Monday, September 23, 2013

भलापन -छोटा छोटा सा

भलापन -छोटा छोटा सा
------------------------
अपने को भला बना लेना हमारा ही सामर्थ्य होता है हमारी ही उपलब्धि होती है . भला कितना अधिक बन सकते हैं इसकी कोई सीमा ही नहीं है . हम भले से भले की बराबरी तो कर ही सकते हैं इतना भी भले हो सकते हैं जितना कोई कभी हुआ ही नहीं हो .भला होने के लिए यह भी आवश्यक नहीं कि बहुत ही दुष्कर कर्मों को हम संपन्न करें . बहुत छोटे छोटे अच्छे कर्मों को समय और आवश्यकता अनुसार करने लगना भी भलापन ही होता है .
बहुत छोटे छोटे अच्छे कर्म ,विचार और भावना , हमारा छोटा छोटा सा भलापन कैसे हो सकता है ? इस पर उदाहरण के साथ विचार करें .
* सड़क पर कार /बाइक या स्कूटी चलाते हुए हमारी भावना स्वयं को दुर्घटना से बचाने की होती है . यदि हम भावना थोड़ी संशोधित करें कि हमारी असावधानी से कोई दूसरा हमारी गाड़ी की चपेट में आकर गंभीर शारीरिक यातना या क्षति का शिकार ना हो जाए . वह किसी परिवार का लाडला या इकलौता कमाऊ सदस्य हो सकता है . इस भावना से हम वाहन चलायें तो छोटा सा भलापन है .
* सड़क पर हम कभी भ्रमण करते हैं , देखते हैं कुछ प्रौढ़ या महिला /युवती स्कूटी या बाइक धकेलते हुए ले जाते हैं . पेट्रोल /पंक्चर या अन्य समस्या हो सकती है . यदि हम स्वस्थ हैं दस -पंद्रह मिनट का समय और कुछ श्रम लगा कर पेट्रोल पंप / रिपेयरिंग शॉप तक गाड़ी पहुंचा दें . नारी तो कम शक्तिवान होती है इसलिए और प्रौढ़ हो सकता है ह्रदय ब्लॉकेज की समस्या ग्रस्त हों . इस तरह का श्रम उनके लिए हानिकर हो सकता है . इस भावना से छोटा यह भला कर्म किया जा सकता है .
* रिजर्वेशन के कारण कुछ श्रेणी के व्यक्ति हम से बेहतर पद , सर्विस या शैक्षणिक संस्था पा गए हों . बुरा लग सकता है हमें , लेकिन यह विचार करें हमारी पूर्व समाज व्यवस्था में उनके पूर्व कुटुंबजनों ने अपमानजनक जीवन देखा है . हमारी पीढ़ी यह त्याग कर कुछ उसकी भरपाई कर रही है .
* एक सेविंग बैंक अकाउंट में हमारी कुछ जमा -पूंजी कम ब्याज दर पर जमा है . जबकि फिक्स्ड-डिपोसिट में ज्यादा दर मिलती है . कम पर गम ना कर हम सोचें बैंकिंग सिस्टम बहुत बड़ा है . हम जो बिज़नेस देते हैं उससे ही उसके व्यय उठाये जाते हैं . अब बैंक किसी नीति के अंतर्गत हमारा अकाउंट कॉर्पोरेट में परिवर्तित कर दे .बैंक जिस पर ऑटोमेटिक हमें ज्यादा दर से ब्याज देने लगता है . हमने अपेक्षा तो नहीं की किन्तु ज्यादा हमें मिलने लगा . अब बड़े इस कुछ लाभ को हम अपने मैड /सर्वेंट की महँगाई के अनुपात में पारिश्रमिक सरलता से बड़ा सकते हैं . उनके बच्चों के कपडे या अध्ययन में कुछ सहायता कर सकते हैं . यह व्यवस्था और हमारे मातहत ये मनुष्य हमारे अपने ही हैं .
* कोई भ्रष्टाचार कर रहा हो . मिलावटी सामग्री बेच रहा हो . दया भाव रखें कि क्यों सदबुध्दि नहीं मिली उसे . एक जगह तो इस अनैतिकता से लाभ ले रहा है वह,  किन्तु इस सदबुध्दि हीनता के कारण अधिकांश भी जब वैसा ही करने लगे हैं  तो सैकड़ों ऐसी जगह - दुकानों पर स्वयं वह रोग कारक सामान/सर्विस  क्रय कर शिकार हो रहा है . 
* सिनेमा हम सभी देखते हैं . नायक या नायिका को उच्च आदर्श निभाते कुछ दृश्य किसी भी फिल्म धारावाहिक में डालना निर्माणकर्ता की लाचारी होती है क्योंकि वास्तव में नायक होता वही है जो उच्च आदर्श जीता है . देखे ऐसे सिनेमा के हलके गीत-गाने तो गुनगुना लेते हैं उन्हें बार बार देखते-सुनते हैं . कभी-कभी हम देखे गए "उच्च आदर्श निभाये दृश्य" की कुछ भी नकल अपने परिवार- पास पड़ोस में  करें .. यह भी छोटा भलापन ही होता है 
इन भावना और विचारपूर्वक हम थोडा सा आचरण और कर्म संशोधित करेंगे तो  छोटा छोटा सा  हमारा भलापन समाज में मधुरता का संगीत -गीत सृजित करेगा और मानवता पोषित होगी .
--राजेश जैन
24-09-2013

Sunday, September 22, 2013

सुन्दर या (और) भला

सुन्दर या (और) भला
---------------------
किसी की सुन्दरता या (और) उसका भला होना देखने सुनने वालों को सुहाता है . किसी का सुन्दर और भला होना कहाँ से कैसे और आता है यहाँ इस पर विचार करें .
मानवीय सुन्दरता का लेख करें तो वह (सुन्दरता) प्रायः जन्मजात होती है जो बचपन से सामान्यतः यौवन तक बढती है फिर उसका क्रमशः क्षरण होता है . और वृध्दावस्था तक तो सिर्फ इतनी बचती है जिससे जिन्होंने वृध्दावस्था में ही किसी ऐसे व्यक्ति को देखा हो तो यह अनुमान लगा सके कि अपने समय में ये अतीव सुन्दर रहे होंगे. स्पष्ट है कि किसी का सुन्दर होना प्रकृति प्रदत्त होता है . और उसका रहना और कम होना बहुत कुछ प्राकृतिक कारणों पर ही निर्भर होता है .स्वयं मनुष्य का अपना योगदान बहुत प्रभाव नहीं करता .

