Thursday, February 28, 2013

समस्याओं का निराकरण और नारी


समस्याओं का निराकरण और नारी

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नारी कोमल हृदया और दयालु होती हैं . उनके इस गुण के कारण वह कारुणिक स्थिति में बहुत उदार हो जाती हैं . यह अवसर हो जाता उन्हें छल लिए जाने का . नारी को जब यह अनुभव होता है कि वह छली जा रही है तो उचित बचाव और प्रतिरोध में उसकी शारीरिक शक्ति आड़े आ जाती है . फिर छले जाने पर उसकी चर्चा करने से डरती है . यहाँ सामाजिक वे मर्यादा और मान्यताएं होते हैं , जो उनके पीड़ित होने के किस्से चर्चित होने पर नारी जीवन और कठिन कर देते हैं .

नारी का शारीरिक शक्ति- सामर्थ्य पुरुष अपेक्षा कम होता है . अतः ऐसे कार्य जो उनसे नहीं हो पाते यदि आवश्यक हो जाते हैं तो उन्हें सहायता की अपेक्षा होती है .साथ ही घर के बाहर आज भी अस्पताल ,व्यवसायिक और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में पुरुष ही ज्यादा संख्या  में मिलते हैं .यहाँ भी नारी यदि अकेली जाती है तो उसे कई कारणों से सहायता चाहिए होती है . ऐसे में पुरुष सहायता को आगे आते हैं . सहायता जिनसे मिलती है . कई बार उनसे सम्बन्ध भी बढ़ते हैं . ऐसे में सतर्क ना रहें तो कई बार सहायता और सम्बन्धों का भी गलत लाभ नारी शोषण का कारण हो सकता है .

यही वे कारण हैं . जिसके कारण हमेशा और आज तक नारी छली जाती रही है .

दो विपरीत लिंगी प्राणी (मनुष्य के अतिरिक्त भी ) एक प्राकृतिक और सहज आकर्षण परस्पर अनुभव करते हैं . तब भी जबकि उनके मध्य कोई दैहिक सम्बन्ध या इस के कोई भाव भी नहीं होते हैं . पिता, पुत्री को पुत्र की अपेक्षा और माँ, बेटे को पुत्री की अपेक्षा ज्यादा लाड दुलार से रखते हैं . अतः जहाँ परिचय नहीं है कोई सम्बन्ध नहीं है या संबंधों की कोई अपेक्षा नहीं है तब भी नारी और पुरुष के बीच आकर्षण सम्भावना नारी के नारी के प्रति ,या पुरुष के पुरुष के प्रति आकर्षण की तुलना में अधिक होती है .

आरम्भ में संबंधों की कोई अपेक्षा नहीं होते हुए भी विपरीत लिंगी आकर्षण से उपजे सम्बन्ध कालांतर में शारीरिक संबंधों के रूप में भी परिवर्तित होने संभावित हो सकते हैं . यहाँ विशेषकर नारी को सावधानी बरतनी होती है . अन्यथा असावधानी से क्षति पुरुष की अपेक्षा नारी को ही ज्यादा आशंकित होती है . और नारी को जब क्षति होती है . तो यह मात्र उनकी ही नहीं, परिवार की ,समाज की और देश के लिए विकट समस्या बन जाती है . सभी इसके दुष्परिणाम भुगतने को बाध्य होते हैं .

इसलिए बेटी ,बहन और पत्नी पर कई तरह के रोक टोक लागू होती हैं . जैसे इस तरह वस्त्र ना पहिनो , इस समय बाद घर के बाहर ना रहो . अकेले कहीं ना जाओ और इस तरह की कई .

इस वास्तविकता को ध्यान में रख नारी यदि कुछ तरह की सख्ती व्यवहार में लाये तो अपने और परिवार पर आ सकने वाली समस्या का स्वयं समाधान कर सकती है . कोई भी पुरुष से संबंधों की सीमा के अतिरिक्त किसी भी यत्न को कडाई से रोक देना .नशे से अपना नियंत्रण स्वयं पर नहीं रहता है अतः मदिरा या अन्य नशे की सामग्री कहीं भी कभी भी ना लेना . वार्तालाप में भावुकता से बचना और कम परिचितों और अ
परिचितों आवश्यकता से अधिक हँसी -ठिठोली से बचना आदि .

अगर आत्मावलोकन कर अपने में से इस तरह की कमियों को प्रत्येक नारी स्वयं कम करें  तो समाज और देश की समस्याएं काफी कम हो सकती हैं .ज्यादातर बुराइयाँ और द्वेष की जड़ में पुरुष और नारी के बीच अनैतिक सम्बन्धों का होना या इनकी अपेक्षा का होना मूल कारण होता है .

नारी दृढ और सतर्क रहेगी तो  पुरुष उन्हें मन बहलाने के वस्तु जैसा प्रयोग करने के अवसर नहीं पा सकेगा .इस तरह नारी समस्याओं के निराकरण का मार्ग प्रशस्त कर सकेगी .

