Tuesday, September 30, 2014

वो अच्छा नहीं है .

वो अच्छा नहीं है .
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अच्छा , सबके लिए अलग -अलग हो सकता है। इसलिए जिसे अन्य अच्छा कहें /मानें वो आपके लिए भी अच्छा ही हो कदापि आवश्यक नहीं है।
लेकिन कुछ "अच्छा" ऐसे होते हैं जो अपवाद में सबके लिए ही निश्चित अच्छा होता है। सर्व मान्य "अच्छा" क्या हैं ?


बच्चा भी इसे अच्छा जानता है
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बच्चा 8-10 वर्ष का होता है ,वह अगर अपने पिता का, अन्य नारी से या माँ का ,अन्य पुरुष से  शारीरिक संबंध होना देखता है या ऐसी नीयत (आकर्षण) अनुभव करता है तो उसे अच्छा नहीं लगता। उसे अच्छा तभी लगता है जब उसके पिता और माँ इस विषय में परस्पर निष्ठावान हों।
इस उम्र का बच्चा (बेटी या बेटा) , भारतीय संस्कृति का जानकार नहीं होता तब भी आरम्भिक समझ में भी पति -पत्नी की आपसी निष्ठा को ही अच्छा मानता है।  मनुष्य परिवार में रहता है , इसके लिए यह अच्छा , प्राकृतिक अच्छा होता है।


कोई हमें ठगे ,यह हम अच्छा नहीं मानते
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व्यक्तिगत राय ली जाये तो सर्वमान्य राय यही होगी - "कोई हमें छले /ठगे ,यह हम अच्छा नहीं मानते हैं" । स्पष्ट है छला या ठगा जाना अच्छा नहीं होता।  अच्छा निच्छल या निष्कपट होना होता है।


हम दोषी हैं
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जिसे हम अच्छा नहीं जानते वह अच्छा हम नहीं करते हम दोषी तब नहीं हैं।  लेकिन जिसे हम अच्छा मानते हैं किन्तु वैसा अच्छा स्वयं नहीं निभाते हैं तब हम दोषी होते हैं।


वैवाहिक जीवन में माँ -पिता का एकनिष्ठ ना होना हमें पसंद नहीं था किन्तु हम अपने दाम्पत्य जीवन में विवाहेत्तर संबंधों के तरफ आकर्षित होते हैं या रखते हैं।  हम दोषी हैं समाज में यह बुराई हमसे है।
प्रेम का दिखावा कर कुछ समय शारीरिक सम्बन्ध बनाये फिर धोखा दे चला जाए , ऐसा छला /ठगा जाना हमें पसंद नहीं होता है। लेकिन चलन से दुष्प्रभावित हो यही छल दूसरों से करते हैं। पुनः हम दोषी हैं समाज में यह बुराई हमसे है।


अपनी बारी इन बुराई में योगदान हम करते हैं। समय परिवर्तन के साथ जीवन में इस बुराई का शिकार जब हमारा कोई अपना होता है तब वेदना होती है। तब इस बुराई के लिये समाज पर दोष रखते हैं, क्यों ?


हम उन्नति नहीं कर रहे हैं , पिछड़ रहे हैं
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विज्ञान और भौतिक वस्तुओं का ज्ञान और जीवन में उस पर निर्भरता आज बड़ी है। आज हम तुलनात्मक प्राचीन समाज के मनुष्य जीवन से ज्यादा सुविधाजनक परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे हैं। "और भी सुविधा"  अपने जीवन में सुनिश्चित करें इस हेतु विज्ञान और भौतिक संसाधनों के प्रति ज्ञान लालसा और चिंतन हम पर हावी हो गया है।इस कारण नैतिक और मानवीय संवेदना विषयक चिंतन हममें कम हो गया है। दूसरे शब्दों में भौतिक और वैज्ञानिक रूप से अति उन्नत होने के साथ आज हम नैतिक और मानवीय दृष्टि से प्राचीन समाज के मनुष्य से पिछड़ रहे हैं।


सुविधा और भोग साधनों के ज्यादा विकल्प ना होने से , प्राचीन समाज  का मनुष्य आज की तरह अति व्यस्त नहीं था। विज्ञान और आधुनिक ज्ञान पाठ्यक्रम के ना होने से उसका चिंतन धर्म और संस्कृति पर होता था। यही कारण था जिससे आज से पिछड़े कहे जाते हमारे मनुष्य पूर्वजों ने मानवीय मनोविज्ञान को समझा और हजारों वर्षों के अनुभवों से सर्वकालिक मानव हित के धर्म, संस्कृति और परम्परायें स्थापित कर एक भव्य समाज सृजित किया। जिसमें न्याय , त्याग ,दया और मानवता विध्यमान थी।


उन्नति सर्वदिशाओं में करें वह वास्तविक उन्नति है। भौतिक और विज्ञान के पंडित हो जायें।  लेकिन विरासत में मिली भव्य समाज रचना और संस्कृति को ध्वस्त कर मानवता में पिछड़ जायें तो इसे उन्नति नहीं कह सकेंगे।


जीवन - वो अच्छा नहीं है
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होने को तो आलीशान ,वातानुकूलित भव्य शयनरूम और नरम बिस्तर होंगे , लेकिन शैय्या पर साथ निष्ठावान साथी ना होगा .  काम -आवेश के पल तो शायद सुखद लगें। फिर ना तो नींद आये और ना साथ पड़े धोखेबाज साथी को सहा जाये। कैसा जीवन सुख , कैसी उन्नति और उपलब्धि हम पायेंगे ? जीवन - वो अच्छा नहीं है .


अत्याधुनिकता (ULTRA MODERNITY)
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लिव इन रिलेशन पर जायें यह आधुनिकता विनाशी है । विवाह टूटने के प्रमुख कारण  1. छल के अस्थायी शारीरिक सम्बन्ध   2. विवाहेत्तर संबंधों के सम्मोहन से मुक्त हों।  मनुष्य का परिवार में जीवन यापन ही श्रेष्ठ और परीक्षित विकल्प है।  इस संस्कृति को बचाने का दायित्व हम सभी निभायें। यह पुरातनता ही अति आधुनिकता होगी।


--राजेश जैन
30-09-2014













Sunday, September 28, 2014

कैसे हम बहन , पत्नी या बेटी रक्षक

कैसे हम बहन , पत्नी या बेटी रक्षक
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बहन की रक्षा का वचन रक्षा सूत्र -बंधन में , पत्नी के रक्षक का दायित्व , विवाह के समय वचन में और बेटी की रक्षा का भार उसके पिता बनने के साथ हर पुरुष पर हमारी संस्कृति से होता है , हम निभा पाते हैं उसे ? विचार करने के लिए साहित्यकार के शिष्टाचार के साथ कुछ उल्लेख इस लेख में प्रस्तुत हैं।

खिले मुख बुझ जाते हैं
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दो युवतियाँ राह में जा पैदल जा रही हैं , दोनों आपसी बातों में मगन और आनंदित हैं इसमें उनकी राह खिले  मुख के साथ कट रही है।  तब उनके सामने से कुछ युवक क्रॉस करते हैं , कुछ उनसे कहते हैं।  आगे की राह में युवतियों के मुख बुझे हुए होते हैं।

आत्मविश्वास खो जाता है
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एक वर्किंग लेडी ,स्कूटी में खराबी से सिटी बस से आज ऑफिस जा रही है , चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा है , तब आगे निकलने की कोशिश दर्शाता एक प्रौढ़ पुरुष, हरकत करता है। बाद के सफर में उस आत्मविश्वासी नारी मुख से आत्मविश्वास खोया होता है।

कल्पना बिखरती -सपने टूट जाते हैं
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पिता सयानी हुई पुत्री का विवाह करते हैं , बेटी सुखद संसार की भिन्न भिन्न कल्पनाओं के साथ और जीवन सपने लिये पति के घर में आती है।  कुछ दिनों में उसे ज्ञात होता है , पति कामावेग बढ़ाने के कृत्रिम उपाय करता है , और कई भटकी युवतियों से सबंध रखता है। इस नव ब्याहता की कल्पनायें बिखरती हैं और जीवन सपने टूट जाते हैं।

पढने की मगनता में विघ्न आ जाता है
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बारहवीं क्लास में ब्रेक के पहले तन्मयता से टीचर द्वारा पढ़ाया जा रहा विषय पढ़ रही एक बेटी , लंच ब्रेक में मोबाइल पर कोई sms /mms देखती है , ब्रेक के बाद क्लास में उसका मन उचटा दिखता है उसकी मगनता में विघ्न स्पष्ट देखा जा सकता है।

ऐसे और कई तरह के किस्से (अपराध) हमारी बहन-बेटियों के साथ होते हैं , जिनके विरुध्द कार्यवाही या अपराध सिध्द करवा पाना कठिन होता है। घर में वे पिता ,भाई या पति जो उनके रक्षक होते हैं को इस भय से नहीं कहती की हरकत/छेड़छाड़ या चरित्र से बिगड़ा पुरुष उनके पिता ,भाई या पति पर भारी पड़ कर उन्हें क्षति पहुँचा सकता है।  ये अपराध , बहुत बड़े नहीं होते हैं , लेकिन नित होते हैं नारी के खिले मुख ,आत्मविश्वास ,सपने या पढने की मगनता को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। 

हममें से ही कुछ पुरुष , नारी की कमजोर शारीरिक शक्ति , और मानसिक करुणा (परिजन उनके कारण विपत्ति न ले बैठे ) के कारण छिपे तौर पर घटियापन करते हैं। कुछ नारी तो वीरता दिखा पाती हैं , और प्रतिरोध करती हैं , अधिकाँश प्रतिरोध का साहस नहीं कर पाती हैं। शक्तिशाली पुरुष कमजोर को शिकार बनाने की कायराना दुष्कर्म करते हैं। वह शक्तिशाली है या कायर है ?  इस तरह के पुरुष समाज में फैले पड़े हैं।  इनकी भी बहन -पत्नी और बेटी होती  हैं जो दूसरे इसी तरह के पुरुषों द्वारा ऐसे शोषण की शिकार होती हैं।

इसलिए विकराल यह प्रश्न उठता है , कैसे हम बहन , पत्नी या बेटी के रक्षक हैं ?

