Sunday, September 30, 2018

अधूरी तमन्नायें ..

अधूरी तमन्नायें .. 

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विवेक , विचार , अनुभव , और कल्पना सभी के पास है। ऐसा होते हुए इन्हें तरतीबी देना सभी के लिए संभव नहीं होता है। इन्हें सिलसिलेवार अभिव्यक्त करने की क्षमता भी सबमें है , पर अव्यक्त रह जाती है। बेतरतीब बातें इसलिए ज़माने में बहुत होती हैं।जिनसे कुछ बनता नहीं है। इंसानियत बिरली होती जा रही है। समाज में नारी और सज्जनता से जीवन बिताने के इक्छुक लोगों के लिए सिर्फ "जी लेना" ही क्रमशः अधिक मुश्किल होते जा रहा है। कारण की जड़ खोजें तो यह पायेंगे कि हमने जीवन में दौलत और मज़हब को आवश्यकता से ज्यादा वरीयता दे रखी है। इसलिए विवेक , विचार , अनुभव , और कल्पना को सिलसिले से अभिव्यक्त करने वाले साहित्यकार बिरले हो चले हैं। साहित्यकार , वास्तव में समाज प्रेरणा दे सकते थे , जिससे मानवता पल्लवित रह सकती थी , और सद्प्रेरणा से हम इस समाज और विश्व को खुशहाल बना सकते थे। 

अभी की पीढ़ियाँ खुशहाल ज़िंदगी की तमन्ना तो करती हैं , मगर इसके लिए अपना कुछ देने को तैयार नहीं। एक बेसुध सा जीवन सबका है।  मजहबी लोग , धनवान लोग , राजनेता , सेलेब्रिटीस जिनके व्यभिचार , व्यक्तिगत भोगलालसायें अनेकों बार जग जाहिर भी हुए हैं किंतु सब उनके फेन होते हैं।
परिणाम - जिस खुशहाली की तमन्ना है , वह जीने नहीं मिलती। दुर्भाग्य इस दौर का -तमन्नायें अधूरी हैं। 

(नोट - उर्दू हर्फ़ , इंटेंशनली प्रयुक्त किये गए हैं )

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
01-10-2018

इस जहान में दो चार ही अपने होते - ज़िंदगी गुजार सकते थे
कई अपने नहीं जो अपने से होते हैं - जहान इसलिए प्यारा है 
हम इंसान हैं - ज़िंदगी के लिए मकसद तय करलें
मारकाट ,बिन मकसद के - जानवर भी जी लेते हैं


भले हम हो जायें कत्ल - मीठी जुबां का चलन रहने दें
तीखी जुबां से मरने का - ग़म बर्दाश्त नहीं कर सकेंगें

जो है इंसान - उससे मोहब्बत करना बस सीख ले
कौमी नफ़रत का जहर - मिटाने के लिए काफी है 

Friday, September 28, 2018

मौत आई तो वजह बस बहाना था
सच तो यह कि सब छोड़ जाना था

यूँ तो
ज़िंदगी तो कुछ भी न होने से चलती देखी है
मगर
कुछ के न होने से ज़िंदगी सी लगती नहीं है

न चाहो भी ज़िंदगी का खेल तो चलना है फिर क्यूँ न हम इसमें मजा लेना सीख लें

कह के कि 'अच्छा हम कहते हैं' - यह शौक पूरा कर लें हर दौर में मगर - आगे बढ़ के कहने वाले हुआ करते हैं

ज़िंदगी , क्यूँ मासूम मैं - तुझसे शिकायत किया करता हूँ तेरी मर्जी है , जो देना - तू वही बस तो मुझे दिया करती है

Thursday, September 27, 2018

प्यार , दया-करुप्यार , दया-करुणा आधारित हो सच्चा प्यार होता है
 उसमें दैहिक आकर्षण प्रमुख हो जाए वासना हो जाता है

मोहब्बत की भाषा भी नहीं समझते तुम
इतना नासमझ तुम्हें खुदा ने बनाया क्यूँ

बेवफ़ा हम होते तुरंत शिकवा कर देते तुम
वफ़ा हमने निभाई जिक्र ही नहीं करते तुम

उनकी हम - सिर्फ शिकायत किया करते हैं
तारीफ़ भी हैं उनमें - क्यूँ अनदेखी करते हैं

न हो उसका नुकसान कोई - जिन्हें हमारी कदर नहीं
हो ज़िंदगी के मंसूबे पूरे उनके - हमें उनकी कदर है

जो चीज खो गई - आज ज़माने भर से
कद्र करो कि हममें - वह सादगी बाकी है

मोहब्बत है - फासलों की अहमियत नहीं
फासले गर अखरें - उसे वासना समझना



णा आधारितप्यार , दया-करुणा आधारित हो
सच्चा प्यार होता है
उसमें दैहिक आकर्षण प्रमुख हो जाए
वासना हो जाता है
हो
सच्चा प्याप्याप्यार , दया-करुणा आधारित हो
सच्चा प्यार होता है
उसमें दैहिक आकर्षण प्रमुख हो जाए
वासना हो जाता है प्यार , दया-करुणा आधारित हो 
सच्चा प्यार होता है 
उसमें दैहिक आकप्यार , दया-करुणा आधारित हो 
सच्चा प्यार होता है उसमें दैहिक आकर्षण प्रमुख हो जाए वासना हो जाता हैर्षण प्रमुख हो जाए 
वासना हो जाता है

र , दया-करुणा आधारित हो
सच्चा प्यार होता है
उसमें दैहिक आकर्षण प्रमुख हो जाए
वासना हो जाता है र होता है
उसमें दैहिक आकर्षण प्रमुख हो जाए
वासना हो जाता है
इश्क़ और ख़ुदा समान हैं यारों
जितना भी दे दें कमी लगती है

बेजुबां नहीं है मोहब्बत मेरी
कान हैं मेरे उसकी सब सुनता हूँ

उसके रुखसार पर तिल - तिनका साबित हुआ
दिल को आया चैन - ज़िंदगी () डूबने से बच गई
(अवसाद में)

Wednesday, September 26, 2018

हवा से कह दो कि - वह कोई और काम करे

चिराग करते रोशन जहां - उन्हें बुझाये नहीं


वादा निभाना , जिसकी फितरत ही नहीं 
'बेवफ़ाई क्या' , वह समझा के ही जाएगा

जिन आँखों को आपने रुलाया था - ज़िंदगी भर 
आपकी तस्वीर रही बंद उन आँखों में - रुखसत होते हुए 


तुम चाहो कि तुम्हारे अलावा और भी कोई ज़िंदगी जी ले
मुस्कुराना , तुम्हारी मुस्कुराहट किसी का जीवन है , प्रिय

