Wednesday, January 27, 2021

बेचारा .. 

घर से निकला वह यह तो जानता था -

कि जब लाख लोग की भीड़ एकत्रित होती है, तब भीड़ के अराजक होने की संभावना होती है। 

कि जब प्रशासन एवं पुलिस के निर्धारित अनुशासन की अवहेलना होती है, तब पुलिस को कार्यवाही पर विवश होना होता है। 

कि जब सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाया जा रहा होता है तब खुद के हताहत होने का भी खतरा होता है। 

मगर बेचारा वह यह नहीं जानता था -

कि उकसावे देने वाले वह काम नहीं करेंगे जो उसने किया। जी हाँ! वे, उसे उकसा रहे लोग, ट्रैक्टर को तेज गति से बेरिकेड्स को टक्कर मारकर नहीं तोड़ेंगे। यह काम उसने उकसावे दुष्प्रेरित दुस्साहस में कर दिया था। 

कि उत्पाती आंदोलन में मारा जाने वाला अकेला खुद वही होगा। ट्रैक्टर भी उसका ही मिटेगा। अनाथ सिर्फ उसके बच्चे और बेसहारा सिर्फ उसके माता पिता होंगे। 

वह यह भी नहीं जानता था -

कि देश उसे एक मारा गया उत्पाती जानेगा जिसे, तथाकथित नेता शहीद निरूपित करेंगे। उसकी ऐसी मौत (आंदोलन नेताओं के द्वारा तथाकथित शहादत) पर उसके, माता-पिता, पत्नी एवं बच्चों को गर्व नहीं हो सकेगा। वे आगे के जीवन में उसके विछोह में रोते रहते हुए, उस दिन को कोसेंगे जिस दिन वे, उसे आंदोलन में हिस्सा लेने जाते हुए रोक ना सके थे।  


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

27-01-2021



    


Saturday, January 23, 2021

माना मैंने कि

साहित्य पढ़ना अब हुआ है ओल्ड फैशन

फिर भी उचित नहीं कि

लेखनी दायित्व भूल जाए


लौट के सब जाते हैं
हमारा लौटना भी अजब नहीं
ना समझ सके जिसे, लौटती बेला में
उसे समझ जाना भी बुरा नहीं

कहना उन्हें भाग्यशाली यूँ उचित नहीं कि कुछ तो किया होगा जो सफलता उन्हें मिली मानना खुद को दुर्भाग्यशाली भी है अनुचित कि करने में धैर्य रखा तो सफलता हमारी भी होगी
Rajshri Shukla

Friday, January 22, 2021

 मुँगेरीलाल …

मैं, मुँगेरीलाल बचपन से ही हसीन सपने देख देख कर जीवन पथ पर बढ़ता आया था। अब बूढ़े होने तक के सफर में मेरे देखे गए सपनों की संख्या अनगिनत हो गई थी। स्पष्ट था कि हसीन सपने देखना मेरी हॉबी थी। 

शायद ही कोई बिरला व्यक्ति और होगा जिसकी हॉबी मेरी तरह सपने देखने की होगी, मगर कभी किसी ने अपनी ऑटो बायोग्राफी में यह बात उद्घाटित नहीं की होने से मुझे लगता था कि यह विचित्र शौक रखने वाला विचित्र व्यक्ति विश्व में मैं अकेला था। यहाँ मैं, उन कारणों को भी स्वीकार (कन्फेस) करना उचित समझता हूँ जिससे मैं, मेरी जगहंसाई वाली हॉबी रखने को विवश होता आया था। 

मैं प्रतिभा के संदर्भ से लिखूँ तो मैं अत्यंत साधारण व्यक्ति था। तब भी मुझे उन लोगों की बराबरी करने की इच्छा रहती थी जो अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। स्वाभाविक था कि मैं उन जैसी उपलब्धियाँ अर्जित नहीं कर सकता था। जब ठोकरें खाने के बाद की अक्ल भी नहीं आई थी तब मैं अपना ऐसा हसीन सपना जिन्हें मैं, अपना मित्र समझता उन्हें बता दिया करता था। उसे सुनकर मेरे मित्र पेट पकड़कर हँसते, तब मैं भी उनका साथ देता और साथ हँसा करता था। ऐसे समय मुझे आनंद आता कि मेरा सपना कितना मज़ेदार है जिससे मज़ा मुझे ही नहीं, मेरे मित्रों को भी आता है। 

