Tuesday, March 31, 2020

अप्रिय बात ..
भारत की अहिंसा की सँस्कृति यदि हम भारतीय ही न समझेंगे तो कौन समझेगा? चाहे जो कौम के हम लोग हों,हमें समझना होगा कि इस वर्ल्ड वॉर से प्रतीत होते हालात से, जिस दिन निजात मिलेगी, हर किसी को हमारी अहिंसक सँस्कृति की महिमा समझ आएगी। मगर यदि आज ही हम समझ लें तो हो सकता है, हममें से अधिकाँश इस विपदा से मानव समाज को मुक्त होते देखने भाग्य सुनिश्चित करेंगे।
अर्थात यह कि बिना किसी राजनैतिक/मजहबी/आर्थिक/नस्लीय पूर्वाग्रहों के इस वक़्त हमें जिम्मेदार होना होगा। अगर हम ऐसा करने में असमर्थ रहे तो कटु (इस बात का जिक्र मैं लाचारी में कर रहा हूँ) इस बात की पूरी संभावना है कि इस संकट में दुनिया की सबसे बड़ी तबाही हमारी होगी।
आज के आँकड़ों पर हमें खुद ही अपनी पीठ थपथपाने की जरूरत नहीं है। वर्तमान में कोरोना विकरालता, अन्य देशों में ज्यादा दिखाई दे रही है। किंतु वे अपेक्षाकृत कम नुक्सान में इसे काबू कर लेंगे।
वे विकसित देश हैं। उनका जनसँख्या घनत्व कम है। उनके नागरिकों में अपने राष्ट्र के कायदे क़ानून के प्रति ज्यादा सम्मान है। उनका लिटेरसी रेट हमसे बहुत ज्यादा है। उनके स्वास्थ्य व्यवस्था ज्यादा आधुनिक है।
इन सब क्षेत्रों में हम उनसे पीछे हैं।
अतः हम प्रिवेंशन से इसे रोक सके तो ही श्रेयस्कर होगा। अन्यथा फिर हमें भगवान पर भरोसा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। और शायद भगवान के भरोसा मानने / ना मानने के लिए, शायद हम बचे भी नहीं।
(अप्रिय बात लिखने के लिए कृपया क्षमा कीजिये। मैं आपका ही थोड़ा कम समझ एक भाई हूँ। )
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
01.04.2020 

मानव बम ..

नव उदित होते रचनाकारों के लिए ..

'हम 'मानव बम' बन जाने से, स्वयं को रोक लें, जो स्वयं तो प्राण गँवाता ही है, साथ ही मासूम लोगों को को मार जाता है।'

इस क्वोटैशन के साथ, विश्व साहित्य पटल पर नव उदित होते रचनाकारों को, साहित्य सृजन करते हुए,किन बातों का ध्यान होना चाहिए,  उसकी सरल शब्दों में विधि वर्णन लिख रहा हूँ। जो मेरी दृष्टि में उपयोगी भी है, सम सामयिक और प्रासंगिक भी है।
स्थापित साहित्कार भी पढ़ें और अपने कमेंट दें तो मुझे ख़ुशी होगी।

किसी भी शीर्षक अंतर्गत. साहित्य लेखन में, सर्वप्रथम विचार जिस तारतम्य में मन में आते हैं, उसमें हमें लिख लेना होता है। 
बीच बीच में, लिखित अंश को फिर पढ़ना होता है।
कोमा, फुलस्टॉप के प्रयोग से सही तारतम्यता बनाना होता है।
लिख दिए गए काम्प्लेक्स सेंटेंस को, सरल वाक्य में परिवर्तित करना होता है।
(अपनी ही लिखी बात को, एक से ज्यादा, छोटे सरल वाक्य में लिखना होता है। )
फिर शब्द और ज्यादा असरदार चुनने होते हैं।
लिखने की शैली, अनूठी रखनी होती है।
यहाँ, रचना के माध्यम से जो विशिष्ठ संदेश, हम समाज हित या बुराई खत्म कर अच्छाई को प्रेरित करने को लिख रहे होते हैं, उसे बोल्ड, अंडरलाइन्ड एवं इनवर्टेड कॉमा के प्रयोग से उस पर जोर दिखाना होता है।
तथ्य, यह भी होता है कि भले ही हम अपने किरदारों के माध्यम से रचनायें लिखते हैं। मगर कपोल काल्पनिक आधार पर, सृजन में हमारी ही अंदरूनी भावनायें भी परिलक्षित हो जाती हैं। 
हमारे मनोविज्ञान की झलक, सिध्दहस्त साहित्य प्रेमी भाँप लेते हैं।
इसलिए यह आवश्यक है कि जीवन तर्कों पर सविवेक मंथन करते हुए, साहित्य सृजन करने के साथ साथ ही, हमें स्वयं 1 अच्छा मनुष्य बनना होता है, ताकि हमारा लिखना मानवता के दृष्टिकोण से सार्थक हो।
अगर साहित्य प्रेमी पर हम, अपने भले होने की छाप नहीं छोड़ते हैं, अर्थात, हम अच्छे मनुष्य साबित नहीं होते हैं तो, हमारे आव्हान उनके द्वारा पाखण्ड मान लिए जाते हैं। 
फिर कितने भी अच्छे शब्दशिल्प में, हमने अपनी रचना ढाली हो, प्रेरणा के नज़रिये सें वह बेअसर साबित होती है। ऐसे में हम अपना और पाठक का समय व्यर्थ करते हैं। 
यह अघोषित अपराध होता है। यह बाद के जीवन में, जब जीवन अनुभव, हमें परिपक्व बनाते हैं, हमारे पश्चाताप का कारण बनता है।  
वास्तव में यह सम सामायिक और प्रासंगिक है कि हम प्रेरणास्रोत (Role model) बनें।
कोरोना के खतरे में लॉक डाउन रहते हुए, प्रकृति ने हमें अवसर उपलब्ध कराया है कि हम आत्ममंथन करें। जन्मजात मिले हमारे सदगुणों से, दूसरों की नकल करने के कारण, हम कितने विचलित (Deviate) हो गए हैं उनका लेखा जोखा देखें। हम वापिस उन जन्मजात सदगुणों की ओर वापिस लौटें। 
कोरोना से स्वयं और अन्य के बचाव के लिए, साहित्यकार के रूप में प्रेरणा दे सकने में, स्वयं को सक्षम बनायें।
अपनी पीढ़ी के हमारे, अपने समकालीन मनुष्य के, हृदय के तार झंकृत करते हुए, उन्हें जन्मजात मानवीय मूल गुणों के तरफ वापिस मोड़ना हम पर, आज दायित्व है। 
और ऐसी दुनिया में जहाँ अभाव, पूर्व पीढ़ी से कम हैं।  भुखमरी के खतरे नहीं है। स्वास्थ्य सेवायें बेहतर हैं। सुविधा साधन भरपूर हैं।
दुर्भाग्यजनक रूप से वहीं, अति महत्वकाँक्षी सोच की, विध्यमानता है। 
जो किसी को, अन्यायपूर्ण जीवन शैली के तरफ प्रवृत्त करती है। जो स्वयं के ऊपर तनाव बढ़ा लेने का, आत्मघाती हश्र का अनायास कारण होती है। किसी की भी ऐसी लापरवाही, अन्य मासूम लोग भुगतते हैं।
हम ऐसे मानव बम बन जाने से स्वयं को रोक लें जो स्वयं तो प्राण गँवाता ही है, साथ ही मासूम लोगों को को मार जाता है।
कोई जान बूझकर ऐसा 'मानव बम' होने वाला काम करता है।
जबकि हम, अनायास, अनजाने में, ऐसा विध्वंसकारी काम मूर्खता में कर जाते हैं। जिसमें धरती पर, जीवन पुष्ट करने का काम नहीं करके, जीवन हनन की परिस्थिति निर्मित होने से रोकते नहीं हैं।
ऐसा न करने की सीख, शिक्षा हमारे साहित्य सृजन से मिले, हमें, यह बात सुनिश्चित करनी चाहिए।
यही सृजन ही साहित्य है।
यही साहित्य की सार्थकता है।
यही हमारा मानव होना है।
यही हमारा, समाज खुशहाली, सुनिश्चित करने में योगदान है।
यही अनीति पर, नैतिकता की विजय है।
यही हर व्यक्ति की हृदय की अरूपी निर्मल भावनाओं को, साकार-साक्षात कर देना है।
यह उपलब्धि, धन वैभव पर भारी होती है। धन वैभव से हमारा साथ, अंतिम श्वाँस के साथ छूट जाता है।  
मगर यह परिचय हमारे प्राण प्रण उपरान्त भी, हमेशा के लिए अंकित रह जाता है। 
आशा है यह लेखन टिप्स, लेखन प्रति हमें ज्यादा जिम्मेदार बनाने में सहायक होगी।


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
31.03.2020

Sunday, March 29, 2020

जिनके पास नहीं उपलब्धि का कोई लेखा जोखा
आनंद पूरे जीवन में, उनको मरने का ना भय है 
इम्प्रेस करना आसान था पहले
इंग्लिश बोलना बस पड़ता था, अब
कोरोना संक्रमण रोकने लॉकडाउन रहते
तब बमुश्किल दो चार इम्प्रेस होते हैं
यूँ झँकृत हो मस्तिष्क हमारा
कि अहं तार तार हो जाये
संघर्ष संकल्प को देख हमारा
हो कोरोना आक्रांत, भाग जाये

पारसमणि ...

पारसमणि ...
मेरे पिता, हाथ ठेले से ग्राहकों का सामान, दुकान से उनके घर तक ढोया करते थे।
मैं तब, कक्षा आठ में पढ़ा करता था, जब 1 रोड एक्सीडेंट में, शिकार हुए, उन्होंने, अपने प्राण गँवा दिए थे।
भाग्य से, मैं अपनी माँ की, एकमात्र जीवित संतान था।
पिता की असमय मौत के बाद, उन्होंने मुझे अनाथ नहीं होने दिया था। अब तक निर्धन परिवार होते हुए भी, उन्हें पिता ने, गृहणी ही रूप में रखा था।
उन्हें जीविकोपार्जन में कोई काम के लिए बाहर नहीं भेजा था। किंतु तब आई मुसीबत ने उन्हें, बाध्य किया था। वे मुझे पढ़ाई जारी रखते हुए देखना चाहती थी।
मेरी पढाई को अनवरत जारी रखने को सुनिश्चित करने के लिए, उन्होंने संकोच त्यागे थे, साहस बटोरा था, कमर कस, निकल पड़ी थीं, वे मेरे पिता का हाथ ठेला लिए जीविकोपार्जन हेतु। हमारी जाति, पिछड़े वर्ग में आती थी।
वे सुबह जल्दी जागतीं, साथ ही मुझे पढ़ाई के लिए जगा देंती। घर के सारे काम करतीं, खाना दोनों समय का तैयार कर खिलातीं और मेरे स्कूल के समय मेरे घर से निकलते वक़्त साथ हाथ ठेला लिए निकल पड़तीं, अपने जीवन संग्राम में विजय पाने। और
मेरे लिए पाल ली, 'मुझे उच्च शिक्षा दिलाने की', अपनी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति का, लक्ष्य हृदय में लिए।   
तब पिता के अकाल मौत जैसी ही, विपदा अपने दुर्भाग्य पर मैंने, एक और देखी थी।
शायद यह उम्र-जनित, आवश्यकता थी या उनके साथ काम करने वाले पुरुषों के धूर्त फुसलावे, कि उनके एकाधिक पुरुषों से, संबंध होने के किस्से, पास पड़ोस में चर्चा के विषय बने थे।
मालूम नहीं माँ को इस संबंध में क्या ताने-उलहाने सहने होते, मुझे कभी कुछ वे बतातीं नहीं थी। मगर,
स्कूल और मौहल्ले में शरारती तत्वों ने, मुझ पर 'हरामी' का टैग लगा दिया था। यह सुन, पहले मुझे बहुत खीझ हुआ करती, मैं रोया करता था। 
लेकिन ईश्वर प्रदत्त इन विपरीत हालातों में, ईश्वर प्रदत्त ही, संघर्ष क्षमता वाले एक गुण ने भी मुझमें, निखार पाया था। 
चाहे जैसी हों, वे मेरी माँ हैं, मेरे लिए ही यह मेहनत करतीं हैं।
बड़े लोगों में, जो खराबी, उनकी मर्दानगी की, ख्याति की तरह कही जाती है, उसी तरह के, बहु-शरीर संबंध, निम्न मध्यम वर्ग में, नारी के चरित्र पर लाँछन लगाए जाने की इबारत बनती हैं, यह समाज विचित्रता, उस कम उम्र में ही, मुझे समझ आ गई थी। 
मैंने, अपनी माँ का आदर करना, जारी रखा था। जैसे वे, इस बदनामी की कोई चर्चा, मुझसे नहीं करतीं, वैसे ही मैं, अन्य के व्यंग्य और आक्षेपों से मानसिक रूप से आहत होकर, अकेले में रो लेता, मगर उनसे कुछ नहीं कहता, पूछता।
मेरी माँ भी, प्रतिकूल परिस्थतियों से जूझते, कदाचित अकेले में रो लेतीं होंगी, किंतु पिता के मौत, के समय के अतिरिक्त, उनका कोई रुदन, मैंने नहीं देखा था। 
जीवन में मिली कमियों को, अपनी ताकत में परिवर्तित करने की क्षमता, शायद, मुझे जन्मजात मिली थी।
मैं अपने सहपाठियों के उपहास किये जाने और 'हरामी' कहे जाने पर, अब चिढ़ता नहीं, अनसुना कर देता था। 
मैं उनके द्वारा, अपमानित किये जाने को, चुनौती की तरह स्वीकार करता था। 
मैंने ठान लिया था, उनके मुहँ पर ताला, मैं अपनी अध्ययन श्रेष्ठता के माध्यम से, जड़ दूँगा। 
मैं, उत्तरोत्तर अपना पढ़ाई में प्रदर्शन, सुधारता गया था। बारहवी कक्षा के परिणाम घोषित हुए थे, मैं, पिछड़े वर्ग के गणित-विज्ञान संकाय में, देश में टॉपर हुआ था।
माँ के और मेरे साक्षात्कार, टीवी और समाचार पत्रों में छाये थे। पास पड़ोस और मेरे सहपाठियों के मुहँ बंद हो गए थे।
मुझे, मुंबई आईआईटी में स्कॉलरशिप सहित दाखिला मिला था। कोर्स पूरा होने पर, मैंने प्रशासनिक सेवा के चयन में भी, सफलता अर्जित की थी।

