Saturday, August 31, 2013

ना हो हताश प्रिय साथी को खोकर...

ना हो हताश प्रिय साथी को खोकर...
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ना हो हताश किसी प्रिय साथी का साथ खोकर
जीवन मिला तो ऐसा रहता है कभी होकर
ना पा सका तुम्हें उसने जिया तुम्हें खोकर
इसलिए तुम्हें जो मिलो जिओ उसके होकर


लगता जिसके बिना हमें जिंदगी बिताना दुष्कर
और वंचित हुए जीवन में साथ उसका ना पाकर
खोकर उसे ,मिला खाली समय जो उसे हम देते
उस समय में हमने कुछ दूसरे साथ पाए

जो पाया जीवन में लगा ना हमें बहुत मधुर
अप्रिय सा लगता ऐसा जीवन हमें ना मिलता
लेकिन यदि मिलता देखते ऐसा किसी और को
तब उसको मिले की ,कल्पना होती हमें सुमधुर

इसलिए रहें प्रसन्न जो साथ उपलब्ध हैं जीवन में
जो साथ लगता था हमें हमारी ज़िन्दगी जैसा
हम ना हुए धन्य कोई अन्य धन्य साथ पा गया जिसने
हमें मिली ज़िन्दगी की कल्पना होगी धन्य किसी अन्य की


कल्पना है नारी जात होती सुन्दर और प्यारी
यथार्थ वह पुरुष जात जो लगता कठिन सभी को
इसलिए जियो यथार्थ करो जीवन पथ अपना पूरा
रख कर सुन्दर कल्पना ह्रदय ,नयनों में जैसे सपना   

सुन्दर कल्पना और पाला हुआ अपना सपना
जीवन को उन्नति दे ऐसे लक्ष्य पर पहुंचाएगी
जीवन कल्पनाओं से अधिक सुहाना बन पायेगा
जिसे देख दुनियाँ दाँतों तले उँगलियाँ दबाएगी

पढ़ें ,समझें मित्र जीवन लगभग एकसा होता सबका
अपेक्षाएं आवश्यकतायें जीवन से सबकी हैं होती
जिसकी अपेक्षा तुमको गर उसको भी तुम्हारी अपेक्षा
मिलोगे दोनों अन्यथा चलने दो उसे पृथक पथ पर

जबरन खींच अपनी ओर जो पाओगे
अन्याय बोध जीवन भर कष्ट दे जाएगा
देखो, अनुभव करो जीवन जो चलता न्यायपूर्वक
मिलती प्रसन्नता तुम्हें और तुम्हारे उस प्रिय को

--राजेश जैन
01-09-2013

Tuesday, August 27, 2013

सुन्दरता वरदान है अभिशाप ना बने

सुन्दरता वरदान है अभिशाप ना बने
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सारे मनुष्य सुन्दर नहीं होते .कुछ सामान्य और कुछ अति सुन्दर होते हैं . निशंक रूप से सुन्दरता सभी को आकर्षित करती है . अतः कोई सुन्दर है तो दिखने मात्र से उसे हर कहीं प्रथम उपस्थिति या पहली मुलाक़ात में सभी पसंद करते हैं . ऐसी अनुकूलता कहीं मिलना वरदान होता है . जो सुन्दर नारी -पुरुष को सहज मिलता है . जबकि कम सुन्दर को अपनी प्रथम उपस्थिति या पहली मुलाक़ात में इस प्रकार पसंद किया जाएगा इसकी सम्भावना कम होती है . उसे ऐसी अनुकूलता पाने के लिए अपनी अन्य प्रतिभा का परिचय देना होता है . वह अपने विषय का पारंगत हो , सदगुण संपन्न हो ,सदाचारी हो अथवा व्यवहारकुशल हो या अति धनवान हो इत्यादि . इन बातों के अनुभव किये जाने के पूर्व तक सुन्दरता को जो सहज लाभकारी वातावरण मिलता उसे नहीं मिल पाता . इन बातों की कमी के बाद भी सुन्दर ,कम सुन्दर से अधिक सुविधा जनक स्थिति में होता है . इसलिये सुन्दरता का होना वरदान कहा जा सकता है .

