Saturday, May 31, 2014

आदर्श - भूलना नहीं स्मरण रखने होंगे

आदर्श - भूलना नहीं स्मरण रखने होंगे
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घर ,धर्मालयों और स्कूल से बच्चे जीवन आदर्शों के बारे में जानते रहे और आदर्श हेतु प्रेरित किये जाते रहे हैं।  लेकिन रूपये और अपना समय खर्च कर फ़िल्में और पत्रिकाओं (खरीद) में स्पेशली सिने कलाकारों और स्पोर्ट्स सेलिब्रिटी के बारे में जो पढ़ते हैं टीवी पर नेट पर (समय खर्च ) कर जो घटिया सामग्री देखते पढ़ते हैं उससे सिखलाये गए आदर्शों से दूर होते जा रहे हैं।

सिटी बसों में , लोकल ट्रेन में महिलायें /छात्रायें जब खड़ी हो यात्रा करती थीं ,तो पुरुष स्वतः सीट छोड़ उन्हें बैठने स्थान देते थे।  अब नारियों के लिए सीटें सुरक्षित करना परिवहन विभाग की जिम्मेदारी है। अर्थात हमने आदर्श अपने आचरण से खोया है।  इसकी जिम्मेदारी प्रबंध (व्यवस्था) के ऊपर है कि वह आदर्श   नियमों से निर्वहन करवाये।

प्रथम पैरा में उल्लेखित कारणों से जैसे ही बच्चे बड़ी क्लास या कॉलेज में पहुँच रहे हैं , मौज मजे के नाम पर वे बातें सीख और करने लगते हैं जो आदर्शों के विपरीत हैं। ऐसे में अब कहा-सुना जाता है। ।

अमित आदर्श पुरुष है , ईमानदारी से ड्यूटी करता है , रिश्वत नहीं लेता , समय से ऑफिस जाता है।
नेहा , बहुत अच्छी टीचर है , क्लास में बच्चों को अच्छा पढाती है।

जो सहज अच्छे कार्य थे , वह अब आदर्श जैसे चर्चित होते हैं क्योंकि ये सहज ड्यूटी जो सभी की होती थी , वह अब कुछ ही अच्छे तरह से निभाते हैं। स्पष्ट होता है , उच्च आदर्श तो सिर्फ किताबों में सिमट गए हैं।  और आदर्श के मानक बहुत घट गए हैं। जिससे साधारण अच्छाइयाँ अब आदर्श हो गयीं हैं।

हमारे घर ,धर्मालयों और स्कूल से बनाई जाने वाली आदर्श की बुनियाद इतनी कच्ची होगी , जो गैर ( आज के सभी सेलिब्रिटी ,और अन्य नायक जो किसी भी घर के लिए गैर ही हैं ) के प्रभाव में कुछ ही समय में ध्वस्त होते रहेगी , तो उच्च आदर्श क्या होते हैं अगली शताब्दी के भारतीय ( आज की पीढ़ी के बच्चे ,नाती -पोते)  नहीं  जानेंगे।

उन्हें बतलाया जाना होगा , जीतने पर खुलती शैंपेन की बोतल भारतीय संस्कृति नहीं है।
सेलिब्रिटी जो "लिव इन रिलेशनशिप"  में रहते हैं वह भारतीय उच्च परम्परा का हिस्सा नहीं है।
फिल्मों के कलाकारों को दिए जाते अवार्ड और उनका व्यापक प्रसारण जो उन्हें लोकप्रिय और नायक रूप में प्रस्तुत करता है। वह समाज को सुदृढ़ करने वाले कारकों को तनिक भी सहायक नहीं होता। वे समाज और देश विकास के लिए नायक नहीं खलनायक हैं। जो बच्चों और युवाओं का बेशकीमती समय लेकर उन के दिमाग में  अप संस्कृति के बीज डालते हैं। और समय अपने पढाई और व्यवसाय पर खर्च करने पर चूक के कारण वे साधारण ही रह जाते हैं।

उनका जो ऊपर उल्लेखित हैं कुछ नहीं जाता , उन्हें देश और समाज के प्रति अपने दायित्वों का बोध ही नहीं रह गया है।  वे आर्थिक सफलताओं और विलासिता और कामुकता में नैतिक दृष्टि खो चुके हैं , वे अपने कृत्यों से ख़राब होते देश और समाज के वातावरण को देखने में समर्थ नहीं रह गए हैं।  लेकिन हम सामान्य लोग(VIP नहीं ) जिनका परिवार और बच्चों की सामान्य सफलताएं ही जीवन निधि होते हैं , बहुत कुछ बिगड़ता है।  अगर हम सभी समय पर नहीं जागे (अब भी समय है ) तो इस शताब्दी में ही हम ऐसी बातों को आदर्श जैसा कहा और बताया जाना देखेंगे।

गरिमा का  परिवार आदर्श परिवार है देखो उनके बच्चे दस -बारह वर्ष के हो गए तब भी कितने आदर से अपने बड़ों से पेश आते हैं।
विवेक और सुनिधि कितने आदर्श पति-पत्नी हैं , विवाह को पंद्रह वर्ष होने पर भी साथ ही रहते हैं।

जरुरत है उस सोच में परिवर्तन की , जिसमें  हम सामाजिक दृष्टि से खलनायकों को अपना आदर्श बना उन्हें अपने ह्रदय , घरों की दीवार और अपने फेसबुक प्रोफाइल और  लाइक में स्थान देते हैं और उनके फॉलोवर हो उन्हें तो पुष्ट और लोकप्रिय करते हैं और स्वयं इतना नीचे रह जाते हैं कि साधारण आदर्श भी हमारे जीवन कर्म और आचरण का हिस्सा नहीं रह पाते हैं।

राजेश जैन
01-06-2014

Friday, May 30, 2014

अल्पवय बेटी

अल्पवय बेटी
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मेरी बेटी टेलीफोन पर  ( हमने मोबाइल फ़ोन नहीं दिलाया था ) , अपनी एक फ्रेंड से पढाई (स्टडी) के सिलसिले में अक्सर  बातें किया करती थी।  एक दिन जब उसकी फ्रेंड का फोन आया वह रो रही थी।  उसने मेरी बेटी को रोते रोते बताया उसके पापा की सुबह हार्ट-अटैक (हृदयाघात ) से डेथ हो गई है।

बेटी की फ्रेंड होने से उससे हम पुत्रीवत स्नेह अनुभव करते थे। अभी वह छोटी सी ही थी , ऐसे में पापा की मौत ऐसा भयानक सा दुखद समाचार शायद फोन पर कभी नहीं मिला था। ऐसा समाचार मेरी बेटी अपनी फ्रेंड को कभी कहेगी इस सोच के साथ उसकी फ्रेंड का दुःख ,पीड़ा या वेदना की कल्पना मुझे हुई।

दोनों ही उस समय सेंट जोसेफ कान्वेंट ,जबलपुर में पढ़ती थीं।  बेटी की बहुत अच्छी फ्रेंड होने पर भी उसके पापा से मेरा कोई परिचय नहीं था।  मुझे इस बात का पछतावा हुआ कि क्यों मैंने अपना स्वभाव रिज़र्व बनाया हुआ है।  निश्चित ही मेरा पूर्व परिचय उसके पापा से होता तो मै उन्हें मॉर्निंग वॉक के लिए प्रेरित करता।

डॉक्टर्स तो उपचार के लिए होते हैं किन्तु आकस्मिक आने वाले हार्ट अटैक्स के लिए हर बार रोगी उन तक पहुँच ही जाए ऐसा नहीं हो पाता।  नियमित वॉक इस आकस्मिक और घातक (fatal) रोग के खतरे को निश्चित ही कम करता है।

हम इस बात का अवश्य चिंतन -मनन रखें  "जब तक हम अपने और और औरों के चहेते हैं या /और हमारी उपयोगिता उनके लिए हैं"   हम अपनी अपेक्षाओं के साथ उनके लिए भी अपने जीवन को बनाये रखने के गंभीर प्रयास करें। वैसे तो मौत का समय होता है और  जीवन पर आसन्न खतरे अनेकों हैं। किन्तु हमें अपनी लापरवाही से अपना जीवन नहीं खोना चाहिए।

पढ़ने वाले सभी पापा या मम्मी हैं , नहीं हैं तो किसी के कभी बनेंगे। अधिकाँश का मै अपरिचित ही हूँ , किसी को मिलकर या मोबाइल पर यह सब कह नहीं सकूँगा , लेकिन अल्पवय में  पापा या मम्मी का खो देना किसी बच्चे के ऊपर यह गहन दुःख ना आये , इस हेतु पोस्ट के माध्यम से सन्देश अवश्य देता हूँ।

"सभी स्वस्थ , विचार ,कर्म ,दिनचर्या और जीवनशैली  अपना कर स्वयं और इस समाज को स्वस्थ बनायें "

और मिले जीवन को पूरा जिया जाना अपने सामर्थ्य से सुनिश्चित करें।  असमय हमारी मौत हमारे प्रियजन पर एक तरह का अभिशाप सा ही होता है। 

--राजेश जैन
31-05-2014

Thursday, May 29, 2014

प्रचलन (फैशन -fashion)

प्रचलन (फैशन -fashion)
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आज तक किसी ने ऐसा सोचा नहीं , ऐसा प्रस्ताव नहीं किया कि देश के विकास कार्यों के लिए , काम पड़ते वित्तीय संसाधनों के कारण वह टैक्स (इनकम टैक्स आदि ) ज्यादा भुगतान करना चाहता है।

बहुत लोगों के पास बहुत धन नहीं था , किन्तु कुछ के पास बहुत धन था।  ऐसा कोई प्रस्ताव हो सकता था।  लेकिन नहीं हुआ। क्योंकि जो चलन बना दिए जाते हैं सामान्यतः उसे ही फॉलो किया जाता है।  ऐसा चलन नहीं बन सका।  बल्कि यह चलन हुआ कि ज्यादा से ज्यादा धन बचा लिया जाए। सब उसी चलन को फॉलो करने लगे। परिणाम यह हुआ कि अधिकाँश अभाव में रह गए और कुछ के पास कई पुश्तों के बिना कुछ करे जीवन यापन के अग्रिम प्रबंध हो गए।
यह किसी ईर्ष्यावश लेख नहीं किया गया है बल्कि इसलिए लेख किया गया है कि हमने अच्छे चलन दे सकने वालों की उपेक्षा कर दी। जिन्होंने स्वार्थ को प्रधानता दी ऐसे को ज्यादा सम्मान दिया प्रतिष्ठित किया। जिससे समाज और व्यवस्था इस तरह की हो गई जो अप्रिय लगती है।
वास्तव में पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में आदर्श महत्वहीन हुए , प्रमुखता खराबियों को मिली।  ऐसे लोग चर्चित हुये जिन्होंने जीने के सरल किन्तु आदर्शहीन ढंग को दुष्प्रेरित किया।

ये लोग फिल्म के माध्यम से दिखाते तो उच्च आदर्शों को रहे , लेकिन निजी जीवन में भोग और काम प्रवृत्तियों में लीन रहे .  उनके निजी जीवन को  पत्र -पत्रिकाओं  और  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने लोकप्रियता पाने और  अधिक धन बटोरने की दृष्टि से ज्यादा प्रसारित किया ।
दर्शकों- पाठकों ने फ़िल्मी पर्दों पर आदर्श देखा  ,इन पात्रों को निभाते लोगों को  निजी जीवन में विलासिता और कामुकता में लिप्त देखा।  भारतीय दर्शक जिनकी मानसिक समझ अपनी उम्र की अपेक्षा कम मानी गई है ने जो ग्रहण किया वो ऐसा था "आदर्श दिखाने या अभिनीत करने की चीज है , लेकिन जीवन विलासिता और कामुकता का नाम है।

इसी तरह जिस और एक श्रेणी के लोग ज्यादा चर्चित हुए वे तथाकथित राजनेता हैं।  जिन्होंने भाषण में तो त्याग और आदर्शों का बखान किया किन्तु निजी तौर पर सारे गलत धंधों और भ्रष्टाचार में लिप्तता दिखाई। उन्हें कुछ वर्षों के राजनैतिक जीवन में मध्यम या निम्न वर्ग से निकल कर उच्च वर्ग में पहुँचते देख फिर भारतीय भोला श्रोता यही निष्कर्ष निकाल सका कि "आदर्श और त्याग की बातें कहने के लिए अच्छी होती है , करने के लिए धन बटोरने के उपाय ही होते हैं"।

स्पष्ट है कि चलन ही नहीं बन सका अपने से ऊपर उठ कर समाज ,देश या मानवता की साधारण व्यक्ति सोच पाता।
जो कुछ ऐसा सोचते हैं आज भी कम नहीं हैं किन्तु उनकी चर्चा करने की किसी को फुर्सत नहीं। इस तरह से तो लोग जन्मते रहेंगे मरते जायेंगे।  सरकारें आती रहेंगी और बदलती रहेंगी , बुराई और समस्यायें अपनी जड़ें मजबूत ही करेंगी

--राजेश जैन
30-05-2014

Wednesday, May 28, 2014

भारतीय नारी

भारतीय नारी
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मेरी देहयष्टि या मुख के आकर्षण पर ना जाओ ,यह कुछ दिन रहेगा फिर शायद ना रहे।
आकर्षित होना है तो मेरे गुणों और आदर्शों से आकर्षित रहो जो दिन प्रतिदिन निखरेंगें।

भारतीय बहन और बेटी
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मुझे सभी पुरुष में सामान्यतः भाई या पितृवत स्नेह देखने के संस्कार हैं।  आप कृपया इन संस्कारों के अनुरूप चलने के लिए , बाजार और कार्यस्थल का वातावरण निर्मित करें।  और यदि मुझ से स्नेह उमड़ता भी है तो भाई सी रक्षा का दायित्व निभाएँ.

भारतीय बहु
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मुझे बताया गया है मुझ पर दो परिवारों (कुल) के मान -सम्मान रक्षा का कर्तव्य होता है।  मुझे बहकाने का प्रयास ना करें।  मुझे इनकी प्रतिष्ठा बढ़ानी है , मुझे अपने कर्तव्यों से विमुख करने के प्रयास में आपको विफलता ही मिलेगी. .

भारतीय नारी दायित्व
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चाहे हम माँ , बहन , बहु ,बेटी या पत्नी जो भी हों , दुनिया की अन्य नारियों को "भारतीय गरिमामय नारी " चरित्र की प्रेरणा देना अपना कर्तव्य मानते हैं। इस देश की नारी जो किन्हीं प्रलोभनों या भ्रमित कर दिए जाने के कारण यह गरिमा खो रही हैं , उन्हें सही दिशा और गरिमा वापिस दिलाना चाहते हैं।

भारतीय पुरुष को भी नारी को आदर से रखने और उसके रक्षक होने के संस्कार होते हैं आप कृपया इसका पालन कर वह वातावरण हमें उपलब्ध करायें ताकि हम अपने कर्तव्यपरायणता में सफल हो समाज और भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व को सुखी बना सकें

--राजेश जैन
29-05-2014 

Tuesday, May 27, 2014

क्या हम स्वतंत्र हैं ?


क्या हम स्वतंत्र हैं ?
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हम किन्हीं भय (डर) से अच्छे बनते हैं। या अपनी अच्छाइयों से अच्छे होते हैं। दोनों ही अच्छी बात है।
उदाहरण :- सड़कों पर वाहन इस डर से सावधानी से चलाते हैं कि कोई दुर्घटना में फँस जायेंगे तो लोग पिटाई कर देंगे ,अपमान कर देंगे।
                अथवा
                बिना भय के यह सोचते हुए ड्राइव में सावधान रहते हैं कि कोई दुर्घटना ना हो जिसमें किसी को ऐसी शारीरिक या आर्थिक हानि हो सकती है  जिसकी क्षतिपूर्ति संभव ना हो।

दोनों ही तरह से हम सावधान और अनुशासित रह सकते हैं। लेकिन स्वभाव से ही अच्छा होना , भय से अच्छा रहने की तुलना में ज्यादा अच्छा होता है।
हम स्वतंत्र हैं।  इसका अर्थ यह होता है हम तंत्र (अपने व्यवहार और कामनाओं ) पर स्व नियंत्रण रखते हैं। लेकिन यदि कानून या समाज (तंत्र) के भय से हम नियंत्रित अगर होते हैं तो क्या हम स्वतंत्र हैं ?