आज, जब कोविड-19 का खतरा हमारे देश-समाज पर मँडराया, मैं अपने जिले का डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट हूँ। अभी मेरी शादी नहीं हुईं है। मेरी माँ, अब मेरे साथ जिलाधीश बँगले में रहती हैं। और 45 वर्ष की उम्र में पढ़ कर जानकारियाँ बढ़ाने में लगी रहतीं हैं।
अब तक कड़ी चुनौतियाँ पर विजय पा लेना, मेरा सहज स्वभाव बन चुका है।
जिले की प्रशासनिक कमान मेरे हाथ में है। मैंने अन्य कलेक्टर से, भिन्न तरह से, विपरीत स्थितियों को निबटने की ठानी है।
मैं, अपनी माँ को साथ लिए पूरे जिले में सक्रिय रहने लगा हूँ। मैं सारी व्यवस्थाओं और अनुशासन को बनाये रखने के लिए 18-18 घंटे तक फील्ड में रहता हूँ।
मैं जिले की, आम जनता के बीच, बहुत ही साधारण आदमी सा उतर जाता हूँ। उनकी आवश्यकताओं को समझता हूँ। और इंतजामत सुनिश्चित करता हूँ।
जब लोग मुझे नहीं पहचानते हैं तब तक मुझसे उलझते भी हैं। जब उन्हें मेरा डीएम होना पता चल जाता है। वे शिष्टता से पेश आने लगते हैं।
मैं, मेरी माँ की सेवायें, गैर सरकारी रूप से पिछड़े मोहल्लों की अशिक्षित नारी और बच्चों की, कोरोना प्रति जागरूकता बढाने में लेता हूँ। अथक परिश्रम उनकी फितरत है, वे भी मेरी भाँति ही 18 घंटे सब में दे रहीं हैं। 
मैंने अपनी अब तक जमा पूँजी का, बड़ा हिस्सा, 11 लाख रूपये प्रधानमंत्री कोष में दान दिए हैं।
अपनी व्यवस्थाओं के बलबूते, जिले में आये, कोरोना संक्रमित तीनों लोगों को, कुछ ही दिन में कोरोना नेगेटिव, करवा सका हूँ। अब हमारा जिला कोरोना संक्रमण मुक्त हुआ है।
मेरे दान, मेरी प्रशासनिक क्षमता की ख्याति प्रधानमंत्री तक पहुँची है। उन्होंने, मेरे और मेरी माँ के कार्य की प्रशंसा, अपने राष्ट्र संबोधन में की है।
आज 29 मार्च 2020 को, 1 लोकप्रिय राष्ट्रीय समाचार चैनल के द्वारा, मेरा इंटरव्यू लिया जा रहा है। एक प्रश्न के उत्तर में, मैं बता रहा हूँ कि -
"वास्तव में, कोरोना खतरे की उत्पन्न चुनौती, मेरे लिए पारसमणि की तरह सिध्द हुई है। जिसने मेरी सोच के समस्त लौह अणुओं को, स्पर्श करते हुए, उन्हें उत्कृष्ट मानवता के, स्वर्ण अणुओं में बदल दिया है। 
मैं पिछड़े वर्ग से हूँ, लेकिन ऐसी पारसमणि ने, मेरे मानव मन को स्वर्णिम रूप प्रदान किया है। मैं अपने कर्म से, सवर्णों के कर्मों से बढ़कर, ज्यादा स्वर्णिम उपलब्धि हासिल सका हूँ।" 
इंटरव्यू लेने वाली, मेम ने मेरे प्रशंसा के पुल बाँधे हैं।
लेकिन, अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के कुत्सित प्रयास में, उसने मेरी माँ से बेहद घटिया प्रश्न पूछ लिया है कि-
 माँजी, आपको, अपने वैधव्य वाले जीवन में, चरित्र लाँछन सहने पड़े हैं, इसका सच क्या है?
अपमान सरलता से सहन कर लेना, मैं पूरे जीवन करता आया हूँ। मैं इस पर चुप रहा हूँ मगर, माँ ने हँसते हुए उत्तर दिया है -
"सच सुनिये, आदरणीया, धुँआ उठता है तो, इसमें कहीं आग अवश्य रहती है। लेकिन, आप इसे मेरी कमी जैसी प्रचारित नहीं कीजिये, अपितु जिन अभिनेत्रियों के द्वारा, आपके चैनल को उपकृत किया जाता है, फिर उनके विवाह पहले, विवाहेत्तर या बिन विवाह के प्रेम संबंधों का,  आप प्रशंसापूर्ण बखान, दर्शकों के समक्ष करती हैं, उसी, अपनी दृष्टि से, मेरी जीवन की लाचारियों को देखिए, कृपया!
आपको मेरे से सहमत होना होगा कि, कोई नारी अपना, तथाकथित चरित्र खोती है तो, उसकी जिम्मेदार वही अकेली नहीं है, अपितु निश्चित ही इसके लिए कम से कम एक पुरुष, उसके साथ जिम्मेदार होता है। 
अगर आप ईमानदारी से चाहती हैं कि पुरुष इस तरह प्रवृत्त न हो, तब पुरुष सेलिब्रिटीज के, बहुस्त्री प्रेम प्रसंगों को चटपटे रूप से अपनी चैनल पर प्रचारित न करें। 
आपकी चूक और सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा, समाज दुर्भाग्य हुआ है। जिससे, कोई अच्छे चरित्र के व्यक्ति के अपेक्षा, विभिन्न ख्याति लब्ध सेलेब्रिटीस मीडिया पर आज, ज्यादा तारीफ़ बटोरते हैं।
ऐसे परिदृश्य में वे, हमारे देशवासियों के मॉडल आइकॉन होते हैं। हमारा युवा अंधाधुंध, उनका अनुकरण करता है और समाज संस्कृति बिगाड़ने में अनायास प्रवृत्त हो जाता है। "
मेरी माँ के, इस उत्तर ने, चैनल की दर्शक सँख्या बहुत बड़ा दी है।
लेकिन-
समाज को विवश कर दिया है कि वह अपने डबल स्टैंडर्ड से उबरे  ...


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
29.03.2020

Saturday, March 28, 2020


 समान प्रतिभा में पिछड़ी उसने
अन्य क्षेत्र में अग्रणी होने की ठानी थी
वीराँगना के सहासिक जीवनी से
सफलता की मिसाल होने की उसने ठानी थी

अपनी उपलब्धियों को सहज पचा लेना
ऐसे व्यक्तित्व निर्माण का कारण होता है
जिसके समक्ष कोई दौलत अभिमानी
ठहर नहीं पाता है

तुमसे भी ज्यादा प्यारा, मेरा भारत देश है- मेरी खूबसूरत नज़मा ...

तुमसे भी ज्यादा प्यारा, मेरा भारत देश है- मेरी खूबसूरत नज़मा ...


