Tuesday, December 5, 2017

युवा होने का अर्थ ...

युवा होने का अर्थ ...

युवा होना अर्थात - ज्यादा शारीरिक अनुकूलताओं का होना
युवा होना अर्थात - ज्यादा शीघ्रता से सीखना , ग्रहण करना

अनुकूल समय में हम ज्यादा सृजनात्मक कार्य कर सकते हैं हम
ज्यादा शीघ्रता से सीख सकते इसलिए बहुत सीख सकते हैं हम
शीघ्रता से ग्रहण करते - इसलिए
ज्यादा अच्छाइयाँ ग्रहण कर सकते हैं हम

इसलिए ...

ना हो जायें अति कामुक हम
ना बिगाड़ें स्वास्थ्य सिगरेट पीकर हम
ना गवायें होश शराब पीकर हम
ना भागें सिर्फ पैसों के पीछे हम

रखें सक्रिय विवेक को अपने हम
रखें याद माँ-पिता के संस्कारों को हम
रखें याद कि कर्तव्य परिवार के हम पर हैं
रखें याद कि दायित्व समाज के हम पर हैं

रहे स्मरण के देश हमारा है
रहे स्मरण की जीवन हमारा है
रहे स्मरण कि दुनिया से कुछ ले न जा पायेंगे हम
रहे स्मरण के कर्म अच्छे तो दुनिया को याद आयेंगें हम
--राजेश जैन
05-12-2017
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Saturday, December 2, 2017

तीन तलाक का क़ानूनी मसौदा

तीन तलाक का क़ानूनी मसौदा

पहले सर्वोच्च न्यायालय ,अब क़ानूनी मसौदा और फिर दोनों सदनों में इस पर बहस का यह आज दौर है - इस समय एक सही कानून का बनना बिना विवाद समस्या का प्रभावी समाधान हो सकता है। इस्लाम पक्ष - कानून विद , समाज सेवी और नारी समानता को उत्सुक पक्ष तो अपनी राय रख ही रहे हैं , मेरी लेखनी से भी एक प्रयास।
वस्तुतः यह प्रत्यक्ष समस्या तो तीन तलाक भुक्तभोगी नारी की लगती है किंतु परोक्ष में तीन तलाक और नारी को भी भयाक्रांत करता है कि कब उनके शौहर रुष्ट हो जायें और कब किसी एक दिन उन्हें उनकी गृहस्थी से बेदखल कर बाहर निकाल दिया जाये। यह भय उनकी प्रतिभा अनुसार घर -परिवार की उन्नति में योगदान कर पाने में भी उन्हें असमर्थ रखता है। और अभाव दूर करने के लिये उनके कमाऊ हो सकने की संभावनाओं को भी मिटा देता है।
अतः एक दिन में (या नौ सेकंड) में उन पर आ सकने वाली विपदा का हल , निहायत जरूरी है।
लेखक से अगर इस पर परामर्श कोई चाहे तो वह यह होगा कि - शौहर एक दिन में कितने ही बार तलाक कहे , उसे एक बार कहा गया तलाक ही समझा जाये। इसकी सूचना पीड़िता पूर्व निर्धारित प्रारूप (फॉर्म) में - पुलिस थाने में जल्दी से जल्दी दे दे। उसी दिन शौहर उसे घर से बेदखल न कर सके फिर तीन महीने में दूसरी और तीसरी बार यदि तलाक कहा जाता है तो तलाक वैध हो अन्यथा वह तलाक नहीं समझा जाए। शौहर पर इस सब के बीच कोई सजा का प्रावधान न हो। शौहर पर दंड की तलवार तभी रहे जब कि वह नौ सेकंड में कहे गए तीन तलाक के आधार पर पत्नी को घर से बाहर होने को मजबूर करे।
यह प्रक्रिया यदि बनाई जाए तो यह इस्लाम अनुरूप तो होगी ही - इस पर मौलानाओं और किसी शौहर को आपत्ति का कोई कारण नहीं होगा। क्योंकि निकाह पूर्व क़बूले जाने के उपरांत ही कोई लड़की पत्नी हुई होती है। इसलिए कोई मौलाना या कोई शौहर इसके विरुध्द नहीं होगा क्योंकि मुस्लिम कौम और परिवार के खुशहाल होने के प्रति उनकी अहम जिम्मेदारी तो होती ही है।
इस व्यवस्था से मुस्लिम नारी - हलाला की रुसवाई झेलने से भी बच सकेगी।
-- राजेश जैन
03-12-2017
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Sunday, November 5, 2017

मेरे बच्चे ..

मेरे बच्चे ..
जो गृहस्थी पति और बच्चों को ढोती रहीं थीं जीवन भर , उनके पति सिधार चुके , गृहस्थी अब बच्चों की हुई और स्वयं वृध्दावस्था में पहुँच वे गईं हैं। जीवन ने कोई दया रखी ही नहीं थी , जीवन संध्या भी कोई रहम नहीं कर रही है। सारा जीवन ढोने का क्रम चला - उसने इन माँ की कमर तक झुका दी है। फिर भी आप स्वतः देख लीजिये - नारी जिसे कमजोर समझा जाता है , सारी प्रतिकूलताओं में भी खुद वह , आज दोनों हाथों में सामान लिए चल रही है।
कोई है जो अपना आराम छोड़ दे किसी की खुशियों के खातिर ?? जी नहीं , सिर्फ एक माँ है , एक बूढी माँ है जो अब भी वही सोच रही जो आजीवन सोचती रही कि मेरे बच्चों को कोई परेशानी नहीं आये।
--राजेश जैन
05-11-2017
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Thursday, November 2, 2017

आफरीन की बेटियाँ ..

आफरीन की बेटियाँ ..
यह दर्दनाक यथार्थ आफरीन का है , जिसके पति ने बिहार से जम्मू के बीच ट्रेन सफर में , एक के बाद एक 4 बेटियों को चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया , एक को किसी तरह आफरीन ने फेंकने से बचाया। फेंकी गई चार में से दो बेटियाँ मर गईं , दो अस्पताल में हैं। इन मासूमों को मार देने का कारण (प्रयास) , उनकी शादी कर पाने में आर्थिक कठिनाई होगी , यह अंदेशा होना बताया गया है।
बार बार इस तरह के दर्दनाक कृत्य जब अंजाम दिए जा रहे हैं , तब नारी में यह चेतना लाया जाना प्रासंगिक होता है कि वे आत्मविश्वास और दृढ़ता से अपने पतियों को ज्यादा औलाद के लिए मना कर सकें. वे बताएं कि छह छह औलाद का प्रसव उनकी शक्ति नहीं। अगर शक्ति है भी तो ये कहें कि इतनी औलादों की जरूरत पूरी करने की आर्थिक हैसियत उनकी नहीं।
यह तथ्य नारी को समझने की जरूरत है कि ज्यादा औलादें न सिर्फ उन पर शारीरिक कष्ट का कारण होता है बल्कि वह मानसिक वेदना का भी सबब होता है। अपनी औलादों को भोजन - वस्त्र ,शिक्षा और अन्य बातों के लिए लालायित होना और उनका मन मसोस होते देखना भला किस माँ के लिए पीड़ादायी न होगा ??
बच्चों को गर्भ या जन्म में मारना अपराध ही नहीं अमानवीय तो है ही , वहीं ज्यादा बच्चे न करना प्रगतिशीलता है। आज जब नारी प्रगतिशील होना चाहती है तो परिवार की खुशहाली के उनमें यह चेतना और दृढ़ता जरूरी है।
-- राजेश जैन
03-11-2017
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Sunday, October 29, 2017

यदि ...


यदि ...
भारतीय परिवार में ग्रह-कलह के कारणों पर सर्वेक्षण किया जाए तो अनुमान है कि प्रमुख रूप से दो कारण सामने आयेंगें -
1. घर के पुरुष जो (सामान्यतः कमाऊ सदस्य) हैं - वे इतना पर्याप्त धन गृहिणियों को उपलब्ध नहीं करा पाते - जितना घर में पुरुष की सुविधाजनक अपेक्षा के लिए आवश्यक होता है। और ऐसी व्यवस्था न दे पाने के लिए नित गृहिणियों से वे नाराजी जतलाते हैं।
2. अपनी व्यस्तताओं और बाहरी तनावों से प्रायः पुरुष यह भूल करता है कि गृहिणी का जितना शारीरिक सामर्थ्य और उनके पास दिन भर में जितना समय है उसमें वह कितने गृहकार्य बिना मानसिक दबावों में कर सकती है। ऐसे में कोई कार्य नहीं हो सकने का दोषारोपण गृहणी पर वेदनाकारी होता है।
--राजेश जैन
30-10-2017
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Saturday, October 7, 2017

आधा जब तक सुखी नहीं - पूरा सुखी कैसे होगा???

आधा जब तक सुखी नहीं - पूरा सुखी कैसे होगा???
आज पर्व है - जिसमें अनेक , पत्नी अपने पति के दीर्घ जीवन और अगले जन्मों में भी उनके साथ के लिए व्रत करेंगीं। स्पष्ट है कि यह पर्व नारी द्वारा - पुरुष के सुखद जीवन की कामना , उसके आदर हेतु रखा जाता है। जब नारी के तरफ से ऐसा हमेशा से होता आया है तो पुरुष कर्तव्य होता है कि वह नारी पक्ष की भी सोचे - उनके मन को समझे - उनके सम्मान की फ़िक्र और उपाय करे। निम्न कुछ तथ्यों पर विचार करे.
1. पुरुष जाये अथवा नहीं - कम से कम प्रसव हेतु , नारी को अस्पताल में एडमिट होना होता ही है , अर्थात जीवन -मौत के प्रश्न का सामना युवावस्था में ही करना होता है।
2. पुरुष के हों अथवा नहीं हों -लेकिन नारी के प्राण - अपने पति और बच्चे में होते ही हैं।
3. नारी पर जीवन बचाने की समस्या जन्म के पहले से ही खड़ी हो जाती है ,भ्रूण कन्या है तो हत्या संभावित , दहेज के प्रश्न पर हत्या संभावित , परिवार के मान के प्रश्न पर हत्या संभावित , पूरे जीवन भर , उनके जीवन पर , समाज प्रदत्त आशंकायें।
4. नारी- कहीं देवदासी होने को , कहीं सती होने को , कहीं एक पति की अनेक पत्नियों में से एक होने को , कहीं ग्रह हिंसा के शिकार तथा कहीं काम-वासना की शिकार हो समाज सम्मान गँवाने को बाध्य - यह भी हैं नारी जीवन की विवशतायें।
5. नारी पर समाज में बिगड़े होने के सारे दोष सरलता से मढ़ दिए जाते हैं , जबकि यदि पुरुष नहीं बिगड़ता तो नारी बिगड़ नहीं सकती थी , इस तथ्य को सरलता से भुला दिया जाता है।
इन सारी बातों के कारण नारी जो कि समाज का आधा हिस्सा है , वह सुखी नहीं रह पाती है।  विचार कीजिये - आधा समाज जब तक सुखी नहीं - पूरा समाज सुखी कैसे होगा??? परिवार में पुरुष और नारी साथ पिरोये हुए हैं - अतः जिस परिवार में नारी सुखी नहीं वह परिवार कदापि सुखी नहीं हो सकता।
-- राजेश जैन
08-10-2017
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Friday, October 6, 2017

यूँ गूँजती जैसे झरने ...

