Sunday, May 31, 2020

विचार और कर्मों में 
सार्थकता एवं सहजता
बनाये रखने पर, परवाह नहीं रह जाती 
कि उम्र किस पड़ाव पर पहुँचते जा रही है   

अनुपमा ..

अनुपमा ..

तीन दिन अनुपमा की ओर से कुछ सुनने नहीं मिला। सरोज सशंकित रही, तब चौथे दिन पड़ोस की एक भौजाई ने बताया कि अनुपमा को उसके पापा ने स्कूल छुड़ा दिया है।
सरोज ने पूछा- ऐसा क्यों?
तो उसने बताया कि- अनुपमा के साथ एक लड़के ने, पाँच छह दिन पहले छेड़खानी कर दी थी, इसलिए।
इस पर सरोज ने कुछ नहीं कहा मगर उसका मन अशांत हो गया। मन तर्क करने लगा, अपराध लड़का करे, सजा, निर्दोष लड़की को मिले? फिर सोचने लगी, नई बात क्या है? यही तो समाज की रीति नीति है।
सरोज को गलती सी लगी कि अनुपमा को उसने ही तो, रविन्द्र की हरकत अपने पापा-मम्मी से बताने कहा था।
फिर अपनी इस बात को आप ही, सही ठहराने लगी कि- नहीं! पापा-मम्मी को अँधेरे में रखने देना, उचित भी तो नहीं होता। 
वह उपाय सोचने लगी कि कैसे, निर्दोष अनुपमा की सहायता करे? कैसे, एक अच्छी बेटी की पढ़ाई, अधूरे में खत्म नहीं हो जाने दे?
फिर सरोज ने जगन को राजी किया और उसी दिन संध्या के समय, जगन एवं सरोज, अनुपमा के घर जा पहुँचे।
पहले जगन, अनुपमा के पापा से औपचारिक बातें करता रहा, तब अनुपमा की मम्मी, पहले और फिर अनुपमा सामने आईं।
सरोज को यही अवसर चाहिए था। उसने, अनभिज्ञ बनते हुए पूछा- अनुपमा, तुम्हारी पढ़ाई, कैसी चल रही है?
उत्तर में अनुपमा नहीं, कुछ उत्तेजित स्वर में, उसके पापा बोले- हमने, अनुपमा का स्कूल जाना, बंद करवा दिया है।
प्रत्युत्तर में सरोज ने पूछ लिया - क्यों, भला?
तब अनुपमा की मम्मी ने रविन्द्र की जबरदस्ती का, अनुपमा का बताया पूरा किस्सा दोहराया।
इस पर सरोज ने कहा- मगर भाभी यह तो ठीक नहीं है। ऐसे पढ़ाई बंद होने से, अनुपमा की आशाओं का क्या होगा? खराबी किसी लड़के की है, ऐसे हम अपनी, निर्दोष बेटी पर पाबंदियाँ क्यों लगायें?
अनुपमा के पापा कहने लगे - तुम, मुंबई रहके आई हो इसलिए ऐसा कह सकती हो। यहाँ गाँव में बेटी का पापा, बेचारा होता है। अभी गाँव की छोटी सोच होने से, यहाँ, अनुपमा के बारे में इधर उधर की बात होने लगेगी। पढ़ाई के प्रयास से लाभ कुछ होगा नहीं, उसके चक्कर में उसको ब्याहने, कोई ना तैयार होगा। 
सरोज को इस बात पर गुस्सा तो आया, मगर उसने स्वर संयत रखते हुए कहा- मगर भैया जी, हम, लगभग सभी तो बेटी के माँ-बाप होते हैं।      
समस्या के सामने ऐसे समर्पण से तो हमारी बेटियों के, अच्छी उपलब्धियों के अवसर, हम ही खत्म कर देंगे। कृपया आप अनुपमा को स्कूल जाने दीजिये। अपनी तसल्ली के लिए कभी आने जाने में, कुछ दिन खुद भी साथ जाइये।
सरोज की बात पर अनुपमा के पापा-मम्मी, अनमयस्क तो दिखे मगर राजी हुए कि कल से, अनुपमा को स्कूल भेजेंगे।
जगन और सरोज लौट रहे थे तब, अनुपमा के मुख पर कृतज्ञ होने का भाव झलक रहा था।
घर के रास्ते में, जगन सरोज की प्रशंसा करते हुए कह रहा था- वाह, सरोज तुम बड़ी ही तर्कसंगत बातें रखती हो। जिसे समझने में आसानी होती है।
ऐसा नहीं है कि सारी समझदारी सरोज के जिम्मे थी। गाँव बहुत बड़ा नहीं था। ऐसे में रविन्द्र को, अनुपमा स्कूल जाते हुए नहीं दिख रही थी। फिर उसके कानों तक बात पहुँची कि किसी लड़के की छेड़छाड़ के कारण, अनुपमा के घर वालों ने अनुपमा की पढ़ाई छुड़ा दी है।
ऐसा होते/सुनते हुए, रविन्द्र को बहुत ग्लानि बोध हुआ। रविंद्र की स्वयं की एक बड़ी और एक छोटी बहन थी।
उसकी कल्पना में एक ऐसा दृश्य उभर आया जिसमें, उसकी दोनों बहनों के साथ, गाँव के कुछ लड़कों ने छेड़छाड़ की है। जिसके कारण हुई बदनामी में, उनके पिता न जल्दबाजी में, वर की योग्यता बिना देखे, दोनों का एक ही मंडप में विवाह कर दिया है। जबकि छोटी बहन तो अभी पूर्ण वयस्क तक नहीं हुई है।
कल्पना पटल पर उभरे इस दृश्य ने, रविन्द्र के शरीर में सिहरन उत्पन्न कर दी। उसे प्रतीत हुआ कि अनुपमा पर उसने कोई छोटा अपराध नहीं किया है, अपितु उसके जीवन सपनों की हत्या कर दी है। वह हत्यारा है। कल्पित ऐसे दृश्य ने उसका, अमन-चैन छीन लिया।
तब साहस जुटा कर, एक रात्रि वह, अनुपमा के घर गया। और जैसे ही, अनुपमा के पिता सामने आये, वे कुछ देखते समझते, उसके पूर्व ही, वह उनके चरणों को छूने झुक गया।
फिर विनतीपूर्वक स्वर में बोला कि, काका, मुझसे बड़ी भूल हुई है। अनुपमा का, कोई दोष नहीं है। आप, उस पर कृपया कोई बंदिशें नहीं लगायें। मेरी भी, घर में दो बहनें हैं। मैंने पहले क्या किया है, भूलकर अनुपमा को अबसे, अपनी छोटी बहन जैसा ही समझूँगा। आप उसे स्कूल, जाने दीजिये। मैं खुद, अब इस बात की फ़िक्र रखूँगा कि कोई उसके साथ, गलत तरह से पेश नहीं आये।
अनुपमा के पिता, सीधे-सादे, भोले से व्यक्ति थे। उन्होंने बिना कोई व्यर्थ बात किये कहा- रविंद्र, मैंने तुम्हें क्षमा किया। आगे तुम कोई गलत काम नहीं करना। तुम नहीं जानते कि लड़की का पिता, इस समाज में कितना दीन हीन सा रहता है। उसे हर समय, बेटी की कोई बदनामी न हो, यह चिंता, सताये रखती है। 
तब रविन्द्र, दीनता पूर्वक कहने लगा - काका, मैं पहले ही बहुत लज्जित हूँ। ऐसा कह कर मुझे और लज्जित न कीजिये।
फिर वह लौट गया था।
अनुपमा का, पुनः स्कूल जाना शुरू हुए, दस दिन बीते होंगे। तब एक छुट्टी वाले दिन, दोपहर में वह सरोज के पास आई।
उसने यह वृतांत सुनाया, तब सरोज खुश होते हुए बोली - बहुत अच्छी बात है, अनुपमा। वास्तव में अनाज सभी खाते हैं, विवेक सभी को होता है, बस उसे जागृत नहीं रख पाते हैं। ऐसी हालत में ही कोई, अपने आनंद-ख़ुशी के लिए, दूसरों की ख़ुशी की हत्या करता है। यह बहुत अच्छा हुआ कि बिना किसी दबाव में, रविन्द्र ने अपनी खराबियों को समझा और उसका खेद किया है। मगर बेटी तुम, रविन्द्र को बहुत भाई सा, मानने की भूल न करना, भाई और 'भाई जैसा' होने में अंतर होता है। 
तब अनुपमा हँसते हुए बोली- हाँ, मेरी प्यारी चाची, मैं यह ध्यान रखूँगी।  ये सब आपके आभा मंडल का प्रभाव है कि हमारे गाँव में विवेक के प्रयोग करने का, फैशन आ गया है।
फिर दोनों ही साथ, खिल खिला कर हँसने लगीं ..       

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
31-05-2020
                

Saturday, May 30, 2020

परामर्शदात्री ..

परामर्शदात्री ..