-- राजेश जैन
29-09-2014



Saturday, September 27, 2014

अनमैरिड प्रोफेशनल्स

अनमैरिड प्रोफेशनल्स
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स्पेशली वे जो मेट्रोस में भविष्य बनाने और धन कमाने , घर से दूर रहने जा रहे हैं। चाहे वे बेटे हों या बेटियाँ हों , हमारे जैसे किसी परिवार के। स्वयं उनकी तथा उनसे माँ -पिता उनके भाई -बहनों और परिजनों की कल्पना /अपेक्षा उनके सुखद ,प्रतिष्ठित और दूसरों के लिये अनुकरणीय तरह के व्यक्तित्व निर्माण की होती है।

घर से दूर जा रहा बेटा और बेटी , अपने माँ -पिता ,भाई -बहनों और परिजनों की चिंताओं को दूर करने के लिये उन्हें हर तरह से आश्वस्त करता है। परिजनों को उसमें शंका होती है , तब भी वे बेटे-बेटी के आश्वासनों पर विश्वास करते हैं। 

उनकी शंका अपने बेटे-बेटी की किसी कमी या खराबी के कारण नहीं होती (ऐसे कमी वाले बेटे-बेटी तो बाहर भेजे जाने की योग्यता ही प्राप्त नहीं कर पाते ). उनकी शंका क्यों होती है ,कि बेटे-बेटी से ऐसी गलतियां ना हो जायें ?  जिस के कारण विशिष्ट रही उनमें योग्यता के बाद भी उनका भविष्य और जीवन समस्याग्रस्त हो जाये। उत्तर, इस प्रश्न का पढ़ने वाले सभी जान रहें हैं।
माँ -पिता को बाहर के (मेट्रोस) के ख़राब चलन के कारण ये शंका होती है , इस ख़राब चलनों में उनका पाल्य परिवार के मार्गदर्शन और देखरेख से भी दूर रहता है , इसलिये उनकी आशंकायें बढ़ती हैं। ख़राब चलन तो अनेकों हैं।  दुष्प्रभावित अगर हो गए तो वो युवाओं का भविष्य , असाधारण उनमें प्रतिभा के होते हुए भी , बेहद साधारण से बुरा बना छोड़ सकता है।
बहुत से ग्रामीण माता -पिताओं को तो ख़राब चलन होते हैं , इतना ही मालूम होता है , लेकिन वे किस हद तक ख़राब हैं उनकी कल्पना भी उन्हें नहीं होती।  लेकिन प्रतिभावान अपने बेटे-बेटी के भविष्य की चिंता में और पढाई पर किये सामर्थ्य से अधिक व्यय का प्रतिफल बच्चों के जीवन में प्राप्ति के लिये वे खतरा उठाते हैं।

सभी युवा तो निश्चित ही भटकावे में नहीं पड़ते। उन्हें माँ-पिता अपेक्षा और अपने भले -बुरे का ज्ञान संस्कारों से मिला होता है। वे , आत्म -नियंत्रण से आसपास फैली अनेकों बुराइयों से अपना बचाव कर लेते हैं। अपनी प्रतिभाओं अनुरूप अपना जीवन ऐसा बनाते हैं जो ना सिर्फ परिवार अपितु समाज और राष्ट्र के लिए उपलब्धि होता है।  उनका जीवन अनुकरणीय होता है , जिसका अनुकरण कर दूसरे भी अपना हित करते हैं।

लेकिन कुछ युवा भटकावों और बुरे चलन की चपेट में आ जाते हैं। क्या हैं भटकावों के लिए मुख्य जिम्मेदार खराबियाँ जो मेट्रोस में सरलता से मिलती हैं?   अनेकों है लेख में सभी की चर्चा लेख को बोरिंग कर  सकता है।  एक प्रमुख का उल्लेख ही कर रहा हूँ।

युवा बेटे और बेटियाँ जब जॉब के लिये बाहर जाते हैं तब रहने के लिए , पुरुष -पुरुष (बेटे ) अलग और नारी (बेटियाँ) अलग रेंटल फ्लैट शेयर करते हैं।  मल्टी-नेशनल कंपनी'यों में वीक एंड दो दिनों का होता है। इन दिनों दो रातों में कुछ पुरुष , नारी वाले फ्लैटों में पहुँचते हैं या मित्रता के बहाने नारियों को अपने फ्लैट में डिनर को निमंत्रित करते हैं।

मौज मस्ती के नाम पर गेम्स , अच्छे स्वादिष्ट भोज्य तो वहाँ होते ही हैं , ड्रिंक्स और अश्लील वीडियो का भी प्रबंध वहाँ कर लिया जाता है।  जिन बेटे -बेटियों को ऐतराज होता है , उन्हें भी तानों और आधुनिकता और मौज मजे के नाम पर राजी कर लिया जाता है। रात्रि , ड्रिंक्स और अश्लील वीडियो के दुष्-प्रभाव में वे अपने पर पारिवारिक -नैतिक और सामाजिक दायित्वों को भुलाते हैं , रात्रि में साथ रहते हैं। प्रारम्भ में अगली सुबह अपनी रात में की करतूतों का पछतावा भी करते हैं।  फिर अभ्यस्त होने पर वह भी छोड़ते हैं।

भविष्य और जीवन पर इस स्वछंदता की बुरी परछाई क्या होती है , जो समस्या बनती है और सुख और प्रतिष्ठा का हरण करती है ?
भारतीय पुरुष (पति) परम्परा से पसेसिव स्वभाव का होता है ,अपनी पत्नी के प्रेम और सुंदरता पर एकाधिकार पसंद होता है।  ऐसे में भले ही दुष्प्रेरित कर उसने अनेकों युवतियों का दैहिक शोषण किया हो , उसे अपनी पत्नी पर इसी तरह की कुशंकायें सताती हैं , जहाँ पत्नी की कमाई तो चाहता है , किन्तु पत्नी के कार्यालीन साथी पुरुष से व्यवहार पर रुष्ट रहता है।  ये शंका उसे इसलिये रहती है कुछ नारियों के चरित्र बिगाड़ को प्रत्यक्ष उसने देखा / उसका स्वयं कारण रहा होता है। इस बुरे कर्म की छाया और भारतीय पुरुष पारम्परिक मानसिकता  उसके  दाम्पत्य जीवन का सुख चुरा लेती है।  वैवाहिक सम्बन्ध भी आजीवन नहीं चल पाते हैं।  और बच्चे माँ-पिता की संयुक्त छाया से वंचित होते हैं।

क्या Do's  और डोंट's होने चाहिये
Do's
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घर से आते माँ -पिता को दिये आश्वासनों अनुसार जिम्मेदार व्यवहार ,आचरण और कर्म
Dont,s 
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रात्रि पार्टी  , ड्रिंक्स (दोनों ही विशेषकर नारी ) , अश्लील वीडियो

--राजेश जैन
28-09-2014

Friday, September 26, 2014

अभिवादन

अभिवादन
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पाश्चात्य संस्कृति ने हमें प्रभावित किया . उसका हमारे समाज में निर्वाह होने लगा ।  अभिवादन करने की शैली हमारी बदल गई ।  एक हाथ उठा कर , सिर हिलाकर अभिवादन भारतियों ने भी करना अपना लिया।

अभिवादन करना तो कोई भी शैली हो अच्छा ही होता है।  लेकिन लेखक को लगा एक हाथ उठा कर या  सिर हिलाकर अभिवादन में उतनी विनम्रता नहीं झलकती जितनी , हमारी संस्कृति अनुसार दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन में झलकती है।  अतः कॉलेज समय में सीखी एक हाथ उठा कर या  सिर हिलाकर अभिवादन के स्थान पर लेखक ने हाथ जोड़कर अभिवादन करना आरम्भ कर दिया।

आपको अच्छा लगेगा यह जानकर कि इस ढंग से अभिवादन करने से, जिसे अभिवादन किया गया होता था , धीरे -धीरे उन्होंने भी प्रत्युत्तर में हाथ जोड़ना आरम्भ कर दिया। 

अगर कोई उनसे बोलता कि आप हाथ जोड़कर अभिवादन किया करें तो शायद वे इसे ना मानते।  लेकिन हमारे हाथ जोड़ने से उन्होंने हाथ जोड़ने में कोई हिचक नहीं दिखाई।

हमारे या सभी के विनम्र होने से समस्याये और परस्पर टकराव घटते हैं।  इसलिये विनम्रता अनुकरणीय होती है।  हमारी संस्कृति हमें विनम्रता सिखलाती थी।  अगर हमें इसे जीवित रखना है। तब अपने व्यवहार ,आचरण और कर्मों में पहले इसे स्वयं लाना होगा। तब दूसरे भी संस्कृति अनुरूप आचरण करना आरम्भ कर सकते हैं। 

अन्यथा , भारतीय संस्कृति पर चलो , उसे अपनाओ , सलाह या आज्ञा देना उतना प्रभावकारी ना होगा। ये वाक्य दूसरों को दिये जाने वाले उपदेश मात्र बनकर रह जायेंगे।  एक दिन ऐसा भी आ सकता है,  जब कोई उपदेश देने वाले से पूछे , क्या है ,"भारतीय संस्कृति ? तो उपदेशक ही निरुत्तर रह जाए।

-- राजेश जैन

मुस्कराहट

मुस्कराहट
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अभी कुछ नहीं बिगड़ा , लौटा के वह आदत ले आयें
सुबह भी हम हँसते उठे और शाम तक भी मुस्कुराएं


यह तब ही संभव है जब नित परोपकार हम करते हैं
परोपकार के साथ ही अपने पर उपकार हम करते हैं


अन्य अगर हमारे सहारे से मित्रों , जब मुस्कुराते हैं
अपने सुबहोशाम मुस्कुराने का इंतजाम हम करते हैं


--राजेश जैन
26-09-2014

Thursday, September 25, 2014

ज़माना दिखाता वही क्यों देखते हैं? ……… (3)