भैय्या जी, मैं अभी कुछ दिनों के लिए मुजफ़्फ़रनगर वापिस जाना चाहता हूँ।
वहाँ से भैय्या जी ने रिप्लाई में कहा था- नज़ीर भाई, हमने आपके लिए प्रबंध तो कर दिए हैं। और, समस्या यह है कि अभी कोई साधन भी नहीं मिलेंगे, आप जाओगे कैसे? 
भैय्या जी, आपको, मैंने बताया था ना कि मेरे घर पहला बच्चा आने वाला है, फिर रुक कर बेझिझक कहा था- यहाँ अकेले बैठे बैठे मुझे, नज़मा की प्यारी सूरत बहुत याद आ रही है, भैय्या जी!
दूसरी ओर से हल्की सी हँसी की आवाज सुनाई पड़ी थी, फिर भैय्या जी ने कहा था- मगर नज़ीर भाई, आपका पास भी नहीं बन पायेगा। फिर मुजफ़्फ़रनगर 125 किमी दूर है, आप जाओगे, कैसे?
मैंने कहा था- भैय्या जी, पैदल ही निकल जाऊँगा, देर रात तक पहुँच जाऊँगा। 
भैय्या जी ने कहा था- देख लो नज़ीर भाई, रास्ते में पुलिस वाले भी परेशान कर सकते हैं। 
भैय्या जी, आप हमारी ही उम्र के हैं इसलिए विनम्रता से बताता हूँ आपको कि नज़मा की मोहब्बत मुझे डोर में बाँध खींच रही है। मुझ पर इस तन्हाई में मँजनु वाला भूत सवार हो रहा है,
फिर कुछ शर्माते हुए, मैं हँसा था।
भैय्या जी ने हँसते हुए कहा था-
आप, मँजनु कहाँ रहे हो, अब तो आप जिम्मेदार पति हो। मगर, जाओ कि  गर्भावस्था में पति का पास होना, पत्नी का मनोबल बनाये रखता है। कोरोना संक्रमण के इन दिनों में दूर होने से, नज़मा को आपकी और आपको नज़मा की फ़िक्र  कुछ ज्यादा ही सता रही होगी। जो बच्चे और नज़मा के लिए ठीक नहीं होगा।
फिर थोड़ा पॉज लेकर बहुत ही मृदु स्वर में उन्होंने कहा था- सबेरे खाने पीने की पर्याप्त सामग्री साथ लेकर चले जाना।   
रात सोते हुए मैं, भैय्या जी के अनुग्रह याद कर रहा था।
दिल्ली के इस फ्लैट में पिछले एक माह से इंटीरियर के काम करने, मुजफ़्फ़रनगर से हम तीन लड़के आये थे। बाकि मेरे दो साथी कोरोना खतरे के मालूम होने पर हफ्ते भर पूर्व चले गए थे।
अकेले के, कुछ और कार्य कर सकूँ, ताकि नज़मा की डिलीवरी के समय घर पर रहूँ सोच कर, तब मैं रुक गया था।
फिर अचानक कर्फ्यू लग गया था। मार्केट और ट्रेन आदि सब बंद हो गया। मैं अकेला फँसा रह गया।
तब चार दिन पहले, भैय्या जी ने, पड़ोस के फ्लैट में रहने वाले, अपने फ्रेंड के मार्फत, हीटर और अनाज, मसाले और कुछ अन्य खाने पीने की सामग्री  पहुँचवाई थी, ताकि फ्लैट में ही, मैं कुछ पका सकूँ और मुझे, भूखा नहीं सोना पड़े।
अभी तक मैं उनसे, अपने को, मालिक तथा काम वाले के संबंध में जुड़ा मानता था। लेकिन मेरे लिए उनकी इस तरह की फ़िक्र ने, उनका, मुझसे, मानव का मानवता वाला रिश्ता अनुभव कराया था।
वे और हम अलग अलग कौम के थे। हम, ऊपर से जाहिर तौर पर अच्छा व्यवहार दिखाते थे मगर  हमारे मन में कुछ कुछ आपसी नफरत के कीड़े अंदर रहा करते थे।
लेकिन
कोरोना कीड़े के खतरे, ने वह हालात खड़े किये कि हम सब साथ साथ ज़िंदगी की फ़िक्र में डूब गए थे।
ऐसे में, भैय्या जी ने जो स्नेह एवं अपनत्व का व्यवहार, मेरे प्रति दर्शाया उससे, मेरे अंदर वाला कौमी नफरत का कीड़ा, सुसुप्तावस्था में चला गया था। 
भारत में मानवीय आत्मीयता के ऐसे व्यवहार के विपरीत, 26 मार्च 2020 को, मोबाइल पर न्यूज़ में, मैंने पढ़ा था कि अफगानिस्तान में, गुरूद्वारे पर अटैक कर, वहाँ 27 श्रध्दालुओं को मौत के घाट उतार दिया गया है।
इसे पढ़कर तब  ऐसी वैश्विक आपदा की घड़ी में, कट्टरपंथी और नफरत के इस कौमी एजेंडे पर, मेरा खून खौल उठा था।
मुझे लगा कि, मेरा भारत ही महान देश है। जो गरीब भी है, जिसमें अपढ़/कम पढ़ लिखे लोग भी हैं, व्यवस्था की अफरा तफरी, हम भुगतते भी हैं। मगर सब होते हुए भी दया, करुणा और त्याग की सँस्कृति यहाँ, दुनिया के किसी भी हिस्से से ज्यादा अस्तित्व में रहती है।
अभी इन दो व्यवहारों की तुलना के क्षणों में, मन ही मन, मैं यह निश्चय कर रहा था कि आगे, अपने दायरे में परस्पर भाईचारे और इस देश के दायित्वों के प्रति, मैं, जागृति जगाने का कार्य करूँगा।
फिर मुझे नींद आ गई थी। सुबह उठकर, रास्ते के लिए मैंने पराँठे बनाये थे। अचार छोटी शीशी में रखा था और पानी की बोतल सहित, सब बेग में डाल लिया था।
फ्लैट की चाबी, भैय्या जी के, फ्रेंड को सौंपी थी।
फिर, नज़मा की प्यारी सूरत अपने ज़ेहन में ताजा की थी, अब्बा, अम्मी और तीन छोटी बहनों का स्मरण किया था और चल निकला था, रोमाँचक पैदल यात्रा पर।    
रास्ते में कई अचरज देखे थे। बच्चों, बीबी को सम्हालते लोगों के जत्थे सड़कों पर चले जा रहे थे।
वैसे, अपढ़-गँवार भी कह दिया जाता था इन्हें, मगर ये डिस्टैन्सिंग की सावधानी बरतते हुए बढ़ रहे थे।
एक दृश्य तो बेहद ही आदर्श देखा था, जिसमें एक व्यक्ति, अपनी पत्नी को काँधे पर बिठाये लिए जा रहा था। पता चला था कि पत्नी के पैर में, फ्रैक्चर है, चल नहीं पा रही है और गाँव भी जाना है, इसलिए वह बहादुर पति, अपनी अर्धागिनी को काँधों पर बिठाकर, यूँ चल निकला था
कुछेक और दृश्य देखे थे रास्ते भर, जिन पुलिस वालों को हम, ज़ालिम कहते आये थे, उनका व्यवहार आज अत्यंत आत्मीय था, वे जिधर तिधर जिम्मेदारी से व्यवस्था और मार्गदर्शन करते दिखाई पड़ रहे थे।
रास्ते भर परोपकारी लोग, हम राहगीरों के खाने पीने को, सामग्री प्रदान कर रहे थे।
आज हममें कोई कौमी भेद, कहीं दृष्टि गोचर नहीं हो रहा था। 
मैं, संकट की घड़ी में, यूँ मेरे देशवासियों के व्यवहार पर मुरीद हो गया था। मुझे लग रहा था कि, नहीं होगा, हमसे ज्यादा भी, विकसित देश कोई ऐसा, जहाँ मानवता का ऐसा जज्बा होगा। जहाँ, एक दूसरे के प्राण रक्षा के लिए लोग, ऐसे त्याग का इतिहास रच रहे होंगे।
पूरे दिन की यात्रा बाद, देर रात्रि, मैंने घर के सामने दरवाजे की, कुंडी खटखटाई थी। खोले जाने पर, अब्बा, अम्मी और बहनों से, गले लग कर, अपने और उनके, सुरक्षित होने की ख़ुशी का इजहार किया था।
यद्यपि ऐसे मिलना, संक्रमण के खतरे की दृष्टि से, उचित तो नहीं था लेकिन मेरी भाव विहलता में, हमने यह खतरा लिया था।
फिर, अंदर कमरे में आया था - नज़मा को भरपूर प्यार की नज़रों से देखा था। वह मुझे, ऐसे देखते पाकर लजाई थी। उसके गोरे खूबसूरत चेहरे पर तब, शर्म की गुलाबी उभर आई थी। जिसने, उसकी खूबसूरती को बाहर निकले चाँद से भी ज्यादा, प्यारा बना दिया था।
मेरी हालत, प्यार को प्यासे प्रेमी सी हुई थी। मैंने उसके, सुंदर मुखड़े को, अपनी हथेलियों बीच लिया था। उसकी नज़रें झुक गईं थी। उसने, लगता है, मेरे आने की प्रतीक्षा में, श्रृंगार कर लिया था। उसकी काजल लगी पलकें, उसे अनूठी सुंदरता प्रदान कर रहा था।
तब, मैंने कहा था-
तुम बुरा नहीं मानना, अगर मैं कहूँ कि तुमसे भी ज्यादा, प्यारा, मेरा भारत देश है, मेरी खूबसूरत नज़मा।
इससे, उसके चेहरे पर, अजीब बात के होने वाले भाव झलके थे। फिर, मैंने उसके पेट पर हौले से हाथ रखते हुए कहा था-
यह अपना बच्चा बेहद खुशनसीब है कि जो ,यह भारत में जन्मने वाला है ... 

  -- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
28.03.2020

Friday, March 27, 2020

वैश्विक समाज नवनिर्माण का समय
सौहोर्द्र, सहयोग भावनायें प्रोन्नत करें
स्वर्णिम सुनहरी परंपरा रचने का अवसर

भोजन प्रति छोड़, साहित्य
चटोरापन लगाना होगा
दोनों- मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य
संकट घड़ी में बढ़ाना होगा

त्याग भोजन प्रति
आसक्ति, साहित्य प्रति बढ़ानी होगी
संकट घड़ी में रक्षक जो वह
शारीरिक, मानसिक जागृति लानी होगी

Thursday, March 26, 2020

कोरोना नेगेटिव ...

कोरोना नेगेटिव ...

16 मार्च का वीडियो कॉल था।
सेन-फ्रांसिस्को से, रोहन, कह रहा था- माँ, अंदेशा है कि इंटरनेशनल फ्लाइट्स कुछ वक़्त के लिए रद्द कर दीं जायें।
फिर अधीरता से पूछने लगा-  माँ, क्या मुझे अभी दिल्ली आ जाना चाहिए?
मैंने कहा था- हाँ बेटे, आ जाओ! 
तब रोहन- माँ, इससे मुझे, कुछ दिनों वापसी का, यूएस वीजा नहीं मिला  मेरी जॉब भी जा सकती है, क्या, मैं घर आ जाऊँ, माँ?
मेरा ह्रदय, पुत्र अनुराग में द्रवित हो गया था, मैंने कहा था- बेटे, उसकी चिंता मत कर, तुम्हारी योग्यता बहुत है, यहीं कुछ कर लेंगे, हम!
तब, अनुमति मिल जाने पर रोहन टिकट बुक कराने में लग गया था। और मैं अतीत-स्मृतियों में खो गई थी।
12 वर्ष का था रोहन, जब निर्दोष नहीं रहे थे। संघर्ष करते हुए, लालन-पालन, शिक्षा और विदेश की पढ़ाई के खर्चे और प्रबंध किये थे, मैंने।
मेरे लिए रोहन का होना ही जीवन और दुनिया का होना रह गया है। 
रोहन ने बाद में अवगत करा दिया था, 19 मार्च रात्रि तक वह घर पहुँच जाएगा।
मैं, व्यग्रता से प्रतीक्षा करने लगी थी।
19 मार्च को मेरे ह्रदय की धड़कनें तब बढ़ गईं थीं, जब उसने पालम से मोबाइल पर बताया था कि- माँ, मुझे टेस्ट के लिए अस्पताल ले जाया जा रहा है, मैं शायद सुबह तक घर आ सकूँ!
फिर कॉल कट गया था।
मुझे लगा, ईश्वर मुझ अभागी के साथ दोबारा क्रूरता से पेश नहीं आएगा। पति को यौवनावस्था में खोया है, मेरा वृध्दावस्था का सहारा बनाये रखेगा!
रात, खुली आँखों में कठिनता से कटी थी। जो नहीं चाहा था वह हुआ था, किसी अधिकारी का कॉल आया था। बताया था-
रोहन का टेस्ट पॉजिटिव आया है। इलाज के लिए रोका गया है।
अकेली थी, आँसू पोंछने वाला कोई नहीं था। झर झर बहती आँखों से, नेट पर पढ़ना आरंभ किया था।
आशा कि किरण दिखी थी। पढ़ा था- कोविड19, बड़ी उम्र वालों के लिए ज्यादा घातक है।
रोहन, ठीक हो आ जाएगा, इस विचार से स्वयं मन को तसल्ली देने के प्रयत्न करने लगी थी।
मेरी दुनिया था रोहन, मन आशंकाओं से बेहद घबराया हुआ था। सोचने लगी, सिर्फ 26 का तो है, यूथ-इम्युनिटी, उसे बचा लेगी। मगर अस्पताल का कटु अनुभव था। निर्दोष, अस्पताल के संक्रमण में ज्यादा गंभीर हो गए थे और फिर टाईफाइड के उपचार में, अन्य समस्याओं से घिर गए थे, बच नहीं पाए थे।   
उस वक़्त शेफाली पोंछा लगा रही थी। बात कुछ ही घंटों में पूरी सोसाइटी में फ़ैल गई थी।
आगे के दिन अत्यंत कटु अनुभव के और वेदनादायी रहे थे। पास पड़ोस ने बिलकुल ही सौहार्द्र तोड़ लिए थे।
यूँ हिकारत की दृष्टि से देख रहे थे, जैसे रोहन कोई रेप-मर्डर का अपराधी है, और मैं कालिख कोख वाली माँ हूँ!
स्वार्थ प्रधान जीवन शैली ने अत्यंत मूर्खता पूर्वक हमारी भव्य संस्कृति पर कालिमा की चादर ओढ़ा दी थी।
स्वतंत्रता के समय हमारे लोगों ने समाज सौहार्द्र खो दिया था।
1984 में इंदिरा हत्याकांड में समाज सौहार्द्र खो दिया था।
27 फरवरी 2002 को गोधरा में समाज सौहार्द्र खो दिया था।
सीएए पर ताजातरीन सौहार्द्र सूत्र खत्म किये थे।
ऐसे कुछेक और भी उदाहरण हैं। बहुत गंभीर कीमत हम चुकाते आ रहे हैं सबकी।
नफरत यूँ छलक रही है, परस्पर कि जिसके साये में, हम जीने से ज्यादा मरते रहते हैं, जीवन भर।
मगर नहीं,
हम पढ़े-लिखे शिक्षित समाज हैं। अपने पूर्वाग्रह कैसे छोड़ सकते हैं? 
आखिर, हमारे मजहबी/धार्मिक आस्था, विश्वास बनाये रखने की जिम्मेदारी भी तो हम पर है।
हमसे, कोई दूसरा बड़ा हो गया या जीत गया तो हमारा सम्मान/स्वाभिमान क्या रह जाएगा?
भले हम, एक दूसरे को मार काटते हुए, अपने को खत्म कर लें। अपने अहं नहीं बचा सके, तो क्या मुहँ दिखाएंगे अपनी आगामी पीढ़ी को? 
आज का समय, इतिहास में भूल से भी हमारी गौरवशाली गाथा/परंपरा दे देने वाला नहीं होना चाहिए।
आहत-निराश मैं, एक माँ, जिसके ह्रदय में, इस समय, पूरे देश पर व्यंग बाण चल रहे थे। ऐसी मानसिक अशांत दशा में, एक एक दिन पहाड़ सा बीत रहा था।
मगर भगवान इतना निष्ठुर नहीं था - आज, 27 मार्च 2020 है।
मेरा रोहन, कोरोना नेगेटिव हो गया है।
दोपहर तक घर आने वाला है ... 