यूँ गूँजती जैसे झरने ...
पचास वर्ष पहले एक परिवार में सुंदर एक बालक का जन्म हुआ - बड़े लाड़-दुलार से लालन-पालन हुआ उसका - उससे अरमान माँ-पिता का यह कि अच्छे कार्यों से वह अपने कुल-परिवार और उनका नाम रोशन करेगा।
इसी तरह छत्तीस वर्ष पहले एक सुंदर कन्या का जन्म अन्य परिवार में हुआ - बचपन में जब हँसती वह तो लगता - सुंदर पुष्प झर रहे हैं। उसके नन्हें पैरों में पाजेब , घर आँगन में यूँ गूँजती जैसे झरने के बहते जल से मधुर संगीत उत्पन्न हो रहा है। माँ -पिता ने इस सपने में बड़ा किया कि सीता सा चरित्र लेकर - इस तरह बड़ी होगी जो उनका ही नाम नहीं बल्कि जिस परिवार में बहू होगी उनका भी नाम करेगी।
परिवार के ऐसे सपनों में पले-बड़े , बच्चे - जब बड़े हुए तो उनसे अपेक्षित कर्म -आचरण और व्यवहार के विपरीत वे व्यभिचार की मिसाल बन गए।
समय उन पर घृणा - तानों और निंदा की बरसा करने का नहीं। यह समय है कि उन कारणों , उन परिस्थितियों , उस जहरीले वातावरण से हम अपने घर में पल रहे बच्चों का बचाव करें , जिनमें हमारा पाल्य जब युवा और बड़ा हो तो - कलंक के गर्त में पहुँचाने वाली ग्लैमर की चकाचौंध से बच सके। अपने पुरुषार्थ वह परिवार - समाज और राष्ट्र बनाने के लिए लगाये।
अन्यथा आज की दूसरे पर हमारी निंदा - कल हम पर ही वापिस न आये।
--राजेश जैन
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07-10-2017

Saturday, September 30, 2017

दृष्टिदोष


अंतर देख देख - विवाद खड़े करना दृष्टिदोष है तुम्हारा
तुम -
कभी धर्म में
कभी जाति में
कहीं देश-प्रदेश में 
कहीं नस्ल में
कहीं भाषा में
कहीं गरीब -अमीर में
कहीं वृध्द जवान में
सब एकसे हो गये तब भी
नारी - पुरुष में भेद कर बैठते
ऐसे नालायक हो तुम
--राजेश जैन
30-09-2017

Wednesday, September 27, 2017

आँखों देखा सच हो सकता है - पूर्ण सच नहीं

आँखों देखा सच हो सकता है - पूर्ण सच नहीं
इस शीर्षक की पुष्टि में उदाहरण वह विषय लूँगा जिस पर बात करने में ज्यादा रस लिया जाता है। जी हाँ हम - एक नवयौवना रूपसी की बात करते हैं। रूपसी कॉलेज में दिखती है , बाज़ार में दिखती है , ऑफिस में सहकर्मी है ,कभी स्पोर्ट्स - स्विमिंग कास्ट्यूम में होती है। वह मंदिर में भी हो सकती है। रूपसी का रूप-लावण्य लुभावना है - यह सच है। एक अपरिचित युवक का दिल उसके आकर्षण प्रभाव में आ जाता है। वह उसे प्रभावित करने की हर तरकीब करता है। रूपसी - समझने पर उसे नेग्लेक्ट करके पीछा छुड़ाना चाहती है। किंतु युवक पर उसके प्रति मुग्धता इतनी अधिक है कि वह उससे हर हालत में निकटता चाहता है। ऐसे में एक दिन रूपसी को एकांत स्थान में पाकर वह , उससे ज्यादती कर बैठता है। रूपसी प्रतिरोध करती है - उसकी चीख पुकार से लोग आ जाते हैं। युवक की धुनाई होती है , पुलिस केस बन जाता है। रूपसी - निर्दोष होने पर भी विवाद में उलझती है। थाने और न्यायालय के चक्कर में पड़ती है।
अब आँखों देखे सच का उल्लेख करते हैं। युवक ने रूपसी में सौंदर्य देखा यह सच था। युवक यह नहीं देख सका कि 1. रूपसी पहले ही किसी के प्यार में बँधी थी , 2. रूपसी के घर परिवार के प्रति कर्तव्य थे , 3. रूपसी समाज मर्यादाओं से बँधी हुई थी , 4. रूपसी की स्वयं की कुछ पसंद-नापसंद और स्वयं की आदर अपेक्षायें थी और 5. रूपसी जीवन जी सकने की परिस्थितियाँ चाहती थी।
युवक - उसे आँखों से देख मुग्धता प्रभाव में आया - वह विवेक जागृत कर 1 से 5 तक में उल्लेखित विचार करने तथा सच समझ पाने में असमर्थ रहा। वह स्वयं कठिनाई में तो फँसा ही , एक निर्दोष पर विवाद , परेशानी और अपमान थोप देने का अपराधी हुआ। आँख होते हुए युवक में ऐसा अंधत्व होना कि देखे से पूरा सच नहीं समझ सके - मेरे आलेख शीर्षक को प्रूव करता है।
(Hence proved) :)
--राजेश जैन
28-09-2017
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Tuesday, September 26, 2017

जी हाँ - मैं एक पुरुष हूँ ...

जी हाँ - मैं एक पुरुष हूँ ...
लेखन में समाहित विचार और भावना - उस पुरुष के हैं जो अपना पूरा जीवन नारी के साथ , के सहायता के साथ और उनका आभार मानता हुआ जीता है। परिवार में नारी सदस्या - हमारी दादी /माँ /बहन /पत्नी /बेटी /बहू और भी अन्य रिश्तों में हैं - उनके साथ जीवन यापन करते हुए - उनकी अपेक्षा ,उनकी भावना और उनकी मनःस्थिति को नहीं समझ सकूं , तो मैं कुछ भी हो सकता हूँ - एक मनुष्य कतई नहीं। इतना पढ़ने के बाद आप यह भूल भी नहीं कर बैठना कि मुझे उत्तम मानना - हाँ यह सच अवश्य है कि ये आदर्श जब तब मेरे हृदय /मन पर हावी होकर मुझे कुछ भला बनाये रखते हैं.
एक पुरुष जब इतना सोच सके तब वह पारिवारिक / सामाजिक /राष्ट्र और एक मनुष्य जीवन की अपेक्षाओं को पूरा करता है। ऐसा पुरुष नारी ही नहीं किसी पुरुष या प्राणी मात्र पर कोई अत्याचार नहीं करता।
नारी के साथ न्यायपूर्वक रहने का परिणाम उसे संपूर्ण प्राणीमात्र और संसार के प्रति न्याय से रहने की प्रेरणा और उत्साह देता है।
-- राजेश जैन
27-09-2017
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Monday, September 25, 2017

नारी यदि कलंकित तो पुरुष महा कलंकित ..

नारी यदि कलंकित तो पुरुष महा कलंकित ..
अभी एक खुलासा आया है , जिससे यह तथ्य ज्ञात हुआ कि बाबा की सबसे करीब कही जा रही - युवती पर भी जब पहली बार उसने ज्यादती की तो वह रोते हुए ही बाहर आई थी। आशय यह कि प्रायः बुरी दिखती कोई भी नारी - पहले बुरी नहीं होती। पुरुष धूर्तता भुगतने के बाद वह बुरी दिखने को लाचार होती है। इस भेदभाव के लिए और नारी को बुराई को दुष्प्रेरित करने के लिए ज्यादा जिम्मेदार पुरुष होता है इसलिए नारी यदि कलंकित तो पुरुष महा कलंकित किया जाना न्याय होगा
--राजेश जैन
26-09-2017

Saturday, September 23, 2017

डिवोर्स - तीन तलाक

डिवोर्स - तीन तलाक
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विवाह से स्थापित प्रणय - दाम्पत्य बंधन जब कुछ समय में ही टूटने की कगार पर पहुँचता है तो अनायास ही दोनों पक्ष के लोग उसे बचाने को उत्सुक होते हैं। यही बात जब पाश्चात्य देशों में होती है - तो उसे सहज टूटने दिया जाता है। यहाँ टूटने नहीं दिया जाता ,तब और जब , वहाँ टूटने दिया जाता है - दोनों में ही स्थिति में बाद के समय में जीवन से प्राप्त सुख में कोई खास बदलाव नहीं आता। कारण यह होता है कि समाज में जिस तरह की सोच और संस्कार आज हैं , उससे हमारा दृष्टिकोण बदल नहीं पाता। क्या हैं आज की वह सोच और वे संस्कार ? आज हमारी सोच और संस्कार - कमी या बुराई अपने में नहीं खोज पाती है। किसी भी समस्या के लिए हम दूसरे को गलत या बुरा बताते हैं। जबकि यथार्थ में जब कोई समस्या उत्पन्न होती है - तब आत्मावलोकन दोनों ही पक्षों को करने की जरूरत होती है। किसी में कमी - कम या ज्यादा अवश्य हो सकती है फिर भी दूर किया जाना दोनों की ओर से अपेक्षित होता है।
वास्तव में हमारा समाज और संस्कृति में - तोड़ने में नहीं जोड़ने को महत्व दिया जाता है। तोडना प्रायः विनाश-सूचक और जोड़ना सृजन सूचक होता है। दाम्पत्य बंधन - पूरी सोच समझ के साथ बनाये जाने चाहिए - और बन जाने पर उन्हें सूझ-बूझ ,आपसी समझ और परस्पर विश्वास से निभाए जाने चाहिए। विपरीत लिंगीय आकर्षण ही सब कुछ नहीं है। अति कामुक दृष्टि , बाहर की ओर झाँकती है। बाहर मृग-मरीचिका के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो दायित्व , किन्हीं परिस्थिति में हमने ग्रहण किये हैं , उन्हें निभाना ही उत्कृष्ट होता है। जुड़ाव बनाये रख हम सृजन का प्रतिनिधित्व करें।
देखिये , तीन तलाक की लड़ाई - भारतीय मुस्लिम नारी ने लड़के जीती है। जिस शौहर ने क्रोध या अन्य कारणवश , तलाक दिया है उसी से परिवार बनाये रखने की यह नारी उत्कंठा - उसका सृजनशील होना दर्शाता है। पुरुष भी यही गुण विकसित करे। खुशहाली के पक्ष में - पुरुष से भी जिम्मेदार बनने की अपेक्षा होती है।
--राजेश जैन
24-09-2017
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Monday, September 18, 2017

पितृ-मोक्ष अमावस्या


पितृ-मोक्ष
इस अमावस्या पर हमारी परंपरा - अपने पूर्वजों को स्मरण-आदर और उनके सुखद परलोक की कामना करने की रही है। कर्मकांड से परे यह परंपरा बहुत ही परम-पावन भावना की है। अपने बड़ों के अपने ऊपर ऋण अनुभव करते हुए - वे प्रसन्न होंगें इस लक्ष्य से स्थापित की गई है। जो दिवंगत हो गए के अतिरिक्त पितृ-मोक्ष अमावस्या पर आज जो जीवित हैं - हमें ,उनके बारे में विचार करने की आवश्यकता है। हर परिवार में वह समय आता है जब - किसी समय के बेहद सक्षम-सामर्थ्यशाली माँ-पिता जीवन के अंतिम पड़ाव पर जीवन से संघर्ष करते हैं। वह अवस्था - बहुत दयनीय और दर्दनाक , नितांत अकेलेपन में अत्यंत डरावनी सी भी लगती है। देहांत बाद पितृ-मोक्ष की उनके प्रति हमारी कामनायें तो उत्कृष्ट हैं , किंतु यहाँ उनके जीते जी अच्छी भावनाओं से उनके सेवा का , यह समय होता है। उनकी चिकित्सा की सीमायें हो सकती हैं , किंतु मानसिक सहारा , धन नहीं चाहता। समय जुटा कर हमारा- वह सहारा बनना अपेक्षित है। हम इस कल्पना से भयभीत हो सकते हैं कि हमारी भी दशा कभी ऐसी होगी लेकिन यह कटु सच है कि मिलती जुलती ऐसी कटु दशा हमारी भी किसी दिन होगी।
आज जो बदलाव आये हैं , हम अति व्यस्त हुए हैं , उसमें अगर हम अपने ऐसे मरणासन्न बुजुर्गों का ध्यान कर सकें तो बेहतर होगा। जीते जी उनका आदर - सेवा , वास्तव में वह आवश्यकता है , जो हम सभी की किसी दिन होगी।
--राजेश जैन
19-09-2017 

Thursday, September 14, 2017

दवा की शीशी में जहर

दवा की शीशी में जहर
राजनीति देश-समाज और व्यवस्था निर्माण को उत्तरदायी होती है। जनसेवा की समस्त एजेंसी / विभाग - नागरिक को सेवा देने के निमित्त हैं। धर्म - अपने अनुयायी के उचित आचरण ,व्यवहार और कर्मों के सँस्कार को पुष्ट करने वाले हैं। शिक्षा - अकेले धनार्जन ही नहीं अपितु विधार्थी को कर्तव्यनिष्ठ बनाने की दृष्टि से आवश्यक होती है। न्यायपालिका - विवादों को हल और अपराधों के रोकथाम के उपाय के लिए है। स्वास्थ्य सुविधा से जीवन रक्षा के प्रयास अपेक्षित हैं। ऐसे ही व्यवसाय -कृषि आदि क्षेत्र वस्तु और भोज्य सामग्रियों के गुणवत्ता सहित ग्राहक संतुष्टि के ध्येय सहित जीविकापार्जन हेतु है।
आज राजनेता - अपने परिवार की आर्थिक उन्नति में व्यस्त , सेवा कर्मी - बिना रिश्वत के कार्य न करने की शपथ लिए , धर्म - निज मान पुष्टि और स्वयं को चर्चित करने के साधन जैसे , कार्य करते हैं। शिक्षा का प्रथम ध्येय स्वयं का - धन वैभव हो गया है , विद्यार्थी कितना योग्य बन सकेगा यह गौड़ कर दिया गया है। व्यापार और कृषि आदि में प्रमुख अपना लाभ कर लिया गया है। सामग्री स्वास्थ्य को हानिकर होगी या अपेक्षित समय तक ठीक भी रहेगी या नहीं इससे कोई सरोकार नहीं बचा है।
निष्कर्ष यह निकलता है कि हम जिसे दवा की शीशी जानते हैं - उसमें दवा नहीं जहर भरा है। हम भूल गये कि यह देश - यह समाज हमारा है- जिसमें हमारे अपने बच्चों को जीवन जीना है और जिनके सुखद जीवन के लिए सिर्फ धन ही नहीं वातावरण भी सुखद चाहिए होगा।
--राजेश जैन
15-09-2017
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Wednesday, September 13, 2017