गाँव में सरोज को यूँ ख्याति मिलने लगी थी कि वह, औरतों-लड़कियों की भलाई की फिक्रमंद एवं सुलझे विचार रखने वाली, स्त्री है। ऐसे में ही एक दिन, एक 14-15 वर्ष की लड़की उसके पास आई।
उससे बोली- चाची, मुझे आप से बात करनी है।
सरोज ने कहा- बताओ।
वह बोली- चाची, मेरा नाम अनुपमा है। मुझे जो कहना है वह अकेले में कहना चाहती हूँ।
गर्मी के दिन होने से दोपहर में बच्चे सोते हैं और घर के मर्द काम काज में बाहर गए होते हैं। उस समय को उपयुक्त मानकर, सरोज बोली- ठीक है, तुम आज दोपहर, दो बजे आओ।
अनुपमा बोली- ठीक है चाची, मैं दोपहर दो बजे आती हूँ। आज मेरे स्कूल की छुट्टी भी है।
जब अनुपमा, दोपहर सरोज के घर पहुँची तब बच्चे सोये हुए थे। सरोज ने, नीलम को उनके पास लेटने के लिए कहा और खुद अनुपमा के साथ, आँगन में लगे आम के वृक्ष की छाया में, चबूतरे पर दरी बिछा कर, अनुपमा के साथ आ बैठी।
अनुपमा सकुचाते हुए कहने लगी- चाची, आप किसी से कहना नहीं, मुझे एक परेशानी पर आप से सलाह चाहिए।
फिर दोनों के बीच का वार्तालाप यूँ हुआ-
सरोज: अनुपमा, तुम चिंता न करो और बिना भय के, जो मन में है सब कहो।
अनुपमा: चाची, पिछले 15-20 दिनों से जब मैं, साइकिल से सहेलियों के साथ स्कूल जाती-आती हूँ तब रास्ते में रविंद्र नाम का एक 20 साल का युवक रास्ते में खड़ा मिलने लगा है। सहेलियों ने मुझे बताया कि वह तुझे देखा करता है तो मैं भी उसे देखने लगी। वह सुंदर और अच्छे कपड़ों में होने से, मुझे अच्छा लगने लगा। दो दिन पहले, मैं स्कूल से लौटते हुए, एक सहेली के घर टीचर का दिया, गृहकार्य को करने के लिए रुक गई थी। बाद में, मैं जब अकेली लौट रही थी, तो रविंद्र ने, वीरान रास्ते पर 1 जगह, अपनी बाइक मेरे साईकिल के सामने अड़ा कर रोकी। और मुझसे कहने लगा, मैं तुमसे प्यार करता हूँ, तुम शाम के समय मेरे खेत पर आना, मैं तुम्हें मोबाइल पर, प्यार वाली अच्छी फिल्म दिखाउंगा।
उसकी इस हरकत से मैं सकपका गई। मैंने हाँ, आऊँगी कह कर पीछा छुड़ाया। फिर डर के मारे, मैं कल स्कूल भी नहीं गई। चाची, आप बताओ, मैं इस समस्या से कैसे बचूँ? (फिर कुछ रूककर, आगे बोली)  चाची, सब नाराज होंगे इसलिए मैंने घर में किसी को, यह सब नहीं बताया और किसी सहेली को भी नहीं बताया है।
तब, अनुपमा चुप हुई तो कुछ मिनट सरोज भी चुप रही। अनुपमा, सरोज की शक्ल देखते रही और सरोज इस उम्र की लड़की के मनोविज्ञान की समझने की कोशिश करते हुए सोचने लगी कि कैसे उसे समझाया और परामर्श दिया जाये। 
फिर सरोज ने कहना आरंभ किया-
तुमने अच्छी समझदारी दिखाई है, अनुपमा! वास्तव में समस्या आरंभ होते ही सुलझाना आसान होता है जबकि बढ़ने पर कठिन हो जाता है। तुमने ऐसे समय उपाय खोजना शुरू किया है, जब परेशानी छोटी है या यूँ कहें कि अभी परेशानी ही नहीं है।
(यह अनुपमा के डर को दूर करने और उसका आत्मविश्वास बढ़ाने की दृष्टि से सरोज ने कहा, जबकि सरोज सोच रही थी कि अनुपमा ने रविंद्र से आँखे मिलाने की गलती की है, जिससे रविंद्र को यह हौंसला मिला कि उसे खेत पर बुलाने का दुस्साहस करने लगा)
अनुपमा खुश हुई, पूछने लगी कि-  फिर क्या करना चाहिए? 
सरोज: तुम कल से स्कूल जाओ। सहेलियों को साथ रखो। और जहाँ आभास हो कि रविंद्र आसपास है या पीछे है, तुम सतर्क रहो मगर, प्रत्यक्ष में यह दिखाओ कि तुमने उसे देखा नहीं है। 
अनुपमा : यदि वह रोकने लगे तो? 
सरोज : मुझे नहीं लगता कि सहेलियों की उपस्थिति में वह ऐसा कुछ कर पायेगा। अगर तब भी यह दुस्साहस करे तो उसे कह देना कि मैंने, घर में तुम्हारी बात बताई है तो मुझे, डाँटा गया है और तुमसे मिलने को मना किया गया है। 
अनुपमा (चिंता से) : मगर उसने सबके सामने, कोई जबरदस्ती की तो मेरी बदनामी हो जायेगी। 
सरोज : नहीं, अभी बदनामी जैसा कुछ नहीं है। तुमने उसके बुलावे पर खेत नहीं जाकर ऐसे खतरे से स्वयं को बचा लिया है। (फिर प्रश्न के लहजे में) अनुपमा, तुम टीवी में, क्या देखती हो?
अनुपमा : जो फिल्में आतीं हैं मुझे वह देखना अच्छा लगता है। 
सरोज : अनुपमा, अभी फिल्में देखना बंद कर दो। फ़िल्में किशोरवय बच्चों के मन को हवा देतीं हैं और अगर खेत पर तुम चली जातीं तो रविंद्र तुम्हें वो दिखाता जो तन को हवा देती हैं। और ऐसा होता तो यह बदनामी की बात हो सकती थी। 
अनुपमा: (विचारणीय मुद्रा में) - चाची, वह क्या? 
सरोज : अनुपमा, आजकल ऐसी सामग्री बहुत है जिनसे दैहिक उत्तेजना पैदा हो जाती है। वह सब, इस उम्र के बच्चों के लिए फिल्मों से ज्यादा ख़राब है। एकांत में किसी युवक द्वारा, तुम जैसी किसी कम वय किशोरी को, बुलाने की नीयत, कोई अच्छी नहीं होती है। वह पक्का तुम्हारे शरीर से खिलवाड़ करता। फिर तुम्हारी इस गलती को, सबको बताने के नाम पर, तुम को आगे भी, अपनी मनमानी को बाध्य करता। अगर ऐसा हो गया होता तब, तुम्हारी बदनामी वाली बात हो जाती।
कोई हमारे अकारण, हम पर आ पड़े तो इसमें, हमारा कोई दोष नहीं होता है। तुम, पढ़ने के लिए ही तो घर से निकल रही हो। किसी लड़के को आमंत्रित नहीं कर रही हो, तुम निर्भय रहो। 
अनुपमा ने यूँ सिर हिलाया कि जैसे उसे सब समझ आ गया है कि, उसने बदनामी जैसा कोई काम नहीं किया है। वह बोली- चाची, आप बहुत अच्छी हैं।
(तब, एक स्टेज की वक्ता की भाव भंगिमा सहित ओजस्वी स्वर में) सरोज: बेटी, अब हम चेतना बढ़ाकर यही बदलाव लायेंगे। हमें, अर्थात स्त्रीजात को, मर्दजात जबरन अपनी ख़राब नीयत की जद में लेता है तो भी समाज में बदनामी, हमारी होती है। दोष ऐसे खराब मर्द का कम, हमारा ज्यादा बताने की, ये सामाजिक व्यवस्था पक्षपात पूर्ण है।
अगर कोई युवती ऐसे बदनीयत मर्द का प्रतिरोध करती है तो उसे सबक सिखाने के लिए हैवानियत पूर्ण एसिड अटैक की प्रवृत्ति, हम पर मानसिक दबाव और बढ़ा देती है। अगर, रूप और हमारा यौवन काल है तो इसमें, हमारा दोष कुछ नहीं होता है। फिर क्यों, हम नारी, अपने में छिपी-दुबकी रहने को बाध्य रहें?
अब हम बदलाव लाएंगे। आगे से बदनाम वह पुरुष ही होगा, जो हम पर यूँ बदनीयती से हाथ डालने की कोशिश करेगा। हम निर्दोष होते हुए अब और नहीं दबेंगे।
ऐसे सामाजिक बदलाव अब आरंभ हो चुके हैं। आशा है, जल्द ही पूरे समाज में मूर्तरूप ले लेंगे। तब तक लड़कियों को सावधान रहना है।
लड़कियों को अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना है। किसी लड़के की शक्ल एवं दौलत के प्रति आकृष्ट होने से बचना है। उसे वह मौका नहीं देना है, जिसे समाज गलत मानता है। अर्थात ख़राब लोगों के बहकावे में, खुद पर, उन्हें शारीरिक शोषण के मौके देने की गलती नहीं करना है।
ऐसी गलती से कोई लड़की उनके ब्लैकमेलिंग के जाल में फँस जाती है और अपना जीवन दुरूह कर लेती है। ऐसे जाल में उलझना, अपने पर विकट समस्या ले लेना होता है। ऐसा होने पर लड़की का प्रतिरोध, उस पर एसिड अटैक की आशंका उत्पन्न करता है तथा ख़राब उद्देश्य से बना लिए गए, अश्लील वीडियो के पब्लिश किये जाने से, लड़की को अवसादग्रस्त जीवन जीने को मजबूर करता है।
अब हम वह बदलाव लाएंगे जिनमे ऐसे वीडियो में संलिप्त पुरुष को ही दोषी माना जायेगा एवं समाज में बदनामी लड़की की नहीं, उस व्यभिचारी युवक/लड़के की होगी।
हमें, इस हेतु आरंभ अपने भाई, पति और बेटे के सही सँस्कार और न्यायप्रियता की शिक्षा/प्रेरणा से करना है ।
किसी लड़की पर बुरी नीयत रखने वाला, ऐसा कोई लड़का या पुरुष हम जैसे घर का ही भाई, बेटा या पति होता है। ऐसी बुरी नीयत रखने वाला कोई पुरुष, किसी विशिष्ट वर्ग से नहीं होता अपितु हम जैसे परिवारों में ही होता है। जो छिपे रूप में, अवैध संबंध की जद में, किसी लड़की या युवती को लेता है। 
(अब, सरोज का स्वर धीमा होता है, आगे कहती है)
बेटी, तुम जाओ और जैसा तुम्हें बताया है उस अनुसार ही तुम करो। और कोई बात होती है तो तुरंत मुझे आकर बताओ। अगर रविन्द्र कोई जबरदस्ती पर आता है, यद्यपि इसकी संभावना नहीं है, मगर वह ऐसा करता है, तो आगे क्या जरूरी है हम करेंगे।
और हाँ अब तक जो हुआ है उसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है। तुम अपने मम्मी-पापा को भी, यही सब आज बता दो।
वास्तव में, किसी बच्चे के मम्मी-पापा, उसके सबमें बड़े हितैषी होते हैं। बच्चे उनसे छुपा लेने की गलती करके ही, अपने पर ज्यादा बड़ी तकलीफ बुला लेते हैं। 
फिर सरोज चुप हुई।
सभी बातें तन्मयता से सुन रही, अनुपमा, अब विचारों में लीन सी दिख रही थी, बोली चाची- आपने मेरा साहस बढ़ा दिया है। मैं, व्यर्थ ही इसे अपनी भूल मान, ग्लानि बोध से भर रही थी। जबकि यह रविन्द्र की खराबी है। मैं अब, सब आपके बताये अनुसार ही करूंगी।
तब सरोज ने, ममता उसके सिर पर हाथ फेरा, फिर अनुपमा मुस्कुराते हुए चली गई थी।
सरोज सोचने लगी थी- मालूम नहीं यह छोटी सी लड़की, उसके भाषण तरह की बातें, कितनी समझ सकी है ..         
     
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
30-05-2020

Friday, May 29, 2020

टीम भावना ..

टीम भावना ..

अब सरोज घर में अपने एवं नीलम (देवरानी) के बच्चों की लाड़ दुलार के साथ यथोचित देखभाल करती। जबकि नीलम, अपने कहे अनुसार रसोई एवं गृहस्थी के सभी काम निबटाती।
सरोज को, इससे काफी समय रचनात्मक योगदान के लिए, तैयारी का मिल जाता। वह नारी मनोविज्ञान से संबंधित साहित्य ढूँढा करती, उन्हें पढ़ती।
साथ साथ वह गाँव में अपने तरह की बहुओं से, मेल मिलाप बढ़ाती। उनसे बच्चों एवं गृह विषयों पर चर्चा करती। मुंबई शहर में रहकर आई होने से, सरोज के विचार उनसे ज्यादा सुलझे थे। वह गाँव की इन औरतों के साथ, उनके अंधविश्वासों पर चर्चा करती और प्रामाणिक बातों से, उन्हें, उस पर चिंतन को प्रेरित करती।
ऐसा होते कोई दो महीने हुए होंगे। एक दिन नीलम दोपहर में उसके पास आई। सरोज ने उसे स्नेह से आलिंगन किया, फिर पास बिठाया।
कुछ पल नीलम छोटे बच्चों को खेलते देखते रही, फिर आदर से बोली-
दीदी, आजकल गाँव की औरतों में आपकी बहुत चर्चा है। आप उनमें बड़ी लोकप्रिय हो रही हैं। (नीलम, पहले चिढ़ती थी, तब सरोज को जिठानी संबोधित करती थी, अब उसे चाहने लगी तो, आदरपूर्वक दीदी कहने लगी थी)
सरोज ने मुस्कुराते हुए कहा- ठीक तो है ना, जितना तुम चाहती हो, उससे कुछ कम ही, मुझे, वे चाहती हैं!
नीलम ने आगे कहा- दीदी, आपके और जेठ जी के वापिस आने के बाद से, गाँव में अपने परिवार का आदर बढ़ गया है।
सरोज ने कहा- नीलम, परिवार में जब हम आपस में, एक दूसरे को सम्मान देते हैं, प्रेम करते हैं, एक दूसरे के लिए किसी भी त्याग को तैयार रहते हैं, तो यही हमारे स्वभाव में आ जाता है। हम, बाहर भी सबसे इसी तरह का व्यवहार और सहयोग करने लगते हैं। इससे परिवार को आदर मिलता ही है।
तुम्हारे जेठ ने, मुंबई में ज्यादा तरह के निर्माण किये और देखें हैं। जिससे इनके काम में गुणवत्ता अच्छी है। अपने अच्छे काम से गाँव और आसपास इनकी यूँ पहचान बनी है। वहाँ तो जगन, बेलदार राजमिस्त्री के तरह काम करते थे, जबकि यहाँ साथ में, इन्हें अब ठेके भी मिलते हैं।
तब नीलम बोली- सच दीदी, पिछले एक साल में, अपने परिवार की आमदनी बहुत बढ़ गई है।
सरोज ने कहा- नीलम इसमें विशेषता भी देखो कि इस आमदनी के अवयव नैतिकता एवं अथक परिश्रम हैं। ऐसी कमाई दीर्घकाल में उत्कृष्ट फलदायी होती है। और, ऐसा सब तुम एवं तीनों देवर के सहयोग के कारण हो सका है।
नीलम ने आगे कहा- लेकिन हम सभी तो पहले ही थे। तब परिवार का ना तो इतना आदर था और ना ही ऐसी आय थी।
तब सरोज ने समझाते हुए कहा- टीवी पर तुम क्रिकेट देखती हो ना, जिसमें टीम खेलती है। किसी टीम में हर मेंबर की, अलग भूमिका और खूबियाँ होती हैं। टीम अच्छा प्रदर्शन तब करती है जब, सभी मेंबर अपनी अपनी खूबी से, योगदान करते हैं।
ऐसे ही परिवार भी एक टीम होता है। सभी को, अपनी अलग अलग खूबियों को परिवार हितों में मिलाना होता है। एकजुटता के ऐसे प्रयास निश्चित ही बरकत के कारण बनते हैं।
नीलम प्यार से सरोज को देखते हुए, मुग्ध हो सुन रही थी। सरोज के चुप होने पर बोली- दीदी, आप कितने अच्छे से समझाती हैं जबकि आपने, ऐसी ज्यादा पढ़ाई  भी नहीं की है।
सरोज ने प्यार से कहा- नीलम, पढ़ाई से, गणित, विज्ञान, भूगोल एवं इतिहास आदि का ज्ञान बढ़ता है। अभी जो बातें मैं कह रही हूँ वह, व्यवहारिक तथा नैतिकता की बातें हैं, जो अपने विवेक से समझी, कहीं और निभाई जातीं हैं। इनका पढ़े लिखे होने से बहुत संबंध नहीं होता है। यद्यपि इनके लिए भाषा पर अधिकार एवं हममें अभिव्यक्ति कौशल, आवश्यक होता है। 
तब नीलम ने कौतुहल से पूछा- मगर दीदी, मैं आप जैसा, समझ और समझा क्यों नहीं सकती हूँ ?
सरोज ने मधुरता से कहा नीलम- यह तो, किसी में कुछ और किसी में कुछ अन्य खूबी होने से होता है। देखो ना, जो बात मुझमें अब दिखाई पड़ती है, पहले कहाँ थी?
(फिर, उत्तर देने के अंदाज में)- यह तुम्हारी खूबी है, जिसमें तुमने घर में अपनी और मेरी भूमिका को पहचाना और फिर अपनी उत्कृष्ट टीम भावना का परिचय देते हुए, खुद के लिए ज्यादा मेहनत और उबाऊ काम लिए और मुझे इस भूमिका के लिए तैयार करने का अवसर दिया।
स्पष्ट था कि सरोज का, खुद की प्रशंसा से सीना चौड़ा नहीं हो जाता था अपितु वह प्रशंसा करने वालों में उनकी प्रशंसा खोज कर, उनको प्रोत्साहित करने का गुण रखती थी। 
सरोज ने आगे कहना जारी रखा- तुम्हारा किया त्याग और सहयोग, हमारे घर को, एक टीम जैसे उभरने में कारण हुआ है। जगन को वित्तीय विषय में एवं मुझे, समाज व्यवहार में पारंगत करने में, तुम्हारी विकेट कीपिंग तरह की भूमिका लेना ही इसका कारण है। अपने दो देवर अभी किशोरवय हैं, जो हममें ऐसा सामंजस्य देख, जब बड़े होंगे तो इस परिपाटी पर चलकर, परिवार को और मजबूत बनायेंगे। कह सकते हैं कि हम, उनमें अच्छे संस्कार की नींव रख रहे हैं। 
तब नीलम खुश होते हुए, खेल रहे बच्चों की ओर इशारा करते हुए बोली - दीदी, तब तो इन बच्चों में निश्चित ही अच्छे संस्कार पड़ेंगे। 
सरोज बोली- बिलकुल, ये बच्चे बड़े होकर, छल कपट एवं भ्रष्टाचार में न पड़कर, अपनी क्षमताओं का प्रयोग, व्यवसायिक शुचिता रखने, समाज में न्यायप्रियता का परिचय रखने एवं नारी के प्रति सम्मान एवं बराबरी की दृष्टि रखने, में कर सकेंगे। 
तब नीलम बोली- तब तो दीदी, मुझे अपने लिए, अपनी कोई पहचान नहीं बनाने वाली भूमिका के चयन पर, पछतावा नहीं होगा।    
इस पर सरोज ने समझाया- नीलम, यह हमेशा से होता आया है, किसी अच्छाई के वास्तविक नायक, पर्दे के पीछे होते हैं और श्रेय किसी और को जाता है।
ऐसी पहचान नहीं होने का रंज तथा पहचान होने का घमंड, व्यर्थ है
एक समय बाद सब इतिहास हो जाते हैं। सब, समय के साथ भुला भी दिए जाते हैं। तुम सोचो, 100-150 वर्ष पूर्व, क्या अच्छा करने वाले लोग नहीं रहे होंगे?
(फिर खुद उत्तर में, एक और प्रश्न करते हुए) निश्चित ही रहे थे, मगर आज कितने जानते हैं, उन्हें?
(फिर निर्णयात्मक स्वर में आगे बोली)- मगर उनकी दीं हुईं अच्छी परंपरायें आज भी हैं। जिनका पालन करते हुए, हम एक मर्यादित समाज होने की प्रेरणा लेते हैं। 
तब समझ जाने के अंदाज में नीलम ने सिर हिलाया, बोली- विपदायें भी कुछ अच्छी बातों का कारण बनती है। यदि कोविड-19 नहीं होता, आप 1200 किमी के कष्टमय सफर में, अनेक खराबियों की तल्लीनता से साक्षी नहीं होतीं और गाँव नहीं लौटतीं, (फिर प्रश्नात्मक लहजे में)- तो क्या हमारा परिवार, आज जितना सुखी कभी होता?
भाव विभोर हो, सरोज ने नीलम को देखा फिर उत्तर दिया- नीलम, तुम्हारा सहारा और आधार मिलने से, मैं सोचने लगीं हूँ कि जो अच्छाई तुम परिवार में अनुभव कर रही हो, मैं उसे विस्तार देकर, इसे गाँव की घर घर की कहानी होने की बुनियाद निर्मित करूं। 
फिर, क्यों नहीं, कहते हुए, नीलम, अपराह्न के चाय-नाश्ते के लिए रसोई में चली गई।
और सरोज अपने, आगामी समाज हितकारी सपनों में चली गई..     
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
29-05-2020

Thursday, May 28, 2020

स्वयं में निहित संभावनायें ..