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
27.03.2020
    
"फिट रहेगा तो हिट रहेगा इंडिया
अन्यथा
कोरोना से बचा तो अन्य रोगों से जूझेगा इंडिया"

एक गिलास में कितनी पानी की बूंदें होती हैं यह दो तौल और एक साधारण गणितीय जबकि से ज्ञात हो जाएगा। इन्हें गिनने के उपक्रम में न लगें हम।
आओ हम गणित यह लगायें है कि-
वर्कआउट नहीं किया और सिर्फ खाया और टीवी/मोबाइल में लगे रहे तो कितना वेट बढ़ेगा? कितनी फिटनेस घटेगी? और कितने भारी एफर्ट्स लगाने होंगे, 10 अप्रैल के बाद पुनः काम पर लगने के लिए?
हम समय सार्थक और सृजनात्मक बने रहने में लगायें

याचना मेरे स्वभाव में नहीं थी
करुणा तुममें होती, मुझे डूबने से बचा लेते 

गरिमा की आपबीती ...

गरिमा की आपबीती ...

कल कोई ट्रेन न चलेगी, ज्ञात होने पर, आनन फानन ही, मैंने पैकिंग की, टिकट बुक कराई और स्टेशन की तरफ जाने के लिए कैब ली थी।
पिछले छह दिनों से मैं वर्क फ्रॉम होम कर रही थी। खाना और अन्य जरूरी सामग्री ऑनलाइन तथा बिग बास्केट आदि सर्विसेज के जरिये होम डिलीवरी ही ले रही थी। अतः फ्लैट से हफ्ते भर से नहीं निकली थी।
चलती कैब में, बाहर देखा तो विश्वास नहीं हो रहा था कि मुंबई की सड़कें इतनी चौड़ी हैं। और, इतनी कम भीड़ वाली कि उस पर 70 की गति से कार दौड़ाई जा सके। पिछले 4 बरसों से मुंबई में रहते हुए, पहली बार मैंने, ऐसा सुहावना दृश्य देखा था।
मैं अनुमान लगा रही थी कि ऐसी कम भीड़ भरी, इतनी अच्छी और चौड़ी सी लगती सड़कें कब अनुभव हो सकती हैं। मेरा मन कह रहा था कि जब हमारे देश की जनसँख्या 50 करोड़ होती तो ऐसी फीलिंग्स मिल सकती थी। यह ऐतिहासिक नगर, मुंबई वर्तमान में तो भीड़ से हलाकान कर देने वाला होता है।
कोरोना खतरे से, बदले हुए हालातों में, मैं अपने अनुमान से विपरीत, स्टेशन, 1 घंटे की जगह सिर्फ 15 मिनट में पहुँच गई थी।
कैब वाले भैया को, फेअर, ऑनलाइन पेमेंट करते हुए, मेरा दिमाग कुछ गणित लगा रहा था।
सार्वजनिक स्थानों में, सड़कों पर, बसों और लोकल में, आपाधापी से जूझते लोगों को, यदि ऐसा मुंबई मिलता रहे तो, हरेक का कितना वक़्त बचेगा?
मन में आये इस सवाल का, मेरे दिमाग ने उत्तर दिया कि शायद, दो घंटे प्रति दिन यानि 60 घंटे प्रति माह, जो 8 दिनों के कार्यालयीन अवधि, के बराबर होते हैं।
फिर में, मुंबई से बनारस ट्रेन के निर्धारित प्लेटफॉर्म पर पहुँचने के लिए ब्रिज पर आई थी।
मेरा सुखद आश्चर्य यहाँ भी विध्यमान था, चमत्कारिक तरह से, आज कोई भीड़ नहीं थी और, यह भी कि-
और दिनों से सर्वथा भिन्न, जाने-अनजाने किसी के हाथ या अन्य कोई शारीरिक हिस्से का स्पर्श, चलते हुए मुझे नहीं हुआ था।
प्लेटफॉर्म पर भी इतनी ही सँख्या में लोग थे कि, प्रतीक्षा के लिए बैठने के लिए स्थानों में से, मुझे भी ग्रहण करने के कई विकल्प थे।
सारी स्थितियाँ खुशगवार सी थीं, मगर एक बात अखर रही थी कि यात्रा को प्रतीक्षा करते मुसाफिरों में, अधिकाँश के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने अथवा चिंता के भाव थे।
आशा के विपरीत जल्दी पहुँच जाने से, ट्रेन मिलने में डेढ़ घंटे से ज्यादा समय था। इधर उधर दृष्टि दौड़ाने के बाद, किसी बात से खतरा नहीं आदि बातों से, संतुष्ट हुआ मेरा दिमाग, वापिस अधूरे छूट गए गणित पर लौटा। महीने में आठ दिनों का सक्रियता वाला समय ज्यादा उपलब्ध होने पर, हम मुंबइयाँ, उसका कैसा कैसा और क्या क्या उपयोग कर सकते हैं। मेरे दिमाग में गणितीय घोड़े, इस विचार से दौड़ने लगे थे। 
अगर बचे इन घंटों को, प्रॉडक्शन में लगाया जाये तो उत्पादन और आउटपुट 125% होगा। 
अगर पेरेंट्स इसे, परिवार के लिए दें तो बच्चे ज्यादा सँस्कारित और जिम्मेदार होंगे। 
आदि आदि ऐसी कई सकारात्मक बातें दिमाग में आईं थीं। 
तभी, एक नकारात्मक विचार भी कौंधा कि-
यदि इसका प्रयोग अनर्गल सिनेमा/ वीडियोज देखने या अश्लील साहित्य पढ़ने/लिखने में, लोग लगाने लगें तो, मुझ जैसी सुंदर और युवा, लड़कियों / महिलाओं पर खतरे बढ़ सकते हैं। 
ऐसा सोचते हुए मेरे शरीर में सिहरन दौड़ गई।
मेरा दिमाग मुझे कहने लगा, छोड़ो ये कपोल कल्पित स्थितियों को लेकर आशावान रहना या डरना। मैंने सिर को झटका कि ये विचार दूर हो जायें फिर मैं एक झपकी (Nap) निकालने की कोशिश करने लगी थी।
तब पास, इंजिन के हार्न से, मेरी तंद्रा भंग हुई थी। मैं ए सी 2 के, अपने कोच में आसानी से डिस्टैन्सिंग रखते हुए सवार हो गई थी। मुझे नज़र आया कि ट्रेन रवाना होने के पूर्व तक 54 की क्षमता वाले मेरे कोच में 17-18 ही यात्री थे।
यह संतोषजनक बात थी कि, सभी यात्री एक दूसरे से दूरी रखने के प्रति यत्नशील थे। मेरे कूपे में, एक प्रौढ़ जोड़ा था। जिसने, अच्छे सफर के प्रति मुझे आशांवित किया था।
भुसावल तक का सफर, मैंने फेसबुक पर स्टोरीज पढ़ते हुए बिताया था। पास उपलब्ध में से कुछ खाया था, फिर सो गई थी।
सुबह निद्रा टूटी थी, जबलपुर में सामने का जोड़ा उतर रहा था। ट्रेन चली तो मैं वॉशरूम गई थी। जब लौटी तो, मुझे आभास हुआ कि कोच में मात्र तीन पैसेंजर बचे थे, मेरे अलावा दो 35-40 वर्ष के युवक थे। उन्होंने मुझे वॉशरूम से वापिस आते देखा था। चिंतित, मैं अपनी सीट पर आ बैठी थी।
कोई 20 मिनट बाद, वे दोनों युवक मेरी सामने सीट पर आ बैठे थे। वे आपस में हँसी मजाक करते हुए, मुझे घूरते जा रहे थे।
मुझे लगा कि मेरा युवा एवं लड़की होना, सुंदर एवं आकर्षक होना, आज मेरे लिए परेशानी का सबब बन सकता है।
जब कोच खाली पड़ा हो और जब खुद की आंवटित सीट कहीं और हैं तो, कोई सज्जन, अच्छे इरादे से तो, किसी अजनबी लड़की के, सामने वाली सीट पर तो आकर बैठेगा नहीं।
मैं आधुनिक परिधान में थी। मुंबई में, इसमें होना/दिखना, सहज सँस्कृति थी। ऐसे परिधानों में किसी युवती को वहाँ कोई थ्रेट नहीं लगती है। मगर यहाँ, मेरे शरीर पर टिक गई, इन युवकों की,  वासना ललचाई दृष्टि से, मुझे स्वयं पर संकट मँडराता लग रहा था।
मुझे, अपने अंग-प्रत्यंग पर टिकी, उनकी कामुक दृष्टि से, एक तरह की वेदना एवं दाह, अनुभव हो रही थी।
मेरी आयु अनुसार, आकर्षक, माँसल देहयष्टि, जिसे देख और अनुभूत कर मैं स्वयं आत्ममुग्ध रहती थी, जिसकी सम्हाल मैं इसे किसी की अमानत मान किया करती थी, अभी मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे? इनकी बदनीयत नजरों से छुपाऊँ!
वैसे यह दिन का समय था, लेकिन यदि इस कोच के टी सी या केयर टेकर, कुछ धन लालच में बिक जाने वाले हुए, जो हमारे देश में कोई विचित्र बात बिलकुल नहीं थी। मैं बेहद डरी हुई थी।
मेरा मस्तिष्क तब त्वरित और एफ्फिसिएंट तरह से चला था। मैंने मोबाइल पर कॉल लगाने का अभिनय किया था। बिना कॉल लगाए, वीडियो रिकॉर्डिंग ऑन करते हुए, कहना आरंभ किया था-
पापा, मुझे बुखार है, रात खाँसी भी बहुत चलती रही है, कहीं मुझे संक्रमण तो नहीं लग गया?
फिर रुमाल निकाल, बनावटी मगर सच सी लगती तरह से,मैंने दो बार छींका था, रुमाल से नोसी साफ करने की क्रिया दिखाई थी।
ऐसे कहा था, जैसे मोबाइल पर रिप्लाई कर रही हूँ-
पापा डर तो नहीं रही, मगर लगता है घर आने के पहले, मेरा बनारस में टेस्ट करवा लेना, हम सभी की लिए सेफ रहेगा।
हाँ- हाँ, पापा आप स्टेशन पर सारी सावधानी और प्रबंध सहित आइये। 
शायद इतना पर्याप्त था। उन युवकों के चेहरों पर भय झलका था। कुछ ही पलों में वे, मेरे सामने से उठकर, चले गए थे।
मैं मंद मंद अपनी तरकीब की कामयाबी पर मुस्कुराई थी। कुछ देर बाद में, मैं, कोच में घूमी थी। प्रत्याशित घट चुका था। वे युवक, सामान सहित, कोच ही छोड़, किसी दूसरे कोच में चले गए थे।   
निश्चित ही, वे इतने शरीफ तो थे कि वासना के प्रभाव में भी, जीते बचने की फ़िक्र रख रहे थे। 
फिर इलाहाबाद तक, मेरे कोच में, एक दो चक्कर केयर टेकर और टीसी ने लिए थे।
लेकिन इलाहाबाद पहुँचते ही आश्चर्य जनक घटना घटी थी। कोच के अंदर मेडिकल स्टाफ पूरी तरह से कवर मुझ तक पहुँचा था। मुझसे कहा गया था-
मेम, आपको टेस्ट के लिए, यहाँ उतरना होगा। आपके संक्रमित होने की सूचना है।
मैं बलात उतार ली गई थी। तीन दिनों तक, मुझे आइसोलेशन में रखा गया था। और पूरी तरह से नेगटिव रिजल्ट से संतुष्ट हो जाने पर, तीन दिन उपरांत, आज 26 मार्च 2020 को, मुझे बनारस, मेरे घर तक पहुँचाया गया था। 
मैंने घर में मम्मी, पापा, भाईसाहब एवं भाभी को सारा वृतांत, आँखों से निकल रही अश्रु धारा को नैपकिन में समेटते हुए सुनाया था। सभी मेरे परिजनों ने मुझे आलिंगन कर, पीठ और सिर पर स्नेहिल हाथ फेरते हुए, मेरा जी हल्का करने में मदद की थी।
फिर रेलवे के कम्प्लेंट पोर्टल पर, ट्रेन क्रमाँक, यात्रा दिनाँक, कोच एवं बर्थ सँख्या विवरण सहित मैंने शिकायत डाली थी। जिसमें मैंने, अपेक्षा की थी कि-
क्या, पूरा कोच खाली रहने पर और, उन पैसेंजर को उनकी अपनी बर्थ आंवटित होने पर, क्यों उन्हें एक अकेली बैठी लड़की के सामने वाली बर्थ पर आना चाहिए था? 
मैंने उनकी नीयत पर प्रश्न किया था, और माँग की थी कि उनको आइडेंटिफाइ कर उनके विरुध्द कार्यवाही की जाए। 
साथ ही, मैंने अपना उस समय का बनाया, वीडियो भी अटैच किया था, ताकि मेरी शिकायत की पुष्टि आसानी से हो सके।
अपनी आपबीती, आप सब से यूँ शेयर करते हुए मेरा यह आशय है कि -
आज कोरोना वायरस से पूरा देश डरा हुआ है। उस संक्रमण को रोकने की कोशिश में सब लगे हुए हैं क्योंकि वह सब के जीवन पर आसन्न खतरा बन गया है।
मुझे आशा है कि तीन माह पूर्व उत्पन्न हुए इस वायरस को, अगले कुछ महीनों में नियंत्रित कर लिया जाएगा।  मगर,मेरा-
इस देश के सभी अंकल, भाई और बेटों से प्रश्न है कि, एक वायरस जो सदियों से अस्तित्व में है, जिसकी चपेट में आ नित दिन, कोई बहन, बेटी अपनी अस्मिता और (अनेकों प्रकरण में) प्राण तक खो देती है। उस 'अति असंतुलित कामुकता रूपी वायरस' को कब और कैसे नियंत्रित किया जाएगा? 
अपनी अपनी जान पर आये संकट में जब सभी घर में छिंके बैठने को मजबूर हैं, तब फुरसत के मिले इन दिनों में मेरी अपेक्षा है कि हम सभी चिंतन, आत्ममंथन करें और कल्पना करें कि कई बेटियाँ  'असंतुलित कामुकता वायरस' से अपनी रक्षा की फ़िक्र में अपनी ज़िंदगी का बहुत सा वक़्त सिर्फ घरों और अनावश्यक पर्दों/बुरकों में कैद रहने में ही खो देतीं हैं। 
इनमें से कई, पर्याप्त शिक्षा अर्जित नहीं कर पाती हैं। अनेकों स्वावलंबन के लिए नौकरी/व्यवसाय करने से डरती हैं। अकेले, यात्रा आदि नहीं करती हैं। अनेकों कभी न कभी कामी नज़रों से अपने स्वाभिमान पर ठेस सहती हैं। 
मेरी सविनय प्रार्थना आप सभी से है कि जब कोविड-19 के खतरे में, आपने जीवन स्वरूप को समझने का समय पाया है तो, आप, कोविड-19 को नष्ट करने के साथ ही 'असंतुलित कामुकता वायरस- ईसा पूर्व 1919' को भी नष्ट करने का प्रभावकारी उपाय भी खोजें ..
- आपकी बहन/बेटी तुल्य 'गरिमा'
-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
26.03.2020