ज़माना दिखाता वही क्यों देखते हैं? ……… (3)
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प्यार
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प्यार की अनुभूति मधुरतम होती है. प्यार की महिमा इतनी होती है कि प्यार शब्द ही मिश्री की मिठास का बोध कराता है। जिनसे  प्यार हमें होता है उनसे हमारे बैर ,ईर्षा , प्रतिद्वंदिता ,कटुता और ह्रदय से दूरियाँ स्वतः समाप्त होती हैं।  जिनसे हम प्यार करते हैं , उनकी प्रसन्नता , प्रगति और सुरक्षा हमारी निजी प्रसन्नता का कारण बनता है। आज प्यार की बातें सबसे ज्यादा होती हैं।

बेटी से पिता का और पिता से बेटी का प्यार बहुत अनूठा कहा जा रहा है।  वर्ष में एक दिन "फादर्स डे" की परम्परा आरम्भ हो गई है।  सबसे ज्यादा बेटी  "फादर्स डे" पर अपने पापा से सम्मान और प्यार प्रदर्शित करती हैं।
माँ से पुत्र का पुत्र से माँ का प्यार तो अत्यंत प्रगाढ़ होता है।   वर्ष में एक दिन "मदर्स डे"  भी बडे उत्साह से मनाया जाता है , पुत्री और पुत्र दोनों ही इस दिन सम्मान और प्रेम से माँ को उपहार  और शुभकामनायें देते हैं।
युवाओं में विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण और प्यार भी आज अत्यंत उत्साह और मनलुभावन ढंग से प्रदर्शित किया जाता है।  "वेलेंटाइन डे " आज लगता है युवाओं को वर्ष में सबसे ज्यादा प्रिय दिन लगता है। इस दिन बढ़चढ़ कर प्रेम दिखाने की होड़ उनमें होती है।
मित्रो में प्रेम प्रदर्शित करने के लिए आजकल वर्ष में एक दिन 'फ्रेंड'स डे' भी मनाया जा रहा है।
इन बातों से कहा जा सकता है कि आज प्रेम की गंगा  पूरी दुनिया में बह रही है।
प्रेम प्रदर्शन में हम यह नहीं देख पाते हैं ?
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इतना प्यार यदि परस्पर सबमे होता तो क्यों आज बैर ,ईर्षा , प्रतिद्वंदिता ,कटुता और ह्रदय से दूरियाँ इतनी होती ? प्यार का अस्तित्व तो इन्हें ख़त्म करता है।
क्यों , युवतियाँ और बच्चियाँ प्यार नाम से छली जा रही हैं ? जो प्रेमी बन उन्हें मिलता है क्यों कुछ समय में उनका जान का दुश्मन बनता है ? क्यों उनसे छुटकारा चाहता है। 
प्यार , बेटी के प्रति इतना सच्चा होता तो , क्यों पिता अपने घर आँगन में बेटी नहीं देखना चाहता है ? बल्कि मालूम पड़ जाये कि गर्भ में शिशु -कन्या है तो उसको नष्ट करवाने की कोशिश करता है।
बेटी , जो पापा से अगाध प्यार रखती है क्यों उनके मार्गदर्शन में ना चलकर , छलियों के फुसलावे में आकर अपनी और पिता-परिवार का जीवन नरक बनाती है ?
प्यार बेटे का माँ के प्रति प्रगाढ़ था तो क्यों स्वयं का परिवार होने के बाद , माँ का यथोचित सम्मान और उनकी देखभाल नहीं कर पाता है ?
क्यों युवक प्यार नाम से धोखा देकर प्रेमिका को छलते हैं ? क्यों पुरुष दूसरे परिवार की नारी पर शोषण -दुराचार और उनकी हत्या कर अपनी जननी (माँ ) को अपमानित करते हैं?  जो ऐसे बेटे की माँ होने से निपूती रहना बेटे के अत्याचार से दुखी हो सोचने को बाध्य होती है।
पति -पत्नी के बीच इतना अनुराग होता है तो क्यों वे एक दूसरे के पेरेंट्स के प्रति उनके दायित्व निर्वहन में बाधक बनते हैं ?
जब मित्र-प्रेम विशाल है तो। क्यों मित्रों में आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या है कि मित्र की उन्नति इतनी खटकती है ?

इतना प्यार जितना दिखाया जा रहा है का कुछ अंश भी सच्चा होता तो समाज में छल -ईर्ष्या और द्वेष का अस्तित्व ना होता।  एक दूसरे की प्रगति से हम खुश होते और हमें दूसरे की सुरक्षा अपने से बढ़ कर प्यारी होती।

हम करें तो किसी से सच्चा प्यार करें और नही तो प्यार शब्द के झूठे प्रयोग से किसी को छल कर प्यार नाम की पावन भावना को कलंकित ना करें।

--राजेश जैन  
26-09-2014

उपलब्धि और गर्व

उपलब्धि और गर्व
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मार्ग में चलते हुये ऐसे स्थान  हैं जहाँ किसी प्रदूषण के कारण दुर्गन्ध होती है, आते -जाते हैं । वयस्क व्यक्ति तो , श्वाँस रोक कर उस दुर्गन्ध से बचता है। लेकिन बच्चे कुछ समय श्वाँस रोकने का अभ्यास नहीं रखते। वे दुर्गन्ध को भुगतते हैं। कई बच्चों को रुमाल नाक पर रखने की सीख होती है। वे दुर्गन्ध से इस तरह बच लेते हैं।
श्वाँस रोककर या रुमाल नाक पर रख , दुर्गन्ध से बचाव तभी संभव होता है , जब दुर्गन्धमय स्थान ज्यादा बड़ा नहीं होता. अगर यह विस्तृत है  तब इसके सिवा कोई उपाय नहीं रहता की दुर्गन्ध के कारक को ही समाप्त किया जाये।
वातावरण के प्रदूषण की तरह देश और समाज के प्रदूषण (बुराई )  भी हैं .  थोड़ी बुराई है तो उससे बचने के अपने -अपने ढंग से सब निबट लेते हैं। लेकिन बुराई की व्याप्तता अधिक हो तो उसके कारकों को ढूँढ/समझ  कर नष्ट करने की आवश्यकता होती है।
व्यापक हो गई बुराई को एक या कुछ के प्रयास से नष्ट करना कठिन होता है। उसे हमारे अथक और दीर्घ , सयुंक्त प्रयासों या असाधारण अच्छाई के पुँज किसी अवतार तरह के व्यक्ति द्वारा नष्ट किया सकता है।
हमारे समाज में भी ऐसी बुराई बढ़ रहीं हैं। उससे अपना अकेला बचाव करने में हमें असफलता मिलेगी।  वह इतनी बड़ी हो रही है कि हम सभी को चंगुल में रही है। सम्भावना कम है कि कोई अवतार अभी हमें  मिलेगा। 
अतः  हमें अपने और हमारे बच्चों के सुखद भविष्य/जीवन को सुनिश्चित करने के लिए समन्वित/सयुंक्त और गंभीर प्रयास करने चाहिये। अन्यथा जिस गति से बुराइयाँ बढ़ रहीं हैं वे जटिल से जटिलतम हो जायेंगी.जिनका निर्मूलन या उपचार असाध्य हो जाएगा।
आज हम समझ लें तो आगामी संततियों के प्रति दायित्व हम पूरे कर सकेंगे ।वे आज हमारे किये त्याग और उपलब्धि पर गर्व करेगी .  अन्यथा आगामी पीढ़ियाँ हमारी पीढ़ी पर रोयेंगी और उसे कोसेंगी ।

-- राजेश जैन 
25-09-2014

Wednesday, September 24, 2014

बहुमूल्य और अनमोल

बहुमूल्य और अनमोल
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(कीमती और बेशकीमती गिफ्ट)

मल्टी नेशनल कंपनी , में जॉब को पहुंची मेरी बेटी ने एक दिन में मुझे दो वस्तुएं दीं।

एक - है , मूल्यवान सेल फ़ोन (मोबाइल).
दूसरी - यह वस्तु नहीं है , अपितु सेल फ़ोन पर दी एक सूचना है। " प्यारी बेटी" ने मुझे बताया कि , उसकी साथी फ्रेंड्स , ऑफिस के समय में , मूवी देखने गये हैं , उसने इसके लिये मना कर दिया और वह ओरेकल (एसक्यूएल) पर दिये गये असाइनमेंट को पूरा करने में लगी रही।

दूसरी वस्तु , एक पापा (पिता) के सपने के अनुरूप है।  वास्तव में गलत बात के लिये एक ग्रुप को (उसके दबाव को) मना करना, वह हिम्मत है जो एक-दो और इस तरह की मनाही के बाद , नई जगह में उसे एक ऐसी पहचान दे देगी , जिससे भविष्य में वह अपना सुखद जीवन सुनिश्चित कर सकेगी।  उस जीवन में सुख के साथ सार्थकता भी होगी। वह ऐसे विचारों और सद्कर्मों की धनी होगी , जो दूसरों में सद्प्रेरणा का प्रचार और संचार करते हैं.