हिंदी दिवस


हिंदी दिवस
भाषा - इसे मातृभाषा कहें या हिंदी , मराठी , गुजराती , तेलुगु , मलयाली ,कन्नड़ ,बँगला या उर्दू कहें - सभी स्त्रीलिंग हैं। जिस तरह भाषा के अवलंबन बिना जीवन अधूरा है उसी तरह नारी भी जो स्त्रीलिंग है के अवलंबन बिना जीवन नहीं है - जीवन अधूरा है। हिंदी दिवस पर आज नारी हित के मेरे कुछ शब्द -
नारी के परंपरागत जीवन और दशा में कुछ अच्छाई भी हैं और बहुत सारे दुःख-दर्द भी हैं। अब उन्नत हुई नारी के जीवन और दशा में कुछ अच्छाई भी हैं और बहुत दुःख-दर्द भी हैं। जब हम पालक होकर सोचते हैं तो परंपरा जिसमें नारी पर बहुत सी वर्जनायें थी वह ठीक लगतीं हैं क्योंकि उसमें ही हमें बेटी - बहन , पत्नी की सुरक्षा प्रतीत होती है। और जब हम किशोरी और युवती की दृष्टि से देखते हैं तो उसमें खुलापन और आज़ादी अच्छी प्रतीत होती है। किंतु इससे , उनमें आ रही स्वछंदता यथा - शराब - सिगरेट पीना , एकाधिक पुरुष मित्रों से संबंध , और देर रात्रि तक तफरीह -पार्टी उनकी सुरक्षा को खतरा बढ़ाता है। अपरिपक्व युवा दृष्टि उस स्थिति को नहीं देख पाती कि युवा नहीं रह जाने के बाद भी उन्हें लंबा जीवन जीना होता है , जिसमें सामाजिक गरिमा-सम्मान भी महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है।
लिखने का अभिप्राय यह है कि हम अपनी दृष्टि इतनी साफ़ करें कि हमें परंपरागत नारी जीवन में जो अच्छाई थी उसकी पहचान रहे - साथ ही हमें उन्नत हो रहे नारी जीवन में स्वतंत्रता और मिल रहे समान अवसरों का उपयोग किन तरह की बातों में हितकर है यह दिखाई दे सके।
कोई भी वस्तु पूरी की पूरी लाभकारी नहीं होती है। हमें वस्तु का लाभकारी प्रयोग करना आना चाहिए। नारीवाद को सही परिप्रेक्ष्य में प्रयोग ही जीवन हितकर होता है। मिल रहे अवसरों को सही प्रयोग न कर पाने की स्थिति में नारी नये तरह के शोषण की शिकार हो सकतीं है। नारी - माँ है ,बहन है ,बेटी है ,पत्नी है - इसलिए पारिवारिक हितों की दृष्टि से सुखी नारी अकेले नारी हित नहीं बल्कि यही पुरुष हित भी है।
परामर्श यह कि हम जिन भी बदलाव के समर्थक हैं - उन्हें आँख बंदकर समर्थन नहीं दें अपितु बदलाव सही दिशा में प्रशस्त हो इसे दूरदर्शिता से सोंचें -समझें।
"जय मातृभाषा - जय हिंदी दिवस "
--राजेश जैन
14-09-2017 

तर्क


तर्क-
भारत में बौध्दिक स्तर में काफी असमानता है। इसलिए कोई तर्क कितना भी सही क्यों न हो , इस तथ्य को ध्यान में रख कर ही प्रचारित किया जाना चाहिए कि वह विभिन्न लोगों में किस तरह प्रतिक्रिया का विषय होगा। देश एवं समाज में इससे अराजकता या वैमनस्य तो नहीं उपजेगा। सच्चा तर्क देने वाला बुध्दिजीवी भी तब तक समाज - सौहाद्र निर्माता नहीं हो सकता , जब तक वह अपने तर्क के साथ के खतरे को नहीं परखता। ऐसा बुध्दजीवी सिर्फ अपने को चर्चा में तो रख सकता है। किंतु राष्ट्र निर्माण में उसका योगदान सार्थक नहीं हो सकता। जहाँ तक चर्चित होने की बात है , चर्चित तो आज पॉर्न सेलिब्रिटी भी हैं। जो जीवन में सिर्फ भोग के पोषक होते हैं। भोगियों को इतिहास भुला देता है और सर्वहित में त्याग करने वाले को अमर करता है।
--राजेश जैन
13-09-2017

Friday, September 8, 2017

ब्लू व्हेल (#Blue_whale)


ब्लू व्हेल (#Blue_whale)
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100 से अधिक बच्चों की मौतों का जिम्मेदार यह शातिराना गेम - और इस तरह की विनाशक किसी (बनाने वाले) की दिमाग की उपज किस मूल बात (खराबी) की ओर संकेत करती है , इसे हमें खोजना चाहिए - इस हेतु निम्न कुछ प्रश्नों के माध्यम से हम आज विचार करें -
क्या हम अपने बच्चों का मनोविज्ञान समझने की कोशिश करते हैं ?
क्या हम उनका उचित तरह का लालन-पालन और शिक्षा सुनिश्चित करते हैं ?
क्या उन्हें , हमारे संस्कार उचित और अनुचित भेद करा सकने की दृष्टि से पर्याप्त हैं ?
घर और बाहर हमारे बच्चे क्या करते और किन की संगत करते इसे जानने के लिए हम समय देते हैं ?
सभी का उत्तर है - शायद नहीं या बेशक नहीं।
अन्यथा कोई जो पहले बच्चा था और आज बड़ा हुआ - इस तरह प्राण लेने के लिए उकसावे का गेम नहीं बनाता।
और
कोई भी किशोर - गोपनीय रूप से इस गेम के झाँसे में फँस अपनी जान नहीं गँवाता।
अगर हम अपने लिए , अति निज स्वार्थ के लिए ही जीना चाहते हैं तो वास्तव में हमें बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं। दुनिया - देश , हमारे समाज और परिवार में इतनी खराबी हैं तो इसका सीधा इशारा इस बात की ओर है कि हम बच्चों के माँ - पिता हो सकने की पात्रता बिना बच्चे पैदा कर रहे हैं।
--राजेश जैन
09-09-2017
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Wednesday, August 23, 2017

कुप्रथायें जारी रखना - नारी सुरक्षा नहीं उन पर शोषण है


कुप्रथायें जारी रखना - नारी सुरक्षा नहीं उन पर शोषण है ..
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"प्रथायें जो देती थीं नारी सुरक्षा - बनीं शोषण विधियाँ
कुप्रथायें अब मिटानी होंगीं"
पिछली सहस्त्राब्दियों में दुनिया रियासतों - कबीलों में विभाजित हुआ करती थी। और एक दूसरे पर वर्चस्व में उनमें युध्द - मारकाट मची रहती थी। जिसमें बड़ी सँख्या में पुरुष मारे जाते थे। जीते पक्ष के सैनिक द्वारा धन संपत्ति की लूट के साथ नारियों को उठा ले जाना एवं उन पर रेप आदि अत्याचार किये जाते थे। दुश्मनों पर जीत के जश्न इस तरह मनाये जाते थे। कबीलों - रियासतों के कानून इतने अच्छे नहीं थे कि नारी अत्याचारों पर रोक हो सकती। यह सामाजिक परिदृश्य लगभग पूरी दुनिया में हुआ करता था। ऐसी परिस्थितियों में परिवार में नारी की सुरक्षा को लेकर कुछ सावधानी सभी पक्ष करते थे। जिनमें
1.नारी को घर से बाहर की गतिविधियों में भाग लेने पर प्रायः रोका गया था - जिससे शिक्षा-व्यवसाय इत्यादि के अवसर उन्हें कम थे।
2.उनके परिधान शरीर को ज्यादा ढँका-मुँदा रखने वाले डिज़ाइन किये जाते थे।
3.आपसी संघर्षों और युध्द में पुरुषों के मारे जाने से लिंग-अनुपात गड़बड़ाया हुआ रहता , नारी अधिक पुरुष कम जीवित रहते थे - इसे दृष्टिगत रखते हुए तथा नारी को सुरक्षा मिल सके इस कारण - पुरुष को बहु-पत्नी (एक से अधिक विवाह) को अनुमति दी गई थी।
लंबी अवधि में ये व्यवस्था जारी रहने से - नारी जीवन कुछ ऐसा ही होता है , यह पुरुष और नारी दोनों मानसिक रूप से स्वीकार करने लगे। नारी , तार्किक उस समय भी हुआ करतीं थीं , उनके तर्क को धर्म के नाम पर रीतियाँ बताकर - उपेक्षित कर दिया जाता था। इस तरह नारी पर वर्णित और अन्य कई कुप्रथायें चलती रहीं।
आज रियासत और कबीले खत्म किये जा चुके हैं , संविधान और कानून नारी सुरक्षा और अधिकारों को लेकर अत्यंत विस्तृत हो गए हैं। ऐसे बदले परिदृश्य में उन पर खतरे कम हो गए हैं। अतः अब ऐसी कुप्रथाओं को चलाये रखना - उनकी सुरक्षा नहीं उन पर शोषण है।
कुप्रथाओं की धार्मिक , सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर अब समीक्षा जरूरी है। और किसी देश के संविधान या कानून में बहुजन की आस्था को देख पुरानी तरह की रीति-नीति - कानूनों का प्रावधान है तो उसे बदल देना न्याय है।
नारी की शिक्षा -व्यवसाय के अवसर , सुरक्षा और सम्मान में पुरुष जैसी समानता मिलनी ही चाहिए।
(नोट -इतिहास पर सरसरी दृष्टि ही ली गई है - आलेख बड़ा न हो जाए , इसलिए मोटे तौर पर ही इतिहास उल्लेखित किया गया है। )
--राजेश जैन
24-08-2017
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Tuesday, August 22, 2017

ट्रिपल तलाक और निकाह हलाला


ट्रिपल तलाक ..
"ट्रिपल तलाक और निकाह हलाला ही चुनौती नहीं
और भी कठिनाइयाँ हैं महिला के जीवन यापन में"
 