अब भला का उल्लेख करें . जन्म से सुन्दर या कुरूप दोनों में ही एक मस्तिष्क होता है . मस्तिष्क की क्षमता सभी की बहुत अच्छी से लेकर बहुत कमजोर तक होती है . जिसके कारण देखी- समझी या अध्ययन में उपलब्धि निर्भर करती है . परिवार से संस्कार , धर्म और विद्यालय से शिक्षा फिर स्वतः कर्मों के कारण व्यक्ति भला (कम -अधिक) या बुरा (कम -अधिक) माना और पहचाना जाता है .  भला होने की बुनियाद तो मस्तिष्क क्षमता , पारिवारिक -धार्मिक संस्कार और शिक्षा से मिलकर बनती है . किन्तु स्वयं की भलाई (या बुराई ) का निर्माण या स्वयं को तराशना व्यक्तिगत उपलब्धि होती है स्वयं पर निर्भर करती है , प्राकृतिक कारणों का योगदान ज्यादा नहीं रहता है .
भला कौन कहलाता है ? जो व्यक्तिगत और पारिवारिक हितों से ऊपर जाकर सामाजिक अन्य मानवीय और प्राणियों की हितों के लिए काम करता है . दुखियों से संवेदना अभाव और वंचितों से सहानुभूति और दया रख उनके उत्थान और हितों के लिए काम करता है . निश्छलता और करुणा ह्रदय में विद्यमान होती है .सुन्दरता के विपरीत भलापन बढती उम्र के साथ भी बढता हो सकता है . बल्कि कहें जो भलाई के मार्ग पर बढ़ता है . वृध्दावस्था में पहुँचने पर वह निश्चित ही अधिक भला होता जाता है .
सुंदर होना वह वस्तु है जो प्रारंभिक संपर्क में तो किसी को भा सकती है . किन्तु भला होना  प्रारंभिक संपर्क में सुहाये या नहीं किन्तु लम्बी अवधि और साथ में भला ही सुहाता है . भले में सुन्दरता हो या नहीं ,सुन्दरता बचे या ( अवस्था बढ़ने ) ना बचे , उनकी भलाई अच्छी लगती ही है .

अपने को सुन्दर बनाना अपने सामर्थ्य में बहुत नहीं होता लेकिन भला बना लेना हमारा ही सामर्थ्य होता है हमारी ही उपलब्धि होती है . भला कितना अधिक बन सकते हैं इसकी कोई सीमा ही नहीं है . हम भले से भले की बराबरी तो कर ही सकते हैं इतना भी भले हो सकते हैं जितना कोई कभी हुआ ही नहीं हो .भला होने के लिए यह भी आवश्यक नहीं कि बहुत ही दुष्कर कर्मों को हम संपन्न करें . बहुत छोटे छोटे अच्छे कर्मों को समय और आवश्यकता अनुसार करने लगना भी भलापन ही होता है .

आज जब भला कोई दिखना बिरला होता जा रहा है . ऐसे समय में अपने कर्मों ,आचरणों से 'भला' अस्तित्व बचाना हमारा जीवन सार्थक करता है . जितने सुन्दर आज सभी ओर दृष्टव्य हैं .. उनसे भी ज्यादा जब भले दिखने लगेंगे तब ही व्यवस्था ,समाज और वातावरण सुखकारी होगा . सुन्दर दिखने , विलासिता और मनोरंजन में डूबे रहने से जीवन का कुछ समय तो अच्छा लग सकता है किन्तु मौत तक भी पूरा जीवन सुखद लगे इसके लिए भला होना ही अनिवार्य है . यह मानवता भी है समाजहित भी है .
--राजेश जैन
22-09-2013




Friday, September 20, 2013

संत छलावा और नारी शोषण

संत छलावा और नारी शोषण
--------------------------------
भारतीय परिवेश में नारी कैसी रहती है? इस पर दृष्टि करते हुये विषय पर आना उचित है . शहरी व्यवसाय, कार्यालयीन कार्यरत  और महाविद्यालयों में शिक्षारत नारियों को अलग रखें तो प्राचीन काल से अब तक नारियों (और किशोरवय में आ गई बेटियों का) मुख्यरूप में पुरुषों से वार्तालाप और व्यवहार पिता ,भाई , पति और निकट परिजनों तक ही सीमित रहता है .

शहरी व्यवसाय, कार्यालयीन कार्यरत और महाविद्यालयों में शिक्षारत का पुरुषों से वार्तालाप और व्यवहार थोडा विस्तृत होता है . जिसमें व्यवसाय और अध्ययन के हितों के लिए उन्हें कुछ और पुरुषों से व्यवहार रखना आवश्यक होता है . किन्तु उसमें भी भारतीय नारी मर्यादाओं की सीमा पालन की जाती है .

अतः कोई पुरुष अनेकों नारियों के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क रखे संभव नहीं होता . इस बात के दो क्षेत्र अपवाद हैं . एक सिनेमा और दूसरा संत सत्संग . सिनेमा लेख विषयवस्तु नहीं है अतः संत सत्संग प्रश्न ही उल्लेखित है .

धर्म की दृष्टि से घर से धर्मालयों और सत्संग स्थल को जाती नारी पर हमारा समाज तनिक भी आपत्ति नहीं करता है . इसलिये सत्संग स्थल वह जगह होती है जहाँ अनेकों नारी किसी एक या कुछ पुरुष ( संत ) के सम्मुख सम्पूर्ण श्रध्दा और विनय के साथ उपस्थित होती है . किसी और स्थान पर  पुरुष को नारी सानिध्य इतनी अधिक संख्या और श्रध्दानत रूप में नहीं मिलता है .

अब विचार करें इतनी श्रध्दानत नारी के सम्मुख संत रुपी पुरुष कौन होता है . सच्चे संत बहुत होते हैं . जो स्वयं अपना हित करते हुए भक्तों (नारी सहित ) का हित करते हैं . जहाँ से मार्गदर्शन पाकर आचरण, दृष्टिकोण और व्यवहार में स्वच्छता आती है जो परिवार और समाज में स्वस्थ वातावरण निर्मित करती है . संत का यह वर्ग श्रध्देय है ,आदरणीय और पूज्यनीय भी माना जा सकता है . विषय संत छलावा का लिया गया है .सच्चा संत किसी को छलावा में नहीं डालता .

