Tuesday, May 30, 2017

स्वयं जियो - उसे भी तुम जी लेने दो ना ...

स्वयं जियो - उसे भी तुम जी लेने दो ना
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हवा नहीं 'गैर मुस्लिम-मुस्लिम' उसे लेते छोड़ते
यही भेद क्यों करते रहते हो???
जल नहीं होता 'पुरुष-नारी' ,उसे पी पी कर
यह भेद क्यों करते रहते हो????
जीवन मिला तुम्हें मनुष्य का तो
मानवता से क्यों नहीं रहते हो????
धरती पर नहीं कोई भेदभाव लकीरें
खींचकर तुम ,क्यों देश-विदेश इसे करते हो???
पैसे -रूप के तुम्हारे किस्से छूट सब जाते यहीं पर
क्यों फिर किसी को हीन देखते हो???
औरों के दिल को समझने की फुरसत मिलती तुम्हें तो
अरमान समान दिख जाते उनके भी
जन्म और मृत्यु के एकसे लक्षण फिर भी
धर्म तेरा-मेरा करते रहते हो???
स्वयं जियो - उसे भी तुम जी लेने दो ना
तुमसा ही जीवन उसे भी मिला है
--राजेश जैन
31-05-2017

Thursday, May 25, 2017

बाहुबली ..

बाहुबली ..
बहुत सुनने /पढ़ने के बाद 2 दिनों में बाहुबली 1 और बाहुबली 2 बारी बारी से मैंने देखी। मूवीज देखने में लगे 6 घंटे अखरे नहीं। कल्पनायें , उसका पिक्चराइजेशन , अभिनय , भव्य सेट्स और कहानी में लय सभी खूबसूरत रही। आलेख इस तारीफ़ के ख्याल से नहीं लिख रहा हूँ बल्कि सब कुछ देखने के बाद जो प्रश्न दिमाग में आये उसकी चर्चा के लिए लिख रहा हूँ.
दोनों ही पार्ट (मूवीज) को देखते हुए दर्शक के मन को अमरेंद्र , महेंद्र की अविश्वसनीय शक्ति ,शूरवीरता , कटप्पा की आज्ञाकारिता , शिवगामी के त्याग , देवसेना की सुंदरता आदि अत्यंत प्रभावित करती है। साथ ही भल्लालदेव और उसके पिता के लिए घृणा उत्पन्न करती है। कल्पनातीत कहानी में राज परिवार के कुछ सदस्यों की महत्वकाँक्षा ,हवस , अहं और जिद के खातिर जनता और सैनिकों की जिस तरह और जितनी मात्रा में मारकाट दिखलाई गई है उतनी मारकाट को देखने पर भी हमारे मन में ,मारे गए के परिवार के प्रति दुःख की वेदनीय अनुभूति और उसका जरा भी विचार नहीं आता है. हम दर्शक उसे सहज देखते हैं ।
ऐसी मारकाट को देख -पढ़ एवं भुगतने पर भी दुःख - वेदना का उत्पन्न न होना ही दुनिया में व्याप्त अनवरत हिंसा का कारण है। हम अंधश्रृध्दा और अंधभक्ति में किसी से इतने प्रभावित होते हैं कि उसके किये हिंसात्मक कार्य की भी समालोचना नहीं करते हैं।
क्या, अमरेंद्र एवं महेंद्र बाहुबली का बचाव में हिंसा का अपनाया मार्ग ही एकमात्र विकल्प होता है ?? मेंरे विचार से नहीं। जितनी अविश्वसनीय शारीरिक शक्तियाँ बाहुबली में दिखाई गई और उसे हीरो स्थापित किया गया , उसके स्थान पर उसे मानसिक शक्तियों से सम्पन्न दिखला कर भी हीरो बताया जा सकता था। जो घृणा के कार्यों के आदी भल्लालदेव , बिज्जलदेव को अपनी तर्कशक्ति से प्रभावित कर सुधारने में सक्षम हो सकता था और अपने विश्वसनीय और प्रेम के व्यवहार और सहयोग से वह अपने शत्रुओं को मन जीत , उनमें मित्रता के भाव पैदा कर सकता था । किंतु , तब फिल्म में एक्शन के स्कोप नहीं होते और दर्शक मूवीज को वह जिज्ञासा ,ध्यान और धन नहीं देते । इसलिए मूवीज ऐसी बनती रहेंगी। हम ,हिंसक किंतु हमारे मन को प्रभावित करने वालों के समर्थक बनते रहेंगें।
ओसामा बिन लादेन (हिंसा और नफरत के कार्यों में लिप्त हैं ) तरह के लोगों से हमें नफरत और ओबामा तरह के लोग (जो हिंसा से हिंसा की रोकथाम के तरीके ढूँढते हैं ) को हम हीरो मानते रहेंगें। मानव प्रजाति को शीघ्र ही समझना होगा कि हिंसा और प्रति हिंसा के सिलसिले यदि यों ही चलते रहे तो नफरत दिलों से कभी ख़त्म नहीं होगी। साथ ही मनुष्य के मन की सुख शांति के जीवन की सहज चाह हमेशा अधूरी रहेगी। चिंता और तनाव कायम रहने से हम कभी भी जीवन और उसमें चरम आनंद को अनुभव नहीं कर सकेंगे उससे हमेशा वंचित ही रहेंगे. हमें हिंसा का समाधान प्रति हिंसा में नहीं - अपितु प्रेम और विश्वास के स्थापना  में खोजना और करना होगा। हर हमारी प्रस्तुतियों और मूवीज में भी इसी  प्रेरणा को स्थान देना होगा.
--राजेश जैन
26-05-2017

विश्वास के रिश्ते की बुनियाद ...

