बचत की चिंता नहीं करता . कल तुम यदि कुछ विशेष ना कर सको तो छोटे -मोटे काम व्यवसाय के लिए भी कुछ धन तो लगेगा अतः जोड़ना जरुरी है . नहीं तो तुम्हारे सपने मेरे तरह ही टूटेंगे . तुम हमारे पुत्र हो तुम्हे संघर्षरत -उदास देख दुखी तो हम भी  होंगे ना .
पुत्र .. आप भविष्य की जरुरत से ज्यादा चिंता कर वर्तमान बिगाड़ रहे हो . दादा (आपके पिता) ने तो ऐसा नहीं सोचा , अन्यथा आप इससे बेहतर होते .आप भी ऐसे ही छोड़ दीजिये .
पिता .. वे अपढ थे दूसरे की दूकान पर छोटी नौकरी कर हमें पालते थे . उन्हें हमारे भविष्य को संवारने का तरीका और सोच नहीं थी . पर मै अपने जीवन अनुभव से इसे समझ तुम्हें समझाता हूँ .
पुत्र .. पर इसमें मेरा बाइक पर जाना कहाँ बीच में आ जाता , जिस पर आप नाराज होते हो .
पिता .. बाइक पर घूमना कई कारणों से आपत्तिजनक है इसलिए .
पुत्र .. एक दो घंटे घूमने से क्या ख़राब हो जाता है .
पिता .. 2 घंटे का समय ख़राब होता है .घूमते हो तो पेट्रोल ज्यादा लगता है . हमारा और देश का पैसा लगता है . तुम और तुम्हारे तरह के बच्चे बिना वजह घूम शहर की सड़कों पर यातायात भार बढाते हैं . जरुरी कार्यों से सड़क से जा रहे लोगों का समय ज्यादा लग जाता है . और 
पुत्र .. और क्या ?
पिता .. जो तुम्हे बड़ा करने और बड़ा देखने के लिए अपनी इक्छाओं पर नियंत्रण कर , तुम्हें ज्यादा खुश देखने के लिए साधन जुटाते हैं , उनका तो तुम आदर नहीं कर पाते , ऐसे में जब तक तुम घर नहीं लौटते , किसी से  असम्मान से बातें करते परेशानी में तो नहीं पढ़ गए सोचते तुम्हारी माँ चिंतित रहती है , जो उनका स्वास्थ्य बिगाड़ती है . तुम फालतू चक्करों में थकते हो फिर पढने में ऊर्जा नहीं लगा पाते . तुम्हारे सपने इस तरह तुमसे दूर होते जायेंगे .
पुत्र .. ये बातें तो सबके साथ हैं , पर वे तो बेपरवाह हैं .
पिता ..  सब जैसा करें वही तुम्हें करना पड़े , क्या यह जरुरी है ? तुम सबसे अनोखा और अच्छा मार्ग क्यों नहीं अपना सकते ?  अपनी कमजोर संकल्प शक्ति के लिए क्यों इन बातों का बहाना करते हो ? अगर ऐसे बहाने में ही पड़ना है तो अपने महत्वकांक्षी सपनों को त्याग दो , जिनके लिए सब से अलग और अथक इक्च्छा-शक्ति से श्रम और संकल्प लगाने से ही जो पूरे हो सकते हैं .
पुत्र .. पर पापा इतनी क्लास निकालने तक , मै अच्छा परिणाम नहीं ला सका हूँ , क्या अब कुछ हो पायेगा ?
पिता .. बीते समय का दुःख या बहाना कर आज मार्ग नहीं बदलोगे तो , अब तक की लापरवाही से हुई क्षति से ज्यादा क्षति तुम्हे देखनी पड़ेगी . और सपनों से मेल करते प्रयास ना करने से तुम जीवन में अवसाद ग्रस्त हो सच्चे जीवन सुख से वंचित हो जाओगे . धन हीनता तो कम दुखी करेगी , पर अपनी स्वयं की असावधानी से पिछड़ने की हताशा जीवन दुखों से पूर देगी .
पुत्र .. (समझने के भाव के साथ ) .. पापा माफ़ कर दो , मम्मी माफ़ करो .. कोशिश करूँगा परिवर्तन ला अब से व्यवहार करूँ . अगर त्याग का प्रश्न है तो आप नहीं कुछ मै त्याग करूँगा .. अन्यथा मै स्वयं को ही माफ़ न कर सकूँगा .

