Wednesday, August 29, 2018

अम्मी नज़मा और डॉक्टरेट बेटी आयशा

अम्मी नज़मा और डॉक्टरेट बेटी आयशा

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मुस्लिम परिवार में छह बच्चों में , चार बेटियों में तीसरे नंबर की आयशा , अपने सभी भाई बहनों में सबमें कम आकर्षक या कहिये साधारण से कमतर सूरत की थी. थोड़ी बड़ी हुई तो यह बात उसे समझ आने लगी थी। और किसी को तो उसके हीनताबोध के तरफ ध्यान देने की फुरसत न थी मगर अम्मी नज़मा के विशेष स्नेह और करुणा को आयशा समझ रही थी। नज़मा लालन पालन में विशेष ख़्याल इस बात का करती कि आयशा की जन्म से मिली कमी की प्रतिपूर्ति उसके अच्छे गुणों से की जा सके। जब और भाई बहन अपने रूप सौंदर्य के बलबूते इतराते फिरते , आयशा पर नज़मा के विशेष परवरिश का परिणाम यह रहा कि वह पढ़ने में बेहद कुशाग्र थी।

बड़े होने के साथ उसके भाई बहन कोई बारहवीं तो कोई जैसे तैसे कला संकाय से ग्रेजुएशन कर सके ,मगर आयशा ने इंजिनियरिंग में गोल्ड़ मेडल हासिल किया। अपने रूप लावण्य के बल पर आयशा की बहनें , पसंद की गईं और 20-21 के होते होते उनकी शादी हो गई , यहाँ तक की उससे छोटी बहन आफरीन का भी विवाह कर दिया गया। कमसूरत और इतनी ज्यादा पढ़ी लिखी आयशा में लड़के वालों की रूचि नहीं होने से , 23 साल की आयशा ने अपनी अम्मी की पैरवी से अब्बा से पीएचडी की सहमति प्राप्त कर ली। पीएचडी का विषय लिया - "मुस्लिम औरतों की सामाजिक दशा".

कमी को अपनी शक्ति में बदलने को चरितार्थ करते हुए आयशा ने 27 वर्ष की होते तक पीएचडी पूर्ण कर ली। उसकी प्रतिभा से प्रभावित एक युवक ने उससे विवाह प्रस्ताव किया तो आयशा ने यह कहते हुए उसे अस्वीकृत कर दिया कि मुस्लिम समाज में जागरूकता की कमी है वह इस हेतु और विशेष तौर पर मुस्लिम बहनों - बेटियों की उन्नति के लिए कार्य करना चाहती है , जबकि उससे शादी करने पर वह मुस्लिम नहीं रह जायेगी , तब उसकी गंभीरता से सुनवाई मुस्लिम समाज में नहीं हो सकेगी. ऐसे में उसने हासिल शिक्षा का लाभ समाज को नहीं मिल सकेगा . इस प्रस्ताव की जानकारी आयशा ने नज़मा को तो दी किंतु दोनों ने गृह शांति के नज़रिये से परिवार में सभी से गोपनीय ही रक्खा।

पीएचडी और 27 की हो जाने पर फ़िक्र में अब्बा ने उसकी शादी के लिए दौड़ धूप तेज की और किसी तरह से एक लड़के और उसके परिवार से उन्हें हामी मिली . लड़का सरकारी विभाग में क्लर्क ही था , तब भी आयशा ने नज़मा से कहा कि वह इस पर भी तैयार हो जायेगी , बस असलम से पहले आधे घंटे एकांत में चर्चा कर लेना चाहती है। अब्बा को इस बात के लिए राजी करना कठिन था , लेकिन लाड़ली बेटी के लिए इस दुष्कर कार्य का जिम्मा नज़मा ने लिया और अब्बा से सहमति करवा ली।

असलम से भेंट में आयशा ने साफ़गोई से पूछा कि - आपके ख़्याल मुस्लिम औरतों के मामले जैसे तीन तलाक , बुर्क़ापरश्ति या हलाला आदि को लेकर कैसे हैं? असलम ने जबाब में कहा इस संबंध में वह प्रगतिशील विचार रखता है। आयशा ने तब पूछा क्या आपको मेरी डॉक्टरेट के विषय की जानकारी है? असलम के हाँ में सिर हिलाने के बाद आयशा ने पूछा शादी बाद  मुस्लिम में जागरूकता के लिए चाहे जाने पर , कार्य करने के लिए मुझे आज़ादी दे सकोगे? असलम तनिक विचार में पड़ा , वह आयशा जैसी हाइली एजुकेटेड लड़की को खोने का खतरा नहीं उठाना चाहता था , इस प्रश्न पर कन्फूज्ड होने पर भी प्रकट में उसने कहा , बिलकुल आयशा मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।

