Friday, October 31, 2014

गर्लफ्रेंड - अच्छी ?

गर्लफ्रेंड - अच्छी ?
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विवाह करने की आयु ज्यों-ज्यों बड़ी हुई। गर्लफ्रेंड- बॉयफ्रेंड शब्द और ऐसे व्यक्ति अस्तित्व में आये।
आज  गर्लफ्रेंड पर लेख है।
फ़िल्मी लोगों ने गर्लफ्रेंड बनाने की प्रवृत्ति बढाने में समाज में दुष्प्रेरणा दी।
बिना साथ निभाने की गंभीरता से गर्लफ्रेंड बनाना (flirt)  एक रिवाज हो गया।
गंभीर होते तो गर्लफ्रेंड ही जीवन संगिनी बन जाया करती।
किन्तु गर्लफ्रेंड मन-बहलाव का साधन बनी रह गई। और फिर कई कई गर्लफ्रेंड बनाना एक होड़ हो गई।
निश्चित ही मनोविज्ञान में इस प्रवृत्ति के लिए कोई psychological disorder टर्म उपयोग होती होगी।
जब कई कई गर्लफ्रेंड एक ही समय में या अलग अलग समय में बनाने के यत्न किये जाते हैं ,
जिसके लिए पढाई - चरित्र और व्यवसायिक भविष्य तक की चिंता नहीं रहती है।
चिंता सिर्फ कैसे गर्लफ्रेंड बनायी जाए यह रहती है तब लगता है ....
जो लड़की गर्लफ्रेंड होती है वह अच्छी होती है।

लेकिन गर्लफ्रेंड बनाने के जैसे यत्न हम करते हैं वैसे ही अन्य युवक जब करते हैं और
हमारी बहन को गर्लफ्रेंड बनाते हैं तब हम क्या सोचते और करते हैं ?
दोनों ही दृष्टिकोण से विचार कर इस प्रश्न का उत्तर स्वयं से लें ,

क्या गर्लफ्रेंड - अच्छी होती है ?

-- राजेश जैन
01-11-2014

Thursday, October 30, 2014

स्लो पॉइज़न

स्लो पॉइज़न
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जिनका प्रसार जितना ज्यादा होता है वे चीज ज्यादा क्षेत्र में प्रभाव डालती हैं।  जल संसार के बहुत हिस्से में और वायु हर हिस्से में व्याप्त होती है। अतः यदि कोई रोग के रोगाणु इन के द्वारा फैलने वाले हों तो वे रोग ज्यादा प्राणियों को अपने घेरे में लेते हैं।


फिल्मों ने जब अस्तित्व लिया तब से उसका प्रसारण क्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया।  ऐसे में फिल्मों में अच्छाइयाँ होती तो देखने वाले व्यक्तियों (और समाज) में अच्छाइयाँ क्रमशः बढ़ती जाती। किन्तु फिल्मों ने , और उससे जुड़े लोगों ने बुराइयाँ ही समाज को दीं। कह सकते हैं फिल्मों ने धीमा विष (स्लो पॉइज़न) वाला प्रभाव समाज और संस्कृति पर डाला , जिससे मनुष्य की दृष्टि ,सोच और कर्म दुष्प्रेरित हुये।


मनुष्य के अंग -प्रत्यंग की पूर्णता उसके स्वास्थ्य , सौंदर्य और शक्ति के रूप में देखी जाती थी।  स्लो पॉइज़न के तरह फिल्मों ने ( अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , नेट भी) मानव दृष्टि को खराब किया। इन पर  अंग -प्रत्यंगों को बेहद घिनौने और वीभत्स ढंग से दिखाया गया।


आज स्थिति यह है कि अंग -प्रत्यंगों को सिर्फ वासनामयी दृष्टि से देखा जाने लगा है।  जिनकी पूर्णता देखे जाने पर साहित्यकार वीर और श्रृंगार रस के साहित्य की रचना करते थे। साहित्य में श्रृंगार रस के माध्यम से भी नारी -पुरुष के प्रेम प्रसंग वर्णित होते थे , जिसमें इन्हें गरिमामय आवरण में प्रस्तुत किया जाता था। इस तरह
साहित्य समाज में सुख सुनिश्चित करता था। बुराइयाँ प्रसारित नहीं करता था  .


अब धन लोलुप उनको वीभत्स रस का उदाहरण बनाकर दर्शकों को परोसते हैं। दर्शकों में आये दृष्टि दोष के कारण अब हर मनुष्य एक दूसरे को सिर्फ नारी और पुरुष की दृष्टि से देख रहा है। एक दूसरे में दिखने वाला भाई -बहन या अन्य रिश्तों का सम्मान दृष्टि से हट रहा है।


क्या हमें यह दृष्टि दोष दूर करने के लिए काम नहीं करना चाहिए ?


--राजेश जैन
30-10-2014

Saturday, October 25, 2014

रेप -कौन जिम्मेदार ?

रेप -कौन जिम्मेदार ?
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राजनीतिज्ञ या अन्य चर्चित व्यक्तियों के वक्तव्य और टिप्पणियों में अनेकों बार रेप के लिये पीड़िता को  जिम्मेदार बता दिया जाता है। साधारण व्यक्ति की हजार भली बातें ,भले आचरण या कर्म मीडिया के कवरेज से चूक जाते हैं , किन्तु किसी राजनीतिज्ञ या अन्य चर्चित व्यक्तियों की ऐसी बातें चैनलों पर विस्तार से चर्चा पाती हैं . जिसमें ठंडा होने की परिणिति पर पहुँचने के पहले तक श्रोता और दर्शक का बहुत समय, बिना समस्या के समाधान किये व्यर्थ किया जाता है।
चर्चित व्यक्तियों का ऐसा कहने के पीछे अपने तर्क और पारम्पारिक पुरुष प्रधान सोच होती है। कहीं-कहीं चर्चा में बने रहना या उभरना भी लक्ष्य होता है।  नारी संगठनों में और मीडिया पर हर ऐसी टिप्पणी पर बवाल मचता है। फिर नारी पर अगले किसी अत्याचार के चर्चित होने तक के लिये शांति छा जाती है। जबकि नारी के अत्याचारों की विडंबना यह है कि हर मिनट कहीं ना कहीं , किसी ना किसी तरह का अत्याचार उस पर होता है। लेकिन किसी की वेदना से भी लाभ अर्जित कर लेने की आज की दुष्प्रवृत्ति के चलते , इनमे से बिरले ही कुछ मीडिया पर चर्चित होते हैं , जिनसे मीडिया को आर्थिक लाभ मिलने की संभावना होती है।
रेप क्या है? और कौन जिम्मेदार हैं ?
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लेखक की दृष्टि में पति -पत्नी के रिश्ते में (वह भी परस्पर सहमति से ) को छोड़ कर किया गया हर सेक्स , रेप होता है। जिस सम्बन्ध को समाज में सार्वजानिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता ऐसे संबंध में नारी की तात्कालिक सहमति से किया सेक्स भी रेप ही होता है , क्योंकि इन संबंधों की जानकारी समाज में हो जाने पर  कठिन और विपरीत प्रभाव नारी जीवन पर ही पड़ता है, लिप्त पुरुष  पर नहीं पड़ता है।
जहाँ नारी सहमति ना हो वहाँ किया गया सेक्स तो निश्चित ही रेप है और इसके लिए जिम्मेदार, करने वाला पुरुष है . क्योंकि यह अत्याचार है जो पुरुष के द्वारा किया गया है। किन कारणों से पुरुष इस अत्याचार को प्रेरित हुआ है यह विचारणीय कतई नहीं है , क्योंकि अत्याचार हर परिस्थिति में निंदनीय है।  और मानव सभ्यता पर कलंक है।  पुरुष अपने अनियंत्रित होने का दोष किसी भी तर्क पर नारी पर डाले यह न्यायोचित नहीं है।
निहत्थे पर हथियार से वार जिस तरह न्याय नहीं माना जाता , उसी तरह नारी को सम्मान और सुरक्षा (सुरक्षा बोध ) नहीं दिलाते किया गया संबंध रेप है। नारी इन  संबंधों के साथ तब ही सुरक्षित और सम्मानित है जबकि वे विवाह उपरान्त पति -पत्नी के बीच हैं।
यद्यपि पीड़ित नारी को सुरक्षा और सम्मान , समाज में होना चाहिये। क्योंकि ऐसा शोषण एक बलवान का शक्तिहीन पर होता है। शक्तिहीन से संवेदना  और क्षमा होनी चाहिये। और बलवान का अपराध अक्षम्य होना चाहिये , किसी भी तर्क से बचाने की चेष्टा ही अपराध का दुस्साहस बढ़ा देता है।