वस्तुतः शिक्षा अभाव एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं होना , प्रमुख कारण हैं जिससे नारी के ऊपर दक़ियानूसी
विचार - हावी कराये गए हैं। जिससे पुरुष नारी से अपने लिए सुविधा पूर्वक साथ सुनिश्चित कर लेता है । सभी समाज में कमोबेश कारण हैं , जिससे नारी , मानसिक रूप से पुरुष पर निर्भरता स्वीकार करने तैयार रहती है। सृष्टि में मनुष्य का पुरुष और नारी संस्करण बना भी परस्पर साथ के लिए ही है। लेकिन धर्म के नाम पर बहुत सी ऐसी रीति-चलन बना लिए गए हैं , जिनमें अनेक जीवन विषयों में नारी को पुरुष के आधीन और पिछलग्गू होना पड़ता है। सदियों से ऐसा होते हुए भी नारी इस साथ में खुश भी रह लेती आई है। किंतु जब पुरुष प्रवृत्ति में उस पर हिंसा ,अत्याचार और शोषण की अधिकता हो गई तो - नारी में विद्रोह की सुगबुगाहट होने लगी। ऐसे में अगर वह अपने स्वाभिमान , आत्मनिर्भरता और शोषण के विरुध्द संघर्ष करती है तो उसे किसी भी धर्म-समुदाय में बुराई से नहीं लिया जाना चाहिए। एक अरूपी रूह हर मनुष्य में है जिसकी जीवन से उम्मीद , ख़ुशी की अपेक्षायें और सम्मान की लालसायें समान होती हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि किसी रूह का कोई लिंगभेद नहीं होता।
अभी मसला मुस्लिम नारी का है अतः लिखना उचित होगा कि अशिक्षा , आर्थिक निर्भरता के कारण उस पर ट्रिपल तलाक , निकाह हलाला ही अभिशाप नहीं अपितु हिज़ाब , एक पुरुष की एकाधिक बीबियों में से एक होना और आधी आधी दर्जन संतानों को जन्म देकर थोड़े धन और छोटे असुविधाजनक मकानों में निर्वाह करना अतिरिक्त कठिनाई हैं। उसके समक्ष शौहर और औलादों को थोड़े संसाधनों में ही अच्छा भोजन और सुविधा मुहैया कराने की जटिल विवशता है। वह बहुत समय अधभूखी और फ़टे-पुराने कपड़ों में रहने को विवश है।
समय आया है कि पुरुष अपने स्वार्थ से ऊपर आकर देखे । अगर खुद इतना कमा लाने में सक्षम नहीं तो एक शादी करे , कम औलाद करे , बच्चे (बेटियोँ सहित) को उचित शिक्षा दिलवाये , उनकी आर्थिक स्व-निर्भरता को प्रेरित करे । नारी का स्वाभिमान से जीना शिक्षित होना , आर्थिक रूप से आत्म निर्भर हो जाना , पुरुष को अपना धर्म(हिंदू-इस्लाम आदि) निभाने में कहीं बाधक नहीं।
पुरुष यदि अपने को ज्यादा बुध्दिमान मानता है तो बुध्दिमानी का परिचय दे , नारी में आज भरे आक्रोश को समय पर पहचान ले , अन्यथा विद्रोह का सैलाब इस गति से आएगा कि पुरुष की बलिष्टता , बुध्दिमानी और श्रेष्ठता बोध सब डूब जाएगा। पुरुष -नारी का साथ सुखकारक होना चाहिए , दोनों आपसी सहमति और बुध्दिमत्ता और सूझबूझ से इसे सुनिश्चित कर सकते हैं। कोई कानून - कोई धर्म इसमें आड़े नहीं आता है।
--राजेश जैन
 23-08-2017
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Monday, August 14, 2017

आत्ममंथन


आत्ममंथन
1.डाल-डाल पर सोने की चिड़िया .. 2.हर शाख़ पे उल्लू बैठा ... दोनों ही दृष्टि और कर्म भारतीयों के ही हैं.


प्रथम पँक्ति (और गीत) भव्य संस्कृति से सीख - प्रेरणा - कर्तव्यबोध और आशा सभी संचारित करती है. वहीं दूसरी पँक्ति ( और शेर) आलोचना - शिकायत और निराशा उल्लेखित करती है। हम प्रथम से आशावादी होकर कर्तव्य की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा ले सकते हैं। साथ ही व्दितीय से आलोचना को सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण कर - शिकायतकर्ता बनने की जगह , शिकायतों के कारण और जगह को मिटा सकते हैं। दोनों ही अर्थात गीत और शेर लगभग 50 वर्ष पूर्व गढ़े गये हैं - जब हमारी आजादी अपने बाल्यकाल में ही थी। किंतु इतने वर्षों के बाद भी इन पँक्तियों के सार को ग्रहण करना बाकि है।
लेखनी को हम आलोचना की ओर मोड़ें उस से बेहतर यह होगा कि इसे हम प्रेरणा की दिशा में बढ़ायें। हम पूर्व समय से आज ज्यादा शिक्षित हैं. हम अन्य की आलोचना से समझें , हम दूसरों की प्रेरणा से कर्तव्य प्रेरित हों - यह तो अच्छा है। पर उत्तम यह होगा - हम आत्ममंथन करें। हम, आत्म-आलोचक बनें और स्व-प्रेरणा ग्रहण करते हुए वे कारनामे करें कि "डाल-डाल पर सोने की चिड़िया" का विचार साकार हो। वैसे तो उल्लू पक्षी है वह कोई निंदा का अधिकारी नहीं है किंतु यदि है भी तो उसपर हमारी दृष्टि (सकारात्मक) उसे चिड़िया के रूप में देखे , और उल्लू हों भी तो उनके 'पर' हम सोने से निर्मित करदें।

"स्वाधीनता दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें"
--राजेश जैन
15-08-2017

Sunday, July 23, 2017

कौन होता है एक शहीद ???होता है एक शहीद ???

कौन होता है एक शहीद ???
होता है एक शहीद ???
प्राण के भय बिना - भयानक परिस्थितियों में सीमा पे तैनात एक वीर - दुश्मन से जूझते - घायल होकर , भयंकर वेदना सहता - मौत को गले लगाता है। वह किसी माँ-पिता के जीवन की आशा किरण - किसी प्राणप्रिया का सुहाग - किसी बेटी - किसी बेटे का परमपिता जिससे होने से वे सनाथ हैं - जो सर्व जीवन मोहों - स्नेह बंधनों से ऊपर - राष्ट्रहित की परम भावना को देखता है - जब उसके पास जीने को आधे से अधिक जीवन होता है - तब सुंदर इस दुनिया को अलविदा कर परलोक के पथ पर निकल जाता है ..
--राजेश जैन
23-07-2017

Wednesday, July 19, 2017

मेरा रूप-लावण्य - मेरा श्रृंगार - मेरा परिधान

मेरा रूप-लावण्य , मेरा श्रृंगार , मेरा परिधान -
मुझे नारी जीवन मिला है - इसे जीने के लिए मैं भी पुरुष जैसे उपाय -कर्म करना चाहती हूँ। मैं आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान से जीना चाहती हूँ। मैं इतनी शिक्षा चाहती हूँ जिससे पुरुष के साथ घर परिवार में , मैं आश्रिता और हीनता से नहीं देखी जाऊँ। लेकिन दैनिक क्रमों में जैसे -
वीरानों में , रात में , पढ़ने जाने में जहाँ पढ़ाने और पढ़ने वाले पुरुष अधिसंख्य हैं , कार्यालयों में कार्य करने में जहाँ पुरुष ज्यादा हैं , यात्राओं में , पार्टियों में जहाँ शराब के दौर चलते हैं और तो और सतसंगों में जहाँ पाखंडी भी होते हैं , आज के दैनिक क्रमों में अक्सर या कभी कभी मुझे गुजरना होता है . इस तरह से लगभग हर जगह -हर समय मुझे असुरक्षा और भय लगता है।
आप मेरी इन चुनौतियों को सिर्फ मेरी समस्या के रूप में नहीं देखें। मुझे देवी तुल्य न बतायें। मुझे माँ रूप में भगवान न कहें , मुझे बेटी -बहन रूप में चरण स्पर्श किये जाने का पात्र न मानें। मैं चाहती हूँ - मेरे हर रूप में अपने समान देखें। मुझे भी मनुष्य समझा जाए।
अगर परिवार के लिए मैं अनिवार्य सदस्या हूँ - तो मेरी समस्याओं को अपनी समस्या मानें।
उस समाज चलन , उस रीति रिवाज , उस दृष्टि को विकसित करें - जिसमें मैं भोग्या नहीं , मैं दासी नहीं , मैं हीन नहीं , मैं सिर्फ सौंदर्य -माँसल नहीं , मैं मन बहलाने की वस्तु नहीं। अपितु मैं भी जीवन के समस्त अवसर , सभी संभावनाओं , और समान हैसियत की अधिकारी हूँ।
मुझे अनावश्यक बंदिशों से मुक्त करें। मुझे तलाक देकर , मुझे ही अपराधी और सजा जैसी परिस्थिति न निर्मित करें। अगर मैं दुःखी हूँ तो अप्रत्यक्ष रूप से उस दुःख से आप भी दुःखी हैं। इस समग्र दृष्टि से देखने का प्रयास करें।
मेरे जीवन संघर्ष में आप भी साथ दें तो उचित होगा - अन्यथा-अन्यथा इस संघर्ष को मैं जीत लूँगी। लेकिन ऐसी हालत में नारी -पुरुष में वह बैर आ जाएगा जो साँप और नेवले के बीच होता है।
"मेरा रूप-लावण्य , मेरा श्रृंगार , मेरा परिधान - आपको मेरा आमंत्रण नहीं - यह सब मेरे आत्मविश्वास के लिए है। "
"आपसे मेरे साथ की अपेक्षा - छल - शोषण के लिए नहीं , प्यार सम्मान से निभाने के लिए है।"
--राजेश जैन
20-07-2017
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Saturday, July 1, 2017

हीनताबोध


हीनताबोध
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बीस वर्ष लगे थे , रोहित के हीनताबोध को मिटने में। दरअसल , नीता के पिता ने अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण ज्यादा गुणी ,सुंदर और बेहद प्रतिभाशाली बेटी का ब्याह , रोहित से किया था। रोहित को इस वास्तविकता का बोध , आरंभ से ही रहा। उसने इस फर्क को सही परिप्रेक्ष्य में लेकर - अपने दाम्पत्य जीवन में यह फ़िक्र, विचार और व्यवहार हमेशा रखा ताकि किसी समय नीता को उससे विवाह कर लेने से दुःख अनुभव नहीं हो। रोहित ने - परिवार , बच्चों के साथ नीता की जरूरतों , इक्छाओं को सदैव गंभीरता और सम्मान दिया। जब नीता ने स्वयं का व्यवसाय करना चाहा तो अनुमति दी , और उसे होने वाली कठिनाइयों के अवसरों पर उसका आत्मविश्वास बढ़ाता रहा।
आज नीता , फोन पर अपनी फ्रेंड की किसी बात पर यह कहती सुनाई पड़ी , दीपा मैं तो बेहद भाग्यशाली हूँ , कि मुझे रोहित जैसे सुलझे व्यक्तित्व के धनी हस्बैंड मिले।
--राजेश जैन
02-07-2017
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Monday, June 26, 2017

माँ - कविता

माँ - कविता
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कविता के पति की आय बहुत नहीं है। पति की ,बेटे की चाह में चार बेटियाँ हुईं हैं उनकी। उसमें भी एक फिजिकली चैलेंजड। सब में बड़ी अभी 13 वर्ष की है। भगवान ने रूप चारों को बहुत प्यारा दिया है। कविता की चिंताओं में - कम आय में परिवार चलाना , बड़ी होती बेटियों के प्रति गंदी हो रही पासपड़ोस की नज़रों से उन्हें बचाना , उनकी उचित शिक्षा , और फिजिकली चैलेंजड बेटी का भविष्य प्रमुख है। जैसे तैसे तरकीबों और बेटियों से मित्रवत रहते हुए , सूझबूझ से वह सब सम्हाले हुए है। नींद गायब हो जाती जिन रातों में वह बिस्तर पर पड़े पड़े उपाय सोचा करती है।
आज नींद नहीं है , उसके दिमाग में तर्क चल रहा है। माँ को ज़माना कितना महान बताया करता है। मेरी बेटियों के विवाह की बारी आएगी तो कितनी कठिनाइयों से उन्हें संबंध मिलेगें , किंतु उनके जिस्म के मजे लेने को हर कोई तत्पर दिखता है। मैं इन बेटियों की माँ हूँ। दुनिया कहती - माँ महान होती है। फिर इस माँ के मन की चिंताओं से क्यों ज़माना इस तरह बेखबर है। समस्याओं से नित यह माँ वैसे ही दो चार हो रही है। कम वय बेटियों के तरफ गंदी नीयत क्यों सब लिए घूमते हैं ?? क्या 'मैं वह महान माँ' नहीं ? क्यों मेरी समस्याओं को यह जमाना विकराल करता है???
--राजेश जैन
27-06-2017
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Sunday, June 25, 2017

डरा हुआ जीवन


डरा हुआ जीवन
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बचपन में डरता था उसके किस कार्य को उपद्रव मान उसे पीट दिया जाएगा। स्कूल में डरता था कम मार्क्स या फ़ैल न हो जाए। कॉलेज में डरता था इतने खर्चे के बाद हासिल डिग्री से कुछ जॉब मिलेगा भी या नहीं। विवाह हो रहा था तब डरता था कि घरवाले कोई दहेज की माँग न रख दें। विवाह बाद पत्नी से तकरार के समय डरता था वह झूठे दहेज का केस न करवा दे। बेटा हुआ तो उससे मोह में डरता कि उसे कुछ हो न जाए। सुंदर बेटी जन्मी तो डरा कि आसपास कोई उससे बदसलूकी न कर दे। स्कूल जाने लगे बच्चे तो  उनके सकुशल घर लौट आना मालूम होने तक डरता। हॉस्टल पढ़ने भेजा बेटे को तो डरता कि ड्रग लेना /स्मोक-ड्रिंक करना न शुरू करदे और ऐसे भी डरता कि और लड़कों के साथ मिल किसी घर की बेटी से कोई छेड़छाड़ में न उलझ जाये । बेटी को जब हॉस्टल भेजा तो जब जब अकेले यात्रा करती तो उसकी सुरक्षा को डरता और यह भी डर कि ज्यादा आधुनिका न हो जाए । देश में योग्यता अनुरूप अपॉर्च्युनिटी मिलेगी इससे शंकित बेटे को यूएस और बेटी के जीवन में सुरक्षा चिंताओं में शंकित उसे ऑस्ट्रेलिआ भेजा तो वहाँ के घटनाक्रमों से उनके साथ अनहोनी का उसे डर अब रहता है । दुनिया में कौमी बैर बढ़ने पर डरता कि कोई घटना से दंगे न भड़क जायें - आतंकवादी बम ब्लास्ट न करवा दें। त्यौहार जब आते तो डरता कि कट्टरपंथी उकसावे से दंगे न भड़का दें। हर उम्र ,हर जेंडर ,हर धर्म के व्यक्ति ने बिताया /बिता रहा विभिन्न डरों में अपना जीवन और हम कहते हैं कि आज का समाज सभ्य युगीन समाज है।
तब भी छोड़िये इसे , आज डर से मुक्त होने का प्रयास कीजिये और
ईद के त्यौहार जिससे अपेक्षा सामाजिक भाईचारे बढ़ने की भी होती है , इस अपेक्षा को यथार्थ करते हुए ही एवं वास्तव में भाईचारे को स्थाई रूप से पुष्ट करके ही यह दिन बीते , इस भावना के साथ फ्रेंड्स और सभी को शुभकामनायें -
"ईद मुबारक हो"
मेरे साथ आपस में आप सभी भी दीजिये/लीजिये ।
--राजेश जैन
26-06-2017

Tuesday, May 30, 2017

स्वयं जियो - उसे भी तुम जी लेने दो ना ...