--राजेश जैन
01-03-2013

Wednesday, February 27, 2013

समस्याओं का निराकरण आज सरल

समस्याओं का निराकरण आज सरल
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समस्या का सामना अप्रिय लगता है सभी को . हालांकि मनुष्य समस्या से प्रायः बचाव का रास्ता निकाल लेता है .जीवन है तो प्रत्येक के सम्मुख समस्याएँ आती ही हैं . जीवन स्वरूप प्राणियों का इस प्रकार होता ही है . जिस तरह प्राकृतिक प्राप्त वस्तुओं के अतिरिक्त बहुत सी वस्तु आज उपलब्ध हैं जो मानव निर्मित हैं . इसी तरह प्राकृतिक समस्याएँ के अतिरिक्त बहुत सी ऐसी समस्याएँ हैं जो मानव निर्मित हैं . और ये अतिरिक्त समस्याएँ ही आज समाज और देश को परेशान किये हुयें हैं .
आधुनिक बहुत सी सुविधाएँ एक तरफ जहाँ जीवन सरल बनाती हैं , वहीँ आधुनिक जीवन शैली में हम अपने कर्मों और आचरण से बहुत सी समस्याएँ खड़ी करते हैं . इस कारण आधुनिक सुविधाओं के बावजूद आज का मनुष्य जीवन पहले से ज्यादा कष्टमय बनता है .
अपने कर्मों से कैसे समस्या उत्पन्न करते हैं एक उदाहरण से समझने का यत्न करें . मै एक विभाग में कार्यरत हो जनता को उस विभाग की सेवा उपलब्ध कराने का दायित्व निभाता हूँ . अब उस सेवा के लिए कोई व्यक्ति मेरे कार्यालय में आता है उसे सेवा उपलब्ध कराने के लिए मै रिश्वत लेता हूँ . प्रकटतः रिश्वत लेने में मुझे समस्या नहीं लगती है .समस्या रिश्वत देने वाले की लगती है . यह मेरे लिए सुविधा जनक है जबकि अन्य के लिए समस्या का कारण है . यह मानव निर्मित समस्या में से एक है जिस से पूरा देश परेशान और आंदोलित है .
मेरी देखा देखी दूसरे विभाग का कर्मी रिश्वत लेना सीखता है . ऐसे में उस कर्मी के समक्ष जब अपने प्रयोजन से मै जाता हूँ और मुझे रिश्वत देना पड़ता है तब यह मुझे समस्या लगती है .
वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति जाने अनजाने में इस प्रकार कई समस्याएं आविष्कृत करता है . अपनी बारी में उसे वह समस्या नहीं सुविधा लगती है पर जब स्वयं उसे झेलता है तो समस्या लगती है .
हम सभी अपने आचरण और कर्मों को इस दृष्टिकोण से परखें और उनमें सुधार लायें तब ही देश और समाज से अव्यवस्थाएं , समस्याएँ और दुखद पीडाजनक स्थितियाँ कम की जा सकेंगी .
अन्यथा क्रमशः इसमें बढोत्तरी होगी और मानवता की रक्षा ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता जाएगा . जिस प्रकार किसी रोग का प्रारम्भिक अवस्था में पता होना ,और उसका उपचार सरल होता है . उसी प्रकार समस्याओं को आज कम करना आसान है . जबकि यह बेहद कठिन हो जाएगा जब इसमें आज से ज्यादा बढोत्तरी होगी ...
 

Saturday, February 23, 2013

आतिथ्य -भारतीय परम्परा

आतिथ्य -भारतीय परम्परा 
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वैभवपूर्ण प्राचीन भारतीय संस्कृति और उसको पुष्ट करती प्राचीन धरोहर (मंदिर , स्मराकें ,धर्म विश्वास ,ग्रन्थ,नदियाँ ,जलाशय  इत्यादि ) विदेशी सैलानियों को देश भ्रमण को आकर्षित करते हैं . 
इस आकर्षण के वशीभूत वे भारत आ पहुँचते हैं . विदेशी युवतियाँ जब अकेली होती हैं , तब विदेशी चलन से दुष्प्रभावित होकर यहाँ के कुछ पुरुष उन पर वासनामयी दृष्टि रखते हैं . वे समझते हैं विदेशी युवतियाँ शारीरिक संबंधों के बारे में स्वछन्द होती हैं . ऐसी सोच से प्रभावित हो उन से संबंधों को लालयित हो ऐसे आचरण करते हैं जो प्रख्यात भारतीय आतिथ्य के अनुरूप नहीं होता . प्रतिवर्ष कुछ ऐसे ही अनैतिक प्रयासों में उनसे दुराचार के कुछ प्रकरण बनते हैं ,उनमें से कुछेक प्रकरणों में विदेशी नारियों को प्राण भी गवानें पड़ते हैं . यह आधुनिकता , ललचाई नियत से किये कृत्य पूरे भारतीयों का सर शर्म से झुकाते हैं .   यह आतिथ्य -भारतीय परम्परा के पूर्णतः विपरीत है .हम अतिथि को भोजन स्वयं भूखे तक  रह कर कराने के त्याग के लिए पहचाने जाते थे . उनकी प्राण और सम्मान रक्षा में अपने प्राणों को  तक खतरे में डालते थे .
ना हम अपने समाज में अच्छाई बचा पा रहे हैं , ना ही परंपरागत अच्छाई पर चल पाते हैं . ऊँची ऊँची पढाई कर हम कुछ सीख रहे हैं या सीखा जो था वह भी भूल रहे हैं ?

जिन्होंने ना पृथ्वी के ऊपर किसी सीमाओं को जाना या माना  . जिन्हें हजारों किलोमीटर कई कई देशों की सीमाओं पर से गुजरते बिना पासपोर्ट और वीजा के उड़ने की आदत है . साइबेरिया में जब जलवायु , तापमान सहन करना उन्हें मुश्किल हो जाता है . अपने प्राणों को बचाये रख सकने की चिंता में और अपने बच्चों को जन्म देने के लिए साइबेरियन पक्षियों के अनेकों जोड़े पूरे भारत के विभिन्न जलाशयों के आस पास अपना बसेरा हजारों किलोमीटर दूर आ बनाते हैं . ग्रीष्म ऋतू में यहाँ जलाशय सूखने लगते हैं और यहाँ का तापमान उन्हें अप्रिय होता है तब 4-5 महीनों के प्रवास उपरान्त अपने मूल बसेरों की ओर लौटना चाहते हैं . पर हम पुनः अपना आतिथ्य भूलते हैं . हममें से कुछ इन सुन्दर अतिथि पक्षियों का शिकार करते हैं . और इस तरह हमारी दुष्टता से कुछ पक्षी हर वर्ष आने के बाद यहाँ से कभी लौट नहीं पाते . 

वेदना और लज्जा अनुभव होती है .  आधुनिकता जनित मानवता से पतन के इन प्रकरणों को देख और सुनकर . 