--राजेश जैन
25-10-2014

Wednesday, October 22, 2014

हमारी आधुनिक दीपावली


हमारी आधुनिक दीपावली
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दीपावली में प्रज्वलित दीप श्रृंखला मनभावन होती हैं। पटाखों की रंग-बिरंगी प्रकाश की छटा लुभावनी होती है।
 लेकिन सभी आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं होते हैं कि दीप श्रृंखला और रंग-बिरंगी पटाखों की छटा अपने द्वार -आँगन पर सजा सकें. उनकी लाचारी की अनुभूति तब और बढ़ती है , जब किसी को इन पर (डेकोरेशन पर) अति धन -व्यय करते देखते हैं।  हमारे निर्धन देशवासियों की इस वेदनाकारी अनुभूति को हम कम कर सकते हैं। अपने दीपावली मनाने के ढंग में न्यायिकता लाकर।

आधुनिक समय की हमारी दीपावली ऐसी मननी चाहिए -
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घर द्वार में साफ़ सफाई और पुताई की जानी चाहिए। दीप कम से कम (हो सके तो एक प्रति द्वार) प्रज्वलित किये गये हों। हर द्वार का एक दीप भी ग्राम -नगर में सयुंक्त रूप से दीप श्रृंखला बना देता है। अन्धकार कम कर देता है। कम आवाज वाले और कम मात्रा में पटाखें फोड़े जाने चाहिए। ना फोड़े जायें तो और भी प्रशंसनीय होगा। घर घर में ही परंपरागत पकवान बनाये जाने चाहिए। इस तरह दीपावली मन जायेगी।

धन लाभ (लक्ष्मी वृध्दि )
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दीप में जल जाने वाला तेल-घी बचेगा जिसे अन्य उपयोगी कार्य में लगाया जा सकेगा । जीव -हिंसा कम होगी . बारूद बरबादी कम होगी। मिलावटी मिठाई के स्वास्थ्यगत बुरे प्रभाव से बचेंगे।  (इन व्यवसाय से जुड़े व्यक्तियों से क्षमा सहित ) . और सबसे बड़ा पुण्य दीन-हीनों की मानसिक पीड़ा बढ़ने से बचाने का मिलेगा।

पर्व उपयोगिता
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यही भाईचारा है , जो समाज को खुशहाल बनाता है। दीपावली पर्व से सामाजिक खुशहाली बढ़नी चाहिए। यही उत्सवों की उपयोगिता होती है।

--राजेश जैन
21-10-2014
 

Monday, October 20, 2014

हम पर है ..

हम पर है ..
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मल्टी नेशनल कम्पनीज और कॉल सेंटर में आज युवाओं को जॉब के अवसर ज्यादा हैं।  देश के कुछ महानगर में इनके ऑफिस ज्यादा हैं। इनमे ऐसे युवाओं की जिनमें अधिकाँश अविवाहित हैं बहुसंख्या हैं। ज्यादातर ऐसे युवा फ्लैट्स किराये पर लेकर चार छह की सँख्या में इनमें रहते हैं। इन कम्पनीज में वीक-एंड दो दिनों का होता है। शुक्रवार की रात से संडे तक युवा मौज -मजे , पार्टी पीने खाने में समय बिताते हैं। उम्र ऐसी होती है , जिसमें दैहिक संबंधों का आकर्षण भी मन -मस्तिष्क पर छाया रहता है। कुछ युवा जीवन भर निभाने की गंभीरता के बिना इस तरह के संबंधों में लिप्त हो जाते हैं।  ये कृत्य ना तो उनके माँ -पिता के घर को और ना ही भविष्य में बनने वाले स्वयं उनके परिवारों में सुखदता के लिए अनुकूल नहीं होते हैं।  बिगड़ी ये नीयत , दृष्टि , कर्म और चरित्र उनके परिवार की शांति और प्रगति पर ग्रहण बन लगता है। परिवार और सपने बिखरने के कारक इकठ्ठे होते हैं।

मनुष्य जीवन सामान्यतः 70 वर्ष अधिक का होता है।  दो -चार वर्ष की यह स्वछँदता अगर सुख भी देती हो (लेखक के अनुमान में सुख की शंका है) , तब भी वह अनुशंसनीय नहीं है। हमारी संस्कृति भी ऐसा चरित्र अनुमोदित नहीं करती है।  सामाजिक बुराइयाँ और समस्या भी इससे बढ़ रही हैं। पाश्चात्य इस जीवन शैली में जीवन के 20 -30 वर्ष अवसाद , चिंता और कई तरह के रोगों के कष्ट में बिताने पड़ते हैं। परिवार बिखरने के बुरे प्रभाव मासूम बच्चों पर पड़ते हैं।  

आज पाश्चात्य देशों में कम ही परिवार हैं, जिनमें बच्चे अपने सगे माँ -पिता की छत्रछाया में पल-बढ़ रहे हैं। पाश्चात्य प्रौढ़ इस जीवन शैली के बुरे परिणामों को जान कर अपने बच्चों लिये भारतीय संस्कृति के निर्वहन होते देखना चाहता है।  लेकिन सामाजिक यह रोग वहाँ नासूर बन गया है। जिसका उपचार कठिन है। वह गहन पछतावे की मानसिकता में जीवन बिताने की लाचारी भोग रहा है।
हमारे देश में सामाजिक यह रोग नया ही है। इसका उपचार अभी संभव है। हम पढ़े -लिखे हैं , दो प्रश्नों के उत्तर स्व-विवेक से प्राप्त कर सकते हैं --

1. क्या दो -चार वर्ष के सुखभ्रम के लिए आगामी 30-40 वर्ष के जीवन सुख को दाँव पर लगा देना बुध्दिमानी होगी ?
2. हमारे समाज में नासूर से रोग के खतरे के लिए स्वयं जिम्मेदार बनना क्या उचित है ? क्या हमारे राष्ट्रीय ,सामाजिक और पारिवारिक दायित्व की दृष्टि से ऐसा आचरण उचित है?

हम पर है , हम चिंतनीय पाश्चात्य सामाजिक परिदृश्य से चेत सकते हैं , या स्वयं ठोकर खाने के बाद हानि उठा कर समझने पर छोड़ते हैं। आशंका है , दूसरी स्थिति में समझना अपूरणीय क्षति सिध्द होगा।

--राजेश जैन
20-10-2014 

Saturday, October 18, 2014

आज

आज
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लिखती बहुत वजनी लेखनी मेरी
विचार आया लिखूँ हल्का सा आज

पल पल बीतता व्यस्तताओं में गुँथकर
भूल उन्हें हर पल में जियें खुशियाँ आज

खुशियाँ कुछ जी लें अपने लिये हम
बाँटे कुछ खुशियाँ वंचितों में भी आज

नित नहीं तो मिल पायेंगे वे और हम
जो संयोगों से मिल रहे सभी हैं आज

हम हैं वे न होंगे या वे होंगे हम कल नहीं
सहारा दे-ले कर खुशी के पल जियें आज

--राजेश जैन

बचपन

बचपन
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घर आँगन और पास पड़ोस ही
मेरे बचपन की पूरी दुनिया थी