दूसरों के लिए मोबाइल एक कीमती उपहार हो सकता है , किन्तु एक पिता के लिए , बेटी का सच्चापन और कर्तव्य परायणता  अनमोल (बेशकीमती) उपहार होता है।

वास्तव में सुखद और सार्थक मनुष्य जीवन की बुनियाद सद्-विचारों और सद्कर्म होते हैं , इसमें धन वैभव का होना ना होना महत्वहीन होता है।  हमारे आज के समाज को जीवन सार्थक करने वाले अनेक युवाओं की आवश्यकता है।  जो बुराई की ओर बढ़ते प्रवाह की दिशा मोड़ सकें।

बेटी मैं (एक पिता) आज बहुत आनंदित हूँ।

--राजेश जैन 
25-09-2014



नारी -चेतना और सम्मान

नारी -चेतना और सम्मान
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यद्यपि अकारण नहीं है जब विभिन्न नारी संगठन , पुरुष विरुध्द आंदोलन और प्रदर्शन करते हैं। वास्तव में वे प्रदर्शन पुरुष विरुध्द होते भी नहीं हैं। वे सामान्यतः दुराचारी ,शोषक और नारी पर अत्याचारी पुरुष विरुध्द होते हैं ( सारे पुरुष ऐसे हैं भी नहीं) . नारी संगठनों में नारी और प्रदर्शनकारी /आंदोलनकारी नारी भी अपने परिवारों में पुरुष सदस्यों के साथ सामान्यतया सुखमय जीवन यापन करने वाली ही हैं। ये वे भी (पुरुष के साथ ही ) जानती -मानती हैं कि पुरुष -नारी साथ प्राकृतिक रूप से ही अटूट है। जब यह निःसंदेह सत्य है , तब लेखक का मानना है इस साथ में मधुरता होनी चाहिये तनाव नहीं।

दोहरे पुरुष चरित्र जिस के अंतर्गत , पुरुष अपने घर-परिवार की नारी में तो कुछ और गुण देखना चाहता है , और बाहर की नारी से इसके विपरीत अपेक्षा करता है , कुछ सँख्या में समाज में ऐसे पुरुष विद्यमान हैं , अपने को आधुनिक दिखा रही युवा पीढ़ी में तुलनात्मक रूप से इसकी अधिकता है ।
ऐसे पुरुष सामाजिक मर्यादा भूलकर नारी (बहन -बेटियों ) से छेड़छाड़ ,अश्लीलता , शोषण और दुष्कृत्य यहाँ तक कि उसकी हत्या करते हैं। तब प्रबुध्द नारी वर्ग बाध्यता में आंदोलित होता है। उनके आंदोलन/प्रदर्शनों में कभी -कभी भ्रमवश ऐसा दृश्य उत्पन्न होता है जैसे सारा नारी वर्ग , सारे ही पुरुषों के विरुध्द है। इस दृश्य को देख पुनः दोहरे चरित्र का पुरुष ( जिसमें कई प्रतिष्ठित राजनेता भी हैं , मीडिया कार्यरत और सफल व्यवसायी , और वकील इत्यादि भी हैं ) हल्की प्रतिक्रियाओं पर आ जाते हैं। और एक बेहद ही निराशाजनक दृश्य तब निर्मित होता है। ऐसे में पुरुष दोहरे चरित्र , हल्की पुरुष प्रतिक्रियाओं और भ्रम उत्पन्न करते प्रदर्शनों में कमी लाने के प्रयास पुरुष और नारी दोनों ही ओर से होने चाहिए।

वास्तव में दोहरे पुरुष चरित्र की करनी को स्वयं वह पुरुष या परिवार ही भुगतता है , कैसे ?
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एक कुलीन फ़िल्मी घराना जिसकी कई पीढ़ियों का नाम और काम फिल्म जगत में है। पिछली पीढ़ियों में इस परिवार की नारी पर फिल्मों में काम करने पर रोक थी। लेकिन इस घराने के पुरुष , अन्य कमजोर घरानों की नारी का उपयोग अपने निर्माण में देह प्रदर्शन करवा कर , फिल्मों से ज्यादा आय सुनिश्चित करने में करता था। कह सकते हैं कि फिल्म में नारी देह प्रदर्शन की राह उन्होंने तात्कालिक लाभ के लिए प्रशस्त कर दी. समय ने पलटा खाया पूर्व पीढ़ियाँ तो अतीत होने लगी , नई पीढ़ी की उसी घराने की नारियों ने उसी राह पर चलकर देह प्रदर्शन / लिव इन रिलेशनशिप आदि की वह मिसाल पेश कर दीं , जिन्हे वे देखें (पूर्व पीढ़ी ) तो लज्जा से नयन झुक जाएँ।  इस सारे घटना क्रम में उन्होंने क्या पाया , क्या खोया वे ही जानें ,किन्तु देश और समाज को इससे भारतीय संस्कृति विपरीत दुष्प्रेरणा मिली।
आदर्श मानकों के अपवाद ऐसे पुरुष और नारी चरित्र तो , अच्छे से अच्छे प्राचीन समाज में थे।  लेकिन जिन बुरे पथ के निर्माण आज हो रहे हैं , भय है कि आगामी समाज में आदर्श मानक ही अपवाद ना हो जायें ।  फिल्मों ने दी दुष्प्रेरणाओं से पुरुष दृष्टि /सोच में तो नारी मात्र भोग्या होने लगी है।   पुरुष की दृष्टि जो नारी में माँ ,बहन और बेटी की छवि देखती थी बदलने लगी अब नारी मनबहलाव की साधन ही दिखने लगी है।  ये तो चिंतनीय है ही.  आशंका है नारी भी पुरुष को इसी दृष्टि  देखने लगी तो क्या होगा ? शायद पशु भी मनुष्य समाज के  चलन  पर हँसने ना लगेंगे ?

 
नारी ऋणी पुरुष  -  पुरुष ऋणी नारी और अटूट साथ
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पुरुष -नारी किसी भी समाज में तब ही सुखी हैं , जबकि तथाकथित उनका अटूट साथ ,स्थायी हो। इसमें फ्लिर्टींग , लिव इन रिलेशनशिप और विवाह विच्छेद को कतई स्थान नहीं है। हाँ पारम्पारिक नारी पुर्नविवाह ( अल्पवय में दुर्भाग्य से विधवा हुई हो ) की सामाजिक रोक अवश्य हटनी चाहिए। 

जैसा कल लेख में नारी ऋणी पुरुष का उल्लेख था , परिवार में  रिश्तों में पुरुष साथ रहती नारी भी अपने  पुरुष ऋणी मानती है।

पितृ छाया सुरक्षा में बढ़ती बेटी वह
बसती पिता के ह्रदय में पल पल वह

दुल्हन बन जीवनसाथी घर जाती वह
पति अंतरंगता मधुर प्यार पाती वह 

किलकारी साथ आता चंचल बेटा जब
छाती माँ अनुराग से भर आती उसकी

अनूठा त्याग ममत्व माँ बन देती वह
बेटे की श्रध्दा उसकी पूज्या होती वह

फिर नारी और पुरुष परस्पर विरुध्द हो ही नहीं सकते . ऐसे में दोनों ही को अपने अपने में आत्मावलोकन की आवश्यकता है।  हाँ पुरुष कमी पर पुरुष ही और नारी कमी पर नारी ही चेतना दे यह आवश्यक है।  जो परस्पर संघर्ष और दोषारोपण की आशंकाओं पर अंकुश रखेगा।

 उत्कृष्ट समाज - मनोहारी तस्वीर 
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वास्तव में अगर हम ऐसे समाज की परिकल्पना करते हैं , जिसकी तस्वीर यदि खींची जाये तो वह मधुरता ,सुंदरता और उत्कृष्टता का बोध कराती हो , तो यह सच है कि सामाजिक आकार की विशालता के कारण यह कार्य किसी एक के या कुछ मनुष्यों के सामर्थ्य से बाहर है। ऐसे समाज का निर्माण और ऐसी मनोहारी तस्वीर का सृजन अनेकों (पुरुष और नारी ) के सयुंक्त प्रयासों से संभव होगा। कह सकते हैं , कुछ पीढ़ियों के निरंतर इस दिशा में कार्यरत होने पर ही इसे साकार किया सकता है।

इसे साकार करने के लिए एक सावधानी यह भी है कि हमारी लक्ष्यवेधन क्षमता भी सम्पूर्ण दक्षता लिए हो। तब ही ,  जहाँ बुराई और अच्छाई एक साथ खड़ी या मिल गई हो वहाँ हमारे प्रहार का लक्ष्य यदि बुराई है,  तो बुराई ही कटेगी ,अच्छाई नहीं। अभी हो यह रहा है इस तरह प्रवीण हुए बिना कोई भी मारक प्रहार कर बैठता है। यद्यपि लक्ष्य तो बुराई पर किया था पर चूक होने से कट अच्छाई जाती है। जिससे एक नई बुराई (आपसी बैर की ) बढ़ जाती है।
हमें विशालरूप में सयुंक्त प्रयास आरम्भ करने होंगे वही हमारे बच्चों का सुखद सामाजिक और पारिवारिक जीवन सुनिश्चित कर सकता है। 

--राजेश जैन
24-09-2014

Tuesday, September 23, 2014

पुरुष पर ऋण

पुरुष पर ऋण
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जन्मता पुरुष रूप, गढ़ता बढ़ता वह
नारी ममता ,स्नेह दुलार की छाँव में

दादी ,नानी , माँ , मौसी और बुआ अपने अभावों और पारिवारिक संघर्षपूर्ण परिस्थितियों की चिंता किये बिना बालक को  अधिकतम वे वस्तुएं और भोज्य उपलब्ध कराने के प्रयास करती हैं , जो बालक को पसंद होती हैं।  इस प्रक्रिया में उनका ममत्व ,अपनत्व ,लाड और दुलार भी उसको भरपूर निरंतर मिलता है।

सुशोभित रक्षासूत्र कलाई पर उसकी
होता बहिन स्नेहाशीष प्रतीक रूप में

परिवार में छोटी या बड़ी बहिनों का स्नेह और आशीष भी उसके बढ़कर वयस्क होने के काल में,  उपरोक्त नारी से रिश्तों (और ममता और दुलार)  के साथ  सम्मिलित हो जाता है।

पत्नी का प्रेम अनूठा मिलता उसको
श्रृंगार लाज मान रक्षा अभिलाषा में 

सभ्य मनुष्य परिवार रूप में रहने का अभ्यासी हो गया था।  अवस्था और प्रकृति जनित उसकी (और नारी की भी ) आवश्यकता की पूर्ति एक बेहद ही गरिमापूर्ण पारिवारिक आवरणों और वातावरण में सामाजिक व्यवस्था उपलब्ध कराती थी /है।  अन्य परिवार की दुलारी कन्या , पुरुष की जीवन संगिनी बन मिल जाती थी /है।  उसका अनूठा प्यार , जो अन्य रिश्तों के प्रेम से अलग होता है।  पुरुष को आजीवन मिलने लगता था /है।