Wednesday, March 25, 2020

कोरोना संक्रमण मुक्ति सेनानी
हम 'कोरोना संक्रमण मुक्ति' इतिहास रच सकते हैं
जब हम जनहानि बिन भारत को मुक्त करने में सफल हुए हों

बुध्दिमानी अपेक्षित है ...

बुध्दिमानी अपेक्षित है ...
कवि वाला वायरस भी - कोरोना वायरस जितनी तेजी से संक्रमण फैलाता है। और फेसबुक पर डिस्टैन्सिंग का एक मात्र उपाय ब्लॉक होना होता है। इसलिए भले कविता संक्रमण पीड़ित हम हो जायें अपने हितैषियों से फेसबुक पर डिस्टैन्सिंग नहीं रखेंगे।
हाँ जरूर- फेसबुक पर हमारा साथ बना रहे इस हेतु हमें जीवित बच जाने के उपाय करने होंगे। हमें सोशल डिस्टैन्सिंग रखनी होगी, विभिन्न आव्हानों अनुरूप व्यवस्था/प्रशासन को सहयोग देना होगा। और बार बार धोये गए अपने हाथों से, हमें उन लोगों के भोजन सामग्री पहुँचाने के परोपकार भी करना होगा जिससे कि कोई व्यक्ति भूख की हालत में खतरे लेकर उदरपूर्ति अभिलाषी होकर शहर में घूमे। असावधनी में वह संक्रमित हो जाए। फिर कोरोना वायरस के संक्रमण का वाहक बन जाए।
हमें याद रखना होगा, दूसरों को संक्रमित होने से बचा सकेंगे तभी हम बचेंगे।
अन्यथा मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की सिंधु कालीन उत्कृष्ट सभ्यता की तरह हम इतिहास रह जाएंगे.
शुभ-कामनाओं एवं प्यार सहित     
-- राजेश 
हम थोड़ी फ़िक्र रखें औरों की चलें सद्कर्म थोड़े जोड़ते हुए
ताकि जाना पड़े तो जायें हम बिन पछतावा दिल पर लिए

स्वार्थ सिध्द कर औरों से
बदलते रहे हम उनके प्रति
अब क्यूँ हतप्रभ कि बुरे वक़्त में
कोई बदल रहा जब हमारे प्रति

Tuesday, March 24, 2020

पुनर्मिलन की आस ....

पुनर्मिलन की आस ....

शहर में 19 मार्च से कोरोना को लेकर, मच गई ज्यादा अफरा तफरी में, मैं व्हिस्की ज्यादा नहीं ला पाया था। मेरी कुंठा एवं आत्म ग्लानि को भूलने के लिए इस तरह नशे का सहारा खत्म हो गया था।
दो माह के बेटे को लेकर, नताशा को गए तीन माह हो गए थे। नताशा और नवजात बेटे से वैसे तो मुझे ज्यादा प्यार नहीं था। मगर पिछले पाँच दिनों से घर में छिंके रहने और वह भी नशा विहीनता की फुरसत की दशा ने, मुझे आत्म अवलोकन करने को विवश कर दिया था। मैं मूर्ख जिसे, अपनी ही पहल पर, परिणय सूत्र में बाँध लाया था, तथा भरपूर साथ निभाने के के बावजूद भी, मैं नताशा के प्रति कृतज्ञ न हुआ था। मैंने एक अति कृतघ्न व्यक्ति, होने का परिचय दिया था। 
मालूम नहीं क्यूँ तब, पुरुष सत्ता असंतुलित रूप से मेरे दिलो दिमाग पर छाई थी।
अपनी नई ही ब्याहता पत्नी को, अवस्था अनुरूप सहज प्यार न देकर, मैंने अनेकों बार उसके स्वाभिमान को चोट पहुँचाने वाला व्यवहार किया था।
नताशा के जाने के दिन से अपने, अन्याय पूर्वक किये व्यवहार को, शराब के नशे में डूबे रह कर, मैं स्वयं को न्यायसंगत ठहरा देता रहा था।
नताशा का 498 A के तहत कार्यवाही आरंभ करवाये जाने पर, हम (मेरे माँ-पापा सहित), संबंध विच्छेद की परिस्थिति निर्मित कर देने के लिए दोष नताशा पर डाल देते रहे थे।
आज जब मैं पूर्णतः होशो हवास में पिछले वर्षों के घटनाक्रम पर गौर कर रहा था, तब मुझे यह मानना पड़ा कि हमने ही, नताशा को इस हद तक लाचार किया था।
यह सोचते हुए मैं, पानी पीने के लिए बैडरूम से निकल रसोई के तरफ जा रहा था, तभी कानों में नताशा का नाम सुन ठिठक रूक गया था। मुझे समझ आया था कि बैडरूम में मेरे मम्मी-पापा भी, हमें (नताशा, मुझे और बेटे को) लेकर चर्चारत हैं।
पापा कह रहे हैं, 21 दिनों तक हमें घर में ही बंद रहना है। ऐसे में एरोन (मेरा बेटा) और नताशा घर में होते तो, सबका मन लगा रहता। हमने बेकार ही, एवर्ट (मैं) को शह देकर, इस हद तक संबंध बिगाड़ दिए हैं। 
उत्तर में माँ कह रही हैं - हाँ देखो न! बेटा कैसा उदास रहता है।
पापा कहते हैं - ये उम्र प्रेमालाप और प्यार भरी चिहुलबाजी की होती है। यहाँ अकेला एवर्ट वहाँ अकेली नताशा, बेचारे जीवन का यह समय, यूँ ही गवाँ देने को लाचार हैं। 
मम्मी उसमें जोड़ती है - और हम, नन्हें पोते को खिलाने, देखने के सुख से स्वयं को वंचित भी तो कर रहे हैं।
पापा, हामी भरते हैं।
फिर रहस्यमय रूप से, अपने स्वर को धीमा (जिसे सुनने के लिए मुझे अपने कान खड़े करने के साथ ही उनके बैडरूम के दरवाजे से ज्यादा सटना पड़ता है) करते हुए कहते हैं - देखो, सेरेना (माँ का नाम)  अपवाद छोड़ें तो
  मनुष्य के दो जेंडर होते हैं, जब तक रूह को शरीर मिलता है, प्रवृत्ति विपरीत लिंगीय के प्रति सहज आसक्ति की होती है।
एवर्ट एक पुरुष है, अपने फ्रेंड्स की संगत में खुश नहीं रह सकता उसे नताशा की संगत तो चाहिए ही पड़ेगी।
यह सुन कर मालूम नहीं कैसे! माँ को इस गंभीर चर्चा में भी चुहल सूझती है वे हँस कर पापा से कहती हैं, देखो आप इस प्रवृत्ति की दुहाई देकर किसी पड़ोसन पर डोरे न डालने लगना!
पापा साथ ही हँसते हैं, फिर कहते हैं - अरे नहीं सेरेना, अब हम पुरुष कहाँ रह गए हैं, शरीर में अटकी एक रूह ही बस तो रह गए हैं। तुम्हीं बताओ! रूह का कोई जेंडर होता है? अब हमारे लिए तो पुरुष स्त्री, सब एक महत्व के हो गए हैं।   
माँ फिर गंभीर हो कहती हैं - आप एवर्ट से बात कीजिये और उसे सुलह को समझाइये।
पापा कहते हैं - आज शाम बात करता हूँ।
फिर अंदर की आहट से मुझे समझ पड़ता है, कि कोई अपनी जगह से उठा है। मैं तुरंत पीछे को चलते हुए, अपने कमरे में वापिस आ जाता हूँ।
बिस्तर पर लेटते हुए सोचने लगता हूँ, कोरोना खतरा भी कुछ अच्छाईयों  का निमित्त हो रहा है। उसने हमारा सोया विवेक जगाया है हमें न्यायप्रिय होने के लिए प्रेरित कर रहा है। शाम को पापा, मम्मी और मै, लिविंग रूम में एकसाथ हैं। मेरी तरफ देखते हुए, पापा कहते हैं - एवर्ट, अब हमें नताशा और एरोन को वापिस लाने की युक्ति ढूँढ़नी चाहिए। 
मैं बिना ऐतराज दिखाए, सहमति में सिर हिलाता हूँ।
तब पापा अधिवक्ता को मोबाइल कॉल करते हैं, दूसरी तरफ से उत्तर मिलने पर पूछते हैं- जेटली साहब क्या 498 A के नताशा के दिए नोटिस की स्थिति में भी, न्यायालय के बाहर कोई सुलह हो सकती है?
वहाँ से जो जबाब मिलता है, उससे उत्साहित हो, तेज स्वर में कहते हैं, तो वकील साहब बिना समय लिए अभी ही कोशिश कीजिये ना  ....   