माँ आँचल और पापा गोद में
सुखद बीतती सुबह शाम होती थी

माँ -पापा ही रहे भगवान मेरे
टीचर महान बचपन के सच होते थे

जन्मी कहीं पली जबलपुर में
नहीं कोई जीवन सपने तब सजे थे

छोटे से मन और हाथ पाँव के
चंचल छोटे छोटे खेल होते थे

माँ आँचल पापा हाथ सिर पर मेरे
कटु जीवन यथार्थ से परे रखते थे

माँ खिलाती गोद बिठाकर वही
सबसे स्वादिष्ट और मीठे लगते थे

बीत रहा है अब बचपन मेरा
संसार जीवन बड़ा दिख रहा है

सच्चाई ,निर्मलता जो बचपन सी
मन में मेरे जीवन मै रखना चाहूंगी

आ बसा जो सपना अब मन में
भारत नाट्यम में दक्षता दिखाऊँगी

-- राजेश जैन
18-10-2014

Thursday, October 9, 2014

परिवार


परिवार
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टैक्सी से उतरते हुये रीतेश , भाड़ा भुगतान करते हुए सौ रुपये टिप देते हुए ड्राइवर से कहता है , भाई न्याय और परिश्रम से कमाता हूँ। ये टिप के पैसे अपने परिवार पर होने वाले खर्चे में कटौती कर तुम्हें दे रहा हूँ , इसे अपने परिवार की ख़ुशी पर खर्च करना। महेंद्र (ड्राइवर) कुछ विचित्र सी दृष्टि से रीतेश को निहार कर रुपये ले लेता है।
शाम को फल की दुकान पर वह कुछ फल खरीद कर वापिस टैक्सी की तरफ बढ़ता है।  तब उसका साथी राम पूछता है , क्या पैक करवाया है , आज क्या घर पर पियेगा -खायेगा ? महेंद्र - मुस्काते और बचते हुए टैक्सी में आ बैठता है।
घर पर पहुँच द्वार खटखटाने पर पत्नी निशा  पति को जल्दी लौटा देख आश्चर्य मिश्रित भय से पूछती है -क्या हुआ जी , तबियत ठीक नहीं है क्या ? प्यार से निहारते जब महेंद्र कहता है , नहीं आज ज्यादा ठीक है।  पति के स्वर में नशे की हालत का अभाव उसे हर्षित करता है।
निशा के प्रसन्न मुखड़े को देख महेंद्र सोचता है बिना पैसे से भी परिवार खुश रहता है क्या ? अभी तो दो घंटा का समय अधिक ही देता देखा है , निशा ने।
अंदर सात साल की आरु , पापा को देख उससे गले आ लगती है। महेंद्र ,उसे लिफाफे में से निकाल फल देता है।  कहता है ले इसे खाकर देख कैसा है ?
आरु - आश्चर्य से महेंद्र को देखती है , मम्मी की तरफ देख शिकायती स्वर में कहती है - मम्मी , पापा कच्चा आलू खाने कह रहे हैं ?
निशा को बात समझने में समय लगता है , आरु से कहने के पहले , महेंद्र की ओर नयनों में प्यार भर देखती है।  महेंद्र को शादी के बाद इन आँखों में ऐसा भाव पहली बार अनुभव होता है। वह मन से रीतेश को दुआ देता है , उसके कान में स्वर सुनाई देता है , आरु -खा कर देख मीठा है ,आलू नहीं है ……

--राजेश जैन
10-11-2014

कंप्यूटर साइंस की भाषा में

कंप्यूटर साइंस की भाषा में
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सॉफ्टवेयर (Software )
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संस्कृति और संस्कार उस सॉफ्टवेयर(एप्लीकेशन)  जैसे होते हैं  जिसके होने से कंप्यूटर इनपुट पढता है , प्रोसेस करता है और आउटपुट देता है ।
सॉफ्टवेयर में बग होने पर प्रोसेसिंग और रिजल्ट त्रुटिपूर्ण (इन-करेक्ट) होते हैं। इसलिए जिस प्रकार सॉफ्टवेयर की उत्कृष्टता , सही परिणाम की गॉरंटी सुनिश्चित करती है उसी तरह 'संस्कृति और संस्कार' में उत्कृष्टता के होने से सुखमय जीवन सुनिश्चितता का परिणाम प्राप्त होता है।
हार्डवेयर (Hardware)
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"व्यवस्था और बाह्य वैभव" उस कंप्यूटर हार्डवेयर जैसे होते हैं , जिसमें सॉफ्टवेयर इंस्टालेशन के बाद कंप्यूटर की तीव्रता का लाभ मिल सकता है।  जब हार्डवेयर  सॉफ्टवेयर दोनों ही उत्कृष्ट होते हैं तब ही मानवता और सभ्यता विकसित होती है।
बाह्य वैभव की अति होने से पाश्चात्य देशों में सुविधा और भोग लोलुपता बढ़ गई है . कह सकते  हैं , हार्डवेयर डिफेक्टिव हो चला है या अति एडवांस  हो गया है । वहाँ पारिवारिक प्रेम समाप्त होता जा रहा है। जिससे व्यक्ति कई अवसरों पर बिलकुल एकाकी अनुभव करता है , उसे निस्वार्थ चाहने वाला अपना कोई आसपास नहीं दिखता है।
ऐसे में भारतीय संस्कृति की उत्कृष्टता उन्हें स्मरण में आती है। जिसमें परस्पर त्याग -दया का भी फ्लेवर होने से भाईचारा और आपसी प्रेम (अनेकों रिश्तों में ) प्रवाहित रहता है। जिसमें मुश्किल की घड़ियों में भी जीवन में कोई असहाय अकेला अनुभव नहीं करता है।
बैकवर्ड कम्पेटिबिलिटी (Backword Compatibility)
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पाश्चात्य देशों में उल्लेखित हार्डवेयर एडवांसमेंट के कारण , बैकवर्ड कम्पेटिबिलिटी इशू होने से भारतीय संस्कृति रूपी सॉफ्टवेयर इंस्टालेशन संभव नहीं रह गया है।
वायरस अटैक ((Virus Attack)
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हम  उत्कृष्टता का लाभ लेते रह सकें इसके लिए आवश्यक है कि अपने पास उपलब्ध सॉफ्टवेयर ( भारतीय संस्कृति ) में बाह्य ख़राब प्रभाव का आक्रमण (वायरस अटैक) ना होने दें।
अन्यथा वहां हार्डवेयर डिफेक्टिव और यहाँ सॉफ्टवेयर डैमेज। सच्चा जीवन सुख कहीं भी न रहेगा। तब -
"कहाँ रहने की सलाह देंगे हम , अपनी नई (आने वाली ) पीढ़ी को ?"
--राजेश जैन
09-10-2014