चर्चा के बाद वातावरण कुछ बोझिल है , नम हुई आँखे पोंछते हुए हुए माँ और पिता अपने लाड़ले की पीठ थपथपा अंक से लगाते हैं उस पल .. चारों को दूर क्षितिज में जीवन आशा की किरण प्रस्फुटित होती लगती  है ...   
     

Friday, January 25, 2013


परस्पर बाटें जीवन में मरते सौंप जाएँ
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आज खिला कुछ दिन में मुरझायेगा 
पुष्प ये सुन्दर रूप से सबको मोहेगा 
बिना निज आशा सुगंध बिखरायेगा 
रूप ,सुगंध ख़त्म होते मुर्झा जाएगा 

कर्तव्य पुष्प खिलेंगे ग्रहण कर लेंगे 
सुरभि व रूप से अपनी मोहते रहेंगे       
पर हमें नस्ल पौधे की बचानी होगी 
जिस पर खिलें निरंतर लगानी होगी   

ग्रहण गुण निस्वार्थ इनसे करने होंगे 
बिखेरें परस्पर प्रेम कर्म वे करने होंगे 
जीवन रहते शेष आचरण रखने होंगे 
आने वाले तब गुण ऐसे ग्रहण करेंगे 

निरंतर चलता आया क्रम यों चलेगा 
अन्यथा ना संरक्षित कर सकें हम तो 
नस्ल पौधे देते सुन्दर-सुरभित पुष्प 
कम होते क्रमशः एक दिन ना बचेंगे 

विचारें हमें हो रुचिकर रूप सुरभि तो 
परमार्थ पुरुषार्थ व श्रम लगाना होगा   
हमें दिया जो विरासत पूर्वजों ने वह 
सन्तति को अपनी लौटाना होगा  

धरोहर उधार में मिली हम सम्हालें 
असावधानी से इसे हम ना खा जाएँ 
सुरक्षित रखें इसे ना बने अति स्वार्थी 
परस्पर बाटें जीवन में मरते सौंप जाएँ  

--राजेश जैन 
25-01-2013

Wednesday, January 23, 2013

एक पत्र जो मैंने अपने अपरिचित (प्रतिभावान ) fb मित्र को लिखा ...

एक पत्र जो मैंने अपने अपरिचित (प्रतिभावान )  fb मित्र को लिखा ...
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जिन तथ्यों का आपने उल्लेख किया उसे उस स्वरूप में मै सोच समझ पाता  हूँ , क्योंकि एक विभाग की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मेरे ऊपर है . और मुझे सामाजिक दायित्व और विभागीय उत्तरदायित्वों (और पारिवारिक भी ) के बीच समन्वय रखना होता है .
इन तथ्यों के मद्दे-नज़र मैंने आपकी स्थिति को भी समझा है . आपने उत्कृष्ट समन्वय के साथ अपने  सभी दायित्वों का कम उम्र से ही निर्वहन सीखा है . जो आज नवयुवाओं के लिए बहुत अच्छा उदाहरण है .
वास्तव में आप देश के ऐसे नायक हैं , जिनके अनुकरण अगर नवयुवा करें तो देश और समाज से बुराई और समस्या कम होने लगेंगी . लेकिन छद्म नायकों से देश अटा पड़ा है . बहुत अच्छे अच्छे लुभावने आवरणों में अपसंस्कृति के सामग्रियां से नवयुवाओं को सम्मोहित कर भ्रमित किया जा रहा है .
इन तथाकथित नायकों  ने अपने थोड़े से जीवन लालसाओं के खातिर पूरे  देश-समाज को पथ-भ्रमित किया है . इसका पाप अपने सर लिया है .
पापी होने की समस्या उनकी व्यक्तिगत है . पर मेरे /अपने देश- समाज को इससे जो क्षति हुई है . उसकी क्षतिपूर्ति के लिए ,इस समाज के इस माटी   में जन्म लेने के कारण हम उससे ऋण-मुक्त के प्रयास करेंगे . वह सामग्री नवयुवाओं के समक्ष रखते जायेंगे , जो हमारे देश -समाज ,संस्कृति को बचा सके .
जितना उत्साह-वर्धन आपके साथ से मेरा हुआ है , वह अकल्पनीय है .. कृपया जब समय पायें , यह साथ आगे भी निभाएं ...
सादर आभार , धन्यवाद ..
राजेश जैन
23-01-2013

Tuesday, January 22, 2013

शर्म नाक घटना होती है ऐसे दुष्ट का जन्म मनुष्य रूप होना ........