अब आयें हम ढोंगी संत पर जो सिर्फ छलावा करता है .संत वेश में बैठा यह पाखंडी कौन होता है ? . यह अध्ययन के क्षेत्र में पिछड़ गया , या कमजोर पृष्ठभूमि का अति महत्वाकांक्षी या फिर वह पुरुष जिसकी नारी देह भूख एक या कुछ से सम्बन्ध में नहीं मिट पाती या कुंठाग्रस्त वह जो कहीं सफल ना हो सका , हो सकता है . ऐसा व्यक्ति जब यह देखता है कि नारियों में संत प्रति श्रध्दा अंधश्रध्दा की हद तक है . तब वह संत का चोला अपनाकर रम जाता है .तब संत को सम्मुख अपढ़, निर्धन से लेकर कुलीन घरानों की नारी उपस्थित मिलती है . धर्म चर्चाओं और लीलाओं को माध्यम बनाकर वह ढोंगी नारी भक्तों को अपनी पिपासा का शिकार बनाता है . संत के उस सत्संग में जमूरे की तरह कुछ अवसरवादी भी जुड़ते हैं . जो तनिक अपने लाभ के लिए संत की महिमा और झूठे चमत्कार बखानते हैं और भक्तों की संख्या बढ़ाते हुए पाखंडी का क्षेत्र विस्तृत करते हैं . पीड़िता अपनी लाज ,मर्यादा में पाखण्डी द्वारा शोषण को अपने तक ही रख लेती है . और इस तरह पाखण्डी का दुस्साहस बढता जाता है . उन्नत तकनीक का प्रयोग कर पाखण्डी ऐसे चित्र और वीडियो भी बनाने लगा है , जिसके द्वारा  पीड़िता यदि प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही पर जाते दिखे तो ब्लैकमेल करते हुए वह अपना बचाव कर सके .

परिदृश्य यदि इस तरह का है . तो हम इससे उदासीन नहीं रह सकते क्योंकि यह हमारे समाज को कई गंभीर क्षति पहुंचा रहा है .
*  धर्म को आवरण दे किये गए पाखण्ड के कारण अनावश्यक रूप से अन्य धर्मावलम्बी प्रश्न उत्पन्न करते हैं . 
*  सच्चे संत के प्रति भी शंका की दृष्टि बनती है .
*  उस कार्य में जिससे कोई शिक्षा ,सीख नहीं मिलती हिस्सा लेने के लिए अनेकों व्यक्ति अनेकों घंटे ,फ्यूल और धन  व्यय करते हैं .
* निर्दोष नारी अनावश्यक अपमान और कठिन जीवन को बाध्य होती है .
* हम और हमारी संस्कृति उपहास का विषय बनती है .

हमें समग्रता से उपाय करने चाहिए .
* कितने भी व्यवसायिक हित प्रभावित हों हमें पाखंडियों का विज्ञापन नहीं करना चाहिए .
* वैसे टीवी चैनेलों पर उनके प्रोन्नति की प्रस्तुतियां नहीं दिखाई जानी चाहिये . किन्तु ऐसा नहीं है तब हमें ना स्वयं देखना और अन्य को भी रोकना चाहिए .
* हम से जितना हो सके जागरूकता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए .
* किसी पाखण्डी का भंडाफोड़ किसी वयस्क कहानी की भांति और लम्बी लम्बी अवधि के लिए टीवी चैनेल पर बार बार प्रसारित कर ERP बढ़ाने के प्रयास करना महँगा "एयर टाइम" और "दर्शक समय" व्यर्थ करना है . इसके स्थान पर सच्चे संत की क्या क्रियाएँ , आचरण और कर्म होते हैं , बताने से श्रोता का ज्ञान बढ़ता है और उससे उन्हें "धर्म तथा सदमार्ग " और पाखण्ड में अंतर करना आता है .
--राजेश जैन
21-09-2013

Sunday, September 8, 2013

अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस

अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस
---------------------------------------------
मनुष्य जन्मता है .अलग अलग पृष्ठभूमि ,परिवेश ,धर्म ,शिक्षा और संस्कारों में पलता बढ़ता है . इन विभिन्नता के साथ ही जन्मजात मिले मस्तिष्क की अलग अलग क्षमताओं के कारण सब की सोच ,समझ ,कर्म ,आचरण ,आस्था , जीवन प्राथमिकतायें इत्यादि अलग अलग होती हैं . जिसे एक तर्कसंगत ,सही और उचित निरुपित करता और मानता है कोई या कुछ अन्य उसे अनुचित भी मान सकते हैं .इन मत विभिन्नताओं का होना सहज है .इसलिए मत विभिन्नताओं को सहजता से ही लिया जाना चाहिए . लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थवश हम  मत विभिन्नताओं में संघर्ष पर उतारू हो जाते हैं .
इसी तरह जीवन है तो कितना भी अच्छा और सच्चा कोई है जीवन में कभी भूल और त्रुटी करता है जो कम अच्छा और कम सच्चा है वह ज्यादा भूल और त्रुटी करता है . भूल और त्रुटियों का होना भी सहज होता है . और करने वालों को सुधार के अवसर मिलने चाहिये . मिलते भी हैं . लेकिन गंभीर किस्म की भूलें अपराध की श्रेणी में आती हैं . कुछ लोग कुछ अपराध करते हैं जबकि  कई अपराधिक प्रवृत्ति के हो जाते हैं और कई कई अपराध करते हैं .कुछ अपराधी बदले में दण्ड भुगतते हैं . पर कुछ चतुराई से अपराध करते भी हैं किन्तु दण्ड भुगतने से बच जाते हैं .
इन बचते अपराधियों को देखते कुछ जानते -बूझते अपराध करते हैं . स्वयं तो स्वीकारते नहीं लेकिन पकडे जाने पर भी अपने को निर्दोष बताते रहते हैं .वास्तव में भूल ,अपराध किसी से कुछ हो गया है तो सीख सबक जिससे अगली बार वह ना करे दिया जाना न्यायसंगत और समाज व्यवस्था के लिए आवश्यक भी है . किन्तु किसी के द्वारा किन्हीं परिस्थिति ,आवेश ,उत्तेजना या क्रोध में हुए अपराध के बाद .शान्त अवस्था में अपराध बोध हो गया तो उसे स्वयं इसको स्वीकार करने और प्रायश्चित और दण्ड के लिए स्वयं प्रस्तुत होना चाहिए .
यह स्वस्थ आचरण है , मानसिक स्वस्थता की द्योतक है और स्वस्थ परम्परा भी है . जिसमें भूल और अपराधों का अस्तित्व रहते हुए भी सामाजिक स्वस्थता बनती है . मानवता भी यही होती है .
हुए अपराधों को स्वतः स्वीकारने पर और साक्ष्य से पुष्ट होने पर बाध्यता में स्वीकारने पर दोनों ही स्थितियों में दण्ड की मात्रा (प्रावधान ) वही रहते हैं . इसलिए अपराधों की स्वतः स्वीकोरिक्ति का चलन समाप्त सा हो गया है . अपराध प्रमाणित ना होने की संभावनाओं को ध्यान में रख अपराधी साबित होने के पूर्व तक उसे झुठलाता रहता है . अनेकों बार साक्ष्य अभाव में वह दण्ड भुगतने से बचता भी है . और ऐसे उदाहरण मिलने पर अपराधों की संख्या बढती है .
कोई व्यक्ति प्रयास यह नहीं करता कि वह कोई अपराध ना कर बैठे . इसलिए अपराध बढ़ते जाते हैं . बल्कि जिस व्यक्ति से अपराध हो गया है वह यह प्रयास  करता है कि अपराध के साक्ष्य कैसे मिटाये . इस प्रयास में वह हुए अपराध के बाद और बर्बर  अपराध करता है .
उदाहरण स्वरूप देखें .. अभी पुरुषों द्वारा नारियों पर दैहिक शोषण के अपराध बढे हुए हैं . ऐसे हुए किसी अपराध के बाद अपराधी उस पीड़िता को मार डालता है . यह बर्बरता इसलिए करता है ताकि उसके किये अपराध की शिकायत (साक्ष्य) वह बाद में ना कर सके . एक के बदले दो अपराध इस कारण हो जाते हैं .
पहले (इतिहास में)  हुए अपराध और भूलों को स्वीकार करने के साहस दिखाते , अपराधों पर प्रायश्चित करते और किये का दण्ड स्वतः माँगते और भुगतने के उदाहरण अनेकों मिलते थे . विशेषकर धर्म गुरु और संत तो यह कर ही लेते थे . किन्तु अब इन  उदाहरणों का अस्तित्व सिर्फ इतिहास के  पृष्ठों पर ही सिमट गया है .