स्वयं में निहित संभावनायें .. 

देवरानी का हुआ, हृदय परिवर्तन परिवार की हित की दृष्टि के साथ ही सरोज के लिए भी अत्यंत हितकारी हुआ। 
सरोज के जुड़वाँ बच्चे होने के कोई महीने भर बाद एक सुबह कुयें पर देवरानी ने आदर भाव से सरोज से कहा- जिठानी घर उतना ही बड़ा है। सब के खाने, कपड़ों और झाड़ू बुहारी का काम मैं करती ही रही हूँ। आप दो और सदस्य के लिए भी करना, मेरे लिए कोई बड़ा भार नहीं। आप मेरी मानें तो आपसे, मैं एक बात कहना चाहती हूँ।
सरोज ने पास लेटे बच्चों को थपकी देते हुए सशंकित स्वर में पूछा - बताओ क्या चाहती हो?
तब देवरानी ने कहा- मैं, पहले जैसे ही सब काम कर लूँगी। आप बस इतना कीजिये कि अपने बच्चों के साथ, मेरे बच्चों की देखभाल और उनका भी मार्गदर्शन किया करें।
सरोज को यह सुन सुखद आश्चर्य हुआ कि शब्दों के तीरों से उसके मन को आहत करने वाली, देवरानी इतने शिष्टाचार से कहना भी जानती है। 
सरोज सोचने लगी कि जो देवरानी, अपने बच्चों से सरोज के प्यार को लेकर कभी सशंकित थी कि सरोज, की भावना उनमें से किसी के, गोद लेने की तो नहीं, वही आज, अपने बच्चों का जिम्मा, उसे किस विचार से देना चाहती है।
इस जिज्ञासा में उसने देवरानी से पूछा- ऐसा करने से तुम्हें किया हासिल होगा? छोटे छोटे बच्चों की देखभाल, इतना बड़ा भी काम नहीं कि बाकि सारे काम का भार तुम खुद पर लेकर रखो। 
इस पर देवरानी ने बोला - जिठानी, आपका स्वभाव बहुत अच्छा है, अगर मेरे बच्चों का लालन-पालन आपके आँचल की छाया में होता है तो शायद, वे भी बड़े होकर ऐसे गुणशाली होंगे। 
सरोज जो पहले देवरानी के व्यवहार से दुःखी हो जाया करती थी आज, उसी देवरानी से अपनी, ऐसी सुंदर भावपूर्ण प्रशंसा से अभिभूत हो गई। स्नेह से देवरानी के सिर पर हाथ रखते हुए उसने कहा - तुम एक बार सोच लो, तुम पर काम का भार बहुत तो नहीं हो जाएगा?
देवरानी ने तब कहा- मुझे, बच्चों के उचित लालन पालन करने का भार, ज्यादा तथा महत्वपूर्ण लगता है।
सरोज को बहुत ख़ुशी हुई कि देवरानी उस पर, इतना अधिक विश्वास कर रही है।
सरोज ने ख़ुशी से मुस्कुराते हुए कहा- तब मुझे मंजूर है। लेकिन मेरी एक शर्त है।
अब देवरानी सशंकित हुई, उसने तत्परता से पूछा- जिठानी, कैसी शर्त?
सरोज ने खिलखिला कर हँसते हुए कहा- यह कि अब तुम और बच्चे नहीं पैदा करके, मेरे पर भार न बढ़ाओगी।
देवरानी का भय दूर हुआ उसने भी मजाक में ही जबाब दिया- मंजूर, मगर आप इसकी हिदायत, अपने देवर को भी दीजियेगा।
फिर उनके सयुंक्त परिवार में, ऐसे कार्य विभाजन से काम होने लगा। कुछ दिन बाद एक दोपहर, जब पाँचों बच्चे खा पीकर, सरोज के पास लेटे, सो रहे थे तब सरोज पिछले वर्ष की घटनाओं की, यूँ याद एवं उन पर विचार कर रही थी-     
जीवन में कुछ सुविधाओं के मोह से बँधकर कोई मनुष्य एक ढर्रे पर चलते, उसी को जीता चला जाता है। अगर किया भी तो ज्यादा से ज्यादा, इतना ही विचार करता है कि कैसे, आय और बढ़ा ले ताकि अपने लिए, और सुविधायें, और खुशियाँ खरीद सके।
कोरोना खतरे से खड़ी चुनौतियों ने, किसी और के विचारों में कोई परिवर्तन लाया या नहीं, मगर सरोज के अपने विचारों में निश्चित ही, क्रांतिकारी परिवर्तन लाया था।
मुंबई के लॉक डाउन फिर, अपनी ही धारावी बस्ती में, फैलते संक्रमण से, कमजोर तबके के लोगों की की चिंताओं को उसने निकट से देखा था। शासन और स्थानीय लोगों को, अपने से अवांछनीय, जैसा बर्ताव करते देखा था।
फिर लाचारी में जगन के साथ खुद का उस महानगर, उस जीवन से पलायन देखा था, जिसमें सामान्य परिस्थिति में, वे शायद पूरा जीवन व्यतीत कर देते।
गाँव की ओर के 1200 किमी के लंबे मार्च में अपने तथा, गैर लोगों की, नारी के प्रति मानसिक ग्रंथि देखी थी। कुछ ऐसी ही ग्रंथियाँ उसने अशिक्षित तथा कमजोर परिस्थिति के लोगों के लिए, पढ़े लिखे एवं संपन्न लोगों में अवलोकित की थी।
बहुत से परोपकारी दिखने वालों का कटु सच भी जान लिया था।
याचक हाथ फैलाये लोगों को, दूसरे ऐस ही याचक लोगों से, संवेदनहीनता को भी अनुभव किया था। सब अपने लिए ज्यादा बटोर लेने को लालायित दिखते थे।
उसके बाद बिन बुलाये मेहमान जैसे, अपने ही घर में, देवरानी के बुरे व्यवहार का सामना भी किया था।
दिखावा भले ही कुछ और किया जाये मगर पड़ी, सबको अपनी ही थी। 
उसने महसूस किया था कि प्रायः सभी ही के प्रयास, अपने लिए थोड़े थोड़े और सुखों के प्रबंध के थे। इन प्रयासों में अनैतिक रूप से, वर्जनाओं की उपेक्षा की जाती भी होती थी।
ऐसा सब छुपे तौर पर इस सावधानी के साथ करने की कोशिश में होते कि खुद की छवि ठीक दिखे।
ऐसे सब कटु सच से साक्षात्कार ने उसके मन को अवसाद से भर दिया था। खुद के मन में क्या है इसे कोई और नहीं समझ सकेगा, ऐसा भ्रम सभी को रहता है। जबकि किसी के मन में बैठी कलुषित प्रवृत्तियों और उनके बुरे मंतव्य को, अन्य कोई, बिना बहुत दिमाग लगाए समझ सकता है। यह जुदी बात है कि समझ लीं गईं बातें, अक्सर लोग प्रकट नहीं करते हैं।
इन सब में सरोज समझ सकी थी कि लगभग सभी उद्देश्य विहीन जीवन जी रहे हैं तथा औरों के साथ थोड़े छल कर लेने को, बड़ी बुध्दिमानी या उच्च शिक्षित मानने की भूल कर रहे हैं। 
वह ही निष्कर्ष निकाल सकने में सफल हुई कि आधुनिक तरह से शिक्षित होने या ना होने का, मनुष्य जीवन की गूढ़ताओं को समझ पाने से कोई संबंध नहीं है।
उसे स्वयं पर आश्चर्य हुआ कि 25 की छोटी आयु में ही और सिर्फ कक्षा 10 तक पढ़ी होने पर भी, वह जीवन के गूढ़ रहस्य कितनी सरलता से समझ पा रही है।
यह सब कोरोना प्रभाव था। जिसने समझने वालों के लिए, यथार्थ देख लेना आसान किया था। 
उसके मन में विचार आया कि शायद स्वतंत्रता के संग्राम में इतने हल्के लोग न रहे होंगे। अन्यथा अँग्रेज ऐसी मनःस्थिति के लोगों को थोड़े थोड़े प्रलोभनों से, एकजुट होने से रोक लेते और अब भी शासन कर रहे होते।
फिर उसके मन में संशय उत्पन्न हुआ कि कदाचित आधुनिक जीवन शैली अपनाने की होड़ एवं उसके लिए बहाई जा रही विकास की गंगा ने, परिवेश ऐसा बना दिया है, जिसमें मनुष्य, मानवता से विमुख हो रहा है।
चूंकि देवरानी ने उस पर कार्य बोझ कम रखा था।
ऐसे में सरोज को लगा कि एक साथ दो बच्चों का होना, जगन को यहाँ ज्यादा काम एवं आमदनी मिलना, जगन और सरोज का, परिवार और गाँव में आदर मिलना, सब सरोज के लिए भगवान का विशेष संकेत है कि वह समाज परिवर्तन के लिए कार्य करे।
ऐसा समझ उसने तय किया कि अपने परिवार के बच्चों के लालन पालन के साथ साथ ही, गाँव के बच्चों तथा यहाँ की गृहिणियों में चेतना लाने के लिए, वह कार्य करेगी।
वह चाहेगी कि वे गृहिणियां, अपने बच्चों में ऐसे संस्कार सुनिश्चित करें कि बड़े होकर वे लड़कियों तथा स्त्रियों से मर्यादित व्यवहार करें। तथा छल-कपट, लोभ एवं अति स्वार्थी प्रवृत्ति से मुक्त रहकर, अपने अपने जीवन में, न्यायप्रियता से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करें ..



--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
28-05-2020

Wednesday, May 27, 2020

हृदय परिवर्तन ..

सफलता के सोपान..