-- राजेश जैन
28-05-2014

Monday, May 26, 2014

लेख और तर्क ( or Post & Comments )

लेख और तर्क ( or Post & Comments )
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                                       " लेखनी से अपनी बुराई की दिशा मोड़ दो
                                           जो बढाती बैर है उस लेखनी को तोड़ दो
                                         समस्यायें समाज की हमारी अपनी ही हैं
                                         सुलझाकर समाज से बुराई पीछे छोड़ दो "

सभी की भाँति लेखक को नित्य ही विचार आते हैं जो (कुछ के जैसे) लेख या पोस्ट के रूप में फेसबुक और ब्लॉग पर प्रस्तुत किये जाते हैं। इन पर  बहुत से तर्क बहुत ही अच्छे होते हैं , जिनसे लेखक अपना चिंतन सुधारने में सुविधा पाता है।  कुछ मित्रों के तर्क और कमेंट्स पर लेखक की लेखनी चुप भी रहती है। इसका कारण यह नहीं होता कि लेखक कुछ लिख नहीं सकता , बल्कि इसलिये कि जिन सीमाओं का निर्धारण अपनी लेखनी के लिए किया है और जिन सामाजिक आव्हान को लेखनी समर्पित है ,चर्चा की दिशा वहाँ से भटक जाने की आशंका होती है।

लेखक का उद्देश्य अराजनैतिक , व्यक्तिगत आक्षेप रहित और धर्म विवाद से परे होकर लिखना है।  लेखक ने इन्हें प्रकाशित करने के लिए कभी प्रयास भी नहीं किया है।  सामाजिक दायित्वों को स्वतः अनुभूत कर इसे एक दिनचर्या बनाई है।

"सर्वसम्मत" , लेखक की लेखनी से कभी लिखा जा सकेगा इतना अति आशावाद भी नहीं है।  क्योंकि सर्वसम्मत तो प्रवर्तक भी प्रस्तुत नहीं कर सके हैं।  हाँ , परिस्थितियों में लेखक क्या करने की सोचता है या समाधान जानता है , वह ही लेख होता है। लेखक का विश्वास है , सभी तो नहीं , काफी अधिक समस्यायें और बुराई सुलझ सकती है , यदि थोड़े विवेक विचार की आदत हम सभी बनायें। लेखक यह करता है।

लेखक राजनैतिक , प्रेम प्रसंगों पर , सिनेमा हस्तियों पर लिखता तो ज्यादा चलता , लेकिन चले या ना चल सके "दायित्वों और कर्तव्य को अनुभव करने को प्रेरित करना लेखन का लक्ष्य " होता है । अधिकारों की बात तो साधारणतया हर जगह कही और सुनी जाती है। धन ,मान या अन्य अपेक्षाओं को कोई स्थान नहीं है। इसलिए विनम्रता से अनुरोध कि किसी को तुष्ट करने के लिए नहीं , मानवता के पोषक के रूप में ही अपनी पहचान रखना लेखक का अभिप्राय होता है।

--राजेश जैन
27-05-2014

फेसबुक पर अजीब चलन


फेसबुक पर अजीब चलन
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फेसबुक पर प्रोफाइल पिक. प्रत्येक व्यक्ति को डालनी होती है , लगभग 50 % तो अपनी फोटो सेट करते हैं।   शेष 50 % में से कुछ को छोड़ें तो 80 % से अधिक (विशेषकर भारतीय नवयुवा ) सिने कलाकारों की फोटो लगाते हैं।   उद्देश्य क्या होता है अभी  उस पर ना जायें।


अगर स्वयं की फोटो ना लगानी थी , तो fb यूजर अपनी माँ या पिताजी की फोटो भी लगा सकते थे , जिनकी फेसबुक पर id भी शायद नहीं बनी होती है।  अगर ये ऐसा करते तो उनके प्रति आदर भी होता और न्याय भी होता जिन्होंने बच्चों को बनाने में अपना जीवन समर्पित कर दिया होता है।


लेकिन fb यूजर सिने कलाकारों फोटो लगाने में गौरव अनुभव कर रहे हैं , जो उन्हें देते कम हैं उनसे ले लेते बहुत कुछ हैं। सिने कलाकार स्वयं तो इस तरह लोकप्रिय हो जाते हैं . अपने प्रशंसकों का बहुत समय फिल्म ,और उनको निहारने में लगा कर , उनकी चर्चा में लगाकर उससे सम्मान और धन वैभव बहुत बनाते हैं। प्रशंसक स्वयं अपनी पढाई ,व्यवसाय में पिछड़ते हैं।  उनका जैसा बनने के लिए अपनी जीवन शैली बिगाड़ते हैं , जिससे स्वयं का और परिवार का कोई भला  नहीं कर पाते हैं ।


सिने कलाकारों की फोटो को प्रोफाइल पिक. बनाने के पहले सोचें , जिन्होंने एक सदी में भारत की रीति नीति , परंपरा और संस्कृति को बुरी तरह बदल दिया है ,के प्रशंसक बनने के स्थान पर अपने पालकों के प्रशंसक वे बनते हैं तो उनके अपने पर ऋण की कुछ भरपाई वे कर सकते हैं ।


राजेश जैन
26-05-2014

Sunday, May 25, 2014

बकरा ?

बकरा ?
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टीवी पर कल एक प्रोग्राम देखा। एक अंधी स्त्री के चैरिटी के लिए एक टीवी आर्टिस्ट सड़कों पर नीबू-मिर्ची वाहनों ,दुकानों पर और घरों के लिए लगाते/देते रुपये एकत्रित कर रही थी।  ऑटो , दो पहियों चालकों से 20 रुपये मिलने लगे तो , कारों से 30 रुपये लेने आरम्भ किये वह भी सरलता से मिलने लगे तो यह कहते हुए  अब बड़ा "बकरा" ढूंढते हैं जिनसे ज्यादा रुपये मिल सकें।  और फिर एक बी एम डब्ल्यू (BMW) कार तक पहुँच कर उसके मालिक को सहमत करा कर   नीबू-मिर्ची लगा कर 100 रुपये प्राप्त कर खुश होती है।

टीवी कलाकार का प्रयास अच्छा था , बशर्ते उसका सरोकार स्वयं की प्रशंसा बटोरने से ज्यादा , सहायता का रहा हो।

जिस बात के लिए फिल्म और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मियों पर  लेखक की पोस्ट में आलोचना होती है कि इन्हें फॉलो करने वाले जब अनेकों होते हैं तो इनकी जिम्मेदारी बढ़ती है ,जिसे ये गंभीरता नहीं देकर सिर्फ अपने मौज -मजे में लगे रहते हैं। और समाज को सिर्फ मौज-मजे को दुष्प्रेरित करते हैं।  यही फिर यहाँ देखकर अखरता है , फिर आलोचना लिखने का मन होता है .

इनका सामाजिक दायित्व होता है कि ये भारतीय समाज में जो सामाजिक सोहाद्र और परस्पर सम्मान रहा है उसको और बेहतर करें।  लेकिन ऐसा ना कर सिर्फ स्वयं को नायक दिखाने की कोशिशें ही करते हैं। स्वयं के लिए धन वैभव और विलासिता को ही प्रोन्नत करते हुए , ऐसे ही अपने प्रशंसकों को मन में विचार और सपने डालते हैं।  जिससे सामाजिक कर्तव्यों से सभी उदासीन होकर अपने अपने स्वार्थ के लिए जीने की प्रवृत्ति ही बढ़ाते हैं।

यहाँ जिस बी एम डब्ल्यू (BMW) कार मालिक से 100 रुपये प्राप्त किये हैं ,ज्यादा सहायता पाने के एवज में उनसे पूरे सम्मान से पेश आना चाहिए , लेकिन पीठ पीछे उनके लिए "बकरा"  शब्द का प्रयोग अनुचित है।  जब उन्होंने इस प्रोग्राम को टीवी पर देखा होगा तो उन्हें कितना बुरा लगा होगा। साथ ही ऐसी ही भाषा चलन में बढ़ती है तो सामाजिक स्नेह ,सौहाद्र , परस्पर सम्मान और सहयोग कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है।

क्या इसके लिए भी सरकार और व्यवस्था ही जिम्मेदार है ?

राजेश जैन
27-05-2014

जहाँ समाधान नहीं है वहाँ खोजेंगे तो क्या खोज पायेंगे ?

जहाँ समाधान नहीं है वहाँ खोजेंगे तो क्या खोज पायेंगे ?
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हम सेवाओं में भ्रष्टाचार कर रहे हैं ,
हम शिक्षण में मेहनत नहीं कर रहे हैं ,
हम शिक्षा समय को व्यर्थ कर अधूरे से ज्ञान के साथ डिग्री ले रहे हैं ,
हम व्यापार में मिलावट कर अधिक लाभ की जुगत कर रहे हैं,
हम भाषा ,क्षेत्र और धर्म को आधार बना कर अन्य से सौहाद्र नहीं रख रहे हैं,
हम अपने बुजुर्गों को आदर और सही देखरेख नहीं कर रहे हैं ,
हम रोगियों के उपचार से ज्यादा अपने लाभ ( धन अर्जन ) को प्रमुखता दे रहे हैं,
हम दूसरे परिवार की नारी की गरिमा को मान नहीं दे रहे हैं,
हम गरीबों की सहायता में पिछड़ रहे हैं,
हम धन लालच देकर विभिन्न लाभ (यात्रा रेजरवेशन, सरकारी नौकरियां , उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश आदि ) दूसरे से छीन अपने पक्ष में कर रहे हैं ,
हम धन लालच दे न्याय अपने पक्ष में करवाने का प्रयास कर रहे हैं ,
हम कीमत लेकर अपराधी को दंड से बचा रहे हैं ,
हम इस देश में रहकर उसे ही अपना नहीं मान रहे हैं,
सरकार के राजस्व जिनसे विकास के कार्य होते हैं , उसे पूरा करने के लिए अपने टैक्स ना भर रहे हैं,
और देश और समाज में उपजी सारी बुराई और समस्या का कारण अपने में नहीं देख ,दूसरे में देख रहे हैं,

इन सारे अपने  गैर जिम्मेदारी पूर्ण कृत्यों के बाद नई सरकार से आशा कर रहे हैं , वह देश की व्यवस्था ठीक कर दे , हमारा समाज अच्छा बना दे.

क्या सरकार इन्हें ठीक करने के लिए आगे बड़े तो ,दो कदम आगे आकर हमें सहयोग नहीं करना चाहिए?
अगर भावना सहयोग की नहीं रहेगी तो अगले आम चुनावों  में भी हम नया विकल्प ढूंढते और लाते रहेंगे। समस्याएं यों ही रहेगी और बढ़ती जायेंगी।

जहाँ समाधान नहीं है वहाँ खोजेंगे तो क्या खोज पायेंगे ?

--राजेश जैन
25-05-2014

Saturday, May 24, 2014

शुभ कामनाएं , सद्बुद्धि के लिए

शुभ कामनाएं , सद्बुद्धि के लिए
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वह आदर्शों की बात करता हुआ ,चर्चा में आया था। उसने तथा कुछ और इस तरह के (आदर्शों की बात करने वाले )  लोगों ने मिलकर एक ऐसे संत को जो देश हित में पहले कुछ आंदोलन , धरने और उपवास रख चुका था को चर्चित से बहुत चर्चित बना दिया था। देश की राजधानी में और मीडिया (समाचार चैनेलों ) पर उन दिनों सिर्फ इनकी ही चर्चा रहने लगी थी. लाखों ने प्रत्यक्ष और करोड़ों ने परोक्ष रूप से देश -संविधान और व्यवस्था में सुधार कर देने वालों के रूप में उन्हें मानना आरम्भ कर दिया था।

ये सब तत्कालीन सरकार से वैसे बदलाव चाह रहे थे ,जो यदि सरकार स्वीकृत करती तो स्वयं उनके अनेकों मंत्री और अन्य नेता ही जेलों में चले जाते। स्वाभाविक था ऐसे आत्मघाती परिवर्तन उनके द्वारा संभव नहीं थे. सरकार ने साम दाम दंड का सहारा लेकर उस आन्दोलन को तोड़ दिया।

इस बीच जो चर्चा और लोकप्रियता इस समूह को मिली उससे समूह के लोग अपनी निजी महत्वाकांक्षा के शिकार हुए। और इनके वशीभूत सत्ताधारियों की  राजनीति जिसने आंदोलन तोडा था।  उस सत्ता को प्राप्त करने की राजनीति उसने आरम्भ की। विधि को जो मंजूर था वह हुआ , एक चुनाव में आशातीत सफलता मिली।  इस सफलता ने  उल्लेखित महत्वाकांक्षा के साथ ही उसमें अभिमान भी भर दिया।  अभिमान चूँकि अंधा होता है , इसलिए उसे यह नहीं दिख सका कि अभी जड़ पुष्ट नहीं हो पाई है।  उसने कृत्रिम उपाए से आशा का एक वृक्ष जल्दबाजी में खड़ा कर दिया।

नवगठित दल ने ऐसे अनेकों को अपनी पार्टी से चुनाव लाडवा दिया , जिनकी देश हित की प्रतिबध्दता अभी जनता जानती ही नहीं थी।  जनता उनकी उस ईमानदारी को भी अभी शंकित थी जैसी इस नेता में दिखाई देती थी।  फलस्वरूप आशा के इस वृक्ष का वही सिला हुआ , जो कमजोर जड़ के ऊपर खड़े किसी वृक्ष का होता है। आशा का वृक्ष धराशाई हो गया था। वह हास्य का पात्र बन उस वृक्ष के नीचे पड़ा था।

जैसा होता है जब असफलता होती है आपस में दोषारोपण होता है और बिखराव आरम्भ हो जाता है। उस दल में भी वही होने लगा। भूल जल्दबाजी की थी। पहले मिले छोटे अवसर पर धीरज से कुछ करके दिखाना था। जड़ें जमीन के अंदर पुष्ट और विकसित होने में समय लेती हैं। उतना समय दिया जाना था। अंदर पात्र अपात्र की पहचान होती जाती , ऊपर काम दिखते जाते , किस्मत से देश के ह्रदय स्थल में करने का अवसर था। जिसकी छोटी छोटी बातें ,घटना पूरे देश में मीडिया दिखलाता है। प्रचार और छवि निखारने के अवसर कम प्रयास में ही मिले  हुए थे।

अंधा अभिमान उस पर ना चढ़ता तो देश एक विकल्प निकट भविष्य में प्राप्त करता। कम से कम सत्ता पक्ष पर एक ऐसा दबाव तो रखता ही ,जो सरकार के कार्य देश हित में सुनिश्चित करवाता।

सबकुछ अभी दो -चार साल की ही उपलब्धियाँ थी यानि खोने को बहुत कुछ नहीं था।  जो खोया निजी कम ही था। हाँ देश के नवयुवाओं का और नए नए बने प्रशंसक का एक भरोसा जो इस पूरे क्रम में खोया वह अवश्य थोड़ा बड़ा था।  देश की जनता का स्मरण ज्यादा स्थायी स्वभाव का नहीं होता।  पाँच वर्ष के अवधि में पुराने रिजेक्टेड पुनः सत्तासीन , और सत्तासीन रहे वे सत्ताहीन होते हुए अनेकों अवसर पर हम देखते हैं।  

असफलता मिली है , आरम्भ में निराश करती है लेकिन धैर्य से विचार करे तो वह संभावनाशील व्यक्ति है। असफलता से सबक ले सकता है। की गई भूलों को ना दोहरा कर , नई शुरुआत कर सकता है। जमीनी कार्य करता हुआ पाँच वर्ष में वह जमीन तैयार कर सकता है , जिससे पाँच वर्ष पश्चात यदि आज बन रही सरकार विफल होती है तो आपने आशाओं का महल निर्मित कर सकता है।  अगर यही सरकार जन अपेक्षा पर खरी उतरती है तो उसे विरोध करने की आवश्यकता नहीं होती है।  देश को विकास और उन्नति चाहिए।  उसके लिए यह सब गौड़ है , यह कौन या कौनसी पार्टी उसे करके देती है।