Monday, February 18, 2013

gold medal


गोल्ड मैडल
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आज जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज (जहाँ का मै पूर्व छात्र हूँ ) में स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र जो अपने ब्रांच में प्रथम आये हैं को स्वर्ण पदक (गोल्ड मैडल ) प्रदान किये जा रहे हैं . गोल्ड मैडल जिन्हें मिल रहा है उनको संबोधित करते मै लिखना चाहता हूँ ..

यह गोल्ड मैडल उनका पहला या इसके पूर्व एक दो मिले हो सकते हैं .वास्तव में यह विद्यार्थी के आत्म-विश्वास बढाने के लक्ष्य से ताकि उनकी जो प्रतिभा है उसका उपयोग वे आगे भी अपने स्वच्छ कर्मों और आचरण से जीवन में इस तरह की सफलता दोहराते रहें ऐसी प्रेरणा के लिए दिया जाता है .
गोल्ड मैडल उन्हें मिला है वह ,यह सिध्द करता है उनमें विशिष्ठ योग्यता है . यह पदक देख और अपने पास संजो वह जीवन में अपनी इस योग्यता को सच्ची प्रकार अनुभव करें . साथ ही वे यह देखें उन्ही के इस देश और समाज में कितनी समस्याएँ और अभाव हैं . उन्हीं के कुछ साथी कितनी ही कठिनाई से इस पढाई के शुल्क और खर्च उठाते हैं . विशिष्ठ इस योग्यता जो ईश्वर प्रदत्त और उनके सही परिवेश और संस्कार से उन्हें मिल सकी है का प्रयोग वे इन सामाजिक समस्याओं और अभाव को कम करने में लगायें .
यह दिन उनकी अत्यंत प्रसन्नता के दिनों में से एक है . वे आज ऐसा सपना सजायें जिसमें आसपास के दुखद सामाजिक और व्यवस्था को एक सहज प्रसन्नता में परिवर्तित करने के लिए आगे के जीवन में वे कार्य करने में सफल हो सकें .

इस पुरूस्कार (राशि) को वस्तु रूप ना ग्रहण करें क्योंकि वस्तु प्रयोग के बाद समाप्त हो जाती है या पुरानी पड़ जाती है . जिसका औचित्य अन्य के लिए कुछ ज्यादा नहीं होता है . इस पुरूस्कार को वे प्रेरणा रूप ग्रहण करें . प्रेरणा हमेशा नूतन बनी रह सकती है और जिसका औचित्य अन्य के लिए भी उपयोगी हो सकता है .

किसी भी पुरूस्कार की प्रथा इस मंतव्य से ही रखी गई हैं , जिससे प्राप्तकर्ता अपनी अच्छाइयों को बनाये रखने के लिए प्रेरित हो . आज हो इसके विपरीत रहा है . पुरुस्कृत व्यक्ति दंभ में पड़ जाता है और अच्छाई भूल अहंकार जनित बुराइयों से घिर जाता है . मै आशा करता हूँ आज पुरुस्कृत हो रहे विद्यार्थी इस विषय में सतर्क रहेंगे अपनी अच्छाईयां बनाये रखेंगे ,उन्हें और बढ़ाएंगे . फिर उनका प्रयोग अपने ही साथ इस देश के अन्य नागरिकों के अच्छे जीवन निर्माण में करेंगे .

पुरूस्कार की राशि यदि आपका परिवार बहुत निर्धन नहीं हैं तो ऐसे सामाजिक कार्य को अर्पित करें जिससे इस समस्याग्रस्त परिदृश्य बदलने में सहायता हो . पुरूस्कार राशि निसंदेह इस दृष्टि से अत्यंत अल्प है . पर एक बेहद ही सक्षम परम्परा का आरम्भ बन सकती है . उस राशि का व्यक्तिगत प्रयोग (वस्त्र , आभूषण या ऐसा ही कुछ ) बहुत ही साधारण प्रयोग है . अचानक धन मिलने पर आज सभी इसी तरह प्रयोग करते हैं (अपने आलिशान भवन , वाहन , वस्त्र और आभूषणों के लिए ) . आपमें विशिष्ठ योग्यता है आप असाधारण सपना देखिये . आप ऐसा सपना देखिये कि इस देश का हर परिवार एक ठीकठाक से सुविधा वाले छोटे ही सही पर स्वच्छ घर में निवास कर सके . आज नारी असुरक्षा अनुभव कर रही है कैसे उसका यह भय समाप्त हो? आप विदेश जा सुविधा संपन्न जीवन का सपना ना देखें . आप की शिक्षा पर इस देश के नागरिकों के टैक्स से संग्रहित धन लगा है (आप जो अदा करते हैं उससे ज्यादा व्यय आपको शिक्षित करने के लिए महाविद्यालयों को उठाना होता है ). उसका प्रतिदान आप इस देश के समाज और व्यवस्था में अपनी योग्यता लगाकर दीजिये .
 
ध्यान रखें पिछली सदी में हमारे समाज के विशिष्ठ व्यक्ति स्वतंत्रता के लिए लड़ अपना जीवन लगा रहे थे . इस शताब्दी में हमें अपने भाई-बहन और समाज की भलाई के लिए बुरी प्रवृत्तियों ,बुरी शक्तियों और ढोंगी नायकों के विरुध्द लड़ देश और समाज को बुराई से स्वतन्त्र करना है .यह पराक्रम दर्शाने का अवसर (opportunity) आपको मिली है इस अवसर को न्याय प्रदान करें .
जिन्हें गोल्ड मैडल नहीं मिला है वे उदास ना हों . कारण हो सकते हैं , परिवेश संस्कार उचित प्रेरणा उतनी पर्याप्त उनके साथ नहीं रही हों .पर जीवन में सफलता का यह अवसर अंतिम नहीं है . आरम्भ कीजिये आप को और अवसर आगे हैं .
 