स्वयं जियो - उसे भी तुम जी लेने दो ना
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हवा नहीं 'गैर मुस्लिम-मुस्लिम' उसे लेते छोड़ते
यही भेद क्यों करते रहते हो???
जल नहीं होता 'पुरुष-नारी' ,उसे पी पी कर
यह भेद क्यों करते रहते हो????
जीवन मिला तुम्हें मनुष्य का तो
मानवता से क्यों नहीं रहते हो????
धरती पर नहीं कोई भेदभाव लकीरें
खींचकर तुम ,क्यों देश-विदेश इसे करते हो???
पैसे -रूप के तुम्हारे किस्से छूट सब जाते यहीं पर
क्यों फिर किसी को हीन देखते हो???
औरों के दिल को समझने की फुरसत मिलती तुम्हें तो
अरमान समान दिख जाते उनके भी
जन्म और मृत्यु के एकसे लक्षण फिर भी
धर्म तेरा-मेरा करते रहते हो???
स्वयं जियो - उसे भी तुम जी लेने दो ना
तुमसा ही जीवन उसे भी मिला है
--राजेश जैन
31-05-2017

Thursday, May 25, 2017

बाहुबली ..

बाहुबली ..
बहुत सुनने /पढ़ने के बाद 2 दिनों में बाहुबली 1 और बाहुबली 2 बारी बारी से मैंने देखी। मूवीज देखने में लगे 6 घंटे अखरे नहीं। कल्पनायें , उसका पिक्चराइजेशन , अभिनय , भव्य सेट्स और कहानी में लय सभी खूबसूरत रही। आलेख इस तारीफ़ के ख्याल से नहीं लिख रहा हूँ बल्कि सब कुछ देखने के बाद जो प्रश्न दिमाग में आये उसकी चर्चा के लिए लिख रहा हूँ.
दोनों ही पार्ट (मूवीज) को देखते हुए दर्शक के मन को अमरेंद्र , महेंद्र की अविश्वसनीय शक्ति ,शूरवीरता , कटप्पा की आज्ञाकारिता , शिवगामी के त्याग , देवसेना की सुंदरता आदि अत्यंत प्रभावित करती है। साथ ही भल्लालदेव और उसके पिता के लिए घृणा उत्पन्न करती है। कल्पनातीत कहानी में राज परिवार के कुछ सदस्यों की महत्वकाँक्षा ,हवस , अहं और जिद के खातिर जनता और सैनिकों की जिस तरह और जितनी मात्रा में मारकाट दिखलाई गई है उतनी मारकाट को देखने पर भी हमारे मन में ,मारे गए के परिवार के प्रति दुःख की वेदनीय अनुभूति और उसका जरा भी विचार नहीं आता है. हम दर्शक उसे सहज देखते हैं ।
ऐसी मारकाट को देख -पढ़ एवं भुगतने पर भी दुःख - वेदना का उत्पन्न न होना ही दुनिया में व्याप्त अनवरत हिंसा का कारण है। हम अंधश्रृध्दा और अंधभक्ति में किसी से इतने प्रभावित होते हैं कि उसके किये हिंसात्मक कार्य की भी समालोचना नहीं करते हैं।
क्या, अमरेंद्र एवं महेंद्र बाहुबली का बचाव में हिंसा का अपनाया मार्ग ही एकमात्र विकल्प होता है ?? मेंरे विचार से नहीं। जितनी अविश्वसनीय शारीरिक शक्तियाँ बाहुबली में दिखाई गई और उसे हीरो स्थापित किया गया , उसके स्थान पर उसे मानसिक शक्तियों से सम्पन्न दिखला कर भी हीरो बताया जा सकता था। जो घृणा के कार्यों के आदी भल्लालदेव , बिज्जलदेव को अपनी तर्कशक्ति से प्रभावित कर सुधारने में सक्षम हो सकता था और अपने विश्वसनीय और प्रेम के व्यवहार और सहयोग से वह अपने शत्रुओं को मन जीत , उनमें मित्रता के भाव पैदा कर सकता था । किंतु , तब फिल्म में एक्शन के स्कोप नहीं होते और दर्शक मूवीज को वह जिज्ञासा ,ध्यान और धन नहीं देते । इसलिए मूवीज ऐसी बनती रहेंगी। हम ,हिंसक किंतु हमारे मन को प्रभावित करने वालों के समर्थक बनते रहेंगें।
ओसामा बिन लादेन (हिंसा और नफरत के कार्यों में लिप्त हैं ) तरह के लोगों से हमें नफरत और ओबामा तरह के लोग (जो हिंसा से हिंसा की रोकथाम के तरीके ढूँढते हैं ) को हम हीरो मानते रहेंगें। मानव प्रजाति को शीघ्र ही समझना होगा कि हिंसा और प्रति हिंसा के सिलसिले यदि यों ही चलते रहे तो नफरत दिलों से कभी ख़त्म नहीं होगी। साथ ही मनुष्य के मन की सुख शांति के जीवन की सहज चाह हमेशा अधूरी रहेगी। चिंता और तनाव कायम रहने से हम कभी भी जीवन और उसमें चरम आनंद को अनुभव नहीं कर सकेंगे उससे हमेशा वंचित ही रहेंगे. हमें हिंसा का समाधान प्रति हिंसा में नहीं - अपितु प्रेम और विश्वास के स्थापना  में खोजना और करना होगा। हर हमारी प्रस्तुतियों और मूवीज में भी इसी  प्रेरणा को स्थान देना होगा.
--राजेश जैन
26-05-2017

विश्वास के रिश्ते की बुनियाद ...

विश्वास के रिश्ते की बुनियाद ...

पड़ोस के मुस्लिम परिवार की छह -सात वर्षीया बेटी ने उसे सुबह वॉक पर से वापिस आते हुए , रोक बताया था कि पापा बाहर गए हैं और मम्मी की रात भर से तबियत ठीक नहीं , सोईं नहीं हैं। अभी आता हूँ , कह कर वह घर तक आया और पत्नी से बताया पत्नी ने कहा , उस बच्ची के कहने पर उनके घर जाना ठीक नहीं , मालूम नहीं क्या सोचे? वह नहीं गया था। पड़ोस में पहले उनसे नाते में ना तो प्रेम था ना ही बैर , लेकिन अपेक्षा की इस उपेक्षा के बाद से एक तरह का बैर सा परिलक्षित था , जैसा मुस्लिम और गैर मुस्लिम के बीच में आम तौर पर मन में होता है।
जी , हाँ - कहानी यह हो सकती थी , लेकिन -नहीं , कहानी ऐसी बनी थी -
बच्ची के कहने पर वह उनके दरवाजे पर गया - बच्ची के बताने पर , बड़ी बहन जो 12-13 वर्ष की थी , वह सामने आई ,उसने भी यही बताया - साथ ही परेशानी बताई कि संडे होने से उनके डॉक्टर से भी बात नहीं हो रही है . इसी बीच पीड़ा में के कारण ,संकोच से उबर कर , उनकी माँ आई , उनके चेहरे पर वेदना स्पष्ट थी . उसने महिला से तकलीफ का ब्यौरा लिया फिर - अपने डॉक्टर से मोबाइल पर बात की उन्होंने कहा आधे घंटे में पेशेंट को लेकर आ सकें तो वे जाँच कर लेंगें , नहीं तो बाद में उन्हें बाहर जाना है . उन्हें तैयार होने के लिए उसने कहा फिर 10 मिनट बाद वह अपनी कार में महिला और उनकी बड़ी बेटी को लेकर डॉक्टर के यहाँ गया। उन्होंने जाँच के बाद एक दिन की दवायें लिखी - एक इंजेक्शन लगाया और दूसरेदिन के लिए कुछ इन्वेस्टीगेशन /टेस्ट के लिए बताया। लगभग डेढ़ घंटे के वक्त में उस परिवार की चिताओं और परेशानी का हल निकाल उसे संतोष अनुभव हुआ। दूसरे दिन महिला के हस्बैंड आ गए थे , फिर उसे कोई और मदद करने की जरूरत नहीं पड़ी।
संडे के दिन के उन डेढ़ घंटे का प्रयोग उससे बेहतर कोई और नहीं हो सकता था। पड़ोस में रहते हुए पहले उनसे नाते में ना तो प्रेम था ना ही बैर था लेकिन - मदद के उस कार्य ने उनके परिवार में एक प्रेम और विश्वास के रिश्ते की बुनियाद रख दी थी .दुनिया में मानवीय जीवन दृष्टि से ,मुस्लिम और गैर मुस्लिम में जिस बात की बहुत जरूरत है - जिससे अमन -चैन स्थापित किया जा सके उस दिशा में उसने कदम बढ़ाये थे .
--राजेश जैन
25-05-2017

Tuesday, May 9, 2017

रूही-जूही ..


रूही-जूही ..
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जुड़वाँ बहनें हैं ,रूही-जूही। शायद भगवान द्वारा गढ़ने का समय सुबह चार बजे का होगा। जूही को अंधकार की कालिमा , और रूही को भौर का स्वर्णिम वर्ण मिला था। अँधेरे में किये कार्य की त्रुटियाँ जूही के , और उजाले की उत्पत्ति - परिपूर्णता रूही के नयन-नक्श पर दर्शित थी. सुंदरता में अंतर के होते हुए भी मम्मी -पापा के लाड-दुलार में रूही-जूही के लिए कभी कोई अंतर नहीं था। थोड़ी बड़ी होने पर रूही-जूही जब थोड़ा समझने लगीं , तब बाहरी लोगों की रूचि रूही में और उपेक्षा जूही में , दोनों अनुभव करने लगीं। जूही इस बात से उदास सी होती , जिसे रूही अनुभव कर बहन के लिए दुःखी होती थी । और थोड़ी बड़ी हुई तो रूही को लोगों के अपने प्रति आकर्षण में उनकी नीयत का खोट दिखाई देने लगा। तब कई बार उसके मन में रूप वरदान है या अभिशाप इस पर संशय रहा करता था।
ग्यारहवीं क्लास में रूही ने बाटनी (वनस्पति विज्ञान) में पौधों के बारे में पढ़ा - कि पौधों के द्वारा कार्बनडाय ऑक्सीइड लेने और ऑक्सीजन छोड़ने के कारण प्राणी जगत के लिए ,पौधे -वृक्ष उपयोगी होते हैं। इस जानकारी को रूही की कुशाग्र बुध्दि ने अपने और जूही की समस्या से लिंक कर लिया। रूही को प्रतीत हुआ कि गुलाब का पौधे की यूँ तो उपयोगिता कार्बनडाय ऑक्सीइड लेने और ऑक्सीजन देने से ज्यादा है। लेकिन लोग उसमें खिले सुंदर फूलों के लिए लगाते हैं। और बाहरी लोग पौधे पर निखर आये सुंदर फूलों को नोच-तोड़ लेने की टोह में रहते हैं।
रूही ने एक दिन जब जूही को उदास देखा तब उसे इस प्रकार से समझाया -
देखो जूही , जिस तरह गुलाब के पौधे पर सुंदर पुष्पों का होना जिस प्रकार से अस्थाई होता है , वैसे ही सुंदर नारी की सुंदरता भी अस्थाई ही होती है। जिस प्रकार माली के लिए गुलाब के पौधे सुंदर पुष्पों के होने या न होने पर भी समान महत्व के होते हैं। उसी प्रकार जो अपने होते हैं उन्हें हमारा सुंदर होना या न होना अप्रिय नहीं होता। जो बाहरी लोग सुंदरता के पुजारी हैं वे उस दिन तक ही हमारे आसपास मंडराते हैं जब तक हम पर यौवन और रूप होता है। लोगों की इस प्रवृत्ति से अप्रभावित हो हमें मनुष्य होने के वरदान को समझना चाहिए। और जीवन में योग्यता हासिल करना प्रमुख करते हुए - बुराइयों से अप्रभावित रह अपना योगदान परिवार और समाज की अच्छाइयों के लिए करना चाहिए। यही मनुष्य होने की उपयोगिता होती है।
--राजेश जैन
10-05-2017
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Wednesday, May 3, 2017