परिवार में जन्मी प्राण प्रिया बेटी तो
बस जाती भावी जीवन के पल पल में

मानव नस्ल के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए , पति -पत्नी के अंतरंगता की परिणीति उनकी संतान की उत्पत्ति के रूप में होती है। संतान जब पुत्री  रूप में होती है तब पिता को वह अपने प्राणों से बढ़कर प्यारी होती है। बेटी अपने पिता के दुलार के बदले में आजीवन उनके सुख और स्वास्थ्य की कामनायें करती है।

उपरोक्त ही परिवेश में लगभग सभी पुरुषों का जीवन चक्र चलता है।  इसलिये सभी पुरुषों पर नारी से विभिन्न रिश्तों में मिलते ममता , लाड दुलार , प्यार और उसकी हितअभिलाषाओं का ऋण होता है।

इस ऋण को भूल जब पुरुष घर/परिवार से निकलता है और  अन्य परिवार की नारियों पर शोषण और अत्याचार का कृत्य करता है तब नारी का ऋणी यह पुरुष लेखक ह्रदय करुणा से भर जाता है।

उसे प्रत्येक पुरुष पर विभिन्न नारी रिश्तों के ऋण स्मरण आते हैं  , बचपन में आर्थिक रूप से समर्थ नहीं रहे नानी  , मौसी के परिवार  में भी किस तरह नानी मौसी द्वारा महँगे भोज्य और वस्त्र पहुँचने पर उसे दिये जाते हैं ?  कॉलेज अध्ययन को बाहर जाने पर दादी , क्या खाता होगा?  सोच सोच कैसे रोती रहती है । बुआ कैसे अपने बच्चों से बढ़कर भाई के बच्चों  ध्यान करती है ?  माँ , जीवन भर हमारे सुख सुनिश्चित हो , की चिंता में काया से कैसे क्रमशः क्षीण होती जाती है ?.  पत्नी , अपने को बदल कर पूरी तरह हमारी इक्छा अनुरूप कैसे ढल जाती है ?  बेटियाँ कैसे  इस बात का  हमेशा ध्यान रखतीं हैं ?  कि उनके किसी आचरण या कर्म से , पापा की और परिवार को कोई सामाजिक छवि दुष्प्रभावित ना हो।

तब वह समाज के ऐसे पुरुषों में वह दृष्टिकोण विकसित कर देना चाहता है , जिससे वे नारी ऋण उतारने को प्रेरित हों। जिससे देश और समाज की समस्त नारी जाति  को न्याय ,सम्मान ,गरिमा और सम्मान प्रदान कर सकें।

यह पेज "नारी चेतना और सम्मान रक्षा "  पुरुष और नारी को परस्पर विरुध्द और परस्पर आमने-सामने (बैरी रूप में ) प्रस्तुत नहीं करता है ।  पुरुष और नारी प्रत्येक परिवार के समतुल्य महत्त्व के सदस्य हैं।  सभी नारी और पुरुष परस्पर  सुखद साथ और आपसी विश्वास सुनिश्चित करें। यही लेखक का अभिप्राय होता है।  इस पेज का  प्रयोजन होता है। पुरुष साथियों को नारी प्रति न्याय बोध का आव्हान लेखक/पेज  करता है। 
तथा
जो नारी और  बहन - बेटियाँ ,   अभाव ,अशिक्षा और अनुभवहीनता के कारण शोषित होती हैं।  उनकी सहायतार्थ नारी द्वारा उन्होंने भुगती पुरुष जनित प्रतिकूलताओं,शोषण  अत्याचार के तौर -तरीके  के शिष्ट भाषा में वर्णन और उनसे बचाव के  नारी हेतु किये जाने उपायों के बारे में चेतना जागृत करने के लिए , प्रबुध्द नारियों को  रचना , सृजन और उसके प्रचार -संचार के लिये आमंत्रित करता है।


जन्मता पुरुष रूप, गढ़ता बढ़ता वह
नारी ममता ,स्नेह दुलार की छाँव में

सुशोभित रक्षासूत्र कलाई पर उसकी
होता बहिन स्नेहाशीष प्रतीक रूप में

पत्नी का प्रेम अनूठा मिलता उसको
श्रृंगार लाज मान रक्षा अभिलाषा में 

परिवार में जन्मी प्राण प्रिया बेटी तो
बस जाती भावी जीवन के पल पल में

--राजेश जैन
23-09-2014

Monday, September 22, 2014

ज़माना दिखाता वही क्यों देखते हैं? ……… (2)

ज़माना दिखाता वही क्यों देखते हैं? ……… (2)
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एक फिल्म कलाकार ने देश की सामाजिक बुराइयों और समस्याओं पर कुछ अच्छे एपिसोड प्रस्तुत किये थे।  जनचेतना जागृत करने  प्रयास किया था। कुछ दबाव बुराई और समस्या उत्पन्न करने वालों और व्यवस्था पर बना था।  कुछ लोगों में सुधार भी आया होगा , शायद। पिछली सफलता के दृष्टिगत शायद और एपिसोड प्रदर्शित किये जाने की उनकी योजना लग रही है।  लेखक का प्रश्न है

क्या हम यह देख पायेगें उसमें ?
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1. उत्पन्न हुई अनेक सामाजिक बुराइयों की जड़ में , फिल्मों में हमारी संस्कृति विपरीत चित्रण और प्रदर्शन रहा है। जिसे देख देख कर हमारे समाज के चलन बदल गए।  क्या वो सफल फ़िल्मी अभिनेता , उसे बुराई रूप में दिखलाने  साहस करता है ?
2. फिल्म इंडस्ट्रीज की चकाचौंध से प्रभावित हो देश के विभिन्न हिस्सों से अनेकों बहन -बेटियों ने खतरों से अनजान होकर घर से पलायन किया। वे फिल्मों में कोई जगह नहीं बना सकीं।  फिल्म इंडस्ट्रीज के गलियारों  में सक्रिय तत्वों और स्वयं फ़िल्मी हस्तियों ने तरह तरह उनका शोषण किया , और फिर उन्हें इस योग्य भी ना छोड़ा कि वापिस अपने घर-परिवार और शहर /गाँव में अपना मुख दिखाने का साहस कर सकें। उनका जीवन कैसे नर्क बना और किन्होंने और कैसे किया। ऐसी शोषित हुई नारियों ने अपना जीवन और परिवार का नाम कलंकित किया। जबकि शोषण में लिप्त  फ़िल्मी लोग धनी बने  प्रतिष्ठित ही  रहे। इस पर कोई एपिसोड लाया जाएगा उनके द्वारा ?
3. अगर नहीं , तो अभिनेता वास्तविक समाज हित नहीं करेगा , उसका मात्र अभिनय  करेगा।  दूसरे में बुराई देख लेना , उसे कह लेना और दिखला देना यह तो साधारण ही बात होती है।  अपने स्वयं में बुराई देख लेना ,स्वीकार करना और दिखलाने का साहस बिरले महान ही करते हैं।  जैसी महान छवि बनाने की अभिनेता की अभिलाषा है , अगर इस पर एपिसोड नहीं आता है तब वह साधारण ही है।
4. तब हमें व्यर्थ जाता अपना 'समय' देखना और उसे बचा लेना चाहिए। क्योंकि ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए उपदेश कभी प्रभावी नहीं होते , जो उपदेशों के अनुरूप स्वयं के आचरण और कर्मों में अच्छाई नहीं ला पाता है।

--राजेश जैन
22-09-2014

Sunday, September 21, 2014

बेटी का अस्तित्व

बेटी का अस्तित्व
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विचारणीय है , पत्नी चाहिये , तो बेटी का अस्तित्व अति आवश्यक है।
किसी की बेटी ही तो किसी की पत्नी बनती है , कोई अन्य तो नहीं।
हर परिवार में बेटी भी दुलार से पाली जाये और बड़ी हो , इसके लिये नारी को सम्मान से रखने की आवश्यकता है।

हमें अपने सामाजिक और धार्मिक रीति -परम्परा ,मान्यता और धारणाओं की पुर्नसमीक्षा और परिवर्तित करनी चाहिये  , जिसमें जीवन की बहुत सी रस्मों के लिये नारी को वंचित रखा गया है.

चरित्र की जो स्वच्छता और दृढ़ता हम नारी से अपेक्षित रखते हैं , वही पुरुष अपने लिये भी निभाये. चरित्रवान पुरुषों के समाज में नारी सुरक्षित ,सुखी ,सम्मानीय और बराबरी पर होगी।

नारी को जब शोषण  और कलंक की कोई चुनौती नहीं होगी तो बिना हिचक , बिना बाधा ,किसी भी समय किसी भी स्थान पर स्वतंत्रता से आ जा सकेगी। ऐसे सामाजिक परिवेश का निर्माण हम कर सकेंगे तब बेटी -बहन आदि हर परिवार में दुलार और गरिमा से पल्लवित होंगी।

इसके लिये विशेष तौर पर युवा और पुरुषों को विचार और आचरण परिवर्तित करने होंगे. अगर यह इस पीढ़ी द्वारा कर लिया गया तो आज की पाताल-उन्मुख मनुष्य सभ्यता की धारा और प्रवाह मोड़ने के लिए हमारी पीढ़ी इतिहास के पृष्ठों पर गौरवशाली स्थान पायेगी।  अन्यथा समस्त भौतिक उन्नति के बाद भी नैतिकता ,न्याय  और मानवीयता के अभाव के लिए कोसी जायेगी।

दायित्व हम पर है , निर्वहन का साहस करना होगा. कुछ त्याग करना होगा। और नियंत्रण अपनी समाज हानिकारक लालसाओं , आचरण और कर्मों पर करना होगा।
विचार करें हम मनुष्य हैं , बिना विचार किये तो पशु भी जन्मते और मर जाते हैं।

--राजेश जैन
21-09-2014

Saturday, September 20, 2014

ज़माना दिखाता वही क्यों देखते हैं ……… (1)
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महानायक जो कहा जाता है , वर्षों हो गये एक कार्यक्रम पेश करता है।  एक घंटे तक लगभग करोड़ की संख्या में दर्शक उसे देखते रहते हैं।  उसमें कुछ प्रश्न जिनका समाज सुधार से , तार्किक चिंतन से देश की उन्नति से कोई सरोकार नहीं होता उसके उत्तर खोजने में , भारतीय युवाओं , बच्चों और कामकाजी , गृहकार्य में लगे सभी के प्रति प्रोग्राम सयुंक्त एक करोड़ घंटे ख़राब होते हैं। 