आज अपने आप को संत कहता ,कहलवाता व्यक्ति भी अपने अपराधों को स्वयं स्वीकारने का साहस नहीं करता है . अगर इतने श्रेष्ठ पद पर आसीन कोई व्यक्ति यह नैतिक साहस नहीं दिखा सकता तो साधारण मनुष्य से अपेक्षा तो व्यर्थ ही होगी .
ना स्वस्थ परम्परा रहेगी ना ही हमारा समाज स्वस्थ रह सकेगा . प्रत्येक अपराधी ही बन जाएगा यही प्रवृत्तियाँ यदि जारी रहीं तो .
पराकाष्टा पर पहुँचने के बाद तो किसी बात में कमी की ही सम्भावना बनती है . बुराई कम करने के सार्थक प्रयास और अपने स्वहित त्याग करना यह पीढ़ी नहीं चाहती है . लगता है बुराई भी पराकाष्टा पर पहुँचने बाद ही कम हो सकेगी .
--राजेश जैन
08-09-2013

Friday, September 6, 2013

संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है

संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है
-----------------------------------------------------------------
सच्चाई और अच्छाई के पथ अनंत लम्बाई के हैं . धर्म अवतारों ने ये पथ पूरे चले हैं .धर्म कई अस्तित्व में हैं . उनके केंद्र में भगवान (ईश्वर) अलग अलग हैं. और जब तक कोई नया धर्म नहीं देना (अपवाद भी हैं ) चाहता धर्म का तब तक कोई भी बड़ा से बड़ा व्यक्ति संत या गुरु ही होता है . यह संत या गुरु स्वयम इन सच्चाई और अच्छाई के पथ पर चलता हुआ अपने भक्त और श्रध्दालुओं को साथ अग्रसर करता जाता है .
सच्चाई और अच्छाई के पथ पर जिसने नेतृत्व करने की भूमिका निभाई है . वह संत या गुरु पद पर आसीन माना जाता है . संत निरंतर पथ पर चलता जाता है . अनंत लम्बे इस पथ पर कितना भी चले शेष बहुत रहता है . अतः संत ना स्वयं अटकता है और ना ही पीछे अनुगामी को अटकाता है . सच्चे संत में तो यह भी गुण होता है कि कोई अनुगामी यदि उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली और सच्चा हो तो अपने आगे का स्थान उसे दे देता है .स्पष्ट है संत सच्चाई के पथ पर जीवन भर कभी स्थिर नहीं हो पाता . निरंतर आगे की दिशा में बढ़ता जाता है .

आज कभी कभी इससे कुछ विपरीत दृश्य द्रष्टव्य होता है . अच्छे पथ पर चलते किसी गुरु को कुछ संख्या में अनुगामी मिल गए तो गुरु का ध्यान भटक जाता है . वह उस पथ पर स्थिर हो स्वयं अटकता है .यह प्रबन्ध भी करने लगता है कि उससे आगे कोई ना बढ़ पाए . और स्वयं को ही भगवान प्रसिध्द करने लगता है . जिस भगवान या धर्म का उल्लेख उपदेश और प्रवचन वह करता है उन्हें वह अपने पीछे भीड़ एकत्रित करने का जरिया मात्र जितना महत्त्व देता है .
मान मिला तो उसमें अहंकार आ समाता है . जिन्हें तज इस पथ पर आया था ,वे लालसायें उसमें पुनः जागृत हो जाती हैं . अपने ही भक्तों और अनुगामी को छलते वह इनकी पूर्ति करने लगता है . भक्त श्रध्दा और सम्मोहन में सुध बुध गवायें रहते हैं . बहुत बाद में समझते हैं प्रतिक्रिया में विलम्ब से स्वतः संकोचों में रह जाते हैं . तब तक एक गलत उदाहरण समाज के सम्मुख आ खड़ा होता है .धर्म के प्रति उनकी आस्था तो होती है . संत ,गुरु और विद्वान जो सच्चे भी हैं उनकी शंका के दायरे में आ जाते हैं .