निजी अपेक्षाओं ,महत्वाकांक्षाओं को तज कर वह पुनर्स्थापित हो सकता है।  उसे जनता और देश के लिए उपलब्धियों को प्राथमिक करना होगा , निज मान ,निज नाम और निज श्रेय को सेकेंडरी करना होगा।  देश विकास करे ,उन्नति करे उसके प्रयासों में नाम मिल जाए ,मान मिल जाए या ना मिले इससे निष्फिक्र सिर्फ अपने लक्ष्य को बढ़ना होगा।

यह इतिहासकारों पर छोड़ देना होगा कि कैसा श्रेय या कितना वे उसे देते हैं। झपटने से मिला एक अपराध बोध भी देता है , सहज मिले उससे संतोष ही मिलता है  . वह संतोषी बने , लेखक मानता है , उसमें कोई बात तो है वरना दो चार वर्ष में इतनी उपलब्धि उसे नहीं मिलती।

शुभ कामनाएं , उसको सद्बुद्धि के लिए ……  

राजेश जैन
25-05-2014

Friday, May 23, 2014

नवयुवाओं का कर्तव्य


नवयुवाओं का कर्तव्य
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युवा होने का अर्थ सीमित नहीं होता। युवा को मात्र घर की आजीविका अर्जन कर , अपने पालकों से यह जिम्मेदारी अपने कंधे पर ले लेना या साथ उठाना ही नहीं  होता है। युवा हैं इसलिए सिर्फ विपरीत लिंगीय के प्रति आकर्षित रहें , या सिर्फ उन्हें रिझाने के उपाय ही करें. ऐसे कुछ अर्थ ही नहीं होते हैं युवा होने के। युवाओं को सिर्फ 18 वर्ष में देश का राजनीतिक विकल्प यानि सरकार चुनने के लिए मताधिकार मिल जाता है। अर्थात वह देश की नीति , व्यवस्था और विकास के लिए मत रखने का अधिकारी होता है। इसलिये युवा का कर्तव्य राष्ट्र निर्माण का होता है।

राष्ट्र निर्माण , समाज के माध्यम से होता है।  इसलिए युवाओं को जब मताधिकार मिलता है तो उनका कर्तव्य समाज के प्रति भी होता है। इसलिए  सिर्फ अपनी युवावस्था की सहज अनुभूति ( विपरीत लिंगीय आकर्षण ) के चलते सिर्फ उसमें ही खो जाना ,अपने कर्तव्यों को भूलना ही है।  वह देश जिसमें 50 प्रतिशत से ज्यादा नवयुवा हैं।  उसका लगभग सारा दारमोदार युवा कन्धों पर है।  अपनी स्वछंद हरकतों से उसने उस समाज व्यवस्था को क्षति नहीं पहुँचानी चाहिए , जो भारतीय संस्कृति और संस्कारों अनुरूप निर्मित हुआ था। बदलाओ की दिशा बेहतर होनी चाहिये। परिवर्तन क्षति पहुँचाने वाले हों तो ऐसे परिवर्तनों से यथा स्थिति भली होती है।

भारतीय परिवारों में अंधविश्वासों और कुछ अवैज्ञानिक रीति रिवाजों से कुछ तरह की खराबी आ गई थीं।  तब भी परिवार पक्के सूत्रों से बँधे हुए थे।  विवाह होने के बाद दाम्पत्य में स्थायित्व होता था।  प्रगतिकारी बदलाव अच्छे थे। नारी भी घर के बाहर आ अपनी क्षमता अनुरूप अर्निंग मेंबर हो अच्छी बात थी ।  नारी में भी आत्मविश्वास पैदा हो अच्छा  था।  वह पढ़ लिख रही थी  यह भी बहुत अच्छा था।

किन्तु घर के बाहर नारी की अधिक हुयी उपलब्धता को पुरुष वर्ग द्वारा सिर्फ उनसे शारीरिक तौर पर सम्बन्ध की संभावना बढ़ने की दृष्टि से देखना , और उन्हें रिझाने के एक सैकड़ा उपाय करना अच्छा नहीं है।  नारी भी आधुनिक दिखने के नाम पर ये सब अंगीकार करे ठीक नहीं है।

नवयुवा पुरुष और नारी , दोनों ही सोचें , क्या उन्हें ऐसा जीवनसाथी /जीवनसंगिनी पसंद होगी जिसके 4 -6 से शारीरिक संबंध रहे हों।  भारतीय संस्कारों के लालन -पालन में पति -पत्नी के रूप में उन्होंने परस्पर निष्ठा देखी और जानी होती है।  स्वयं भूल करे किन्तु , स्पाउस की भूल शायद ही किसी को पसंद होगी।  लुका छिपी का अवैध संबंधों का खेल ज्यादा छिपता नहीं।  यह सब को समझना होगा। और उजागर होने पर विवाह विच्छेद होते हैं। यह भी समझना होगा। यह भी समझना होगा जिन पति-पत्नियों के वैवाहिक सम्बन्ध टूटते हैं ( जिनमे भारतीय समाज में भी पश्चिमी देशों की तरह वृध्दि हो रही है) उनके बच्चे किस तरह असुरक्षित और हीनता के शिकार होते हैं.  अवैध संबंधों के कारण  ब्लैक मेलिंग के शिकार होने पर मानसिक और सामाजिक मान की क्षति की पूर्वकल्पना करना भी उचित होगा। अपने कर्तव्यों को समझ इस भव्य भारतीय समाज संरचना का बचाव करना होगा।  इसे पाश्चात्य समाज ना बनने देना होगा।

इसलिये सेक्स लालसा में ही ना खोना , और यौन संबंधों के लिए अधिक साथियों की चाह से बचना होगा।  भले ही व्यवसायिक कंपनियां अपने प्रोडक्ट को प्रोन्नत करने के लिये ,इन्हें सुरक्षित और आनंद देने वाला अपने आकर्षक विज्ञापनों में प्रदर्शित करती हों। अगर एकाधिक संबंधों की चाह में सभी भटकेगें तो कैसे एकनिष्ठ जीवनसाथी/जीवन संगिनी किसी को मिल सकेगी ?

युवा उम्र में ही दूरदृष्टि विकसित करनी होगी।  युवा उम्र की भूलें ,आगामी जीवन को अभिशापित करती हैं , यह भली-भांति इसी उम्र में देख लेने पर आज के युवा अपना पूरा जीवन और अपने परिवार के सुख ,आनंद ,हर्ष या प्रसन्नता को बचा सकते है।  अपने समाज के हित सुनिश्चित कर सकते हैं।

वस्तुतः घर के बाहर नारी निकली है , या उसे माँ-पिता-भाई-पति ने बाहर की सहमति दी है। तो वह उसकी उन्नति के लिए या उन्नति की अपेक्षा से है।  उस नारी का परिवार भी वही या वैसा होता है ,जैसा  हम सभी का है। अर्थात जहाँ बेटी ,बहन ,पत्नी या बहु से अपेक्षा उसके सुशील रहने की होती है। जहाँ चाह तो वही विद्यमान रहती है कि नारी घर के बाहर भी सम्मान ,आत्मविश्वास और कुछ धन भी अर्जित करे।  लेकिन अपने को चरित्रवान रख कर।  अपनी कमलोलुपता के वशीभूत  उपहारों , होटलों के खानपान या कुछ शीघ्र धनार्जन के सपनों से उसे हम ना बहकाएं।  घर से बाहर जिस भी अभिलाषा , या किसी बाध्यता में वह आई है  उसे बाजारू बनने की ओर ना मजबूर करें।  बल्कि उस दायित्व (अपने / उसके ) को समझें ,जिससे भारतीय नारी की लाज और गरिमा का बचाव किया  जा सके जो हमारी संस्कृति में हम (पुरुष ) उसे  देते थे , या स्वयं नारी उस उच्च स्थान पर आसीन रहती थी .

और इस तरह हम ही अपने देश का भविष्य सुखद बना सकते हैं।  निर्मित होने वाली देश की नई सरकार के दायित्वों और उनके अच्छे कार्य के मंतव्य को इस तरह सहयोग दे सकते हैं.

राजेश जैन
24-05-2014

Thursday, May 22, 2014

सही दृष्टिकोण

सही दृष्टिकोण
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रिज रोड जबलपुर में हेल्थ अवेयरनेस और इसलिए भ्रमण (वॉक ) को प्रोत्साहित करने के लिए आर्मी ने आज "वॉकेथान" का आयोजन किया था , जिसमें आर्मी परिवार के साथ सिविलियन्स को भी पार्टिसिपेशन का अवसर था। लेखक रिज रोड पर पिछले 11 वर्षों से नियमित भ्रमण को जाता है और इसलिए पहली बार किये जा रहे इवेंट में हिस्सा बनना उसे अपना कर्तव्य अनुभव हुआ।

सपत्नीक पार्टिसिपेशन , जिसमें लग...भग 500 और पार्टीसिपेंट्स थे के साथ वॉकेथान का आनंद लिया। वॉकेथान भी उसी उद्देश्य से आयोजित की गई थी ,जिसके लिए यह ग्रुप निर्मित है " हम सभी में स्वास्थ्य सुनिश्चित करने वाली नियमित प्रातः कालीन भ्रमण की दिनचर्या की प्रेरणा सभी को मिले ".

आयोजन बहुत अच्छा था , बैंड , कबूतर (शांति प्रतीक ) और गुब्बारों को उड़ाने के साथ वॉकेथान को फ्लैग के साथ आरम्भ किया गया , लगभग दो कि मी की वाक में सभी आयु वर्ग के पुरुष -नारी ने उत्साह से भाग लिया।

हमारे रेगुलर तीव्र गति से वॉक करने वाले एक मित्र से लेखक ने पूछा , आप विनर रहे हैं क्या ? उन्होंने कहा जो दौड़ लगा रहे थे उन्होंने जीती है। खैर जीत कोई महत्व नहीं रखती थी। पार्टिसिपेशन के साथ हमें उस उद्देश्य को जिताना था जिसमें वॉक को प्रोत्साहित कर सभी के स्वास्थ्य को बल मिलता हो।

एक युवती , जिससे वॉक के बीच कभी विश का आदान -प्रदान होता है , उससे पूछा कि आपने इसमें हिस्सा क्यों नहीं लिया। उसने शिकायत के स्वर में कहा सर , सिविलियन तो सिविलियन हैं।
आर्मी के आयोजन में आर्मी के कुछ रिवाज होते हैं , जिसमें सिविलियन को कभी नेग्लेक्टेड सा लगता है। किन्तु चीज को पूरा देखा जाना उचित होता है

आर्मी ,जबलपुर में रिज रोड पर एक बहुत अच्छा वाकिंग प्लाजा ,उपलब्ध कराती है , जिसमे सिविलियन को कोई रोक टोक नहीं है।
इस आयोजन में उन्होंने सिविलियन को भी पार्टिसिपेशन का समान अवसर दिया था .
ब्रेकफास्ट ,जल , अन्य पेय सभी को उपलब्ध कराये गए थे .
सभी को प्रेरणा देने के लिए यह आयोजन किया गया था।

इसलिए कोई शिकायत बिना इस पूरे आयोजन को स्पोर्ट्समेन स्प्रिट से लिया जाना चाहिए।

धन्यवाद , जबलपुर में पदस्थ आर्मी ऑफिसर्स , जो सिविलियन को साथ लेकर चलते हैं। और हमें यह बोध कराते हैं कि वे देश के इसलिए हमारे रक्षक भी हैं।

धन्यवाद इसलिए भी कि इस तरह का एक सफल आयोजन , और एक आनंद पूर्ण वातावरण उन्होंने रिज रोड पर दिया।

--राजेश जैन
23-05-2014

Wednesday, May 21, 2014

लड़कों से गलती

लड़कों से गलती
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हम भारत की नारी हैं
पुष्प और चिंगारी हैं
बिखेरती तो सुगंध हम
छेड़ो तो जला सकती हैं

"नारी को पुष्प और ज्वाला दोनों की विशेषतायें उचित संतुलन के साथ ग्रहण करनी होगीं "

देश में नारी शोषण की घटनायें होती हैं।
चूंकि हम सभी परिवार में रहते हैं।
हमारे घर में नारी सदस्य होती हैं।
अपने घर की नारी पर इस तरह की जबरदस्ती ना हो हम आशंकित होते हैं ।
उनके सुरक्षा के उपाय करते हैं।
लेकिन सामाजिक परिस्थितियां , अपर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था पर भयाक्रांत ही रहते हैं।
रोष में होते हैं , कहीं विरोध और आंदोलन में खड़े होते हैं।
अलग अलग लोगों के आश्वासन ,टिप्पणी और उपाय भी सुनने /पढ़ने मिलते हैं।
कुछ घटना के कारण दर्शाते हैं। कभी पीड़िता पर ही असावधानी या अन्य तरह दोष भी लगाते हैं।

सब के बीच कभी अपराधी को ही कुछ तर्कों से बचाया जाता है।
तब उत्तेजित हम होते हैं। उन को इन शब्दों में कोसते हैं। "लड़के गलती उनकी बहु बेटियों के साथ करेंगे तब समझेंगे "
लेकिन ऐसा कोसना भी नारी का असम्मान ही है , भले ही वह कुतर्की के घर की नारी के लिए कहा जाए।

नारी तो किसी भी घर की है ,हमारी संस्कृति में श्रध्दा और सम्मान की ही अधिकारी है।
इसलिये हमारे कहे शब्द और उनसे व्यवहार इतने संयत हों कि कोई कोमलहृदया नारी जाने -अनजाने में आहत ना हो जाए।

नारी कई बार दोषी भी लगती है , किन्तु उसके दोषी होने तक के क्रम और परिस्थितियों पर गौर करें तो पाएंगे कि उसे समाज की "पुरुष प्रधान शैली " ने वहाँ पहुँचाया है। वास्तव में "पुरुष प्रधानता " सहज थी। पुरुष बलशाली है ,आगे तो उसी को रहना उचित था। लेकिन रक्षक का ही भक्षक होना या ऐसी प्रवृत्ति होना खराबी है।

हम पुरुष , प्रधान होने के दायित्वों को सही प्रकार निभायें। अन्यथा प्रधान होने का भाव छोड़ें।

--राजेश जैन
22-05-2014

Tuesday, May 20, 2014

नारी -पुरुष संबंध (updated)
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बुराइयों के कारण जब तब दुखद घटनाओं के होने से  समाज और देश  ,  क्षोभ से भर जाता है।इनमें से  अधिकाँश बुराइयों का अस्तित्व मानव समाज में आदि-मानव के जन्म के साथ ही रहा है। कुछ ही ऐसी बुराई होंगी , जो आज लेख में केंद्रित बुराइयों की जड़ से ना जुडी हों।  अनेकों बुराइयों के मूल में मात्र कारण नारी -पुरुष के संबंध ही हैं। आज लेख भारतीय समाज -संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में  केंद्रित किया गया है , जिसे आगे वैश्विक परिवेश तक विस्तृत किया जायेगा। वास्तव में ज्यादातर वरिष्ठ और कुछ युवा, हम , जिन्हें आज बुराई मान रहे हैं वे निम्न -लिखित नारी-पुरुष के सम्बन्ध हैं

                              1 .  विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध
                              2 .  विवाहेत्तर शारीरिक सम्बन्ध
                              3 . अनेकों से शारीरिक सम्बन्ध
                              4 .  लिव इन रिलेशनशिप  
                              5 .  विवाह विच्छेद होना
                              6 .  विवाहित होते हुए अवैध संबंधों का रखना