Wednesday, October 8, 2014

शारीरिक संबंधों में स्वछंदता की कुरीति

शारीरिक संबंधों में स्वछंदता आधुनिकता नहीं
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 "गर्म ऊन" ,"आकर्षण प्रदान करते रेशमी या सुनहरी डोर" और उनके बीच "हवादार छिद्र"  होते हैं , ऐसे जिस शॉल में बुनावट हों वे हमें सर्दी वाले प्रदेशों में बहुत शुकुन देते हैं। इसी तरह परिवार जब "परस्पर विश्वास की गर्मजोशी" , "प्यार की शीतलता और सुंदरता" और "त्याग भावना के छिद्रों" से गुथे-बुने होते हैं। उनमें मन शांत और जीवन की सुखदता विध्यमान रहती है।  ऐसे परिवारों से भरा समाज सृजनशील , रचनात्मक इसलिए उन्नतिशील होता है।
बाह्य वैभव का एक महत्व अवश्य होता है , जिससे हमें शारीरिक आराम के साधन मिलते हैं।  किन्तु जिस बात से जीवन सार्थक और सुखद बनता है वह बात हमें मानसिक शांति से मिलती है।  शांत चित्त रहकर ही उच्चतम कार्यक्षमता प्रदर्शित की जा सकती है , और वास्तविक जीवन सुख अनुभव किये जा सकते हैं और मनुष्य परस्पर सहयोगी होकर मानवता और सभ्यता को उच्चतम आयाम दे सकते हैं। परिवार इकाई बने रहना , बनाये रखना ही वास्तविक मनुष्यत्व है।  जो आज की षणयंत्रकारी स्वच्छंदता से संकट में पड़ रही है .
घर -परिवार सभी का होता है। उसमें माँ है , बहन है , विवाहितों की पत्नी भी है , बेटी है। ...
आज बेटियाँ -बहनें उच्च शिक्षा या आजीविका की कामना में कॉलेज और ऑफिस में जा रही हैं। दूसरों की बेटी - बहन (और कहीं किसी की पत्नी) को आधुनिकता के तर्क के साथ ,  विभिन्न तरीकों से उकसा कर ,अविवाहित युवा और रसिक विवाहित पुरुष अपनी वासना पूर्ती का मंतव्य सिध्द करने के प्रयासरत रहते हैं। उन पर उपहार ,होटलों -पबों में ले जाकर लेविशली खर्च से प्रभाव डालते हैं। जो प्रभाव में आ जायें उन्हें ड्रिंक्स लेने को दुष्प्रेरित करते हैं। धन का अहसान , ड्रिंक्स से कम हुए आत्म-नियंत्रण और आधुनिकता या अन्य बेहूदे तर्कों के प्रभाव में नारी (और पुरुष भी ) भारतीय मर्यादा और चरित्र की सीमा लाँघ लेती हैं। इन का उपयोग ब्लैकमेलिंग में भी किया जाने लगता है।
 तब भी जब सम्बन्ध बनाते पुरुष और नारी , आगे विवाह करने वाले हों ,विवाह पूर्व के संबन्ध , निंदाजनक माने जाते रहे हैं। लेकिन जिनमें विवाह की कोई योजना ही ना हो तब वासनापूर्ती को छोड़ा जाये तो परस्पर हित का कोई भी प्रयोजन पूरा नहीं होता है। विवाहेत्तर सम्बन्ध ने भी कभी भी ना तो किसी नारी को , ना ही किसी पुरुष को मानसिक शांति पहुँचाई है।
अवैध कहे जाते ऐसे संबंधों से पुरुष को तो ज्यादा से ज्यादा व्यभिचारी कह /जान कर थोड़ा प्रतिष्ठा हानि मिलती है। जिसके कारण प्रतिष्ठित परिवार उनसे पारिवारिक मेल जोल में परहेज कर लेते हैं। क्योंकि परिवार की शीलवान नारी (पत्नी , बहन , बेटी ) को ऐसे पुरुष की दोषी दृष्टि या दुश्चरित्रता से बचाना होता है। किन्तु नारी का तो भविष्य और जीवन अन्धकार में डूब जाता है। दैहिक आकर्षण एक दिन ख़त्म होने से उनमें रूचि लेने वाला कोई नहीं मिलता ,तब साथ सिर्फ अवसाद और अकेलापन रह जाता है।
जब बात परिवार पर आती है  समस्त आधुनिकता के तर्क अलग रह जाते हैं। जीवनसाथी के पूर्व ऐसे सम्बन्ध या विवाहेत्तर सम्बन्ध की जानकारी नारी और पुरुष दोनों को अशांति ही देती है और ये परिवार विच्छिन्न करने वाले  सिध्द होते हैं। चाहे जिसके या जिस भी तर्क से हमारी पीढ़ी समझ ले , यह बार बार कहे ,सुने ,लिखे और पढ़े जाने की आवश्यकता है। 


"परिवार के स्थाईत्व में ही मानवता और जीवन सुख फलीभूत  होते हैं , स्वछंदता जानवरीयत है , सुख के भ्रम की मृग-मरीचिका है। "


आधुनिकता में ,आधुनिक साधनों में मनुष्य की बहुत भलाई है , लेकिन शारीरिक संबंधों में स्वछंदता आधुनिकता नहीं है।  कई पाश्चात्य देश समाज बाह्य वैभव और सुविधा संपन्न हैं , किन्तु उनमें शारीरिक संबंधों में स्वछंदता की कुरीति से , मनुष्य मनोमस्तिष्क से अशांत हैं।  वे भारतीय संस्कृति के महत्व गान भी करने लगे हैं। ऐसे में हम से दुर्भाग्यशाली कौन होगा,  जिसे इस भव्य संस्कृति की विरासत मिली है ,जो यों ही हम लुटा दे रहे हैं।


--राजेश जैन
09-10-2014

Tuesday, October 7, 2014

लाइक

लाइक
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क्यों पड़े हैं इस पचड़े में
कि लाइक कोई करे हमें
जमाना लाइक जिसे करता है
वही है बुराइयों की जड़ में

जीवन की परेशानियों को सब भुगतते हैं , परेशानी का समाधान वैज्ञानिक होते हैं , जो आविष्कारों से जीवन सरलता की सामग्री निर्माण की राह प्रशस्त करते हैं।  वैज्ञानिक सँख्या में कुछ होते हैं।  जबकि आविष्कृत सामग्री का लाभ पूरी दुनिया लेती है।

इसी तरह आचरणगत समस्या सभी को होती है , जिसका निवारण धर्म /धर्म प्रवर्तकों ने दिया है।  धर्म पर चलकर उसको समझ कर मनुष्य अपना जीवन सुखद और शांत बनाता है।  धर्म  और धर्म प्रवर्तक कुछ ही हुए हैं जो मनुष्यों को लम्बी अवधि से जीवन दिशा प्रदान करते हैं।

सामाजिक बुराइयाँ और कुरीतियाँ नई नई तरह की अलग अलग काल और क्षेत्र में उत्पन्न होती रही /रहती हैं।  कुछ समाज सुधारक और युग नारी /पुरुष हमें मिलते आये हैं।  जिन्होंने अपनी विचारशीलता और सच्ची प्रेरणाओं से इन्हें मिटा कर समाज में मनुष्य-जीवन को बुराई अभिशाप से निकाला है।  सामाजिक बुराई क्या है ? यही ना जिसे ख़राब भी जानते हैं किन्तु सम्मोहनों या रुग्ण परम्पराओं के दुष्प्रभाव में सभी करते चले जाते हैं।
(रुग्ण परम्परायें - बाल विवाह , बहु विवाह (एकाधिक पत्नियाँ)  , छुआ-छूत , बँधुआ-मजदूर प्रथा ,इत्यादि।  आज कन्या-भ्रूण हत्या , सेक्स-स्वछंदता , पोर्नोग्राफी के प्रति रुझान इत्यादि)

बुराई में ज्यादा व्यक्ति पड़ते और करते हैं।  उनको सदप्रेरणाओं से मिटाने वाले कुछ ही होते हैं जो कालांतर में महान और युग नारी /पुरुष कहे जाते हैं।  आरम्भ में उनका दर्शन , साधारण व्यक्ति की सोच और आचरण से भिन्न होने से विचित्र सा लगता है। लेकिन जब उसमें निहित भलाई का अनुभव होता है तो पूरी की पूरी पीढ़ियाँ उनका अनुशरण करती हैं।

स्पष्ट है धर्म प्रवर्तकों , वैज्ञानिकों और तथाकथित महान इस बात से निष्प्रभावित रहते हैं कि उनके लिए  कहा -सुना क्या जा रहा है।  वे अपने भले उद्देश्यों को लेकर पूरे जीवन लगे होते हैं।  उन्हें आडम्बरों और धन-वैभव कामनाओं से भी मुक्त देखा जा सकता है।

सर्वकाल भलाई के धर्म , उन्नत आविष्कार और प्रचलन में रही सामाजिक बुराइयों का विनाश इन्हीं कुछ की विचारशीलता ने ही दिए हैं।  जिसने मनुष्य सभ्यता के विकास के द्वार खोले और पथ निर्माण किये हैं।

इसलिये क्या अधिकाँश द्वारा लाइक किया जा रहा है , और हमारी अच्छी बातें क्यों लाइक और लोगों को आकर्षित,  नहीं कर पाती हैं।  इन बातों से अपने हौसले नहीं खोने चाहिये।  अपनी विचारशीलता बनाये रखें , शायद आप में से कोई नया प्रवर्तक या युग नारी /पुरुष बन उभर जाये।  जो आज की बुराईयों से हमारी पीढ़ी को अभिशाप -मुक्त करने में सफल हो।

--राजेश जैन
08-10-2014

पीड़ा ना होगी

पीड़ा ना होगी
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खाने और धन कमाने के लिये कुछ जीते हैं
जीवन के लिये खाते और धन कुछ कमाते हैं
कोई चालीस और कोई पचास के हुए  हैं
ऐसे ही हम चवपन साल के अब हुए हैं

कुछ के लिए रुक चुका है
कलैंडर के बढ़ने का क्रम
एक दिन सब के लिए रुकता है
रुक जाएगा कभी अपने लिए भी 

लेकिन कलैंडर तब भी नित दिन
आता ही रहेगा नई दिनाँक लिए
क्या आने जाने वाले इन दिनों में
ऐसा भी आएगा कभी वह समय ?