लेकिन सुन्दरता सतर्क ना हो तो ऐसी स्थिति भी निर्मित हो सकती है जो अभिशाप जैसी हो जाती है . सुन्दरता का वरदान तो नारी -पुरुष दोनों को लगभग समान मिलते हैं . लेकिन सुन्दरता अभिशप्त होते नारी के लिए ज्यादा अनुभव होती है . अतः इस लेख में नारी सुन्दरता लेखन केंद्र है .

वास्तव में सुन्दर नारी पर बचपन से ही अधिक खतरे होते हैं और किशोरावस्था से लेकर प्रौढ़ वय तक उसे खतरे से अपने बचाव के लिए निरंतर सतर्क रहना पड़ता है . नारी सुन्दरता हर पुरुष चाहे वह सुन्दर हो अथवा  नहीं , किशोर से लेकर वृध्द ,धनहीन से लेकर धनवान और दास(नौकर-अधिनस्थ ) से
लेकर मालिक (या बॉस ) सभी को आकर्षित करती है . ऐसे में इनमें से कोई भी कभी भी नीयत से डोल सकता है . और अवसर मिलने पर नारी पर दैहिक शोषण हेतु हमला कर सकता है . यदि नारी अतिरिक्त रूप से सतर्क ना हो तो वह अवसर उसे घर ,कार्यालय, बाजार , यात्रा यहाँ तक धर्मालयों कहीं भी मिल सकता है  .

ऐसे हमले में मर्यादा उल्लंघन का दोषी तो पुरुष होता है किन्तु अभिशाप नारी को निर्दोष होने पर भी भुगतना होता है . इसके लिए दोषी परंपरागत वह मानसिकता है जिसमें दैहिक शोषण की शिकार नारी को भी धिक्कार की दृष्टि से देखा जाता है . हालांकि मानसिकता में परिवर्तन तो आ रहा है . कुछ साहसी पुरुषों और नारियों ने इस तरह निर्दोष और छली गई नारी का भी ससम्मान साथ निभाने की भलमनसाहत और दृढ़ता प्रदर्शित तो की है लेकिन संख्या बिरली ही है . इसलिए असतर्क नारी सुन्दरता अभिशाप बन सकती है . नारी का पूरा जीवन मुश्किलों से भरा हो सकता है  .

नारी की ऐसी स्थिति के लिए शरीर संरचना और शारीरिक कमजोर शक्ति कारण है . लेकिन यह उसे प्राकृतिक रूप से मिली है जिसमें ज्यादा बदलाव मनुष्य नहीं कर सकता . पुरुष जबरदस्ती इसलिए कर पाता है क्योंकि नारी प्रतिरोध बचाव में शक्ति की कमी से पर्याप्त नहीं होता . और जबरदस्ती किये दैहिक शोषण से गर्भ ठहर जाए तब भी मानसिक ,शारीरिक और प्रतिष्ठा हानि नारी की ही होती है .

इन सब कारणों को ध्यान में रख सुन्दरता का वरदान बने रहे वह अभिशाप सिध्द न हो नारी को सतर्क और सूझबूझ से रहने की आवश्यकता होती है .

बालिका जब तक है माँ -पिता (विशेषकर माँ ) का ये दायित्व होता है . युवती से प्रौढ़ होते तक स्वयं और विवाहित होने पर स्वयं के साथ पति का दायित्व बनता है . वे घर , कार्यालय ,बाहर और यात्रा में
सुरक्षित रूप से कैसे रहें .

हो सके तो जब बालिका स्वयं समझदार ना हो सकी है तब तक उसे कन्या शाला में ही शिक्षा दिलवाई जाए . स्कूल -कॉलेज तक जाने आने के साधन भले मँहगे हों सुरक्षित चुनें . माँ (संभव हो तो पिता भी ) उनसे दोस्ताना रूप से वैचारिक आदान प्रदान और वार्तालाप रखें . उनमें (बेटी में ) सभी छोटी -बड़ी बात उनसे कहने और स्वयं सुनने की प्रवृत्ति डालें .

किशोरवय और उपरांत उन्हें पुरुष साथियों से भी सहयोग और चर्चाओं में रहना होता है . उसमें  सब
आवश्यक चर्चा तो करें . किन्तु व्यवहार और हावभाव से उनकी सीमा का अहसास दिलाये रखें . किसी पुरुष को सीमा से आगे बढ़ने की छूट ना मिले और किसी को इतना भी उपेक्षित या हेय व्यवहार ना दें जिससे उसमें बैर भाव इतने उत्पन्न हो जो उसे क्षति पहुँचाने को प्रेरित करे .