जो सरोज के साथ अब तक जो हो रहा था वह उसके परिचित, सगे संबंधी देख रहे थे। और सरोज के भाग्य में आगे क्या लिखा था, यह साहित्यकार देख पा रहा था। इसके पास लेखनी थी, जिससे वह सरोज के आगामी जीवन का विवरण, आगे लिपिबध्द करने जा रहा था।
सरोज पर, देवरानी के जहर बुझे शाब्दिक तीरों के हमले, कुछ और दिन चलते रहे थे। जिन्हें सरोज के हृदय में विद्यमान शीतलता, निष्प्रभावी कर दिया करती।
देवरानी को ऐसा होते देखना, नागवर होता था। साफ है उसके चलाये तीर, लक्ष्य से टकराकर वापिस उसी पर आते रहे थे। जिनकी चुभन, स्वयं देवरानी को सहनी पड़ती थी। 
ऐसे दिन गुजरते रहे थे फिर, सुखद आश्चर्य जैसी एक होनहार घटी थी। सरोज को समय पर मासिक नहीं आई थी। सरोज ने बीस दिन और प्रतीक्षा की, फिर घर पर ही परीक्षण किया, जिसमें प्रेगनेंसी पॉजिटिव आई।
यद्यपि देवरानी को बताने में सरोज ने जल्दबाजी नहीं की। लेकिन देवरानी की उत्सुकता ने, उसे चुप नहीं रहने दिया।
देवरानी ने पूछ ही लिया- जिठानी, तबियत तो ठीक है? कुछ ज्यादा ही चुप दिखाई पड़ रही हो, इन दिनों।
सरोज के स्वभाव में झूठ बोलना नहीं था। निष्कपटता और मधुरता से उसने, घर में किये टेस्ट और उसके रिजल्ट की जानकारी, देवरानी को बता दी।
इस पर देवरानी, दिखावे की ख़ुशी का शिष्टाचार भी नहीं दर्शा सकी।
सरोज ने बुरा नहीं माना। देवरानी से ज्यादा बड़ी भूल, उसे उसके लालन-पालन कर बड़ा करने वालों की लगी।
जिन्होंने बड़ा तो किया मगर, देवरानी को सँस्कार में दूसरों की ख़ुशी में, खुश होना नहीं सिखा सके। सरोज की ख़ुशी पर तो देवरानी का, कोई वश नहीं था लेकिन डाह से, देवरानी को खुद ही, मानसिक कष्ट, अवश्य होता होगा।
जब इधर, रात सरोज सोच रही थी कि किसी की ख़ुशी में ईर्ष्या करने से किसी को, मिलता क्या है। 
उसी समय उधर, देवरानी पर, आज पता हुई बात ने, अच्छा असर दिखाया था। वह रात आत्म-मंथन कर रही थी।
देवरानी को, अक्सर, गाँव में कहि जाने वाली एक कहावत कि 'कौऐ के कोसने से ढोर नहीं मरता', याद आ रही थी। जिस दिन मुंबई से, मुश्किलों में जेठ जिठानी गाँव लौटे, उसी दिन से, उनके बिना किसी अपराध के, उनके साथ, किसी दोषी जैसा व्यवहार ही तो, देवरानी ने किया था।
सरोज की शारीरिक और मानसिक हालत को समझे बिना, वह व्यर्थ उसे खरी खोटी सुनाते रही थी। यूँ तो देवरानी को भगवान पर बहुत आस्था थी लेकिन वह यह समझने में चूक कर गई थी।
जिस को वह मानती वही भगवान तो जिठानी का भी था। और भगवान यदि देवरानी के हिस्से में ख़ुशी लिख सकता था, तो जिठानी को भी तो ख़ुशी दे सकता था।
देवरानी ने उस रात तय किया की वह अपना, यह दोषपूर्ण स्वभाव बदलेगी। कोशिश करेगी कि वह अपनी ही नहीं अपितु अन्य की ख़ुशी में भी, ख़ुशी ही अनुभव करे।
दूसरों की ख़ुशी में भी वह खुश जो रह सकेगी तो, उसे खुशियाँ ही खुशियाँ ही तो मिलेंगी। जब खुद की ख़ुशी मिल सकने के संयोग बनेंगे तब उसमें खुश रहेगी और जब संयोग औरों की ख़ुशी के बनेंगे तो उनकी खुशियों में खुश रहेगी।
फिर अगले दिन के नव-सूर्योदय से ही सरोज ने, देवरानी के व्यवहार में परिवर्तन अनुभव किया था। घर के सभी सदस्यों के साथ ही देवरानी को भी बड़ी आतुरता से, जगन और सरोज के नये शिशु के आगमन की प्रतीक्षा रहने लगी।
इस बीच कोरोना भी देश में नियंत्रित कर लिया गया था। महानगरों के लिए, लोगों की वापिसी शुरू हुई थी। मगर जगन ने तय किया कि वह यहीं गाँव में और पास के शहर में ही, अब आगे काम किया करेगा। वह अपने परिश्रम को अपनी ही माटी के विकास में लगाते हुए, आजीविका अर्जित करेगा। 
उसने इस भले मंतव्य से प्रयास शुरू किये तो, दस वर्ष के मुंबई में रहने और काम करने का अनुभव बहुत काम आया। जगन के गुणवत्ता पूर्ण काम को, जल्दी ही ख्याति मिल गई। अब नवनिर्माणों के लिए उसकी माँग होने लगी। जिससे पूरा परिवार खुश रहने लगा।
तय समय पर सारे परिवार की प्रसन्नता दोगुनी हो गई, जब सरोज ने जुड़वाँ बच्चों को जन्मा। एक पुत्री और एक पुत्र का प्रसव कुछ मिनट के अंतर से हुआ। दोनों बच्चे अपनी माँ के तरह ही सुंदर थे।
कहते हैं कि जीवन में मिलने वाली उपलब्धियों का वक़्त भी तय होता है। सरोज से दो साल बाद ब्याह होकर आई देवरानी के तीन बच्चे हुए तब तक, सरोज की गोद खाली थी लेकिन जब भरी तो एकबारगी ही, एक बेटी और एक बेटे के जन्म ने, उसका परिवार पूरा कर दिया।
इतना ही नहीं यहाँ, यह लोकोक्ति भी चरितार्थ हुई जिसमें कहा जाता है कि, किसी किसी जीव के आने के साथ ही, घर-परिवार के हालात चमत्कारी रूप से बदल जाते हैं।
ऐसे ही सरोज के बच्चे गर्भ में थे तब से ही, परिवर्तन की बयार चलने लगी थी। और जब वे जन्मे तो जगन-सरोज का आदर, घर-परिवार के साथ साथ गाँव में भी निरंतर बढ़ने लगा था।
ऐसा होता देख, जगन-सरोज को, छोटे भाई-बहन और माँ-बाप आदि सभी आगे रखने लगे। हर काम इनके परामर्श लिए जाने लगे और इन्हीं के चाहे गए अनुसार किये जाने लगे। कोई अहं आड़े लाये बिना, सभी उनका अनुकरण करने लगे।
ऐसे समवेत और संयुक्त प्रयास की दिशा, एक हो जाने से घर में सुख समृद्धि को राहें मिलने लगीं। गाँव में इनका परिवार 'एक और एक ग्यारह होना' के उदाहरण जैसा बताया जाने लगा ...

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
27-05-2020

Tuesday, May 26, 2020

देवरानी और सरोज ..

देवरानी और सरोज ..  

सरोज को अपनी सोच में पति, जगन का समर्थन मिलने से वह आत्मविश्वास से भरी थी। अतः अगली सुबह, आदतन हल्की बात कहने वाली, देवरानी ने उसको पुनः नीचा दिखाने की दृष्टि से जब, पूछा कि - सच बता, जिठानी, बच्चे नहीं होने से बुरा तो लगता होगा, ना?
तब सरोज ने बिना चिढ़े, विनम्रता से उत्तर दिया- नहीं, कोई बुरा नहीं लगता, तुम्हारे तीन बच्चे, हमारे भी तो हैं, ना! 
दरअसल देवरानी की शादी को हुए चार साल में, तीन बच्चे हो चुके थे।
कोई अच्छी औरत होती तो उसे, सरोज का ऐसा कहा गया, सुनकर ख़ुशी होती, मगर देवरानी को ख़ुशी तो, सरोज को दुःखी करने में मिलती है।
उसने तुरंत पलट कर कहा- ना, ना जिठानी, अपने खुद पैदा करो। हमारे बच्चों पर नज़र न रखो।       
सरोज ने फिर शाँति से ही सफाई दी - नहीं, मेरे कहने का आशय ऐसा नहीं है मैं यह कहना चाहती हूँ कि अगर मेरे बच्चे नहीं भी होते हैं तो भी, इस घर के लिए कुलदीपक तुम्हारे बच्चों के होने से ही, हम खुश रह लेंगे। 
इस पर देवरानी ने कहा- ऐसा है तो ठीक है, हमारे बच्चों में से गोद लेने का विचार न रखना, मैं अभी ही बता देती हूँ।
सरोज को इस निम्न सोच पर हैरत हुई मगर प्रकट में, देवरानी से उसने हँसते हुए कहा - कैसी बात करती हो, अभी मेरी उम्र 24 ही तो है। बच्चे पैदा करने की उम्र निकल थोड़े ही गई है। भाग्य में हुआ तो हमारा बच्चा भी हो जाएगा। 
देवरानी को सहज और अच्छे कहे गये शब्दों में भी, सरोज पर कटाक्ष करने का अच्छा अवसर दिखाई पड़ा, उसने तपाक से कह दिया - हाँ, हाँ ये ठीक है, मुंबई से लौटे हो, यहाँ काम वाम तो कुछ है नहीं। रोज रात को आठ बजे से ही, कमरे की साँकल लगा कर, लगी रहो जेठ जी के साथ। मैं सबको कह दूँगी, बच्चा पैदा करने की कसरत कर रहे हैं।  
सरोज को देवरानी का लहजा और शब्द बहुत अखरे थे। मगर उसने निश्चय सा कर रखा लगता था कि वह, देवरानी की नीचता पर भी, खुद नीच बनने से बचेगी।
हँसते हुए उसने ये ही कहा कि- अच्छा आइडिया दिया तुमने, इसमें मजा ही तो आएगा। 
देवरानी भी मालूम नहीं किस माटी की बनी थी। उसे कुढ़न इस बात से हो रही थी कि सरोज पर, उसके उकसाऊ बातों के तीर, बेअसर क्यों हो रहे हैं। सरोज को गुस्सा क्यों नहीं आ रही है ताकि घर में, उसे लड़ाई और तमाशा दिखाने का मौका मिले, थोड़ी चिढती सी उसने कहा - हाँ जिठानी, तुम अभी भी, बच्चे के लिए मजा करो। हमारे तो तीन हैं, हम उनको खिलाने का काम करेंगे। 
स्पष्ट था कि हर बात में देवरानी, सरोज को निपूती होने का, अहसास कराते रहना चाह रही थी।
सरोज ने अब कुछ नहीं कहा, और बातों के बीच ही धो लिए कपड़ों को वह, रस्सी पर सूखने डालने लगी।   
फिर दिन भर क्वारंटीन वाली सतर्कता की दृष्टि से, अपने मुहँ पर लगाये गए मॉस्क के पीछे, अपने चेहरे के मर्माहत भाव छिपाते हुए, काम करती रही। यह बात अच्छी थी कि एकांत के अलावा, किसी और के सामने होने पर, देवरानी कोई घटिया बात नहीं करती थी।
जगन और सरोज 16 दिन में 1200 किमी की लंबी दूरी, कई मुसीबत में तय करते हुए, दो दिन ही हुए, गाँव पहुँचे थे।
अतः सरोज नहीं चाहती थी कि देवरानी की बात, जगन से कहे। अगर जगन सुनकर भड़क गया और लड़ाई-झगड़ा कर बैठा तो, यहाँ गाँव-घर में रहना दूभर हो जाएगा। अभी जल्दी ही मुंबई वापसी ही की, सरोज में हिम्मत नहीं थी। 
रात कमरे में यहाँ वहाँ की बात के बाद, पति-पत्नी रतिरत हुए, फिर गर्मी में पसीने से लथपथ जगन ने, करवट बदली और सो गया था।
मगर सरोज की आँखों में नींद नहीं थी। लेटे लेटे उसे, देवरानी की बातें याद आ रहीं थीं। वह सोचने लगी कि हम अभाव वाले परिवारों में, ज्यादा बच्चे कर लिए जाते हैं। बच्चों के मनोविज्ञान की समझने की फुरसत बिना, उनका लालन-पालन और शिक्षा ठीकठाक से नहीं हो पाती है। परिणाम यह होता है कि अनेक बच्चे, बड़े होकर देवरानी तरह की घटिया सोच, रखने वाले बनते हैं।
ऐसे में उसे लगा कि बच्चे न देकर भगवान, उसे अभिशाप नहीं वरन वरदान ही दे रहे हैं। इस तरह से सोचने पर उसके मन को शाँति मिली। एकबार फिर उसने, यही निश्चय किया कि खुद के बच्चे के फेर में ना पड़कर, वह एक बच्चा, अनाथालय से गोद ले लेगी। जिसे अपनी परवरिश से एक जिम्मेदार नागरिक बनाएगी। उसे सेना या पुलिस में, सेवा के लिए तैयार करेगी। ऐसे वह, अपने राष्ट्र एवं समाज दायित्व निभाएगी।
ऐसा तय करते हुए उसे नींद आ गई।
जगन बाद में प्यास लगने से, पानी पीने उठा था। पानी पी चुकने पर उसकी दृष्टि, सरोज के मुखड़े पर गई थी। उसके सोते हुए शाँत और खुश दिख रहे चेहरे पर, मुस्कान दिख रही थी।
अपनी पत्नी की सुंदरता पर वह रीझ रहा था। मगर उसने उसकी नींद में, कोई विघ्न नहीं डाली। वह बगल में लेट कर, सोचने लगा कि सरोज देख रही जो, चलता रहे वह सुंदर सपना .. 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
26-05-2020
   

Monday, May 25, 2020

मजदूर की विदुषी पत्नी ..

मजदूर की विदुषी पत्नी ..