जैसा उपरोक्त में लेख है ये सारी बातें आज की तरह पाषाण युग से निरंतर मानव समाज में विध्यमान रही हैं ।  जानवरों के साथ जानवरों जैसा ही गुफाओं में रहता मनुष्य मस्तिष्क आरम्भ में जानवरों सा ही था। और जैसा जानवरों में देखा जाता है , नर और मादा शारीरिक सम्बन्ध का विवेक जानवरों में नहीं रहता , जब उन्हें आवश्यक हुआ , जो उपलब्ध हुआ या जिस पर जोर चल गया उससे स्थापित कर लेते हैं , कभी यह क्रम परस्पर दो के बीच कुछ समय चलता है , फिर किसी और समय अन्य के साथ रहता है , कभी एक ही समय में अनेकों के साथ  रहता है, तो कभी एक से सम्बन्ध स्थापित होने के बाद स्थान परिवर्तित होने के साथ वह साथी बदल  जाता है । आरम्भ में मनुष्य में नारी-पुरुष संबधों का , जो जानवरों में देखा जाता है वैसा ही रूप था।  जिसमें इन संबधों की अल्पावधि और इनके लिये झगडे और हिंसा से शायद मनुष्य ने वेदना अनुभव की होगी। निसंदेह मानव मस्तिष्क की क्षमता ,जानवरों के मस्तिष्क की क्षमता से बेहतर रही थी । सम्बन्ध के बीच साथी से प्रेम माधुर्य उसे भाया होगा।  और ऐसे में उसने इस मधुर साथ को स्थायित्व देना पसंद किया होगा।  तब दो विपरीत लिंगी , लगभग हमउम्र नारी -पुरुष के बीच विवाह नाम का संस्कार अस्तित्व में आया होगा। जब साथ में स्थायित्व हुआ होगा तो संबंधों से जन्मे बच्चे में  अपना अंश रूप देख उनसे अनुराग और अपनत्व ह्रदय में पनपा होगा।  बच्चे अबोध और साथी नारी पर अन्य पुरुष की बिगड़ती नीयत ने पुरुष को नारी के साथ एक सुरक्षित आश्रय स्थल के लिए विवश किया होगा।  तब उस काल का घर , जो शायद पत्थर , मिटटी , वृक्ष टहनियों और पत्तों से बना होगा, ने अस्तित्व लिया होगा। जिसका परिष्कृत रूप आज का आधुनिक सुविधाओं और सुंदरता युक्त हमारा घर है।



इस तरह शुरुआत में कुछ मानव ने विवाह कर घर -परिवार बसाना आरम्भ किया होगा।  अर्थात कुछ तो आज के परिवारों की तरह रहने के पक्षधर हुए होंगे।  कुछ समय से पीछे चलते तब भी जानवरों सा स्वछंद और असुरक्षित जीवन जीते मर जाते होंगे।  यानि उपरोक्त वर्णित 6 तरह के मनुष्य सम्बन्ध ही तब ज्यादातर व्यापक रहे होंगे (जिसमें सभ्य समाज बुराई मानता है )।  उत्तरोत्तर (ग्रेजुअली ) इसे कुछ और मानव  स्वीकार करते गए होंगे। तब विवाहित परिवारों का घर बसा कर रहना बढ़ता गया होगा। यह संस्कृति और संस्कार शायद भारतीय समाज में पहले विकसित हुयी होगी। इसलिए इसे भव्य और भारत को मानव-सभ्यता के विकास का जनक कहा जाता रहा है ।

स्पष्ट है कि हजारों वर्षों के करोड़ों मानव अनुभव का निचोड़ और सार स्थायी परिवार और घर था , जिसमें  प्रेम ,सुरक्षा और जीवन सार्थकता का होना माना  गया था /है ।  जिसका अनुकरण करते हुए, नारी-पुरुष का विवाह बंधन में बंध एक दूसरे के प्रति प्रेम और सम्पूर्ण समर्पण से रहने की रीत विकसित होती हुई व्यापक हुई होगी। भारतीय धर्मों ने इसी संस्कृति को अनुमोदित किया था । इस तरह कुछ सदियों पहले तक भारत में विवाह और घर-परिवार ही करीब करीब सर्वमान्य जीवन -यापन का ढंग हो गया था ।

फिर विश्व के अन्य क्षेत्रों से भारत का व्यापारिक सम्बन्ध बना , उन क्षेत्र की संस्कृति भारतीय जैसी उत्कृष्ट नहीं रही थी । वहाँ (नारी-पुरुष संबंधों में ) मानव के जानवर तरह के जीवन यापन की आदत कुछ में तब भी जोर मारती होगी। वहाँ नारी-पुरुष के संबंधों में स्वछंदता ,और भोग-विलासिता में रहना प्रमुख रहा होगा। व्यापार के क्षेत्र से जुड़ने के बाद संपर्क बड़े होंगे  ,  भारत से जुड़ने के बाद भवन-निर्माण और अन्य सुविधाओं के विकसित करने की तकनीक तो वे भारत से ले गए होंगे ।  लेकिन स्वार्थवश नारी-पुरुष के संबंधों में स्वछंदता पुनः यहाँ परोस गए होंगे । पिछली सदी तक तो भारतीय परिवार में प्रेम ,समर्पण, त्याग और एकता सुरक्षित थी।  और बाह्य प्रभाव से प्रभावित होकर परिवार में बिगाड़ हुआ  था तो भी ऐसा बिरला परिवार  होता था ।


फिर भारत में सिनेमा आया उसमें आरम्भ में वे लोग जुड़े , जो शासकों के और बाह्य व्यापारियों की  जीवन शैली ( प्रभाव , सुविधा अधिकता , और भोग विलासिता और संबंधों में स्वछंदता ) से प्रभावित थे।  सिनमा में तो भारतीय आदर्शों को दर्शाया जाता था . किन्तु सिनेमा से हुए लोकप्रियता से सिने कलाकारों की निजी ज़िंदगी में झाँकने की आदत युवाओं को हो गई थी .  निजी ज़िन्दगी में कई सिने कलाकारों में जीवन शैली बाह्य संस्कृति प्रभावित थी।   विपरीत लिंगीय आकर्षण से युवा उम्र प्रभावित होती है। जितना ग्लैमर सिनेमा,सिने कलाकारों में था उतना समाज में कहीं और ना मिलने से यह युवाओं की पसंद बनता गया।  पिछली शताब्दी ख़त्म होने के पहले दूरदर्शन और फिर नेट ने पाश्चात्य जीवन शैली का दर्शन ,ग्रामीण क्षेत्रों तक सुलभ कर दिया।  इन से जुड़े लोग जल्द ही पैसे वाले होने लगे।  उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी।  इसलिए इनसे प्रभावित हो इनकी नक़ल देश में व्यापक हो गई। विवाह -विच्छेद , विवाहेत्तर सम्बन्ध ,विवाह किये बिना सम्बन्ध , लिव इन रिलेशनशिप सिने जगत में साधारण सी घटना थी।  इन्हें देख वही युवाओं में पसरने लगी। बहुत सी बातें निजी होती है।  अपना विचार और शैली होती है। 
जो जिसे पसंद और सहमति हो वह करने की स्वतंत्रता सभी को होती है।  जो करते रहे हैं वह करते रहते तो लेखक को कोई आपत्ति नहीं होती।  किन्तु इस चलन ने उन नारियों -पुरुषों को भी प्रभावित किया जो उस शैली से कोई वास्ता नहीं रखते हैं।  जिनका आज भी विश्वास भारतीय परिवार में जीवन यापन का है। वे भी प्रभावित होते हैं।  नारी को कार्यालयों -बाजारों में देखने की दृष्टि बदल गई है।  माँ सा  ,बहन सा  और बेटी सा सम्मान भारत में भी विलुप्त होता जा रहा है।  नारी अगर पराई है तो वह किसी भी उम्र की हो जानवरीय दृष्टि से ही देखी जा रही है। परिणाम स्वरूप यौन अपराध /रोगों से समाज कलप रहा है। परिवार और दाम्पत्य स्थायित्व पर संकट से जन्म लेने वाला बच्चा असुरक्षित हो गया है। 
पीड़ा यही है , मनुष्य परिवार की रीत हजारों साल में विकसित हुई थी। एकबारगी उसकी बुनियाद हिलने लगी है.हमें आहत करती है। कैसे परिवार बचायें , कैसे नारी अस्मिता बनाये रखें ? कैसे समाज दिशा मोड़ें ? यह सभी की निजी समस्या और प्रश्न होना ,चाहिये।  हमें आशा करनी चाहिए , समाज समस्या निराकृत होगी।  हमारा समाज खुशहाल होगा।


(लेख में इतिहास क्या कहता है , इससे कोई सरोकार नहीं है , मनगढ़ंत यह लेख सिर्फ सुखद-समाज रचना की दृष्टि से प्रस्तुत है। जिन पर सीधा आक्षेप किया गया है,  उसमें भी अनेकों अपवाद हैं।  अगर वे इसे पढ बुरा अनुभव करते हैं तो अग्रिम क्षमा . पीड़ा पहुँचाना उद्देश्य नहीं है।  आत्मावलोकन जिससे यह देश -समाज उन्नति कर सके प्रेरित करना ही लक्ष्य है. )


--राजेश जैन 
19-05-2014

नारी -पुरुष सम्बन्ध (2)
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भारतीय संस्कृति के बाहर नारी पुरुष सम्बन्ध में स्वछंदता क्यों रही है ,ये  मर्यादित क्यों नहीं है?  उसका उत्तर धार्मिक विश्वास में छुपा है। किसी धर्म को अच्छा या बुरा माने बिना थोड़ा जिक्र उस पर करना होगा।

भारत में माने जाने वाले ( या भारत से विश्व में फैले ) धर्मों में , जीवन अनादि -अनंत माना गया है। इसलिए जिया जाने वाला मिला जीवन हम आगामी जन्मों में इस जीवन के कर्मों के अच्छे प्रतिफल की आशा में जीते हैं। इसलिये बहुत सी मर्यादा और सदाचार निभाते हैं।
भारत के बाहर के धर्म जीवन को जन्म के साथ मिलना और मौत के साथ ख़त्म हो जाना मानते हैं। जिससे उन्हें मानने वाले जीवन काल में अधिकतम भोग विलासिता सुख उठाना चाहते हैं।  फिर सुखकामना की कोई सीमा नहीं रह जाती।  उस हद में शारीरिक भूख भी आ जाती है।  जो मृग-मरिचिका और मृगतृष्णा सी भ्रामक होती है।  इसलिए वहाँ नारी -पुरुष के दैहिक सम्बन्ध एकाधिक साथी से होना सामान्य सी बात होती है।
भारत में विवाहित नारी -पुरुष (पति-पत्नी ) में परस्पर प्रेम, श्रध्दा ,विश्वास होता है। और मानसिक तथा दैहिक दृष्टि से समर्पण एकाधिकार का होता है। नारी -पुरुष में ऐसा  प्रेम , चाहे विवाह पूर्व या विवाह उपरांत उपजे उसे आजीवन निभाने की संस्कृति है।  यह विश्वास धर्मों से मिलता है कि यह जन्म -जन्म का साथ होता है।  इसलिये इसे चरित्र माना जाता है।  दैहिक समर्पण इसलिये सिर्फ पति-पत्नी में होता है। इसलिये यह मर्यादित होता है।  यही शील माना गया है नारी -पुरुष इसे हर कीमत पर निभाते हैं।   अनुभव बताता है यही समाज हितकारी भी होता है।  क्योंकि वैवाहिक जीवन में स्थायित्व परिवार और बच्चों को सुरक्षा देता है।  परिवार में मधुरता देता है। परस्पर प्रेम और त्याग की भावना सृजित करता है।  परिवार के प्रति प्रत्येक सदस्य को कर्तव्य बोध देता है।  इन भावनाओं की उपलब्धता (प्रेम ,त्याग ,विश्वास और कर्तव्यबोध ) सभी परिवारों में होती है तब इससे निर्मित होने वाले समाज में भी ये सारे तत्व की विद्यमानता होने से समाज सुखी और अच्छा होता है।
पाश्चात्य विश्व में कुशल प्रबंधों और धन बाहुलता से आधुनिक सुविधा सम्पन्नता देखी जाती है , दूर से आकर्षक दिखने वाला वह परिदृश्य हमें लुभा भी रहा है।  हम उस शैली को अंगीकार भी करते जा रहे हैं।  किन्तु उसमें वैवाहिक संबंधों में स्थायित्व के अभाव से ना तो बच्चे संस्कारी बनते हैं।  ना ही नारी -पुरुष में प्रेम अंश भारतीय उंचाई को छू पाता है , बल्कि काम भावना (भोग) ही अधिक निहित होती है।
जो है (वहाँ) उसमें वही पाश्चात्य विश्व हमें दे रहा है।  नेट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर अश्लीलता की बाढ़ आई हुयी है।  हम उसकी चपेट में आते जा रहे हैं , उस बहाव में अनियंत्रित बहते जा रहे हैं। अनियंत्रित इस बहाव को थाम सकने की भारतीय संस्कृति की क्षमता अपर्याप्त नहीं थी अगर उसका पठन और चिंतन का समय हमें मिल पाता। अनियंत्रित किसी बहाव के चपेट में आये व्यक्ति से पठन -चिंतन की अपेक्षा तो अनुचित सी दिखती है।  लिखा इसलिए जाता है आशा की एक क्षीण सी किरण जीवन को एक उद्देश्य प्रदान करती है।  किसी दिन हम इस नशे से मुक्त हो जीवंतता से जीवन जीने की शैली पुनः स्थापित कर सकेंगे ,कदाचित ।

राजेश जैन
21-05-2014

Monday, May 19, 2014

नारी -पुरुष संबंध

नारी -पुरुष संबंध
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बुराइयों के कारण जब तब दुखद घटनाओं के होने से  समाज और देश  ,  क्षोभ से भर जाता है।इनमें से  अधिकाँश बुराइयों का अस्तित्व मानव समाज में आदि-मानव के जन्म के साथ ही रहा है। कुछ ही ऐसी बुराई होंगी , जो आज लेख में केंद्रित बुराइयों की जड़ से ना जुडी हों।  अनेकों बुराइयों के मूल में मात्र कारण नारी -पुरुष के संबंध ही हैं। आज लेख भारतीय समाज -संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में  केंद्रित किया गया है , जिसे आगे वैश्विक परिवेश तक विस्तृत किया जायेगा। वास्तव में ज्यादातर वरिष्ठ और कुछ युवा, हम , जिन्हें आज बुराई मान रहे हैं वे निम्न -लिखित नारी-पुरुष के सम्बन्ध हैं

                              1 .  विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध
                              2 .  विवाहेत्तर शारीरिक सम्बन्ध
                              3 . अनेकों से शारीरिक सम्बन्ध
                              4 .  लिव इन रिलेशनशिप  
                              5 .  विवाह विच्छेद होना
                              6 .  विवाहित होते हुए अवैध संबंधों का रखना


जैसा उपरोक्त में लेख है ये सारी बातें आज की तरह पाषाण युग से निरंतर मानव समाज में विध्यमान रही हैं ।  जानवरों के साथ जानवरों जैसा ही गुफाओं में रहता मनुष्य मस्तिष्क आरम्भ में जानवरों सा ही था। और जैसा जानवरों में देखा जाता है , नर और मादा शारीरिक सम्बन्ध का विवेक जानवरों में नहीं रहता , जब उन्हें आवश्यक हुआ , जो उपलब्ध हुआ या जिस पर जोर चल गया उससे स्थापित कर लेते हैं , कभी यह क्रम परस्पर दो के बीच कुछ समय चलता है , फिर किसी और समय अन्य के साथ रहता है , कभी एक ही समय में अनेकों के साथ  रहता है, तो कभी एक से सम्बन्ध स्थापित होने के बाद स्थान परिवर्तित होने के साथ वह साथी बदल  जाता है । आरम्भ में मनुष्य में नारी-पुरुष संबधों का , जो जानवरों में देखा जाता है वैसा ही रूप था।  जिसमें इन संबधों की अल्पावधि और इनके लिये झगडे और हिंसा से शायद मनुष्य ने वेदना अनुभव की होगी। निसंदेह मानव मस्तिष्क की क्षमता ,जानवरों के मस्तिष्क की क्षमता से बेहतर रही थी । सम्बन्ध के बीच साथी से प्रेम माधुर्य उसे भाया होगा।  और ऐसे में उसने इस मधुर साथ को स्थायित्व देना पसंद किया होगा।  तब दो विपरीत लिंगी , लगभग हमउम्र नारी -पुरुष के बीच विवाह नाम का संस्कार अस्तित्व में आया होगा। जब साथ में स्थायित्व हुआ होगा तो संबंधों से जन्मे बच्चे में  अपना अंश रूप देख उनसे अनुराग और अपनत्व ह्रदय में पनपा होगा।  बच्चे अबोध और साथी नारी पर अन्य पुरुष की बिगड़ती नीयत ने पुरुष को नारी के साथ एक सुरक्षित आश्रय स्थल के लिए विवश किया होगा।  तब उस काल का घर , जो शायद पत्थर , मिटटी , वृक्ष टहनियों और पत्तों से बना होगा, ने अस्तित्व लिया होगा। जिसका परिष्कृत रूप आज का आधुनिक सुविधाओं और सुंदरता युक्त हमारा घर है।