हम यह क्यों नहीं देख पाते ?
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1. सामान्य ज्ञान बढ़ाने की दृष्टि से भी देखा जाए तो एक घंटे में वह इससे कहीं अधिक बढ़ाया जा सकता है ,इस तरह से कोई उपयोगिता कार्यक्रम की नहीं कही जा सकती।
2.  हम अति व्यस्त हैं , घर परिवार के अनेकों कार्य लंबित होते हैं।  व्यस्तता में यह एक घंटा व्यर्थ कर अपने ऊपर लंबित कार्यों का मानसिक दबाव भी बढ़ा लेते हैं।
3. पूरी एक इंडस्ट्री है , जो कम मेहनत में ज्यादा धन और प्रतिष्ठा बटोरने के काम में तो लगी हुई साथ ही देश और समाज को गलत चलन देने में लगी है , जिससे युवा भटका है , गलत चीजों को प्राप्त करने की दौड़ में लगा है और कुंठित हो रहा है। देश और सामाजिक परिवेश बिगड़ता जा रहा है।
4. नारी को एक उपभोग की वस्तु की तरह दिखाया और देखे जाने से नारी गरिमा को बहुत ठेस लगी है।
5. जो महानायक कहलाता है उसका कतई यह धर्म नहीं होता कि वह पीढ़ियों को भ्रमित करे , देश के बेशकीमती करोड़ों -करोड़ों घंटे व्यर्थ करे।  महानायक अपनी प्रतिष्ठा और धन का लालची नहीं होता है।  महानायक वह होता है , जो अपना जीवन लगा कर देश और समाज को सच्चा पथ दिखलाता है , सद्कर्मों और सदाचार की प्रेरणा बनता है।

हमें ज्ञान और चक्षु दोनों मिले हैं। हम फैलाये सम्मोहनों से निकल कर , दिखलाये जाने वाली सामग्री के पीछे स्वयं , परिवार ,समाज ,देश और मानवता को हो रही क्षति को देखने की क्षमता विकसित करें।  तथाकथित इस महानायक के कर्म हल्कें हैं .
हम, अपने समाज के लिये बेहतर कर्म और सेवा से इस तथाकथित महानायक से बढ़कर महानायक बनें।  भले हमें कोई महानायक न कहे , क्योंकि महानायक तो क्या एक सच्चा छोटा नायक(हीरो) भी ,किसी निजी लालच से बेपरवाह या निरपेक्ष होता है।
समाज और देश को बुराइयों और समस्या से उबारने के लिए छोटे किन्तु सच्चे नायकों की आवश्यकता है। 

आओ - हम, हमारे समाज और देश की इस अपेक्षा की पूर्ति करें। सिर्फ अपने लिए  प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा (गुमराह) से बाहर आकर , परिवार ,समाज और देश को भी कुछ देना आरम्भ करें।

-- राजेश जैन
21-09-2014

Friday, September 19, 2014

हम उसे अब ना सतायें

हम उसे अब ना सतायें
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स्वयं सता लिया अपने को , हम उसे अब ना सतायें
विरुध्द प्रदर्शन ना कर , हम उसको पुष्प भेंट करायें              

जन्मती है संतान को माँ , वध बेटी का माँ कर बैठी
अंक लगाये रखती थी बेटे को , माँ देखने को तरसती           

दूध से बन खून दौड़ता था , दुधमुँही बेटी की रगो में
प्यारी अबोध मासूम का , खून अभागी वह कर बैठी         

स्वयं सता लिया अपने को , हम उसे अब ना सतायें
विरुध्द प्रदर्शन ना कर , हम उसको पुष्प भेंट करायें

कारागृह में पड़ी अकेली ,हमदर्द कोई ना अब साथ है      
अंतरंग का साथ मिलता ,सुखद सेज ना अब पास है      

बना व्यंजन स्वादिष्ट , खिलाती और स्वयं खाती थी
बची ना चाहत खाने की , और ना अभागी को प्राप्त है    

जीवन दुःस्वप्न कहे जाते , सारे के सारे एक साथ हैं
अबला भले न सह सके , कटु कठोर यथार्थ ही पास है

स्वयं सता लिया अपने को , हम उसे अब ना सतायें
विरुध्द प्रदर्शन ना कर , हम उसको पुष्प भेंट करायें

हाय विषैला वातावरण , बेटियाँ जिसमें झुलस रहीं
मिटायें जहर समाज से , बेटी ना जिसमे पनप रहीं

शोषण नारियों पर हो रहे , हिम्मत पालने की खो गई
न रही बेटियाँ सुरक्षित , जानिये मानव नस्ल खो गई

बेटी को मार दिया जिसने , बेटी वह भी किसी की है
उसको भी हम मारें यदि , दो बेटियों का यह क़त्ल है

स्वयं सता लिया अपने को , हम उसे अब ना सतायें
विरुध्द प्रदर्शन ना कर , हम उसको पुष्प भेंट करायें
 
--राजेश जैन
20-09-2014
 
 
एक माँ किसी विवशता में या मानसिक कमजोरी में अपनी बेटी को मार चुकी है। जबलपुर में आक्रोश उमड़ा है। उसके विरुध्द कैंडल मार्च निकाला गया है।  उसके   मुख पर कालिख पोती गई  है। . बेटी को मार देने से वह कारगृह में है और अपने प्रिय बेटे से भी  दूर हो गई है । दोनों संतान का विछोह ही उसे मिला है।अभागी ही कहलाएगी , कल तक गर्भ में रख और स्तनपान के जरिये अपनी बेटी के रगों में खून बढाती थी , उसका ही खून बहा बैठी है।
उसे कारागृह के कठोर तखत पर सोना पड़ रहा है।  वह सुखद सेज जिस पर अपने प्रिय पति का अंतरंग साथ पाती थी अब वंचित है। घर में तरह तरह के व्यंजन बना वह चाव से परिजनों को भी खिलाती थी और  स्वयं खा लेती थी।  जेल में उसे अब उपलब्ध नहीं हैं , हो जायें तो खाने की चाहत नहीं बची है। जीवन में जिन परिस्थिति की कल्पनायें दुःस्वप्न लगते हैं । वे अभागी का कठोर कटु यथार्थ बन गए हैं।
 
हमारा सामाजिक परिवेश नारी (बेटी -बहन आदि ) के अस्तित्व लिये वैसे ही खतरनाक हो चुका है.बेटी -बहन  पत्नी जिस तरह शोषित देखी जा रही हैं ,उससे  कई परिवारों  में  बेटी को जन्मने  पालने की हिम्मत नहीं रह गई है।सामाजिक इस जहरीले वातावरण ने नारी जो माँ होती है उसे भी कमजोर कर दिया है.    ऐसे में जिस माँ ने अपनी बेटी को मारा है।  उसकी लाचारी ,विवशता या मानसिक कमजोरी के लिये दोषी सामाजिक परिवेश और बुराइयों की ओर ध्यान दिए बिना यदि हम (या कानून ) उसे भी मार देते हैं तो एक साथ दो बेटी मारी जायेगीं।  ( उस अभागन के , माँ -पिता सदमे में हैं उससे मिलना चाहते हैं अपनी बेटी को समझना /समझाना चाहते हैं पर कारागृह में मिलने से रोक लगी है।)
 
लेखक ने इस नारी  की मानसिक ,शारीरिक वेदना और अब मिल रहे अपमान की स्थिति को समझा है ,उसका ह्रदय करुणा से भर कर  कवि  सा हो गया है और एक काव्य रचना कर रहा है। .... जिसमें स्वयं सतायी गई नारी (अबला ) के लिए सहानुभूति स्वरूप पुष्प भेजने और समाज सुधार का आव्हान सम्मिलित है )
 
"
स्वयं सता लिया अपने को , हम उसे अब ना सतायें
विरुध्द प्रदर्शन ना कर , हम उसको पुष्प भेंट करायें    "          
 
-- राजेश जैन 
20-09-2014
 

Thursday, September 18, 2014

माँ या पिता द्वारा हत्या पुत्री की ही ,क्यों ?

माँ या पिता द्वारा हत्या पुत्री की  ही ,क्यों ?
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लेखक का प्रश्न यह नहीं कि पुत्र की  हत्या की जानी चाहिये।  प्रश्न यह है कि क्यों पुत्र पर यह संकट नहीं है जबकि पुत्री (बेटी) पर हमारे समाज में यह संकट होता है।
वास्तव में सामाजिक वातावरण इस तरह का हो गया है। जिसमें नारी को आजीवन खुली हवा में चैन की श्वाँस लेना उपलब्ध नहीं है।वह खुले आसमान के नीचे हो या घर , कार्यालय या बाजार में उस की सुरक्षा पर संकट विध्यमान है।

जो समाज (विशेषतः पुरुष) एक माँ द्वारा पुत्री की हत्या पर आंदोलित दिख रहा है। वह किसी घर की बहन -बेटी (नारी) को कहीं भी सुरक्षित होने का अहसास कराने में असमर्थ है। बल्कि उनमें से अनेकों पुरुष तो स्वयं पराये घर की नारी पर बुरी दृष्टि , कमेंट्स और छेड़छाड़ करने से नहीं हिचकते हैं। फुसलाता पुरुष है , शोषण करता पुरुष है लेकिन समाज नारी को कलंकित कहता है।

व्यभिचारी पुरुष क़ानूनी शिकंजे में कभी सजा भुगत ले तो बड़ी बात है , अन्यथा समाज में बेशर्मी से उठता -बैठता  घूमता रहता है।  जब पुरुष पर व्यभिचार का कलंक लगता ही नहीं तब उसकी हत्या को परिजन विवश नहीं होते हैं।
समाज की असमर्थता या असफलता से अनेकों घर परिवार में पुत्री जन्म स्वागत योग्य नहीं माना जाता है।  ऐसे में परिजन और पिता आदि ही गर्भ में अथवा जन्म के बाद उनके निर्देशित दायरे में  ना रहने पर बहन -पुत्री या पत्नी को जीवन की किसी अवस्था में उनकी (नारी) हत्या को अंजाम देते हैं।