विश्वास के रिश्ते की बुनियाद ...

पड़ोस के मुस्लिम परिवार की छह -सात वर्षीया बेटी ने उसे सुबह वॉक पर से वापिस आते हुए , रोक बताया था कि पापा बाहर गए हैं और मम्मी की रात भर से तबियत ठीक नहीं , सोईं नहीं हैं। अभी आता हूँ , कह कर वह घर तक आया और पत्नी से बताया पत्नी ने कहा , उस बच्ची के कहने पर उनके घर जाना ठीक नहीं , मालूम नहीं क्या सोचे? वह नहीं गया था। पड़ोस में पहले उनसे नाते में ना तो प्रेम था ना ही बैर , लेकिन अपेक्षा की इस उपेक्षा के बाद से एक तरह का बैर सा परिलक्षित था , जैसा मुस्लिम और गैर मुस्लिम के बीच में आम तौर पर मन में होता है।
जी , हाँ - कहानी यह हो सकती थी , लेकिन -नहीं , कहानी ऐसी बनी थी -
बच्ची के कहने पर वह उनके दरवाजे पर गया - बच्ची के बताने पर , बड़ी बहन जो 12-13 वर्ष की थी , वह सामने आई ,उसने भी यही बताया - साथ ही परेशानी बताई कि संडे होने से उनके डॉक्टर से भी बात नहीं हो रही है . इसी बीच पीड़ा में के कारण ,संकोच से उबर कर , उनकी माँ आई , उनके चेहरे पर वेदना स्पष्ट थी . उसने महिला से तकलीफ का ब्यौरा लिया फिर - अपने डॉक्टर से मोबाइल पर बात की उन्होंने कहा आधे घंटे में पेशेंट को लेकर आ सकें तो वे जाँच कर लेंगें , नहीं तो बाद में उन्हें बाहर जाना है . उन्हें तैयार होने के लिए उसने कहा फिर 10 मिनट बाद वह अपनी कार में महिला और उनकी बड़ी बेटी को लेकर डॉक्टर के यहाँ गया। उन्होंने जाँच के बाद एक दिन की दवायें लिखी - एक इंजेक्शन लगाया और दूसरेदिन के लिए कुछ इन्वेस्टीगेशन /टेस्ट के लिए बताया। लगभग डेढ़ घंटे के वक्त में उस परिवार की चिताओं और परेशानी का हल निकाल उसे संतोष अनुभव हुआ। दूसरे दिन महिला के हस्बैंड आ गए थे , फिर उसे कोई और मदद करने की जरूरत नहीं पड़ी।
संडे के दिन के उन डेढ़ घंटे का प्रयोग उससे बेहतर कोई और नहीं हो सकता था। पड़ोस में रहते हुए पहले उनसे नाते में ना तो प्रेम था ना ही बैर था लेकिन - मदद के उस कार्य ने उनके परिवार में एक प्रेम और विश्वास के रिश्ते की बुनियाद रख दी थी .दुनिया में मानवीय जीवन दृष्टि से ,मुस्लिम और गैर मुस्लिम में जिस बात की बहुत जरूरत है - जिससे अमन -चैन स्थापित किया जा सके उस दिशा में उसने कदम बढ़ाये थे .
--राजेश जैन
25-05-2017

Tuesday, May 9, 2017

रूही-जूही ..