कुछ समय यूँ ही चलता रहा एक दिन मैंने, अपनी माँ से अपना एक सपना कह सुनाया। उनकी प्रतिक्रिया से मुझे प्रतीत हुआ कि बताया मेरा सपना उन्हें वेदनादायी हुआ है। उनके मुख पर भाव ऐसे दर्शित थे जैसे कि कोई बिलकुल ही अयोग्य बेटा, माँ से कह रहा हो -

माँ तू देखती जा तेरा यह बेटा एक दिन इस महान राष्ट्र का प्रधानमंत्री बनेगा। 

मैंने अपनी माँ को जब यूँ निराश दुखी देखा तब मैंने उनसे पूछा था - 

माँ यही सपना स्कूल में आज मैंने अपने दोस्तों को सुनाया तो वे हँसी के मारे लोटपोट हो रहे थे। इतना मजेदार सपने पर आप कितनी ठंडी प्रतिक्रिया दे रही हो। 

माँ की आँखों में आँसू थे। बोली थी - 

मुँगेरी, तू ना देखा कर ऐसे सपने और अगर देखता भी है तो उन्हें किसी को बताया मत कर। तेरे मित्र, सपने के मजेदार होने से नहीं हँसते हैं। वे तेरे पर हँसते हैं। मेरी समझ साधारण थी। तब भी इतनी समझ मुझे थी कि माँ, मेरे हित की ही कहती है। मैं सपने देखना तो नहीं छोड़ सका था मगर मैंने उन्हें किसी से कहना बंद कर दिया था। 

मैं समझ गया था कि लोग सच कहते हैं मित्र वही होते हैं जो हमारी जरूरत में सहायता करते हैं। जो हमारे बुरे समय में हमारे काम आते हैं। ऐसे ही मेरे मित्रों ने अपना कर्तव्य निभाया था। वे मुझ पर यूँ नहीं हँसा करते तो मुझे कभी समझ नहीं आता कि मैं, प्रधानमंत्री नहीं बल्कि चार्ली चेपलिन सा जोकर बनने जा रहा हूँ। मुझे समझ आ गया था कि चार्ली चेपलिन बनना भी बुरा नहीं, उन्हें नाम और काम मिलता है। मगर मेरे लिए बुरी यह बात थी कि मैं भारत में था। हमारे भारत में तो चार्ली चेपलिन हर गली में एक दो पाए जाते हैं। तब इतनों को तो देश नाम और काम नहीं दे सकता है ना!

हाँ, याद आया मैं लिख रहा था कि हसीन सपने मेरी हॉबी मेरी विवशता की देन थी। जी हाँ, मैं विवश था इस हॉबी के लिए क्योंकि वास्तविक रूप से मैं वैसा कुछ अर्जित नहीं कर पाता था जिससे मैं खुश होता। अतः मैं समय समय पर कोई हसीन सपना देख लेता जो मुझे आनंदित कर देता था। 

जब मेरा कोई मित्र स्कूल में प्रथम आता तो मैं, अपने सपने में स्वयं को स्कूल टॉपर देख लेता। मेरा कोई मित्र बैडमिंटन चैंपियन होता तो मैं, स्वयं को अखिल भारतीय बैडमिंटन चैंपियन होता अपने सपने में देख लेता। 

किसी तरह मैं कभी फेल, कभी थर्ड क्लास में उत्तीर्ण होते अपनी डिग्री 15 के स्थान पर 18 साल में पूरी कर सका था। स्पष्ट था मैं, मेरे मित्रों की तरह उच्च पद की कोई नौकरी नहीं प्राप्त कर सका था। मेरे चाचा राजनीति में थे उन्होंने मेरी अनुशंसा करते हुए, सरकारी विभाग में मेरी चपरासी की नौकरी लगवा दी थी। 