इस तरह शुरुआत में कुछ मानव ने विवाह कर घर -परिवार बसाना आरम्भ किया होगा।  अर्थात कुछ तो आज के परिवारों की तरह रहने के पक्षधर हुए होंगे।  कुछ समय से पीछे चलते तब भी जानवरों सा स्वछंद और असुरक्षित जीवन जीते मर जाते होंगे।  यानि उपरोक्त वर्णित 6 तरह के मनुष्य सम्बन्ध ही तब ज्यादातर व्यापक रहे होंगे (जिसमें सभ्य समाज बुराई मानता है )।  उत्तरोत्तर (ग्रेजुअली ) इसे कुछ और मानव  स्वीकार करते गए होंगे। तब विवाहित परिवारों का घर बसा कर रहना बढ़ता गया होगा। यह संस्कृति और संस्कार शायद भारतीय समाज में पहले विकसित हुयी होगी। इसलिए इसे भव्य और भारत को मानव-सभ्यता के विकास का जनक कहा जाता रहा है ।

स्पष्ट है कि हजारों वर्षों के करोड़ों मानव अनुभव का निचोड़ और सार स्थायी परिवार और घर था , जिसमें  प्रेम ,सुरक्षा और जीवन सार्थकता का होना माना  गया था /है ।  जिसका अनुकरण करते हुए, नारी-पुरुष का विवाह बंधन में बंध एक दूसरे के प्रति प्रेम और सम्पूर्ण समर्पण से रहने की रीत विकसित होती हुई व्यापक हुई होगी। भारतीय धर्मों ने इसी संस्कृति को अनुमोदित किया था । इस तरह कुछ सदियों पहले तक भारत में विवाह और घर-परिवार ही करीब करीब सर्वमान्य जीवन -यापन का ढंग हो गया था ।

फिर विश्व के अन्य क्षेत्रों से भारत का व्यापारिक सम्बन्ध बना , उन क्षेत्र की संस्कृति भारतीय जैसी उत्कृष्ट नहीं रही थी । वहाँ (नारी-पुरुष संबंधों में ) मानव के जानवर तरह के जीवन यापन की आदत कुछ में तब भी जोर मारती होगी। वहाँ नारी-पुरुष के संबंधों में स्वछंदता ,और भोग-विलासिता में रहना प्रमुख रहा होगा। व्यापार के क्षेत्र से जुड़ने के बाद संपर्क बड़े होंगे  ,  भारत से जुड़ने के बाद भवन-निर्माण और अन्य सुविधाओं के विकसित करने की तकनीक तो वे भारत से ले गए होंगे ।  लेकिन स्वार्थवश नारी-पुरुष के संबंधों में स्वछंदता पुनः यहाँ परोस गए होंगे । पिछली सदी तक तो भारतीय परिवार में प्रेम ,समर्पण, त्याग और एकता सुरक्षित थी।  और बाह्य प्रभाव से प्रभावित होकर परिवार में बिगाड़ हुआ  था तो भी ऐसा बिरला परिवार  होता था ।


फिर भारत में सिनेमा आया उसमें आरम्भ में वे लोग जुड़े , जो शासकों के और बाह्य व्यापारियों की  जीवन शैली ( प्रभाव , सुविधा अधिकता , और भोग विलासिता और संबंधों में स्वछंदता ) से प्रभावित थे।  सिनमा में तो भारतीय आदर्शों को दर्शाया जाता था . किन्तु सिनेमा से हुए लोकप्रियता से सिने कलाकारों की निजी ज़िंदगी में झाँकने की आदत युवाओं को हो गई थी .  निजी ज़िन्दगी में कई सिने कलाकारों में जीवन शैली बाह्य संस्कृति प्रभावित थी।   विपरीत लिंगीय आकर्षण से युवा उम्र प्रभावित होती है। जितना ग्लैमर सिनेमा,सिने कलाकारों में था उतना समाज में कहीं और ना मिलने से यह युवाओं की पसंद बनता गया।  पिछली शताब्दी ख़त्म होने के पहले दूरदर्शन और फिर नेट ने पाश्चात्य जीवन शैली का दर्शन ,ग्रामीण क्षेत्रों तक सुलभ कर दिया।  इन से जुड़े लोग जल्द ही पैसे वाले होने लगे।  उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी।  इसलिए इनसे प्रभावित हो इनकी नक़ल देश में व्यापक हो गई। विवाह -विच्छेद , विवाहेत्तर सम्बन्ध ,विवाह किये बिना सम्बन्ध , लिव इन रिलेशनशिप सिने जगत में साधारण सी घटना थी।  इन्हें देख वही युवाओं में पसरने लगी। बहुत सी बातें निजी होती है।  अपना विचार और शैली होती है। 
जो जिसे पसंद और सहमति हो वह करने की स्वतंत्रता सभी को होती है।  जो करते रहे हैं वह करते रहते तो लेखक को कोई आपत्ति नहीं होती।  किन्तु इस चलन ने उन नारियों -पुरुषों को भी प्रभावित किया जो उस शैली से कोई वास्ता नहीं रखते हैं।  जिनका आज भी विश्वास भारतीय परिवार में जीवन यापन का है। वे भी प्रभावित होते हैं।  नारी को कार्यालयों -बाजारों में देखने की दृष्टि बदल गई है।  माँ सा  ,बहन सा  और बेटी सा सम्मान भारत में भी विलुप्त होता जा रहा है।  नारी अगर पराई है तो वह किसी भी उम्र की हो जानवरीय दृष्टि से ही देखी जा रही है। परिणाम स्वरूप यौन अपराध /रोगों से समाज कलप रहा है। परिवार और दाम्पत्य स्थायित्व पर संकट से जन्म लेने वाला बच्चा असुरक्षित हो गया है। 
पीड़ा यही है , मनुष्य परिवार की रीत हजारों साल में विकसित हुई थी। एकबारगी उसकी बुनियाद हिलने लगी है.हमें आहत करती है। कैसे परिवार बचायें , कैसे नारी अस्मिता बनाये रखें ? कैसे समाज दिशा मोड़ें ? यह सभी की निजी समस्या और प्रश्न होना ,चाहिये।  हमें आशा करनी चाहिए , समाज समस्या निराकृत होगी।  हमारा समाज खुशहाल होगा।


(लेख में इतिहास क्या कहता है , इससे कोई सरोकार नहीं है , मनगढ़ंत यह लेख सिर्फ सुखद-समाज रचना की दृष्टि से प्रस्तुत है। जिन पर सीधा आक्षेप किया गया है,  उसमें भी अनेकों अपवाद हैं।  अगर वे इसे पढ बुरा अनुभव करते हैं तो अग्रिम क्षमा . पीड़ा पहुँचाना उद्देश्य नहीं है।  आत्मावलोकन जिससे यह देश -समाज उन्नति कर सके प्रेरित करना ही लक्ष्य है. )


--राजेश जैन 
19-05-2014







Sunday, May 18, 2014

हम पर यह चुनौती है

हम पर यह चुनौती है
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सभ्य हुआ है मानव यह कहा जाना उचित सा नहीं लगता , उचित यह है कि मनुष्य ने अपने आविष्कारों और निर्माण से जीवन सुविधाजनक बनाया है। इन का भी लाभ अभी अधिकांश तक पहुँचना शेष है।  इन आविष्कारों और निर्माण की क्या कीमत हमने चुकाई है , और कितनी कब तक और भरनी पड़ेगी उस पर उल्लेख हम कभी और करेंगे।  मानव सभ्यता उन्नत हुई जब सभी कह रहे हैं तो "सभ्य हुआ है मानव यह कहा जाना उचित सा नहीं लगता " तब लेख इस वाक्य से क्यों आरम्भ किया गया ? अभी लेख उस पर केंद्रित करते हैं।

वास्तव में हमने चक्र उलटा चलाया हुआ है।  कोई अपराध होता है , अपराधी छुपता है , अपराधों को छुपाता है।  सीधा कोई पीड़ित पक्ष हुआ तो उसकी शिकायत (रिपोर्ट) करता है।  जांच पड़ताल होती है। कभी अपराध सिध्द किया जा पाता है। और सिध्द करने में महीनों से लेकर वर्षों लगते हैं।  तब अपराधी को दंड दिया जाता है। बहुत से अपराधों को सिध्द ही नहीं किया जा पाता।  और जिनका सीधा सीधा कोई पीड़ित पक्ष नहीं होता (अप्रत्यक्ष  अपराध -indirect crime) उनकी तो रिपोर्ट ही नहीं होती इसलिए इन दोनों तरह की परिस्थिति में अपराधी सुरक्षित रहता है। अप्रत्यक्ष  अपराध( indirect crime)  का एक उदाहरण लिखना बात को समझने के लिये सरलता देगा।  दो लोग एकांत में मिले किसी कार्य को करने -कराने को लेकर रिश्वत का लेन - देन हुआ।  फिर काम हो गया, अप्रत्यक्ष  अपराध (indirect crime) हुआ , जिसकी कोई शिकायत भी नहीं करेगा।

हमारा न्याय तंत्र , हमारा सुरक्षा तंत्र इतना सक्षम कभी नहीं हो सकेगा कि हर अपराध को पकड़ सके और उस पर न्याय कर सके।  इसलिए अपराध होते रहेंगे , बल्कि हम भी किसी किसी अपराध का हिस्सा होते रहेंगे।  अपराध की सजा से बचते रहेंगे।  लेकिन अपराधों के कारण देश और समाज की बुराई से व्यथित होते रहेंगे।  समय समय पर, अन्य के किये अपराध पर आन्दोलनरत होकर व्यवस्था पर दबाव बनाते रहेंगे।  आश्वासनों और अपराधों के बाद बीतता समय हमें शांत करता रहेगा।  फिर किसी अपराध पर हम उद्वेलित होएंगे , फिर क्रम दोहराएगा जाएगा।  बुराई और अपराध इसी तरह अस्तित्व में रहेंगे।  हम समाज में निश्चिंतता से जीवन कभी नहीं जी पायेगें।  यह सब चक्र उलटा चलाये रखने के कारण है।

क्या होता सीधा चक्र ? इतने सारे मनुष्य एक समाज में रहते हैं।  सामाजिक और लौकिक मर्यादा के विपरीत हमसे कभी कोई बुराई या अपराध हो जाता है।  हम स्वयं न्यायालय  के समक्ष प्रस्तुत होते हैं।  अपना अपराध स्वीकार करते हैं।  न्यायाधीश से अपना दंड सुनते हैं और दंड भुगत लेने के बाद फिर सार्वजनिक जीवन में आते हैं।  यह सीधा चक्र है , यही अपराध और सारी सामाजिक बुराइयों की रोकथाम भी है यही "आनंदमय जीवन और समाज की परिकल्पना" को साकार कर सकता है। ये नैतिकता बोध जिस दिन समाज में रहने वाला हर मनुष्य समझेगा तभी मानव सभ्य कहला पायेगा।

बहुत आदर्श समाज तो अबसे पहले भी कभी नहीं था , लेकिन कुछ अच्छाई पहले थीं जो मिटती चली गई हैं। जो कभी नहीं हुआ आज की हमारी पीढ़ी कर सकती है।  अगर हम नहीं कर सके तो कभी कोई और भी नहीं कर पायेगा।  हमने मनुष्य जन्म पाया है।  हम इस चुनौती को स्वीकार करें जो अभी तक नहीं किया गया हम सारे विश्व में मानव सभ्यता का वह कीर्तिमान रचे।  चक्र सीधा चलायें।  अपराध मुक्त करें समाज को. पहले कुछ त्याग करें फिर जीवन का आनंद उठाये।  और  मानव समाज को सभ्यता की ऊंचाई पर स्थापित करें।


अगर जीवन अंत आने पर भी मंजिल पर नहीं पहुँच सके तो भी खेद नहीं "समाज की दिशा सभ्यता की ओर मोड़ देंगे तो मंजिल पर हमारी संतानें पहुँचेगी " .

                             जीवन बलिदान किया किन्हीं औरों ने
                             मित्रों ,स्वतंत्रता में जीवन हम जीते हैं
                             बुनियाद रखें उत्कृष्ट नैतिकता की हम
                             हर्ष उल्लास होगा संतानों के जीवन में 

"वह सुख जो सभी को सुखी रखने के उपरान्त मिलता है उस चरम सुख की अनुभूति हम करें। "

--राजेश जैन
18-05-2014

Saturday, May 17, 2014

नवयुवाओं की अपेक्षायें और उन पर दायित्व

नवयुवाओं की अपेक्षायें और उन पर दायित्व
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करने के लिए बहुत समय पड़ा है , अभी तो मजे कर लें। बाद में कुछ अच्छा कर लेंगे। नवयुवा अधिकाँश इस तरह सोचते और करते हैं। और फिर अपना जीवन अति साधारण ही बना पाते हैं।  भ्रष्ट या अनैतिक ढंग से,  धन अर्जित कर लेना और वह भी बाद उसका अय्याशी के लिए उपयोग कर लेना जीवन की बहुत बड़ी सफलता नहीं होती है, लेकिन धन वैभव अर्जित कर लेने को ही जीवन सफलता का मानक मान लेने की आज की प्रथा अधिकाँश उन बुराइयों की जड़ हैं , जिनका घटना या देखा और भोगा जाना पीड़ाजनक होता है। हम सभी को आंदोलित करता है। धन कैसे अर्जित और व्यय किया जाना यह आज लेख का विषय वस्तु नहीं है।

बल्कि विषयवस्तु नवयुवाओं को जीवन वास्तविकता बताने का एक प्रयास है , कि जीवन वास्तव में उतना बड़ा नहीं होता जो वे अपनी तीस वर्ष की आयु तक मानने का भ्रम रखते हैं। वास्तव में आरम्भ में 70 -80 वर्ष का जीवनकाल बड़ा सा प्रतीत होता है. जो 10 -10 और 20-20 वर्ष के स्पेल (अवधि) में किस तरह निकल गया पता नहीं चल पाता है। और जीवन संध्या सामने आ खड़ी होती है।  जीवनकाल छोटा  ही होता है यह   55 -60 वर्ष की अवस्था में अनुभव होता है. अर्थात इसका दुःख तब होता है जब करने का सामर्थ्य बहुत कम शेष रह जाता है। बीच बीच में हमें यह अनुभव तो होता है कि जैसा नहीं गुजारना चाहता था  वैसा समय गुजरता जा रहा है.  लेकिन कुछ बहानों और लाचारियां (गलत सिध्दांतों से उत्पन्न ) के चलते हम दिमाग से झटकते चले  जाते हैं। 55 -60 वर्ष की अवस्था में भी जो सामर्थ्य रह जाता है ,वह भी "ठगा सा रह गया"  वाली स्थिति में व्यथित और पछतावे में होने में बीतती जाती  है। गलत जीवनशैली के कारण अस्वस्थ हो जाने का खतरा भी होता है। ऐसे में रोग और अवसाद से संघर्ष करते हुए ,जो युवाकाल में हम सोचते  रहे थे कि बाद में कुछ अच्छा और भलाई का काम भी करेंगे ऐसी ख़ुशख़याली का भ्रम टूट जाता है। जो नहीं रह जाना हम चाहते थे  वैसा अति साधारण सा जीवन सफर पूरा करने को हम बाध्य हो जाते हैं ।