चेहरे पे सौम्यता यदा कदा अब दिखाई देती है

हर चेहरा आज मतलबपरस्त दिखाई पड़ता है


किसी की फ़िक्र रखना गैर जरूरी नहीं होता

फ़िक्र औ' मदद किसी को अपना बना लेते हैं


संशय ही हमारे जीवन का बहुत समय व्यर्थ करता है

विश्वास हो , विश्वासी हों तो संयुक्त प्रयासों से बहुत भले कार्य किये जा सकते हैं

उन हसरतों को बुरा कहना मुनासिब नहीं
जिनके होने से हमारी ज़िंदगी बेजान नहीं

Saturday, September 22, 2018

खुशियाँ आज लफ़्जों में सिमट रह गईं
हक़ीक़त बयां आज आँसू किया करते हैं

हर घर में -
चिराग मुझे कहा गया
तब भी -
देश में उजाला न ला सका

घर घर -
चिराग मुझे कहा गया
किंतु -
औरों की रोशनी को खतरा हूँ


क्यूँ किसी के नींद उड़ने का सबब हम बनें
हम तो हैं इसलिए कि वे सुख से सो सकें

इंतकाम कोई - हम किसी से नहीं लेते
आज का इंसान - क्या कम परेशान है


Thursday, September 20, 2018

आर्ट मूवीज़ की तरह , "फ्लॉप" - स्टोरी

आर्ट मूवीज़ की तरह , "फ्लॉप" - स्टोरी 

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समीना ,चार-छह वर्ष की होगी तब ही उसे , औरों के कहने और आईने की गवाही से पता हो गया था कि वह औरों से ज्यादा सुंदर है। पहले-पहल उसे सुंदर दिखना और होना , भला लगता था। लेकिन ज्यों ही बड़ी होने लगी , उसे सबकी तरफ से मिलता विशेष व्यवहार और अतिरिक्त तवज्जो अजीब लगती। अभी 12-13 वर्ष की ही हुई तो , आसपास के भैय्या - चाचा टाइप के लोग उससे बात के बहाने कर लेते। और तो और आस -पड़ोस के ड्राइवर और नौकर तरह के लोग भी अपने में इंटरेस्ट लेते लगते। माँ - पापा से पढ़ने की मिलती प्रेरणा से वह अपनी पढ़ाई में ध्यान केंद्रित रखना चाहती थी। इन सबसे बचती , अपने ध्यान से सब ऐसी बात झटकती रहती।
अठारह की हुई तो प्रतिभाशाली छात्रा होने से मेडिकल कॉलेज में उसे  दाखिला मिला। कोएड होने से यहाँ लड़के बहुत थे और प्रोफेसर भी पुरुष ज्यादा। उसके रूपवान होने से छात्र तो छात्र , प्रोफेसर्स की भी उसकी तरफ उठी निगाहें बदनीयती की होती।  सब उसकी पढ़ाई में मदद के बहाने करते , उसकी करीबी हासिल करने के कोशिशों में लगे रहते। उनसे भी उसे दूरी रखने का तरीका ढूँढना होता। साथी गर्ल्स उसे चिढ़ातीं , परेशान करतीं कि किसी एक को बॉयफ्रैंड बनालो - फेमस करदो तो औरों से पिंड छुड़ा सकती हो। समीना , अलग तरह की लड़की थी। वह इन चक्करों से दूर ही रहना चाहती थी। चक्करों में नहीं पड़ती तब तो पढाई से इतनी  अन्यमनस्कता (distraction) का खतरा। बॉयफ्रेंड बनाया तो मालूम नहीं क्या हो। 

अभी तो वह कॉलेज तक पहुँची है। उसे आगे , अपनी सुंदरता की कितनी और चुनौतियों को झेलना होगा , आभास भी नहीं। उसे हॉस्पिटल के स्टाफ , पेशेंट और तो और शादी के बाद पति के मित्रों की भी ऐसी  नज़रों  से बचते रहने होगा।
सुंदरता के कारण पूरी ज़िंदगी ना जाने कितनी एनर्जी इन सब से बचाव में खर्च करने होगी। बच सकी तो अनेकों को रुखाई की शिकायत रहनी थी। कहीं फिसली तो लोगों की अँगुली - चरित्र पर उठ जानी थी। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
21-09-2018


Wednesday, September 19, 2018

कोई नहीं जो औरों के हित के लिए लड़ता मिला
जो मिला वह सिर्फ अपने हितों को लड़ता मिला


औरों के हितों में अपने हित थे निहित
यह विज़न किसी में देखने नहीं मिला

आज
तकनीक़ बना रही - मशीनी रोबोट
और
हम ईश्वर बनाए - रोबोट हो रहे हैं

आइना दिखलाये हमें कि - हम खूबसूरत नहीं
तब भी एक खूबसूरत ज़िंदगीं - हम जी सकते हैं 

किसको क्या हासिल ?

किसको क्या हासिल ?

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दीपिका की टीम ने राज्य स्तरीय कबड्डी प्रतियोगिता जीती थी। पुरस्कार कप्तान होने के नाते उसने लिया था , राज्यमंत्री चंद्रमोहन जी के हाथों। चंद्रमोहन जी ने कंधे पर हाथ रखकर कुछ ज्यादा ही दबाव से उसे भींचा था। बाद हाथ मिलाते हुए उसके हाथों को दबाया था , त्वरित शरारती उत्तर में दीपिका ने भी उनके हाथ में नाख़ून चुभोये थे , मुहँ पर मुस्कराहट के साथ। दीपिका 25 वर्ष की थी , गरीबी में बचपन बिताया था। धन के प्रति ज्यादा ही आसक्ति उसके स्वभाव में थी। चंद्रमोहन जी 62 वर्ष के थे , तीन वर्ष पहले पत्नी स्वर्गवासी हो चुकीं थीं। धन बेहिसाब था उनके पास। उम्र हो गई थी , यौवन क्षीण हो चुका था पर वासना अतृप्त रही थी। चंद्रमोहन जी ने उसी दिन रात में दीपिका को फोन किया परिचय दिया और बातें की और गोपनीय तरह से दूसरे दिन मिलने का स्थान और समय तय कर लिया। 

दूसरे दिन मिलने पर चंद्रमोहन जी ने दीपिका के समक्ष विवाह प्रस्ताव रख दिया। दीपिका को ऐसी आशा कतई नहीं थी। उसने इस मुलाकात से यह उम्मीद बस लगाई थी कि राज्य मंत्री जी शारीरिक लिबर्टी लेंगें , बदले में वह अपनी उन्नति के लिए उनका फेवर हासिल करेगी।  अप्रत्याशित इस पेशकश पर दीपिका ने तनिक गौर किया , फिर सीधे सौदेबाजी पर आ गई। पूछा - इससे मुझे हासिल क्या होगा? एक युवती को जो चाहिए , आप वैसा सुख दे नहीं सकेंगे. विवाह के बाद जीवन भर का साथ कब टूट जाएगा भरोसा नहीं . मुझे बहुत जीना है , आप बहुत जी चुके हो . चंद्रमोहन ने जबाब दिया , मेरी बेशुमार दौलत में से  शादी के बाद तुरंत एक कोठी तुम्हारे नाम होगी। तुम इस शादी से इतनी चर्चा में आओगी कि जीवन भर , ऐशो आराम के साधन इकट्ठे करने में सुविधा होगी। हाँ , अवश्य वासना पूर्ति के नज़रिये से मैं उतना सक्षम नहीं किंतु मेरे में अतृप्त रही वासना है , जिसके उपाय करने से बहुत हद तक तुम भी संतुष्ट रहोगी।अभी तुम दस वर्षों की ही सोचो। बाद में तुम्हारे पास बहुत सारे सुविधाजनक विकल्प होंगें। मैं यौन सुख का भूखा हूँ , तुम दौलत की भूखी हो। तुम्हें मुझसे दौलत और मुझे तुमसे यौन सुख का हासिल होना , क्या पर्याप्त न होगा ? बात पूरी करते हुए चंद्रमोहन ने उल्टा प्रश्न कर दिया। तब दीपिका विचार मुद्रा में दिखाई पड़ी। 

जल्द ही उनकी शादी हो गई , चंद्रमोहन ने अपने कहे अनुसार लगभग चार करोड़ की एक कोठी , दीपिका के नाम रेजिस्टर्ड करवा दी। उनकी शादी न्यूज़ चैनल - अखबारों में सनसनीखेज चर्चा में शुमार हुई। सबकी आलोचनात्मक दृष्टि के बावजूद , जैसा चंद्रमोहन ने दीपिका से कहा था , दीपिका शीघ्र ही आम से खास चर्चित पर्सनालिटी बन गई।
इस सबमें समय के समक्ष , यक्ष प्रश्न उत्पन्न हो गया। चंद्रमोहन जैसा जिस देश में मंत्री /राजनीतिज्ञ हो जिसे जनता की नहीं अपने काम सुख की पड़ी हो।  देश के न्यूज़ चैनल - पत्रकार , दीपिका जैसे चरित्र को चर्चा में ले आते हों , और ऐसी देश की जनता हो जो दीपिका जैसी को सेलिब्रिटी बना देती हो , और सेलिब्रिटी के लाखों करोड़ों फेन बनने का आज का चलन हो। उस देश की संस्कृति - सभ्यता क्या विनाश की ओर अग्रसर नहीं ? समय ही इसका उत्तर दे सकेगा ......