दिन भर खिन्न रही सरोज ने, जगन को रात में देवरानी की कुयें पर दिये ताने की बात बताई।
इतनी लंबी दूरी से थकी माँदी गाँव पहुँची पत्नी पर, बहू के मर्माहत करने वाले शब्द बाणों के प्रहार की जानकारी से, एकबारगी तो जगन को क्रोध आया। फिर उसने खुद को नियंत्रित किया। सरोज की मनोव्यथा का अनुमान करते हुए उसने, पहली जरूरत उसके आहत मन पर, प्यार-व्यवहार की मलहम से राहत, पहुँचाने की समझी।
इसी भावना से जगन ने कहा- दस साल पहले गाँव से मैं, मुंबई गया था तो कारण कुछ मायानगरी का आकर्षण था और कुछ अधिक धन कमाने का सपना। वहाँ रहते हुए मैंने, एक बड़ा अंतर अनुभव किया है।
सरोज को सुनने की जिज्ञासा हुई, उसने अपनी व्यथा पर से ध्यान हटा, पूछा- कैसा अंतर?
जगन ने उत्तर दिया- यहाँ की धीमी जीवनशैली में, लोगों का अधिकाँश समय में, दिमाग खाली रहता है। जिसमें, संकीर्णता रूपी शैतान घर कर लेता है। उस शैतान को, खुद की ढँक - दूसरों की उघाड़ने में, बड़ा आनंद आता है। बहू का ऐसा ही शैतान, खुद अपने को देखने की जगह, तुम्हें देख रहा, लगता है।
सरोज (सहमति में सिर हिलाते हुए) - जी, मुझे भी यही लगता है। जबकि मुंबई की तेज भागती ज़िंदगी में, लोगों को दूसरों की तो छोडो, खुद अपनी ही को, देखने का समय नहीं!
जगन (पत्नी के सामने ज्ञानी दिखने की कोशिश सहित) - हाँ, यह विपरीत दो बातों की पराकाष्ठा है। गाँव, छोड़ने में यह बात ही सर्वाधिक राहत देती है कि यहाँ, लोग अपनी संकीर्ण सोच और अपने मूर्खता पूर्ण अंधविश्वास, औरों पर लादते हैं। इससे हम मुंबई में रहते हुए मुक्त रहते हैं। जबकि मुंबई में, किसी की मूर्खता और अन्धविश्वास को, उसकी समस्या मान कर झटक दिया जाता है।
(फिर जगन को तसल्ली होती है कि सरोज का ध्यान उसने बातों में बँटा दिया है फिर आगे कहा) - हालात ठीक होने दो, हम डॉक्टरी जाँच करवाएंगे। आज बच्चे न हो पाने की बात, कोई बड़ी समस्या नहीं।
इस पर सरोज ने बोला - नहीं, मुझे आपमें कोई कमी नहीं दिखती और रहा सवाल मेरा तो मुझे, अब निपूती रहना ही पसंद होगा।
जगन को लगा कि देवरानी के ताने से सरोज कुछ ज्यादा कुपित है। उसने कहा - अरे सरोज, किसी मूरख की बात, ऐसे दिल पर लेना ठीक नहीं।
सरोज ने उत्तर दिया - नहीं, मेरे निपूते रहने की चाहत का, देवरानी की बात से कोई ताल्लुक नहीं है।
जगन (उत्सुकता से) - तो फिर क्या बात है?
सरोज- पिछले कई दिनों लगातार चलते चलते, मेरे दिमाग में कई बातों को लेकर मंथन चलते रहे हैं। इसे, कोरोना से मिली विपरीत परिस्थितियों में मेरा कोरोना जनित ज्ञान कह सकते हैं। (फिर कुछ पलों की चुप्पी के बाद फिर कहती है) 
मैंने सड़कों पर हम लोगों की, लाचार भीड़ देखी है। हम हर जगह याचना से हाथ फैलाते आये हैं। हमारी गरजी में, हम औरतों के माँसल अंगों को निहारते हुए प्रदाताओं की आँखों में, मैंने वासना के डोरे देखे हैं। यही नहीं, सटे सटे सफर में, हमारी ही भीड़ के गैर मर्दों ने, पेट भर जाने के बाद, हम पर कामुकतापूर्ण हरकतें की हैं। 
जगन (विचार पूर्ण मुद्रा में) - भीड़ की इन खराबियों से, बच्चों का क्या संबंध है?
सरोज- संबंध है, मैं बताती हूँ, पर यदि आप, बुरा न मानें तो एक बात आपसे पूछूँ?
जगन (तत्परता से) - हाँ-हाँ, पूछो। 
सरोज (उत्सुकता से जगन को निहारते हुए) - आप शराब नहीं पीते और हम जैसे परिवार में औरों के मर्द जैसे, नशे की हालत में, मुझे आपने कभी पीटा नहीं, इससे हिम्मत करते हुए मैं जानना चाहती हूँ कि भीड़ में, दूसरी औरतों, लड़कियों के साथ, क्या आप भी ऐसा ही करते हैं?
जगन (तर्क पूर्ण स्वर में) - जब तुम्हारे साथ दूसरे ऐसा करते हैं तो, उनकी औरतों के साथ, मैं ऐसा क्यों ना करूँ?    
सरोज (किसी विदुषी सी मुद्रा में) - यही मानसिकता तो दुरुस्त नहीं। ऐसे ही तो हम औरतें, हर किसी के दैहिक शोषण को अभिशप्त हैं। 
जगन विचार करने लगा। उसे लगा कि उसने गलत कह दिया है। उसे अपनी स्थिति असुविधाजनक अनुभव हुई। वह चुप ही रहा तब सरोज फिर कहने लगी - 
मैं ऐसी निम्न मानसिकता वाली, याचना से फैलाये हाथों सहित, हर जगह मुफ्त और सब्सिडी की अभिलाषी भीड़ तथा नारी उत्पीड़न देने वाली पुरुष भीड़ या सहने वाली नारियों की भीड़, अपने तरफ से नहीं बढ़ाना चाहती। इसलिए निपूती ही रह जाना चाहती हूँ। 
(फिर कुछ रुककर, प्रश्न पूर्ण से जगन को निहारते हुए) अगर हम निपूते रहें तो, क्या आपको बुरा लगेगा?
जगन सोचने लगा कि एक तरफ धनाढ्य लोगों में, भोग-उपभोग प्रधान जीवनशैली के कारण, बच्चे पैदा नहीं करने का विचार हावी हुआ है। इसके विपरीत ऐसा न करने का, सरोज का विचार ज्यादा तार्किक है। जिसमें नकारात्मकता नहीं है। फिर बोला-
बात ऐसी नहीं, जब हम लोगों के हाथ पैर चलने योग्य न रहेंगे। तब क्या होगा, यह तो सोचना पड़ेगा ना!
सरोज (उत्साह में भरकर) - हम अनाथाश्रम से किसी बच्चे को ले आएंगे। उसके सिर पर अपना हाथ रखेंगे। उसे रही उपेक्षा को दूर करने का परोपकार करेंगे। और कोशिश करेंगे कि उसे, इस योग्य बनायें कि वह मुफ्त या सब्सिडी का अभिलाषी न हो। साथ ही वह बेटी नहीं यदि बेटा हो तो नारी को आदर देने वाला बने, उसका शोषक नहीं। 
अपने को कम बुध्दिमान अनुभव करते हुए खिसियाये से जगन ने कहा - कहती तो तुम ठीक हो!
फिर जगन सो गया और सरोज आगे के जीवन के सपने सजाने लगी ..

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
25-05-2020

Sunday, May 24, 2020

मजदूर की लुगाई ..

मजदूर की लुगाई ..

निर्माण की जा रही बहुमंजिला इमारत का काम रुक गया था। पहले, आशा थी कि 21 दिन बाद, सब सामान्य हो जाएगा। कोरोना महामारी से निबटने के लिए उपचार खोज लिया जाएगा। कोरोना का फैलाव नियंत्रित हो जाएगा। अस्पतालों में आवश्यक व्यवस्था कर ली जायेगी लेकिन जब, लॉक डाउन बार बार आगे तक के लिए बढ़ाया जाने लगा तो जगन निराश हुआ था।
एक शाम सरोज से जगन ने कहा- कमाई तो बंद हुई है। बैठे-बैठे खायेंगे तो जुड़ा सब पैसा खर्च हो जाएगा। हम गाँव चलते हैं, यहाँ से सस्ते में वहाँ सब मिलेगा। कम खर्चे में गुजर होगी। फिर सरोज और जगन मुंबई से गाँव तक की, पैदल यात्रा पर चल निकले थे।
दरअसल, जगन 10 साल से मुंबई में बेलदार/मिस्त्री का काम किया करता था। यहाँ से कमा कर पिता को बचत किये पैसे पहुँचाता था, ताकि छोटे भाई बहन की परवरिश में उन पर भार, कुछ कम हो जाये। जगन का गाँव 1200 किमी दूर था। 6 साल पूर्व जगन की शादी, पड़ोस के गाँव की सरोज से हुई थी। 
हर दिन बढ़ती जा रही गर्मी में, इतने दूर चलना, जगन-सरोज की कल्पना से ज्यादा कठिन काम था। वे रास्ते में कई जगह, गाँव की दिशा में 20-40 किमी का कोई ट्रक-बस या अन्य साधन, मिलता तो उसमें सफर करते। जब कुछ नहीं मिलता तो 20-30 किमी लगातार पैदल चलते।
ऐसे सफर में सरोज ने रास्ते में, देशवासियों के कई रंग अनुभव किये।
अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों में, जहाँ रहकर जगन के तरह के लोग, उनके आशियाने निर्माण करते थे। आज वही लोग, मजदूरों की पैदल, गाँव जाती भीड़ को, हिकारत से देखते मिलते।
ज्यादातर लोग (ट्रक ड्राइवर आदि) मदद की अपेक्षा, उनसे ज्यादा कमाई करने की कोशिश करते। यात्री भरते हुए, उन पर लोभ हावी होता। ज्यादा भरे जाने पर संक्रमण के खतरे की, उन्हें परवाह नहीं होती।
ठसाठस भरी गाड़ियों में, मर्द-औरत पास पास होते। इस विपदा काल में भी, गैर मर्दों पर हावी कामुकता, अनेक मौकों पर सरोज को, अपने बदन पर अनुभव होती।
कभी पैदल-कभी गाड़ियों पर, ऐसे उनकी यात्रा चलती। रास्ते में पड़ते शहर-गाँव में कहीं परोपकारी मुफ्त भोजन बाँटते मिलते। कहीं छुटभैय्ये नेता मिलते तो खाना देने के साथ पार्टी का नाम बताते। सहायता के भाव से ज्यादा, हममें, अगले चुनाव में इन्हें, अपने लिए संभावना दिखाई पड़ती।
वितरण करने वाले मर्द, कुछ दया दृष्टि से तो, कुछ ख़राब नीयत से औरत को देख, उन्हें पहले पैकेट्स देते। जबकि जगन को पैकेट लेने में, ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती। खाना वितरण की भीड़ में, अतः लाचारी में जगन, सरोज को आगे करता।
सहायता लेने वाले भी कई तरह के मिलते। कुछ अपने मिले पैकेट्स, ज्यादा भूखे को दे, फिर नये पैकेट्स लेने के प्रयास में लगते। कुछ लोभ में अधिक पैकेट्स लेते और उदर पूर्ति के बाद भी, अपने पास छुपा कर रखते। रात से सुबह तक ख़राब हो जायें तो फेंक देने में, उन्हें कोई अफ़सोस नहीं होता। किसी को, मुफ्त की मिली चीज का व्यर्थ जाया होने का, रंज कहाँ होता है।
रास्ते में कई लोगों की दृष्टि में, सहानुभूति तो, कई की नज़र में नफरत देखने मिलती, जैसे कि वे साक्षात कोरोना को ही देख रहे हों।
पुलिस कहीं सहयोगी मिलती तो, कहीं इतनी गर्मी में भी, दूर से आ रहे थके लोगों पर, लट्ठ भाँजने में कोई दया नहीं दिखाती।
इन कटु तथा बीच बीच के रोमाँचक अनुभवों भरी यात्रा, अंततः 16 दिनों में पूरी हुई थी। घर पहुँचकर, सरोज और जगन ने अन्य सदस्यों से सावधानी बत्तौर दूरी रखने  की कोशिश की तो, घर में कुछ लोगों को इसमें, दोनों का शहरी घमंड दिखाई दिया। 
अच्छी नीयत से ही (क्वॉरंटीन जैसे) घर के अन्य सदस्यों से दूरी के विचार से, रात जल्दी ही सरोज, पीछे के कमरे में जगन के पास चली गई। अगली सुबह, कुयें पर देवरानी ने ताना मारा- छह साल में तो पैदा कर नहीं पाई जिठानी, क्या यहाँ एक ही रात में औलाद पैदा करना चाहती हो?
सरोज सुनकर बुरी तरह आहत हुई। उसे यात्रा के ख़राब अनुभवों से लेकर, इस वाक्य तक की, हलकी/संकीर्ण मानसिकता पर रोष हो आया।
वह, नहाते हुए सोचने लगी, कोरोना वायरस तो जान ले सकता है मगर समाज विचारों में लगा संक्रमण तो, औरत को जीते जी मारता है ..
 
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
24-05-2020

Friday, May 22, 2020

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (6)

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (6)