अपने बचाव के लिए उन विद्या का प्रशिक्षण लें जो किसी के ऐसी नीयत से हमले में कारगर हो . ऐसा कोई हथियार इस तरह से रखें जिसका बचाव में प्रयोग किया जा सके . जहाँ नशा किया जा रहा हो वहां ना रहें . क्योंकि वहाँ धोखे से नशे का सेवन नारी को भी कराया जा सकता है . फिल्मों ,टेलीविजन और नेट पर स्वछंदता जो दिखाई जाती है .उसे मनोरंजन से ज्यादा महत्त्व ना दें . वे पीढ़ी और समाज को शिक्षित करने की दृष्टि से निर्मित नहीं की जाती बल्कि व्यवसायिक लाभ के लिए बनाई जाती है . उनसे शिक्षा लेना उसकी नक़ल करना अपने प्रदत्त वरदान को अभिशाप बनाना होगा .  


कभी पुरुष सहयोग की आवश्यकता पड़ती है . नारी को परेशानी में देख नारी के अतिरिक्त पुरुष भी सहयोग को तत्पर होते मिलते हैं .(लेखक स्वयं यह तत्परता और भावना रखता है ). कुछ पुरुष वास्तव में सहयोगी भावना रखते हैं . स्थान और परिस्थिति अनुसार सतर्कता से उनसे सहयोग लेना बुरा नहीं है . किन्तु सहयोग के बदले बाद में उनपर अति विश्वास  कभी छले जाने का कारण (की आशंका ) हो सकता है .

अंत में पुरुष और आज के वैज्ञानिक पर उस उपाय और आविष्कार का दायित्व है जिसके प्रयोग से  असुरक्षित वातावरण में अपने पर हमले की दशा में बराबर की शक्ति से
नारी दुस्साहसी का जबाब दे . अपने बचाव में समर्थ हो . वह साधन इस प्रकार से डिजाईन हो जिसका  आक्रमणकारी नारी से प्राप्त कर नारी पर ही प्रयोग ना कर सके . अर्थात नारी को शक्ति में पुरुष से समानता इस प्रकार मिले जहाँ उसी के साधन से पुरुष अपनी शक्ति से बढ़कर उसपर हानिकारी ना बने .

जब तक ऐसा नहीं और हमारी सुरक्षा व्यवस्था इतनी समर्थ नहीं है . अपनी सूझबूझ और सावधानी से अपनी सुन्दरता का प्रयोग स्वहित ,नारी हित और समाज हित के करें उसे वरदान रूप में जीवन में हासिल रखें . उसे अभिशाप ना बनने दें .



नारी हमारे घर -परिवार और समाज का अभिन्न अंग है . अपनी सूझबूझ से अपना बचाव वह करे . इस तरह स्वयं को सुरक्षित नारी करेगी तो पुरुष और नारी के रिश्तों में कटुता और अविश्वास को विलोपित कर मानवता और समाजहित भी करेगी .
(क्षमा कीजयेगा लेखक मत कहीं यह दावा नहीं है कि नारी चेतना और सम्मान रक्षा के लिए यही सर्वोत्कृष्ट है  )
--राजेश जैन
28-08-2013





Monday, August 26, 2013

आखिर भूल कहाँ हो रही है?

आखिर भूल कहाँ हो रही है?
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लगभग हमारी बातों , वार्तालापों , fb पोस्ट , कमेंट्स, लेख , कविता और भाषणों में बुराई का होना और उसकी आलोचना होती है .
कथा -कहानियों और विभिन्न मंचों से प्रस्तुतियों में भी बुराइयों को लक्ष्य करते उनके मिटाने के उपाय और प्रेरणाओं की शिक्षा और सीख होती है .
ऐसा अगर है तो कारण स्पष्ट है कि बुराइयों से हमारा , बच्चों का और सामान्य जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है . लेखक भी सहमत है ये बुराइयाँ कम होनी चाहिए , मिटनी चाहिए या मिटायी जानी चाहिए .

इतने हृदयों में बुराई के प्रति चिंता और उनके अनेकों समाधान होने पर भी यदि बुराई कम होने की अपेक्षा बढती जाती हैं तो हम सोचने को बाध्य होते हैं, "आखिर भूल कहाँ हो रही है ?"