जब किसी भी दिन नारी या लाचार पर
अत्याचार और शोषण ना कोई करेगा

बहते हैं अश्रु नयनों के होने से
नैन हैं अतः वे बहते भी रहेंगे
किन्तु कोई अश्रु किसी के
किसी को सताने पर ना बहेंगे

तब होंगे या ना होंगे मित्रों हम
सताये गए की आह भरने से या
ऐसे सजल नयनों को देखने से 
असहनीय हमें पीड़ा ना होगी

-- राजेश जैन
06-10-2014


Sunday, October 5, 2014

फ़िल्मी लोगों का संस्कृति द्रोह


फ़िल्मी लोगों का संस्कृति द्रोह
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पिछले 10 दिनों में 2 नई फ़िल्में देखीं। देखकर लेखक के  नये लेख में फिल्मों और फ़िल्मी लोगों की बुराई पर पुनः प्रहार के कारण मिलें। लेख आज उन पर.

दोनों फिल्मों में थीम समान ही थी।  बेटी के लिए योग्य युवक की खोज कर परम्परागत ढंग से विवाह तय किया जाता है।  घटिया से किसी कारण को लेकर बेटी शहर आती है। रूप पर रीझे एक युवक की घटिया हरकतों से बेटी को प्रभावित होते दिखाया जाता है। अंततः युवक के कुछ डायलॉग से प्रभावित दिखा और बेटी के प्रेम दबाव में आकर पिता , कमतर योग्य इस लड़के से बेटी के विवाह को स्वीकृति देता है। फिल्म में तो सरलता से दिखा दिया जाता है कि अपेक्षाकृत धनी परिवार की बेटी , निर्धन या मध्यमवर्गी युवक के साथ विवाह कर लेती है या खुश दिखती है , जबकि यथार्थ जीवन इस सरलता से किसी ऐसी बेटी का इससे विपरीत होता है।  प्रश्न कई (पहले भी उठे हैं ) पुनः अपने लेखन और दृष्टिकोण से चिंतन हेतु उल्लेखित हैं।

प्रश्न 1.  युवक और उस बेटी का सेक्स फिल्म में दिखाया गया है।  विवाह पूर्व इस सेक्स को बाद में दोनों द्वारा इतना सहज लिया दिखाया गया है जैसे दो लोगों ने किसी हॉटेल में साथ भोजन किया हो।  इस सम्बन्ध के बाद भी बेटी पिता दबाव में तय किये अन्य युवक से विवाह को राजी है , अगर प्रेमी ज्यादा पीछा नहीं करता है तो।

क्या  पुरुष और नारी अपने स्पाउस (जीवनसाथी)  के विवाह पूर्व सम्बन्ध के जानकार होने पर इतने सहज रह सकते हैं? या इसे हम एक षणयंत्र कहें जो फिल्मों के माध्यम से किया जा रहा है। कम उम्र के हमारे बच्चे भी इन फिल्मों को देख रहे हैं , क्या उन्हें मानसिक तौर पर इन सम्बन्धों को इतना सहज लेने के लिए तैयार नहीं किया जा रहा है ?

लेखक मत 1.  - यह तो परिवार इकाई को अस्थिर करता है क्योंकि सेक्स इतना सहज लिया जाने लगेगा तो विवाह-बंधन की मजबूती वह नहीं रह जायेगी जो अभी तक रही है।परिवार में बच्चे किन संबंधों से जन्मे हैं शंका रहेगी। परिवार बिखरे तो समाज ऐसा नहीं रह सकेगा।

प्रश्न 2. - युवक को अनेकों बार स्मोकिंग करते दिखाया गया है , जबकि प्रमाणित है , यह हेल्थ पर अत्यंत बुरा प्रभाव डालती है।  क्या हीरो द्वारा किये जा रहे इस कृत्य से हम अपने बच्चों में प्राणलेवा आदत की दुष्प्रेरणा नहीं देखते हैं।  जबकि हीरो द्वारा ऐसा करवाने के उद्देश्य सिगरेट का विज्ञापन और उससे इनके निर्माताओं की आय बढ़ाने का छिपा एजेंडा है।

लेखक मत 2. - मनोरंजन के नाम पर पीढ़ियों का समय बर्बाद करने के साथ फ़िल्में समाज में बुरी लतें भी फैलाती आई हैं।  जो देश के नागरिक को रोग ग्रसित कर उनके जीवन और क्षमताओं से समाज और राष्ट्रहित में उनके अधिकतम योगदान की संभावना समाप्त करती है।  भला तन और मन से रोगी व्यक्ति से हम efficient  कार्यकुशलता की (परिवारहित समाजहित या राष्ट्रहित ) अपेक्षा कर सकते हैं।

आगे प्रश्न फिल्म से नहीं एक फ़िल्मी प्रचारित महान से है।  जो आज कुशल अभिनेता से महान लीडर (नेता) बनने का प्रयास कर रहा है।  देश और समाज में समस्याओं और बुराइयों को दिखला कर सिस्टम पर दबाव और युवाओं में प्रेरणा का संचार देने का दिखावा कर रहा है।

उससे प्रश्न  - क्या फिल्मों ने एवं फ़िल्मी लोगों की बुराइयों ने देश ,समाज और संस्कृति का जो बुरा हश्र कर दिया है , जिससे समाज और देश बुराइयों और समस्याओं से जूझने को बाध्य है , वे उसे नहीं दिखती हैं ? क्या फिल्मों और फ़िल्मी लोगों की इन संस्कृति  (समाज) द्रोह के करतूतों पर वह एक एपिसोड पेश कर सकता है ?

लेखक मत - यदि ऐसा नहीं है , तो उसे अभिनेता और "धन वैभव बटोरने की मशीन" ही बने रहना चाहिए , वह इस पीढ़ी का महान नेता कभी नहीं कहला सकेगा।  भोगी और ऐय्याश कभी इतिहास पृष्ठ पर महान नहीं दिखाये गये हैं , क्योंकि वे जीवन अपने लिए जीते हैं।  इतिहास पृष्ठ पर महान वे दिखते हैं जो व्यकिगत भलाई से ऊपर उठ मानवता विकास (और संचार) के लिए बलिदानी होते हैं।

--राजेश जैन
06-10-2014

Saturday, October 4, 2014

आत्ममुग्धता

आत्ममुग्धता
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कोई किसी पर मुग्ध होता है तब उसमें अच्छाई ही देखता है , उसके गुण पर ही ध्यान जाता है। उसके साथ बीतते समय के साथ मुग्धता का प्रभाव जब कम होता है तब दृष्टि उसके दोष और बुराई पर भी जाती है।  तब अपने उस सम्मोहन पर उसे हँसी ही आती है कभी पछतावा भी हो सकता है।

आत्ममुग्धता एक सम्मोहन है , जिसका प्रभाव दूसरे द्वारा दूसरे पर नहीं होता है ,बल्कि स्वयं का स्वयं पर होता है।  इस तरह की मुग्धता में हमें अपनी अच्छाई ही अच्छाई दिखती है। हम अपने में सिर्फ और सिर्फ गुणों की खान देखते हैं।  अपने दोष और अपनी बुराई हमें अनुभव में नहीं आती है। आत्ममुग्धता हमें किसी द्वारा बताये अपने दोष को भी मानने नहीं देती , बल्कि उस व्यक्ति से हम बुरा ही मान बैठते हैं जो हमें इस तरह दर्पण दिखाता है। हमारी आत्ममुग्धता हमारा दर्प मिटने नहीं देती है।  हममें से बहुत, आत्ममुग्धता ग्रसित होते हैं। और इस स्थिति से स्वयं परिचित नहीं होते हैं।

आत्ममुग्धता का परिचय लेख में किसी और लक्ष्य से दिया गया है। अब उस पर लेख करता हूँ।