आयशा ने आश्वस्त होकर शादी के लिए हामी भर दी। असलम और आयशा की शादी संपन्न हुई। ससुराल का माहौल दक़ियानूसी ही मिला , उसके लक्ष्य उसे कठिन होते लगे . ऐसे में असलम से भी बच्चा पैदा करने के सवाल पर आयशा की कहा-सुनी हो गई। आयशा ने कहा उसने अपने घर में ज्यादा भाई - बहन होने से कई बातों के लिए उन्हें तरसते देखा है . यह भूल वह नहीं करना चाहती , साथ ही एक-दो बच्चे करने के लिए बहुत जल्दबाजी उचित नहीं। असलम ने इस पर उसे अत्यंत गुस्सा दिखाया। इस बात से नाराज आयशा अगले दिन मायके आ गई . आयशा ने नज़मा को बताया तो वे चिंता में पड़ गई किंतु उन्होंने अब्बा को भनक नहीं लगने दी। खैर सातवें दिन असलम आ गए आयशा से मनुहार कर साथ वापिस चलने को राजी किया।

 आयशा ने वापिस आकर टीवी न्यूज़ चैनल पर आयोजित चर्चा कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए अपने पीएचडी के विषय की जानकारी सहित चैनलों से संपर्क शुरू किया और एक दिन एक प्रतिष्ठित चैनल से उसे आमंत्रण मिल गया। ससुराल वालों ने आपत्ति की लेकिन असलम , आयशा की नाराज़ी की रिस्क नहीं लेना चाहता था। इसलिए उसने परिवार वालों को राजी किया। लाइव शो के पश्चात जब आयशा घर वापिस पहुँची तो घर में सभी की भृकुटि तनी हुई थी। रात में असलम ने उसे बताया कि , प्रोग्राम में मुस्लिम औरतों की दशा पर उसके बेलाग कथन घर में पसंद नहीं किये गए हैं।

आयशा की मंजिल कठिन थी , लेकिन एक कार्यक्रम की शिरकत ने टीवी चैनलों से ऐसे कार्यक्रम के आमंत्रण आयशा को सुलभ कर दिए। घर से प्रतिरोध और असलम के समर्थन की रस्साकसी में कुछ ही अर्से उसे एक दो तीन फिर कई प्रोग्राम में हिस्सा करने का मौका मिला। इससे मन ही मन असलम खुश था कि उसे और उसके परिवार को जहाँ कोई जानने वाला नहीं था , अब उनके जानने वाले बहुत बढ़ रहे थे। आयशा की जिद , असलम की बैकिंग के सामने परिवार चुप था। मगर कट्टरपंथियों की इस पर संभावित प्रतिक्रिया को लेकर आयशा के ससुराल और मायके दोनों में ही भय और आशंकायें व्याप्त थीं। हालाँकि दोनों ही परिवार अपितु उनके पास-पड़ोस के घरों की महिलायें , आयशा के तर्कों से मन ही मन सहमत कर रहीं थीं। आयशा के मोबाइल पर दोनों ही तरह के कॉल्स बढ़ गए थे। फेसबुक में फॉलोवर पहले 25-30 से अब 2 लाख से ऊपर पहुँच गए थे . उसके रूप की कमी उसकी समझदारी ने मिटा दी थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह अपने लिए नहीं मुस्लिम समाज में जागृति के लिए जी रही थी।

ऐसे में एक दिन टीवी शो में आयशा को अदालत के कटघरे में खड़ा किया गया , आरोप यह लगाया गया कि - "वह डॉक्टरेट है किंतु देश और समाज में अल्पसंख्यकों पर ढाये जा रहे जुल्म के ख़िलाफ़ आवाज नहीं उठाती।"
आयशा ने सफाई में कहा - "मैं डॉक्टरेट हूँ इसलिए ऐसा नहीं करती हूँ , मैं जानती हूँ क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। बँटवारे के हादसों से भरी नफरत से प्रतिक्रिया और उस पर प्रतिक्रियाओं का सिलसिला सत्तर से अधिक वर्ष होने पर भी जारी है। हमारी आजादी के समय की पीढ़ी ने देश छोड़ने की जगह यहाँ रहने का विकल्प चुना था। हम पर यह दायित्व है , उनके इस निर्णय को सही सिध्द करें। इस देश में ही जन्मे होने से इस देश को अपनी रूह तक से अपना मानने की जरूरत है , परस्पर दोषारोपण से कोई समाधान नहीं। अपने कर्तव्य को पहचानने की जरूरत है। हमारे से इस देश को इस समाज को अपेक्षा क्या हैं , हमें उसके अनुरूप व्यवहार और कर्म करने की जरूरत है। हमारा यह मानना गलत है कि इस्लाम की भलाई इस्लामिक देश में हो सकती है। हम देख सकते हैं कि गैर इस्लामिक देश में मुसलमान उनकी औरतें बेटियाँ  इस्लामिक देशों की तुलना में बेहतर और प्रगतिशील ज़िंदगी जी रहे हैं। इसलिए मैं जुल्म के खिलाफत से ज्यादा , ज़ुल्म की परस्थितियाँ मिटाने को अपनी आवाज देती हूँ। " आयशा के तर्क कट्टरता के पैरोकार मुसलमानों को तो नागवार लगे , किंतु अन्य के लिए ये वैचारिक प्रेरणा बन गए। अख़बारों ने आयशा पर आलेख छापे। अब आयशा की पहचान एक समाज सुधारक के रूप में बनने लगी थी।