करीब करीब निर्जन उस स्थान से लगभग डेढ़ किमी दूर तक चलने पर मुझे, एक अर्ध विक्षिप्त प्रौढ़ महिला, एक वृक्ष के नीचे बैठा मिली। वह भूखी है। मैंने उसके पास बैठ, अपने बेग में रखी भोज्य सामग्री डिस्पोजल प्लेट्स में उसको दी हैं। जिन्हें, उसने सब बड़े चाव से खाया है। उसकी भूख मिटी, तब मैंने उसे जल पिलाया है। वह हिंदी समझ नहीं सकती है। किन्तु उसे किसी के अनुग्रह की समझ है। कृतज्ञ वह अतः मेरे संकेतों का अनुशरण करते हुए, मेरे पीछे महात्मा जी की कुटिया तक चली आई है।
जहाँ महात्मा ने, अपने सामने दोनों तरफ हम दोनों को आमने सामने बैठने के लिए आसन दिया है। फिर कुछ मिनट, अपने में लीन हुए है। मेरे देखते देखते उस प्रौढ़ महिला में परिवर्तन हुआ है।
तब वह बोल ऐसे पड़ी है- यह मैं किस शरीर को अनुभव कर रही हूँ। (फिर मेरे तरफ इशारा करते हुए) बोली, जबकि मेरा शरीर तो यह सामने है। 
उसके हिंदी बोलने और शालीन व्यवहार से मुझे समझ आ गया है कि महात्मा ने विक्षिप्त महिला की आत्मा, हवा में करते हुए अभी उस शरीर में हेतल की आत्मा को ला दिया है। अब हेतल के शरीर में, मैं उसका पति, सामने महिला में हेतल, एवं महात्मा ऐसे तीन के बीच आगे के वार्तालाप ऐसे हो रहा है-
महात्मा- आपके पति कश्मीर में आतंकियों से मुठभेड़ में, जब शहीद हो रहे थे तब, मेरी दी गई शक्ति से, उन्होंने आत्मा की अदला बदली की थी और मृत्यु के समय आपकी आत्मा उनके शरीर में होने से, आपकी आत्मा आगे की यात्रा पर चली गई है। अभी आपकी आत्मा को मैंने, एक अन्य महिला के शरीर में बुलाया है। सामने, आपके पिछले जीवन का शरीर है, उसमें आपके पतिदेव की आत्मा होने से, वह जीवित शरीर है।
इतना परिचय कराते हुए महात्मा चुप हुए, आगे मैंने हेतल को संबोधित किया-
मैं- हेतल तुम मेरी मौत सहन नहीं कर पातीं, अतः मुझे यह करना पड़ा, मुझे क्षमा कर दो (फिर महात्मा की तरफ मुखातिब होते हुए), महात्मन क्या यह संभव है कि आप हेतल की आत्मा ही, इस हेतल शरीर में कर दें, ताकि हेतल अपना जीवन जी सके ?
हेतल- ना महात्मन, ऐसा संभव भी अगर है तो यह नहीं कीजिये मेरे इन पतिदेव ने अत्यंत भला काम किया है। मेरे शरीर को जीवन दे रखा है एवं स्वयं उसमें रहते हुए, बच्चों की परवरिश में उनकी माँ एवं पापा दोनों की भूमिका निभा रहे हैं। उन्होंने खुद मरते हुए भी, मुझे अनाथ वाले दुखद अहसास से बचाया है।
यह सब करना उनका, मुझसे अगाध एवं अनुपम प्रेम का होना जतलाता है। वास्तव में प्रेम कैसे निभाया जाता है, इसकी ये साक्षात मिसाल हैं। 
महात्मा- आप सही कहती हैं। मृत्यु से आत्मा को कोई हानि नहीं होती है। वह तो अनंत परिणमन शील है। उसके किसी शरीर से संयोग और वियोग तो एक सामान्य घटना ही है। 
जहाँ तक बात जीवन की है, तो आपके पूर्व शरीर को, जीवन अभी भी मिला हुआ है। प्रत्येक आत्मा निराकार एवं अनश्वर रूप से सदा अस्तित्व में होती है। शरीर के बिना, सभी आत्मायें एक सी हैं। उनमें ज्ञान की भिन्नता होती है। साथ ही किसी शरीर में रहते हुए, उसके द्वारा किये कर्मों एवं रहे भावों से उसकी आगे की गति, नियत होती है।
आपके पतिदेव के द्वारा किया कार्य ऐसे, आपकी आत्मा को कोई हानि नहीं पहुँचा सका है। यद्यपि उसमें अच्छा अभिप्राय होने से, आपके पतिदेव के सद्कर्म खाते में वृध्दि ही हुई है।   
आप देखिये आप (आत्मा) आगे की यात्रा पर निकल चुकी हैं लेकिन इस विलक्षण घटना के कारण, आपके पिछले जीवन के शरीर में, अभी भी प्राण हैं। उसे आपके ही पति की आत्मा ने जीवित रखा हुआ है। ऐसा होना आप दोनों और आपके बच्चों के लिए, किसी वरदान से कम नहीं है। 
हेतल- जी, महात्मन मगर मेरे पतिदेव इसे, अपराध बोध जैसा क्यों अनुभव कर रहे हैं? इन्होंने तो मुझ पर कितने ही उपकार किये हुए हैं। मैं हमेशा इनकी ऋणी रहूँगी। और यह आपकी प्रदत्त शक्ति से, मेरे पिछले जीवन के सारे कष्ट सहते आये हैं, इस हेतु मैं आपकी भी ऋणी हूँ। 
महात्मा- (हेतल की ओर देखते हुए) मुझे, आपको इसलिए ऐसे बुलाना पड़ा है कि आप जिसे उपकार कह रही हैं, आपके पतिदेव उसके लिए ग्लानि अनुभव कर रहे हैं। ये मुझसे कहने आये हैं कि मैं रूह की अदला बदली की शक्ति आगे किसी मनुष्य को न दूँ। मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए इसका दुरुप्रयोग करता है। 
यह सुन मैं चकित हुआ, मेरे महात्मा के पास वापिस आने का प्रयोजन तो यही था, मगर मैंने उनसे अब तक ऐसा कहा नहीं है। महात्मा अत्यंत दिव्य संत हैं, जो किसी के बताये नहीं जाने पर भी उसकी, हृदय-भावनायें पढ़ लेते हैं। मैं चुप ही था तब हेतल कह पड़ी-
हेतल- महात्मन पतिदेव सही कहते हैं। आप ऐसी शक्ति किसी को न दीजिये। हर मनुष्य, मेरे पतिदेव जितना महान नहीं होता है। इन्होंने कभी मुझे बताया नहीं तब भी, मुझे इनकी शक्ति का एहसास रहा था। इन्होंने यद्यपि कभी दुरूपयोग नहीं किया। इन्होंने जब जब शक्ति प्रयुक्त की, मेरी वेदनायें खुद सहन कीं, मुझे पीड़ाओं से बचाया है, लेकिन मुझे संदेह है कि अन्य कोई व्यक्ति भी ऐसा ही करेगा।
हेतल और महात्मा के बीच वार्तालाप मैं साक्षी भाव से सुन रहा हूँ।
महात्मा कहते हैं- जैसा आप दोनों चाहते हैं, वैसा मैं बार बार नहीं करता और आगे भी नहीं करूंगा। मैं हर किसी को ऐसी शक्ति नहीं दूँगा। मगर आगे भी कभी कभी मुझे यह करना होगा।
हेतल- मगर महात्मन, इस कभी कभी में तो, किसी अन्यायी को ऐसी दिव्य शक्ति मिल जाने की संभावना बनी रहेगी।
महात्मा- हेतल, आपको समझना होगा कि आपकी, इनकी और मेरी आत्माओं की अनंत यात्रा में फिर ऐसे अवसर आएंगे, जब मैं फिर कोई सिध्द पुरुष और आप दोनों फिर पति पत्नी होंगे। तब फिर ऐसी ही कोई दिव्य शक्ति, आपको दूँ तो बुरा कुछ नहीं होगा। क्यों कि आप दोनों भव्य जीव हैं। जिनकी आत्मिक यात्रा मोक्ष प्राप्ति की दिशा में है।
मुझे आप और आप जैसे ही कुछ भव्य जीवों को, उनके मोक्ष मार्ग में सहायता करनी होगी। ऐसी मेरी आत्मिक यात्रा की ताशीर एवं गुण हैं।
हेतल- जी महात्मन, मुझे आपकी बातें समझ आ गई हैं। निश्चित ही आप दिव्य संत हैं, जो सदा ही मनुष्य की भलाई के ही निमित्त रहेंगे।
अतः आप के कार्य में हमारी रोक टोक, हमारा अनावश्यक एवं प्रभावहीन प्रयास ही होगा। मुझे आप से या पतिदेव से कोई भी शिकायत नहीं है। 
मैं धन्य हूँ कि मेरा पिछला जीवन थोड़ा छोटा तो रहा लेकिन, अत्यंत सुखद रहा है। जिसमें मेरे पतिदेव और आपके माध्यम से रही उनमें शक्तियों की, छत्र छाया मुझ पर रही है। 
अतः पतिदेव के चाहे गए अनुसार अगर मैं वापिस, अपने पूर्व शरीर में जाती हूँ तो पति के बलिदान दे दिए जाने से, उनकी दिव्य छत्र छाया मुझ पर नहीं रहती है। जीवन में ऐसा वरदहस्त रहने के बाद, उससे वंचित होना मुझे गवारा नहीं है।
महात्मावास्तव में आपके पति और आपको इन बातों का सानिध्य, आपकी आत्माओं की पात्रता से मिला है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। यह पात्रता ही, आप दोनों को मुझ तक लेकर आती रही/ आई है। अन्यथा आप देख रहे हैं, इस निर्जन में कोई मुझ तक आता नहीं है। 
मैं- महात्मन आपने, हेतल से यह ऐसी भेंट कराई है जिसमें, मुझे हेतल की निच्छल, निर्मल भावनाओं की, पुनः पुष्टि मिली है। इससे मेरा ग्लानि बोध मिट गया है।
हेतल- (मेरी ओर देखते हुए) नियति ने अब, अपने बच्चों के प्रति मेरे कर्तव्यों का बोझ भी आप पर डाला है। आप जितने महान हैं, इन कर्तव्यों को मुझसे भी बेहतर तरह से निभायेंगे, मुझे पूरा विश्वास है। 
महात्मा- हेतल आपको, अब यहाँ से मैं वापिस भेज रहा हूँ। आगे के किसी काल में, किसी अन्य रूपों में हमारी आत्मायें फिर मिलेँगी, तब तक के लिए, शुभ विदाई। 
ऐसा कहने के साथ महात्मा, कुछ क्षण स्वयं में लीन हुए। बाद में सामने महिला के शरीर से, हेतल की आत्मा चली गई एवं महिला की आत्मा वापिस आ गई।
तब मैं उस महिला को, पूर्व स्थान तक छोड़ने गया और उसे छोड़ कर कुछ और जिज्ञासा के निराकरण हेतु, वापिस महात्मा के समक्ष आया।
 महात्मा से, मैंने पूछा - हे महात्मन, आपने मेरी आत्मा में भव्यता होना बताया है। जबकि मैं तो, उस आत्मा को भव्य जानता हूँ जो किसी के साथ, हिंसा से पेश नहीं आती है। जबकि मैं तो अपने सैन्य दायित्वों में, शत्रुओं का संहार करता रहा हूँ। 
महात्मा- आप सही कहते हैं, हिंसा प्रवृत्ति आत्मा की भव्यता की दृष्टि से  हानिकर है। परन्तु आप उन को मारते रहे हैं, जो मासूम की हत्या कर रहे हैं। उनकी हिंसा प्रवृत्ति बुरी है। जिसके प्रतिफल में आपके द्वारा उनका अंत करना उनके कर्मों का फल है। आप उनके ऐसे हश्र में, निमित्त हैं। यह हिंसा प्रवृत्ति नहीं अपितु किसी की हिंसकता से, भोले नागरिकों का बचाव है। 
बुरे शत्रुओं का ऐसा संहार, आपके राष्ट्र और समाज के प्रति दायित्व में आता है। आपने जीवन यापन के लिए जो सैन्य सेवा ग्रहण की है ,
उनका निष्ठापूर्वक पालन का शुभ फल, आपके द्वारा की गई हिंसा को आपकी आत्मा के खाते में प्रभावहीन कर देता है। 
अहिंसा, अनुकरणीय है लेकिन राष्ट्र निष्ठा, सैनिक होने से आप का परम कर्तव्य होता है, यह किसी भी सैनिक से अपेक्षित ही होता है। 
एक सैनिक के रूप में आपसे शत्रुओं के वध के रूप में अनायास हिंसा ही नहीं हुई है, अपितु -
आपने कच्छ भूकंप आपदा एवं कश्मीर में बाढ़ के, पीड़ितों की जीवन रक्षा भी की है। आपका अंतिम लक्ष्य भला है। आपके ऐसे कार्यों एवं बलिदान को राष्ट्र ने सम्मानित किया है। 
इस तरह से आप भव्य हैं। आगे के अपने जीवन में परोपकारी कार्यों से आप, अपनी आत्मिक भव्यता में और वृध्दि करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। 
कुछ काल के लिए शुभ विदाई!
इस तरह दिव्य महात्मा ने, मेरी सभी मानसिक उलझनों का बहुत सुंदर विवेचन किया था। जिसे स्मरण करते हुए, अब मैं लद्दाख से प्रसन्न चित्त लौट रहा हूँ ...
(नोट इस कहानी में दिव्य महात्मा पूर्णतः कपोल कल्पित है, इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। कृपया लद्दाख या कहीं और कोई ऐसे महात्मा की खोज न करे)   

(समाप्त)
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23-05-2020 
     


हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (5)

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (5)