नारी पक्ष के प्रति नरमी
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लेखक के लेखों में नारी -पुरुष के परस्पर टकराव और विवाद के कारणों में अक्सर नारी पक्ष के प्रति नरमी और पुरुष पक्ष के प्रति आलोचक दृष्टिकोण झलकता है।  पुरुष मित्रों ने ऐसा अनुभव किया है।  लिखे जाते समय स्वयं लेखक को भी यह आभासित होता है। लेखों में क्यों ऐसा है इसका कारण स्पष्ट यहाँ एक दृश्य से किया जा रहा है।

एक पिता अपने बेटे की किसी गलती पर उसे पीट रहा है। बेटा मार की पीड़ा से रो रहा है।  आसपास के व्यक्ति पिता को ना मारने के लिए समझाने का प्रयास करते हैं। लेकिन पिता की उग्रता कम नहीं होती।  इस बीच बेटा कुछ अपशब्द पिता को कह देता है.  पिता का गुस्सा और बढ़ जाता है।  तब भी ज्यादा समझाने वाले पिता को ही समझाते हैं।  क्यों ?
इसी तरह
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प्राकृतिक रूप में ही पुरुष और नारी एक दूसरे के पूरक बनायें गए हैं।  दोनों का ही अपना अपना महत्त्व है ही।  लेकिन नारी की प्रकृति प्रदत्त शारीरिक शक्तिहीनता , संरचना और स्थिति पुरुष से कमजोर रही है। इसलिए आरम्भ से वह पुरुष आश्रय में सुख अनुभव करती रही है। सभ्य मनुष्य समाज में धैर्य और न्याय समर्थ से ही अपेक्षित होता है।   शक्तिहीन और विवश पर प्रहार को कभी वीरता नहीं कही जाती है।

आश्रित हमारा बेटा
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जिस प्रकार आश्रित हमारा बेटा अल्पवय में हमसे कमजोर होता है , इसलिए जब हम उस पर प्रहार करते हैं।  समझाने वाले जो गुस्से में नहीं होते हमें ऐसा नहीं करने को समझाते हैं।  वैसे ही नारी से पुरुष अपेक्षा में आई कोई कमी यदि उसे नाराज भी करती है। तो ज्यादा समर्थता के कारण पुरुष को ही समझाया जाना उचित होता है।
न्याय अपेक्षा
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नाराजी से उग्र हुए पुरुष पर विवश नारी कोई पुरुष अहं को ललकार बैठती है तो यह उसकी लाचार अवस्था की प्रतिक्रिया ही होती है। ऐसी स्थिति में भी धैर्य -न्याय की अपेक्षा बलवान पुरुष से ही होती है।  ज्ञान और न्याय , पुरुष से ही अपेक्षा करता है कि ऐसे कारण /स्थिति को दूर करे। जो नारी -पुरुष के ऐसे टकराव उत्पन्न करते हैं।

नारी संगठन
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बलवान पुरुष मानसिकता  आत्ममुग्धता की शिकार है जिससे वह अपने दोष और अन्याय को देख नहीं पाती।  नारी संगठन और उनकी आवाज ,वास्तव में विवश स्थिति जनित नारी प्रतिक्रिया है। बलवान पुरुष इससे और उग्र हो रहा है। 

संगठित हो संघर्ष का प्रयास कब किया जाता है?
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संगठित हो संघर्ष का प्रयास कब किया जाता है?  जब विरोधी ज्यादा ताकतवर है।  बहुत स्थितियों में पुरुष शोषण और अत्याचार से बचाव किसी एक नारी द्वारा संभव नहीं है।  इसलिए संगठित स्वर में उन्हें कहने की आवश्यकता आई है।  शायद ही कोई नारी मानती होगी की जीवन में उसे किसी पुरुष की आवश्यकता नहीं है ,क्योंकि पुरुष उसका पिता ,भाई और बेटा भी होता है अकेला प्रेमी या पति नहीं।

नारी , आज ज्यादा शिक्षित और समर्थ
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लेखक के लेख इसलिये पुरुष चिंतन और स्व-दोष मिटाने के आव्हान के हैं। पहले की तुलना में नारी भी आज ज्यादा शिक्षित और समर्थ है।  टकराव के जो कारण नारी व्यवहार के बदलने से नष्ट किये जा सकते हैं , उस बारे में परस्पर नारी चिंतन और प्रयासों से ही नारी द्वारा नारी को समझाया जाना उचित होता है।

मानव जीवन अत्यंत ही प्यारा
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आत्ममुग्धता की स्थिति से हम सब बाहर निकलें , गुण  अच्छाई तो हममें अनेकों हैं , जो थोड़े दोष हैं उन्हें दूर करें। तब  यह विश्व /देश , हमारा समाज और हमारा मानव जीवन अत्यंत ही प्यारा बन जाता है।

--राजेश जैन
05-10-2014

हितकारी जीवनशैली की खोज

हितकारी जीवनशैली की खोज
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प्राचीन मानव के अनुभवों पर आधारित मनुष्य के एक परिवार में संबध्द हो समाज में रहने की सभ्यता विकसित हुई , जो हजारों वर्षों तक परीक्षण उपरांत  मनुष्य जीवन हितकारी सिध्द होती रही। परिवार और समाज में रहते हुये ही मनुष्यों द्वारा संयुक्त एकजुट कार्य संभव हुए , जिनसे हम आज की उत्कृष्ट उपलब्धियों तक पहुँच सके और जानवरों से अलग जीवनशैली विकसित कर सके। आज जब परिवार बिखर रहे हैं (विवाह विच्छेद से) या परिवार बन ही नहीं पा रहे हैं (लिव इन रिलेशनशिप से), ऐसा परिवर्तन चाहे जिन कारणों से आया है . पारम्परिक सभी विचारक आज के परिवर्तनों को , सामाजिक बुराइयों की जड़ कह रहे हैं।
लेकिन चलो हम युवा इसे बुराई ना कहें। किसी व्यवस्था को अच्छा या ख़राब किसी चीज के सापेक्ष (तुलना से) कहा जाता है। "नयी किसी जीवनशैली"  की तुलना पुरानी से होने पर युवा (सभी युवा नहीं ) इसे अच्छा और उन्नतिशील कह रहे हैं और बड़े (सभी बड़े भी नहीं) इसमें बुराई अनुभव कर रहे हैं। इसे मानव सभ्यता की पतनोन्मुखी चाल निरूपित कर रहे हैं। इसलिए चलो हम प्राचीन इस मनुष्य परिवार परम्परा को मिटा (भूल) कर स्लेट को साफ कर देते हैं।तुलना के कारण हटा देते हैं। एवं आज की पीढ़ी के अनुभवों को साफ़ की गई स्लेट पर लिखते हैं कि क्या है मनुष्य भलाई और जीवन सुखों की जीवनशैली ?आज के युवा अनुभवों से नारी और पुरुष संबंधों के निम्न  में से एक उचित विकल्प तलाशते हैं।


a.  नारी और पुरुष ने विवाह नहीं किया और परस्पर सम्बन्ध स्थापित किये , बाद में विवाह किसी और से किया।
b.  नारी और पुरुष , लिव इन रिलेशन में ही समय के साथ , साथी बदल बदल कर रहे। विवाह किया ही नहीं।
c.  नारी और पुरुष ने विवाह से पहले भी और बाद भी अन्य विपरीत लिंगी साथियों से शारीरिक सम्बन्ध रखे।
d.  नारी और पुरुष ने विवाह किया कुछ दिनों एकनिष्ठ रहे फिर विवाहेत्तर सम्बन्ध स्थापित किये , जो विवाह विच्छेद का कारण हुआ।
e.  नारी और पुरुष ने विवाह किया दोनों एकनिष्ठ रहे और परिवार में ही रहना जारी रखा।
f.   नारी और पुरुष ने विवाह पूर्व किसी से सम्बन्ध रखे ,विवाह बाद विवाहित साथी के प्रति निष्ठावान रहे।
g.  नारी और पुरुष ने विवाह किया नहीं और बदल बदल कर साथियों से सम्बन्ध रखे।
h.  उपरोक्त से कुछ अलग जीवनशैली ज्यादा अच्छी।




ऐसे अनेकों कांबिनेशन हो रहे हैं , कुछ तरह के कम और कुछ तरह के ज्यादा। इनमें किसी एक में रहे आज के युवक -युवतियों ने जीवन सुख किस में अनुभव किया , किस में उन्हें ज्यादा कलहपूर्ण जीवन का सामना करना पड़ा/पड़ रहा है ?  विचार सभी लिख सकते हैं , विशेषकर 25 - 40 वर्ष के उम्र के नारी और पुरुष से इसका बेबाक उत्तर अपेक्षित है। ताकि एक प्रयास इस विकट प्रश्न का समाधान और एक आदर्श जीवनशैली आने वाली पीढ़ी के समक्ष अग्रेषित करने का किया जा सके .