ज़िंदगी में लंबे समय तक सब कुछ कहाँ ठीक चलता रह सकता है। एक सुबह आयशा के अब्बा ने बताया , सबेरे चार बजे अचानक कार्डियक अरेस्ट के कारण अम्मी नज़मा चल बसी हैं । आयशा की प्रेरणा , आयशा की मनोबल , आयशा की जान , अम्मी जान का जाना , आयशा के लिए दुनिया में सबसे बड़ा सदमा था। उसे उबरने में बहुत वक़्त लगा।

बड़ी सजींदगी से एक रात आयशा ने असलम से कहा - अम्मी नज़मा ने एक सच्ची इंसान , मुझे पैदा किया था। उस परम्परा को वह आगे बढ़ाना चाहती है। उसका वक़्त आया है अब वह एक औलाद पैदा करना चाहती है जो नेक इंसान हो और साथ ही भारत की सच्ची/सच्चा नागरिक भी।
असलम पहले ही धन्य था अपनी पत्नी रूप में आयशा को पाकर। उसने इस बात पर प्यार से आयशा को देखते हुए , उसे अपनी बाँहों में समेट लिया।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

30-08-2018


 

Tuesday, August 28, 2018

दौर वह था - उसकी तस्वीर को सीने से लगाते थे
दौर यह है - साक्षात सामने है देखने की फुर्सत नहीं

जुबां भी मीठी है - जख़्म हमें कोई नहीं
 कोशिश अपनी है - किसी को
 जुबां से जख़्म न दे जायें

 
जिसे होगी हमसे तकलीफ़ ,
कहेगा नहीं
 मगर एक गाँठ रखेगा वह ,
दिल में जरूर

अपनों में तो दिखेंगी कमियाँ
 क्यूँकि
 ढोल दूर के सुहावने होते हैं

लिखने के पहले
 अगर हमने विचार कर लिया होता
 किसी को ठेस लग सकती है -
ऐसा कदापि लिखा नहीं होता

मनमानी लिखकर ठेस पहुँचायें
 तब क्षमायाचना की मुद्रा बनायें
 इससे बेहतर हम मर्यादा में लिखें
 और मैत्री संदेश सब में फैलायें

ख़ुद के अभिनय में हमें
 पाखंड नहीं नज़र आता है
 और बिरला कोई अच्छा करता तो
 उसमें हमें पाखंड नज़र आता है

यह एकतरफा दोष ,
हम पर मढ़ना उचित नहीं
 अपने दोष स्वयं कौन देखता है ,
आप भी नहीं

Sunday, August 26, 2018

आईपीएस - अंशिका

आईपीएस - अंशिका

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आरती के मायके जाने से और सुहास के हॉस्टल में होने से अनुराग घर में अकेला था। शाम साढ़े सात बजे का समय होगा उसने फ्रिज में देखा डिनर की सामग्री रखी हुई थी। दूध नहीं बचा था। यह विचार करते हुए कि दूध और सुबह के लिए ब्रेड ले आये , अनुराग बाहर निकला था। मुश्किल से बीस मिनट में वह लौट आएगा यह सोचते हुए डोर लॉक नहीं किया था। बाहर का गेट बंद करते हुए वह टहलते हुए निकल गया था। स्टोर से दूध - ब्रेड के पैकेट्स लेकर बाहर निकला तो दोस्त प्रदीप मिल गया उससे कुछ यहाँ वहाँ की हँसी मजाक करते हुए घर लौटा तो लगभग पौन घंटे का समय हो गया था। गेट खोल अंदर आया तो घर के अंदर से मिलती आवाज से उसे अनुभव हुआ जैसे कि भीतर कोई है। उसने सावधान होकर दरवाजा खोला तो ड्राइंग रूम में कोई नहीं दिखा लेकिन बेडरूम में रोशनी से उसका शक पुख्ता हुआ। बेडरूम की लाइट्स वह बंद कर गया था। अनुराग ने चिल्ला कर पूछा - कौन है अंदर ? ... भीतर से कोई प्रतिउत्तर नहीं मिला।