कभी नाते -रिश्तेदारों और परिवारजन के तानों -उलाहनों से आहत हो माँ , दुधमुहीं बेटी की हत्या कर देती है तो उस को समाज का सबसे बड़ा दुश्मन करार देकर उसका मुँह काला करने दौड़ते है उसकी जान के दुश्मन होते हैं।  फिर ऐसे विजयी सी मुखमुद्रा दिखाते हैं , जैसे किसी आदमखोर राक्षस का वध कर लौटे हों।
यह सब झूठी प्रतिष्ठा बटोरने का प्रयास है। यह सभी का सच्चा चिंतन भटकाने का प्रयास होता है।  जिसमें सब भटकते भी हैं।  नारी संगठन भी भ्रमित होते हैं।

यही हो रहा है , जबलपुर के अभी की दर्दनाक घटना में।  एक माँ (नारी ) दो सजा भुगत रही है , एक सजा किसी विवशता में स्वयं अपनी ही जन्मी बेटी की हत्या करने की (गहन मानसिक वेदना और पश्चाताप की ) , फिर उसके हत्या के अपराध की क़ानूनी दंड प्रक्रिया की।
अगर यह नारी,  माँ रूप में इतनी खतरनाक होती तो अपने पुत्र को भी मार सकती थी (उसका बेटा है ) . उसने दुधमुँही अपनी बेटी को ही क्यों मारा ?

ऐसा करने वाला भले ही अकेला हो , पर लेखक पुनः उससे सहानुभूति व्यक्त करता है (कल के लेख में भी की थी ) . लेखक पुनः सामाजिक परिवेश परिवर्तित करने  लिए प्रत्येक को स्वयं अपने भीतर झाँकने की आवश्यकता पर बल देता है. जिससे हम सभी अपने दुर्व्यसनों और दुर्गुणों को त्याग कर ,  समाज और परिवार की नारी को सुरक्षा और सम्मान का स्वच्छ वातावरण उपलब्ध करा सकें।
राजेश जैन
 

Wednesday, September 17, 2014

माँ द्वारा बच्ची की हत्या

माँ द्वारा बच्ची की हत्या
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जबलपुर में दुखद यह समाचार लोक चर्चा का केंद्र बना हुआ है।
प्रत्यक्ष रूप से माँ द्वारा स्वीकार लेने पर क़ानूनी तौर पर अपराधी यह माँ , दंड भोगेगी । दंड अवधि लंबी हुई तो कारागृह में ही रूप निस्तेज , मानसिक क्षमता कुंद और युवती से अधेड़ होकर लौटेगी।  एक क्षमताशील और अपार संभावनाओं का मनुष्य जीवन यों व्यर्थ चला जाएगा। इस सबके बाद कोई इस दर्दनाक घटना से सही सबक लेगा उसकी संभावना कम ही होगी। ये  या इस प्रकार के अपराध जारी रहेंगें। क्योंकि

"रोग की रोकथाम हर रोगी के उपचार से उतनी प्रभावी नहीं होती , जितनी रोग के कारणों को समाप्त करने से हो सकती है।"

वास्तव में बेटी की गर्भ में या जन्म के बाद हत्या , समाज के ख़राब उन चलनों ( सामाजिक रोग ) से दुष्प्रेरित रोगी मनोवृत्ति है , जिसमें जनक (जन्म देने वाला ) पिता या माँ हत्या को अंजाम देता है।
बेटियों ,बहनों  या नारियों को समाज में जिस तरह शोषित किया जाता है , वास्तव में वह कारण है।  समाज की यह (कु)व्यवस्था एक माँ को इस तरह निर्मम हो जाने को बाध्य करती है कि वह अपनी दुधमुँही बच्ची के मासूम मुख और चंचलता से , जिस पर बारम्बार प्यार उमड़ता है को भी अनदेखा करती है।  जिसे नौ माह गर्भ में पाल कर और (प्राणलेवा) प्रसव वेदना सह कर जन्मने के बाद उसकी हत्या कर देती है।

हम मानवीय संवेदना यदि अनुभव करते हैं तो हममें से प्रत्येक को अपने भीतर झाँकना होगा और अपने दुर्व्यसनों और दुर्गुणों को पहचान कर उन्हें मिटाने होंगे , जिससे आज की नारी शोषक सामाजिक (कु)व्यवस्था पर विराम लग सके। और नारी सुरक्षित ,सुखमय और सम्मानित जीवन का सामाजिक वातावरण पा सके। तब किसी माँ या पिता के हाथों "बेटी की हत्या " ऐसा जघन्य अपराध फिर ना होगा।

लेखक "माँ द्वारा बच्ची की हत्या" के अप्रत्यक्ष कारणों को देख और अनुभव कर पा रहा है। अतः इस अपराध के लिए पुरुष होने के नाते स्वयं सहित आज के पूरे समाज को दोषी मानता है।  ऐसे में उस बेबस हत्यारी माँ से सहानुभूति रखता है , जिसे हमारा संविधान सजा सुनायेगा , जबकि वह अबला करुणा और दया की पात्र है।

इस अपराध की ज्यादा बड़ी दोषी हमारी रुग्ण सामाजिक सोच और व्यवस्था है , माँ तो हत्या का निमित्त बनने से दोषी हुई है। बड़े दोषी (समाज) को दंड ना दे कर छोटी दोषी (माँ ) को दंड  देना अन्याय ही है।  अन्याय के विरुध्द हम एक हों , समाज (यानि स्वयं हम ) पर अपराध का दंड आरोपित करें।  और दंड स्वरूप प्रायश्चित कर  अपनी रुग्ण मानसिकता ,आचरण और कर्मों को तिलांजलि दें।

"यह नारी के प्रति हमारा यथोचित सम्मान होगा जो हम सबकी जननी बनती है "

--राजेश जैन
18-09-2014

 

Sunday, September 7, 2014

अच्छी वस्तु सौंपा जाना उचित

अच्छी वस्तु सौंपा जाना उचित
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उपलब्धियाँ आज क्या हैं ?
ज्ञान प्राप्ति , मान-प्रतिष्ठा , सुख-सुविधा , धन-वैभव तो  पुरातन काल से मनुष्य जीवन उपलब्धियाँ कहलाता रहा है , ऐसा आज भी है।
पहले नशा और  माँसाहार देश के अधिकाँश समाज /हिस्से में वर्जित था , अब इनके सेवन करने वालों की सँख्या अत्यंत तेजी से बढ़ी है। ऐसा कहा जाता है , मजे नहीं किये तो क्या किया जीवन में ? यानि इसे आज जीवन उपलब्धियों में गिना जाने लगा है।
यौन व्यभिचार पहले धिक्कारा जाता था . देश में अभी थोड़ा छिपे तौर पर किया जाता है  लेकिन कुछ समय में पश्चिमी विश्व जैसे यहाँ भी हम खुले तौर पर बेशर्मी पर उतर आयें तो आश्चर्य नहीं होगा। जिस तेजी से मीडिया ( फिल्म, नेट , मोबाइल आदि) इसे परोस रहें हैं। आज पोर्नस्टार , फ़िल्मी अभिनेता -अभिनेत्री होकर लाखों को प्रभावित कर उन्हें प्रशंसक बना लेने में सफल हो रहे हैं। आज पश्चिमी शैली से प्रभावित लोग , इसे भी उपलब्धि कहने लगे हैं।

परोपकार , दया और त्याग पहले जिनके जीवन और आचरण में होती थी , इसे श्रेष्ठ उपब्धियों में समाहित किया जाता था। ऐसे व्यक्ति बहुतायात में होते थे।  आज नई तरह की इन उपलब्धियों के पीछे भागते त्याग करने का समय ही नहीं है। जब सब तरफ अपनी ओर खींच लेने की होड़ मची है। आंज ये उपलब्धि नहीं रह गए हैं .

सच्चे परोपकार , दया और त्याग भावना रखने वाले बिरले हो गए हैं। देश और समाज में बुराई और समस्या इन कारणों से नितदिन बढ़ रही हैं। 
आज कही जा रही उपलब्धियों (भ्रामक) की प्रतिस्पर्धा का हिस्सा ना बनकर , परोपकार , दया और त्याग भावना अपनाने की स्पर्धा में हम सब जुट जायें।  तब स्वस्थ संस्कृति और मानवता पुर्नस्थापित होगी और विशेषकर नारी और सभी सुरक्षित होकर सुखमय जीवन सुनिश्चित कर सकेंगे।  हमारी पीढ़ी पर ये दायित्व है।  हम असफल हुये तो चुनौतियाँ क्रमशः गंभीरतम होकर आगामी पीढ़ियों को हस्तांतरित होती रहेगी।

किसी को सौंपना है तो अच्छी वस्तु सौंपा जाना उचित होता है।  खराबी या समस्या अगली पीढ़ी को ( जो हमारे ही बच्चे होंगे ) को सौंपना हमारी पीढ़ी पर कलंक ही होगा।