भारत - पाकिस्तान के बीच दुश्मनी

भारत - पाकिस्तान के बीच दुश्मनी
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अख़बार वाले को देख सामने अपार्टमेंट में एक कुत्ता , रोज भौंका करता है। इस कारण अख़बार वाले को रोज पत्थर उठाना पड़ता है। आज जब अखबार वाला आया , कुत्ता सामने सो रहा था। उसने - थोड़ी शांति से अखबार डाले - इस बीच कुत्ता जाग गया . वह अखबार वाले को देख - धीरे से एक तरफ चला गया। अच्छा लगा यह देख कि आज अख़बार वाले को पत्थर उठाने की जरूरत नहीं पड़ी।
भारत - पाकिस्तान के बीच दुश्मनी - हमारे इस अख़बार वाले और उस गली के कुत्ते जैसी ही है।
--राजेश जैन
04-05-2017

काजल

काजल
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14 -15 साल की होगी काजल , नानी के साथ घर के काम करने निकलती है. शिक्षा के महत्व से इस उम्र में अनजान है। नवमी तक पढ़ के पढ़ाई छोड़ चुकी है। पढ़ा भी ऐसा है कि अखबार तक ठीक से पढ़ नहीं सकती। पूछा - और क्यूँ नहीं पढ़ती? कहती है समय नहीं मिलता। पूछा - कितने बजे घर पहुँचती हो ? कहा - दो बजे। पूछा - फिर क्या घर के काम करती हो ? कहा - हाँ। फिर पूछा - टीवी देखती हो? कहा - हाँ , बहुत पसंद है।
ना ही छोटी बालिका को समझ - ना घरवाले समझ रहे हैं कि क्या उसके जीवन के लिए भला है। सरकारी ग्रामीण स्कूल भी - पढ़ाने की एक औपचारिकता बस पूरी कर रहे हैं। काजल - जिंदगी को / भले-बुरे को बहुत कुछ टीवी देख समझेगी - जिस में सामग्री , कहीं भी शिक्षाप्रद / सँस्कार देने वाली नहीं है। नचैया - गवैय्या - फूहड़ कॉमेडी /सेलिब्रिटी - और अर्द्धनग्नता दिखा - लोकप्रियता और पैसा कमाने वाले सब लोग हैं। समझ सकते हैं कोई उच्च सोच /शिक्षा और संस्कृति तो नहीं दे सकेगें ये सब काजल को।
--राजेश जैन
04-05-2016

Sunday, April 23, 2017

आफरीन-आदिल (8. नारी ही - मासूम नारी के अधिकार और विश्वास को ठेस पहुँचाने की दोषी)

आफरीन-आदिल (8. नारी ही - मासूम नारी के अधिकार और विश्वास को ठेस पहुँचाने की दोषी)
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आदिल के मशवरे अनुसार बेहद संयत-सधे लेखन से तैयार आलेख को आफरीन ने प्रेषित कर दिया। कुछ दिनों उपरांत - उसे अखबार देखकर प्रसन्नता हुई , उसका आलेख ज्यों का त्यों - पब्लिश हुआ था. पर आफरीन की शाम तक प्रसन्नता गायब हो गई। आलेख के इस अंश ने - *
 
"प्रगतिशील आज के समाज में भी नारी की यह कैसी विडंबना है ,वह पति की बहुपत्नियों में से एक हो जीने को लाचार है। उसका प्रेम तो एक पति के प्रति संपूर्ण निष्ठा और समर्पण से होना अपेक्षित है । वहीं दूसरी तरफ पति प्यार को अनेकों में बाँटता है। यह कैसा मानदंड है? जो न्याय की तुला पर खरा नहीं। नारी की विडंबना का यहीं अंत भी नहीं। अपनी शक्ति संख्या से बढ़ाने के नाम पर - इन पत्नियों से कई कई संतानें पैदा की जाती हैं (एक तरह से अत्याचार)। घर में ना संतान को और ना ही पत्नियों को पोषक खिलाने , लालन-पालन और यथोचित शिक्षा दिलाने की सामर्थ्य , लेकिन पुरुष दंभ , कुछ सुनने को तैयार नहीं। क्या अपढ़-गँवार , भूखे बच्चे और अवसादग्रस्त नारी के साथ बहुसंख्यक हो जाना , कोई शक्ति होती है? या शक्ति परिपक्व सोच और मन की प्रसन्नता और जीवन उमंगों से होती है। नारी की विवशता यहीं तक नहीं - अनेक व्यभिचारी तथा बूढ़े धनवान को 70 वर्ष की उम्र में भी बिस्तर पर अल्प-वयस्का पत्नी चाहिए होती है जो परिवार के अभावों वाले परिवार से सौदेबाजी कर उन्हें उपलब्ध हो जाती है।
70-75 की उम्र में वह क्षमता भी नहीं कि यौवन की दहलीज पर आई ऐसी पत्नी की प्रेम अपेक्षा की पूर्ति कर सके . उस व्यभिचारी के जीते जी और मरने के बाद यह अल्प आयु पत्नी ,परिवार के और अन्य पुरुष के बहकावे में शोषित होने को विवश होती है। और चरित्र से भटकी नारी ही इस तरह अन्य पुरुषों को अपनी अतृप्त वासना के घेरे में लेकर , चरित्रहीन पुरुषों के परिवारों की मासूम नारी के अधिकार और विश्वास को ठेस पहुँचाने की दोषी बन जाती हैं। हम नारी एकजुट हों , पुरुष के विरुध्द नहीं अपितु उस पक्ष को समाज के सम्मुख लाने के लिए। ताकि हम न्याय और नारी जीवन अपेक्षा का चित्र समाज के सम्मुख ला सकें . जिससे नारी के प्रति सामाजिक सोच में परिवर्तन आये , और नारी भी अपना जीवन सम्मान से जी सकने में समर्थ हो सके।"
 
* - कुछ पुरुषों के दंभ को आहत किया , और एक उद्वेलित पुरुष का फोन उसे आया - जिसमें उस पर अपशब्दों की वर्षा करते हुए कहा - हम समझ रहे हैं तू किस पर इशारा कर रही है , अपनी औकात में रह नहीं तो पछताएगी। वह आगे भी कुछ कह रहा था लेकिन उसने फोन काट दिया और फिर उसका फोन नहीं उठाया।
शाम को आदिल ने आफरीन को गुमसुम देखा ,पूछने पर आफरीन ने सब बताया। आदिल ने उससे नंबर लेकर उसकी इस बाबत सहायता के फोन नंबर पर रिपोर्ट दर्ज करा दी। आफरीन को विश्वास दिलाया घबराने के जरूरत नहीं , आजकल कानून व्यवस्था इन बातों पर सख्त है , और उस सिरफिरे पर कार्यवाही अवश्य होगी। फिर अखबार में आफरीन के आलेख को शांतचित्त पढ़ा और आफरीन की लेखनी की मुक्तकंठ प्रशंसा की। आफरीन के अशांत मन को चिंता के विचार से छुटकारे की दृष्टि से आदिल ने आफरीन से कहा आज डिनर हम , बाहर लेंगें। फिर दोनों तैयार हुए और सैर को बाहर निकल गए।
--राजेश जैन
24-04-2017
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Saturday, April 22, 2017

आफरीन-आदिल (7. जरूरत से ज्यादा तीव्र प्रहार - समाधान का कारण नहीं बनता , अपितु समस्या को जटिल बना देता है। )


आफरीन-आदिल (7. जरूरत से ज्यादा तीव्र प्रहार - समाधान का कारण नहीं बनता , अपितु समस्या को जटिल बना देता है। )
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आफरीन का टीवी पर दिखना फिर एक मौका ले आया। एक दिन उसे भास्कर , न्यूज़ पेपर की तरफ से फोन आया जिसमें , 'नारी चेतना' विषय पर आर्टिकल भेजने को कहा गया। जिसने आफरीन को खुद के खास होने का अहसास कराया।
रविवार अवकाश होने से , आज इसका उपयोग इस कार्य के लिए करने के इरादे से आफरीन लिखने बैठ गई -
 
"दुनिया की आधी आबादी हमेशा जनाना होती है। जनाना को ईश्वर ने मर्द के मुकाबिले ढेरों खासियत दीं हैं किंतु शारीरिक तौर पर उसे बलिष्ठ नहीं बनाया है. पुरुष अपनी शारीरिक शक्ति के जोर पर ,नारी पर आरंभ से ही डॉमिनेशन रखता आया है। उसने कभी सामाजिक मर्यादाओं के नाम पर , कभी धर्म के नाम पर और कभी परिवार की इज्जत के नाम पर , नारी पर पाबंदियाँ लगाई हुईं हैं। उसे चाहरदीवारियों और पर्दों में कैद रखता है। खुद अपनी मनमानी करता है। जब इंसानी समाज में धन-दौलत ईजाद की गई , बाहर के कार्य में पुरुष ने ही खुद को आगे किया। हमेशा उसने जनाना को अपना निर्भर बताया है। पेट को दो रोटी देकर , अहसान यह जताया है जैसे नारी , पुरुष की बनाई कोई कृति है जिस पर किसी अजीव वस्तु पर होता ,उस जैसा मालिकाना हक़ पुरुष का है। यहाँ तक कि पुरुष ,हरम में कई कई बीबियाँ रखता रहा है। उससे धर्म मनवाने के ऐसे तरीके भी निर्धारित किये कि नारी पर धर्मालयों में अनेकों बंदिशें लागू हैं। जबसे -पढ़ना लिखना चलन हुआ है ,नारी को उसके भी अवसर नहीं या कम दिये गए हैं। सारांश यह कि नारी , पुरुष की पिछलग्गू बनी रहे ,यह विचार ही हर जगह पुरुष मुख्य करता रहा है।
खुद पुरुष ने जिस दृष्टि से देखना चाहा ,धूर्तता से वही दृष्टि नारी की भी बना दी है। किचन के कार्य में, बच्चों को जनने में , बच्चों की परवरिश में , और गृहस्थी के ढेरों कार्य में पूर्णतः नारी का आश्रित है पुरुष। लेकिन वह नारी को ,नारी की ही दृष्टि में पुरुष आश्रिता दिखाने में सफल होता रहा है। "
 
आफरीन इतना ही लिख पाई थी कि आदिल आ गये . उन्होंने पूछा क्या कर रही हो। तब आफरीन ने सब बताया और अब तक लिखे पर उनकी राय चाही। आदिल ने पढ़ने के बाद पहले प्यार की नज़र से आफरीन को देखा , फिर गंभीर हो आलोचक से स्वर में बोला -
 
"मेरी प्यारी आफरीन , भास्कर हिंदी दैनिक है - आपके लिखे में , इंग्लिश -उर्दू शब्दों का प्रयोग अजीब लग रहा है। आप नारी पर सच तो लिख रहीं हैं , किंतु आपको समझना होगा कि पाठक - अलग अलग आयु वर्ग के होने के साथ ही समझ में भी कम -ज्यादा होंगे. आप यह तो मानती हैं ना ? कि पुरुष -नारी साथ अनंत है , फिर आप कम पढ़ी-लिखी , कम वय की अति उत्साही लड़की के तरह प्रस्तुति न बनाओ कि पुरुष और नारी दो दुश्मन से हो जायें।
आप अपने प्रहार की तीव्रता बहुत ही सधी हुई रखें , जरूरत से ज्यादा तीव्र प्रहार - समाधान का कारण नहीं बनता , अपितु समस्या को जटिल बना देता है। आप इस दृष्टि से सुधार करते हुए लिखें। आपका लिखा मार्गदर्शक बन जाएगा - इस पीढ़ी के लिए। "
 