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
25.03.2020
यध्यपि राष्ट्र आव्हान
मेरे ही जीवन रक्षा के लिए हैं
मगर उल्लंघन\अनाधिकृत चेष्टाओं में मैं मारा जाऊँ
तो राष्ट्र का बिगड़ना कुछ नहीं है

उसने कहा था (2) ..

उसने कहा था (2) ..

जहाँ मैंने जन्म लिया था, जहाँ वैभव एवं विलासिता से भरपूर जीवन का मुझे वरदान मिला लगता था, जहाँ मेरे अपने और उनका प्यार मिला था, उस माटी को हमेशा के लिए मैंने अलविदा कह दिया था।
जहाज में खतरनाक यात्रा पर निकलते हुए मुझे आगे क्या होगा उसका कोई भय नहीं सता रहा था। मेरे आँखों के समक्ष मेरे आइलैंड का समृध्दि वैभवपूर्ण, आधुनिक और उन्नततम, संपूर्ण परिदृश्य घूम रहा था, जिसमें पूरे सुविधा-साधन, यथावत विध्यमान थे, मगर जिनके उपभोगों का आनंद लेने कोई मनुष्य उपलब्ध नहीं थे।
आगे का समय अत्यंत नाटकीय रहा था। पहला दिन बिना ज्यादा यत्न के समुद्र में अकेले बीत गया था। रात अँधेरे में भी जहाज अनजान दिशा में बढ़ता जा रहा था। मैं जागते-सोते हुए, जहाज चालन जारी रखे हुई थी।
शायद तब मैं निद्रा अधीन थी कि एकाएक, एक तीव्र शोर के साथ जहाज तीव्रता से डाँवाडोल होने लगा था। मेरी नींद खुल गई थी। दिमाग सक्रिय हुआ था। लगता था कि मेरा जहाज, किसी विशाल ब्लू व्हेल मछली से टकरा गया था।
जहाज एक तरफ झुकने लगा था। शायद उसमें पानी भर रहा था। आनन फानन ही मैंने लाइफ जैकेट पहनी थी। कुछ खाने की सामग्री और पेट्रोल कैन एक लाइफ बोट में डाली थी और मैंने जहाज को छोड़ दिया था।
कुछ देर आगे तो मैं जल राशि से जूझती रही थी। फिर थकान से चूर, अचेत हो गई थी। मेरी चेतना जब लौटी तो मैंने स्वयं को, किसी जहाज के केबिन में बेड पर लेटे पाया था। आसपास कोई दिखाई नहीं पड़ा था। मैंने उठने की कोशिश की थी लेकिन कमजोरीवश मेरा दिमाग चकराया था और मैं बिस्तर पर वापिस गिर गई थी।
कोई घंटे भर बाद, यूनिफार्म में सुसज्जित, एक युवती आई थी। उसे देख मुझे प्रसन्नता हुई थी कि धरती पर मेरी आशंका के विपरीत मेरे अतिरिक्त भी मानव अस्तित्व बरकरार है।
उसने मुझे पीने को फ्रूट जूस दिया था। खुद के, परिचय में बताया था कि जिसमें इस समय हम सवार हैं, वह इस भारतीय समुद्री जहाज की कैप्टन है। उसने यह भी बताया कि उन्होंने, कल रात अपने जहाज के पास ही, मेरी बोट जिस पर मैं अचेत पड़ी थी, देखी थी। और उन्होंने, मुझे बचाया (Rescue किया) था।
मै, पिछले 16 घंटे से अचेत रही थी। उनका जहाज, भारत लौट रहा है और जहाज अभी मुंबई पोर्ट से 9000 से अधिक नॉटिकल माइल्स की दूरी पर है। जहाज को मुंबई पहुँचने में 35 दिन लगने हैं।
मेरा बच जाना एक चमत्कार जैसा था। और मेरे लिए, सुखद आश्चर्य यह था कि अपने आइलैंड पर मौत के ताँडव के साक्षात्कार से, मेरे मनुष्य अस्तित्व मिट जाने की आशंका निर्मूल सिध्द हुई थी।
मैंने आगे के दिनों में, कैप्टन से, अपने आइलैंड की विभीषिका और अपनी मानसिक दशा शेयर की थी। कैप्टन बहुत प्यारी थी, उसने जहाज पर ही मेरा इन्फेक्टेड होने की संभावना का परीक्षण करवाया था। जो नेगेटिव आया था।
उसके व्यवहार और आत्मीयता से मैं उस पर मोहित हुई थी। मुझे अनुभव हुआ था कि ये भारतीय अत्यंत अच्छे इंसान होते हैं।
कोविड-19 के भारत सहित विश्व के ताजा अपडेट, वह मुझसे शेयर करती रही थी। जहाज पर आने के दिन, भारत में कोविड-19, प्रथम चरण में था। लेकिन हमारा जहाज, जब मुंबई पोर्ट पहुँचा था, तब मार्च की 23 तारीख थी और इन्फेक्शन यहाँ तृतीय और खतरनाक चरण में प्रवेश कर चुका था।
कैप्टन ने ही गृह मंत्रालय से मेरे संबंधित विवरण देते हुए, भारत में मेरे प्रवेश दिलाने की औपचरिकतायें पूरी करते हुए मुझे अनुमति दिलाई थी। यहाँ सरकार की, मेरे जैसे अभागे शरणार्थी के प्रति उदारता ने, मुझे बेहद प्रभावित किया था।
मैंने अपने शैक्षणिक पाठ्यक्रम में भारतीय भव्य संस्कृति के विषय में पढ़ा था। जिसका साक्षात दर्शन, मुझे अब हो रहा था।
आज, 24 मार्च 2020 है। मुझे बताया गया है कि देश में कोरोना वायरस से निपटने के लिए कई प्रतिबंध लगाए गए हैं। संक्रमण चैन भंग करने के लिए कई सेवायें और कामकाज स्थगित किये गए हैं। देश में जागृति और सहयोग के लिए, नागरिकों से विभिन्न तरह के आव्हान और सहयोग की अपील की जा रही हैं। 

मुझे भी इसी प्रयोजन से, अभी एक टीवी न्यूज़ चैनल के कार्यालय में लाया गया है। उद्घोषिका मुझे अपने साथ बीती सारी स्थिति दर्शकों को बताने को कहती है।
उसके कहे अनुरूप मैं, उसने कहा था, के पिछले भाग में वर्णित सारी आप बीती बयान कर चुकी हूँ तथा अंत में मेरे रक्षक देश के प्रति अनुग्रह बोध में एक मार्मिक अपील करते हुए, मैं कह रही हूँ -
मेरे रक्षक और शरणदाता, भारत देश के मेरे समस्त प्यारे नागरिक, ज्यादा दिन नहीं हुए, आज से लगभग दो महीने पूर्व तक, मेरी नस्ल, मेरे मजहब, मेरी अमीरी, मेरी खूबसूरती, मेरी आधुनिकता, अन्य पर हासिल हमारी अग्रणी उन्नति और मेरी मातृभाषा, ऐसे कई अभिमान और भेद की परतें, मेरे दिमाग पर चढ़ी हुईं थीं। लेकिन जिस विभीषिका ने, हमारे आइलैंड पर से मानव जीवन का नाश कर दिया उसकी साक्षी होने पर मेरी दिमाग पर चढ़ीं समस्त ये परतें खुल गईं हैं। 

एक समय मुझे जब यह संशय हुआ कि धरती पर कदाचित मैं ही अकेली मनुष्य तो नहीं रह गईं, तब मेरी सर्वप्रथम फ़िक्र, धरती पर मनुष्य प्रजाति को, लुप्त होने से कैसा बचाये जाए, यह रही है। मुझे ख़ुशी है कि भारत की विशाल जनसँख्या अब तक सुरक्षित है। मेरी कामना है कि यह आबादी इस महान भूमि पर कायम रहे। मेरी अपील है कि मुझ भुक्तभोगी की, इस कारुणिक स्थिति से, आप सभी सबक लें तथा अपने दिमाग से सारे भेदभाव मिटा कर, कोविड-19 को हमारे आइलैंड की तरह विकरालता पर पहुँचने से रोक लें। 

भोग विलास लोलुपता को कुछ दिन टालें। मेल मिलाप, भ्रमण कुछ दिनों तक स्थगित रखें। इमरजेंसी के अतिरिक्त घरों से बाहर नहीं निकलें। स्वच्छता, बार बार हाथ मुहं साबुन/हैंड वाश से धोना आदि आदत बनायें। हैंडल, दरवाजे आदि बार बार स्टरलाइज करें एवं मुहँ पर बाँधे जा रहे नकाब/कपड़ों को जल्दी जल्दी धो-सुखा कर प्रयोग करें।  

अन्य सावधानियों में, भारत में प्राचीन समय से उपयोग की जा रही आयर्वेदिक जड़ी-बूटियों एवं औषधीय गुण वाले पेड़-पौधों की पत्तियों और उनकी छालों आदि का सेवन भी करें। भले ही, कोरोना संक्रमण पर इनके कारगर होने के प्रामाणिक लाभ, अभी नहीं बताये गए हैं, मगर इनके लाभकारी रहने की पूरी संभावना है। पूरे आइलैंड में अकेले जीवित बच पाने वाली, मैंने भी वहाँ एक वृक्ष से रिसते तरल का सेवन, व्दीप के संक्रमण के चपेट में आने के दिनों में किया है। अभी समय आपके हाथ में है। इसे हमारे व्दीप जैसी लापरवाही से नहीं बिता दीजिये। अन्यथा हाथ से यह समय निकल सकता है और फिर मेरे जैसे, अपने सभी को खोकर, यही हाथ मलते रह जाने की, पीड़ादायी विवशता हम पर आ सकती है।  फिर में हाथ जोड़ कर कहती हूँ 'नमस्ते भारत' साथ ही अपने खूबसूरत ओंठों पर मनमोहक मुस्कान बिखेरती हूँ। उद्घोषिका ने बाद में, मेरा धन्यवाद ज्ञापित करते हुए बताया है कि उनके इस कार्यक्रम की दर्शक सँख्या 7.4 करोड़ से ज्यादा रही है।
उसने आशा जताई है कि मेरा टीवी पर दिखाया और मेरी आपबीती का बताया जाना, भीषण आशंकाओं को रोक पाने की दृष्टि से, ज्यादा कारगर होगा।
उद्घोषिका ने यह भी बताया है कि इस तरह की अपीलें, यूँ तो बहुत लोग कर रहे हैं मगर, उन सब के प्रति हमारे लोगों के पूर्वाग्रह हैं, जिससे उसमें विरोध और कमियाँ देखने की सहज प्रवृत्ति के कारण, लाभकारी सलाह और निर्देशों का पालन भी कई वर्ग नहीं कर रहे हैं।
लेकिन आपके प्रति हमारे लोगों में कोई पूर्वाग्रह और विरोध नहीं होने से आपके बताये अनुभव का लाभ हमारा समाज अवश्य लेगा।
मुझे उद्घोषिका से यह सब सुनना संतोष प्रदान कर रहा है।
मुझे अपने पर के अनुग्रह, के अनुरूप, अपने आचरण से, अपने दुःख कम होते लग रहे हैं।
मेरे मन में, यह आशा उत्पन्न हो रही है कि शायद 24 मई 2020, वह दिन होगा, जब भारत यह घोषणा करेगा कि नागरिकों के परस्पर सहयोगी और मानवीय आचरण होने से अत्यंत कम सँख्या में जनहानि के बाद हमने कोविड-19 का घातक हो सकने वाला संक्रमण अपने भारत देश से खदेड़ दिया है  .... 