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

19-09-2018





Sunday, September 16, 2018

ग़म ना करो कि रिश्ता - आसमां की ऊँचाई ना छू सका
हमारी तो पुरजोर कोशिश रही - इसे बेमिसाल बनाने की

अप्रिय प्रसंग को भुला देना ही - बेहतर होता है
जिंदगी का मजा - प्रिय को याद रखने में होता है

Saturday, September 15, 2018

'नहीं समझने का' आरोप -
यूँ , उन पर ठीक नहीं
कि हम ही नहीं समझते
कि उन्हें हम से मतलब नहीं

जिंदगियाँ सभी , कायम उम्मीदों पर हैं
तुम बनो उनकी उम्मीदें - बेहतर होगा

फेसबुक पर नहीं तो - दीदार बगीचे में होगा दोनों ही उम्मीदों ने दम तोड़ दिया - लेकिन
जब समझ क्षीण - तब काया बलिष्ठ
और
जब काया क्षीण - तब समझ परिपक्व
अजब संयोग हैं - जीवन में \\

क्यों वह सब कह देना चाहते हो - तुम
जो वे समझना ही नहीं चाहते - नादान 

Thursday, September 13, 2018

आप - यह रोको अन्यथा इसे स्वीकार करो

आप - यह रोको अन्यथा इसे स्वीकार करो 

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पहली रात की अगली सुबह - परिवार ने नोटिस किया कि  दिव्या के चेहरे पर जो ख़ुशी दर्शित होनी चाहिए थी , वह नहीं है। दिव्या ही नहीं अपितु अभिनव भी प्रत्याशा के विपरीत मुख पर गंभीरता लिए दिखाई दिए। दोनों  के बोल-व्यवहार में भी रुखाई ही परिलक्षित थी . मगर हर बात में भली आशा की सहज प्रवृत्ति वाला मानव मन , किसी भी आशंका को नकार दिया करता है। सभी ने सोचा कि शादी के कार्यक्रमों और रात की नींद कम होने से थके हुए होंगे दोनों। बावजूद - प्रश्नवाचक सी जिज्ञासु निगाहें सभी की रहीं , जो दिव्या - अभिनव दोनों ने दिन भर महसूस की। फिर रात्रि आई - कमरे में अकेले मिलने पर अभिनव ने दिव्या से कहा , हमारे बीच क्या घटित हुआ है? , हम क्यों सामान्य से प्रतीत नहीं हो रहे हैं? , ये सवाल घर में सभी के मन में उत्पन्न हुए प्रतीत होते हैं । प्लीज् - तुम कल से खुश दिखने की कोशिश करना। तीन दिन बाद हम स्विट्जरलैंड जा ही रहे हैं। आगे के बारे में वहाँ तसल्ली से तय कर लेंगें।  दिव्या ने सहमति में सिर बस हिलाया - फिर विपरीत करवट ले कर दोनों सोने की कोशिश करने लगे। स्विट्जरलैंड जाने के पूर्व तक , अगली सुबह से दोनों खुश दिखने का भरसक अभिनय करते रहे।

दरअसल पहली रात - ज्यादा बात किये बिना ही अभिनव ने दिव्या से शारीरिक संबंध स्थापित किया था। उपरांत दिव्या से तुरंत सवाल किया था , कि मुझे लगता है यह सहवास तुम्हारा पहला नहीं है। दिव्या अप्रत्याशित एकाएक इस सवाल से किंकर्तव्यविमूढ़ रह गई थी। क्षुब्ध हो उसने जबाब दिया था - सही है , पहली बार नहीं है। अभिनव कह उठा - यह तो धोखा हुआ मेरे साथ। यह भी दिव्या के लिये अत्यंत अप्रत्याशित ही था।  उसने कोई सफाई देने की जगह रुखाई से कहा , अभी मुझे नींद आ रही है। बाद में बात करना , कह कर वह वॉशरूम गई और वापिस आकर , बेड पर एक किनारे लेट गई। नींद तो आँखों से कोसों दूर थी। उसके मन विचारों में पड़ गया था। 28 वर्ष की थी दिव्या , मारोती कम्पनी में 6 वर्ष से जॉब कर रही थी। सुंदर , वह साथी कर्मियों और बॉसेस में हमेशा आकर्षण का केंद्र रहती थी। पार्टीज़ में कभी कभी ड्रिंक्स उसे लेना पड़ता था। ऐसे ही कुछ मौकों पर उसके संबंध दो पुरुष मित्रों से रहे थे। उसके माँ - पापा , अपनी ही जाति में विवाह के पक्षधर थे। ऐसे में एल एन टी में सीनियर पोजीशन में कार्यरत अभिनव की मालूमात कर उससे रिश्ते की बात चलाई गई थी। दिव्या ने निजी तौर पर अभिनव के डिटेल निकलवा लिए थे। उसे अभिनव की रंगीन मिजाजी और उसकी कुछ गर्लफ्रेंड होने के बारे में जानकारी हुई थी। दिव्या ने हामी कर दी थी इस आशा से कि अभिनव उसके विवाह पूर्व अफेयर को तूल नहीं देगा , क्योंकि वह खुद ही इस तरह के अफेयर रखता था। शादी संपन्न हुई और पहली ही रात आशा के विपरीत यह कठिन स्थिति निर्मित हो गई थी। 

स्विट्जरलैंड पहुँच कर उन्होंने चारों दिन उनके बीच के इस मसले को डिसकस करने में लगाये। दोनों ही बात को सम्हाल लेना चाहते थे। किंतु अभिनव पर पुरुष सत्ता वाली धारणायें हावी थीं। अपनी अपनी सफाई पर वार्तालाप के दौर उनके बीच चले . विवाह उपरांत ऐसी यात्राओं जैसा प्यार - समर्पण वाला भाव दोनों में नदारद बना रहा। अभिनव में विद्यमान परंपरागत भारतीय पुरुष स्वीकार ही नहीं कर पाया कि उसकी पत्नी के अन्य पुरुषों से संबंध रहे हैं। अंततः किसी समझौते पर दोनों पहुँच नहीं सके। जिस सुबह दोनों को भारत लौटना था , उसके पूर्व रात्रि निसंकोच और दृढ शब्दों में दिव्या ने जो कहा उसका मर्म यह था - 

"अभिनव आज वह समय नहीं रहा जब आपकी और मेरी माँ , जब ब्याही गईं तो  वर्जिन थीं , उन्हें पति रूप में मिले आपके और मेरे पापा भी सुशील थे , जिनके विवाह पूर्व कोई संबंध नहीं थे। उस समय लड़कियों की शादी 18-20 में और लड़कों की 22-24 की उम्र में होती थी। आज जब लड़कियाँ 26-28 में ब्याही जातीं हैं तब वे जॉब कर रहीं होतीं हैं। उन्हें साथी पुरुष - कुँवारी  रहने देने में मुश्किलें खड़ी करते हैं। आप यह कैसे एक्सपेक्ट कर सकते हैं कि आप तो अनब्याही दस लड़कियों से संबंध कर लो किंतु पत्नी रूप में आप को वर्जिन लड़की मिले। अगर ऐसी उम्मीद आप करते हो तो ऐसा बिगाड़ लड़कियों में न हो यह कर्तव्य भी आपका होता है। मेरा मानना है कि - ' आप (पुरुष) - यह रोको अन्यथा इसे स्वीकार करो ' ."