जैसे कॉलेज के इस ऑडिटोरियम जिसमें यह समारोह हो रहा है . वह कॉलेज के उन आदरणीय पूर्व विद्यार्थी के द्वारा निर्मित कराया गया है जो गोल्ड मैडलिस्ट नहीं थे . पर अपनी प्रतिभा से जिन्होंने धन तो एकत्र किया ही . साथ ही ऐसी सद्बुध्दि भी कायम रखी . जिसके बलबूते उन्होंने अपने इस पूर्व महाविद्यालय को अपने जीवन में स्मरण रखा और उसकी आज की आवश्यकता को समझ यह भवन निर्मित करा कर दिया . गौरव है कॉलेज को उन पर .आप सभी इस गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाएं और देश और समाज की आज की आवश्यकताओं को अनुभव कर अनमोल योगदान दे साबित करें हम भी कम नहीं हैं .
 
किसी माता-पिता को गोल्ड मैडल या इस तरह के सम्मान में अर्जित अपने पाल्य की धन राशि से लगाव नहीं होता . लेकिन वह गौरव जो उनका पाल्य उन्हें इस तरह दिलाता है अनमोल होता है . और ऐसी संतान पा उन्हें अपना जीवन सार्थक हुआ अनुभव होता है

 

Saturday, February 16, 2013

ईश्वरीय सहायता


ईश्वरीय सहायता
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वर्ष 1997 के अंतिम महीनों की बात है . मुझे विभाग के महत्वपूर्ण कार्य के कंप्यूटरीकृत करने का लक्ष्य मिला . मै इलेक्ट्रिकल इंजिनियर था . उस समय कंप्यूटर जानकार विभाग में कम थे . मुझे स्वयं कम ही जानकारी थी . फिर भी असाइन लक्ष्य पर काम करने की चुनौती स्वीकार करते मैंने स्वयं अपनी और मातहत कर्मियों का कंप्यूटर ज्ञान बढ़ाने का गंभीर प्रयास आरम्भ किया . अपने साथी कर्मियों से मैंने बड़े-छोटे का भेदभाव छोड़ा . मित्रवत समवेत कार्य की परम्परा बनाई . छोटे कार्य भी स्वयं मैंने करने आरम्भ किये और प्रेरणा ग्रहण करते हुए , मेरे मातहत कर्मी भी इस भेद को कि क्या उनकी ड्यूटी है छोड़ अगर जरुरत हुई तो कक्ष की झाड़ू पोंछा भी मेरे कहे बिना बेहिचक करने लगे . मुझे उन दिनों उस कक्ष में रात दिन भी रहना पड़ा . यह अवसर भी आये जब मैंने शेविंग या टूथ ब्रश तक पूरी रात वहां गुजारने के बाद कार्यालय में ही किये . 

सिलसिला चल रहा था . विभाग में मेरे से वरिष्ठ पर मेरे से चिढने वालों को यह सब होता अच्छा नहीं लगता . वे अपने तरह से मुझे विचलित करने के लिए मुझे जब-तब बुला बहाने बहाने से अप्रिय बातें करते . मुझे मार्च 98 तक लक्ष्य हासिल करना था . उनके इस तरह दखल से मुझे निराशा घेरने को देखती .

ऐसे समय में अन्य विभाग से एक महिला अधिकारी की हमारे विभाग में पोस्टिंग हुई . वे इलेक्ट्रोनिक इंजिनियर थीं अतः कंप्यूटरीकरण  के इस कार्य के लिए उन्हें भी मेरे साथ किया गया . उनके आते ही उनके लिहाज के कारण मेरे उन वरिष्ठ का दखल कम हुआ . उन्होंने भी विभाग में नई होते हुए साथ ही अस्थायी पद स्थापना होने पर भी इस कार्य में पूरी निष्ठा प्रदर्शित की और  मेरे मातहत सहित सभी के सयुंक्त प्रयासों से मार्च 98 में हमने लक्ष्य में सफलता पाई .

विभाग से सयुंक्त अनुशंसा में उन्हें मेरे साथ सम्मिलित भी किया गया . यह उदाहरण उस उक्ति को चरितार्थ करता है "हिम्मते  मर्दा मददे खुदा " . उनकी प्रतिनियुक्ति हमारे विभाग में कठिन काम करने की मेरे हिम्मत को मदद पहुँचाने की ईश्वरीय सहायता थी .


स्वास्थ्यगत भोजन परहेज के तथ्य

स्वास्थ्यगत भोजन परहेज के तथ्य
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स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानी होती है तो रोग मुक्ति के लिए कई भोजन परहेज पालन करने होते हैं . जब परहेज अन्य (परिजन) को करवाने होते हैं तब हम उसका पालन सख्ती से होता देखना चाहते हैं . क्योंकि हमें उनकी चिंता होती है और हम चाहते हैं की वे रोग-मुक्त शीघ्र हो जाएँ . भोजन की उनकी रूचि के किसी व्यंजन पर जब रोक होती है तो वे कुछ मात्रा के लिए अनुनय करते हैं . हम कई बार उन्हें सख्ती से मना करते हैं . जो उन्हें अप्रिय लगता है ,जबकि हमारी मंशा उनके शीघ्र स्वास्थ्य -लाभ की होती है .
इससे विपरीत कभी हम स्वयं रोगी होते हैं और परहेज पालन हेतु परिजन की दृष्टि हम पर होती है . अब इसी तरह के प्रसंग में उनकी सख्ती हमें अरुचिकर लगती है . जबकि उनकी मंशा हमारे शीघ्र स्वास्थ्य -लाभ की होती है .
हम और परिजन वास्तव में परस्पर हितैषी होते हैं , और नहीं चाहते कि हममें से किसी को रोग के गंभीर परिणाम , परिवार को भुगतने पड़ें .
इन तथ्यों को दृष्टिगत रख ऐसे रोगी होने पर प्रत्येक को स्वयं सोचना चाहिए .
* हम परिवार के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं .
* हम अपने दायित्वों के लिए कितना और जीने की इक्छा रखते हैं .
* परिवार रोग के कारण हमें खोता है तो उस पर कितनी विपत्ति आ जाने वाली है .
और
* अपने इस जीवन में हम औरों के लिए क्या और कितना करना चाहते हैं .
हम शीतल -मन से जब यह सोचते हैं , तो स्वयं ही परहेज पालन करते हैं . तब जिव्हा-तुष्टि के लिए अपने प्रिय भोज्य को त्याग देना हमें अप्रिय नहीं लगता है . यह त्याग हमें दीर्घायु बना सकता है और हमें परोपकारी भी बना देता है .
 