हर काल में एक या कुछ संत का उत्थान स्वाभाविक है . पुरातन काल से होता आया है . किन्तु  एक या कुछ संत का पाखण्डी हो जाने पर पतन चिंतनीय है गहन क्षोभ का कारण है . ऐसा पहले कम ही होता था . शेष सभी बदल रहे थे उतना चिंताजनक नहीं था क्योंकि उनका बदलना कुछ को ही प्रभावित करता था . लेकिन किसी संतवेशीय का बदलना निश्चित ही बहुत चिंता उत्पन्न करता है . बहुत अधिक भोलेभाले भक्तजनों को प्रभावित करता है .
जब कोई क्षेत्र जल-प्लावित होता है तो बचने के लिए सभी ऊँचे स्थानों की शरण लेते हैं . बुराई रुपी जल हर घर -दुकान ,कार्यस्थल लगभग सभी जगह जब भरता जा रहा है  तो ऐसा कोई स्थल तो चाहिये जहाँ पहुँच पीड़ित  सुरक्षित हो सके .
धर्मस्थल और संत शरण वैचारिक ,आध्यात्मिक और सदाचार की दृष्टि से ऊंचाई का वह स्थान होता है जहाँ पहुँच बुराई रुपी जल-प्लावन से बचा जा सकता है.ऐसे में किसी संत का संत कर्म आचरण से डिगना संत शरण में आये श्रध्दालुओं को बुराई -प्लावन में डुबा देना है . वह भी तब जब वे अपने होशो हवास में नहीं बल्कि संत के प्रति भक्तिभाव में लीन सुधबुध भूले हुए होते हैं .
एक संत शरण में गए भक्तों की यह दशा को निहारते लोग जब उन्हें दुर्दशा में देखेंगे तो निश्चित ही बुराई से बचने की चाह भी होगी और दिखती कोई संत शरण भी होगी पर उसमें जाने से कतरायेंगे . क्योंकि जो उन्होंने देखा उसके बाद उन्हें इसमें शंका रहेगी कि वहां शरण लेकर वे बच सकेंगें
उपभोग , अति भोग-लिप्सा और प्रसिध्दि के भूखे के लिए बहुत सी ओर जगह हैं वहाँ जाकर जोर आजमाये . लेकिन जहाँ भोले-भाले भक्त , सरल नारियाँ निशंक अपनी पूरी श्रध्दा के साथ शान्ति और आदर्श ग्रहण करने शीश नवाए पहुँचते हैं उन पावन धर्म स्थलों पर अपने ढोंग रचने ना आयें बेहतर होगा .किसी भी धर्म   , "मानवता और समाजहित"  में यही होगा .

--राजेश जैन 
07-09-2013

 

Thursday, September 5, 2013

अब क्या करे छला गया भक्त ?

अब क्या करे छला गया भक्त ?
------------------------------

किसी संत /गुरु के तेज ,प्रसिध्दि उसके उपदेशों और लेखों से प्रभावित एक साधारण व्यक्ति भी और करोड़ों के भांति संत का भक्त बन जाता है . उसके प्रति अथाह श्रध्दा करता है . अपनी बीस -पच्चीस वर्षीय भक्ति और श्रध्दा के बीच कई बार उसे संत के बारे में कुछ ख़राब चर्चाएँ सुनाई देती है . वह इसे अपने इष्ट के चरित्र हनन का प्रयास लगती है . संत के प्रति पूज्य भाव के रहते अनसुना करता जाता है .आरम्भ में ये चर्चा कुछ कम फिर बढती भी हैं . लेकिन गुरु के प्रति आदरभाव भी समय के साथ उत्तरोत्तर बड़ा होता है . अतः ख़राब चर्चाएँ उसे ख़राब लोगों का दुष्प्रयास ही लगता है .
उन बातों पर वह विश्वास नहीं कर पाता है . उसे लगता है अगर हमारे संत में कोई खराबी होती तो क्यों उसके अनन्य भक्तों की इतनी ज्यादा संख्या होती .वह भी यहीं नहीं दूर -दूर तक अनुशरण करने वाले विद्यमान होते . यह भी लगता कि गुरु ठीक ना होते उनके कर्म बुरे होते तो लगते आरोप प्रमाणित हो गए होते . इस तरह मन में चलते तर्कों के साथ श्रध्दा कायम रहती . श्रद्धालु होने का समय धीरे धीरे पच्चीस वर्ष का बीत जाता है .फिर एक दिन वह आ जाता है जब संत का एक  दुष्कर्म प्रमाणित होता है . संत विपत्ति में फंसता है . संत का प्रभाव चला जाता है जिससे  उसके दुष्कर्म पीड़ित और भी कई सामने आ जाते हैं . संत संत नहीं पाखण्डी सिध्द हो जाता है .
करोड़ों अन्य भक्त जैसे ही वह (छला)  भी उस सच्चाई (पाखण्ड ) पर विश्वास नहीं करना चाहता है . लेकिन प्रकाशित हो रहे सच को मानना पड़ता है .उसके दुखी होने के कारण हैं . उसकी आस्था छली गई है . विभिन्न सांसारिक कर्मों में व्यस्त ,भागदौड की जिन्दगी में पाए तनावों से मुक्त होने के लिए जिसकी भक्ति ,सत्संग का सहारा लेकर वह शांति अनुभव करता रहा था . वह सब तो ढोंग साबित हो गया होता है . सांसारिकता निभाने के लिए अपने मंतव्य सिध्द करने के लिए जितने छल स्वयं भक्त ने नहीं किये (भक्त संत की तुलना में हल्का मनुष्य होता है )  उस से कई गुने छल उसके इस पाखंडी इष्ट ने अपने लुभावने आश्रम ,लीला स्थल बनाकर अध्यात्म का रूप दिखाकर सम्मोहित करते अपने ही भक्तों के साथ किये .धन के अतिरिक्त बीस -पचीस वर्षों में अपने अंध श्रध्दा पर इस भक्त ने नौ हजार छह सौ घंटे ( चार सौ दिनों के बराबर ) इस संत पर व्यय किये . अनमोल जीवन का एक वर्ष से ज्यादा वह पाखंडी को पुष्ट करता चला गया .
छले इस भक्त को क्या करना चाहिए ? क्या अभी भी संत का बचाव करना चाहिए ? या  अपने अंध-विश्वास ,अंध-श्रध्दा और अंध-भक्ति समाप्त करनी चाहिए ? देखा -देखी में किसी बात को स्वयं बिना विवेक -विचार करना चाहिए ? 
'देखा -देखी' करते जाना पाखण्ड को पुष्ट करने वाली हो सकती है . इक पूरे समाज और देश की प्रतिभा को पथ भ्रमित करने वाली हो सकती है.
समाज में भोगवाद प्रवृत्ति जब बढ़ी तो बहुत से अतिभोग प्रवृत्ति के व्यक्ति हमारी धर्म श्रध्दा को देखते धर्म प्रवॄतक संत का वेश धारण कर अपने भोग-लालसाओं  को तुष्ट करने अवतरित हो गए ."वास्तव में विभिन्न धर्म तो पुरातन और सिध्द हैं .जग कल्याणकारी रहे हैं . बच्चे और नवयुवा उन पुरातन शास्त्र और ग्रंथों को नहीं जानते . धर्म की प्रभावना वर्तमान के विद्वान के माध्यम से उन तक पहुँचती है .  अर्थात आवरण आज के विद्वान होते हैं जिसके अंतर्गत प्रवर्तन हमारे स्थापित धर्मों का होता है ".ऐसे में तथाकथित ढोंगी ,पाखंडी को अंधश्रध्दा में भक्त पहचान नहीं सकें तो आवरण पर ये पाखंडी आसीन हो जायेंगे . जिस दिन पापाचार का भंडा फूटेगा . उसदिन इनसे सब की आस्था टूटेगी . ऐसे में धर्म के आवरण पर विराजित इनके कारण नई पीढ़ी की विरक्ति हमारे सच्चे धर्म के प्रति हो जाने का खतरा होगा . और धर्म से हमारे बच्चे विमुख हुए तो समाज और मानवता बुरी तरह प्रभावित हो जायेगी .
इसलिए छला भक्त अबसे भी सावधानी करे . अन्धता त्यागे तो रहा सहा तो अपना हित बचाएगा ही और भविष्य के धर्म विमुखता को (छला गया भक्त) भी रोक सकेगा .  मानवता और समाजहित के प्रति दायित्व निभा कर कुछ हद तक अपना धर्म निभा सकेगा .