 -- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
24.03.2020

Monday, March 23, 2020

अनेकों से हो मगर
इश्क गर रूहानी रहे
तो भी चरित्र पर हमारे आता कोई दोष नहीं
कि रूहों का होता कोई जेंडर नहीं

उसने कहा था ..

उसने कहा था ..
तीन दिन पूर्व, उसने कहा था-
आज सिर्फ हम दोनों ही बचे दिखाई पढ़ रहे हैं। मानवजाति के अस्तित्व के दृष्टि से मैं, तुमसे संबंध बनाकर, तुम्हारे द्वारा बच्चे जन्मने का उपयोग लेता, मगर मैं, संक्रमित हूँ तथा मुझमें शक्ति भी शेष नहीं है।
अपरिचित उस युवक की, इस बेशर्मी का, मैं सुनते हुए, बुरा नहीं मान रही थी। अपितु मानव जाति के जीवनचक्र को स्थापित रखने की उसकी चिंता से प्रभावित हो रही थी।
वह आगे कह रहा था- अगर मैं मर जाता हूँ, तो  इस व्दीप (Island) में, कोई पुरुष नहीं बचेगा। अतः इस प्रलयकारी परिस्थिति में भी, जीवन चक्र सुनिश्चित करने के लिए, तुम, किसी प्रकार से जीवित निकलने की कोशिश करना। पूरी दुनिया में जहाँ भी कोई पुरुष मिले, तुम उसकी मदद से बच्चे जन्मना। यह तुम्हारा सृष्टि के प्रति दायित्व है।
उस दिन पस्त हो, फिर वह खामोश रह गया था। और आज, क्रमशः उसकी हालत में बिगाड़ बढ़ते जाने के बाद, वह मर गया है।
कुछ दिन पूर्व-
'जहाँ सर्व तरफ बसती थी खुशियाँ
आज वहाँ भयावह वीरानगी बस रही थी
समय ने मेरी ज़िंदगी में दिखाये थे जलवे
वे सब अब सिर्फ यादगार रहे थे '
मैं रो रही थी, मुझे चुप कराने वाला कोई नहीं था। थक कर मैं, स्वयं चुप हुई थी। बहुत से घर थे, जिनमें भोज्य सामग्री भरी पड़ी थीं। अब जिसमें, खाने वाला कोई नहीं था। उनमें से एक, सामने के एक घर में घुस, मैंने ड्राई फ्रूट्स खा कर शक्ति बटोरी थी। 
जहाँ तहाँ मरे लोगों के शव, जिनसे सड़ांध आ रही थी, जो बेचारे धार्मिक रीति से कफ़न-दफन को भी वंचित रह गए थे पर, फिर मैंने ध्यान दिया था। उनके शवों को कैसे ख़ाक किया जाए मैंने सोचा था।
सूने पड़े एक पेट्रोल पंप से, मैंने कई कैन में, पेट्रोल डाल, एक वैन में रखा था। और उसे चलाते हुए सब तरफ घूमा था। जहाँ भी, जिस भी घर-बाहर , मुझे मनुष्य शव मिलता, उसे घसीट घर से बाहर ला कर, मैं उस पर पेट्रोल उलेड़ती और तीली जला उसे, अग्नि के हवाले करती रही थी।
पूरे आइलैंड में, जो लगभग 600 वर्ग किमी में फैला था, मैंने अगले दो दिनों यही काम किया था। कहीं से भी भोज्य पदार्थ ग्रहण करती रही थी। सोती, फिर जागती और कैनों में पेट्रोल इकठ्ठा करती, और शवों का दहन करती रही थी। 
मुझे इस बात की परवाह नहीं रह गई थी कि विधि पूर्वक, अंतिम क्रिया न करने का, कितना पाप मेरे सिर लगेगा।
मैं उन्नीस वर्ष की लड़की थी। लगभग पचास वर्ष पूर्व, मेरे परदादा ने इस व्दीप पर आकर अपने नाते-रिश्तेदारों को आमंत्रित कर यहाँ बसाया था। खनिज संसाधनों की यहाँ  प्रचुरता होने से यहाँ वैभव, समृध्दि और विकास ने डेरा डाला था।
इस पर दुनिया की उच्चतम और बेहद आधुनिक किस्म के महल, मॉल सड़क, हवाई अड्डा आदि, सभी कुछ बनाये गए थे। यहाँ की अत्यंत भोग-उपभोग प्रधान जीवन शैली ने, दुनिया के रईस लोगों को आकर्षित किया था।
तीन माह पूर्व तक यहाँ का निवासी होना दुनिया में स्टेटस सिंबल था। और आज इस व्दीप के प्रति, बाकि दुनिया की वितृष्णा हमने देखी थी। इस स्तर पर, इस तेजी से, भाग्य को दुर्भाग्य में बदलते, संसार में शायद ही कहीं देखा गया था।
कोविड-19 के पहले, यहाँ की जनसँख्या 2721 हुई थी। कोविड-19 के फैलाव और उस पर यहाँ के भोगी प्रवृत्ति के लोगों की लापरवाही ने तीन माहों में पूरी तस्वीर बदल दी थी।
हमारे कुछ लोग, जो लगभग अढ़ाई महीने पहले हवाई जहाजों से, आइलैंड लौटे थे, उनमें स्वस्थ दिखते हुए भी, इंफेक्शन हमारे यहाँ पहुँच गया था। जिसका हमें आरंभ में आभास नहीं हुआ था। 
टीवी - इंटरनेट के जरिये दिखाये जा रहे, महामारी के अंदेशे को अनदेखा करते हुए यहाँ, हमने जश्न और पार्टी में सामूहिक भाग लेना जारी रखा था। परिणाम यह हुआ था कि मेरे अलावा शेष 2720 नागरिकों, जिनमें मेरे माता-पिता और 3 भाई बहन भी थे, ने दम तोड़ दिया था।
आरंभ में लोगों को कफ़न दफन मिलता रहा था, लेकिन पिछले दिनों मारे गए 2 सौ से अधिक लोग इससे भी वंचित रहे थे।
सारे शवों के दहन की धुन में, नितांत अकेलेपन में भी, मेरे दो दिन व्यस्तता में बीत गए थे। उपरांत अब, मुझे तन्हाई की भयावहता डराने लगी थी।
विश्व के शेष हिस्से में, यहाँ के संक्रमण की भयावहता, ज्ञात होने पर यहाँ तक की विमान सेवा भी रद्द कर दी गईं थीं। यहाँ सभी के मारे जाने से टीवी प्रसारण, इंटरनेट एवं मोबाइल आदि की सुविधा देने वाले नहीं बच पाने से, बाहरी दुनिया से कोई संपर्क और समाचार, बच नहीं रह गया था।
मुझे ध्यान आया था कि मैं, अपनी सुंदरता, सुरीली आवाज में गायन से आत्ममुग्ध रहती थी। औरों द्वारा की जाती, अपनी कुशाग्र बुध्दि की प्रशंसा पर, अभिमान किया करती थी।
अब मुझे अनुभव हुआ था कि अपनी विशिष्ठताओं पर, अनुमोदना और प्रशंसा करने को जब कोई और न हो तो, रूप, सुरीला स्वर और बुध्दमानी स्वतः महत्वहीन रह जाती है।
पार्क, गेम्स, आरामदेह घर-बिस्तर, खाने पीने की तरह तरह की सामग्रियों से भरे मॉल एवं एक से एक परिधानों की उपलब्धता में भी, मेरा मन नहीं लग रहा था।
मुझे खेद हुआ कि क्योंकर मैंने, उस जँगली वृक्ष से रिसते तरल का सेवन, संक्रमण फैलने वाले दिनों से करना शुरू किया था। क्यूँ , मेरे कहने के बाद भी, मेरे परिजन ने मेरे आइडिये की उपेक्षा की थी।
कदाचित उस तरल का सेवन मुझे संक्रमण से बचा पाया था। अगर मैं उसका सेवन नहीं करती तो शायद मैं भी, अब तक मारी जाती। और इस विडंबना से बचती, जिसमें मेरे आँसू पोंछ देने वाला कोई नहीं था और ढाँढस देने को कोई आता नहीं था। 
यहाँ की स्थिति देखते हुए मुझे यूँ लग रहा था कि कोविड-19 ने यूँ ही मौत का ताँडव शेष विश्व पर भी मचाया होगा।
तभी मेरे नकारात्मक विचारों की तंद्रा, उस युवक के सकारात्मक शब्दों के स्मरण ने, भंग की थी। जो उसने कहा था, वह मुझे याद आया था।
इससे मुझे एक तरह की, मानसिक शक्ति मिली थी। मैंने तय किया कि दुनिया के जिस भी हिस्से में, कुछ भी पुरुष-नारी मिलते हों, वहाँ की खोज पर मुझे, निकलना चाहिए ताकि, इस धरती पर मानव जाति के विलुप्ति के खतरे से लड़ने में, मैं अपना योगदान दे सकूँ।
इस हेतु 'मुझे कुछ अदद पुरुष-नारी की जरूरत थी। फिर वे चाहे कोई भी भाषाभाषी हों। चाहे, किसी मनुष्य नस्ल के हों। चाहे, किसी धर्म के मानने वाले हों। उनका खानपान, चाहे जैसा हो। उनकी शक्ल सूरत, चाहे कुरूप ही हों। इन बातों का अब, मेरी नज़र में, कोई महत्व नहीं रह गया था। ' 
अब मुझे किसी पुरुष से संबंध की तीव्र उत्कंठा थी। यह उत्कंठा, नेट-सिनेमा आदि और हमारे जोड़ों में प्रचारित, सुख से प्रेरित नहीं थी। वरन, औलाद जन्मने की चाह से प्रेरित थी। जो बकौल उस युवक - मानव जाति के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए आवश्यक थी।
मैं, नेवल इंजीनियरिंग की विद्यार्थी रही थी। मानव जाति के अस्तित्व रक्षा के संकल्प ने मुझे, व्दीप तट पर लावारिस खड़े जहाज में, अपनी संभावना के दर्शन कराये थे।
तब मैंने, वैन और कैन की सहायता से जहाज में फ्यूल , भोज्य , मेडिसिन , कपड़े आदि दैनिक जरूरत की सामग्री लादी थी, और अपने जहाज चालन की अल्प शिक्षा का प्रयोग कर, अपने प्रयोजन की पूर्ति की खोज में, जहाज को समुद्र में उतार, अनदेखी मंजिल की ओर मैं बढ़ चली थी। 
जहाज ने किसी तरह चलना शुरू कर दिया था। 
मेरे दिमाग में तब यह विचार कौंध रहा था कि-
कैसे! 'एक वायरस ने अपना कहर बरपा कर, मानव सभ्यता के विकास के क्रम में मानव मस्तिष्क पर चढ़ा दीं गईं, सारी परतों को नष्ट कर दिया था। 
मैं, धर्म, नस्ल, जाति, भाषा, देश, रूप, धन, पढ़े लिखे और अन्य अनेकों भेद का, इस समय कोई महत्व अनुभव नहीं कर रही थी। 
मेरा लक्ष्य सिर्फ इस हेतु, अपना जीवन बचाये रखना था, कि इसके होने पर ही, संतान पैदा करने में योगदान देकर, मनुष्य जीवन चक्र को बरकरार रख सकने में, मैं सफल हो सकती थी। मेरा जहाज मेरे संकल्प प्राप्ति की दिशा में विशाल जलराशि पर तन्हा बढ़ता जा रहा था। 
मुझे मेरा जीवन नारी रूप मिला था, जो ही, अपने ममता, करुणा और दया बोध से मनुष्य संतति के बारे में एक माँ जैसा विचार और आचरण कर सकती थी। 
इस समय, मैं स्वयं आगे आने वाली मनुष्य जाति की, धरती माता जैसी माँ, कहलाने का गौरव अर्जित करने की तीव्रतम अभिलाषी थी।  
कालांतर में यह पता चलने वाला था कि मैं अपने प्रयोजन में सफल होती हूँ भी या नहीं ...       
-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23.03.2020

Saturday, March 21, 2020

आवरण - चमगादड़!