Thursday, February 14, 2013

मनुष्य जीवन का आनंद (और वरिष्ठ नागरिक)

 मनुष्य जीवन का आनंद (और वरिष्ठ नागरिक)
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कुछ 70 से अधिक हो चुके क्रियाशील व्यक्तियों के क्रियाकलाप पर गौर करें ..

अ . 80 से अधिक 
के वे  हो चुके हैं अति प्रतिष्ठित ,अति सम्मानीय हैं . पूरा देश भ्रमण करते हैं . आदर और निष्ठा से स्वागत होता है , उनका . वे युवा पीढ़ी को सच्चा , और कर्मठ देखना चाहते हैं .उन्हें विभिन्न मंचो से संबोधित करते हैं .राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं . इससे उन्हें व्यक्तिगत लाभ कुछ नहीं है . एकमात्र अपेक्षित सम्मान ही ऐसी बात है , जो उनके लाभ में गिनी जा सकती है . फिर भी अपना आराम और सुविधा की फिक्र बिना वे अपना कर्तव्य मान यह कार्य कर रहे हैं .

ब . मध्यम वर्ग परिवार के मुखिया 80 वर्ष से अधिक के हैं . घुटनों की समस्या में चलने में कठिनाई है उन्हें . फिर भी नैतिकता के साथ व्यवसाय करते हैं . ग्राहक को गुणवत्ता का सामान और सेवा में उनका विश्वास है . अपने को इस तरह व्यस्त रखते अपनी शारीरिक पीडाओं से ध्यान हटा पाते हैं . इस उम्र में भी आय की अपेक्षा इसलिए है क्योंकि उन्हें लगता है नैतिकता से सारी उम्र व्यवसाय में ज्यादा पूँजी नहीं बना पाए हैं . महंगाई ज्यादा है सोचते हैं , कुछ स्वयं भी कमा लें तो उनके बेटे को घर चलाने में थोड़ी सरलता हो सकेगी . अपने ग्राहंकों की संतुष्टि से प्रसन्नता भी मिलती है .



स . प्रतिष्टित और सम्मान से देखे जाने वाले अरबपति 70 वर्ष से अधिक के एक सफल आज भी पूर्ण सक्रिय देखे जा सकते हैं . प्रसिध्द हैं अतः कोई भी सही गलत विज्ञापन , ब्रांड अम्बेसेडर या किसी भी ढंग से थोड़े से समय व्यय कर करोड़ों अर्जित कर सकते हैं . परिवार को यह धन नहीं भी आये तो कोई कमी नहीं है . पर अपनी प्रसिध्दि को एनकैश करते हैं . देश के युवा को गलत प्रेरणा या दिग्भ्रमित होने की उन्हें फ़िक्र नहीं . अपने परिवार का वैभव और महत्व बढाने को ही चिंतित हैं , जो उन्हें क्रियाशील रखे है .

द . 80 वर्ष से अधिक के ग्रामीण परिवेश के ना तो कोई ज्यादा सम्मान , ना ही धन कमाने की चिंता है . घर परिवार में बहुत पर्याप्त कुछ नहीं पर, पुत्र जीवन यापन जितना जुटा ही लेगा विश्वास है . फिर भी कृषि कार्य में अब भी लगे हुए हैं . सोचते हैं , कृषि कला है जिसमें वे दक्ष हैं . उसमें सक्रिय रहने से कुछ अनाज उत्पादन बढ़ता है . जो परिवार और दूसरों के उदर पूर्ती को मिलेगा तो संतुष्टि मिलेगी . बदले में सादा रहन सहन के कारण कोई मान तो नहीं मिल सकेगा . फिर भी इस उम्र में सक्रिय रहते हैं .जब तक जीवन है श्रम करते रहना चाहते हैं .

इ . 80 वर्ष के हैं .कुछ शारीरिक परेशानी ने मनोबल तोड़ दिया कुछ करने की इक्छा नहीं होती . घर में कमाया पर्याप्त है . पर दवाई पर व्यय करते बेटे को अच्छा नहीं लगता . उपेक्षा से और उदास हो जाते हैं सोचते हैं, जल्दी मृत्यु आ जाए तो अच्छा है .
फ . अति व्यस्त जीवन शैली , योग्यता अनुरूप महत्वाकांक्षा या जीवन सपनों के ना होने और अनियंत्रित जिव्हा तुष्टि के खानपान के कारण उत्पन्न तनावों और शारीरिक तथा मानसिक रोगों में बहुत 70 वर्ष से कम जीवन में ही दुखद विदाई लेकर अपने स्वयं के साथ अन्याय और आश्रितों को दुखी और निराश छोड़ जाते हैं .


हम दोष ढूँढने वाली अपनी दृष्टि दूसरों पर केन्द्रित कर , उनमें बुराई पा तिलमिला रहे हैं . आश्चर्य करते हैं ,इतना बुरा करते दूसरे कैसे आत्मग्लानि , लज्जा बोध या किसी तरह के पछतावे में पड़ने से कैसे बच सकते हैं ? क्यों नहीं सुधरते , सुधरें तो देश और समाज सुधरे .

जबकि बुराई भांप ने वाली हमारी  यह प्रखर दृष्टि स्वयं में कोई बुराई नहीं देख पाती .