 फिर रात वे सो गए थे। सुबह प्लेन में दिव्या के बगल में खामोश बैठे  दिखाई पड़ रहे अभिनव का मन गहन विचार मंथन में लीन था . उसे कई बार लगा कि हाँ वह गलत है . 10 लड़कियों के साथ सो चुका वह , दो लड़कों से संबंध में रही दिव्या को स्वीकार करने को क्यों  तैयार नहीं?  उनमें  सब भूल कर आगे एक दूसरे से कमिटेड रहने की शर्त क्या पर्याप्त नहीं होनी चाहिए ? लेकिन खेद - पुरुष की स्वार्थी धारणा - पत्नी का चरित्र सीता के चरित्र से कम नहीं होना चाहिए। 

इनके दाम्पत्य सूत्र की बुनियाद ही वैचारिक समन्वय के अभाव में रखी गई है - देखना यह है तनावपूर्ण साथ निभ पाता है या टूट जाता है ... 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन13-09-2018

हममें इंसान जिंदा रहे और खुशकिस्मती कि -
मौत आ जाये
इंसान मर चुका हो , तब मरे तो -
ऐसा मरना भी क्या मरना है??

Tuesday, September 11, 2018

परवीन ..

परवीन ..

गतांक से आगे (पीली साड़ी ..... )

इधर रितिक मन में भरा सब , आबिदा को कह के चला गया। लेकिन आबिदा की दुखती रग को छेड़ गया। वह यादों में खो गईं . दो बच्चों (एक बेटी ,एक बेटा ) के बाद उनकी तीसरी बेटी जब जन्मी तो घर में खुशियों के ताँता लग गया। उन्हें बहुत अच्छा घर , अच्छे इलाके में काफी कम कीमत में मिल गया। उनके खाविंद बहुत खुश रहने लगे। उत्साहित हो व्यापार में लगे तो कमाई एकाएक बढ़ने लगी। 5 - 7 दिनों में ही नवजन्मी बेटी की शक़्ल , छवि निखर गई. दिखाई पड़ने लगा की वह निहायत खूबसूरत है। खाविंद और उन्होंने उसके लिए परवीन नाम तय किया। बड़ी बेटी नूरी , साढ़े तीन की थी। वह परवीन के पास से हटती ही नहीं थी। 15 - 20 दिन यूँ बीते कि उन्हें एक बात का खटका हो आया कि परवीन तेज होती आवाजों से भी चौंकती क्यों नहीं  है ? पहले इसे अपने तक रखा लेकिन चिंता बढ़ गई तो परवीन के पापा को बताया दो तीन दिनों उन्होंने भी परखा फिर डॉ. को दिखाया , जाँच से पता चला कि समस्या तो है मगर ऐसी कुछ तकलीफें खुद ठीक भी होतीं हैं। इस आशा से कि शायद ठीक हो जायेगी , दिन बीतने लगे परवीन डेढ़ वर्ष की हुई तो कानों की समस्या तो दूर नहीं हुई बल्कि आवाज भी साफ नहीं हुई। फिर डॉ. के चक्कर शुरू हुए . हैदराबाद - मुंबई तक दिखाया गया पता चला कि कोई नसें हैं आपस में चिपकीं हैं . जन्मजात समस्या है , जिसका इलाज अब तक नहीं निकाला जा सका है। आबिदा गहन दुःखी हो गईं। उनको ख्याल सताने लगा , इस खूबसूरत - मासूम बच्ची का पूरा जीवन ओंठों पर तरन्नुम और कानों में श्रवण शक्ति के बिना कितना चुनौतीपूर्ण होगा। उनका दिल कहता 
"या अल्लाह तूने - हमें खूबसूरत बेटी से तो नवाज दिया
सितम मगर उस पर तरन्नुम और श्रवण छीन लिया"
उसको मिली कमियों के अहसास आबिदा , उनके खाविंद को होने से परवीन , अतिरिक्त लाड़ दुलार से पलने लगी । बड़ी बेटी नूरी का तो पसंदीदा खिलौना सी थी। पास पड़ोस से भी उसे बहुत प्यार मिलता। पढ़ने के लिए इस तरह के बच्चों का एक अच्छा स्कूल पास ही था। पढ़ने में उसका मन अच्छा लगा करता। 12 -13 की हुई परवीन तो , लिखकर पूछती संगीत कैसा होता है , आप सब का बोलना क्या होता है। सभी के ओंठ हिलते दिखते शब्द नहीं सुनती , उसके लिए शब्द तो किताबों और कॉपियों में लिखे /छपे बस थे। नूरी , गानों और म्यूजिक पर नृत्य किया करती। परवीन के लिए थिरकन संगीत प्रेरित ना होकर अप्पी की नकल प्रेरित होता .
परवीन 15 की हुई तो अपनी अप्पी से भी ऊँची हो गई , अब आबिदा को उसका बाहर निकलना परेशान कर दिया करता। परवीन ज़माने की खराबियों से अनभिज्ञ , बिंदास पहले जैसे पास पड़ोस में जाना आना करती लेकिन आबिदा की फ़िक्र उसके बाहर जाते ही नूरी को उसके पीछे भेज देती। यूँ तो संकेतों और लिख कर उसे बहुत कुछ बताया समझाया जाता लेकिन बोलने और सुनने के बिना समझबूझ 100 % पर्याप्त कैसे होती। अब 17 की हुई परवीन ने मम्मी-पापा से बायोलॉजी पढ़ने एवं डॉक्टर बनने की एम्बिशन बताई  तो कम पढ़े लिखे वे , संवेदना से भावुक हो गये , वे उसके लिए लैपटॉप ले आये।
आबिदा , परवीन की फ़िक्र में ही अक्सर ग़मगीन सी रहतीं कि रितिक ने उनके घर इस तरह दस्तक दी। रितिक तो मनमानी कह चला गया , मगर उन्हें डर लगा कि परवीन के पापा को इस की भनक नहीं लगे , अन्यथा सब पर खतरा हो जाएगा। मुस्लिम औरतों को मर्दों की क्रूरताओं का ज्ञान होता है। अतः ऐसी बातें वे अपने सीने में ही दफन रखतीं हैं। रितिक के आने की भनक उन्हें न पड़े वे इस फ़िक्र में परेशान हो गईं , अन्यथा परवीन के बाहर - स्कूल आदि पर बंदिशों का डर हो जाएगा।
आबिदा ऐसी तंद्रा में खोई सी थीं कि नूरी ने आकर उनकी तंद्रा भंग की , पूछने लगी कि - वह कह क्या रहा था , मम्मी? झूठ कह कर वह बात खत्म करना चाहतीं थीं . उन्होंने कहा - कुछ नहीं , किराये के कमरे हैं क्या , पूछने आया था। मगर नूरी ने पूछ लिया - मम्मी मगर वह तो परवीन के बारे में कुछ कह रहा था ,ना ? नूरी को उन्होंने समझाया कि पापा के सामने कोई चर्चा न करे - फिर सारा वाकिया उसे कह सुनाया। पापा - कैसा रियेक्ट कर सकते हैं , उसे भी अंदाजा था। इसलिए उसने भी कोई चर्चा नहीं करने की बात मान ली। मगर ....
 नूरी को , रितिक की अनोखी दीवानगी दिलचस्प लगी। मम्मी के सामने से हट अपनी पढ़ने की टेबल पर जा बैठी सोचने लगी - कितना अंतर है हमारे लड़कों (मुसलमान) में , कहाँ वे लव जिहाद के नाम पर बहुसँख्यकों की लड़कियों को प्रेमपाश में फँसाने में लगे हैं और कहाँ ये रितिक जो ऐसा इसलिए नहीं करता कि हमारी कौम क्या ख्यालात रखती है की फ़िक्र करता है . अपने (भले ही एकतरफा) प्यार को हासिल करने का इरादा नहीं करता।  कितना फर्क है संस्कारों में , कितना जिम्मेदारी बोध है इन्हें , कितना अपनापन है इस समाज से - कि जिन कार्यों से कौमों में नफ़रत बढ़ने का अंदेशा ऐसे कार्यों को ये नहीं करते। उसके मन में रितिक के लिए एक सम्मान पैदा हुआ। फिर उठी वह और उसने परवीन के पास जा कर उसके चेहरे को ध्यान से देखा - उसे सही लगा कि रितिक क्यूँ इस तरह दीवाना हुआ , अपनी बहन के सुंदर चेहरे को देखा , उसके माथे को चूम लिया , परवीन प्रश्न वाचक निगाहों से अप्पी को देख रही थी।  नूरी - उसे प्यार से देख सिर्फ हँसे जा रही थी।
दिन बीतने लगे परवीन अब ग्यारहवीं में आ गई थी , उसने बायोलॉजी सब्जेक्ट लिया था। एक दिन अखबार में नूरी को  रितिक के  NEET में टॉपर होने का समाचार पढ़ने मिला। वह मन ही मन रितिक की प्रशंसक हो गई। नूरी ने फेसबुक पर रितिक को खोज लिया। उसने उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट सेंड की। जिसे एक्सेप्ट करने के पहले मैसेज से रितिक ने नूरी से उसमें इंट्रेस्ट की वजह पूछी. नूरी ने परवीन की बड़ी बहन होने की जानकारी दी तो रितिक ने ऐड कर लिया। पढ़ने में व्यस्त रितिक कभी कभी ही उससे मैसेंजर में चैट करता।
एक दिन , रितिक ने नूरी को लिंक भेजी , जिसमें दिव्यांग कोटे से एम्स में प्रवेश की जानकारी थी. भगवान को क्या मंजूर होता है , कोई जानता नहीं। प्रतीत होता है रितिक को परवीन के घर ईश्वरीय न्याय ने भेजा था। रितिक द्वारा , नूरी को मार्गदर्शन कराते हुए कोचिंग , प्रिपेरशन के तरीके आदि के मैसेज मिलते रहे। नूरी आबिदा को तो यह सब बताती मगर पापा से बिना रितिक की जानकारी दिए , परवीन के लिए वह सब बातों की व्यवस्था कराती रही। यह शायद रितिक का निच्छल , निःस्वार्थ एवं सच्चे प्रेम का परिणाम था कि रितिक के दो वर्ष बाद , इन सारे बैकग्रॉउण्ड से अनभिज्ञ परवीन को एम्स में दिव्यांग कोटे में प्रवेश मिल गया।
(कुशल कहानीकार के आदर्श कल्पनाओं की उड़ान अंतहीन होती है - फ़िलहाल ,हालाँकि  इस कहानी के विस्तार पर मैं यहीं विराम देता हूँ)
समाप्त 
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
11-09-2018