--राजेश जैन
06-09-2013





Wednesday, September 4, 2013

संत के प्रति भक्त कर्तव्य

संत के प्रति भक्त कर्तव्य 
------------------------
वैसे संत तो दोषरहित होता है . पर आज जब नैतिकता ,न्याय का स्तर सब तरफ गिरा है तो उससे निष्प्रभावित आज का संत भी नहीं रह गया है . अब कहें तो तुलनात्मक रूप से अधिक सच्चा और अधिक अच्छा होने के बाद भी कुछ दोष संत में रहे आते हैं .संत के  दोष उत्तरोत्तर कम होने चाहिए . लेकिन भक्तों की  अंध-भक्ति ,अंध-श्रध्दा और अंध-विश्वास से संत में यह क्रिया कमजोर पड़ती है .
पीछे आ रही भक्तों और श्रध्दालुओं की भीड़ संत में अहंकार भी बढा देता है . ऐसे में वास्तव में वह संत कम ही बचता है . किन्तु संत या गुरु पद  की पूर्व अर्जित प्रतिष्ठा उसे संत पद पर ही आसीन रखती है . वह अहंकार में भूलता है, अपने आप को चमत्कारी मान बैठता है .उसे लगता है वह किसी भगवान तुल्य हो गया है .उसे यह भी भ्रम हो जाता है अब वह जो भी अच्छा बुरा करेगा उसके अनुयायी /भक्त उसे गुरु आशीर्वाद ही मान ग्रहण करेंगे .
अच्छाई तो संत या गुरु से अपेक्षित ही होती है उसमें तो कितनी भी करे किसी को कोई शिकायत नहीं होती . किन्तु अहंकार और अपने विचार-भ्रम में वह कुछ बुरा किसी भक्त के साथ करता है . भक्त या तो उसमें भी खुश रहता है या अपने विभिन्न संकोचों के कारण या हिम्मत ना कर पाने के कारण चुप रहता है , या कहीं चर्चा करता है तो उसे अन्य अन्धविश्वासी भक्त या धर्म-भीरु परिजन चुप रह जाने को समझा देते हैं .
संत तक विरोधी स्वर/हलचल पहुँचती नहीं , या हलचल पहुँचती भी है और कोई उग्र प्रतिक्रिया श्रध्दालुओं की ओर से नहीं आती तो उस की भ्रम -सोच और बलवती होती है . अब वह बुरा कर्म और आचरण दोहराने लगता है . नये - नये भक्त के साथ यह आजमाता जाता है . सारी अच्छाई जिसने संत पद दिलाया था प्रतिष्ठा दिलाई थी अपने अनुयायियों की बड़ी संख्या बना सका था रहते हुए . अहंकार , मतिभ्रम और अपनी लालसाओं पर नियंत्रण खोने के कारण कुछ बुराई से वह संतत्व से डिग जाता है .
 संत तो वह अच्छा बनना आरम्भ हुआ था . उसमें गुण भी साधारण मनुष्य से अधिक ही थे अन्यथा क्यों लाखों करोड़ों की संख्या में अनुयायी बनते ? क्यों ख्याति क्षेत्र इतना विस्तृत होता ? इस भले से मनुष्य की अच्छाई संत बनने के साथ और बढ़नी चाहिए थी . लेकिन वर्षों की सेवा और मेहनत पर पानी फिरता है .
उस संत पद से पदच्युत हुए भले व्यक्ति (पूर्व में भला ) की अच्छाई की हत्या हो जाती है .
कौन होता है इस हत्या का दोषी ? निश्चित ही हमारी अंधभक्ति ,अंधश्रध्दा और अन्धविश्वास . अगर हम अन्धानुशरण की अपनी कमी नहीं त्यागेंगे तो संत /गुरु बनने की क्षमता रखने वाले हमारे बीच के भव्य मनुष्य भी निर्दोष पद पर नहीं पहुँच सकेंगे . हमारी अंधश्रध्दा... आदि ,हमारी पीढ़ी और आगामी सन्तति  इस वरदान से वंचित होगी जिसके अंतर्गत समय समय पर हमारे समाज को मानवता पथ दिखलाने वाला सच्चा पथप्रदर्शक मिलता रहा है . ऐसा सच्चा पथप्रदर्शक संत /गुरु उनके जीवन उपरान्त भी शताब्दियों भगवान ,देवता जैसा पूजा जाता रहा है .  हमारे बीच अवतार और भगवान आते रहें संत और गुरु बनते रहें यह मानवता और समाज हित के लिए नितांत आवश्यक है .
अतः संत और सच्चा गुरु बनने के मार्ग पर जो महामानव अग्रसर दिखता है उसके प्रति अनुयायी और भक्तों का यह कर्तव्य होता है कि वे उसका अन्धानुशरण ना करें . किसी भी समय संत अहंकार या भ्रम में ना आ जाए कि उसे कोई बुराई कर लेने की स्वतंत्रता मिल गयी है .
यह भ्रम नहीं आएगा तो उस संत के अन्दर वैचारिक -शोधन की क्रिया निरंतर चलते रहेगी . उसके आचरण ,कर्म निरंतर निर्मल और निर्मल होते जायेंगे . उसके उपदेश वचन और लेखन जग कल्याणकारी सिध्द होंगे . जिसकी बुराई पर बढ़ते आज के समाज पर अंकुश लगाने की दृष्टि से नितांत आवश्यकता है .