--राजेश जैन
07-09-2014

Friday, September 5, 2014

पीढ़ी करे प्रायश्चित

पीढ़ी करे प्रायश्चित
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सेंसर , फिल्मों पर रहा है। इसके होते हुये फिल्मों ने और उससे अधिक फिल्मवालों की मीडिया पर पकड़ ,प्रभावों से स्वयं ही  नायक (भ्रामक) की तरह दिखते /दिखाते रहे ,हमारी पीढ़ियाँ मार्ग भ्रमित होती रहीं , जिससे उत्कृष्ट हमारी परम्परा ,संस्कृति को क्षति पहुँचती रही है।  इसलिये सेंसर प्रभावी होगा इसकी संभावना नगण्य ही है।  प्रबुद्धता का परिचय देते हुए ,  हमारी पीढ़ी को ही ख़राबी कर रहे कार्यक्रमों की trp नहीं बढ़ने देने का प्रयास करना चाहिये।
हर नारी को भोग की वस्तु सी देखना , हमारी संस्कृति नहीं थी।  गलत चल गई इस परम्परा के लिये दोष फ़िल्मों पर ही है , जिसके गीतों को फिकरा जैसे इस्तेमाल करते , राह चलती बहन , बेटियाँ छेड़ी जाती हैं। वे  वासनापूर्ण  निगाहों को झेलने पर विवश होती हैं। और विडंबना ये है कि छेड़ने वाले की बहन , बेटियाँ अन्य की ऐसी करतूतों से परेशान रहती हैं।  ये सामाजिक परिदृश्य क्या नहीं बदला जाना चाहिये ? पास-पड़ोस , बाजार और कार्यलयों में ऐसा दृश्य , जहाँ घर-परिवार को सहारा देने की दृष्टि से विवशता में हमारी परम्परागत नारी गृह देहरी से बाहर निकल आजीविका संभावनाएं खोजती/(अर्जन करती)  हैं।
क्रांति , सयुंक्त प्रयासों और संकल्पों से आती है।  जिस दिन सब ठानेगे तब ही बर्बादी थमेगी।
"छलियों से छले जाने की हमारी चूक का जिससे  हम  भ्रमित हो उत्कृष्ट परम्पराओं और संस्कृति से   भटके उसका यही प्रायश्चित है। "
--राजेश जैन
05-09-2014

Thursday, September 4, 2014

साधारण व्यक्ति , विख्यात से श्रेष्ठ हो जाता है

साधारण व्यक्ति , विख्यात से श्रेष्ठ हो जाता है
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अगर हम विख्यात हैं , और हमसे प्रभावित हो सकने वालेहजारों हैं तब कुछ सैकड़ा ऐसे भी होंगे , जो हमारे जैसा करने की कोशिश करेंगे।
इस स्थिति में हमारा अच्छा कर्म और आचरण हमें सैकड़ों गुना पुण्य अर्जित कराता है। इसके विपरीत हमारे दुष्कर्म , दुराचार और अपराध हमें सैकड़ों गुना पाप का भागीदार बनाता है।

विख्यात को 1 सद्कर्म करने पर अच्छी प्रेरणा बनने पर 100 पुण्य का प्रतिफल मिल सकता है।  जबकि साधारण 1 पुण्य से मात्र 1 पुण्य का प्रतिफल ही पाता है।
विपरीत स्थिति में साधारण उस प्रख्यात की तुलना में महान हो जाता है जब उसका एक दुष्कर्म उसके खाते में एक पाप बढ़ाता है , जबकि  प्रख्यात  का एक दुष्कर्म उसे 100 के बराबर पाप प्रतिफल का हकदार बना देता है।

"साधारण व्यक्ति , विख्यात से श्रेष्ठ हो जाता है। "

इसलिये विख्यात जिसे नायक , नेता ,महान या धर्मगुरु आदि की तरह देखा जाता है , उसे दुष्कर्म , दुराचार और अपराध से बचना चाहिये। उसे सजग और अपनी इस स्थिति का जानकार होना चाहिए।
अन्यथा समाज और देश में अधिकाँश व्यक्ति दुष्कर्मी , दुराचारी और अपराधी ही बनने लगेंगे।

--राजेश जैन
04-09-2014

Wednesday, September 3, 2014

आज सूचना क्राँति आवश्यक है

आज सूचना क्राँति आवश्यक है
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आज नई बनियान पहनने निकाली , रैपर पर एक फ़िल्मी कलाकार की फोटो देखी। बनियान पहनते हुये कई विचार आये। आपसे शेयर कर रहा हूँ।

-  महँगे फ़िल्मी कलाकार की विज्ञापन लिये शुल्क से बनियान की कीमत हमें ज्यादा अदा करनी पड़ती है .
-  वह पहले ही अति धनी है , उसके पास विज्ञापन शुल्क से धन और बढ़ता है। जबकि साधारण व्यक्ति का हाथ अन्य खर्चों के लिए तंग हो जाता है।
-  आवश्यकता से अधिक धन से अय्याशी और व्यभिचार की उसकी करतूतें बढ़ती जाती हैं। दर्शक उसको धन अधिकता और प्रसिध्दि के कारण नायक मान कर उसका अनुशरण कर बुराई के मार्ग की दुष्प्रेरणा लेता है और देश समाज का वातावरण दूषित करता है। मासूम युवतियाँ जो फ़िल्म को अपनी आजीविका बनाने भटकती है। इस तरह के लोगों का शिकार हो अपना जीवन दुःखमय बना लेती हैं।
-  अति धन और प्रसिध्दि के कारण उसका अभिमान बढ़ गया है। एक के बाद एक उसके अपराध, इस अभिमानी प्रवृत्ति के   कारण बढ़ते हैं। जिसके शिकार मासूम नागरिक और जँगली जानवर तक हुए हैं।
-  अपराधों की सजा से बचने के लिए वह रिश्वत देकर हमारे अधिकारियों और अन्य प्रभावशालीयों को खरीदता है , जो उसके अपराधों के दस्तावेज गायब करते हैं।
-  जो साधारण व्यक्ति से भी बुराई के तौर पर नीच है , वह विज्ञापनों , फिल्मों और मीडिया के ऊपर दिखकर , घर-घर में पहुँचता है , आज वह ईश्वर से ज्यादा नज़रों में आता है।

समाज में बुराई अधिकता और मानवता का हश्र , आधुनिक माध्यमों (मीडिया ) की इस गैर -जिम्मेदाराना रवैय्ये के कारण हो रहा है , जिससे जुड़े लोग थोड़े व्यक्तिगत हितों के लिये , समाज ,देश और मानवता हित से बेपरवाह हो रहे हैं ।

इसलिए सूचना क्राँति आवश्यक है . कैसे आये ? इसका आरम्भ प्रभावित साधारण व्यक्तियों से ही होगा . सर्वप्रथम उसे,  हानिकारक आज की इस हेड़चाल में सम्मिलित होने से बचने  के लिये अपने मनोमस्तिष्क में गंभीर विचार को स्थान देना होगा। चकाचौंध के सम्मोहनों से मुक्त होने के लिए विवेक का उपयोग करना होगा।

राजेश जैन
03-09-2014

Tuesday, September 2, 2014

करता मोहब्बत 'कोई' नहीं

करता मोहब्बत 'कोई' नहीं
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कवि सम्मेलन सुना करता था ,उसमें सुने एक गीत की पंक्तियों में से स्मरण रही निम्न पँक्ति जब तब विचार में आती है

"बच के निकल जा इस दुनिया से , करता मोहब्बत 'कोई' नहीं "

विद्वान कवि ने अपनी लेखनी और प्रस्तुति से , सभी को यथार्थ से आगाह किया है।

आज जब फिर पंक्तियाँ स्मरण आई तब एक विचार आया
...
इस कोई में हम स्वयं भी सम्मिलित होते हैं , जो किसी से आत्मिक प्रेम नहीं करता है। अगर हम ऐसे हैं तो हमारी सच्चे प्रेम की 'कोई' अपेक्षा हमें निश्चित ही निराश करेगी। तब हमें बाध्य होकर यही कहना होगा

बच के निकल जा इस दुनिया से , करता मोहब्बत 'कोई' नहीं ……

किन्तु अगर हम सच्ची प्रीत स्वयं करेंगे जो दैहिक अपेक्षा के ऊपर उठ आत्मिक स्तर तक पहुँचेगी , तब यह दुनिया हमें प्यारी लगने लगेगी , और दुनिया अच्छी हो जायेगी तब हम गुनगुना सकेंगे

"बच जा इस दुनिया में , करता हर कोई मोहब्बत यहाँ "

--राजेश जैन
02-09-2014

सूचना (प्रसारण) क्रांति लानी है

सूचना (प्रसारण) क्रांति लानी है
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टीवी की एक समाचार चैनल कल रात्रि , पिछली सदी के 2 फ़िल्मी कलाकारों की प्रेम कहानी दिखा रही थी। दोनों ही आज जीवित नहीं हैं। ना ही उन्होंने विवाह ही किया था। ऐसे ख़त्म हो चुके प्रेम प्रसंग को उघाड़कर (अपनी कपोल कल्पनायें जोड़कर ) दर्शकों के समक्ष लाकर मालूम नहीं कौनसी समाज हित की प्रेरणा यह चैनल देना चाहती थी ( लेखक ने शीर्षक देख कर... देखने पर समय व्यर्थ करना ठीक नहीं समझा )

जब समस्याओं और बुराईयों से देश और समाज व्यथित है। तब आधुनिक मीडिया ज्यादा उचित होगा ,अपना और दर्शक का समय उन प्रसारण पर केंद्रित करे जो इन्हें कम करने में सहायक हों और दर्शकों को परिवार ,समाज ,देश और मानवता के प्रति ज्यादा जिम्मेदार बनने की प्रेरणा देते हों ।

उल्लेखित तरह के प्रेम प्रसंग से तो दर्शक अवैध विवाहेत्तर प्रेम संबंधों को ही दुष्प्रेरित होगा , जो संस्कृति ,और संविधान सम्मत भी नहीं है। और इस बुराई में फँस अनेकों का जीवन नर्क बन रहा है।

दिन भर माध्यमों पर बकबक ,अश्लीलता के प्रसारण , लेख तथा उल्लेख, समाज में आडम्बर ,ऐय्याशी की प्रवृत्ति और व्यभिचार को ही बढ़ावा देते हैं तो आधुनिक माध्यमों के उपयोग ( प्रस्तुतक , श्रोता और दर्शक ) की शैली पर प्रश्नचिन्ह लगता है। दोषपूर्ण प्रस्तुतियां अधिक जिम्मेदार मानी जायेगी।

आवश्यकता है उन्नत और आधुनिक हुये माध्यमों की विश्वहित ,देशहित ,समाजहित और मानवता हित में प्रयोग और उपयोग की है। जो समाज में सुख -शांति , परस्पर विश्वास और भाईचारा को प्रवाहित कर सके।

आज की हमारी पीढ़ी को यह सूचना (प्रसारण) क्रांति लानी है। हमारा मनुष्य -जीवन दायित्व यही है।

राजेश जैन
01-09-2014