हमें , तुम मिलो
तो , तन्हाई में मिलो
वर्ना , मंजूर है हमको
कि , तुम ना मिलो

तेरी , हममें बेरुखी
मंजूर है हमें
मगर मंजूर नहीं कि
तू रुसवा रहे

ना कोई वादा था तुम्हारा - ना ही कोई मैच था तुमसे
हम बस दिल की सुनते थे - तुम्हें अपना मान जीते रहे




कोई किसी का यक़ीन न करे तो - जिए किस तरह से
भला  ख़ुद में सिमट कर  जीना - कोई जीना होता है ?

Monday, September 10, 2018

सच्चे प्यार में कोई दबाव नहीं होता कि
हमें पसंद बात करो
प्यार तभी आदर्श कि
स्वागत तुम्हें पसंद वही तुम बात करो 

Sunday, September 9, 2018

समय चलने का जिन्हें पता होता है - जीवन समझ लेते हैं
मगर आज के पैमानों पर इन्हें - लोग असफल कहा करते हैं 

Saturday, September 8, 2018

इंसानियत जिसके दिल ओ दिमाग़ में है
काफिरियत उसके लिए कोई चीज नहीं 

Friday, September 7, 2018

हमें तिल तिल मारा तुमने - आभार है तुम्हारा
झटके में मारते - मरना क्या है पता नहीं चलता

झूठ मेरे सब - तुम्हें हासिल करने की तरकीबी थीं
मिल गए तुम - अब झूठा नहीं सच्चा मुझे बनना है

मुड़ के देख लेते इक बार - मोहब्बत मैं लिखता
तुम
सीधे चले गए - अब रुसवाईयाँ हैं मेरे लिखने को

मालूम रखा कि हमेशा यूँ खूबसूरत न रहेंगे
इक दिन आयेगा हमें - मिट्टी होना ही होगा

किसी को यूँ कंधा देने के पीछे - मकसद यही होता है
जब मर जायें हम - कोई हमें भी यूँही मिट्टी में मिला दे

नेकी अगर की तो हमें उससे - अपेक्षा क्यूँ हैं
नेकी करना अगर किस्मत तो - राहें बहुत हैं