कोई माने या ना माने यह नौकरी मेरे लिए अत्यंत आनंदकारी बात थी। सरकारी चपरासी की नौकरी, मेरी तरह की हॉबी रखने वालों के लिए एवं मेरे स्वभाव के सबसे अनुकूल थी। साहब के कमरे के सामने बेंच पर बैठा रहना एक नहीं कई कई हसीन सपने देख लेने की परिस्थितियाँ निर्मित करता था। 

जब साहब घंटी नहीं बजाते या फाइलें इधर उधर पहुँचाने का काम नहीं देते, मैं बढ़िया बीड़ी फूंकते हुए सपने देखा करता था। ऐसे में, जिस चपरासी की नौकरी को लोग हिकारत से देखते, उसे करते हुए मैं स्वार्गिक आनंद अनुभव करता। 

फिर आरंभ हुआ था, मेरे मित्रों एवं कार्यालय के युवा बाबू और साहब के विवाह होना। यद्यपि मुझे व्यक्तिगत नाम से कोई आमंत्रण पत्र नहीं मिलता मगर चलन में समस्त कार्यालय, या समूह में मेरा भी एक नाम आमंत्रण पत्र में हुआ करता था। मैं ऐसे वैवाहिक कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति देता था। 

इसके पीछे मैं, राज की बात बताता हूँ कि मैं (तब) सिर्फ 2 या 5 रुपया का लिफाफा देकर वहाँ के भोज का आनंद उठाया करता था। यही नहीं गुलाब जामुन खाते हुए, वर-वधु के परिणय के कार्यक्रम देखता एवं अपने हसीन सपनों में खो कर इसका आनंद उठाया करता था। ऐसे यथार्थ में होते विवाह से, मेरा कोई हसीन सपना ट्रिगर हो जाता था। यहाँ फेरे मेरा मित्र या सहकर्मी ले रहा होता, मेरे सपने में अग्नि के समक्ष मैं, फेरे ले रहा होता था। पता नहीं आपको जानकर कैसा लगेगा मगर मैं, मुँगेरी, यह उद्घाटित कर रहा हूँ कि फेरे ले रही होती प्रत्यक्ष वधु से अधिक सुंदर, मेरे सपनों की मेरी वधु होती थी। जी हाँ मैं, कभी मुमताज, कभी मौसमी, कभी रति तो कभी सारिका को मेरी परिणीता होते देख रहा होता था। ऐसे विवाह समारोह में जाते रहने से शायद ही कोई सुंदर अभिनेत्री बची होगी जिसके साथ मैंने सात फेरे नहीं लिए होंगे। 

कमजोर वर्ग में सरकारी चपरासी होना भी स्टेटस होता है। मैं, मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से था, जिसमें चपरासी, विवाह हेतु योग्य वर नहीं समझा जाता है। ऐसे में मैं चपरासी, कुँवारा ही रह गया था। तब भी हसीन सपने एवं उनमें मेरी हसीन वधुओं के सहारे हर्ष, मेरे जीवन में बना रहा था। 

एक दिन मैं ऐसे ही अपने सपने में खोया था। बॉस की घंटी अनसुनी रह गई। बॉस के ऊपर काम कोई टेंशन था। वे आग बबूला उठकर बाहर आए। उन्हें मेरे सपने में खोने के सुख से ईर्ष्या हुई। उन्होंने मेरे पृष्ठ भाग पर लात जमाते हुए कहा - बेवकूफ़ तू आराम फरमा रहा है। पता नहीं तुझे आराम हराम है। 

मेरी अन्य सहकर्मी के सामने किरकिरी हुई थी। चाहता तो बॉस के द्वारा, अपने इस अपमान की शिकायत मैं, मानव संसाधन विभाग में करता। मैंने डर कर कि बाद में मेरा ट्रांसफर ना करवा दिया जाए, मैंने अपमान सहन कर लिया था। सरकारी चपरासी होने का एक बड़ा फायदा होता है। उसका कभी कभी ऐसा अपमान और ट्रांसफर कर दिए जाने से अधिक कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता है। 