हमें जीवन अनुभव बहुत है ,विद्वान भी हम बहुत हैं , अपनी अच्छी परम्पराओं और उत्कृष्ट "भव्य संस्कृति " का गौरव बोध हम रखते हैं . परिवार , धर्म ,देश और समाज को हम अपना मानते हैं . अपने परिवार , धर्म ,देश और समाज की उन्नति का स्वप्न अपने ह्रदय में बसाये हुए हैं .
 
सारी बातों के लिए जितना गंभीर हमें होना चाहिए लगता है उतनी गंभीरता ना दे पाने के कारण ऐसा हो रहा लगता है .

वस्तुतः आसपास की बुराइयों से सर्वप्रथम अपने परिवार और अपना बचाव करने की सहज प्रवृत्ति हममें भी है , और इस के वशीभूत अनजाने ही कभी हम बुराइयों से बचने के लिए कुछ बुराई का सहारा लेकर अपना योगदान बुराई को बढाने में कर देते हैं . इस कारण बुराई घटने की जगह बढती है .

एक छोटा सा उदाहरण लें . हमें आशंकित रहते हैं , धन की कमी से कभी हमारा सामान्य जीवन यापन ,रोग -उपचार यहाँ तक की हमारी उदरपूर्ति भी कठिन हो जायेगी (जो एक सभ्य मनुष्य समाज के लिए या मानवता के आदर्शों के दृष्टिकोण से बुराई ही है) . इससे बचने के लिए हम धन संग्रह प्रवृत्ति को अपने ऊपर इस तरह हावी हो जाने देते हैं कि आयकर कम भरने , बिजली के बिल भरने से बचने तक की बुराई करने लगते हैं (हमारा तर्क होता है सब ऐसा कर रहे हैं ) .

स्वतः स्पष्ट है बुराई उस दिन तक अस्तित्व में रहेंगी जब तक स्वयं हमारे में ये विद्यमान रहेंगी .

अगर सच में हम बुराई उन्मूलन चाहते हैं . तो गंभीरता अपनी पहचान उन्हें तिलान्जित करने की पहल हममें से प्रत्येक को करनी होगी . जिस दिन तक अपने समाज के प्रति या मानवता के प्रति अपनी यह नैतिकता हम नहीं निभाएंगे हम अपने परिवार और बच्चों सहित बुराई के इस समुद्र में व्यथित होते रहेंगे . मनुष्य होते हुए सच्चे मनुष्य जीवन के सुख और आनंद उठाने से वंचित रहेंगे, अपने दूसरे साथियों को भी इससे वंचित करेंगे .
 
हम बुराई छाँटने के सद्कार्य का शुभारम्भ अपनी बुराई छाँट कर आज से ही करें .
 