पीली साड़ी वाली लड़की

पीली साड़ी वाली लड़की 


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शफ्फाक चेहरा उस लड़की का दिखा , मंत्रमुग्ध हो रितिक सब भूल गया। अपनी बाइक से उसके पीछा करने लगा। वह पीली साड़ी में थी। उसने बाल खुले रखे थे जो पीठ से भी लंबे हो रहे थे . जिनके पीछे वह बैठी थी , वह उम्र से उसके पिता जैसे मालूम पड़ते थे। एक अंतर रखते हुए लगभग तीन किमी उसने पीछा किया । तब उसकी बाइक रुकी ,वह लड़की उतर कर वहाँ एक गेट के अंदर चली गई और जिन के साथ आई थी , वह व्यक्ति लौट अकेले वापिस चले गए । रितिक को तब याद आया उसे स्कूल जाना है। अपने 'लव एट फर्स्ट साइट' के बारे में मालूम इतनी जानकारी से अभी वह संतुष्ट हुआ । फिर वह स्कूल चला गया। अगले तीन दिन वह स्कूल के लिए पंद्रह मिनट पहले निकलता , जहाँ लड़की ने ड्राप लिया था वहाँ पहुँचता और लड़की के बारे में अपने तरीके से विवरण प्राप्त करता रहा । उसे मालूम हुआ वह इस प्रकार था -
अगले दिन वह लड़की स्कूल बस से उतरी थी। स्कूल यूनिफार्म में थी। स्कूल दिव्यांग का था। उसे अचरज हुआ कि यह सामान्य दिखती लड़की वहाँ क्यों पढ़ती है। स्कूल स्टॉफ से दोस्ती गाँठ , उसे पता चला कि लड़की परवीन है , मुस्लिम है , दसवीं क्लास में पढ़ती है, कहने सुनने में असमर्थ मगर इंटेलिजेंट है। पिछले दिन वह शिक्षक दिवस होने के कारण साड़ी पहनकर स्कूल आई थी .
रितिक , डॉक्टर पिता का इकलौता बेटा था , अभी बारहवीं में पढ़ता था। स्कूल के अलावा कोचिंग जाता था , पढ़ने में कुशाग्र था , लक्ष्य NEET में चयनित होकर  एम्स से डॉक्टर बनना था । पढ़ने और अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित होने से कोई भी लड़की और प्रेम-व्रेम से उसे कोई सरोकार नहीं था। मगर उस दिन परवीन को देख कर उस पर जो असर हुआ वह जादुई सा कुछ था। रितिक पर यह प्रभाव उसके लिए वेदनाकारी हो गया जब उसे पता चला कि परवीन मुस्लिम थी एवं दिव्यांग थी।  प्रेम मुकम्मल होने की कोई संभावना ही नहीं बची थी। 
रितिक , पिछले तीन दिनों में ,देखा-जाना  सब , दिमाग से झटकना चाहता था , मगर परवीन का रूप उसके मनो-मस्तिष्क से निकल ही नहीं पा रहा था। ऐसे में अपनी पढ़ाई में वापिस ध्यान केंद्रित करने के लिए उसे लगा , उसका एक बार परवीन के मम्मी-पापा से मिलना चाहिए। परवीन के बारे में सहानुभूति की बात कर वह हमेशा के लिए सब भुला देगा।
जितना सोचने में आसान था उतना ही इस विचार को यथार्थ करना बहुत खतरनाक काम हो सकता था . परवीन के घर वाले यदि कट्टर हुए तो उसके जान पर आ सकती थी . मगर अनुभवहीन किशोरवय रितिक के ऊपर एकतरफा प्रेम का तूफान हावी था । संभावित खतरा भी उसे रोक नहीं सका। रितिक , एक शाम परवीन के घर पहुँच ही गया। बेल बजाऊँ या नहीं पशोपेश में था तभी गेट खुला। सामने सलवार कुर्ती में परवीन थी , उसे दरवाजे पर खड़े पाया तो प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखा - रितिक ने पूछा पापा हैं , परवीन सुन नहीं सकती थी हाथ के इशारे से ठहरने कहा , कुछ देर में परवीन नहीं एक महिला सामने आईं - पूछा किससे मिलना है ? रितिक हकलाते सा बोला , पर र र...परवीन ....  परवीन के पापा से . वह बोलीं , वह अभी घर पर नहीं हैं . साथ ही , वह पीछे हट कर दरवाजा लगाने लगीं . यह देख रितिक तत्परता से बोल पड़ा  , मैं आप से बात करना चाहता हूँ . उन्होंने पूछा किस बारे में , मैं आपको नहीं पहचानती , कहते हुए उन्होंने उसे ऊपर से नीचे तक गौर से देखा। रितिक बोला - बैठ कर बता सकूँगा। मालूम नहीं कैसे उन्होंने मंजूर किया , उनके संकेत पर वह उनके पीछे दरवाजे से दाखिल हुआ , सामने बीच में खुला आँगन था , चार फाइबर चेयर थीं , एक में उसे बैठने का इशारा किया सामने खुद बैठीं  . फिर पूछा , कहो क्या बात है। रितिक ने आसपास नजरें दौड़ाई , कोई नहीं था , बस दो मुर्गियाँ यहाँ वहाँ घूम रहीं थीं. फिर पूरी हिम्मत बटोरकर कहना आरंभ किया - मैं रितिक हूँ , डॉ अनूप जोशी का बेटा हूँ , उन्होंने टोका - गेस्ट्रोलॉजिस्ट ? उसने हामी में सर हिलाया , आप जानतीं हैं उन्हें ? आप परवीन की माँ हैं?  उन्होंने दोनों प्रश्न के जबाब हामी में सर हिलाकर दिया , और कहा मैंने  उनसे ट्रीटमेंट लिया है. थोड़ा विश्वास रितिक का बढ़ गया। कहने लगा - 
"हफ्ते भर पहले परवीन दिखी थी , देखते ही उससे मेरे हृदय में प्यार का सागर , लहरें उछाल लेने लगा . बाद में मुझे पता चला , वह मुस्लिम है साथ ही दिव्यांग भी। मुझे समझ आ गया - मेरा प्यार एकतरफा रह जाने वाला है। फिर भी मेरा ध्यान पढ़ाई से उचट गया है। मैं डॉ होने के लिए पढ़ रहा हूँ , वापिस पढ़ाई में दिल लगाना चाहता हूँ। इसलिए आज एक बार और अंतिम बार आपके दरवाजे पर आया हूँ। यह कहना है कि उसके प्रति मुझे , मेरे मन में जन्मी उससे प्यार की असीम अनुभूति के कारण  , उसकी कमीं को लेकर उससे सहानुभूति है , उसे लेकर मन दुखी है। मैं भली-भाँति इस सच्चाई से परिचित हूँ कि यदि मैंने कोशिशें कर परवीन के दिल में भी अपने लिए प्यार की कोंपलें जगा दीं तब भी मुस्लिम संप्रदाय को कदापि हमारा साथ पसंद नहीं होगा। इससे एक अनावश्यक दबाव उस बेचारी लड़की के हृदय पर पड़ेगा , जिसके साथ पहले ही ईश्वर ने अन्याय किया हुआ है, उसे वाणी और श्रवण शक्ति से वंचित रखा है।अपनी स्वार्थ सिध्दि के लिए मैं अन्याय करने की भूल नहीं करूँगा।  अतः अब मैं कभी उसका पीछा नहीं करूँगा। हालाँकि ज़िंदगी में उसकी कभी कोई सहायता कर सका तो अपने जीवन को सफल मानूँगा। बस इतना कहना था मुझे , अब चलूँगा।"
 परवीन की माँ कम उम्र में ही रितिक की इतनी बुध्दिमत्ता , उसकी स्पष्टवादिता तथा हिम्मत पर चकित थी। हैरानी से उसे देख रही थी। वह उठने लगा तो उसे बैठने का इशारा किया फिर बोलीं - तुम मशहूर पिता की संतान हो - क्या कहने आये हो उसके खतरे से अनजान हो। अच्छा हुआ कि परवीन के पापा अभी घर पर नहीं अन्यथा ऐसी हरकत बर्दाश्त नहीं करते , मालूम नहीं क्या कर डालते। ऐसी बातों के लिए कभी तुम किसी मुसलमान घर जाना नहीं , यह कसम खा लो। मैं एक दिव्यांग बेटी की माँ हूँ , संतान के प्रति ममता से अतिरिक्त वाकिफ हूँ। तुम्हें माफ़ करतीं हूँ , तुम परवीन की कोई सहायता या परेशान करने का कोई दुस्साहस नहीं करना। मेरी दुआ है तुम अपने पापा जैसे सफल डॉ. बनना। यह कहते हुए उन्होंने उसे उठने का इशारा किया और कहा - अब जाओ . रितिक एक तरह से अपमानित , परवीन के घर से लौटा था लेकिन उसने इसका मलाल नहीं किया। वह उसका सच्चा प्यार था , सब आसानी से उसने पचा लिया।
समय बीता , परवीन के लिए अनुभूत सच्चा प्यार रितिक की अच्छाई की प्रेरणा बना .  फिर कभी परवीन की तरफ मुहँ नहीं करेगा संकल्प के साथ अपने लक्ष्यों को हासिल करने में लग गया। बुध्दिमान वह था ही उस वर्ष की NEET में उसने देश में टॉप किया। एम्स दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई हेतु उसने प्रवेश ले लिया।