बात उन दिनों की है, जब हेतल को स्तन कैंसर था। मेरा उसे विश्वास दिलाना कि वह ठीक हो जायेगी, भी उस पर तब निष्प्रभावी होता था। यह बात मुझे, उन दिनों, मुझ से छुपा कर हेतल के द्वारा लिखी, उसकी डायरी से ज्ञात हुई थी।
वह डायरी मेरे हाथ लगने से, हेतल पर किसी तरह के अविश्वास के कारण नहीं, अपितु अपनी प्राणों से ज्यादा प्यारी पत्नी की, हर बात की जानकारी रहे, इस भावना से, मैंने उसे न सिर्फ पढ़ी थी, बल्कि उसके कुछ पृष्ठों की स्कैन इमेज भी, अपनी स्टोरेज डिवाइस में मैंने, सुरक्षित रख ली थी।
डायरी में एक जगह, अपनी गहन व्यथा और निराशा में, जो हेतल ने लिखा था वह यूँ था -
"यद्यपि कच्छ में जब भूकंप से मेरे सभी परिजन मारे गए थे, तब मैं जीना नहीं चाहती थी। उस समय अगर मेरी मौत होती, उससे मुझे दुःख नहीं होता। लेकिन अब हुआ कैंसर, जिससे मैं मर जाऊँगी, मुझे जब ऐसा लगता है, मैं मौत से बहुत डर रही हूँ। 
कच्छ में खोये तब मेरे परिवार की भरपाई, मेरे ईश्वर ने उससे भी ज्यादा अच्छा परिवार देकर पूरा किया है। तब कच्छ में ही मुझे, मेरे इष्ट ने, ऐसा जीवन साथी दिलाया है, जिनका पिछले 16 वर्ष का साथ, मुझे, मेरे इष्ट ईश्वर से भी, ज्यादा इष्ट हुआ है।
मैं अभी मरना नहीं बल्कि उनके एवं (हमारे ) बच्चों के साथ जीना चाहती हूँ। मेरे पति परमेश्वर, मेरे उपचार के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। तब भी, मुझे नहीं लगता कि मैं बच सकूँगी। 
भूकंप के समय अनाथ हो गई मैं, जब अस्थाई शिविर में रह रही थी, तब जीवन की उन विकट विपरीत परिस्थितियों ने, मुझे अपनी अभिलाषाओं से अलग, ईश्वर की इक्छा के सम्मुख श्रध्दानत होना सिखाया था। ईश्वर की इक्छा में किस दृष्टिकोण से संतोष मिलता है, वह दृष्टि मुझे मिली थी। 
मेरा कैंसर पीड़ित होना मैंने, ईश्वर की इक्छा माना है एवं अपने जीवन पर आज, उसी दृष्टि से जब, मैं देख रही हूँ तो, अभी मेरे मरने में मुझे दुःख नहीं, अपितु सुख प्रतीत हो रहा है। 
जी हाँ सुखद बात इसमें यह है कि मैं पतिदेव के रहते हुए ही, जग छोड़ कर जा रही हूँ। आशय यह है कि एक बार अनाथ हो चुकी मैं, फिर अनाथ होना कभी न चाहूँगी। अर्थात मैं अपने प्राणप्यारे पतिदेव को, अपने सामने मरता न देख पाऊँगी। उनके मरने से मैं फिर अनाथ हो जाऊँगी। 
मैं जानती हूँ मेरे पति सेना में हैं, जिन के जीवन पर मौत की आशंका, हर समय बनी रहती है। ईश्वर ने अब तक उन्हें सुरक्षित रखा है, मगर हो सकता है ऐसा हमेशा न रहे। 
यथार्थ जीवन -स्वरूप ऐसा क्षणभंगुर है तो, मेरे लिए यह भाग्य की ही बात है कि उनके रहते, मैं मरने जा रही हूँ। 
"अहो भाग्य मेरा कि मैं सुहागन मर रही हूँ।"
मैं यह जानती हूँ कि मेरे बच्चे, मेरा मर जाना सहन न कर सकेंगे। लेकिन उनकी इस कच्ची उम्र में उनके भविष्य को सुनिश्चित कर सकने में, मुझसे अधिक मेरे पतिदेव सक्षम हैं। 
मुझ पर आसन्न मौत के इन दिनों में, मुझे मेरे इष्ट ईश्वर पुनः स्मरण आ रहे हैं, उनसे मुझे एक ही फेवर चाहिए कि मेरे पतिदेव का साया, मेरे बच्चों पर दीर्घ काल तक बने रहे। फिर चाहे, मैं आज रहूँ या न रहूँ। "
बाद के पृष्ठों में भी हेतल की ऐसी ही भावनायें, कुछ अलग शब्दों में अभिव्यक्त हो रहीं थीं। ऐसा वह छह-सात दिन लगातार लिखती रही थी और हर दिन का उसका लिखा अंतिम वाक्य एक ही था-
"अहो भाग्य मेरा कि मैं सुहागन मर रही हूँ।"
फिर स्तन कैंसर की नई पध्दति से, उपचार में हेतल ठीक हो गई थी। और हेतल का मौत की निराशाओं में, ऐसी डायरी लिखने का, यह सिलसिला भी खत्म हुआ था।  
फिर मेरे शहीद होने तक के, बाद के लगभग अढ़ाई वर्ष सुखद बीत गए थे। हेतल के ना चाहे जाने पर जब, मेरी कश्मीर मोर्चे पर पुनः तैनाती हुई तब के एकांत पलों में, मैं अक्सर मेरे पास स्टोर्ड, हेतल के डायरी के वे पृष्ठ, मैं अक्सर पढ़ा करता था। 
अतः आतंकवादियों से मुठभेड़ में जब मुझे गोली लगी और मैं मर रहा था तब अंतिम क्षणों में मुझे हेतल का लिखा यह वाक्य "अहो भाग्य मेरा कि मैं सुहागन मर रही हूँ", ही स्मरण आया था। 
मुझे कोई शंका नहीं थी कि हेतल, मेरा बलिदान सहन नहीं कर सकेगी। तथा राष्ट्र के लिए प्राण न्यौछावर कर देने के, गौरवशाली अवसर में टूट-बिखर कर रो पड़ेगी। 
इससे देखने वालों पर, राष्ट्र बलिदानी के परिवार पर गुजरने वाला, यह दुःख गलत संदेश जैसा जा सकता था। जिससे राष्ट्र के लिए बलिदान की परंपरा से कोई सैनिक विमुख भी हो सकता था। 
यह दो कारण हुए थे जिनसे मैंने, अपनी दिव्य शक्ति से, अंतिम घड़ी में रूहों की अदला बदली करते हुए, अपनी मृत्यु के साथ अनंत यात्रा पर हेतल की आत्मा को, भेज दिया। तथा खुद  मैंने हेतल के शरीर में, अपना जीवन निरंतर कर लिया था।  
इस तरह अपने शरीर की सैन्य सम्मान से अंत्येष्टि तथा परमवीर चक्र के सम्मान के समय, मैंने, हेतल के रूप में, राष्ट्र के समक्ष एक अभूतपूर्व साहसी पत्नी का, उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर, हेतल के लिए अत्यंत वाहवाही सुनिश्चित की।   
वह समय बीता है, बच्चों को अपने ज्ञान एवं अनुभवों से मार्गदर्शन और हेतल के शरीर में होने से, उनकी माँ की तरह से देखरेख तथा अनुराग देते हुए, अब मैं अक्सर हेतल की रूह के विषय में सोचता हूँ। 
मुझे लगने लगा है कि महात्मा प्रदत्त, दिव्य शक्ति ने अनायास, हेतल की आत्मा के साथ, मेरे द्वारा अन्याय करवा दिया है। मुझे स्वयं पर धिक्कार होने लगा है कि जब नियति ने मेरी मौत लिखी, उस समय, उसमें मेरी आत्मा को आगे की अनंत यात्रा पर जाना चाहिए था। ऐसा नहीं होने देते हुए, मैंने ईश्वर के कार्यक्षेत्र में दखल दिया है। 
ऐसा खेद दिमाग में घर जाने से, मैं आत्म ग्लानि में रहता हूँ। ऐसे में तब मैंने निश्चय किया कि मैं लद्दाख जाऊँ एवं अगर वह संत-महात्मा जीवित हों तो, उनसे जाकर मिलूँ और प्रार्थना करूं कि ऐसी शक्ति आगे वे किसी को न दें। 
मनुष्य इस योग्य नहीं कि उसे कोई दिव्य शक्ति मिले। ऐसी शक्ति का प्रयोग कुतर्क का सहारा लेकर, वह किसी पर अन्याय कर देने के लिए, कर सकता है। 
प्रश्न यह है कि मैं तो अब हेतल के रूप में हूँ । वे मुझे पहचान कैसे सकेंगे? तब स्वयं उत्तर भी मिला- जिनके पास ऐसी शक्तियाँ हैं, वे निश्चित ही मुझे इस रूप में भी पहचान लेंगे। 
बच्चों की परीक्षायें अभी ही समाप्त हो चुकी हैं। वे कुछ दिन विश्राम करना चाहते हैं। तब मैंने उन्हें कहा कि मैं कुछ दिन के लिए, लद्दाख घूमने जाना चाहती हूँ। उन्होंने यह सोच कर कि इससे, पापा के जाने की मेरी व्यथा मिटेगी, इसकी हामी कर दी। फिर अपने सोचे हुए विशेष कार्य पर, मैं निकल पड़ा हूँ। 
सुखद बात यह रही कि, वे महात्मा अपनी उसी कुटीर में विद्यमान मिले हैं। वयोवृध्द अवश्य हो गए हैं, इस समय उनकी आयु 90 के ऊपर हो चुकी है। उन्होंने अपनी कुटीर में, मुझे देखा है। प्रश्नवाचक दृष्टि मुझ पर डाली है तब मैंने, उन्हें बताने के प्रयोजन से स्वयं कहना आरंभ किया है - 
महात्मन, आप को स्मरण होगा आज से लगभग 23 - 24 वर्ष पूर्व एक सैनिक आप के पास आया करता था। आपने, उसे एक शक्ति प्रदान की थी, जिससे वह, किसी एक व्यक्ति से, अपनी आत्मा की अदला बदली की विद्या में पारंगत हुआ था। 
मैं, उसी सैनिक की आत्मा हूँ, एवं अपनी पत्नी हेतल के शरीर में आपके समक्ष उपस्थित हूँ। मेरा कहा विवरण सुनकर, उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ, उनकी मुख मुद्रा से यह प्रतीत हो रहा है कि जैसे वे इस बात के जानकार हैं। मगर लगता है कि प्रत्यक्ष में वे सब मुझसे सुनना चाहते हैं। 
तब विस्तार से मैंने पिछले 18 -19 वर्ष के सब घटनाक्रम उन्हें कह सुनाये हैं। तब उन्होंने, पहली बार बोला है कि - आप अब, किस प्रयोजन से आये हैं ?
मैंने कहा - महात्मन, मैं अल्प बुध्दि, शक्ति का प्रयोग, अन्यायपूर्ण रूप से कर बैठा हूँ, मेरी मौत पर मैंने हेतल की आत्मा को विदा किया है जबकि जाना मेरी आत्मा को चाहिए था। 
तब महात्मा बोले - आप, इस बात के लिए हेतल की आत्मा के पक्ष जानकार नहीं इसलिए ऐसा सोच रहे हो।  
(आगे हममें वार्तालाप, ऐसा हुआ है)
मैं - जी, मगर हेतल के आत्मा की, अब मैं जान कैसे सकता हूँ। उसे गए तो दो माह हो चुके हैं। 
महात्मा - हेतल की आत्मा अब एक युवती के गर्भ में नया शरीर (इस समय भ्रूण) ग्रहण कर चुकी है। और इस समय उसके, आपके साथ के पिछले जीवन की, स्मृति मिटने की प्रक्रिया चल रही है। 
तब भी आपकी जिज्ञासा पर, आपके मौत के समय, उसकी आत्मा के तबके ज्ञान के साथ, उसकी आत्मा के, उस समय के संस्करण से मैं, आपका साक्षात्कार करा सकता हूँ। 
इसके लिए आपको किसी मनुष्य को साथ लेकर आना होगा। जिसमें, मैं अस्थाई रूप से हेतल की आत्मा बुलाकर, आपसे बात करा सकूँगा। जब तक हेतल की आत्मा उस शरीर में होगी, उस शरीर की मूल आत्मा मैं, हवा में रखूँगा। 
मैं - मगर महात्मा इसके लिए तो मुझे वापस, अपने शहर जाना होगा, जहाँ से किसी परिचित को, मैं संग ला सकूँगा। 
महात्मा - नहीं, इस कार्य के लिए बिलकुल अपरिचित व्यक्ति को लाना होगा जो पूर्व में आपको और हेतल को जानता तक नहीं है।     
मैं - तब तो मुझे, यहाँ से ही किसी को लाना होगा, पर महात्मा उसे किसी तरह का खतरा तो नहीं होगा। 
महात्मा - नहीं, वह बिलकुल सुरक्षित होगा। और आपसे हेतल का साक्षात्कार करा देने के उपरान्त मेरे द्वारा, उस व्यक्ति की आत्मा उसके शरीर में एवं हेतल की आत्मा, वापिस उसके अपने नए (भ्रूण) शरीर में भेज दी जायेगी। 
मैं - महात्मा मगर यहाँ, हिंदी का जानकार व्यक्ति शायद न मिले। 
महात्मा - इससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा, तुम्हारा साक्षात्कार, तबकी हेतल की आत्मा से होगा, जो उस समय हिंदी जानती रही थी। 
यह सब सुनने के बाद मैं निकल पड़ा हूँ, निकट ही किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में ..        
(क्रमशः)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
22-05-2020



Tuesday, May 19, 2020

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (4)

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (4)

कभी कैंसर हुआ था यह हेतल भूल सी गई थी। तब से दो वर्ष से कुछ ज्यादा का वक़्त ही बीता होगा, 2019 ने विदा ली थी। 2020 का स्वागत, सभी ने बहुत उल्लास एवं ख़ुशी से किया था। 
क्या है, 2020 के गर्त में कुछ ही दिनों में यह दिखाई देने लगा था। 
वैसे तो चीन से, एक नए कोरोना वायरस की खबरें, 2019 के अंत में ही सुनने मिलने लगीं थीं लेकिन फरवरी आते आते दुनिया को यह आशंका लगने लगी थी कि यह वैश्विक महामारी का रूप धारण कर सकता है।
चीन के बाद, आरंभ में इसने कुछ यूरोपीय देशों में अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू किया और मार्च के दूसरे पखवाड़े में इसके गंभीर होने के खतरे, भारत पर भी दिखने लगे। 
इधर सरकार ने लॉक डाउन लागू किया, उधर मुझे कश्मीर में पुनः तैनाती के आदेश मिले।  
यूँ तो आतँकी खतरों से जूझते कश्मीर में, मेरी तैनाती पहले भी होती रहीं थीं, मगर इस बार मेरे कश्मीर जाने को लेकर, हेतल ज्यादा घबराई हुई थी। कारण शायद लॉक डाउन भी था। हेतल, बच्चों के साथ घर में ही रहने की कल्पना से डरी हुई थी कि जरूरत की सामग्रियों की, व्यवस्था कैसे संभव होगी। 
साथ ही उसे यह भी भय हो रहा था कि कश्मीर में एक दुश्मन (आतंकवादी) छिपकर मुझ पर हमला करने को तैयार मिलेगा और एक, दूसरा अदृश्य संकट कोविड-19 के रूप में, मुझ पर आसन्न एवं घातक संकट होगा। 
इसके लिए, बड़ी कठिनाई से मैं, हेतल को समझा सका था। मैंने भावनात्मक तर्क का सहारा लिया था। कहा था कि-
हेतल, तुम तो लगभग 19 वर्षों से, इस सैन्य अधिकारी की पत्नी हो। ऐसी डरपोक तो तुम्हें नहीं होना चाहिए। तुम यह क्यों भूल रही हो कि तुम, मुझसे मिल ही, इस कारण सकी हो। मेरी कच्छ में, एक सैनिक के रूप में पोस्टिंग होने से ही तथा देशवासियों के रक्षक के रूप में ही तो, मैं तुम्हारा सहायक हो सका था।   
मुझसे ऐसा सुनते ही, उसने खुद को संभाला था। अपनी आकर्षक, बड़ी तथा कटीली आँखों में झिलमिला रहे, अश्रुओं को पोंछा था। फिर मुझसे कहा था कि- 
हाँ हाँ जाइये आप! आप में अप्रीतम शौर्य और साहस है। राष्ट्र के प्रति आपके दायित्वों में, मैं बाधा नहीं बनूँगी। आप जायें और अपनी उत्कृष्ट वीरता से, कश्मीर वालों की रक्षा करें।  
जब मैं, घर से रवाना हो रहा था तब हेतल की भाव भंगिमाओं (हावभाव) से, जिसे वह मुझसे छिपाने का यत्न कर रही थी, मुझे लग रहा था जैसे कि वह, मुझे अंतिम विदाई दे रही हो। 
वह बच्चों से भी अपने डर छुपा रही थी ताकि वे भावुक न हो जायें। मैं स्वयं भी, हेतल और दोनों बच्चों से, आँख चुराते निकल गया था। उनसे आँखें मिला कर विदा लेने में, मुझे यह डर लगा था कि राष्ट्र सेवा को, बढ़ते मेरे कदम रुक न जायें। 
अब तक तुलनात्मक रूप से, मेरे छोटे जीवन में ही, नियति ने मेरी झोली में, असीम सुख भर दिए थे। नियति, मुझे, जो बिरलों के ही भाग्य में होता, एक ऐसा गौरव और दिलाना चाहती थी। 
कोरोना संकट से निबट रही, भारतीय सरकार को व्यस्त जान, दुश्मन ने इसे अच्छा अवसर समझा था। वह शनै शनै शांत हो रहे कश्मीर को, देख खिसियाया हुआ था। वह चाहता था कि कश्मीर में, उथल पुथल मचा दे। 
मजहब के नाम पर, 1947 में देश तोड़ देने वाली मानसिकता, अब भी दुश्मन के दिमाग पर हावी थी। खुद की जनता को खुशहाली न दे सकने की अपनी असफलता पर से, अपनी जनता का ध्यान हटाने के लिए कश्मीर में हिंसा जारी रखने के, उसके मंसूबे थे। 
वह कश्मीरी युवाओं को फिर भटकाने के लिए, इन दिनों अपने आतँकवादी घुसपैठिये बढ़ा रहा था। ऐसी ही एक पुष्ट सूचना पर, हमने उस रात्रि एक घर को घेर रखा था। उस घर में, एक मोस्ट वांटेड टेररिस्ट कमांडर सहित दस आतँकी थे।  
आतँकियों द्वारा रात भर चलाई, गोला बारी से बचते हुए, मैंने और मेरे साथियों ने सावधानी से, हुए उस घर में प्रवेश किया था। 
घर में बंधक किये गए नागरिकों को बचा, सुरक्षित बाहर भिजवाते हुए कमांडर सहित नौ आतँकियों को मार गिराया था। 
अंतिम बचे आतँकी ने तब, जान बचाने के लिए ऊपरी मंजिल से बाहर छलाँग लगाई थी। मैंने उसे देख लिया था। और तत्परता से उसका पीछा किया था।
ऊपर से कूदने के कारण चोटिल हुआ, वह लगंड़ाता भाग रहा था। उसे जीवित ही पकड़ने के, अति विश्वास में, मैंने उस पर फायर नहीं किया था तथा झपट्टा मार, उसकी कॉलर पकड़ ली थी। 
निश्चित ही, रात भर चले संघर्ष की थकावट में, कुछ शिथिल हुई युक्ति एवं दिमाग के कारण, मैं चूक गया था।
उसने मुझ पर गोली चलाई थी। जो मेरे सीने में, हृदय के नीचे लगी थी। मेरा अंत निकट आ गया था। ऐसे में मुझे यह देख संतोष हुआ था कि मेरे अन्य साथी, तब तक वहाँ पहुँच गए थे। जिन्होंने, उसकी गन छुड़ा कर, उसे काबू में ले लिया था। 
अब अंतिम बचे, मेरे जीवन के कुछ पलों में, मेरी आँखों के सामने, मेरे बच्चे और हेतल के चेहरे थे। 
एक जीवन दीप बुझ रहा था। आखिरी भभके जैसा, मेरा दिमाग तेज चल रहा था। हेतल पर क्या बीतेगी, जल्दी जल्दी मुझे, इसकी कल्पना हुई थी।      
बिलकुल ही अंतिम क्षण में, मैंने अपनी शक्ति का प्रयोग किया था।
हेतल के शरीर में, अपनी आत्मा कर दी थी।
मेरे गंभीर घायल शरीर का, जब आत्मा से जुदा होने वाला, अंतिम पल आया था, उस समय उसमें हेतल की आत्मा थी, जिससे वह आगे की अनंत यात्रा के लिए चल निकली थी। 
मेरी आत्मा को, हेतल के शरीर में रहते हुए, आगे भी जीवन के अवसर मिलने थे।  
फिर, मेरे पार्थिव शरीर का घर लाया जाना, हेतल के शरीर में विद्यमान, मेरी आत्मा ने देखा था। लोगों को दिखने वाली हेतल में, मैं था।
शव के सैन्य सम्मान से, दाह सँस्कार करते हुए, साक्षी हुए लोगों ने, हेतल की आँखों में आँसू नहीं देखे थे। बल्कि गौरवान्वित होने जैसे भाव एवं मुख पर मुस्कान देखी थी।   
हेतल के मुख पर ऐसे भाव को दर्शाती तस्वीरें एवं वीडियो, समाचार चैनलों पर उस दिन भर दिखाए गए। साथ ही सोशल साइट्स पर ये वायरल हुए थे। जिनकी व्यूअर सँख्या ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। 
भले क्यूँ न ऐसा होता, जब भारत की विशाल जनसँख्या में, अधिकाँश हमारे नागरिक राष्ट्रनिष्ठ थे।
सरकार ने मुझे, मरणोपरांत परमवीर चक्र दिए जाने की घोषणा की। हमारी सेना में, राष्ट्र रक्षा के बलिदान एवं इस उच्चतम सम्मान को लालायित लगभग सभी सैन्य अधिकारी एवं सैनिक होते हैं। इस तरह मैं, वह भाग्यशाली सैन्य अधिकारी हुआ था जिसे यह चरम गौरव प्राप्त हुआ था। 
यह अवश्य था कि इसके लिए, हेतल की आत्मा को खोकर, तथा बच्चों को प्रकट में, अपने पापा को, कम वय में ही खो देने की अपूरणीय क्षति उठानी पड़ी थी। 
इसके साथ ही मुझे अब उस (दो में से) एक शरीर का अभाव भी हो गया था। ऐसा होने से, मैं अपनी शक्ति के प्रयोग से, रूह की अदला बदली करने में असमर्थ हो गया था, जिसे पूर्व में, मैं किया करता था।
अन्य शब्द में कहूँ कि लद्दाख के उन महात्मा पुरुष से प्राप्त, मेरी शक्ति अब स्वतः ही निष्प्रभावी हो गई थी। 
जब यह निष्प्रभावी हो ही चुकी थी, तब इसका राज खोलने से, शक्ति खो जाने वाला डर, भी मिट गया था। 
तब ऐसी नई परिस्थिति में -
मैंने क्यों, अंतिम पल में हेतल की आत्मा को अपनी आत्मा की जगह विदा हो जाने दिया था? यह, तथा अपनी रही दिव्य शक्ति का राज, दिल में ही छिपा सकना, मुझ पर भारी पड़ रहा था।
फिर कुछ दिन बीते थे और आज, सब की दृष्टि में बलिदानी, सैन्य अधिकारी की पत्नी, हेतल को, बलिदानी पति के लिए, परमवीर चक्र प्रदान किया गया है। 
हेतल के रूप में, मैं स्वयं हूँ। सभी के समक्ष मैंने, पति के बलिदान को अपने एवं परिवार के लिए अत्यंत गौरवमयी उपलब्धि बताया है। साथ ही पति के ऐसे जाने को मातम नहीं, बल्कि अत्यंत हर्ष का विषय होना बताया है।
हेतल के मुहँ से कही गई, ऐसी बात सुन, सबके हृदय में, हेतल की भूरी भूरी प्रशंसा है। साथ ही उनकी, हेतल और बच्चों के साथ गहन संवेदनायें हैं।
आज अब मैं, जब मेरी मौत हो जाए, उसके बाद, ताकि इतिहास को सनद रहे, अपनी डायरी में, अपना स्पष्टीकरण ऐसे लिख रहा हूँ ..   