समुचे सामाजिक परिदृश्य के लिए पूर्व राष्ट्रपति , अपने व्यवसायी पिता , एक तथाकथित सेलिब्रिटी (कोई भी हो सकता है ) तथा जनसामान्य में से वरिष्ठ व्यक्तियों को कल्पना पटल पर लाते हुए , सामाजिक दोष और बुराई पर हमारे स्वयं के व्यवहार और दृष्टिकोण को रखने का प्रयास किया है . .
यद्यपि अ,ब एवं द में उल्लेखित तरह की सोच और व्यक्तित्व दिनोंदिन बिरले होते जा रहे हैं . पर इनके अस्तित्व से यह विश्वास तो करना होगा कि जीवन में वैयक्तिक भोग से परे समाज , परिवार और देश के हित के लिए भी जीवन जीने या समर्पित करने की परंपरा रही है .

उल्लेखित स , इ एवं फ में वैयक्तिक भोग , छद्म आधुनिकता की प्रति स्पर्धा , देश और समाज के प्रति दायित्वों के प्रति उदासीनता की प्रवृत्ति प्रधान होते हुए अधिकाँश के मन और कर्म पर हावी होते जा रही है . अगर हम अपने समाज और देश की भलाई के लिए अपने अनैतिक हितों को तिलान्जित करने का साहस नहीं कर सकते तो क्या लाभ हमारे उच्च शिक्षित होने का या युवा या बलवान होने का ?

आधुनिकता या उच्च शिक्षा सिर्फ जीवन में वैयक्तिक भोग और इस से दुष्प्रेरित दूसरों के अधिकारों पर झपटना उनकी निजता का उल्लंघन को ही अगर दुष्प्रेरित करती है . तो यह आज के मानव समाज के साथ ही आगामी हमारी संतति के लिए सर्वथा अनुचित है .
हमें आधुनिकता की परिभाषा में और हमारी शिक्षा में व्यक्तिगत उपभोग और दूसरों के नैतिक अधिकार के लिए प्रत्येक के छोटे छोटे त्याग और संवेदना का एक उचित संतुलन शामिल करना चाहिए .
यह ऐसा उपाय है जिससे उन बुराई से हमें निजात मिल सकती है . जिसे अनुभव कर या शिकार हो हम व्यथित होते हैं और जब तब आंदोलित होते हैं . फिर यह ज्वार कुछ समय में शांत हो जाता है .जबकि बुराई अविराम जारी रहती हैं .
इतिहास या अपने पूर्वजों से जो सूचनाएं हम  पाते हैं वे दर्शाती हैं , किसी भी समय का मनुष्य समाज बुराई विहीन नहीं रहा है .  बुराई 100 वर्ष पहले भी अस्तित्व में थीं , 200 वर्ष पहले भी और इसी तरह 2000 या 10000 वर्ष पूर्व भी . बुराई के बारे में जो भिन्नता मिलती है, मात्र  बुराई के प्रकार कालांतर में बदले होते हैं तथा बुराई की मात्रा में अंतर मिलता है .

पहले समाज में छुआ-छूत और अन्धविश्वास बड़ी बुराई थी अब ये कम हैं तो दूसरी ज्यादा हैं . साथ ही जीवन स्वचालित सुविधा-विहीन और कम विज्ञान उन्नति का था अब ज्यादा उन्नत है ,सुविधापूर्ण है . बुराई की मात्रा भूतकाल में कितनी भी थी , अभी की तुलना में शायद हमेशा कम ही रही होगी (जो इसलिए भी लगता हो सकता है क्योंकि हमें भूतकाल की अच्छाई स्मरण रहती है और वर्तमान की कठिनाई ) . सच भले ही ऐसा ना हो पर आज की बुराई मात्रा देखना और सहना अनुचित लगता है . आज हम स्वयं को उच्च शिक्षित ज्यादा और सभ्य कहते हैं . अगर ऐसा है तो हमारी बुध्दिमानी और पढ़ा लिखा होना किस काम का , जब हम हमारे समाज और देश से इन बुराई को कम नहीं कर सकें तो .
हमने आधुनिकता के नाम पर जिन पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण किया है . वे असफल सामाजिक व्यवस्था हैं , जिसमें परिवार इकाई का अस्तित्व खतरे में है . और जहाँ मनुष्य मनुष्य ना रह रोबोट की भांति संवेदना शून्य होता जा रहा है . जो मनुष्य जीवन के अनमोलता को विस्मृत कर रहा है . जहाँ जीवन उदेश्य सिर्फ सुविधाओं और उपभोग में सिमटता जा रहा है .

ऐसी पाश्चात्य सभ्यता को अपने मनोमस्तिष्क पर हावी होने देना स्वयं अपने पर अत्याचार है, अन्याय है . तथाकथित सेलिब्रिटी जो इस पाश्चात्यता की जननी है के हमें  पथगामी नहीं होना चाहिए . हमारे अपने देश और समाज के हमारे सच्चे नायकों के पदचिन्हों पर हम चलें . हम इतना सच्चा समाज बनायें जिससे यह पाश्चात्यता हमारे पीछे चल वापस रोबोट से मनुष्य होना आरम्भ करे . और यह जाने की कम बुराइयों में मनुष्य जीवन का आनंद क्या होता है ?

Tuesday, February 12, 2013

सर्व हितकारी समाज


सर्व हितकारी समाज
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किसी वर्ग , जाति या नारी विशेष का जीवन कठिन होता हम देखते हैं . अगर हमें सहानुभूति है तो कठिनाई के और किसी कारण में नहीं जाना चाहिए .सर्वप्रथम उनकी कठिनाई को इस दृष्टिकोण से परीक्षण करना चाहिए कि कठिन स्थिति में होने के लिए स्वयं हम कितने जिम्मेदार हैं . जो थोडे  भी कारण हम स्वयं बनते लगते  हैं , अपने में से वे कम कर लेना उनकी कठिनाई दूर करने में सहायक होंगे .