 हाथ का कैरी बेग सेंटर टेबल पर रखते हुए ,अनुराग ने जींस में से बेल्ट निकाल हाथ में लिया और धीरे से दरवाजा पुश किया सामने कोई नहीं दिखा लेकिन बेड के उस तरफ से सिर के बाल दिखाई पड़े जिससे वहाँ किसी लड़की के सिमट के बैठे होने का उसे अनुमान हुआ । वह सामने पहुँचा तो कॉलोनी ही की अंशिका बैठी दिखाई दी जो काँप रही थी , अनुराग को सामने देख उसकी शक्ल रो देना शुरू होते की सी लगी। अनुराग का गुस्सा , भय खत्म हो गया। उसने बेल्ट वापिस लगा लिया और आवाज में नरमी लाते हुए अंशिका को चेयर पर बैठने के लिए कहा , अंशिका बैठने के बजाय दरवाजे के तरफ भागने को हुई तो उसने रास्ता रोक कर कहा , डरो नहीं यहाँ बैठो , भागोगी तो बात बिगड़ेगी। अंशिका डरते हुए चेयर पर बैठ गई . अनुराग ने उससे पूछा कब से आई हो ?, उसने थूक गटकते हुए भय मिश्रित आवाज़ में कहा अंकल अभी 3-4 मिनट हुए हैं। अनुराग ने मॉनिटर ऑन कर कैमरे के फुटेज 5 मिनट बैक कर देखना शुरू किया। स्क्रीन इस तरह एडजस्ट की कि अंशिका को भी दिखाई पड़े। लगभग 4 मिनट पहले से अंशिका के बाहर से अंदर आने से अब तक की गतिविधि , पहले उसका चौकन्ना होकर इधर - उधर देखते हुए घर में प्रवेश करना और फिर इधर उधर नजरों से ऐसे देखना जैसे कि उसे कोई खास चीज ढूँढ़नी हो सब रिकॉर्ड हुआ था। अंशिका यह देख रोने लगी तो अनुराग ने उससे कहा तुम चुप हो जाओ और डरो नहीं। अनुराग की आवाज में नरमी से अंशिका सम्हली ,उसने रोना बंद कर दिया। तब अनुराग ने उससे पूछा अंशिका तुम्हें क्या चाहिए था ?

अंशिका ने बताया वह लेपटॉप और मोबइल उठा ले जाना चाहती थी। अंशिका की उम्र 15 साल की थी , अनुराग के बेटे सुहास से भी छोटी। वह लोअर मिडिल परिवार की थी। पड़ोस की होने से अनुराग और अंशिका इस तरह थोड़े परिचित भी थे।

अनुराग ने उससे कहा कि रात हो रही है , अभी तुम घर जाओ। तुम इस बात से डरो नहीं कि मैं तुम्हारा बुरा करूँगा। कल शाम जब मैं ऑफिस से लौटूँ तब तुम अपने पापा को लेकर आना , उन्हें नहीं बताना हो तो अकेली आ जाना। हमें कुछ बात करनी होगी।

अगले दिन शाम को अंशिका आई , उसने बताया कि पापा नाराज होंगे इसलिए उन्हें सब बताने कि उसकी हिम्मत नहीं हुई। अनुराग ने अंशिका से कहा कि वह उसकी बेटी जैसी है . जिन चीजों को वह चुराना चाहती है वह बमुश्किल 40 हजार में आ जायेंगी। लेकिन अगर वह उसके जगह किसी और आदमी के ऐसे सामने पड़ती तो या तो थाने पहुँचती या ब्लैकमेलिंग का शिकार होकर अपने शारीरिक शोषण को मजबूर होती।

अनुराग की बात सुन अंशिका - उसके चरण स्पर्श को झुकी , याचक भाव से उसने माफ़ी माँगी। अनुराग ने अंशिका के सामने ही कल के वीडिओ फुटेज डिलीट किये . इस बात को भूल जाने को कहा और अच्छे आचरण रखने की बात कह कर अंशिका को जाने के लिए कहा। अनुग्रही भाव-भंगिमा के साथ अंशिका उस दिन वापिस गई।

अंशिका के पापा से जो छोटी सी कपड़े की दुकान करते हैं ,बाद में अनुराग ने उनसे इस बात के उल्लेख किये बिना  , दोस्ती गाँठी। उन्हें कहा कि उसकी कोई बेटी नहीं है इसलिए उसका इरादा किसी बेटी की पढ़ाई और उसके भविष्य निर्माण में मदद करने का है। और अगर उन्हें ऐतराज नहीं तो अंशिका के लिए इस उद्देश्य से सहायता करना चाहता है। अंशिका के पापा एकाएक राजी नहीं हुए , उनके मन में आशंकायें आना स्वाभाविक था। अंशिका की माँ से पूछ कर जबाब देने को कहा।

बाद में सब अच्छा चला . अंशिका को अनुराग ने लैपटॉप दिलाया . मोबाइल पर ज्यादा समय व्यर्थ होगा इसलिए मोबाइल न रखने को राजी किया। समय होता तब अनुराग , अंशिका को मैथ्स और साइंस में गाइड करता। वह और आरती भी , अंशिका मॉरल सपोर्ट और मार्गदर्शन भी करते। स्नेहिल संबंध हो जाने पर अनुराग -आरती का बेटा सुहास , अंशिका से रक्षाबंधन पर्व पर राखी बँधाया करता .

समय पँछी सा उड़ता चला और उस घटना को लगभग नौ बरस बीत गए . आज अंशिका पूरे मोहल्ले में घर घर मिठाई बाँट रही है - उसका चयन आईपीएस में हो गया है।


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

26-08-2018
 

Friday, August 24, 2018

माँगते सब मोहब्बत - उसमें वज़ूद अपना खोते हैं
क्यूँ जुदा करता उन्हें खुदा - जो वज़ूद तक से बेपरवाह होते हैं

इतना आसान नहीं - कोई आदर्श निभा लेना
मिलेंगे लोग यहाँ - पग पग पर मुश्किल खड़ी कर देंगें

 
यदि हम महान हैं तो उन करीबियों का हमें आभारी होना चाहिए जो
सीमाओं में रहने को बाध्य करते हुए हमें मूर्खतायें करने से रोकते हैं