लेखक के लेख के लक्षित(scope) पाठक वर्ग वैसे तो नवयुवा हैं , किन्तु कुछ प्रबुध्द पाठक जो वरिष्ठ हैं ही प्रायः इसे (लेखों को ) सर्वथा व्यर्थ जाने से बचा रहे हैं।वे पढ़ते हैं प्रशंसा कर प्रोत्साहन भी  पर  नवयुवा प्रायः मातृभाषा हिंदी में लिखे आलेख को पढ़ने में पिछड़ा या पुरातन पंथी कर्म मानते हैं। यह वह कारण भी है (हिंदी आलेख को ना पढ़ना ) जो नवयुवाओं को हमारी संस्कृति , समाज और परिवार से मिले संस्कारों से दूर करते हैं। लेकिन कुछ युवा पाठक भी भाग्यवश मिल रहे हैं , पूरा श्रम उस थोड़े से लाभ के लिए लेखक प्रतिदिन करता है। (लाभ से आशय सामाजिक दायित्व निर्वहन है , कोई सम्मान अथवा धन अपेक्षित नहीं है )


 लेखन जारी रखते हुए हम एक उदाहरण से समझेंगे ,  पृथ्वी के उस खंड पर जहाँ सड़क पहली बार निर्मित की जा रही है। पूर्व योजना और दूरदर्शिता से सड़क निर्माण करना होता है , जैसे जो नदी नाले राह में पड़ेंगे उन पर बरसात में जल स्तर कितना हो सकता है (ब्रिज निर्माण के लिए ), अगले 20 -25 वर्षों में यातायात भार कितना अनुमानित होगा ( मार्ग चौड़ाई निर्धारण के लिए ) इत्यादि। अगर सड़क निर्माण पूर्व योजना और दूरदर्शिता से नहीं की जाती है तो बहुत जल्द कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

इसी तरह ,प्रत्येक नवयुवा के लिए  आगामी जीवन की पूर्व योजना और दूरदर्शिता होने की आवश्यकता होती है । आधुनिक तकनीक का ज्ञान  ,और धन अर्जन को सहायक बहुत पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं किन्तु मानवीय जीवन को उत्कृष्ट तरह से जीने की कला के लिए ना तो कोई पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं और ना ही उपन्यासों , दूरदर्शन और फिल्मों से इस तरह की ठीक प्रेरणा किसी को मिल पाती है। समय व्यर्थ करने वाले गेम , फूहड़ मनोरंजन युक्त फ़िल्में और दूरदर्शन धारावाहिक तो अनेकों देखे जा सकते हैं जिसमें भी आज हमारा मूल्यवान समय व्यर्थ होता है,  जो इनसे बचता है , उसकी कसर भी व्यर्थ नेट सर्फिंग ( अधिकाँश नेट मटेरियल ) पूरी कर देता है। ये सब जीवन भटकाव के कारण बनते हैं। और अंततः पकी आयु में पश्चाताप ही देते हैं।



जो अन्य के अनुभवों से सीख अच्छा जीवन तय करते हैं वे जीनियस (अत्यंत निपुण ) होते हैं , जो स्वयं के अनुभवों से सीख, बढते हैं वे  मेधावी (intelligent) होते हैं जबकि जो स्व-अनुभवों (ठोकर खाने ) से भी ना सीखें वे औसत से कम कहे जाते हैं।


अतः जो समझ हमें सामान्यतः 50 -55 वर्ष की आयु में आ पाती है , वह अच्छी प्रेरणा और मार्गदर्शन से 30 -35 वर्ष तक हमारी बन सके तो हम अपने जीवन की योजना दूरदर्शिता से तय करने में सफल हो सकते हैं।  जिससे हमारा जीवन अति साधारण सा ना रह कर असाधारण बनता है।  जो जीवन संतोष का कारण बनता है, किसी तरह के पछतावे के भाव से मुक्त भी रहता है।  और राष्ट्र और समाज हितकारी भी होता है।

सच्ची प्रेरणा के लिए इस लेखक को ना पढ़ना हो ना पढ़ें पर अच्छे तरह की विषयवस्तु को पढ़ना हॉबी (रुचि ) बनायें तो सभी लिये सुखद होता है।  यही आज की समस्या और बुराई से सभी को मुक्त करा सकता है ,जीवन में सार्थकता अनुभव करा सकता है।


--राजेश जैन
17-05-2014







Thursday, May 15, 2014

हम वृध्दावस्था में भी सुन्दर रह सकते हैं

हम वृध्दावस्था में भी सुन्दर रह  सकते हैं
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आसपास की अनेकों बातें प्रतिदिन होती हैं , उन पर व्यस्तता या कहें उनसे उदासीनता के कारण कोई ध्यान नहीं जाता।  लेखक की दृष्टि , कल अनायास एक गाय पर गई।  जो बूढी हो गई थी , कहीं तो हड्डियां दिख रही थी और कहीं (पेट पर ) माँस गठन छोड़ लटक रहा था।  तब विचार आया

बूढ़ा होने पर मनुष्य ही नहीं हर प्राणी सुन्दर या उतना आकर्षक नहीं दिखता , जितना बालावस्था या अपने यौवनकाल में रहा होता है।  यद्यपि अन्य प्राणियों से मनुष्य एक बात में भिन्न होता है।  उसके पास उन्नत मस्तिष्क होने से , अपने बिताये एक दीर्घ जीवन ( तब वह बूढ़ा होता है ) में उसे जीवन स्वरूप जानने ,देखने मिला होता है।  अपने अनुभवों की विवेचना कर उससे सीखते हुए वह , अपने कर्म ,आचरण व्यवहार में बहुत ही सुन्दरता , मधुरता और न्याय को स्थान दे सकता है।

अपने सहयोगी कर्मों , करुणाशीलता और दयालुपन से परिवार ही नहीं आसपड़ोस और समाज में अन्य की प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से भलाई कर सकता है।  ऐसे रचनात्मक या सृजन के कार्य में लीन हो सकता है जिससे समाज हित और मानवता प्रवाहित होते हैं।  सच्ची प्रेरणा का संचार कर सकता है , जिससे आसपास की बुराई में कमी आती है और जिससे उसमें समाज और बच्चे सुखद जीवन देखते हैं।  तब वह (बूढ़ा व्यक्ति ) सब को प्यारा होता है।

बूढ़ा हो जाने पर जब दैहिक आकर्षण खो रहा होता है या सुन्दर नहीं रह गया होता है तब भी वह प्यारा इसलिए लगता है , क्योंकि वह मन या आंतरिक रूप से सुन्दर हो गया होता है।

मन -मस्तिष्क से सुन्दर हो जाने की यह क्षमता मनुष्य में अन्य प्राणियों से भिन्न और अच्छी होती है , जो मस्तिष्क से मनुष्य से हीन होने से बुढ़ापे में तन की दृष्टिकोण से अनाकर्षक ही दिखते हैं।  जबकि हो सकता है "इस अवस्था में मनुष्य अपनी युवावस्था से ज्यादा समाज में प्रिय हो जाये। "

हम मनुष्य हैं , बचपन से हमें प्रशंसा की दृष्टि भली लगती रही है। जब क्षमता से और रूप से हम उतने सक्षम नहीं रह पायेंगे उस वृध्दावस्था में भी हम आकर्षक और प्रिय लगते हुए , सभी की प्रशंसा पा सकते हैं ।उस हेतु हमें अपने कर्मों , आचरण और मधुर व्यवहार को अपने व्यक्तित्व में समाहित कर लेना चाहिए।  इन गुणों के कारण हमारी जीवन संध्या भी सुखद होगी और समाज की भलाई की दृष्टि से भी हमारा सकारात्मक योगदान होगा।
इस प्रकार हम वृध्दावस्था में भी सुन्दर रह  सकते हैं ……
60 -70 वर्ष समाज में रहने के कारण उसके प्रति हमारे दायित्वों का यही उचित निर्वहन है।

--राजेश जैन
16-05-2014

अवसाद (depression) ना लाये ,जीवन संभावनायें बढ़ाये

अवसाद (depression) ना लाये ,जीवन संभावनायें बढ़ाये
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प्रत्येक मनुष्य का असीमित सामर्थ्य होता है।  जीवन परिस्थिति में घिर वह अपने सामर्थ्य के बारे में गलत धारणा बना लेता है कि "वह तो एक सामान्य ,साधारण सा व्यक्ति है , अपना और परिवार का ही भला कर ले यही उसके जीवन की बड़ी उपलब्धि है। "
बहुत कुछ इतना आत्मविश्वास रख लेते हैं। और "अपना और परिवार का भला" कर  ही लेते हैं।  अच्छी बात है , आत्मविश्वास से अपना एक जीवन पूरा जीते तो हैं ।  किन्तु महत्वाकांक्षा और जीवन कामनाओं का भार कुछ के लिये संकट बन जाता है , असंतुलित मानसिक स्थिति में पहुँच वे आत्मविश्वास खो देते हैं. और आधे चौथाई जीवन में ही आत्महत्या का अप्रिय कदम उठाकर अपने उन परिजन मित्रों को बहुत निराश करते ,गहन वेदना देते हैं।  जिनको उनका (आत्महत्या कर लेने वाले का ) सिर्फ जीवित देखना ही बहुत सुख ,संतोषकारी होता है, वह (आत्महत्या कर लेने वाला) कुछ और कर सके या नहीं।

अतः आत्महत्या का विचार  अवसाद के पलों में जब किसी को उत्पन्न हो तो इस वास्तविकता पर विचार किया जाना चाहिये।  जीवन के उन कमजोर पलों में अपना जीवन बचा कर उस संभावना को अस्तित्व देना  चाहिये   , जिसमें उनके आगे के "जीवन की उपलब्धियाँ असाधारण हो सकती हैं " . आवश्यकता सिर्फ़ इस बात की होती है जो "महत्वाकांक्षा और जीवन कामनायें " इस तरह असंतुलन निर्मित करती हैं उनकी पुनर्समीक्षा स्वयं ही या कुछ हितैषियों के सहयोग से की जाये।

ऐसा करने पर निश्चित ही अनन्त कारण ध्यान में आयेंगें , जो नये जीवन ललक का संचार ह्रदय में करेंगें।  आप (अवसादग्रसित व्यक्ति) को लग सकता है कि उसके पास तो ऐसा शक्तिशाली जीवन है जो स्वयं का तो छोडो बहुत से वंचितों का भी हित कर सकता है। जैसे ही  यह विचार आपको मिले आप आत्महत्या का ख्याल स्थगित कर दें , यह मानते हुये कि व्यक्तिगत कामनाओं की अपेक्षा से तो मै तो मर चुका हूँ (आत्महत्या तो करने जा रहे थे ना ) अब मुझे सिर्फ वंचितों के सहारे के लिये ज़ीना है। जैसे ही आप कुछ वंचित को (अनेकों हैं ) जीवन सहारा देंगे आपको वह आनन्द और संतोष मिलेगा जो आपका  खोया आत्मविश्वास पुनः स्थापित कर देगा।  तब आपकी कामनाएं ,महत्वाकांक्षाएं सिर्फ़ आपकी निज अपेक्षा  मात्र की ना होकर अन्य की भी अपेक्षाओं से प्रेरित होगी।

जिस पल से आपकी कामनाओं  और महत्वाकांक्षाओं  में अन्य की उचित अपेक्षाओं का समावेश हो जायेगा , उस पल से आप मानसिक रूप से पूर्ण निरोगी हो जाओगे। आपको उस पल इसमें स्वयं पर गर्व(बहुमान )  होगा क्योंकि तब आप देख सकोगे कि इस तरह से पूर्ण  मानसिक स्वस्थ आसपास मे थोड़े ही हैं।  अधिकतर
कोई किसी और कोई किसी दूसरी मानसिक ग्रंथि का शिकार होकर अनायास समाज को कुछ बुराई में योगदान  रहा है।



तब आप ऐसी मानसिक ग्रंथि के उपचार के लिये कार्य करने लगेंगे , जो समाज की बुराई मिटाने में समर्थ होंगी।

निश्चित ही आप आत्महत्या से खत्म कर लेने वाले उस शेष जिये जीवन को बचा पायेंगे जिसमें आप जीवन में  ऐसी ऊँचाइयां छूं पायेंगे जिन तक बिरले ही पहुँच पायें हैं.



--राजेश जैन
15-05-2014

Tuesday, May 13, 2014

दिशा वेलफेयर समिति संग आओ

दिशा वेलफेयर एसोसिएशन समिति
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दिशा वेलफेयर एसोसिएशन समिति , जबलपुर विभिन्न गतिविधियों ( रक्तदान , निशुल्क थैलेसिमिआ परीक्षण के शिविर आयोजन और परोपकार कार्य की प्रेरणा और जागृति लाने ) के माध्यम से पिछले तीन वर्षों से कार्यरत है। 'दिशा' जयश्री जी ,सरबजीत जी के विशेष प्रयासों से आज जबलपुर और आसपास के क्षेत्र के 102 पीड़ितों को निशुल्क चिकित्सा और रक्त उपलब्ध करवा रही है। क्षेत्र के और पीड़ितों की पहचान होने के साथ इनकी सँख्या बढ़ती जा रही है। जबलपुर के करुणाशील ,दयालु व्यक्तियों और चिकित्सकों का 'दिशा' को परोक्ष -प्रत्यक्ष सहयोग आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त हो रहा है।

दिशा वेलफेयर एसोसिएशन समिति के तीन वर्ष पूरे करने के शुभ अवसर पर।
सभी को दिशा की ओर से हार्दिक आभार सहित कुछ काव्य पँक्तियाँ निवेदित हैं

दिशा वेलफेयर समिति संग आओ
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राह में काँटे बिछे हुये हैं अगर
बचकर चलना अच्छा है मगर
बीन उन्हें हटाते कुछ अनूठे हैँ
बचाते उन्हें आते पीछे उस डगर

रक्त करता स्वास्थ्य सुनिश्चित
स्वस्थ में बनता सहज निश्चित
रक्तदान से अस्वस्थ को सहारा
मानवता संचार होता है निश्चित

जीवन उद्देश्य पर करें चर्चा हम
जिये अन्य के लिये भी गर हम
श्रेय सम्मान प्रतिष्ठा न मिले हमें
समाज के लिये तो विभूति हैं हम

एकला चलो तर्ज चल पड़े सरबजीत
जयश्रीजी संग उन्होंने ज़ंग ली जीत
दिशा चल करती पूरे तीन वर्ष आज
उसे पानी थैलेसीमिया रोग पर जीत

ना करें खेद गर ना दे सके सद्विचार
संग खड़े हो जायें जहाँ हों सद्विचार
दिशा वेलफेयर समिति संग आओ, जो
रक्त दान ,परीक्षण से बाँटती सदाचार

--राजेश जैन
13-05-2014

नारी का उपहास और शोषण

नारी का उपहास और शोषण
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नारी ही माँ है अपनी
नारी ही बहन अपनी
पत्नी ,बेटी भी नारी
अतः श्रध्दा है अपनी

(नारी से ऐसी श्रध्दा रख ही नारी (बल्कि सामाजिक)  समस्या पर समाधान ढूँढता लेख लिखा है।  किसी भी शब्द का अभिप्राय उनके सम्मान को ठेस पहुँचाना नहीं है।  कहीं भी नारी पर आरोपित अंश सम्पूर्ण नारी जाति पर नहीं है , बल्कि जिन्हें सामाजिक धूर्तता ने छला है उससे भी सहानभूति रख ही उल्लेख है। सम्पूर्ण सतर्कता के बाद भी कहीं किसी नारी को ठेस पहुँचती हो तो अग्रिम क्षमा प्रार्थना सहित)

किसी की बेटी जीवन में , किसी की बहन , पत्नी, बहु या माँ , इत्यादि होती है . विशेषकर भारतीय समाज में नारी अपने लगभग सारे नातोँ में आदर की पात्र है. किन्तु पत्नी के रूप में ना जाने क्यों लेखन और व्यवहार में उसे हास्य का पात्र बनाया हुआ है.  जबकि वह अपने (भारतीय) पति की आजीवन प्राणप्रिया और जीवन आधार होती है. माँ , बहु और पत्नी रूप में भारतीय परिवार की रीढ वही (नारी ) होती है. उसका परिवार जिस समाज में होता है वह समाज... उसमें सम्मिलित अनेकों परिवार से होता है.