--राजेश जैन
27-08-2013

Sunday, August 25, 2013

हमारी पीढ़ी इतिहास के प्रष्ठों पर

हमारी पीढ़ी इतिहास के प्रष्ठों पर
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आज का काल जब बीत जाएगा और इतिहास में सम्मिलित किया जाएगा तो कुछ निम्न तरह उल्लेखित होगा ..
इक्कीसवीं शताब्दी में तकनीक -विज्ञान और अध्यापन और विषय वस्तु बहुत उन्नत हो गए थे . जिनका ज्ञान अर्जित कर अधिकांश मनुष्यों ने अपना जीवन स्तर और सुविधा साधन अपनी पूर्व पीढ़ियों से बहुत ऊँचा कर लिया था .
अर्जित नई तकनीकों और उन्नत शिक्षा के सहारे अधिकांश ने स्वहित सिध्द किये थे . लेकिन व्यक्तिगत सुविधा को प्रधानता की सोच और समझ ने उन्हें स्वयं को तो प्रौन्नत (promote) किया था . लेकिन इस तरह की सोच और समझ सभी की हो जाने से अधिकांश व्यक्तिगत प्रौन्नति की कोशिशों में लग गए थे .सभी इस हेतु चतुराई कर अपनी ओर खींचतान में व्यस्त हो गए . तब उपलब्ध उच्च तकनीक -विज्ञान और अध्यापन और विषय वस्तु का लाभ मानवता और समाज के हित में प्रयोग नहीं हो पाया .
उपलब्ध उच्च तकनीक -विज्ञान और शिक्षा से जिन्होंने धन और प्रभाव अर्जित किया उन्होंने संचार साधनों को अपने पक्ष में प्रयोग की परम्परा स्थापित कर दी . और उस पर प्रस्तुतियाँ उनके दोषपूर्ण जीवनशैली से प्रभावित दिखाई जाने लगीं . देखे जाने के लिए सुलभ दूषित विचार और जीवनशैली से दुषप्रभावित दर्शक समूह पथ भ्रमित हुआ . जिससे इस काल में बाह्य आडम्बरों को प्रमुखता मिली . दैहिक सौन्दर्य और देह पर सुन्दर वस्त्रों (परिधानों ) और अभूषणों से तो मनुष्य आकर्षक दिखने लगा था . पर देह के अन्दर ह्रदय में चलने वाले विचार , भाव ,सिध्दांत और आस्थाएं पूर्व काल की तुलना में सुन्दर नहीं रह गयी थीं .
इस काल में आपसी विश्वास , स्नेह और परस्पर त्याग भावना निरंतर कम होते गयीं . पूर्व काल के तुलना में सार्वजानिक मेलजोल और उल्लास के पर्व फीके पड़ते गये . रात्रिकालीन (तामसिक पेय -भोज्य) आयोजनों में भाग लेने की प्रवृत्ति बढ़ी .  आम जन अपने परिवार में सिमटते गए . परिवार का भी सयुंक्त अस्तित्व समाप्त हो गया . जिस भी सदस्य की धन अर्जन क्षमता ना रही या वृध्दावस्था में रोगी हुआ वह उपेक्षित छोड़ा जाने लगा .
उन्नत ज्ञान -विज्ञान और तकनीक इस तरह व्यर्थ हुईं जिन्हें मानवता और समाजहित में परिणित नहीं किया जा सका .
इस काल के मनुष्यों ने समाज को वह रूप दिया जिसमें मनुष्य प्रजाति के अस्तित्व को बनाये रखना चुनौती पूर्ण हो गया

--राजेश जैन
25-08-2013

Tuesday, August 20, 2013

यह परिचय दें ...

यह परिचय दें (रक्षा सूत्र )
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अपना समय और धन बिन विचार के बहुत से कार्य और गतिविधियों में व्यर्थ करते हैं .
अगर विचार कर उसे इस तरह व्यय करें ताकि वह किसी परेशानी में पढ़े हमारे मनुष्य साथियों के लिए सहायक सिध्द होता है  तो हम अपनी विचारशीलता से मानवता को पोषित करते हैं .
और समाज का हित भी करते हैं जिसे बोलते तो अपना और मानते भी अपना हैं . लेकिन विचारहीनता से किये गए कर्मों से कहीं भी यह साबित नहीं करते कि यह अपना समाज है .

हम विचार करें और कहने और मानने के अतिरिक्त अपने कर्म और आचरण से भी यह परिचय दें "सच में यह समाज मेरा है "

यह समाज सुन्दर बनेगा जहाँ मानवता के वृक्ष लहलहाएंगे और मनुष्यों के बीच परस्पर "स्नेह ,विश्वास ,दया और त्याग " पल्लवित होगा . इस अदृश्य सम्बन्ध को एक सूत्र रूप में भी कल्पना कर सकते हैं (आज भाई -बहन के बीच रक्षा -सूत्र से बंधने और बाँधने का राखी पर्व है ) जिस का मूल्य न होते हुए भी मानवता के लिए अनमोल होगा .

परस्पर बंधने वाला यह रक्षा सूत्र "मानवता बंधन" होगा . जो भाई -बहन के मध्य के "रक्षा बंधन " का विस्तारित रूप होगा . जो ना सिर्फ  भाई -बहन के रिश्ते में अस्तिव में रहेगा ,अपितु हर "पुरुष -पुरुष " ,"नारी -नारी , " युवा -प्रौढ़ " और "धनवान - निर्धन" के मध्य भी बांधा जा सकेगा . जिसका बंधन का वर्ष में कोई एक दिन ना होगा  बिना मुहूर्त विचार के किसी भी दिन किसी भी समय यह "मानवता सूत्र" बांधा जा सकेगा


इस तरह निर्मित समाज और वातावरण के लिए हम सौ सौ बार मरना और इसमें जन्मना पसंद करेंगे .