हम मूर्ख हैं यदि
दूसरों को मूर्खता करने से तो रोक लेते हैं
मगर अपनी बारी
स्वयं मूर्खता करने से रोक नहीं पाते हैं

 

Thursday, August 23, 2018

माफ़ कर देना बड़ा साहसिक काम है
लोग प्रचारित इसे कायरता सा करते हैं

 यादों के वे सिलसिले रखना ठीक -
जो मोहब्बत का पैगाम देते हैं
यादों से गर नफ़रत जागे भुलाना बेहतर कि -
नफ़रत सब खाक करती है

 झूठों के इस ज़माने में - ज़माना छोड़ने से होता ये बेहतर
करते यह कि यहाँ जमकर - सच्चाई की मिसाल पेश करते

तलाश औरों की थी - हमने यकायक खुद से मिल लिया
शुक्र किस्मत हमारी कि - हमने ज़िंदगी को समझ लिया

जीवन दायिनी ..

जीवन दायिनी ..
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भास्कर वह फ़्लायर था जो उस प्लेन क्रेश में था जिसमें प्लेन एक वीरान बर्फीले प्रदेश में जा गिरा था एवं जिसमें कुछ लोगों की जानें ही बची थी। वहाँ ना कोई वनस्पति नहीं थी , ना ही दूर दूर तक कोई मानव आबादी। अत्यधिक ठंडा मौसम और वीरानगी बचे यात्रियों के लिए जीवित रह सकने के लिए कठिन चुनौती प्रस्तुत करते थे। भोज्य सामग्री का न होना रही सही कसर भी खत्म कर दे रही थी। विमान में सर्व की जाने के लिए रखी सामग्री भी अत्यंत कम थी। उसे झपटने के लिए सभी में तकरार होती थी। विमान में रखे यात्रियों के सामान भी छान लिए जा रहे थे। जो भी भोज्य सामग्री थी 2 दिनों में खत्म हो गई थी। बचे यात्रियों में कुछ घायल थे , कुछ में जीवटता की कमी थी , जो एक एक कर जीवन से हारते जा रहे थे।
भास्कर जैसी भी भोज्य सामग्री थी , उसे किसी तरह निगलता था और अधभूखा रह कर उसे थोड़ा ज्यादा समय तक चलाने का यत्न करता था। दयावश अपने कब्जे की सामग्री में से कुछ बच्चों और महिलाओं को भी दे देता था। चौथे दिन खोजी चॉपर ने उन्हें खोज लिया था और 13 बच रहे यात्रियों को एक एक कर 600 किमी दूर सबसे पास के शहर में सुरक्षित पहुँचा दिया था। इस दुर्घटना को कुछ साल बीत गए थे।
अब भास्कर की पत्नी सुनीता जब रिश्तेदारी में बाहर जाती , भास्कर बाहर खाना पसंद नहीं करता था। रखी भोज्य सामग्री में से या स्वयं तैयार की गई सामग्री से (जो उसे ठीक तरह बनाना नहीं आती थी) , अपना काम चलाया करता था।
हर बार सुनीता का मायके जाना - उसे प्लेन क्रैश के माफिक लगता था। और सुनीता का लौट कर आना , जीवन दायिनी सहायता का आ जाना लगता था।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23-08-2018

 

Wednesday, August 22, 2018

'रिवायत ए नफ़रत' मिटाने का जिम्मा जिन पर
 मज़हब के बहाने - 'रिवायत ए नफ़रत' चलाये रखते हैं
#बेशर्मी_से_इसे_मजहब_कहते_हैं

परिवार तक में बैर होता है - बैर समाज से कैसे मिट सकता है
मगर
पूर्वाग्रही 'रिवायत ए नफ़रत' चलना - दुःखद अभिशाप लगता है

हम पर मरने वाले कुछ हैं मगर
हमें फ़िक्र ,
जलने वालों की होती है
जो व्यर्थ जला करते हैं

जब भी आक्रोशित नारी,पुरुषों को बुरा-बुरा कहती है
 सहज ही लगता है
अपनी आश्रिता रख पुरुष ने शोषण तो किया है उनका

एक साहस हममें यह हो कि
अपने अवगुणों को स्वीकार करें
दूजा साहस यह हो कि
उन अवगुणों से खुद को मुक्त करें


 
दिमाग़ के वश में नहीं - ऐसे दिल के अफ़साने हैं
दिल में बस जाने के तमाम - ये किस्से पुराने हैं

आपने खुद , खुद को बाँध रखा है हमसे
मगर उलाहना ये कि , तुम छोड़ते नहीं

तुम्हें लगता कि - गर स्पष्ट शब्दों में तुम कहो
तुम्हारी साफ़गोई - हम बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे

जानते हैं हम - जो कहना चाहते हो तुम हमसे
गर कहो तो - हममें एक दोस्त खोने का डर है





 

Sunday, August 19, 2018

अपनी मनहूसियत लिए
तुम्हारे सामने पड़ने का मुझे कोई शौक नहीं
जब सामने पड़ जाऊँ
तुम समझ लेना हालात ने मजबूर किया होगा