(क्रमशः)
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
19-05-2020

   


Monday, May 18, 2020

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम .. (3)

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम .. (3)

अपने दो बच्चों के बड़े होते जाने के साथ, मेरा और हेतल का समय अत्यंत प्रसन्नता से गुजर रहा था। इस बीच मुझे सेना में विभिन्न अवसरों पर अपने पराक्रमी प्रदर्शन से, पहले कीर्ति चक्र और बाद में महावीर चक्र का सम्मान मिला था।
पिछले इन 10 वर्षों में मेरे मोर्चे पर होने के समय, के अलावा हेतल को सर्व अनुकूलतायें मिली हुई थीं। अतः इस दौरान मैंने, अपनी शक्ति का प्रयोग भी नहीं किया था।
तब हमें खुशहाली की आदत हुई थी। हमारा बेटा 13 एवं बेटी 10 वर्ष की हुई थी। हेतल एवं मेरे मार्गदर्शन में, दोनों बच्चे, स्कूल में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे।
जीवन का यथार्थ स्वरूप, हमारी अपेक्षाओं से भिन्न होता है।
तब जून 2017 का दुर्भाग्य पूर्ण महीना आया था। हेतल 38 वर्ष की हुई थी, हेतल कुछ दिनों से परेशानी अनुभव कर रही थी। हमने अस्पताल जाकर जाँच कराई थी। तब, हेतल को, ब्रेस्ट कैंसर का होना पता चला था।
मैंने पत्नी के गंभीर रोग के आधार पर, दो माह का अवकाश स्वीकृत कराया था।
कोई मनुष्य, ज्यादा अनुकूलतायें नहीं होती तब, जीवन रहे - न रहे, इसकी ज्यादा फ़िक्र नहीं करता है। लेकिन हेतल, अपने दो बच्चों एवं मेरे साथ इतनी अधिक खुश एवं संतुष्ट थी कि, दीर्घ जीवन जीना चाहती थी।
वैसे तो स्तन कैंसर, उतना घातक नहीं होता है, मगर, कैंसर शब्द, किसी भी पीड़ित को, भयाक्रांत कर देता है।
हेतल का उपचार शुरू कर दिया गया था। फिर भी हेतल, हम सब से बिछुड़ जाने की कल्पना से घबड़ा जाती थी। वह रो रो पड़ती थी। मुझसे पूछती- आपने 16 वर्ष में इतनी खुशियाँ मुझे दीं हैं, इससे मेरी खुशियों का कोटा खत्म हो गया, क्या? जो मैं, काल के गाल में समाने जा रही हूँ!
मैं उसे आश्वस्त कराने का प्रयास करता कि तुम ठीक हो जाओगी। अभी तुम्हें बहुत खुशियाँ मिलनी शेष हैं।
मेरी पिछली बातों के अनुभवों से, हेतल पर मेरे आश्वासन कुछ क्षणों के लिए प्रभावी होते, मगर फिर, हम सब को छोड़ जाने का भय, उस पर हावी हो जाता।
उसकी रात की नींद सुनिश्चित करने डॉक्टर स्लीपिंग पिल्स देने कहते थे। इनके साइड इफेक्ट्स होते हैं, अतः मैं ये सेडेटिव ड्रग, हेतल को देना नहीं चाहता था। तब मैंने, विशेषकर रातों में, पुनः हेतल और अपनी आत्मा की अदला बदली शुरू कर दी थी।
हेतल पर कीमो उपचार आरंभ किये गए थे। कीमो की तकलीफ के दिनों में, उसके शरीर में मेरी आत्मा का होना, मैं, सुनिश्चित कर लेता था। तब हेतल की आत्मा मेरे शरीर में होती थी।
ऐसे में, मेरे बेटे एवं बेटी को, पापा के द्वारा, मम्मी सा व्यवहार किया जाना, अनुभव होता था। वे चकरा जाते थे, पूछते- पापा, आप तो मम्मी हो गए हो। मम्मी वाले सारे काम, अच्छे से करते हो, अपने काम भूल जाते हो।
हेतल की आत्मा, स्वयं चकित रहती, उसे पिछले समय के भी, ऐसे अनुभव थे।
बच्चों पर किसी तरह का हानिकर प्रभाव न पड़े, इस आशय से वह, उनसे बनावटी बात कहती, अभी आपकी मम्मी बीमार है ना! इसलिए मुझे आपकी मम्मी बनना होता है। ताकि आपको कोई कमी न लगे।
बच्चे तब कहते- आप, मम्मी की तरह होते हो तो, हम पापा को मिस करते हैं।
प्रत्युत्तर में हेतल की आत्मा, सावधानी रखते हुए कहती कि-
बच्चों, आपकी मम्मी जल्द ठीक हो जायेगी तब, आप दोनों में से, किसी को मिस नहीं करोगे। साथ ही वह उन्हें कहती कि-
ऐसी कोई बात, आप दोनों बाहर न करना, नहीं तो लोग हमारी मजाक बनायेंगे। वे छोटे एवं हमारे आज्ञाकारी भी थे, दोनों ऐसा ही करते थे।
कीमो के तीन डोज़ ही हुए थे तब मुझे पता चला था कि
"एक नई तकनीक आई है, जिससे स्तन कैंसर की गांठ से, 15 मिनट के उपचार से ही, राहत मिल सकती है। इसमें, डॉक्टर एक बेहद ठंडी सुई को कैंसर कोशिकाओं के अंदर दाखिल करते हैं। कैंसर की गांठ को इससे, बर्फ की बॉल में बदल देते हैं। जिसके बाद इसे सरलता से नष्‍ट कर दिया जाता है।"
ऐसा ज्ञात होते ही, मैं हेतल को उस अस्पताल ले गया था, जहाँ इस तकनीक के विशेषज्ञ चिकित्सक थे। नई तकनीक होने से, यह तब बहुत महँगी थी, लेकिन वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों की कृपा होने से, हेतल का ट्रीटमेंट संभव हो सका था।
मेरे एवं बच्चों के भाग्य से, उपचार उपरांत हेतल पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर लौट आई थी।
घर लौटने पर, पुनः हेतल ने मुझमें दिव्य शक्ति के होने संबंधी, प्रश्न किया था। मैंने फिर हेतल को, ऐसा होना नकारा था। मेरे नकारने पर भी उसने नहीं माना था। उसने कहा था कि-
"पति के अति स्वार्थी रवैय्ये से आज कुछ ही और कोई ही पत्नी होती है, जो अपने पति को, परमेश्वर मानती है।"
फिर उसके चेहरे पर असीम श्रध्दा के भाव परिलक्षित हुए थे। उसने अत्यंत मृदु एवं प्रेममय स्वर में मुझसे, आगे कहा था कि-
मगर, मैं वह सौभाग्यशाली पत्नी हूँ, जिसे अपने पति परमेश्वर रूप में आप मिले हैं। 
उन महात्मा पुरुष के द्वारा कही गई बातों का, तब मुझे स्मरण आया था। मुझे हर हाल में अपनी शक्ति का राज, राज ही रखना था। मैंने हँसते हुए कहा था कि-
हेतल, यह कैसी बातें करती हो। मुझमें कोई शक्ति वक्ति नहीं है। यह तुम्हारा मुझसे अगाध प्रेम है जिससे तुम्हें ऐसा लगा करता है।
मेरे लिए तो तुम देवी हो, जिसने मेरे जीवन में आकर मुझे, एक सफल आदमी बनाया है।
मेरे हर साहासिक और अच्छे कर्म, तुम्हें खुश रखने की भावना से प्रेरित होते हैं। हाँ, मेरे हिस्से में पराक्रम और उससे अर्जित बड़े सम्मान आये हैं। लेकिन यह सब, मेरे साथ तुम्हारे होने से संभव हुए हैं।
वास्तव में तुम्हारे रूप में, मुझे, वह विलक्षण नारी मिली है जो पीछे रहकर, मुझ जैसे साधारण पुरुष को, एक सफल पुरुष बनाती है।
मेरे इस उत्तर पर, स्वयं उसने, मेरे समीप आकर मेरी बाँहे, अपने इर्द-गिर्द लीं थीं और मेरे सीने पर, अपने सलोने मुखड़े को रख, अपनी आँखें, मेरी आँखों से मिलाते हुए, मुझसे अगाध प्रेम की मुख मुद्रा के साथ, उसने कहा था-
आपको सच छुपाकर, बहुत बातें बनाना आता है। मैं, आप से बातों में नहीं जीत पाती हूँ।
उस पर, अपनी बाँहों का थोड़ा दबाव बनाते हुए, मैंने पूछा था- हेतल, क्या तुम्हें, मेरा प्रेम झूठा लगता है?
वह शरमाई थी कहा था, मैं प्रेम पर सवाल नहीं कर रही, वह तो अभूतपूर्व है। शायद ही, कोई ऐसी पत्नी होगी, जिसे आपसा चाहने वाला पति, मिला होगा।
हेतल से, प्रेम की ऐसी बातें सुनकर, मैं गदगद हुआ था।
फिर मैंने, उसे बाँहों में उठाकर, पलंग पर लिटाया था, ताकि उसे चिकित्सक द्वारा निर्देशित आराम, सुनिश्चित हो सके।   
कुछ दिनों में, हेतल की दिनचर्या सामान्य हुईं थी। हमारे बच्चे अब मम्मी-पापा दोनों में से किसी को मिस नहीं कर रहे थे। हम, फिर एक अत्यंत खुशहाल परिवार, अनुभव करने लगे थे।
मैंने, सेना में अपनी सेवायें, पुनः ज्वाइन कर ली थी। 
हममें से किसी को नहीं मालूम था लेकिन, "समय" यह जानता था कि-आगे वह, हमें क्या दिखाना चाहता है ... 
(क्रमशः)
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
18-05-2020