आफरीन ये सब मंत्र मुग्ध सी सुन भी रही थी और अचरज भरी दृष्टि से आदिल को एकटक देखे भी जा रही थी। उसे आदिल का समझदार होना तो ज्ञात था किंतु उनका इतना स्पष्ट विज़न उसे हैरत में डाल रहा था।
आफरीन ने अपनी बाँहों का हार आदिल के गले में डाल - उनकी आँखों में प्यार से झाँकते हुए शुक्रिया कहा। और फिर आदिल की सलाह अनुसार अपने आर्टिकल को एडिट करने और पूरा करने पुनः टेबल पर आ बैठी .
--राजेश जैन
23-04-2017
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Friday, April 21, 2017

आफरीन-आदिल (6.हलाला)

आफरीन-आदिल (6.हलाला)
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आफरीन के टीवी पर व्यक्त प्रगतिवादी विचार जो काम कर रहे थे उसका अनुमान आफरीन को नहीं था। एक दिन उसे फ़ोन कॉल आया। उस पर जनाना आवाज थी। उसने पूछा ,आप आफरीन हैं ? उसकी हामी पर उसने कहा मैं आयशा हूँ ,अपनी समस्याओं पर सलाह के लिए आपसे मिलना चाहती हूँ। आफरीन ने जो मुकर्रर किया उस समय पर आयशा उससे मिली। बाद में आफरीन ने आदिल को बताया -
 
"एक गैर मुस्लिम लड़की ने प्यार में अपने घरवालों से विद्रोह कर एक मुस्लिम युवक से शादी की। शादी को तीन माह ही हुए कि सरकारी आदेश से उस युवक का बूचड़खाना बंद हो गया। बंद होने के बाद भी वह घर से ही अवैध ठहराया गया व्यापार करने लगा . आयशा के बार बार मना करने और रोका-टोकी से एक दिन उसे इतना गुस्सा आ गया कि उसने आयशा पर जुबानी तलाक दे दिया। कुछ दिन बाद ही आयशा से प्रेम की यादों ने उसे पछतावे से भर दिया है। लेकिन घर और समाज के रिवाज अनुसार ,फिर से निकाह के पहले अब आयशा पर हलाला होना जरूरी है। आयशा - मानसिक रूप से इस बात को कतई राजी नहीं ."
 
मुझसे उसने सलाह और मदद की गुहार लगाई है , हम उसके लिए क्या कर सकते हैं ? इस सवाल पर आदिल-आफरीन ने गंभीरता से विचार किया। और जो उपाय निकाला उस अनुसार - आयशा का निकाह आदिल से करवाया गया। जैसा आयशा को विश्वास दिलाया गया था , तीन दिन बाद आदिल ने बिना आयशा से जिस्मानी संबंध किये उसे तलाक दे दिया। समाज की नज़र में आयशा , हलाला होने से अपने पूर्व शौहर से निकाह कर सकती थी। उनका निकाह हो गया। आफरीन -आदिल की युक्ति यद्यपि मौलवियों की नज़र में नापाक थी , किंतु गैर मुस्लिम रही आयशा के लिए पवित्र थी , जो भावनात्मक रूप से अपने हस्बैंड के अतिरिक्त किसी भी अन्य से शारीरिक संबंध को सर्वथा वर्जित मानती है।
आदिल के सहयोग से आफरीन अपने पूरे प्रयास लगा देना चाहती है जिससे वह वैचारिक धारणा बदल जाए जिसमें , मुस्लिम जनाना थर्ड डिग्री इंसान होने का दर्जा पाती है। जो फर्स्ट डिग्री इंसान (मर्द) और सेकंड डिग्री इंसान (अन्य समाज की नारियाँ) के बाद उसका ऐसा दर्जा सबसे बुरे हालातों में जिंदगी गुजर करने को विवश करता है।
--राजेश जैन
22-04-2016
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Thursday, April 20, 2017

आदिल -आफरीन (5. हारून की मोहब्बत)

आदिल -आफरीन (5. हारून की मोहब्बत)
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"दायरे में औरों को देखना चाहते ,जब
अपने लिए भी हम ,तय करें दायरे कुछ"
आदिल -आफरीन के दिन , घर -अपने अपने ऑफिस और प्यार की बातों में ख़ुशी ख़ुशी गुजर रहे थे। उन के बीच उसूल -विचार पर चर्चा भी रोजाना की बात थी। एक दिन आफरीन की मम्मी , मोबाइल पर आफरीन से बात में बहुत चिंतित लगीं , उन्होंने बताया कि आफरीन का भाई हारून गैर मुस्लिम लड़की से निकाह की जिद पकड़े हुए है। मम्मी ने यह भी कहा कि ,आफरीन उसे समझाये। बाद में आफरीन ने ,आदिल से यह वाक्या बताया। आदिल ने सुनने के बाद आफरीन से कहा कि ऐसे मसले फोन पर नहीं सुलझेंगें। हारून को यहाँ बुलाना ठीक होगा।
आदिल के कहने पर हारून ,तीसरे दिन आया। हँसी ख़ुशी की बातों के बाद , आदिल ने यह मसला उठाया। आफरीन ने , हारून से उस लड़की के साथ किस हद तक संबंध बढ़े हैं इसकी जानकारी ली। उसे जब पता चला कि हारून का लड़की के आगे-पीछे लगे रहने के बाद सिर्फ पार्क में मोहब्बत की बातों तक का सिलसिला है , तो उसे राहत आई।
आफरीन ने तब हारून से अपने गैर मुस्लिम के प्रेम की बात , बताई। और यह भी बताया कि ,हारून को ही यह सख्त नापसंद होगा इस लिहाज से , उसने इस प्रेम को सिर्फ दिल में रख लिया। हारून को आश्चर्य हुआ कि कैसे आफरीन , आदिल मियाँ के सामने इस बात का इजहार कर सकती है। आगे आदिल ने कहा हारून हमें उसूल दोनों ही तरफ लागू करने चाहिए। अगर आपको , अपनी बहन का रिश्ता गैर मुस्लिम से पसंद नहीं आता तो आपको यह हक भी नहीं कि किसी गैर मुस्लिम की बहन - बेटी से तुम निकाह की बात सोचो। हारून को विचार करता देख ,आफरीन ने आगे बात बढ़ाई कि आप जानते हो मुस्लिम और गैर-मुस्लिम में संबंध दोनों ही पक्षों को बहुत आक्रोशित करते हैं। खून खराबा के कारण बनते हैं ,तो इस सच्चाई को जानते हुए हमें ऐसे काम नहीं करने चाहिए।
"पहले हम अपने समाज और परस्पर रिश्तों को इस तरह स्वस्थ करने के लिए कार्य करें और जिस दिन यह समझ सभी संप्रदायों में आ जाए तब बेहिचक इस तरह की शादी हम करें। " और भी बातें हुई। अंततः आदिल -आफरीन का , हारून को बुलाने का मकसद कामयाब हुआ।
आदिल का पूरा लिहाज करते हुए दूसरे दिन हारून , वादा करके विदा हुआ कि वह अपनी उस प्रेमिका से माफ़ी माँग संबंध को यहीं खत्म कर लेगा . वह यह भी कह गया कि इंशा-अल्लाह ठीक वक्त यह समझ मुझे आ गई . हमारा संबंध अभी इस हद में है कि उस लड़की को धोखा देने का इल्जाम मुझ पर न आएगा।
--राजेश जैन
21-04-2017
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Wednesday, April 19, 2017

आफरीन- आदिल (4. जहाँ नहीं समाधान -वहाँ ढूँढना व्यर्थ समय गँवाना है)


आफरीन- आदिल (4. जहाँ नहीं समाधान -वहाँ ढूँढना व्यर्थ समय गँवाना है)
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आज आदिल टूर पर गया था , आफरीन रात्रि अकेली थी। बिस्तर पर आई तो नींद नहीं लगी - पुरानी बातें उसे याद आने लगीं। आफरीन - अपने 3 बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी थी। पापा जिनिंग मिल में काम करते थे। अर्निंग , बहुत नहीं थी , उस पर चाचा के परिवार से जायदाद के विवाद जब तब कलह के कारण बनते उसने देखे थे। मम्मी , इन अभावों में कैसे चार , छोटे बच्चों की माँगों की पूर्ति को जूझती रहतीं उसने देखा था। पापा मिल के मालिक और काम पर अक्सर भुनभुनाते आते और भाई के द्वारा खड़ी की जाते कलह से गुस्से में रहते। उन्हें यह देखने की फुर्सत नहीं होती की चार-चार औलादों की बचपन सुलभ माँगों को ,थोड़ी सी आमदनी में कैसे पूरा किया जाये। खाने के बीच अच्छी लगती चीज पर बच्चों की खींचतान बीच , मम्मी को बासी और कम अच्छी चीज से जैसे तैसे पेट भरते और उस पर पानी पी लेते , आफरीन ने महसूस किया था। अपने फट रहे कपड़े को सी -सी कर अंग ढँकने के उपाय में हलाकान मम्मी का चेहरा , उसने देखा था। एक बार पापा को अच्छे मूड में देख नौ वर्ष की अपनी उम्र में ,उनसे एक सवाल मासूमियत में कर दिया था - पापा , हम दो ही बच्चे होते तो मेरी मम्मी भी कुछ अच्छा खा -पहन लेती। पापा यह सुनते ही गुस्से में भर गए , एक चाँटा उसे अपने कोमल गालों पर झेलना पड़ा - उसने सुना छोटी सी उमर में तेरी जुबान बड़ी हो गई है।
आफरीन ,यह शुक्र मानती है कि पापा के गैर मुस्लिम मिल मालिक इस तरह से उदार थे कि उनने ,उसके पापा से कह रखा था , बच्चों को पढ़ाओगे तो किताब - फीस और यूनिफार्म का खर्च वह देंगे. उस मदद से ,उसके मौहल्ले के लड़के तक जबकि ज्यादा नहीं पढ़-लिख रहे थे , आफरीन - इससे डीसीए तक पढ़ सकी। एक बार ओलिम्पिक में देश के जीते मेडल पर चर्चा हो रही थी , तब स्कूल में उसके टीचर ने यह कहा था कि जनसँख्या उपलब्धि नहीं होती , थोड़ी सँख्या का एक ग्रुप अपने कार्य की क्वालिटी से बड़ी उपलब्धि हासिल कर सकता है। इस बात का कन्फर्मेशन उसे अपने मोहल्ले के परिवारों पर नज़र डालने से हो गया था। जहाँ - परिवार तो बड़े -बड़े थे , लेकिन किसी के कार्य और सोच ज्यादा सही नहीं थे। दकियानूसी और रंजिश की बातों ने उनके मन में डेरा डाल रखा था। वहाँ लोग सृजन की नहीं विनाश की गतिविधियों में उलझे रहते थे।
शुक्र तमाम अभाव और बुरे हालातों का ,जिसने आफरीन को छोटी उम्र से बेहतर और तर्कसंगत सोच की बुनियाद दे दी। उसे बचपने में ही हैरत होती कि 'बड़े बड़े अपने को बड़ा जानकार समझने वाले वहाँ के लोग' - अपने परिवारों की अपढ़ता-अभावों और जनानाओं की विवशताओं से बेखबर किन अजीब बातों में अपना मन और समय ख़राब करते हैं , वे जहाँ नहीं समाधान -वहाँ ढूँढने की कोशिश में समय और जीवन व्यर्थ करते हैं।
आफरीन को जॉब मिल गया , उसने पापा के दबावों के बावजूद अपनी शादी को देर तक टाला . अपनी आमदनी से मम्मी और भाई-बहनों का भला कर सकने में अपने को समर्पित किया। और थोड़े विलंब से जब शादी की तो आदिल जैसा समझदार शौहर मिलने पर आज अपनी किस्मत पर उसे नाज हो रहा है।
अब तक मिले तमाम हालात ने उसे जो सबक सिखाये हैं उस अनुरूप उसे अपनी गृहस्थी को आकार-सँस्कार देना है .उसे आदिल से सहयोग ले अपने कार्यों से वह अंजाम देना है जिससे "जहाँ नहीं समाधान -वहाँ ढूँढना व्यर्थ समय गँवाना है" वाली मूर्खता उससे नहीं हो जाये।
उसे इसी देश और इसी समाज को अपने कार्यों से वह जागृति देना है , जिसमें दिमागों में रंजिशों की जगह खुशहाली के ख्याल भर जायें।
--राजेश जैन
20-04-2017
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Tuesday, April 18, 2017