रूही-जूही ..
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जुड़वाँ बहनें हैं ,रूही-जूही। शायद भगवान द्वारा गढ़ने का समय सुबह चार बजे का होगा। जूही को अंधकार की कालिमा , और रूही को भौर का स्वर्णिम वर्ण मिला था। अँधेरे में किये कार्य की त्रुटियाँ जूही के , और उजाले की उत्पत्ति - परिपूर्णता रूही के नयन-नक्श पर दर्शित थी. सुंदरता में अंतर के होते हुए भी मम्मी -पापा के लाड-दुलार में रूही-जूही के लिए कभी कोई अंतर नहीं था। थोड़ी बड़ी होने पर रूही-जूही जब थोड़ा समझने लगीं , तब बाहरी लोगों की रूचि रूही में और उपेक्षा जूही में , दोनों अनुभव करने लगीं। जूही इस बात से उदास सी होती , जिसे रूही अनुभव कर बहन के लिए दुःखी होती थी । और थोड़ी बड़ी हुई तो रूही को लोगों के अपने प्रति आकर्षण में उनकी नीयत का खोट दिखाई देने लगा। तब कई बार उसके मन में रूप वरदान है या अभिशाप इस पर संशय रहा करता था।
ग्यारहवीं क्लास में रूही ने बाटनी (वनस्पति विज्ञान) में पौधों के बारे में पढ़ा - कि पौधों के द्वारा कार्बनडाय ऑक्सीइड लेने और ऑक्सीजन छोड़ने के कारण प्राणी जगत के लिए ,पौधे -वृक्ष उपयोगी होते हैं। इस जानकारी को रूही की कुशाग्र बुध्दि ने अपने और जूही की समस्या से लिंक कर लिया। रूही को प्रतीत हुआ कि गुलाब का पौधे की यूँ तो उपयोगिता कार्बनडाय ऑक्सीइड लेने और ऑक्सीजन देने से ज्यादा है। लेकिन लोग उसमें खिले सुंदर फूलों के लिए लगाते हैं। और बाहरी लोग पौधे पर निखर आये सुंदर फूलों को नोच-तोड़ लेने की टोह में रहते हैं।
रूही ने एक दिन जब जूही को उदास देखा तब उसे इस प्रकार से समझाया -
देखो जूही , जिस तरह गुलाब के पौधे पर सुंदर पुष्पों का होना जिस प्रकार से अस्थाई होता है , वैसे ही सुंदर नारी की सुंदरता भी अस्थाई ही होती है। जिस प्रकार माली के लिए गुलाब के पौधे सुंदर पुष्पों के होने या न होने पर भी समान महत्व के होते हैं। उसी प्रकार जो अपने होते हैं उन्हें हमारा सुंदर होना या न होना अप्रिय नहीं होता। जो बाहरी लोग सुंदरता के पुजारी हैं वे उस दिन तक ही हमारे आसपास मंडराते हैं जब तक हम पर यौवन और रूप होता है। लोगों की इस प्रवृत्ति से अप्रभावित हो हमें मनुष्य होने के वरदान को समझना चाहिए। और जीवन में योग्यता हासिल करना प्रमुख करते हुए - बुराइयों से अप्रभावित रह अपना योगदान परिवार और समाज की अच्छाइयों के लिए करना चाहिए। यही मनुष्य होने की उपयोगिता होती है।
--राजेश जैन
10-05-2017
https://www.facebook.com/narichetnasamman/

Wednesday, May 3, 2017

भारत - पाकिस्तान के बीच दुश्मनी

भारत - पाकिस्तान के बीच दुश्मनी
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अख़बार वाले को देख सामने अपार्टमेंट में एक कुत्ता , रोज भौंका करता है। इस कारण अख़बार वाले को रोज पत्थर उठाना पड़ता है। आज जब अखबार वाला आया , कुत्ता सामने सो रहा था। उसने - थोड़ी शांति से अखबार डाले - इस बीच कुत्ता जाग गया . वह अखबार वाले को देख - धीरे से एक तरफ चला गया। अच्छा लगा यह देख कि आज अख़बार वाले को पत्थर उठाने की जरूरत नहीं पड़ी।
भारत - पाकिस्तान के बीच दुश्मनी - हमारे इस अख़बार वाले और उस गली के कुत्ते जैसी ही है।
--राजेश जैन
04-05-2017

काजल

काजल
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14 -15 साल की होगी काजल , नानी के साथ घर के काम करने निकलती है. शिक्षा के महत्व से इस उम्र में अनजान है। नवमी तक पढ़ के पढ़ाई छोड़ चुकी है। पढ़ा भी ऐसा है कि अखबार तक ठीक से पढ़ नहीं सकती। पूछा - और क्यूँ नहीं पढ़ती? कहती है समय नहीं मिलता। पूछा - कितने बजे घर पहुँचती हो ? कहा - दो बजे। पूछा - फिर क्या घर के काम करती हो ? कहा - हाँ। फिर पूछा - टीवी देखती हो? कहा - हाँ , बहुत पसंद है।
ना ही छोटी बालिका को समझ - ना घरवाले समझ रहे हैं कि क्या उसके जीवन के लिए भला है। सरकारी ग्रामीण स्कूल भी - पढ़ाने की एक औपचारिकता बस पूरी कर रहे हैं। काजल - जिंदगी को / भले-बुरे को बहुत कुछ टीवी देख समझेगी - जिस में सामग्री , कहीं भी शिक्षाप्रद / सँस्कार देने वाली नहीं है। नचैया - गवैय्या - फूहड़ कॉमेडी /सेलिब्रिटी - और अर्द्धनग्नता दिखा - लोकप्रियता और पैसा कमाने वाले सब लोग हैं। समझ सकते हैं कोई उच्च सोच /शिक्षा और संस्कृति तो नहीं दे सकेगें ये सब काजल को।
--राजेश जैन
04-05-2016