--राजेश जैन
21-08-2013

Monday, August 19, 2013

एक दुस्वप्न

एक दुस्वप्न 
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अस्तित्व वह कर्म या वह वस्तु ही बचा पाती है जो सच्चा होता है .सारे प्रभाव और शक्ति लगा देने के बावजूद भी छद्म आचरण , छद्म नायक और सारी छद्म वस्तुयें अल्पकालिक सिध्द होती हैं . अपना अस्तित्व खो देती हैं .
आत्मावलोकन करें .. बच्चे और नासमझ ना रह जाने के बाद भी इस सत्य की समझ हम क्यों नहीं कर पाते .

क्यों स्वयं भटकते हैं .. अपने अनुजों को साथियों को आगामी पीढ़ियों के भटकाव में सहयोग देते  या कारण बनते हैं .

निश्चित ही जीवन अस्तिव है तो कुछ अपेक्षायें और आवश्यकतायें तो सभी की होती हैं . किन्तु इस तर्क पर अपेक्षायें और आवश्यकतायें की सीमा अनंत करते स्व-लालसाएं इतनी बढ़ाते हैं .

फिर जीवन पथ पर अग्रसर करने का मस्तष्कीय नियंत्रण खो कर लालसाओं से नियंत्रित होते अपनी जीवन रुपी गाड़ी को खाई में पातलोन्मुख उतार देते हैं . फिर आदर्श के आसमान से दूरी बड़ा कर उसे लालायित हो देखते रह जाते हैं . अपना अनमोल मनुष्य जीवन निरर्थक कर लेते हैं . अपने मानवता , समाज और आगामी सन्तति प्रति दायित्व निभाने में असफल होते हैं .

सबकुछ यहीं छोड़ दयनीय से विदा होते हैं . दायित्व पूरे करते कुछ सिध्दांत जीवन में पालन कर लेते तो बाद के जीवन के ह्रदय में एक नायक की मधुर छवि रूप में अस्तित्व में रह सकते थे .

किन्तु हेड्चाल और नासमझी से कर्म और आचरण में वह दोष ले आते हैं जिससे जिन्हें अपना समझा होता था वे भी हमारे योगदान (भ्रम ) ,जीवन और अस्तित्व को एक दुस्वप्न भांति भूलना श्रेयस्कर समझते हैं . और हम मौत के बाद अल्पकाल भी ही भुला दिए जाते हैं . छोड़ा वैभव भी कोई सहयताकारी सिध्द नहीं हो पाता .

--राजेश जैन
20-08-2013

Saturday, August 17, 2013

विशिष्ट व्यक्ति या नायक ( VIP or HERO )

विशिष्ट व्यक्ति या नायक ( VIP or HERO )
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अपनी कर्मस्थली पर किसी व्यक्ति के किये जाने वाले कार्य को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है .
एक -स्वयं की अथवा अन्य की मानसिक सोच पर स्वयं द्वारा किया शारीरिक श्रम .
दो  - स्वयं और अन्य की मानसिक सोच पर अन्य से करवाया शारीरिक श्रम .

सामान्य कहे जाने वाले व्यक्ति के किये गए कार्य में वर्ग एक में उल्लेखित कार्य का अंश ही प्रमुख रहता है . लेकिन विशिष्ट श्रेणी में पहुँच रहे व्यक्ति के कार्य में वर्ग दो की उपलब्धि क्रमशः बढती जाती है .
ऐसे में विशिष्ट व्यक्ति की श्रेणी में आ रहे व्यक्ति की "सोच -आचरण " सर्वहितकारी और मानवीय दृष्टि से न्याय पूर्ण होना आवश्यक होता है तभी व्यक्ति जीवन में मानवता और समाज हित अभिप्राय सिध्द कर पाता  है .
"सोच -आचरण "  को इस तरह त्रुटी रहित रखना अत्यंत कठिन कार्य होता है .

व्यक्तिगत अपेक्षाओं का नैतिक स्तर से अधिक हो जाने पर विशिष्ट व्यक्ति भी आसानी से मार्गच्युत होता है और लक्ष्य की दिशा खो देता है . ऐसे विशिष्ट व्यक्ति सामान्य व्यक्ति से भी हीन मानव रह जाते हैं .सच्चे  सिध्दांत और समाज व्यवस्था को अत्यंत क्षति पहुंचाते हैं .  लेकिन आरम्भ में अर्जित कर लिए गए प्रभाव के कारण वे लम्बे समय विशिष्ट ही कहे और माने जाते हैं . इन व्यक्तियों के लिए "छद्म नायक " शब्द का प्रयोग पूर्व लेखों में लेखक द्वारा किया गया है .