बॉस का बताया काम करने के बाद, मैं अपमान भुला कर आदत से लाचार फिर बेंच पर बैठ कर अपने हसीन सपने में खो गया था। जिसमें मैं देख रहा था कि बॉस कह रहा था - आराम, हराम है। 

मैं, उनको जबाब दे रहा था - सर, ऐय्याश व्यक्ति आराम करे तो ही अच्छा है अन्यथा व्यभिचार बढ़ता है। 

बॉस ने कहा - वाह! तेरा मारा, डायलाग तो बड़ा अच्छा है। 

मैंने जबाब दिया - बॉस, क्या करूँ मगर ये मेरे मुहँ से निकला है। चर्चा नहीं मिलेगी, मुझे। यही डायलाग कोई नेता कहता तो इसे महान विचार कहा जाता। 

फिर बॉस ने घंटी बजाई थी। मेरे सपने में विघ्न पड़ गया था। मुझे बॉस का हुक्म सुनने जाना पड़ गया था। 

मैं, क्या क्या बताऊँ मेरे हसीन हसीन सपनों की बानगियाँ। मुझे सपने में जो जो हासिल होता यथार्थ में तो वह अंबानी को भी हासिल नहीं था। 

मेरे हसीन सपनों की महान अच्छाई यह भी थी कि मैं इसमें करोड़ों की बैंक डकैती करता। बॉस की हत्या कर देता। सपने में बनती अपनी वधुओं के बिस्तर तक भी पहुँचता तब भी मुझ पर कोई अपराध नहीं बनता और मैं, जेल जाने को विवश नहीं होता था। 

सपनों में किए अपराध के विरुद्ध कोई कानूनी प्रावधान ना होने वाला संवैधानिक लोचा मुझे पसंद आया था। रहे आएं संविधान में कई लोचे, उससे मुझ मुँगेरी का कुछ बिगड़ता नहीं था। 

अब जब मैं सेवानिवृत्त हो गया था तब मैंने अपने सपनों को संकलित कर एक इ-बुक पब्लिश कर दी। यह करते हुए मुझे दो लाभ हुए। प्रथम, इसमें मैंने सपनों में किये बड़े बड़े अपराधों का खुलासा कर दिया। मगर इन खुलासों पर कोई जुर्म कायम नहीं होता था। इसे किसी अदालत में साक्ष्य के अभाव में साबित नहीं किया जा सकता था। मेरे कॉन्फेशन को भी अदालत यह कह कर ख़ारिज कर देती कि यह तो मुँगेरी पागल की बातें हैं। इनका कहाँ सिर और कहाँ पैर होता है। 

दूसरा फायदा यह हुआ कि पहली और आखिरी अपनी इस इ-बुक पब्लिश करने के बाद इस पर मुझे, मेरा हसीन सपना यूँ दिखा - 

मेरे बुक में लिखे डायलाग, दुनिया में प्रचलित हो रहे थे। एक ही बुक में महान विचारों की ऐसी श्रृंखला अभूतपूर्व थी। मेरी बुक ऑल टाइम बेस्ट सेलर बुक हो गई थी। 

सपने के अंत में मैं देख रहा था। लोग जीते जी तमाम उपलब्धि हासिल करते हैं। मरने के बाद उनका क्या होता है। मैं समझ रहा था कि सपने में हासिल तमाम उपलब्धियाँ जीते जी भी मेरी नहीं थी। मरने पर भी किसी की हासिल उपलब्धियों से, मेरे सारे सपनों के हासिल से, अलग हश्र मुझे देखना भी नहीं है। लोगों के हाथ खाली रहते हैं कि साथ जाता कुछ नहीं है। मेरे तो ना जीते जी कुछ हाथ था ना ही मरने पर मेरे हाथ कुछ बचना था …   

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

22.01.2021


Sunday, January 3, 2021

बेटे का विवाह …

बेटे का विवाह … 

किशनचंद्र, अपनी पत्नी प्रेमा से रोज रात, अपने 35 वर्षीय अविवाहित बेटे कनक की शादी न हो पाने के कारण दुःख जताया करता था। 