शर्म नाक घटना होती  है ऐसे  दुष्ट का जन्म मनुष्य रूप होना ........
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भारत में परिवार में कन्या का जन्म होता है , उसी दिन से बेटी को पराई ही मानते हुए लालन पालन में लाड़ -दुलार बरसता है . हम जानते हैं हमारे ह्रदय के टुकड़े को एक दिन (युवा होने पर)  विवाह सूत्र में बाँध अपने से दूर रहने के लिए विदा करेंगे . बेटी के विवाह में माँ-पिता पशोपेश में होते हैं . समझ नहीं पाते हैं इस अवसर को प्रसन्नता का अवसर माने  या प्राण-प्रिया बेटी को दूर करना दुःख का एक अवसर समझें . पर परंपरा जैसा सब निभाते ही हैं .
ऐसे में जब माँ -पिता स्वयं कन्यादान करते हैं और बेटी को स्वयं दूसरों के हवाले करने तैयार रहते  हैं , तब कोई दुष्ट उनकी बेटी को उनसे इस तरह छीन ले जिस तरह हमारे देश में नित दामनियाँ छीनी जा रहीं हैं .  छीनकर उनका जीवन और नारी लज्जा सब हर लेते हैं  तब विचार यह उत्पन्न होता है, छीनने वाला  वह दुष्ट इसी देश की मिटटी में पल बढ़ कर इस तरह की संस्कृति और संस्कार के बाद भी ऐसा कुकृत्य का दुस्साहस कैसे करता है ?
शर्म नाक घटना होती  है ऐसे  दुष्ट का जन्म मनुष्य रूप होना ........

Monday, January 21, 2013

गहन मातम

गहन मातम
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दिसम्बर ,जनवरी माहों में दो कारणों से देश का जन-मानस उव्देलित रहा . एक कारण घिनौना है ,नारी पर पुरुष शोषण ,अत्याचार और उनकी हत्या तक कर देने की घटनाएँ हुईं . पहली घटना 16 दिसम्बर को दिल्ली में सरेआम सड़कों पर बस के भीतर बर्बर दुष्कृत्य की थी .पीड़िता 29 दिसम्बर को असमय इससे काल कवलित हुई . इस घटना से अभूतपूर्व जनाक्रोश सभी ओर दर्शित हुआ . ऐसा लगा , इसे देखकर पुरुष के भीतर बैठा जानवर जो इस तरह नारी  शोषण करता है , भयभीत होगा . और इस तरह के  अत्याचारों के बारे में कम से कम कुछ देखने सुनने नहीं मिलेगा  , इस तरह का दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से  कुछ समय देश में निजात मिलेगी . पर दुर्भाग्य इनकी श्रृंखला अनवरत जारी है . नित नई घिनौनी करतूत पढ़ने  , सुनने मिल रही है . जानवरीयत का रोग ,उसकी जड़ बहुत गहरी है . कोई भय कोई अपमान इन्हें नहीं रोक पा रहा है . जहाँ अबला को अकेला बेसहाय पाता है . पुरुष वासना मर्यादा त्याग देती है . नंगाई का नाच कर ही उतरती है . बाद में अपराधी खेद रखता है या नहीं , मालूम नहीं . पर पीड़ित बच्ची , युवती का जीवन विकट हो जाता है . नारी समाज में कई तरह का शोषण में तो जीने को बाध्य है ही , इन बर्बर घटनाओं से पीडिता के कोमल ह्रदय पर जो भय ,पीड़ा और अपमान की रेखा खिंच जाती है वह पूरे जीवन को त्रासगी  पूर्ण कर जाती है . अपने अपराध को छिपाने के लिए अपराधी कई बार उनकी हत्या भी कर दे रहा है . जिन माँ-पिता ने दुलार से पालन कर उनके भविष्य के सपने संजोये होते हैं . वे बेटी के इस तरह पीड़ाजनक अकाल निधन से अपमान और दुःख में आजीवन मूक विलाप को बाध्य होते हैं . किसी की सहानुभूति या सरकारी क्षतिपूर्ति के प्रयास उन्हें यथोचित दिलासा नहीं दिला पाती . विडंबना यह होती है अपराधी पुरुष की स्वयं की पत्नी ,बहन या बेटियां होती हैं . क्या वह अपनी इन नारियों के अन्य द्वारा इस तरह अत्याचार को सहन कर सकता है ?  लेकिन जिस तरह  जानवरियत उस क्षण उस पर सवार होती है विवेक शून्य हो जाता है , इन कल्पनाओं में नहीं पड़ता . और भी बेशर्मी तब देखने मिलती है . कुछ जीवों का जीवन हनन करने के बाद कानून के शिकंजे में आने पर जब अपनी मौत की सजा का भय दिखता है ,तो गिडगिडा कर दया याचना करता है . लेकिन यह  दया स्वयं कुकर्म करते समय अबला पर उसे नहीं  है
           