आज सच्चे विशिष्ट या सच्चे नायक बिरले ही हैं . जबकि छद्म नायक अनेकों हैं . ये समाज और सम्पूर्ण पीढ़ी को मानवता विपरीत पथों पर भटका रहे हैं . और देखादेखी करने की हेडचाल में "हम सामान्य" इनके अनुगामी होते हैं इन्हें पोषित करने का पाप अपने पर लेते हैं . और स्वयं तथा समाज का अनजाने में अहित करते हैं .

--राजेश जैन
18-08-2013

Friday, August 16, 2013

धन्यवाद तो मुझे कहना चाहिए

धन्यवाद तो मुझे कहना चाहिए
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उसने भ्रमण में बरसते पानी में एक प्रौढ़ नारी को भीगते देखा . हिम्मत जुटाई और उनसे समीप जाकर पूछ लिया .. क्या आपको छतरी की जरुरत है . उनसे सहमति से सर हिलाते देख अपनी छतरी उन्हें दी और कल छतरी वापिस ले आइयेगा कहते अपनी गति से आगे की प्रातः भ्रमण जारी रखी .

अब बरसात में स्वयं भीग रहा था . लेकिन संतुष्ट था कि पीछे छूट गई नारी बरसात में और भीगने से बच गई थी .

कोई एक कि मी आगे पहुँचा होगा एक पुरुष उसकी छतरी के साथ पीछे से पहुँचे . उन्होंने पूछा क्या यह आपकी छतरी है ? उसने हाँ में सर हिलाया .

उन्होंने छतरी वापिस करते हुए कहा . मेरी पत्नी अब शेड के नीचे खड़ी हैं . मै उन्हें कार से पिक कर लूँगा . उसने पूछा आपके कार कहाँ हैं .. उन्होंने उत्तर दिया टैगोर गार्डन के सामने खड़ी है . तब उसने कहा इस छतरी में आप चलें अन्यथा भीग जायेंगे ( वह स्वयं पूरा भीगा था ,और वे अभी भीगे नहीं थे ) उन्होंने हिचकिचाते वह छतरी ली . और फिर कोई आधे -पौन कि .मी . तक कुछ सामान्य वार्तालाप करते टैगोर गार्डन समक्ष खड़ी कार तक पहुँचे .

 वहाँ उन्होंने छतरी के लिए उसे धन्यवाद कहा . और कार तरफ बढ़ने लगे .

तब हाथ मिलाते हुए उसने उनसे कहा धन्यवाद तो मुझे कहना चाहिए .. अन्यथा सहायता लेने में आज लोग हिचकिचाते हैं .. मालूम नहीं सहायता पीछे प्रयोजन क्या है सोच कर .

दोनों के बीच मुस्कराहट का आदान प्रदान हुआ फिर दोनों अपने गन्तव्य की तरफ बढ़ गए ...
 
--राजेश जैन
17-08-2013

Wednesday, August 14, 2013

विशिष्ट पहचान (Special Identity)

विशिष्ट पहचान (Special Identity)
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एक कॉलेज से निकले नए युवा की नियुक्ति (रिक्रूटमेंट) जिस कंपनी में हुई .वहां मिली महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से प्रफुल्लित होने के साथ हे उस दायित्व (Responsibility ) की कठिनाई की कल्पना  से वह स्वयं को भयाक्रांत (Fearfulness) भी अनुभव करता है . किन्तु वह सकारात्मक चिंतन (Positive thinking) का सहारा ले  तो दायित्व निभाने में निश्चित (Certainly) सफल ही होगा .

हम जहाँ -तहां सुनते देखते हैं कि फलाने (Somebody) ने यह कार्य बहुत अच्छा किया .फलाने (Somebody) ने ऐसी सफलता (Success) पाई जिसे परिवार में कोई ने नहीं पा सका था . या फलाने (Somebody) ने ऐसी उपलब्धि (Achievement) हासिल की जो विभाग या शहर में कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सका था .
वास्तव में इन सब पर गंभीरता से गौर किया जाए तो उसमें एक तथ्य (Fact) स्पष्ट रूप से दृष्टव्य ( could be seen clearly ) होगा .वह है "कोई किसी कार्य को करने में सफल तब होता है जबकि उसे उस कार्य को करने का अवसर(Opportunity)  दिया जाता है  (मिलती है )" . अर्थात किया गया कार्य कोई और भी कर सकता था यदि उस "कोई और" को वह कार्य करने का अवसर(Opportunity ) मिलता .