वह, अक्सर कहा करता - 

प्रेमा, मुझे नहीं लगता कि हम जीते जी, अपने बेटे की गृहस्थी बसते देख पाएंगे।

इकलौता पुत्र कनक, इनके अति लाड़-दुलार में पालन-पोषण के कारण उदंड प्रवृत्ति का हो जाने से, पढ़ लिख कर विशेष उपलब्धि प्राप्त नहीं कर सका था। कनक को ऐज बार होने के पूर्व जैसे तैसे, प्राथमिक शाला में शिक्षक की नौकरी मिल पाई थी। 

नौकरी मिलते तक ही कनक की उम्र, 30 हो गई थी। अतः कनक को, पहले नौकरी नहीं होने के कारण, रिश्ते नहीं मिल पाते थे। फिर कनक के लिए, उसकी उम्र बढ़ते जाने से यदा कदा ही रिश्ते आते थे। वे रिश्ते, कनक सहित किशनचंद्र एवं प्रेमा को जमते नहीं थे। ऐसे में अब कनक 35 का हो गया था। 

आज किशनचंद्र ने अपनी यही व्यथा, दोहराते हुए प्रेमा से कहा - 

प्रेमा, हम दोनों 60 के ऊपर हो गए। ना तो हमारे जीवन का भरोसा बचा है और ना ही अब यह भरोसा होता है कि कनक का विवाह हो सकेगा। 

प्रेमा ऐसे समय में अब तक, जिस बात को कहने से स्वयं को रोक लिया करती थी, उसे कहने से वह आज अपने को नहीं रोक पाई थी। प्रेमा ने पति पर दोष लगाते हुए कह दिया - 

सुनो जी, आपने, कनक के बाद, मेरे गर्भ में आई, एक के बाद एक, तीन बेटियों को परीक्षण के बाद, जबरन गर्भपात कराकर मार दिया था।  जिसके बाद मेरे भीतर आ गई खराबी से, आपके चाहा गया, दूसरा पुत्र नहीं हो सका। तीन बेटियों की ऐसी हत्या का पाप, हमारे कारण, कनक को भुगतना पड़ रहा है। 

किशनचंद्र और समय होता तो खुद को, ऐसे आरोपित किये जाने पर प्रेमा की, खूब खबर लेता मगर वृध्दावस्था के कारण ठंडे पड़ गए तेवर ने, उसे सोचने को विवश किया। प्रेमा की बात से वह पश्चाताप में भर गया। फिर कुछ क्षण सोचने के बाद यही कह सका - 

प्रेमा, तुम सच कहती हो। मेरी तरह और भी कई घरों के किशनचंद्रों ने अपनी बेटियों के भ्रूणों की हत्या करवाई हैं। इससे लड़कियों की कमी होने के कारण आज, हमारे कनक के विवाह के लिए लड़की नहीं मिलती है। मुझे समझ नहीं आता कि हम, अपनी इन भूलों का प्रायश्चित कैसे करें?

इस बात पर प्रेमा चुप रही थी। फिर किशनचंद्र रौशनी बंद करने के बाद सोने की कोशिश कर रहा था तब उसकी आँखों में अविरल आँसू बह रहे थे। जिन्हें अंधेरा होने से प्रेमा देख तो नहीं पाई थी मगर अनुभव कर रही थी। 

अब प्रेमा मन ही मन खेद कर रही थी कि व्यर्थ ही उसने, पति के पाप को उघाड़कर, उन्हें अनुभव करा दिया था। तीर तो मगर चल चुका था, पति के दुःख कम करने में अब वह निरुपाय थी। 

इसके 15 दिन बाद कनक, प्रेमा से बोला - 

माँ, हमारे स्कूल में, नई शिक्षिका, तनया आई है। कल रविवार है, मैंने उसे अपने घर पर, दोपहर के भोजन का न्योता दिया है। 

प्रेमा ने पूछा - बेटा, तनया अकेली आएगी?