--राजेश जैन
05-09-2013

Tuesday, September 3, 2013

संत का सन्तत्व से डिगना और नारी

संत का सन्तत्व से डिगना और नारी
------------------------------------

अपने आग्रहों से अलग हमें यह मानना ही होगा कि प्राणियों ( जिसमें मनुष्य भी सम्मिलित है ) में विपरीत लिंगीय आकर्षण एक प्राकृतिक प्रवृत्ति है .
मनुष्य को छोड़ पहले अन्य प्राणियों में इस प्रवृत्ति को संक्षिप्त में समझें तो पायेंगे कि इस आकर्षण के वशीभूत उनमें सम्बन्ध (दैहिक ) में पूर्ण स्वछंदता चलती है . वहां उम्र का कोई अर्थ नहीं है . जिसके पास ज्यादा बल है वह अपने विपरीत लिंगीय पर आधिपत्य करता है . जिन प्रजातियों में मादा बलशाली होती है उनमें मादा अन्यथा नर अपने मन्तव्य सिध्द करने में सफल होता है .
अब मनुष्य की चर्चा पर आयें . पाषाण काल में मनुष्य लगभग अन्य प्राणी प्रजातियों जैसा विचरण और गतिविधि रखता था . उन्नत मस्तिष्क के कारण उसने अनुभवों से सीखते मानव सभ्यता विकसित की . स्वछंदता के नुकसान से सीखते हुए कुछ बंधन और कुछ मर्यादाएं लागू करते हुए एक मानव समाज रचा . जिसमें नारी-पुरुष को एक परिवार में जीवनयापन की पध्दति निर्मित की .इनमें सिर्फ बलशाली ही नहीं कम शक्तिशाली की भावनाओं को भी समझते प्राकृतिक प्रवृति को सुन्दर और लचीले बंधन से बाँधा .
भारतीय संस्कृति अन्य मानव संस्कृति से पुरातन और उन्नत रही है . यहाँ पौरुष बल के कारण परिवार मुखिया पुरुष होता है . जो घर के बाहर से अपने आश्रित के जीवन यापन के साधन जुटा घर में लाता . घर की नारियां घर में रहकर आश्रितों के लिए गृहकार्य करती हैं .
पुरुष घर से बाहर जाता रहा था . अतः अपने आश्रितों को ज्यादा सुविधा और प्रसन्न रख सके इसलिए उसने चतुराई भी सीखी कुछ बुराइयाँ भी ग्राह्य की . जबकि नारी गृहसीमा में रही इसलिए तुलनात्मक रूप से कम बुराइयों में पड़ी .
इस तरह पुरुष प्रधान एक समाज विकसित हुआ . पुरुष ही विभिन्न धर्मों का प्रवर्तक बना . कई धर्म अवतरित हुए . धर्म चर्चाओं की परम्पराएं बनी . धर्म चर्चा (सत्संग ) धर्म गुरुओं और संत को साथ लेकर होने लगी . धर्म गुरु और संत भी प्रमुखतः पुरुष ही रहे . इन धर्म चर्चाओं में पुरुषों ने गुणदोष दोनों को समझा . लेकिन भोलेपन और सरल होने से नारियों ने संत और गुरुओं के सभी क्रियाओं को गुण ही माना उन्हें शिरोधार्य किया .
सत्संगों में भीड़ होने पर उसमें नारियों को कष्ट ना हो विशेष ध्यान रखा जाता . और उन्हें गुरु स्थान के पास ही स्थान सुलभ कराया जाता . सब व्यवस्था सर्वहित के ध्यान कर तय हुईं .
हमारे धर्म गुरु और संत महान हुए . जिन्होंने मनुष्य भलाई का सन्देश और क्रम निरंतर रखा . नारी और पुरुष दोनों ने अपना जीवन सार्थक और सुखी करने में सफलता पाई .

किन्तु कभी हमारे गुरु और संत अपने कम अभ्यास के कारण अपने वेश और पद की गरिमा भूल कर कर्म और कर्तव्यों से डिग गए . प्राकृतिक प्रवृति हावी हुई . समीप बैठी नारी की श्रध्दा -आस्था और भोलेपन ने संत के विवेक को सुला दिया .नियंत्रण खो कर अपनी गरिमा से विपरीत आचरण किया . स्वयं विपत्ति में फँसे और भोली नारी से छल कर उसका भी जीवन दुश्वार कर दिया .

कल के अपने लेख में लिखा था "संत कम भक्त ज्यादा दोषी" क्योंकि भक्त की अंधश्रध्दा से तीस -चालीस वर्षों के सदकर्म और सदाचार से अर्जित प्रतिष्ठा, छोटी कुछ भूलों से संत की मिट जाती है .संत  अपने पर नियंत्रण कर अगर कुछ दोषों से बचते हैं तो आजीवन तो रहते ही वे सर्वकालिक महान संत मरणोपरांत भी रह जाते हैं .
अतः नारी भक्त को यह सोचना है जिन संत या गुरु पर उनकी आस्था और श्रध्दा ,अंध-श्रध्दा में परिवर्तित होती है . निश्चित ही उन संत या गुरु का आभा-मंडल प्रखर होता है . वह कायम  रहे उनके इष्ट संत पर कोई संकट ना आये इसलिए नारी स्वयं भी सतर्क रहे . नारी की यह सतर्कता संत और स्वयं पर किसी कलंक की आशंका को नकारने में सफल होगी .

धर्मरक्षा , वेश गरिमा (संत वेश) और समाजहित और मानवता के लिए  संत के साथ ही भक्त का यह परम कर्तव्य है .