वास्तव में दुनिया में बुराई का अम्बार देख हम सोचते हैं इतनी बुराई हम अपने दम पर दूर नहीं कर सकते . यह सच्चाई भी है . अकेले किसी एक  की क्षमता इतनी पर्याप्त  नहीं हो सकती है .
वास्तव में बुराइयों का कुल योग अनगिनत बन जाता है . पर जब सब इस तरह से अपने अपने बुराई के हिस्से को इस तरह कम करें तो बुराई सरलता से नियंत्रित हो सकती है .

इस पर विश्वास नहीं है तो सब मिल यह कर के देखें . 
कुछ ही समय लगेगा जब हमारा समाज सर्व हितकारी बन जाएगा .


Saturday, February 9, 2013

मानव अंगों के प्रत्यारोपण का दंड प्रावधान


मानव अंगों के  प्रत्यारोपण का दंड प्रावधान 
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मनुष्य उन्नति के पंखों  के सहारे उड़ान भरता विकास के अकल्पनीय से शिखर पर आ पहुंचा है .अभियांत्रिकी और चिकित्सा विज्ञान अत्यंत उन्नत हो गए हैं . 

अपने पारिवारिक और सामाजिक जीवन में इस यात्रा के आरम्भ से अब तक बहुत परिवर्तन करते आज जीवन शैली आधुनिक हो गई है .
आपसी प्रेम में नयापन आया तो वैमनस्य और अपराधों में भी नई खराबियों ने स्थान पाया .  चिकित्सा क्षेत्र में उन्नति से पिछली सदी से मानव अंगों का सफल प्रत्यारोपण कर पीड़ितों की आयु बढाने में सहायता मिली है  .
इन सफलताओं को ध्यान करने से लगता दंड प्रावधान पुरातन रह गये  हैं . हमें अपराधों पर मिलने वाले दंड के प्रावधान बदलते हुए समाज की पुनः संरचना करनी चाहिए . जो वैमनस्य को घटाने में सहायक हो सकते हैं  . स्वयं अपराधी के साथ अन्य के भले के भी सिध्द हो सकते हैं.

विधिवेत्ता , चिकित्सा वैज्ञानिक और समाज शास्त्री मिल हो रहे अपराधों की रोकथाम और साथ ही अपराधों की जड़ का निर्मूलन के लिए  दंड प्रावधानों में बदलाव लायें . अपराधी के शरीर के उन अंगों को निकाल जरुरत मंदों को प्रत्यारोपित करने को दंड में सम्मिलित करें .ऐसे अंग निकालने की सजा जिनसे अपराधी के जीवन को खतरा भी नहीं हो और उन्हें अपराध पुनः ना करने का सबक मिल सके . साथ ही  अन्य को भी अपराधी वृत्ति की ओर ना जाने की शिक्षा और सीख  मिलती हो विस्तृत चर्चाओं के बाद तय किये  जायें . ऐसे अंग किडनी , रक्त और नेत्र हो सकते हैं . बाद में ऐसे जघन्य  अपराधी की  जब प्राकृतिक मौत होती है उसका शव चिकित्सा विद्यार्थियों को अनुसंधान के लिए भी देना दंड में सम्मिलित किया जा सकता है

इन प्रावधानों से जो लाभ हो सकते हैं वे
निर्दोष परिजन (अपराधी के ) बेसहारा और अनाथ होने से बच सकते हैं .
मौत की सजा से उत्पन्न वैमनस्य (अपराधी पक्ष के मन में  ) से बचा जा सकता है , और प्रति क्रियाओं में फिर जघन्य अपराधों की सम्भावना कम की जा सकती हैं .
ऐसे पीड़ित जिनका जीवन अंग प्रत्यारोपित कर बचाया जा सकता है लेकिन  जिन्हें दानदाता नहीं मिलते हैं की सहायता भी की जा सकती है .
अपराधी को दंड पा ने के बाद शांत मन से पछतावे का अवसर मिल सकता है . वे उस दृष्टिकोण से अपने कृत्य पर विचार कर सकते हैं जिसमें खराबी वे अपराध करते नहीं देख पाए हैं .

दंड के इस तरह आधुनिक प्रावधान , आधुनिक समाज के अनुरूप होंगे . और समाज में शान्ति परस्पर विश्वास और सहयोग को बढाने में सहायक भी हो सकते हैं .


मौत स्वागत योग्य नहीं होती


मौत स्वागत योग्य नहीं होती
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विवेक हीनता  के हावी होने पर एक या कुछ , हत्यारा बन एक या कुछ स्त्री/पुरुष की जान ले लेते हैं .
फिर अपराध सिध्द होने पर कुछ मौत की सजा पा स्वयं मारे जाते हैं .

इस तरह के दुखद हादसे से पहले (निर्दोष और मासूम ) भी कुछ अनाथ , बेसहारा होने को लाचार होते हैं . अपने प्रियजन को खोने का आजीवन दुःख को श्रापित हो जाते हैं .

बाद के घटना क्रम में न्याय ( तथा-कथित , संविधान अनुसार )  पालन में दोषी का परिवार इसी श्राप से पीड़ित होता है .

असमय मौतें बार बार दोहराई जाती हैं , कहीं सही  शिक्षा या सबक ना लिया जा रहा है . ना ही सही शिक्षा सबक दिया जा सका है .

अकेले मारे जाने वाले ही नहीं ,  इनके मारे जाने से कटुतम  और  स्थाई बिछोह को विवश होते परिवार-जन  जिनके ह्रदय में इन मौतों ने जीवन जीने की कोई भी अभिलाषा अधूरी छोड़ दी है तो मौत स्वागत योग्य नहीं होती है .

हादसे तो पूर्व से ज्ञात नहीं होते हैं . पर दंड तो पूर्व-नियोजित होता है . हादसे से पीड़ित परिजन यदि अपराधी को क्षमा नहीं करते हैं , तो अपराधी की मौत से यद्यपि प्रसन्न होना होता है . 