ऑनेस्ट और शिष्ट ,संयत उत्तर और टिप्पणी ही अपेक्षित है।


"नारी चेतना और सम्मान रक्षा" पेज से इसे प्रस्तुत करना इसलिए चुना गया है क्योंकि भावनात्मक कोमलता के होने से नारी पर ही किसी भी जीवनशैली का ज्यादा (बुरा) प्रभाव पड़ता है।




-- राजेश जैन
04-10-2014

Thursday, October 2, 2014

जीवन -सरल सिध्दांत

जीवन -सरल सिध्दांत
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लेखक के एक विद्वान मित्र ने शपथ के इस दौर में , जिसमें शपथ निभाने के लिये कम रस्म अदायगी के तौर पर ज्यादा ली जाती हैं एक हास्य विनोद-व्यंग  से भरपूर एक शपथ पोस्ट की।  वह ऐसी है (कॉपी -पेस्ट )

"मेरे साथ साथ दोहराइए..
मैं भारत का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते शपथ लेता हूँ कि नवरात्रि के बाद जब भी शराब पीना शुरू करूँगा तभी से मैं सोडे और पानी की खाली बोतल, नमकीन के पाउच, स्नैक्स की खाली प्लेट और शराब की बाटली को कहीं भी नहीं छोडूंगा। उसे उचित स्थान पर ही फेकुंगा और माल तेज हो जाएँ तो उल्टी अपने साथ रखे डब्बे में करूँगा ।"
मित्र की पोस्ट होने से नोटिफिकेशन लेखक को भी मिला। लेखक ने शपथ में छिपे हास्य-व्यंग का आनंद लिया लेकिन कमेंट तनिक गंभीरता से डाला , जो ऐसा था 

"मैं भारत का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते शपथ लेता हूँ कि नवरात्रि के बाद भी शराब पीना नहीं शुरू करूँगा "

अति व्यस्तता की देन 
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लेख का आरम्भ देने के बाद मर्म पर आते हैं। वास्तव में हमें सतही कर्म और विचार की शैली जो शायद अति व्यस्तता की देन है , छोड़ किसी विषय के मर्म पर कर्म और विचार करना चाहिए।

गन्दगी की सफाई
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हमें बुरे को ख़त्म करने के स्थान पर , बुराई की जड़ को खत्म करना चाहिए। जैसा उपरोक्त शपथ में स्पष्ट है , बहुत सी गन्दगी शराब पीने से होती है , शराब पीने के बाद हुई गन्दगी की सफाई (शराबी इस हालत में नहीं होता ,स्वयं कर सके ) बढ़ा प्रश्न होता है। जैसे तैसे हो तो जाती है। लेकिन बड़ी किसी बुराई को तो उसके होने के कारकों को मिटाते हुए ख़त्म करना चाहिए (छोटी -मोटी बुराइयाँ तो इतना विशाल मानव समुदाय होने से ख़त्म नहीं किन्तु इग्नोर की जा सकती हैं ).

उत्कृष्ट वीरता और साहस 
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इस पोस्ट पर लेखक का कमेंट लेखक के लिए एक सरल शपथ है। वह पीता ही नहीं तो उसके लिए शपथ निभाना बच्चों द्वारा कर दिया जाने वाले कार्य बराबर है। लेकिन जो मदिरा सेवन के आदी हुए हैं ,उनका इसे निभाना हिमालय धकेलने जितना कठिन हो जाता है। इसलिए लेखक किसी शराबी द्वारा ऐसी शपथ उठाने को उत्कृष्ट वीरता और साहस की श्रेणी में रखेगा। ऐसी वीरता की आवश्यकता हमारे देश और समाज को है। क्योंकि शराब अकेली ऊपरी गंदगी को नहीं अपितु मानसिक गंदगी को भी बढाती है। हमें गंदगी और बुराई पर काबू पानी है तो हम उस शपथ को उठायें , और रस्म अदायगी ना कर उसे निभाकर परिवार और समाज के प्रति दायित्व ज्यादा कुशलता से निभायें।

सरल सिद्धांत
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हमारा जीवन दो काल बिन्दुओं के बीच होता है।  वे दो बिंदु हमारे जन्म और मौत होते हैं। जन्म से प्राप्ति का सिलसिला और मौत सब खो देने वाले घटनायें हैं। अस्सी वर्ष का मनुष्यीय जीवन माना जाए तो अपने जीवन को हमें नियोजित करना चाहिए। चालीस वर्ष तक प्राप्ति के उपाय और कर्म प्रमुख रखने चाहिए। चालीस के हो चुकने के बाद हम मौत के नितदिन करीब जाना आरम्भ करते हैं अतः तब हमें तजने की प्रवृत्ति अपनानी आरम्भ करनी चाहिए. अर्थात त्याग मुख्य करते जाना चाहिए।  यहाँ त्याग किसी उपलब्धि को नष्ट करना नहीं है। बल्कि अपनी उपलब्धियों को परिवार के अतिरिक्त देश ,समाज और मानवता के लिये भी बाँटना होता है । 

मानवता के पक्ष में
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यह सरल सिद्धांत हमारा जीवन सार्थक और दायित्व पूरे करता ही है। हमारे समाज को उत्कृष्टता पर पहुँचाता है।  आप भी रियलाइज करेंगे की मौत पर सब खोने के बाद भी किये ऐसे त्याग ही हमारे जीवन की शुद्ध प्राप्ति होती है , अवश्य ही यह हमारे पक्ष में नहीं होती , यह मानवता के पक्ष में होती है जो मानवता को पुष्ट करती है।

--राजेश जैन
03-10-2014

कोई कैमरा ऐसा नहीं है

कोई कैमरा ऐसा नहीं है
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हम पर फोकस कर क्लिक की जाये और फोटो किसी फ़िल्मी / प्लेयर की आये कोई कैमरा ऐसा नहीं होता है। हमें जो मुख मिला है श्रृंगार के साथ उसे कुछ ज्यादा अच्छा तो दिखाया जा सकता है। किन्तु , यदि किसी फ़िल्मी जैसा दिखना है तो वह मुखौटे को मुख पर चढ़ा लेने के बाद ही संभव है।  मुखौटा लगाकर हम अपनी पहचान बदलें , ये किसी पात्र को स्टेज करने के लिए ही ठीक  होता है।

वास्तविक जीवन में साधारण तौर पर कलंकित चेहरा ही मुखौटे के पीछे छुपाया जाता है। हम अगर खोटे काम नहीं करते तो मुख छिपाने की हीनता हममें नहीं होनी चाहिए। साधारण मुख भी , उत्कृष्ट कार्य के साथ दुनिया को अति प्रिय होते हैं।  हमारे पूर्व में रहे राष्ट्रपति ,अपने उत्कृष्ट कार्यों के कारण अपने सामान्य से चेहरे के साथ लोकप्रिय हैं उन्हें देखकर या उनका चित्र देख कर हम श्रध्दानत ही होते हैं।

फेसबुक पर अनेकों id फ़िल्मी चेहरों के साथ बनी हैं। उन्हें देखकर किसी को श्रध्दा नहीं आती बल्कि कोई छिछोरा उसके पीछे हो सकता है , यह शंका होती है। जो अपनी पहचान इन मुखौटों में छिपाये भले ही वह भला हो अपरिचितों में इम्प्रैशन छलिये (हलकट) का ही बनाता है। 
किसी नारी को तो लेखक अनिवार्य नहीं करता , क्योंकि उनकी फोटो का बुरा प्रयोग नेट पर होते देखा है , अतः उनपर छोड़ता है  कि वे अपनी सौम्य छवि को प्रोफाइल पिक बनायें या कोई मुखौटा लगायें।  लेकिन पुरुष साथियों को अपनी वास्तविक पहचान के साथ ही आना चाहिये। किसी अच्छे मंतव्य से अपनी फोटो ना भी डालें तब भी कमसे कम फ़िल्मी चेहरों से तो बचना ही चाहिए।

लेखक किसी भी फ्रेंड रिक्वेस्ट को प्रायः एक्सेप्ट करता है , किन्तु फ़िल्मी चेहरे वाली id से आये रिक्वेस्ट को एक्सेप्ट नहीं कर पाता है।

एक बार सोचें हमारा क्या इम्प्रैशन जाता है , जब हम अपनी पहचान छिपा के किसी के सामने जाते हैं ?