दिखता है कोई खुश
जहाँ मुझे बहुत प्यारा लगता है
दिखता है जब कोई ग़मगीन
ज़िंदगी है तो देखना मेरी मजबूरी है

दूसरों की खुशियों में हुई इकट्ठी भीड़ का मैं हिस्सा होता हूँ
अपनी उदासियों के समय मैं खुद को खुद में समेट लेता हूँ


हमारी औकात बताते
उन हालातों से गुजरना नापसंद तो होता है
मगर मुझे इसलिए पसंद कि ये ही हैं
जिन्होंने जिंदगी चीज क्या मुझे समझाया है


किसी को दोष देना
मेरी फ़ितरत में नहीं
अपने दोष देख लेना
मुझे गॉड गिफ्टेड है
 

Saturday, August 18, 2018

भूले रहकर कि हश्र क्या - हम जिंदादिली से जी लेते हैं
जो हश्र स्मरण रख जीते - वे जीवन सार्थक कर लेते हैं

हैसियत पर अपनी - हमें कभी गुमान न हो
और
हो जायें मिट्टी - तो हकीकत पर पछतावा नहीं

बड़प्पन निभाने की जब - तकलीफें बयां की उसने
तभी सवाल उठ गया कि - बड़प्पन बाकि रहा तेरा?

बिता अपना जीवन हम यूँ ही चले जायेंगे
कदमों के निशां वक़्त पर नहीं छोड़ पायेंगे

खेद कि यह अक्षम सा जीवन आम हुआ करता है
मदद की उठती गुहार को अनसुना किया करता है

कसक इक सदा रही - जीवन क्यूँ बेकाम करते हो
महत्वहीन छोड़ - क्यूँ महत्वपूर्ण काम न करते हो



 

Saturday, August 11, 2018

उसने चाहा था ....

उसने चाहा था ....


बालक से बड़ा हो रहा था तो औरों के साथ बहुत कुछ ऐसा होते देखता जा रहा था , जो उसे स्वयं के साथ होते देखना कभी पसंद नहीं होता। इसलिए उसने चाहा था , कि
वह युवा से बूढ़ा कभी न हो , लेकिन उम्र के साथ वह बूढ़ा हो गया था।
उसने चाहा था , कि -
वह कभी किसी के आश्रित न हो , लेकिन बीमार और कमजोर होने पर बिस्तर पर पड़ अपने परिवारजनों के आश्रित हो गया था।
उसने चाहा था , कि -
उसके उपचार पर कोई ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ा , उसके बेटे - बहुयें , बेटी दामाद को उसके लिए परेशान नहीं होना पड़े , किंतु आखिरी के कुछ महीनों में नरम गरम हालत के चलते उसके उपचार पर बीस लाख रूपये का खर्च आया था , सभी परिजन उसकी सेवा सुश्रुषा एवं उपचार पर व्यय से तंग आ गए थे।
उसने चाहा था , कि -
जब अंतिम घड़ी आये उसे पीड़ा ज्यादा न हो किंतु कई महीनों बिस्तर पर रहकर उसने बहुत कष्ट सहे थे। अंतिम श्वाँस लेते वक़्त वह दुनिया से गुजरने का कोई मलाल नहीं करे , मगर ऐसी खराब हालत में भी उसे देहत्याग करने में भय हो रहा था। अंतिम समय उसके मलद्वार नाक , मुहँ साफ़ रहें , मगर यह भी नहीं हुआ था सभी जगह से रक्त गंदगी बाहर आई थी।
उसने चाहा था , कि -
जब उसकी अंत्येष्टि हो तो उसके जाने का दुःख करने वाले लोग ही अंत्येष्टि में शामिल हों , मगर यह तक नहीं हो पाया था - चार पाँच सौ की ऐसी भीड़ इकट्ठी हो गई थी जो अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की मजबूरी में थी। अधिकाँश राजनीति , सिनेमा और व्यापारिक चर्चा में लीन रहे थे , कुछ तो पान-गुटका , सिगरेट का सेवन करते हुए हँसी ठिठोली कर रहे थे।

कुछ भी तो नहीं लग रहा था जो उसके चाहे अनुसार हुआ था , लेकिन उसका तो देहावसान हो चुका था वह इस हेतु पश्चाताप करने के लिए भी नहीं बचा था कि व्यर्थ वह अपने रूप पर आत्ममुग्ध रहता था। बेकार अपनी शिक्षा , ज्ञान और अर्थ अर्जन से स्वयं में गर्व बोध करता था। भ्राँति में जीता था कि पत्नी , बच्चे , उसके नाते-रिश्तेदार और उसके मित्र सच्चे और उसे बेहद प्यार करने वाले हैं। जीवन में पाले अपनी हैसियत और शक्ति का घमंड और उसका श्रेष्ठता-बोध सभी तो मिथ्या सिध्द हुआ था।
दुखद आश्चर्य यह भी था कि उसकी ऐसी परिणीति से कोई कुछ समझने को भी तैयार नहीं था  .....

राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12-08-2018

 

तीन तलाक एक साथ - कुप्रथा

तीन तलाक एक साथ - कुप्रथा


 अपनी सुरक्षा के नाम पर मर्द से नीची हैसियत में साथ को मंजूर कर लेने वाली ख्वातीनों ने ज़िंदगी को एक अभिशाप की तरह , "तीन तलाक एक साथ" कुप्रथा झेली है। इंसान के अनुभवों के साथ चलन , प्रथा , नियम , कानून या संविधान में संशोधन के नियम हैं। ख्वातीनों ने इससे जब अपने सम्मान को ठेस तथा ज़िंदगी बसर करने में लाचारी अनुभव की तो , वे पुरुष के विरुध्द अपने हक़ों के लिए लड़ने के लिए मजबूर हुईं हैं। आज "तीन तलाक एक साथ" ही नहीं और भी कुछ बीमार चलन जो जिंदगी को जिंदगी नहीं बचने देकर एक नारी जीवन को अभिशाप की तरह कर देते हैं के विरुध्द भुक्तभोगी महिलाओं ने साहस जुटा कर न्यायालयों में प्रकरण लाये हैं , उन्हें मानसिक रूप से सहयोग अन्य नारी एवं खुले ख्यालों वाले पुरुषों का भी मिला है। न्यायालय के फैसले नारी पक्ष में मिले हैं। सरकार भी संविधान में बदलाव ला देना चाहती है। जो बदलाव प्रस्तावित हैं , अनेकों को पर्याप्त या कमियों वाले लग रहे हैं। लेकिन कोई भी कानून हरेक की जैसी अपेक्षा है वैसी ही पूर्ति करने वाला नहीं हो सकता क्यूँकि सभी के कम ज्यादा जुदा जुदा विचार और अपेक्षायें हैं। इसलिए जिस भी स्वरूप में कानून आने वाला है , उसे मंजूर किया जाना चाहिए। यह नारी को पहले से कुछ ज्यादा हक़ देने वाला तो होगा ही। साथ ही यह आशा रखनी चाहिए कि इसमें जो कमियाँ आगामी समय में अनुभव की जायेंगी उन में संशोधन होते रहेंगे।
सदियों से पुरुष सत्ता से अपने हित साधने वाला पुरुष अपने अहं से समझौता कर पाने में धीरे धीरे सफल-सहज भी होता जाएगा और जल्द ही वह दिन भी आएगा जब नारी को संपूर्ण न्याय संगत आजादी मिलेंगी तथा वह इंसान की तरह समान ज़िंदगी के अवसर पाने में सफल होगी। मर्द - औरत में व्याप्त व्यर्थ अंतर से समाज में हो रहे टकराव की परिस्थितियाँ खत्म हो जायेंगी।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12-08-2018

Friday, August 10, 2018

'आम' , कोई नहीं होता यहाँ
खुद के लिए -
सूरत , हसरतें , ख़्वाब , मंसूबे ,
ज़िंदगी और इरादे उसके 'खास' होते हैं

चलिए अब से उसूल हम ऐसे कर लेते हैं
जिद कोई नहीं ,
भली हर बात आपकी या हमारी मान लेते हैं


अधूरे रह गए सभी के कुछ ख्वाब
अधूरे कुछ ख्वाब हमारे भी रहेंगे

जिसे तुम्हारी रुखाई समझ - हम शिकायत रखते थे तुमसे
थे तुम जीवन संघर्ष में व्यस्त - ये जान अपने पर अफ़सोस हुआ

आपसे ऐसी उम्मीद न थी कि
 निर्दयता से वह खुशफ़हमी तोड़ देंगे
 जिससे हमें ज़िंदगी अपनी
 जीने लायक लगा करती थी

किसी बेचारे की तो - जाँ पर बन आई
बेदर्द आप - उस पर आपको हँसी आई





 

Thursday, August 9, 2018


हमने
 बहुत खर्च किया अपना बेशक़ीमती वक़्त उनके लिए
 जिन्हें हमसे , अपंने मतलब के लिए बस मतलब था

जो खर्च किया अपना वक़्त हमने - आपके लिए
 हिसाब नहीं करेंगें
 कि - वह आपके लिए कुछ खुशियाँ ले आता था


जब
हमारी खराबियाँ - आपको , हमें बताना पड़ता है
तब
संदेह हमें - अपने इंसान होने पर हुआ करता है

अपनी ख़राबियाँ हम जानते मगर - ख़ुद ठीक कर लेते नहीं
कैसे हम आपके सामने - खुद को इंसान की तरह पेश करें
जियो नहीं तुम ऐसे कि - तुम्हारी महानता जग जाहिर हो
औरों में तारीफ़ के बातें देख - ज़माने में जलने के रिवाज़ हैं


महान रहें कर्म आचरण तुम्हारे - कोशिश यही करना
जन्म मिला मानव का - जीवन में मानवता ही रखना

#धूर्तता_1
हर बुरी बात का दोष - दूसरों पर थोपते हैं
#धूर्तता_2
अच्छी हर चीज का हम - श्रेय स्वयं लेते हैं

 

Wednesday, August 8, 2018

इंसानियत से जिये नहीं - घमंड हमारा आसमां छूता था
मरते वक़्त समझ सके - पिद्दी सी हमारी हैसियत थी