आफरीन आदिल (3. मजहब का सर्वोच्च मशवरा - उचित करना होता है)


आफरीन आदिल   (3. मजहब का सर्वोच्च मशवरा - उचित करना होता है)
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उस रात्रि आदिल ने एक न्यूज़ चैनल खोला तो , उसकी दीर्घा में आफरीन को देख उसे आश्चर्य हुआ। तभी एंकर माइक ले आफरीन के पास आई .उसने आफरीन को माइक देकर , उससे नाम पूछा और फिर आफरीन से प्रश्न किया - आफरीन ,मर्द के एक से अधिक विवाह पर आपकी क्या राय है? आफरीन ने जबाब दिया यह अनुचित है। एंकर ने सवाल किया -क्यों - आफरीन ने जबाब दिया , स्त्री और पुरुष में अनुपात 50:50 का है , ऐसे में एक मर्द एक से ज्यादा बीबी करता है तो कुछ औरतों को एक से ज्यादा मर्द करने होंगें , जो अनुचित होगा इसलिए। आफरीन के इस उत्तर पर दीर्घा में बैठी नारियों की तालियां बजती दिखाई दीं। एंकर ने पॉज लेकर पुनः हँसते हुये कटाक्ष किया - लेकिन इस्लाम के मानने वाले तो चार शादियों को उचित कहते हैं। आफरीन के मुख पर तनिक विचार के भाव दिखे फिर उसने जबाब दिया - मजहब का सर्वोच्च मशवरा - उचित करना होता है। मेरा मानना है कि सर्वोच्च मशवरे पर हमारी दृष्टि होना चाहिए। अगर आप इजाजत दें तो मैं आपको एक सलाह देना चाहती हूँ। एंकर को इस बात पर हैरत हुई लेकिन जिस इंट्रेस्ट से दीर्घा में आफरीन को सुना जा रहा था - उसे ध्यान में रख एंकर को कहना पड़ा - बेशक दीजिये। तब आफरीन ने गंभीर मुखमुद्रा में कहा - हम भारत में रहते हैं , जिन शब्दों से हमारे देश -समाज में सौहाद्र के स्थान पर बैर फैलता है , उसे तूल देकर कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मजहब - हमारे आचरण में होना चाहिये , अपनी ताकत के प्रदर्शन के लिए इसकी - दुहाई अनुचित है। आप अपने कार्यक्रम में इस्लाम शब्द पर तूल न दिया कीजिये। तब तालियाँ की गड़गड़ाहट गूँजी और एंकर अन्य लोगों के तरफ बढ़ गई . बाद के प्रसारण में एंकर बार बार आफरीन के कहे शब्द "मजहब का सर्वोच्च मशवरा - उचित करना होता है" को दोहराते हुए दीर्घा में बैठे अन्य लोगों से सवाल करती रही ।
आफरीन उस समय किचन में थी। आदिल - वहाँ गया उसने आफरीन से पूछा आपने टीवी के कार्यक्रम में अपने शिरकत की बात मुझे बताई नहीं? आफरीन ने वापिस प्रश्न किया -क्या टीवी पर दिखाया गया है ? मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरा वाला हिस्सा वे टेलीकास्ट करेंगें। आदिल ने प्रशंसा में कहा आपने बहुत प्रभावशाली तरीके से अपने विचार कहे , मुझे आप पर गर्व है। आफरीन ने रिप्लाई में प्यार भरी मुस्कान दी।
आदिल बाद में उस रात बिस्तर पर लेटा सोच रहा था कि उसकी जिंदगी में उसे कोहिनूर मिला है , उसके ऊपर उसे बेहद सतर्कता से प्रयोग का दायित्व आया है। आदिल के चेहरे पर उस समय एक दृढ़ता परिलक्षित हो रही है , जब वह मन ही मन संकल्प कर रहा है कि वह आफरीन के इन पाक विचारों और व्यक्तित्व को विकसित करने में अपना पूरा साथ देगा , उसे पूरे ईमान से प्रोमोट करेगा।
मज़हब-
शारीरिक या सांगठनिक ताकत नहीं
यह आचारिक-वैचारिक ताकत की बात है
--राजेश जैन
19-04-2017
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Monday, April 17, 2017

आफरीन - आदिल (निरंतर)


आफरीन - आदिल (निरंतर)
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आदिल की उस रात ढाई बजे नींद खुल गई . मध्दिम नाईट लैंप की रोशनी में बाजू में सो रही , आफरीन के खूबसूरत चेहरे पर उसकी नज़र पड़ी और फिर उसे आफरीन के बताये उस प्रेमी का ख्याल आ गया , जिससे आफरीन को प्रथम प्रेम की अनुभूति हुई थी . आदिल को अपने मन में उससे ईर्ष्या का ख्याल आ गया . फिर वह सोचने लगा - वह भी क्या करे आफरीन है ही बला की खूबसूरत - कौन होगा? जो इस रूप की मन ही मन तारीफ़ न करे . ऐसे सारे पुरुषों से उसे एक तरह की चिढ सी अनुभव हुई - जो उसकी आफरीन की खूबसूरती को सराहें या चाहें . उसके अंदर के ईर्ष्यालु पुरुष ने इस का उपाय सजेस्ट किया - क्यों ना आफरीन को वह हिज़ाब में बाहर आने जाने कहे? लेकिन स्वयं उसने इस आइडिये को रिजेक्ट किया कि नहीं - उस अतिरिक्त लबादे को लादे रहना कोमलांगी आफरीन के लिए अत्यंत कष्टकर होगा।
आदिल बैचैन हो गया .वह सारे ख्याल झटक सोना चाहता था लेकिन फिर उसकी नज़र आफरीन की खूबसूरती पर पड़ी जो , आदिल की दिली हालत से बेखबर , नींद के आग़ोश लेटी हुई थी . पुनः हस्बैंड वाले पजेसिव तथा ईर्ष्यालु विचार ने उसे सुझाया क्या वह आफरीन को जॉब छोड़ने कहे ? लेकिन तभी इस विचार को भी ,बेवकूफ़ी भरा मानना पड़ा . इस तरह आफरीन के जीवन अवसर को वह कम करने का प्रयास करेगा तो क्या आफरीन अपने उस मूक प्रेम की याद और तुलना में न पड़ जायेगी - कि आदिल से अच्छा तो वह प्रेमी होता जिसके घर में नारी के प्रति खुली सोच तो थी।
आफरीन - उस प्रेमी के बारे में सोचेगी - यह कल्पना उसे नागवार लगी . आदिल ने बेचैनी में आफरीन के दूसरे तरफ करवट लेकर - ईर्ष्यालु विचार पर काबू करने की कोशिश की , लेकिन हाय आफरीन की खूबसूरती और हाय पुरुष मन का पत्नी पर एकछत्र आधिपत्य वाला स्वभाव! आदिल फिर उपाय खोजने में व्यग्र हुआ - तभी उसके दिल में एक और ख्याल आ गया - क्यों ना ? वह जल्दी जल्दी चार-छह औलादें पैदा कर ले. जिससे छह बच्चों की अम्मा हो जाने से आफरीन की खूबसूरती कम भी हो जाए - और लोगों का उसके प्रति आकर्षण भी खत्म हो जाए , एकबारगी यह उपाय उसे ठीक लगा , लेकिन तभी इसमें भी बेवकूफी नजर आई . इससे तो आफरीन पुनः उस प्रेमी के बारे में सोचा करेगी जो - एक या दो बच्चे से ज्यादा नहीं चाहता , जिससे आफरीन को बार-बार औलादें पैदा करने का कष्टकर कार्य नहीं करना होता . आदिल को अपने स्वयं के बाल नोच लेने की इक्छा हुई। आदिल सोचने लगा इससे तो बेहतर होता आफरीन इतनी खूबसूरत न होती . किंतु उसे हँसी आई अपने पर ,फिर तो वह बाहर की खूबसूरती देख ललचाया घूमता रहता।
वास्तव में आदर्श और मन की कमजोरी के यथार्थ के बीच हमेशा द्वन्द रहता है, जिसके बीच बहुत लोगों को - पूरे जीवन झूलना होता है। आदिल की इस रात की मनः स्थिति इसलिए कोई अपवाद नहीं थी।
अंततः आदिल ने एक तरह से निर्णय किया कि - नहीं नहीं वह आफरीन को सिर्फ जिस्मानी ही नहीं रूहानी प्रेम का अहसास कराएगा - जिससे बाहर उस पर कोई पहरे नहीं रख कर भी - आफरीन के दिल का एकमात्र बादशाह सिर्फ आदिल होगा।
"धन्य नजर , हुस्न के भीतर रूह देख सका
उससे मोहब्बत अपनी ,मैं रूहानी कर सका"
इस निर्णय के बाद उसके दिल को राहत आई . उसने आफरीन के तरफ करवट ली ,उसके सुंदर मुखड़े को प्यार से निहारने लगा और किसी पल उसे आफरीन जैसे ही नींद ने अपने आगोश में ले लिया।
--राजेश जैन
18-04-2017
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Sunday, April 16, 2017

आफरीन-आदिल


आफरीन-आदिल ..
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नई नई ब्याही आफरीन के हस्बैंड आदिल ने उस शाम पूछ लिया - आफरीन आप इतनी खूबसूरत हो शादी के पहले लड़के तुम्हारे पीछे तो पड़े होंगे , बताओगी ? आफरीन अचानक आये इस सवाल पर सकपका गई , जैसा आदिल को उसने अब तक जाना था उसने एक सच बताना उचित समझते हुए जबाब दिया -
थे , कुछ। आदिल ने फिर पूछा - आपको भी कोई पसंद था ? आफरीन थोड़ी हिचकिचाहट से बोली - एक था , लेकिन गैर मुस्लिम था , उसकी चाहत में मुझे बड़ी शिद्द्त महसूस हुई थी। आदिल की उत्सुकता बड़ी - व्यग्रता से पूछा - फिर , आप मिलती थीं उससे? आफरीन ने कहा - नहीं , प्यार अंदरूनी तौर पर मुझे अनुभव तो हुआ , लेकिन प्रकट में मैंने उदासीनता प्रदर्शित करते हुए , सिलसिले को आगे नहीं बढ़ने दिया . आदिल की जिज्ञासा अब चरम पर थी - उसने पूछा - ऐसा क्यों किया ? आफरीन - मुझे अपने भाई की सख्ती का पता था - मालूम था - गैर मुस्लिम मेरे उस प्यार को वे काट के फेंक देते , मेरा प्यार - उसे मरता नहीं देख सकता था। मेरा प्यार उसकी ज़िंदगी चाहता था - ख़ुशी उसे तो कहीं और भी मिल जानी थी।
आदिल - आफरीन का जबाब सुन चुप हो गया। और वह दूसरा कुछ करने के बहाने - बाहर चला गया। दो-तीन दिन आफरीन को लगता रहा , आदिल सच सुन - ईर्ष्या से जल गया है । दोनों का साथ - सामान्य ही चलता रहा।
एक दिन आफरीन नहीं रुक सकी , आदिल से उसने पूछा , मेरी उस दास्तान को जानने के बाद - आपको बुरा लगा ? वह बोला - नहीं , वास्तव में उसके बाद मैंने जाना कि आफरीन ,आप क्या होता है सच्चा प्यार जानती हो। मेरे मन में आपके लिए सम्मान बड़ा है . आपकी खूबसूरती तो मुझे पसंद थी ही - आपके मन की खूबसूरती ने मुझे मुरीद कर दिया आपका।
यह पाठ मैंने - आपसे सीखा कि
"पाना ही प्यार नहीं ,उसमें त्याग भी होता है
साथ ही नहीं दूर भी हो प्यार ,जीवन देता है
आफरीन -
पगलाई है दुनिया - जिसे प्यार प्यार कहते हुए
प्यार नहीं वासना है जिसमें सब तबाह होता है"
जिसे आज का माहौल प्यार प्रचारित करता वह प्यार नहीं - जिस्मानी आकर्षण , खत्म होने पर धोखा बनता है - जो प्यार नहीं नफरत को बढ़ावा देता है। आपका वाला प्यार वह प्यार है - जिससे मानवता को राह मिलती है। आप - निःसंदेह प्यार की मूरत हो आफरीन।
आफरीन ने जाना - वह ही नहीं - उसके हस्बैंड में भी एक सच्चा इंसान है , आफरीन अपनी किस्मत पर मुस्कुरा रही है।
(कहानी में उर्दू शब्द उपयोग किये हैं - ज्यादा जानकारी नहीं - गलत प्रयोग हो तो क्षमा कीजिये। )
--राजेश जैन
17-04-2017
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