कनक ने बताया - वह और उसकी माँ आएगी। 

प्रेमा ने मन ही मन खुश होते हुए कहा - 

बेटा, तू सब्जी-भाजी और मावा ले आ, मैं उनको अच्छा भोजन खिलाऊंगी। 

फिर कनक ने, माँ से समझा था और बताई गई सामग्रियाँ लाने के लिए बाज़ार चला गया था। 

उस रात खुश होकर प्रेमा ने यह बात, पति को बताई। किशनचंद्र भी आशय को समझकर खुश हुआ। दोनों की रात मन के लड्डू खाते हुए, घर में बहू के आगमन की आशा से कटी थी। 

अगले दिन सुबह से ही रसोई में प्रेमा के साथ, सहायता के लिए किशनचंद्र भी लगा था। 11 बजे कनक, तनया और उसकी माँ को लेकर घर आया तो, तीव्र धड़कते ह्रदय सहित प्रेमा ने दरवाजा खोला था। 

दरवाजे पर ही, प्रेमा का रात संजोया सपना बिखर गया था। सामने खड़ी तनया, सुंदर तो थी मगर तनया और उसकी माँ की गोद में लगभग 1-1 साल की दो अबोध बेटियां थी। 

प्रेमा ने बुझे मन से मगर प्रकट में खुश दिखते हुए, उनका स्वागत किया था। भोजन के दरमियान हुई बातों से उन्हें, पता चला कि तनया का पूर्व पति गबन के आरोप में सजा काट रहा है। 

जेल जाने के पूर्व ही अपने अपराध एवं दो जुड़वाँ बेटी के पैदा होने की कुंठा में वह (पूर्व पति) हिंसक हो गया था। तब गृह हिंसा के आधार पर तनया ने उससे डिवोर्स लिया था। 

बाद में तनया ने शिक्षिका का जॉब शुरू किया है। तनया की बेटियां छोटी होने से, उसकी माँ यहाँ साथ आई हैं जबकि तनया के पापा, उसके भाई के परिवार के साथ अन्य शहर में रहते हैं। 

भोजन के उपरांत तनया की माँ ने चिंता से कहा -

समझ नहीं आता बहनजी, दो बेटियों के साथ तनया के भविष्य के लिए कैसे खुशहाली सुनिश्चित हो?

तसल्ली देते हुए प्रेमा कहा - भगवान जरूर कुछ करेंगे, बहनजी। 

फिर वे चलीं गईं थीं।  तनया और उसकी माँ के जाने के बाद कनक ने, दोनों से कहा - 

माँ, बाबूजी, मैं और तनया शादी करना चाहते हैं। 

यह सुन प्रेमा सोच में डूब गई थी तब उसने पति को, कनक से कहते हुए सुना - ठीक है, बेटा हमें भी तनया पसंद आई है। 

उस रात प्रेमा ने, किशनचंद्र से ऐतराज से कहा - आपने, दो बच्चों की माँ के साथ, कनक का रिश्ता कैसे मंजूर कर लिया? 

किशनचंद्र ने उत्तर दिया - 

प्रेमा यह ईश्वर का न्याय है। उसने, हमारे द्वारा की गई तीन बेटियों (भ्रूण) की हत्या के, प्रायश्चित के लिए तनया को, हमारे कनक के जीवन में भेजा है। तुम तनया को हमारी बड़ी बेटी की जगह एवं उसकी जुड़वाँ बेटियों को हमारी दो छोटी बेटियों के रूप में देखो तो, तुम्हें भी इस रिश्ते में कोई ऐतराज दिखाई नहीं देगा। 

पहले कुछ क्षण के लिए प्रेमा सोच में पड़ गई। फिर आत्मविश्वास से दृढ़ स्वर में बोली - 

हां, आप ठीक कहते हो। तनया के आने के बाद, मुझे भगवान के घर जाने में डर नहीं लगेगा। ऐसे प्रायश्चित से, भगवान, हमारी खोटी करनी को अवश्य क्षमा कर देंगे।    

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

03-01-2021