दरअसल नवयुवा एक जैसी शिक्षा (Degree) प्राप्त कर एक जैसी पद (Post ) पर किसी कंपनी /विभाग (Department) में पदस्थ (Placement ) होने में सफल होते हैं . अतएव सबमें  लगभग समान प्रतिभा (Talent ) होती है . ऐसे में अलग अलग तरह का दायित्व (Work Distribution) नियोक्ता (Management) द्वारा तय किया जाता है . कुछ भाग्यशाली (Lucky ) ज्यादा महत्वपूर्ण (Important ) और चुनौतीपूर्ण (Challenging) दायित्व (Responsibility ) पा लेते हैं . जिसे सफलता से निभा लेते हैं .तब कहा जाता है फलाने (Somebody) ने बहुत कठिन कार्य (Assigned difficult task) कर लेने में कामयाबी पाई है .

वस्तुतः उस के अतिरिक्त उसी टीम में से कोई अन्य भी यह दायित्व पूरा कर सकता था इसकी सम्भावना (Probability ) 75%  से कम नहीं थी (सब लगभग एकसे Talented थे ) . बल्कि जिस समय और जिस ढंग से यह कार्य अवसर प्राप्तकर्ता (Opportunity Holder)  द्वारा संपन्न किया है उससे भी बेहतर ढंग से कोई अन्य कर लेता उसकी भी सम्भावना दस प्रतिशत से अधिक रहती है . लेकिन चूँकि किसी अन्य को यह अवसर(Opportunity ) नहीं मिल सका था, अतः ये बातें काल्पनिक रह जाती हैं . अतः प्रशंसा और वाहवाही उसके हिस्से में आती है जिसने विशिष्ट कार्य संपन्न किया (मूर्तरूप दिया ) होता है .

नवयुवाओं (Youth) को ऐसे चुनौतीपूर्ण और कठिन कार्य और दायित्वों से भयभीत नहीं होना चाहिए . यह लेख करना भी उचित ही होगा .. "युवा जो सरल दायित्व पाकर स्वयं के भाग्य की सराहना करते हैं कि अच्छा हुआ मुझे ज्यादा परिश्रम और दिमाग खर्च करने  (Brain Exercising)  वाला कार्य नहीं मिला है और फिर भी मुझे वेतन (Salary) और पद (Post) दूसरे के समान ही मिल रहा है " .. यह वास्तव में भ्रमपूर्ण चिंतन और नकारात्मक सोच (Negative Thinking )  है .

वस्तुतः सरल कार्य हर सामान्य व्यक्ति द्वारा संपन्न करवाया जा सकता है . जबकि विशेष ,महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण और कठिन कार्य कुछ ही व्यक्ति करते हैं . वे आरम्भ में सामान्य में से ही होते हैं . लेकिन साहस(Courage)  और इक्छाशक्ति (Willpower ) से विशिष्ट (VIP) बन जाते हैं .

अतः कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य के अवसर मिलने को अपना भाग्य (Luck ) ही मानना उचित होता है . क्योंकि ऐसे अवसर कुछ को ही मिल पाते हैं जबकि अधिकांश ऐसे अवसर पाने से वंचित रहते हैं . और फिर ये अधिकांश जीवन में विशिष्ट उपलब्धियों (Special Achievements )  से वंचित रहते हैं .और अपना जीवन सामान्य नारी-पुरुष सा ही बिताते हैं .

सभी और विशेष तौर से नवयुवा (आज राष्ट्र का स्वतंत्रता दिवस भी है ) कुछ समय नितांत अकेले में विचार चिंतन इस दृष्टि से करें . और स्वयं से प्रश्न करें " उनके जीवन में जो 50 -60 वर्ष आगे हैं उसमे वे सामान्य व्यक्ति की पहचान (Identity) रखना पसंद करेंगे या अन्य जन सामान्य के समक्ष कोई विशिष्ट पहचान (Special Identity) अर्जित करना चाहेंगे ?"

राजेश जैन
15-08-1960