--राजेश जैन 
04-09-2013






संत कम भक्त ज्यादा दोषी

संत कम भक्त ज्यादा दोषी
---------------------------------
मनुष्य जब जन्म लेता है तो सामान्यतः वह कोई अवतार नहीं होता हैं. जीवन में आगे बढ़ता है तो उसमें जन्मजात अच्छाइयाँ तो होती ही हैं . साथ ही संसार में देखता /सुनता है तो मनुष्य बाहरी ग्रहण करता है .
ठीक उस तरह जैसे आप गेहूँ क्रय करते हैं तो कुछ कंकड़ और अन्य अशुध्दि उसके साथ आती हैं .( कुछ अपवाद संसार में ऐसे होते हैं जो विष ही क्रय करते हैं उनकी बात लेख के विषय से बाहर है) वैसे ही संसार से ग्रहण की गई अच्छाई के साथ कुछ दोष व्यक्ति में आते हैं .

अब दोषों को कुछ व्यक्ति छाँट हटाते हैं . कुछ अनदेखा कर अपने अन्दर रहने देते हैं . जो दोष हटाने की प्रक्रिया निरंतर रखते हैं उनमें कुछ महान,विद्वान और कुछ संत बनते हैं .
स्पष्ट है संत बनने के पूर्व तक वह सामान्य मनुष्य ही होता है .दोष हटा और अच्छाई ग्रहण करते रहने की निरंतरता उसे जीवन में किसी दिन संत बना देती है .
जब कोई संत बनता है तो उससे भक्त और श्रध्दा रखने वाले उससे जुड़ने लगते हैं . अनेकों संत होते हैं जिनके श्रद्धालुओं की संख्या सैकड़ों हजारों और कुछ की लाखों होती हैं . लेकिन कुछ संतों के भक्त संख्या करोड़ों में पहुँचती है . और ये करोड़ों की संख्या कई कई वर्ष भी बनी रहती देखी गई है . (ऐसे भी संत हुए हैं जिनके भक्त जीवन पर्यन्त भी कई -कई वर्षों और किसी के सैकड़ों -हजारों वर्ष उपरांत भी विद्यमान रहते हैं .)

कोई संत जब वर्षों संत जाना जाने लगता है तो सैकड़ों से आरम्भ भक्त की संख्या बीस-तीस वर्षों में हजारों ,लाखों से बढती करोड़ों में पहुँचती है . तब पृथ्वी के बहुत बड़े क्षेत्र में उनकी ख्याति पहुँच जाती है . निर्विवाद तौर पर हमें मानना चाहिये कि उस संत में ऐसी बात है जो इतने विस्तृत क्षेत्र और काल तक उसे विख्यात रखती है . वह सामान्य से विशिष्ट बन गया है तो निश्चित ही साधारण से ज्यादा प्रतिभाशाली तो रहता ही है .
तब भी उसमें यदाकदा कभी सामान्य मनुष्य भी हावी होता रहता है . ऐसा होना स्वाभाविक भी होता है . संत जिसके तीस चालीस वर्षों में करोड़ों मानने वाले हो गए हैं का कर्तव्य होता है कि उनमें  सामान्य मनुष्य की सी कमजोरी जब हावी हों तो कुशलता से उसे नियंत्रित करले . ये अपने अनुयायियों के विश्वास की रक्षा की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक होता है . यह उस वेश की पवित्रता बनाये रखने की दृष्टि से भी आवश्यक होता है . इस नियंत्रण की कला से संत सर्वकालिक श्रध्दा का पात्र बनता है .

संत के सत्संग में श्रध्दालुओं से मिलते मान से भी कभी संत में अहं जागृत होता है तब वह भक्त को तुच्छ मानते कुछ दोषित आचरण -व्यवहार और कर्म करता है . वैसे तो सच्चा संत ऐसा  नहीं करता है . पर सच्चाई अभी परिपक्वता के स्तर तक नहीं आई है तो यह भूल आशंकित रहती है .ऐसी स्थिति में भक्त ,अनुयायी और श्रध्दालुओं का कर्तव्य अपने उस इष्ट संत के प्रति बनता है कि जिन भक्त क्रियाओं से संत का संतत्व डोलता है . भक्त वे क्रियायें से बंचे .

भक्त अंध श्रध्दा ,अंध-अनुकरण ना करें . प्रारंभ से ही जब जब उनके संत संतत्व से डिगते हैं . तब तब एकांत में हिम्मत के साथ संत के दोष की चर्चा उनसे की जावे . संत को अपने भूल का अहसास इससे होता रहेगा . अन्यथा वह अपने दोषों को भी अच्छाई मानने की भूल कर किसी दिन स्वयं के साथ अपने भक्तों की श्रध्दा को जग-हंसाई का विषय बना देगा .

अगर कोई संत कभी जग-हंसाई का विषय बनता है तब लेखक यह मानता है कि जितना जिम्मेदार  वह "दुर्भाग्यशाली संत" होता है उतने ही जिम्मेदार उसके अनुयायी और भक्त होते हैं .
ऐसे संत को दुर्भाग्यशाली विशेषण इसलिए दिया गया है क्योंकि तीस -चालीस वर्षों के सदकर्म और सदाचार से अर्जित प्रतिष्ठा, छोटी कुछ भूलों से मिट जाती हैं . अपने पर नियंत्रण कर अगर कुछ दोषों से बचते हैं तो आजीवन तो रहते ही वे सर्वकालिक महान  संत मरणोपरांत भी रह जाते हैं .

--राजेश जैन
03-09-2013





 

Sunday, September 1, 2013

शब्द स्वयं गौरवान्वित होते

शब्द स्वयं गौरवान्वित होते
----------------------------

जब कोई करता है रक्तदान
होता है अर्थ मानवता सम्मान
होते जीवन में कुछ दिन विशेष
रक्तदान करते दिन अतिविशेष

मंच पे मिलता उन्हें अभिनन्दन
निहारती ऑंखें उन्हें ससम्मान
दिखती उनमें त्याग ,दया, करुणा
करते संचार वे जन में सदप्रेरणा

रक्तदान से होती प्रदर्शित वीरता
गौरवबोध पाते वीर के माता -पिता
जो मंच करता उनका सम्मान
स्वतः वह सम्मानित दे सम्मान

अभिनन्दन के शब्द लिखे जाते
वे शब्द स्वयं गौरवान्वित होते
रक्तदान आशय से दिए रक्त में
त्याग-दया भाव समाहित होते

रक्त चढ़ता जब अन्य शरीर में 
अंश बन दौड़ता उनके रगों में
जीवन सहारा मिलता उनकों
साँसे जारी रखता तन में उनके

भेदभाव ह्रदय से मिटाता सबके  
साथ पवित्र भाव संचारित करता
मानव रक्त आता मानव के काम
रक्तदान से पोषित होती मानवता

--राजेश जैन
01-09-2013