खुशफ़हमियाँ रहें कुछ कि - हौसले ज़िंदगी के हमारे कायम रहें
खुशफ़हमियाँ इतनी भी ठीक नहीं कि - जीने के सबब ही भूले रहें

#ज्यादा_स्पिन_हो_गई
पागल ही कह लो हमें - कि आम से हम नहीं
आम हो कर जीना भी - पागलपन से कम नहीं

ज़िंदगी खेलती जहाँ - पिच ज्यादा ही स्पिन लेता है
कितना भी हो महान - बल्लेबाज क्लीन बोल्ड होता है

हम समझें कि -
कौमों के बीच नफ़रत बढ़ा कर 
एक बड़ी आबादी की -
अच्छाईयों से हम मरहूम रहते हैं

दिल में नफ़रत पैदा करके
उसे इंसान नहीं बचने देते
फिर हमें ज़माने से शिकायत कि
इंसानियत अब बची नहीं


शिकायतों शिकायतों में ही
कुछ कर नहीं पायेंगे
कर गुजरने के मिले मौके को
हम यूँ ही गँवा जायेंगे


मिली ज़िंदगी की नेमत तुझे
इसे मोहब्बत से जी ले तू
नफ़रत ही गर जीना तुझे
पैदा होने की जहमत क्यूँ लेता तू















 
आपसे मोहब्बत है तो क्या 'जीत' , और हमारी 'हार' क्या
हम ज़िंदगी 'जीते' हैं - गले में आपकी बाँहों के 'हार' के साथ

आपमें हमारी दिलचस्पी की वजह सिर्फ इतनी सी है
हम इंसान हैं और आप में हम एक इंसान देखते हैं

अब नहीं तड़फता है कोई - किसी के बिना
दूसरा ढूँढ लेता है कोई - दिलजोई की खातिर



 

Tuesday, August 7, 2018

कुछ भी और खाना - उतना महँगा नहीं
जितना कि महँगा - धोखा खाना होता है

धोखा ही खा लिया जब हमने
कुछ और खाने से परहेज नहीं

धोखा किसी को आप - इसलिए नहीं देना कि
कितना भी अमीर हो - बेचारा दिवालिया हो जाएगा

दिवालिया - हमारे धोखा देने से कोई हो ना हो
हमारा मानसिक दिवालिया होना साबित करता है

मालूम मुझे कि तस्वीर देख मेरी - ज़िंदगी तेरी सँवरती है
मैं तो हूँ अपने शौहर की - मगर तस्वीर शेयर कर देती हूँ

बेरुखी हमसे - इतनी भी तुम्हारी ठीक नहीं
ज़िंदगी तुमसे समझते - मगर जी लेंगे तुम्हारे बिन









 

Monday, August 6, 2018


नज़र-नीयत अपनी बिगाड़ रखी है
सवाल नारी के वस्त्रों पर करते हैं
नारी को अपनी छेंक कपड़ों में
गंदी नज़र-नीयत लिए डोला करते हैं

एक बार आईने में ख़ुद को - हमने नज़र भर जो देख लिया
बाद उसके गज़ब हुआ - आईना औरों को दिखाना छोड़ दिया

आपकी नज़रों में आये - और हम खास हो गये
ख़ासियत हममें कोई थी या नहीं - सवाल ख़त्म हो गये

माशूकाओं पर अपनी - हम शायरी बहुत लिखते हैं
जागृति लायें - ताकि वे हिफ़ाजत से ज़िंदगी बसर कर पायें

पशोपेश में हैं हम कि -
तुमसे बात करके तुम्हें - डिस्टर्ब तो नहीं करते
या
बात जब हम न करें - तुम तन्हा तो नहीं रहते

ले लो चाहे कठिन परीक्षा - कोई ताकत नहीं - तुमसे हमें दूर करे
वादा है तुमसे कि - मर भी गए तो - अगले जन्म तुम्हें ढूँढ मिलेंगे



 

Saturday, August 4, 2018

बेशक , ज़िंदगी में हमें - नेक हमसफ़र की दरकार थी
मगरूर मगर आप इतने , हमें - अपनी इंहिसार बताते हो

Friday, August 3, 2018

दिल में पनाह देना - क्या अपना कसूर कहें ?
तुम दिल पर हमारे - हक़ अपना जताने लगे

चेतावनी से ज्यादा कारगर - बहुधा सद-प्रेरणा होती है
चेतावनी देना छोड़ - बेहतर हम प्रेरणाजनक लिखा करें



गर आप ही - नफरत की तरफदारी करने लगे

बदक़िस्मती दुनिया की - मोहब्बत बचेगी नहीं

इतराना किसी का - भाता तुझे क्यूँ नहीं
 जबकि खुद दिल तेरा - इतराने का करता है
 
तज़क़िरा तक मेरा - नापसंद है तुम को
और एक
हम हैं कि तुम्हें - दिल में बसाये रखते हैं

विनम्र वह होते जिन की - औक़ात हुआ करती है
अकड़ों को भी - हमने चार कंधों पर जाते देखा है