(शेष अगले भाग में )

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
07-09-2018




Thursday, September 6, 2018

आज जोड़ने के हर उपाय - हमें तोड़ते हैं
क्यूँकि उसमें निज स्वार्थ - हम जोड़ते हैं

आज के दौर में हर तरफ मची खींचातानी है
अवरुध्द भव्य संस्कृति की करुण कहानी है

हर कोई देश से अपने लिए - आज लाभ लेने को उत्सुक
देश को कुछ अपना दिए बिना - कोई देश बनता नहीं है

सभी आज अपनी सत्ता के लिए- मत लोभी एक साथ बैठ नीति न बनाएंगे
जिन को मतदाता देगा सत्ता- लूट में लगेंगे समाज सौहार्द्र ला न पाएंगे




Wednesday, September 5, 2018

तेरे कुछ काम के नहीं - मुझे मत बेकदर कर
ज़िंदगी में हितैषी लगते हैं - कुछ तो कदर कर

जब कोई बहुत अच्छा होता - सबके उससे एक्सपेक्टेशंस हो जाते हैं
उसके भी कुछ सबसे एक्सपेक्टेशंस होंगे - समझना सब भूल जाते हैं

याद वो न करें - याद हम उनकी करलें
कि दुआ उनको - ज़िंदगी में लगेंगीं तो

Tuesday, September 4, 2018

इंसान हम होते , किसी से दुश्मनी नहीं करते
मोहब्बत से हमारी दुश्मन , दोस्त में बदलते


Sunday, September 2, 2018

भारतीय युगल ..

भारतीय युगल

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रोहित ने बीकॉम किया था। 2 - 3 साल से यार दोस्तों के साथ यूँ ही घूमा फिरा करता। तमाम वह कृत्य किया करता जो ऐसे इकट्ठे नवयुवा करते। उसके पिता सुरेशचंद्र परेशान रहते कि रोहित उनकी छोटी सी किराना दुकान बढ़ाने और चलाने में मदद क्यों नहीं करता। मन होता तो कुछ समय के लिए तो आ जाता , लेकिन बाइक पर थोक दुकानों से सामग्री लाने से बचता , दुकान पर तेल आदि ग्राहकों को देने तैयार नहीं होता कि कपड़े गंदे हो जाएंगे. अंततः व्यथित सुरेशचंद्र ने रोहित की माँ सरिता से मंत्रणा कर उपाय निकाला कि रोहित की शादी कर दी जाए। योग्य लड़कियों की खोज आरम्भ हुई मगर रोहित लड़की देखने जाने तैयार नहीं होता। सुरेशचंद्र-सरिता खीजते रहते। एक दिन सरिता ने कहा - रोहित बेटा कम से कम यह फोटो तो देख लो , रोहित ने चिढ कर कहा ,   माँ मेरे किसी फ्रेंड की शादी नहीं हुई , अभी मुझे नहीं करनी शादी। सरिता ने जबरन फोटो उसके बेड पर छोड़ी , रोहित देख लो  - इतनी अच्छी लड़की तुम्हें शायद फिर मुश्किल है मिले।  यह कहते हुए उसके कमरे से माँ बाहर चली गई।  रोहित ने इसे अनसुना कर दिया। रोहित उस दिन रात घर वापिस आया और खाना खाकर , टीवी आदि देख लेने के बाद सोने कमरे में आया तो , बिस्तर पर माँ की छोड़ी फोटो अब तक पड़ी थी। सोने के लिए , हटा एक तरफ रखने की नीयत से फोटो उसने उठाई तो उस पर नज़र पड़ गई। जैसे ही दिखी - वह अपलक देखता रह गया।  वह तुरंत माँ के कमरे में गया , माँ को संकेत से अपने रूम में आने को कहा। माँ जब आई तो पूछा , यह लड़की कौन है ?, माँ को रोहित की जिज्ञासा ने प्रसन्न कर दिया। जबाब देने की जगह उल्टा सवाल कर दिया , तुम्हें अच्छी लगी ? रोहित खुद को रोक नहीं सका , कहा हाँ माँ - क्या यह देखने में भी ऐसी ही लगती है ? माँ ने कहा नागपुर की ही है , तुम तैयार हो तो एक - दो दिन में हम स्वयं चल कर देख लेते हैं। तीसरे दिन ही सब साक्षी का साक्षात्कार करने पहुँचे। रोहित को प्रत्यक्ष वह फोटो से भी अधिक सुंदर लगी। सब कुछ तय हुआ और। दो महीने में ही साक्षी - उसकी दुल्हन बन उसके घर आ गई। 
साक्षी का आना रोहित में संपूर्ण रूपान्तरण का कारण हो गया। रोहित यार दोस्तों से बच घर आने को उत्सुक रहने लगा। साक्षी को खुश देखने के लिए उसके कपड़े , आभूषण और अन्य वस्तुओं की गिफ्ट नित देने की उसकी कोशिश होने लगी। पापा , सुरेशचंद्र से पैसा माँगने में उसे झिझक होने लगी। इसलिए दुकान पर बैठने लगा। दुकान में होती आय , अब उसे अपर्याप्त लगने लगी तो दुकान बढ़ाने की जुगत में रहने लगा। कहाँ तो वह बाइक में एक दो झोलों में थोक से सामान लाने तैयार नहीं होता था , अब बाइक पर ऑटो रिक्शा सा सामान लाद एक बार तो क्या बार - बार लाने लगा। ग्राहकों से बोलचाल व्यवहार में आश्चर्य जनक रूप से बहुत मिठास घुल गई। दुकान का चलना और आय तेजी से बढ़ने लगी। सब देख सुरेशचंद्र - सरिता फूले नहीं समाते। रोहित अथक मेहनत कर थक के घर लौटता मगर , साक्षी का खूबसूरत मुखड़ा , उसकी सारी थकान काफूर कर दिया करता। साक्षी भी मन ही मन रोहित के प्रेमपाश में स्वयं के भाग्य की सराहना करती। 
दिन उड़ते से गुजरने लगे - दुकान बड़ी , आय बड़ी और चार वर्ष में रोहित-साक्षी एक बेटी और एक बेटे के माँ - पिता हो गए।  रोहित और साक्षी में  प्रेम अब दो नन्हें बच्चों में बँटने लगा . सहज आरंभ हुआ प्रेम का यूँ बँट जाना और होती आय की और बढ़ा लेने की युक्तियों में व्यस्तता ने  छह सात वर्ष और बीतने पर  वह समय ले आया , जब रोहित को साक्षी के मुखड़े को प्रेम से निहार लेने तक की फुर्सत नहीं होती। यूँ तो साक्षी समझदार थी उसे मालूम था कि  विवाह के 8 - 10 वर्षों बाद ऐसा फेज भी आता है। मगर तब भी रोहित की उपेक्षा उसे निराश करती , अपनी शक्ल-शरीर को आईने में निहारती स्वयं से प्रश्न करती , क्या फर्क आ गया मुझमें जो- रोहित जान देते  थे  , अब मुझे देखते तक नहीं।  
एक रात जब भव्या और दिव्य सो चुके तो , साक्षी ने रोहित से पूछ ही लिया - क्या मेरे आकर्षण में कमी , कारण है जो अब आप मुझसे उदासीन रहते हैं ? रोहित साक्षी से ऐसे प्रश्न को तैयार नहीं था , सकपका कर पहले उसने साक्षी के चेहरे को देखा , भाव समझने की कोशिश की फिर संयत स्वर में कहना आरंभ किया - क्षमा करना साक्षी , मेरे तरफ से कमी रह गई लगता है जो आपके विचार में ऐसे प्रश्न उभरे। जहाँ तक आकर्षण की बात है , समय जितना बीता है आप पर और मुझ पर भी बीता है , आपमें यौवनाकर्षण में कमी आई है तो मैं भी तो साथ प्रौढ़ सा होने लगा हूँ। आप , अपने रूप लावण्य के साथ ही इस घर में आईं थीं , इस घर और मेरे लिए समर्पित ही तो रहीं हैं तब से , ऐसे में यदि कोई जिम्मेदार है इसमें आई कमी के लिए तो वह मैं हूँ आप नहीं। अपितु आपने तो हमारे दो बच्चे पहले गर्भ में फिर प्रसव के समय की वेदना बाद जन्मे है। आप ऐसा कभी न सोचें कि मेरी चाहत में कमी है आपके लिए , यह पहले से अब बढ़ गई है। 
साक्षी , रोहित के चेहरे को अपलक निहारती रह गई उसे लगा कि रोहित सिर्फ व्यापार ही नहीं जानते , सुलझे विचारों के भी धनी हैं। रोहित से आगे अच्छा सुनने के लिए फिर उसने पूछा , फिर यह क्या है कि जो आप को कुछ दिखाई नहीं पड़ता मैंने क्या पहना है क्या श्रृंगार किया है ?  रोहित ने उसके चेहरे को दोनों हाथ में लिया , फिर सीधे उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा , नहीं साक्षी सब दिखाई पड़ता है , पर व्यापार और अपनी जिम्मेदारियों का ज्यादा ख़्याल रहता है , इसलिए आप पर कवितायें लिख देने की फुरसत नहीं। रहा प्रश्न श्रृंगार - वस्त्रों का , इनकी भूमिका तो शुरुआत में थी जब हम आपस में बँध रहे थे , अब तो आपसे मेरा जुड़ाव बदन से आगे निकल रूह से हो गया है। इतनी सुंदर रूह मलिका को मैंने अनुभव कर लिया है , कपड़े - आभूषण आप अपनी संतुष्टि के लिए पहनिये। इनका अब कोई महत्व नहीं मेरे आपसे प्यार के लिए। इस जीवन में आपके बिना मैं पूरा ही नहीं हूँ। 
साक्षी सुखद आश्चर्य में पड़ गई कि रोहित के विवेक विचार में जीवन की इतनी गहराई है। उसे मजा आ रहा था उसने रोहित को फिर छेड़ा , काश मैं भी अर्निंग होती , आप पर इतना दबाव नहीं रहता। रोहित ने फिर तनिक विचार किया , फिर कहा - साक्षी आप मेरे माँ-पापा की , 
भव्या-दिव्य की और मेरी जरूरतों को इतनी दक्षता से पूर्ति करती हो , बच्चों के लालन-पालन में , उनके स्कूल के गृह कार्यों में इतना संतुलन रखती हो , तब ही मैं निश्चिंत रह व्यापार को इतना समय दे पाता हूँ। आप जानती नहीं 10 वर्ष पूर्व दुकान से हम पच्चीस हजार ही कमाया करते थे , आज हम तीन लाख से ज्यादा कमा रहे हैं। यह कतई गलत नहीं होगा कि मैं कहूँ कि इसमें सैध्दांतिक रूप से - पचास हजार पापा की , पचास हजार मम्मी की 1 लाख मेरी और 1 लाख की कमाई आपकी है। आप और माँ भी अर्निंग ही हैं , जिनके अपने त्याग इतने महान हैं कि समस्त योग्यता होने पर भी , अपना व्यक्तित्व अपनी पहचान - माँ , पापा में और आप मुझमें विलोपित कर अपना जीवन जीतीं हैं। 
यह कहते हुए रोहित उबासियाँ लेने लगा था , उसकी आँखें निद्रा से बंद सी होने लगीं थीं। साक्षी ने यह देखा - पति पर उसका प्रेम , विश्वास और आदर इस थोड़ी सी चर्चा ने अत्यंत बड़ा दिया था। उसने रोहित के चेहरे को अनुराग से देखा , सर पर अपना हाथ फेरा। फिर यह सोचते हुए कि भारतीय परिवार में एक पत्नी ही नहीं , पति भी होता है जो अपनी योग्यता और व्यक्तित्व को , परिवार की जिम्मेदारी निभाने की तल्लीनता में पत्नी और परिवार में विलोपित कर देता है। इस तरह पिछले कुछ समय से चल रहे अंर्तमन के प्रश्नों का संतोषजनक जबाब पाकर साक्षी भी आज निश्चिंतता से पति के पीछे सट कर निद्रा की गोद में जा समाई। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
02-09-2018