दूसरा कारण भी घिनौना ही है . देश की रक्षा को तैनात सीमा पर 2 फौजियों की अकारण दुश्मन सेना द्वारा हत्या कर दी गई . यही नहीं दयाहीनता चरम पर तब देखने मिली जब उनकी मृत शरीर के साथ भी बर्बर हरकत करते हुए एक का सिर काट , तथा दूसरे के अन्य  शारीरिक अंग काट गायब कर दिए गए . क्षत-विक्षत इन शवों को देख पूरा देश अपमान की ज्वाला से सुलग गया .  
परिवार जन अपने सपूत (या पति ) की शहादत से दुखी थे पर उनके शवों की दुर्दशा के विवरण उन्हें  मातम में गहन क्षोभ को बाध्य कर गए . जीवन भर ना भुलाया जाने वाला कष्ट उनके मान और मन पर लग गया .
 
इन दुखद घटनाओं से हमारे देश के कुछ घर आँगन में  तीन तरह के मातम दृश्य उपस्थित हुए / होयेंगे ..

प्रथम ... फौजी वीरों के शव जब घर पहुंचाए गए , गहन मातम छाया , दुःख की पराकाष्टा थी पर इन आंगन के साथ उस गाँव , प्रदेश में एक गौरव बोध था . शहीदों के दुःख पर आलिंगन कर सांत्वना देने अनगिनत लोग उमड़ रहे थे . समाचारों में श्रदांजलि का तांता लग रहा था . शहादत उन शहीदों को ही नहीं , उनके परिवार और उस माटी को अमर कर रही थीगौरव पूर्ण बलिदान इतिहास पृष्ठ पर अंकित होने वाला था  .

व्दितीय ... बेटी का शव घर पहुंचा था . परिजन और नगरवासी स्तंभित थे, अपराधी और व्यवस्था के  प्रति आंदोलित भी थे  . शव देख बार बार उस शक्तिहीन अबला पर इक्कठे कई मानव पुरुष भेष में जानवर की निर्दयता स्मरण हो आती थी . सांत्वना देने आगे आये लोग पिता-माँ को  दुःख से रोते देख  चुपाने के प्रयास में स्वयं रो पडते थे . समाज में कन्यादान से परलोक सुधरता है ऐसी आस्था प्रसिध्द है . घर परिवार अपनी बेटी के कन्यादान कर यह पुण्य हासिल करने की योजनायें बना रहा था . लेकिन अप्रत्याशित इस हादसे को देख जीवन भर के लिए दुःख का पहाड़ उनके सीने में समाया था . सब विचार मग्न थे . यह ना रहे थे इस तरह का दुःख भगवान किसी को भी ना दिखाए .

तृतीय ... कुकृत्य के समाचार के बाद उमड़े प्रतिरोध के जन सैलाब को संज्ञान लेते  न्यायालय , अभियुक्तों को वह सजा जो आज बहुत कम दी जाती है , सुना देता है . फांसी  पर झूलने  के बाद उनके शव लेने उनके परिजन आने में शर्मिंदगी अनुभव कर रहे हैं . यद्यपि उस शरीर से प्राण के साथ ही वह बुराई भी मिट गई है . अब वह शरीर इस योग्य नहीं बचा है , जो किसी नारी पर कोई अत्याचार कर सके .  शर्मिंदगी  के होते हुए भी कोख जाए के मौत पर उसके शव को दाह संस्कार  का कर्तव्य भी धर्म उचित है अतः शव लिया जाता है . प्रियजन की मौत पर संबल देने आने वाले पंच और परिचित अनुपस्थित हैं .  किसी तरह अंतिम संस्कार किया जाता है . पर अपमान और कलंक का अमिट  धब्बा जो पुत्र छोड़  गया ऐसे पुत्र का पिता -माँ होने का दुर्भाग्य किसी और को ना देखना पड़े . सभी ऐसी कामना करते हैं .