नारी परिवार में आदरणीया , परिवार समाज़ में अनुकरणीय होती है , लेकिन घर -परिवार से बाहर जब नारी आती है ,समाज क्यों उस पर बुरी निगाह करता है ? घर की नारी की रक्षा लेकिन पराई नारी की लाज पर हमला समाज क्यों इन दोहरे मानकों पर चलता है ? 
(समाज शब्द से यहाँ आशय उसमें निवासरत ,है )
 
घर की नारी को तो कोइ दृष्टि उठाकर देखे , खून खौलता है. लेकिन दूसरे घर परिवार की नारी को तमाशा बनाकर जब पेश किया गया होता है तो उसमें रस लेता है . नारी जब ,  शालीन चित्रों में , प्रासंगिक फोटो और वीडिओ में प्रस्तुत  की  गई हो तो अच्छे लगती हैं , भाती भी है.  लोक परम्पराओं में,  मेल जोल में, गीत संगीत में, नृत्य में नारी की हिस्सेदारी जीवन ,समाज को मधुरता ही प्रदान करती है. 

लेकिन अनायास किसी लिंक , या सप्रयास ऐसे वेब साइट पर पहुँच जायें तो ,वहाँ नारी को जिस रूप में प्रस्तुत किया है वितृष्णा उत्पन्न करती है. चुराकर लिए वीडियो ,चित्र और फोटोशॉप से कहीं के चेहरे किसी के शरीर से जोड़ घिनौने तौर पर दिखलाना , उस पर अंकित ( रुग्ण ) मन के घिनौने कमेंट्स पढ़कर समाज की वीभत्स मनः स्थिति का पता चलता है.
धन के प्रभाव से नारी को घिनौने चित्रण को राजी कर लेना भी , उस नारी का ही नहीं सम्पूर्ण समाज का शोषण है. जो आज किसी दूसरे घर परिवार की नारी पर विपत्ति है कल (आगामी पीढ़ियों में ) स्वयं के परिवार की नारी पर आसन्न संकट होगा. इतिहास साक्षी है. हमारे फिल्म दुनिया में देख सकते हैं. पिछली पीढ़ियों में जिस परिवार के पुरुषों ने अन्य परिवार की नारीयों की देह को तमाशा बना प्रस्तुत किया था. उस परिवार की अबकी पीढ़ियों की नारी को तमाशा बना हुआ सारा जग देख रहा है.

"बोये पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय? "

ना तो स्वर्गीय हो चुके उन पुरुषों को और ना ही उनके परिवार की आज की नारीयों को,  किसी की भी भूल उपहास की दृष्टि से नहीं वर्णित की गई  है , क्योंकि आज दूसरों पर हँस कर जब यह संकट हमारे परिवार पर होगा तो कहाँ जा कर हम मुहँ छिपा पायेँगे.  समय का तकाजा है ना उपहास बनायें ना मुहँ छिपायें बल्कि समाज की शांति , नारी की ऱक्षा , और सम्मान को क्षति पहुँचाती रीत बदलना है. उदाहरण सिर्फ यह साक्ष्य बताने का प्रयास है कि जीवन फ़िल्म ऎसी भी बन जाती है. 

 यह देखकर और भी पीड़ा होती है कि नारी मन को इस तरह सम्मोहित कर दिया गया है कि वह स्वयं की निजता जग को परसोने सहर्ष तैयार हो रही है.  नारी से यह करवाने के लिये कहीं उसे आधुनिक कहा जा रहा है , कहीं रूपसी कह कर प्रशंसा की जा रही है कहीं पढी -लिखी बताई जा रही है.  जहाँ इनसे बात नहीं बनती वहाँ धन लालच से खरीदा जा रहा है. इन पर भी तैयार नहीं तो नारी-पुरुष समान अधिकार की त्रुटि पूर्ण व्याख्या कर उसे बरगलाया जा रहा है.
 
वह तो धन्य हमारे संस्कार /संस्कृति और हमारी समाज की लाजमयी नारी इस इंफ़ेक्शन (छुआ -छूत के रोग ) का प्रभाव धीमा है और आज भी लग गये मनोरोग का उपचार सम्भव है. लेकिन अभी भी नारी सतर्क ना हूई ,और पुरूष यह मानने की भूल करता रहा कि उसने अपने परिवार को रोग प्रतिरोधक सुई (वैक्सीन) लगवा रखी है तो धोखा संभावित रहेगा. नहीं चाहता ऐसा कुछ हो जायेगा. आवश्यकता इस बात की है पुरुष अपने परिवार की नारी को यथोचित सम्मान से रखे ही , अन्य परिवार की नारी को भी समतुल्य सम्मान दे.

 मन उस वैज्ञानिक को धिक्कारने को होता है , जिसने अपने टेलेन्ट (प्रतिभा ) से कैमरे का आविष्कार किया था. और आधुनिक तकनीक से आज जिस की क्षमता अत्यन्त विकसित कर ली गई है . अगर इस तरह इस (कैमरे) का प्रयोग की कल्पना वह करता तो शायद ही वह इसे लोकार्पित करता. वह होता उसको यह देख कितना धक्का लगता कि उसके परिवार के 20 पीढ़ी बाद की नारी इसी कैमरे नामक वस्तु के प्रयोग से अश्लील स्वरूप में पूरे विश्व को प्रस्तुत की जा रही है . और नारी देह के भूखे -प्यासे दुनिया भर में वासना की दृष्टि से उस प्रस्तुति को अनेकों बार गंदा कर रहे रहे हैं.
 कैमरे तकनीक का रोलबैक तो सम्भव नहीं है, इसलिए उसकी (कैमरे) की क्षमता का हितकारी प्रयोग सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है . हमें नारी को घर में और बाहर आदरणीया ही देखना होगा फ़िर वह चाहे हमारी माँ -बहन बेटी या पत्नी हो या दूसरों की माँ -बहन बेटी या पत्नी हो. नारी का उपहास और शोषण अव्वल स्वयं हमें ही बन्द करना होगा और बाद में अन्य से भी ऐसा कराया जाना होगा. कैमरे के प्रयोग से नारी को सिर्फ़ और सिर्फ़ गरिमामयी रूप में ही क्लिक करना होगा

पहले दूसरा बदले फ़िर हम बदलेंगे यह बहाना,  समस्या समाधन नहीं कर सकेगा.  हमारी करनी का बुरा फल , हमारी आगामी पीढ़ियां भोगने को अभिशापित होंगीं. बचें इससे , यह पूरी हमारी पीढ़ी पर सयुंक्त दायित्व है .

--राजेश जैन
13-05-2014

Saturday, May 10, 2014

अगली शताब्दी , कुछ दृश्य

अगली शताब्दी , कुछ दृश्य
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दृश्य 1
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(सन 2156 )

विधि मंत्री पार्लियामेंट हॉउस मे  … इस तरह ध्वनि मत से हॉउस इस संविधानिक संशोधन को पास करता है , जिसके तहत विभिन्न संस्थाओं में किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत विवरण में माँ और पिता का नाम अनिवार्य था , व्यवहारिक सरलता के लिये अब ऐसे समस्त स्थानों पर माँ का नाम का उल्लेख पर्याप्त होगा।

दृश्य 2
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(सन 2170 )

गृह मंत्री पार्लियामेंट हॉउस मे.  … आज सदन के एजेंडा में तीन प्रस्तावों पर चर्चा की जानी है ,
1 .  वृध्दा ,रोगी, पराश्रिता 50 वर्ष से अधिक आयु की नारी के पुनर्वास के लिये  देश भर में एक लाख "नारी पुनर्वास गृह " जिन पर व्यय 300 अरब डॉलर अनुमानित है का निर्माण अगले तीन वर्षों में कराया जाये।  यह देश की ऐसी नारी नागरिक की गंभीर समस्या के समाधान के लिये प्रस्तावित है जो रोगी या वृध्दा होने के साथ इस तरह लाचार हो गई है कि स्वयं की देखभाल में असमर्थ हो गई है।  जिनको अब पुरुष साथ नहीं मिल पाता है।


2  .  वृध्द ,रोगी, पराश्रित 50 वर्ष से अधिक आयु के पुरुष  के पुनर्वास के लिये  देश भर में एक लाख अतिरिक्त "वृध्द पुनर्वास गृह " जिन पर व्यय 270 अरब डॉलर अनुमानित है का निर्माण अगले तीन वर्षों में कराया जाये।  यह देश के ऐसे  पुरुष  नागरिक की गंभीर समस्या के समाधान के लिये प्रस्तावित है जो रोगी या वृध्द होने के साथ इस तरह लाचार हो गये है कि स्वयं की देखभाल में धन व्यय कर सकने मे असमर्थ हैं जिससे उन्हें कोई पुरुष या नारी सांथ सुलभ नहीं बचा है। 

3 .  शिशु लालन -पालन (5  वर्ष से कम आयु) :- ऐसे बच्चे जिनको किसी नारी द्वारा जन्म तो दिया है किन्तु उनके बदलते पुरुष मित्र के द्वारा नापसंद किये जाने के कारण  नारी द्वारा लालन -पालन किया जाना कठिन हो रहा है उनकी जीवन रक्षा के लिये  देश भर में एक लाख "शिशु  लालन -पालन गृह " जिन पर व्यय 320 अरब डॉलर अनुमानित है का निर्माण अगले तीन वर्षों में कराया जाये।  यह देश के भविष्य के  नागरिक के लिये गंभीर संकट बन रहा है इससे निबटने  के लिये शिशु  लालन -पालन गृह प्रस्तावित है।

गृह मंत्री के प्रस्ताव वक्तव्य का मेज थपथपा कर सदस्य स्वागत करते हैं और चर्चा आरम्भ होती है.


दृश्य 3
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(सन 2185 )
क्लास रूम मे 2 बच्चे शब्दकोष (नेट) से कुछ शब्दोँ के अर्थ ढूँढ़ उन्हें याद कर रहे हैं ……

जॉन, जोनी से पिता का अर्थ (मीनिंग) क्या है , जोनी खोज (search)  कर जॉन से
पिता : माँ के उस समय का साथी ,जिस पल बच्चा गर्भ में आया था।
जॉन, जोनी से अब देख पति का अर्थ (मीनिंग) क्या है , जोनी खोज (search) कर जॉन से
पति : नारी का पुरुष साथी जो प्राचीन समय में आजीवन नारी के साथ रह्ता था।
जॉन, जोनी से अब देख पत्नी का अर्थ (मीनिंग) क्या है , जोनी खोज कर जॉन से
पत्नी : वह नारी जो किसी पुरुष के साथ तथाकथित विवाह नाम की रस्म कर उस पुरुष के साथ आजीवन एक परिवार मे रहती थी।
जॉन, ये परिवार शब्द  का अर्थ (मीनिंग) क्या है , जोनी (search) खोज कर जॉन से
परिवार : प्राचीन काल में वह सामाजिक ईकाई परिवार कहलाती थी , जिसमें पिता , माँ  ,बच्चे और की एक या अधिक पीढ़ी साथ रहती थी।
जॉन, और ये विवाह  का अर्थ (मीनिंग) क्या है , जोनी (search) खोज कर
 विवाह : पुराने समय में पुरुष और नारी सामान्यतः समवयस्क एक रस्म या विधिक प्रक्रिया पूरी कर आजन्म साथ रहना आरम्भ करते थे और आपस मे पति-पत्नी नामक रिश्ते से बँधते थे उस रस्म या विधिक प्रक्रिया को विवाह कहा जाता था।

जॉन और जोनी बतियाते हैं मतलब प्राचीन समय मज़ेदार होता रहा होगा इतने अलग अलग उम्र के व्यक्ति और बच्चे एक साथ रह लेते होंगे।

दृश्य 4
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(सन 2190)
इतिहास का विद्यार्थी "रिची"  का शोधपत्र जिसकी विश्व विद्वानों ने सराहना की के कुछ अंश …....

हजारों वर्ष की मानव सभ्यता यात्रा से अनुमोदित परिवार ईकाई के विलुप्ति के कारण …
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पिछली दो शताब्दियों में पुरूष और नारी के संबन्धों में स्वच्छंदता धीरे धीरे बढ़ती गई। ये विवाह पूर्व में सम्बन्ध स्थापित करने लगे। विवाह पूर्व ही भिन्न साथियो की आदत विवाह उपरान्त भी अति स्वच्छंदता के रुप में देखी जाने लगी।  जो पारिवारिक कलह की इतनी बढी समस्या हो गई कि दोनों (पुरुष और नारी ) के लिये परिवार मे रहना कठिन हुआ और इस तरह परिवार अस्तित्व घटते गये और आज    विश्व के अधिकांश हिस्से मे से विलुप्त हो गये हैं।

परिवार की विद्यमानता (अपवाद रूप मे ) आज भी है  
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विश्व में भारत आज भी वह देश है जिसमें समाज आज भी परिवारों से बनता है और जहाँ परिवार और समाज में सर्वत्र हर्ष प्रसन्नता व्याप्त है।

शेष विश्व की दूषित हवा भारत में क्यों और कैसे नहीं पहुँच पाई ?
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यह भारत की भव्य संस्कृति की महिमा है।  वास्तव में विश्व का कर्णधार राष्ट्र भारत छह -सात सौ वर्ष की परतंत्रता के बाद सन 1947 में स्वतन्त्र हुआ था।  पराधीनता की लम्बी अवधि में शासकों की अपसंस्कृति का प्रभाव और शासकों द्वारा लूटे जाने से धन अभाव से नई स्वतन्त्र पीढ़ी अभिशापित रही। पराधीनता से हुई सांस्कृतिक ,सामाजिक ,और व्यवहारिक क्षति की प्रतिपूर्ति को राष्ट्र उपाय कर रहा था तब कुछ पक्ष अनदेखे रह गये और बाह्य संस्कृति के आचरण व्यवहार ने समाज में जड़ जमानी आरम्भ की . इस काऱण के साथ ही  इसी समय स्वतंत्रता प्राप्ति के आनन्द में भी स्वतंत्रता के बाद 60 -65 वर्षों तक निश्चिंतता के आलम में पाश्चात्य स्वंच्छन्दता की घुसपैठ वहॉँ भी आरम्भ हुई।  लेकिन इसे भव्य संस्कृति और धर्म का चमत्कार कहा जायेगा कि परिवार संस्कृति पर आये संकट की येन समय अनुभूति इक्कीसवीं सदी के आरम्भ की पीढ़ियों ने किया, और सजग हो गये। तब सुधारात्मक उपाय किये गये . इस तरह वहाँ परिवार अस्तित्व बना रहा और सामाजिक वातावरण  वहॉँ सुखद बन गया

यह चमत्कार वहाँ अचानक कैसे सम्भव हो पाया
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इक्कीसवीं सदी के आरम्भ की युवा पीढ़ी ने वास्तविकता की पहचान की। उन्होंने समझा कि हजारों वर्ष के मानव अनुभव के बाद अन्य प्राणियों से अलग परिवार मे रहने की पध्दति ही प्राणियोँ में श्रेष्ठ है।  उस पीढ़ी ने उस समय नायक के रूप में जाने गये ऐसे व्यक्तियोँ की पह्चान भी कर ली जो नायक नहीँ थे।  जो लोकप्रिय होने से वैभव शाली तो हो गये थे उनकी ग्लैमरस चमक दमक से प्रशंसक सम्मोहित हो रहे थे और ये अति स्वार्थी हो कर देश और समाज में अपनी भोगलोलुपता मे स्वछंदता प्रौन्नत कर रहे थे।  उस समय के युवाओं ने जैसे ही इस वास्तविकता को समझा उन्हें आसन्न संकट की कल्पना हो गई।  उनके दृढ संकल्पों से पहले तो देश में ऐसे नायकों का तिरस्कार किया गया।  और फिर समाज हितकारी आदर्शों और सिध्दांतों का अनुकरण किया गया।  भारत की उस पीढ़ी को और वहॉँ की भव्य पुरातन संस्कृति का संरक्षक करार दिया गया है जिसे भटकी समाज व्यवस्था को सही पथ ले आने वाले चमत्कार का श्रेय जाता है . जिसके कारण अन्य हिस्सों मे इतिहास हुआ मानव पारिवारिक जीवन वहाँ आज वर्तमान है।  और उसके (भारत) के नेतृत्व में पुनः सम्पूर्ण विश्व का भविष्य बनेगा।