हममें .....
ऐब , यह कि जो तुम चाहो - तुम्हें प्यार कर लेंगें
खूबी , यह कि न चाहो तो - तुम्हें दिल में रख लेंगें



अपने हर बड़े बोल के लिए - बाद हम पछतायेंगे

हस्ती ही है क्या अपनी - सिर्फ जी के चले जायेंगे

हों काम अपने ऐसे कि हम-तुम , आगे फिर मिलें
जन्नत या जहन्नुम बताओ , कहाँ की तैयारी करें

मतलब जहाँ न होगा - हँस भी न सकेंगें
अब ज़माने में लोग - हमें ऐसे ही मिलेंगें

फुर्सत तू देगी ज़िंदगी?  - जो हिसाब कर सकें
या
फुर्सत मिलेगी हमें ज़िंदगी? - जब जा तू चुके 

Saturday, September 1, 2018

मोहब्बत का अहसास ही -
खुद ब खुद मुक़म्मल है
मोहब्बत वह मुक़म्मल नहीं -
पीछे जिसके शिकवों के सिलसिले हैं


सफलता की होड़ में जो आगे - उनके कुछ कारनामे होते हैं

पैमानों पर असफल जो - महत्वपूर्ण उनके योगदान होते हैं


क्यूँ हो इस बात का रंज कि - हम ज़माने से पिछड़ गए

पिछड़ के जी लेना भी तो - ज़िंदगी जी लेना ही होता है


जो मुंतजिर हमारे जवाल के होते हैं
मजबूरी है हम उन्हें अपना कहते हैं
(मुंतज़िर - इंतजार करने वाले , जवाल - आफत)



कुबूल तो थी दिल से - हमें मुहब्बत उनकी

जुबां पर न लाये - हमने कहानी में लिख दी


अगर न लिखें कुछ हम - तब भी फर्क खास नहीं पड़ेगा

मगर इंसानियत तुझे बचाने की हम- कोशिश क्यों छोड़ें


बहुत उत्सुक होते हैं हम -
नए स्थान , नई जिम्मेदारियों के लिए
मिल जाते हैं तो , बोलती बंद होती -
जबाबदारियाँ दिखने लगती हैं

अब जो होता मर्द औरत के बीच - वह तिजारत है
हर्फ़ में पैकेजिंग - मगर मोहब्बत की दिए रक्खी है