Thursday, October 30, 2014

स्लो पॉइज़न

स्लो पॉइज़न
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जिनका प्रसार जितना ज्यादा होता है वे चीज ज्यादा क्षेत्र में प्रभाव डालती हैं।  जल संसार के बहुत हिस्से में और वायु हर हिस्से में व्याप्त होती है। अतः यदि कोई रोग के रोगाणु इन के द्वारा फैलने वाले हों तो वे रोग ज्यादा प्राणियों को अपने घेरे में लेते हैं।


फिल्मों ने जब अस्तित्व लिया तब से उसका प्रसारण क्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया।  ऐसे में फिल्मों में अच्छाइयाँ होती तो देखने वाले व्यक्तियों (और समाज) में अच्छाइयाँ क्रमशः बढ़ती जाती। किन्तु फिल्मों ने , और उससे जुड़े लोगों ने बुराइयाँ ही समाज को दीं। कह सकते हैं फिल्मों ने धीमा विष (स्लो पॉइज़न) वाला प्रभाव समाज और संस्कृति पर डाला , जिससे मनुष्य की दृष्टि ,सोच और कर्म दुष्प्रेरित हुये।


मनुष्य के अंग -प्रत्यंग की पूर्णता उसके स्वास्थ्य , सौंदर्य और शक्ति के रूप में देखी जाती थी।  स्लो पॉइज़न के तरह फिल्मों ने ( अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , नेट भी) मानव दृष्टि को खराब किया। इन पर  अंग -प्रत्यंगों को बेहद घिनौने और वीभत्स ढंग से दिखाया गया।


आज स्थिति यह है कि अंग -प्रत्यंगों को सिर्फ वासनामयी दृष्टि से देखा जाने लगा है।  जिनकी पूर्णता देखे जाने पर साहित्यकार वीर और श्रृंगार रस के साहित्य की रचना करते थे। साहित्य में श्रृंगार रस के माध्यम से भी नारी -पुरुष के प्रेम प्रसंग वर्णित होते थे , जिसमें इन्हें गरिमामय आवरण में प्रस्तुत किया जाता था। इस तरह
साहित्य समाज में सुख सुनिश्चित करता था। बुराइयाँ प्रसारित नहीं करता था  .


अब धन लोलुप उनको वीभत्स रस का उदाहरण बनाकर दर्शकों को परोसते हैं। दर्शकों में आये दृष्टि दोष के कारण अब हर मनुष्य एक दूसरे को सिर्फ नारी और पुरुष की दृष्टि से देख रहा है। एक दूसरे में दिखने वाला भाई -बहन या अन्य रिश्तों का सम्मान दृष्टि से हट रहा है।


क्या हमें यह दृष्टि दोष दूर करने के लिए काम नहीं करना चाहिए ?


--राजेश जैन
30-10-2014

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