आवरण - चमगादड़!

(कपोल कल्पित नकारात्मक कहानी, सकारात्मक संदेश ग्रहण किये जाने की अपेक्षा से रचित)

चमगादड़ हमारे भोज्य में नया नहीं था। दीर्घकाल से हम इसका सेवन कर रहे थे। चमगादड़, प्रचारित किये गए कोरोना वायरस का जनक नहीं था।
अपने विध्वंसकारी लक्ष्य में हमारी लापरवाही को हमने चमगादड़ का आवरण देकर प्रचारित कर दिया था।
दरअसल हमारे शासक साम्राज्य विस्तार (Imperialism) लोलुप रहे हैं। जो विश्व में अपने साम्राज्य विस्तार की हसरत के लिए अपनी सेना की मारक क्षमता किसी भी अन्य देश से ज्यादा रखना चाहते रहे हैं। इसी श्रृखंला में सैन्य  ताकत में अन्य परंपरागत हथियारों के साथ वे जैविक हथियार जोड़ कर अपनी सेना को दुश्मनों पर भारी करना चाहते रहे हैं।
मैं जैविक हथियार पर काम करने वाली अति गोपनीय टीम का प्रमुख वैज्ञानिक हूँ। आज से छह माह पूर्व मुझे ऐसे वायरस पर काम करने का आदेश मिला था जिसका टीका (Vaccine) और उपचार खोजे जाने के पूर्व ही जिसे फैला कर दुश्मन देश में उसे सर्वव्यापी महामारी (Pandemic) में उलझाया जा सके।
हालाँकि मैं, व्यक्तिगत रूप से साम्राज्यवादी (Imperialism) विचारधारा से सहमत नहीं था। किंतु अन्य नस्ल एवं कौम से एक तरह की नफरत होने से मुझे, हमारी नस्ल और कौम (Racial & Sectarian Discrimination) का वर्चस्व अन्य पर देखना मुझे पसंद था।
आदेशाधीन और व्यक्तिगत रूप से अन्य नस्ल के प्रति अपनी नफरत के वशीभूत मैंने, तब से अपनी आठ वैज्ञानिक की गुप्त (Secret) टीम एवं पचास अन्य सहायकों को लेकर इस पर काम करना शुरू किया था।
हमारा अन्वेषण इतना गोपनीय रखा गया था कि सहायकों को भी उद्देश्य का पता नहीं था। वे यह जानते थे कि हमारी टीम गंभीर रोगों के टीका और दवायें आविष्कृत करती है।
सर्वव्यापी महामारी (Pandemic) के लिए वायरस के प्रयोग/परीक्षण के लिए, हमें सरकार ने ऐसा कैदी उपलब्ध कराया था, जिसे फाँसी दी जाने वाली थी।
हमने उसे जानबूझकर बहुत सी  गंभीर बीमारियों के लिए जिम्मेदार वायरसों से एक साथ संक्रमित (Infected) कराया था। फिर परीक्षण के जरिये उसके शरीर में ऐसे वायरस को देखा था जिसकी पूर्व में कोई पहचान नहीं (Unidentified) की जा सकी थी।
इस नए वायरस को मैंने कोरोना (Coronavirus) नाम दिया था और संरक्षित कर उसके टीका पर खोज आरंभ की थी। मगर वह कैदी कोरोना संक्रमित होने पर चार ही दिन में मर गया था।
मुझसे और सरकार से तब एक मूर्खता हुई थी। कैद में मर जाना बताकर, उसके मृत शरीर को उसके परिजन को सौंपा गया था। जिसके कारण उसके दफन क्रिया में शामिल परिजन और अन्य कोरोना संक्रमित हुए थे और दो दिनों में ही गुणात्मकता (Exponentially) से इसका शहर में संक्रमण व्यापक हो गया था।
अब हम पर उसके औषधि और टीका शीघ्र खोजने का बेहद मानसिक दबाव हो गया था। अन्यथा अन्य के विनाश के प्रयोजन से लाया वायरस खुद हमारी नस्ल के लिए घातक साबित होने वाला था
हमें इस रिसर्च के लिए तीन अन्य कैदी उपलब्ध कराये गए। हमने हमारे लैब में संरक्षित कोरोना वायरस से इन्हें संक्रमित किया था एवं अपने प्रयोग आरंभ किये थे।
इस बीच एक सप्ताह के भीतर ही शहर में महामारी फ़ैल गई थी। हजार से अधिक हमारे लोग इस बीच मारे गए थे। और कई हजार अन्य संक्रमित हो गए थे। अस्पताल और कब्रिस्तान पर एकाएक बढ़ा दबाव क्षमता से अधिक था। चिकित्सा पेशे से जुड़े लोग स्वयं घातक दायरे में खुद अपने जीवन के लिए संघर्ष को बाध्य हो गए थे। इधर हमारे प्रयोग के लिए उपलब्ध कैदियों पर संक्रमण के प्रभाव और विभिन्न औषधियों के प्रयोग का हम दिन रात अध्ययन कर रहे थे। संक्रमण के लक्षण एक कैदी में दो दिन में, दूसरे में आठ दिन में एवं तीसरे पर चौदह दिन में दिखाई देने शुरू हुए थे। 
पहले कैदी ने दसवें दिन ही निमोनिया से दम तोड़ दिया था। चौदह दिन में दूसरे की हालत गंभीर हुई थी। लगने लगा था यह भी दो-तीन दिनों में ही दम तोड़ देगा। हमारे प्रयोग, उपचार ढूँढ ही नहीं पा रहे थे। सत्रहवें दिन दूसरा कैदी भी मौत से हार गया था। तीसरे पर कम घातक प्रभाव का कारण उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immunity) ज्यादा होना लग रहा था। सत्रहवें दिन इतना ही नहीं हुआ था अपितु हमारे दुर्भाग्य से, स्वयं मुझ पर एवं हमारी टीम के कुछ सदस्य/सहायकों पर भी संक्रमण के लक्षण (Symptom) दिखाई पढ़ने लगे थे। हमारे द्वारा बरती जा रहीं सावधानी नाकाफी सिध्द हुई थी।
इस वायरस की इस भयावहता का पूर्वानुमान हमें नहीं हुआ था। मूर्खता यह भी की थी कि भयावहता से निपटने (Crisis management) की पूर्व तैयारी (आपदा प्रबंधन) भी नहीं की थी।
मानवता के दायित्वों अधीन हमारे अनुसंधान प्राकृतिक प्रकोप से बचाव को लेकर किये जाने चाहिए थे। इसके विपरीत हमने मानव निर्मित प्रकोप उत्पन्न करने चाहे थे। कहते हैं विनाश काल में बुध्दि विपरीत हो जाती है। इस विपरीत बुध्दि का परिचय देते हुए हमने आत्मघाती भूलें कीं। अपनी खोजों में लगे रहते हुए हमें स्वयं को अन्य स्वस्थ लोगों से पृथक करना चाहिए था ( (Isolate /Quarantine) रखना था, हमने वह सावधानी नहीं की थी
मैं संक्रमित होना मालूम पड़ जाने पर भी घर आता जाता रहा था। मुझे पत्नी से दूरी रखने का विचार आया था कि संक्रमण उस तक नहीं पहुँचे। लेकिन फिर मुझ पर निपट स्वार्थ हावी हुआ था।
मैंने सोचा अगर मैं मर गया तो मेरे लिए क्या पत्नी क्या बच्चे! मेरी इस स्वार्थ (Selfishness) प्रवृत्ति एवं कामवासना के वशीभूत मैंने, पत्नी से एक रात में ही तीन बार संबंध का सिलसिला बनाया था। यह तीन रात ही चला था कि मेरे पर वायरस प्रकोप अत्यंत बढ़ गया था।  चौथी रात मुझमें शक्ति नहीं बची थी। घर में मेरे बेटे एवं मेरी पत्नी पर भी संक्रमण के लक्षण दिखाई पढ़ने लगा था।
कदाचित हम स्वस्थ होते तो अपने अनुसंधान में सफल होकर कोरोना के टीके एवं इलाज खोजने में सफल होते मगर हम गंभीर अवस्था में पहुँचते हुए अपनी दिमागी और शारीरिक सक्रियता खोते जा रहे थे।
पिछले दिन मेरे टीम में मेरे मित्र से चर्चा हुई थी। हम दोनों ने ही माना था कि शायद हमारा स्वयं इस वायरस के घातक प्रभाव से बचना (Survival) मुश्किल है।
उसने यह भी बताया था कि
 'जब वह खुद ही मारा जा रहा है तो क्यूँ ना वह संक्रमण जिन्हें पसंद नहीं करता उन तक फ़ैला कर उनका भी मरना तय करे!' अपनी हैवानी हिंसकता एवं इस कुत्सित विचार से वह जानबूझकर, पिछली रात उस संप्रदाय के धर्म स्थान और उनके मोहल्ले गया था। ताकि रोग का विस्तार उन्हें घेरे में ले और ज्यादातर वे लोग संक्रमित हो कर अपने परिवार मित्रों तक यह संक्रमण फैलायें।
मेरे अंदर की नफरत और हैवानियत ने, तब अपनी गंभीर हालत में भी, इसे सुन कर कुटीलता की मुस्कान, मेरे ओंठों पर लाई थी।
कल ही हमने अपने लोगों के बचाव के लिए संक्रमण से बचाव के लिए 'क्या करें और क्या नहीं' (Do's and Don'ts) प्रसारित करवाई थी।
न्यूज़ चैनेल से हमें पता चला था कि
'मुनाफ़ा लालच में लोगों ने मास्क तथा हैंड वाश (Mask & Sanitizers) की कालाबाज़ारी शुरू कर दी थी। हमारी तरह, उन बेवकूफों की बुध्दि भी नष्ट हो गई थी। 'क्या कर लेंगे पैसों का अगर मर जाएंगे तो', यह वे समझ नहीं रहे थे। आज मैं मर जाने वाला हूँ मृत्यु शय्या (Death bed) पर अंतिम क्षणों में मेरी मानवता ने सिर उठाया है। वह मुझे धिक्कार रही है - लेकिन अब पश्चाताप से लाभ कुछ नहीं है।
मुझे अंतिम विचार यह आया है कि,
हिंसात्मक प्रवृत्ति, साम्राज्यवाद, नस्लवाद, नफरत, स्वार्थ, धन लोलुपता, कामान्धता आदि का हम पर हावी होना, कोरोना वायरस के वाहक बनेंगे जो मानव प्रजाति (Human species) के विनाश के लिए उत्तरदायी होगा। शायद हमारी मानव उन्नत जीवन शैली यहाँ मिट जायेगी। क्या भगवान ने धरती पर कोई देवदूत भेजा है, जो इस भीषण आशंका (ShatteringThreat) को पलट सके?
फिर, मैंने अंतिम श्वाँस भरी है ... 

-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22.03.2020


Wednesday, March 18, 2020

मेरे वज़ूद को जानने की गर जुस्तजू
तो खुद को पहले पहचान लीजिये
आसां होगा फिर समझना मुझको
कि जो तुममें वही सब मुझमें भी है

Tuesday, March 17, 2020

नफरत के इतिहास पृष्ठ उलट उलट न पढ़िये
नफरत की नई इबारतें न तुम बनिये
सबके सुखमय जीवन अभिलाषी यहाँ की कौमें
सीख जीव दया, जीने दें इन्हें व प्रेम से खुद रहिये

Thursday, March 12, 2020

यूँ तो
लिखा गर पढ़ा ना जाये लिखना व्यर्थ होता है
मगर तू लिख कि
अच्छाई के लिए लिखने का यत्न, रत्न तुल्य होता है