-- राजेश जैन  
02-10-2014

Wednesday, October 1, 2014

हितैषी (वेलविशर)

हितैषी (वेलविशर)
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हमारा हितैषी हमें मजबूत करता है , जो हितैषी नहीं होता हमें कमजोर करने के यत्न करता है।  अतः जब हमें लम्बी अवधि साथ चलना हो तो , हम में यह गुण होना चाहिए कि हम अपने साथी के सच्चे हितैषी हों। हमारा यह गुण उस साथी को भी हमारा हितैषी ही बना देता है।  तब हम विन-विन सिचुएशन में होते हैं क्योंकि परस्पर एक दूसरे को पुष्ट करते हुये दोनों ही मजबूत होते चले जाते हैं। इस स्थिति में जीवन यात्रा , हर्षमय चलती जाती है।

विवाह हमारे समाज में दो मनुष्य (एक नारी और एक पुरुष ) को सर्वाधिक लम्बे साथ में लाता है। अपने वैवाहिक जीवन को मजबूती और सुखदता प्रदान करने के लिए यह आवश्यक होता है कि पति-पत्नी दोनों परस्पर हितैषी हों।  कुछ पहले तक इस आवश्यकता के बारे में लिखा जाना विचित्र ही लगता , क्योंकि तब हमारे समाज के प्रत्येक पति-पत्नी परस्पर हितैषी ही होते थे।  उनका वैवाहिक जीवन सुखद और स्थायी होता था।

आज , इस बारे लिखे और पढ़े जाने की आवश्यकता इसलिये अनुभव हुई है क्योंकि हमारे समाज में विवाह-विच्छेद की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है , जो नितदिन बढ़ रहीं हैं। कारण वही है वे परस्पर हितैषी नहीं रह जाने से ऐसा करते हैं। जीवन सुख और मजबूती पर संकट होता है। तब यह निर्णय करना ही होता है। क्या हैं , प्रमुख कारण जिनसे हमारी भव्य परम्परायें नहीं निभ पा रही हैं।

सुखद वैवाहिक जीवन का प्रमुख आधार आपसी विश्वास होता है। पति और पत्नी का आपसी विश्वास दोनों के चरित्र की बुनियाद पर होता है। 
पुरुष और नारी का चरित्र दुष्प्रेरित हो , आज पाश्चात्य समाज के चरित्र जैसा हो गया है . जो चंचल होता है और भोग-उपभोग प्रधान होता है। वासना पूर्ति पर आधारित साथ , उन्हें एक दूसरे का हितैषी नहीं बना पाता है।  वे अपने हितैषी और वासनापूर्ती के बेहतर साथी के लिए भटकते रहते हैं , नए साथी आजमाते हुए भी तलाश जारी रहती है और उनकी जीवन संध्या आ जाती है।

दाम्पत्य जीवन में परस्पर हितैषी बने रहने के लिये पुरुष और नारी दोनों के चरित्र  हमारी संस्कृति सम्मत  (भारतीय चरित्र ) होना चाहिए।  परिवार , समाज और देश में खुशहाली के लिए परिवार में स्थायित्व आवश्यक है।

हाइड्रोजन परा ऑक्साइड एक ऐसी गैस होती है , जिसके होने से मनुष्य हँसता ही रहता है। ऐसी ही कोई गैस (थोड़े अलग असर वाली) सामाजिक वातावरण में घुल गई है जिसके प्रभाव में आज मनुष्य पर सेक्स -शराब और धन की धुन सवार हो गई है। हमें पहले इस गैस के प्रभाव से अपने को मुक्त करना है और दूसरों को इससे मुक्त कराने के लिए इस सम्मोहन वाली गैस को वातावरण से बाहर करना है।  ऐसे स्त्रोत जो इस मदहोश करने वाली गैस को हमारे समाज में झोंक रहे हैं उन्हें पहचान कर उन्हें नष्ट करना है।  आवश्यकता गंभीर चिंतन और आत्म नियंत्रण की है।

राजेश जैन 
 02-10-2014

जग -भलाई के कार्य

जग -भलाई  के  कार्य
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जिन्हें चर्चा मिलती है , वे भले कार्य करने को प्रोत्साहित होते हैं। कुछ चर्चित ऐसे व्यक्ति , भले कार्य और नारेबाजी से भले होने का दिखावा भी करते हैं। और चर्चा पाते रहते हैं।

प्रश्न भलाई के ढोंग या सत्यता पर नहीं है। किसी की परहित के प्रयासों पर शंका का भी नहीं है। प्रसंग और यह लेख "भलाई कैसे हो" ? इसका उत्तर लिखने का है।

जिन्हें चर्चा ना मिलती हो ऐसा (प्रत्येक) व्यक्ति भी जब स्वप्रेरणा या किसी सदाचारी से प्राप्त (या सदाचारी के द्वारा) मिली प्रेरणा से जग -भलाई  का कार्य को समर्पित होगा तब ही देश और समाज में भलाई की फसल लहलहाईगी। अन्यथा नारेबाजी और ऐसे पाखण्ड बिना भलाई की उपलब्धि के अतीत होते चले जायेंगे।

अनेकों क्षेत्र के लीडर तरह के एवं प्रभावशाली तरह के व्यक्ति, प्रचार तंत्र के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों से  आपसी मिलीभगत(या बैर) से एक दूसरे की छवि और स्वार्थ निखारने और पुष्ट ( या बिगाड़ने) में लगे रहते हैं। इनका उद्देश्य अपवाद में कहीं जग -भलाई का हो , अन्यथा  अधिकाँश स्वहित के लिये ढंढार रचते हैं। चर्चाविहीन सामान्य व्यक्ति अब ऐसे पाखण्डों से प्रभावित नहीं हो पाता इसलिए भलाई के कार्य के आव्हान और नारेबाजी बिना प्रतिफल के खत्म हो जाते हैं।

आज आवश्यकता सामान्य व्यक्ति की इस उदासीनता को दूर करने की है। इसके लिए मीडिया को ऑनेस्ट होना पड़ेगा। मीडिया प्रभावशाली व्यक्तियों की सड़ी सड़ी बात की चर्चा की जगह , देश और समाज के गुमनाम से व्यक्तियों के निस्वार्थ और परहित के कार्यों को जिस दिन से खोज खोज कर प्रचारित करना (कवरेज देना ) आरम्भ कर देगा। उस दिन से सामान्य व्यक्तियों में परहित कार्यों के प्रति प्रेरणा और उत्साह का संचार हो सकेगा . तब ही सभी दिशाओं में भलाई की फसल लहलहाईगी और देश और समाज सुखी हो सकेगा।


नारेबाजी करते और परोपकार का दिखावा करते व्यक्ति अब यह रियलाइज कर लें कि आज की पीढ़ी के

सामान्य व्यक्ति की आँखे भी उस हाई रेसोलुशन /डेफिनेशन (HD) के कैमरे की तरह हो गई है जो किसी भी दृश्य की छोटी छोटी बात बारीकी (प्रिसिशन) से  उतार लेता है।  दिखावे के पीछे किसी के मंतव्य क्या हैं , उन मनोभावों को आज की आँखे पढ़ रही हैं। अब अंदर और ऊपर  की बातों में (कथनी और करनी में) सामंजस्य का अभाव ढोंगी को दूसरा अवसर या भूल सुधार का अवसर नहीं देता है।
इसलिये मिले अवसर (अपोर्चीन्यूटी ) को एकमात्र अवसर मान कर कार्य करना ही बुध्दिमानी और महानता होगी।

--राजेश जैन
02-10-2014