(लेखक का मंतव्य समस्या के मूल पर प्रहार करना है , किसी को मानसिक क्लेश देना नहीं है ,फ़िर भी अनायास जो ऐसा अनुभव करते हैं उनसे अग्रिम क्षमा प्रार्थना है.शब्दों का चयन सतर्कता से किया गया है समाज के सभी वय के पाठक पढ़ सकें इस हेतु अमर्यादित शब्द से बचने  का यत्न भी किय गया है। और शालीन शब्दों में संकेत किये गए हैं )

--राजेश जैन
11-05-2014

Friday, May 9, 2014

अति महत्वाकांक्षा

अति महत्वाकांक्षा
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जीवन अपनी पूर्ण आयु तक जीना हमारा कर्तव्य होता है।
उस विधि के प्रति जिसने ये जीवन दिया
साथ ही उस जननी के प्रति जिसने पीड़ा के 9 महीने व्यतीत किये और
उस मातृ -पितृ ऋण के लिये जिन्होने अपने जीवन सपने हमारे जीवन अस्तित्व में देखे हैं हमारा विनम्र दायित्व होता है ,कि हम अपना पूरा जीवन जियें।

अवसादों के पलों में जीवन से विमुख करते ख्यालों को अपने इन "जीवन दायित्वों " के स्मरण रखते हुये तज देना चाहिये।
जिन व्यक्तिगत ,पारिवारिक या सामाजिक परिस्थितियों से जीवन को विमुख करते विचार उत्पन्न होते हैं अपने "जीवन दायित्वों " को याद कर उनको (परिस्थितियों ) बदलने की चुनौती हमें लेनी चाहिये।

इन चुनौतियों का सामना करता जीवन सिर्फ़ हमें ही नहीं अपितु दूसरों को जीवन सम्बल प्रदान कर सकता है जब हम पारिवारिक और सामाजिक उन (प्रतिकूल ,बुरी ) परिस्थितियों को परिवर्तित कर देते हैं।

"जीवन सिर्फ़ निज अपेक्षाओं का नाम नहीं है बल्कि समग्र पारिवारिक , सामाजिक और मानवीय अपेक्षाओं का नाम है। "

इसलिये उन निज भौतिक महत्वाकांक्षाओं को कम करना चाहिये जिनकी पूर्ति ना होने से जीवन को विमुख करते ख्याल हम पर हावी होते हैं। महत्वाकांक्षाओं को कम करने का आशय कतई महत्वाकांक्षा हीन होना नहीं है। बल्कि जितने हम हैं उससे बढ कर महत्त्वाकांक्षी होने की प्रेरणा है।

क्योंकि यदि हम अपने जीवन को इस तरह जियें जो ना सिर्फ़ हमें सम्बल देता है बल्कि हमारे परिवार , हमारे समाज और मानवता को सम्बल प्रदान करता है तो वह अति महत्वाकांक्षी जीवन होता है


--राजेश जैन
10-05-2014
 

प्रेरणा - मानवता और समाज हित
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(https://www.facebook.com/PreranaManavataHit)
इस तरह हम महत्वाकांक्षी नहीं , अति महत्वाकांक्षी हो जाते हैं और विधि प्रति , माता -पिता प्रति , समाज प्रति अपने दायित्वों का कुशल निर्वहन कर समाज और विश्व को वह वातावरण देते हैं जिसमें सभी को पूर्ण जीवनकाल की सुनिश्चितता मिलती है ,प्रेरणा मिलती है।

--राजेश जैन
10-05-2014

नारी चेतना और सम्मान रक्षा
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(https://www.facebook.com/pages/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE/161318810691911?ref=hl)
विशेष कर युवा और वह भी नारी आत्महत्या के अप्रिय कदम उठाती पाई जाती हैं , जिसके मूल में प्रेम में असफलता ही अधिकतया काऱण होता है।
बहन -बेटियां इन प्रेम के चक्कर में पड़ने से बचें क्योंकि प्रेम अगर सच्चा है तो असफलता का प्रश्न नहीं होता और जो हमें सच्चा प्रेम करता है वह दगा दे नहीं सकता। वस्तुतः आज जिसे प्रेम कहा जा रहा है वह मात्र दैहिक आकर्षण है जो देह प्रमुखता से होने के कारण खत्म होता ही है ,क्योंकि हमारी देह वैसी ही आकर्षक कभी नहीं रह सकती या देह प्रेमी को हमसे अधिक आकर्षक देह मिल सकती है।
यह मात्र भोग प्रवृति है जो पाश्चात्य विश्व की वस्तु है जो जीवन को इस संकीर्ण दायरे में सीमित करती है।  मनुष्य जीवन इससे कहीं बहुत अधिक सम्भावनाशाली है जो अनन्त अच्छे कर्मो का जनक और उपलब्धियॉं युक्त हो सकता है।  कम से कम पूर्ण और अच्छा तो हर किसी का हो सकता है।

--राजेश जैन
10-05-2014



Tuesday, May 6, 2014

इंसान के चोले में जब इंसान ही बसा होगा

इंसान के चोले में जब इंसान ही बसा होगा
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हम से अलग होता कोई
दुःख तब हमें होता है
दुःख हमारा बढ़ता और
जब प्रिय वह सुखी नहीं
दुःखी अधिक होता है

राष्ट्र एक जुदा बना
सुखी वह नहीं रह पाया
हमारा था प्रिय क्षेत्र
बाँटा भी सुखी न रह पाया


हम पीड़ा में हमारा प्रिय
हमसे दूर चला गया था
जाते हुये अंग भारत का
जुदा हमसे करके गया था


 दिल पर पत्थर रख लिया
 खुशहाली वहाँ होती तो
 संतोष हम कर लेते थे


 खुदगर्ज कृतघ्न अब वह
 हमारे सुख से जलता है
 दुष्ट स्वयं वह , हमें दुष्ट
 विख्यात किया करता है


 खेप नकली नोटों की और
भेज उपद्रवी हमारे यहाँ
भेज नशाकारी पदार्थोँ को
हमें दुखी वह करता है


इंसान तो जो बसते हैं
मगर हैवानियत  करते हैं
मुल्क तभी सुखी होगा
इंसान के चोले में जब
इंसान ही बसा होगा


मतभेदों से मुक्ति को
जुदा होना ना समाधान है
आपस में समझ बढ़ायें
सुख हेतु यही समाधान है


--राजेश जैन
06-05-2014

प्रश्न जब आप अपसेट होते हैं क्या करते हैं ?



प्रश्न जब आप अपसेट होते हैं
क्या करते हैं ?
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मै लिखने बैठ जाता हूँ ,
लिखने में व्यस्त होने पर
सोचने पर जोर पड़ता है
दिमाग पर और मै
दुनिया जहान से दूर
अपने निकट आ जाता हूँ


इस प्रयास मे कुछ अच्छा
लिख जाता हूँ
पोस्ट कर कुछ  से
प्रशंसा पा जाता हूँ


और दिल की बात
किसी की समझ सका
अपेक्षा उनकी भी समझ सका
सभी की ख़ुशियाँ मुझसे ही
मिलती जुलती हैं
सभी को बुरा वह लगता
जो बुरा मुझे लगता है
यह ज्ञान होने पर
आचरण ,व्यवहार मेरा
भविष्य हेतु सुधर जाता है


तब मै अपसेट ना रहकर
दुनिया में सेट हो जाता हूँ


--राजेश जैन
06-05-2014

Sunday, May 4, 2014

जन्म जन्म का साथ

जन्म जन्म का साथ
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पत्नी को लक्ष्य (विशेषकर हास्य दृष्टि से ) करना शायद यह भारतीय शैली नहीं रही होगी. यह शैली पाश्चात्य विश्व से आयातित हुई होगी. लेकिन आज अधिकांशतः जोक्स और पोस्ट में उनका(पत्नी का) उपहास ही झलकता है. अपवाद स्वरूप ही कुछ लेखन पत्नियों की प्रशंसा के दिखाई पड़ते हैं.

वस्तुतः भारतीय पुरुष और नारी , पति-पत्नी के रिश्ते मे जब पिरोये जाते हैं तो उनमें परस्पर आधिपत्य भाव (possessiveness) होता है. भारतीय दाम्पत्य में यही सुन्दरता होती है , और इसलिये भारतीय पति-पत्नी एक दूसरे मे उपहास नहीं श्रध्दा करते हैं.

पाश्चात्य विश्व में यह बंधन अटूट नहीं रहा होने से पति-पत्नी आपस मे भारतीय गाम्भीर्य से यह संबन्ध नहीं निभाते हैं. विवाहित होकर भी वे अन्य पुरुष /नारी में संबन्ध सम्भावना टटोलते हैं , इसलिये अन्य नारी की तुलना से पत्नी में हास्य लक्ष्य करते हैं . स्वछंदता और चंचलता के कारण ही वहाँ परिवार मे आबन्ध (bond) उतना दृढ नहीं होता हैं.

भारतीय दाम्पत्य में पत्नी ,संस्कारों से ही पति मे श्रध्दा और समर्पण रखती है. भारतीय दाम्पत्य का अनूठापन यह होता है कि युवा अवस्था मे पति-पत्नी के मध्य जो मधुरता होती है , लगभग उतनी मधुरता या उससे अधिक प्रौढ़ावस्था के बाद होती है.

अपनी सुशील पत्नी के परिवार और स्वयं के प्रति त्याग , स्नेह और आदर भाव को स्मरण करते हुये प्रौढ़ावस्था में (पुरुष) पति का आधिपत्य भाव (possessiveness)  , उसके (पत्नी ) प्रति अगाध श्रध्दा भाव मे परिवर्तित होने लगता है.  तब आश्रिता (धन ही नहीं अन्यान्य तरीके से ) रही अपनी पत्नी पर की गई सख्ती से उसे पछतावा होता है , वह सोचने लगता है उसके (पत्नी के) प्रेम के प्रतिउत्तर मे उसने (पति ने) जो किया है वह पर्याप्त नहीं है. तब वृध्दावस्था में पत्नी के प्रति अनुराग (fondness) उमड़ता है. वह आगामी जन्मों में भी अपनी पत्नी को ही जीवनसाथी देखना चाह्ता है ,ताकि अपनी पत्नी के लिये वह असीम प्रेम और श्रध्दा से भरपाई कर सके …

भारतीय समाज में इसलिये विवाहितों का जन्म जन्म का साथी कहा जाता है. स्वच्छंदता अपनाती नई पीढ़ी इसी जन्म में तीन साथ कर "जन्म जन्म का साथ" के भारतीय संस्कृति की भव्य विरासत को क्षति पहुँचाकर जीवन से शायद ही कुछ पायेगी  और किसी को सिवाय छल और धोखे के शायद ही कुछ दे पायेगी   ....

(लेख में पाश्चात्य विश्व , और भारतीय युवा पीढ़ी के लिये व्यापक (generalized) रूप से लिखा है , जबकि अनेकों अपवाद हैं , अपवाद लक्षित नहीं किये गये हैं , जिन्हें अन्यथा लगता है वे भारतीय संस्कृति के वाहक हैं और इसलिये प्रशंसा के पात्र भी.  लेख आत्मावलोकन को प्रेरित करने के उद्देश्य से पोस्ट किया गया है , ताकि बढ़ती स्वछंदता जो लेखक की राय मे समाज हितकारी नहीं है पर काबू किया जा सके )

--राजेश जैन
04-05-2014

Friday, May 2, 2014

स्वाति पाराचूरी के साथ अनमोल जीवन सम्भावना की मौत

स्वाति पाराचूरी के साथ अनमोल जीवन सम्भावना की मौत
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बेहद दुखद हादसा एक भारतीय परिवार की एकलौती , आशादीप , लाड़ली बेटी स्वाति पाराचूरी की चैन्नई स्टेशन पर विस्फोट में मौत.
भारतीय परम्पराओं से घर के अन्दर चाहरदिवारियों मे जीवन बसर करती परिवार की रीढ नारी , जिसके समक्ष संस्कृति ने हमें श्रध्दा से नतमस्तक होना सिखाया.
आज  ऐसी आधुनिकता में हम आ पहुंचें , जिसमें नारी को घर के अन्दर सम्मान और सुरक्षा ना दे सके. बाध्यता में उसे पग चौखट के बाहर निकलना पड़ा . जीवन यापन और सम्मान के लिये संघर्ष का रास्ता ढूंढना और उपाय करना पड़ा. सम्मान से नारी नारी का भरण पोषण नहीं कर सके कम चिंतनीय था लेकिन जब वह बाहर निकली तो  घर के बाहर अकेला पाकर काम वासना का भेड़िया उस पर टूट पड़ा , कहीं बरगला कर उसे तमाशा की वस्तु बना दिया.
 नेट पर ,फ़िल्मी परदों और विज्ञापनों में उसे  अश्लील तरह से प्रदर्शित किया गया . वहाँ उसे आधुनिका कह कर बरगलाया गया , वह विचार ना कर सके उसके हाथ में धन और आसपास झूठे सम्मान के दृश्य और साधन सजा दिये गये. जहाँ सहमति नहीं बना सका वहाँ जोर जबरदस्ती से उस पर टूटा. 

                                                   " नहीं घर में चैन दिया
                                                     नहीं बाहर चैन दिया
                                                    बेटा बलवान हुआ पुरुष
                                                    हर जगह बेचैन किया "

विषाद का विषय है.  वातावरण बहुत दूषित बन गया है. बेटी स्वाति पाराचूरी की कारुणिक मौत पर लौटें.  हार्दिक श्रद्धांजलि उसके लिये है.  लाखों धिक्कार सभ्य कहलाते मानव को है. वैसे भी जीवन पर मौत की आशंकायें अनेकों थी , मानव निर्मित हादसों में मौत जिस परिवार पर बीतती है वह जाति आधारित ,क्षेत्र आधारित , भाषा आधारित और धर्म आधारित हमारी निष्ठाओं को और अन्धविश्वासो को कोटि कोटि बार कोसता है.

                                  "   हे मानव ,जल्द से जल्द तुम चैतन्य हो जाओ
                                      भगवान से लड़ना पड़े तो लड़ जीवन दिलाओ
                                      ऐसा समाज जिसमें जीवन असमय विराम का
                                      कहीं कभी भूल से भी कारण तुम ना बन जाओ "

हम आशा करें कि अनेकोँ संम्भावनाओं को संजोये एक भी मौत का अब  जान समझ कर क़ोई भी काऱण नहीं बनेगा. सभी पुरुष और नारी एक दूसरे को  और परिचित -अपरिचित को  इस तरह सुरक्षा प्रदान कर अपना और सबका जीवन आधार बनेगा . सभ्य मानव होने का स्वयं सम्मुख साक्ष्य प्रस्तुत करेगा.

--राजेश जैन
03-05-2014

चलेंगे साथ ले चलेंगे

चलेंगे साथ ले चलेंगे
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साथ आ जाओगे
हम साथ चलेंगे
जीवन है चलना
हम थम न सकेंगे

खड़े तुम रहोगे
तो अड़े न रहेंगे
कदम साथ बढ़ाओ
साथ साथ चलेंगे


सहायता चाहोगे
रुक मदद करेंगे
सार्थक जीवन हो
मदद को रुक सकेंगे


 मानवता से रहेंगे
 मानवता की कहेंगे
 मानव हैं इसलिये
 प्रेरणा मानवता देंगे


 हम बुरा ना करेंगे
 बुराई को मना करेंगे
 बढ़ी बहुत समाज में
 कमी के उपाय करेंगे

शुभ संकेत भापेंगे
जीवन सही मापेंगे
जिया अपने लिए
भलाई लिए जियेंगे


हम अवश्य चलेंगे
परहित प्रेरित करेंगे
चलना ज़िंदगानी
बुरी राह ना चलेंगे


भले पथ मिलेंगे
भले पथ बनायेँगे
सब भी चलें चाहते
चलेंगे साथ ले चलेंगे


--राजेश जैन
02-05-2014