श्रध्दा-सुमन अकाल मारे गए व्यक्तियों के लिए . साथ ही आशा का एक दीप प्रज्वलित करते हुए कि शीघ्र ही सही शिक्षा और सबक लेते हुए , क्रिया और प्रतिक्रियाओं में ये अप्रिय प्रसंग किन्ही व्यक्तियों और  निर्दोष परिजनों के सम्मुख प्रस्तुत होना बंद हो जायेंगे।

Friday, February 8, 2013

संस्कार

संस्कार

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अच्छे संस्कार हैं , या कोई संस्कारहीन हीन है , यह टिप्पणी अक्सर ही सुनते हैं ,सब करते हैं . कोई के अच्छे कार्य , या बुरे के जिक्र में भी संस्कार कारण निरुपित किया जाता है . क्या होते हैं संस्कार , कैसे दिए जा सकते हैं . संस्कार हीन कोई कैसे हो सकता है . प्रश्न के उत्तर सब के पास हैं .शब्द अलग हो सकते हैं . आशय प्रायः समान ही होगा .

वास्तव में एक नवजात शिशु के लालन -पालन कर ...उसे किशोर वय में पहुँचते तक , सांसारिक जीवन के दृष्टिगत माँ- पिता और घर में अन्य बड़े अपने बच्चों के सरल ,सहज और सुखी जीवन की आशा से सिखाते ,बतलाते हैं . इस पूरी प्रक्रिया के लिए जो शब्द है प्रयोग किया जाता है वह "संस्कार" है . इस तरह दिए जा रहे मिल रहे संस्कार का स्तर , पालकों की तथा बच्चे की स्वयं की योग्यता पर निर्भर करता है . अंध-विश्वास , या गलत पूर्वाग्रह से कोई पालक प्रभावित है तो , उनके बच्चों में यह दोष परिलक्षित होने की सम्भावना हो जाती है . और जिन घरों में जीवन स्वरूप का सही ज्ञान , और सांसारिक ,धार्मिक ,व्यवहारिक और नैतिक शिक्षा की पर्याप्तता है . उस घर के बच्चे संस्कारवान होंगे और अपने कर्मों और आचरण से अन्य को प्रभावित करते हुए सफल और सुखी जीवन व्यतीत करेंगे , इसकी सम्भावना प्रबल होती है . संस्कारवान संतान ना केवल परिवार बल्कि समाज ,देश और विश्व के लिए हितकारी होती है . अतः यदि हम अपने बच्चों को सही संस्कार देते हैं , तो यह आत्म विश्वास हमें होना चाहिए कि हम इस से अपने बेटी या बेटा बाल्यकाल में सच्ची सेवा सुश्रुषा नहीं कर रहे हैं , अपितु मानव समाज और देश की सच्ची सेवा कर रहे हैं . जिस समाज या देश में नागरिक अधिकांश संस्कारवान होते हैं वह उन्नति की ओर बढ़ता है . संस्कारवान संतान ही परिवार , देश और समाज के लिए अपनी सच्ची जिम्मेदारियों को समझते हुए अपने कर्म और आचरण रखता है . हमारे दिए अच्छे संस्कार ही हमारे पुत्र या पुत्री को बुरी संगत में पड़ने से रोक लेती है . वर्ना आज बुरी संगत और अनेकों बुराइयां चंहु ओर उपलब्ध हैं , जो आधुनिकता के नाम पर किसी के भी अच्छे कर्म और आचरण से विमुख करने में विलम्ब नहीं करती .
संस्कार कैसे दिए जाते हैं ?  मेरा मानना है ,मानव बच्चा बालपन से ही बुध्दिमान होता है . उसका मस्तिष्क हमारे कथन से प्राप्त होने वाले निर्देश को हमारे स्वयं के इन (निर्देश के विषय ) पर हमारे आचरण और कर्म से तुलना करता है . कहने का आशय यह है कि अनकही बातें वह हमारी करनी से भी ग्रहण करता है .  ऐसे में स्वयं हमारी कथनी और करनी में अंतर ना हो तो बच्चा हमारे बताये मार्ग पर चलना सीखेगा . हमारी कथनी और करनी में अंतर देखेगा तो भ्रमित होगा . कभी एक ही प्रसंग में हमारे कहे ढंग से कार्य करेगा और कभी हमें क्या करता देखता है उस अनुसार कार्य करेगा . और स्पष्ट करने के लिए उदाहरण से बात करें तो , यदि हमें बच्चे को धार्मिक संस्कार देने हैं तो हमें मंदिर जाना , स्वयं धर्म चर्चा में हिस्सा लेना और धर्म अनुसार अपने आचार और व्यवहार रखने होंगे , और यही फिर ऐसा करने के लिए बताने पर उसमें धार्मिक संस्कार पड़ेंगे . हम स्वयं मंदिर ना जाएँ और बच्चे से कहें प्रतिदिन मंदिर जाना अच्छा है , तो वह हमारे शब्द और व्यवहार में अंतर भापेंगा . कभी मंदिर जाना उचित मानेगा कभी जाना उचित नहीं भी समझेगा .
इसी तरह हम यदि चाहें कि हमारा पाल्य झूठ न कहे, बड़ों से सम्मान से पेश आये , घर के बाहर बड़ों का आदर करे , देश के प्रति सम्मान रखे और , शराब ,सिगरेट ना पिए तो यही बातें उसे हम स्वयं करते हुए भी दिखने चाहिए . हम अपने माता -पिता से सम्मान से पेश आयें , उनकी सेवा करें , पास-पड़ोस के लोगों से सम्मान-जनक संबोधनों और शालीनता से बातें करें , उनके दुःख के प्रति संवेदना प्रदर्शित करें . अपने कार्य को निष्ठा पूर्ण ढंग से करें . हम शाकाहारी हों ,शराब ,सिगरेट छूते ना हों  तब ही बेटी /बेटा सदमार्गी और सदाचारी होगा . 
अच्छा सिर्फ कहा जाना , संस्कारी बनाना सुनिश्चित नहीं कर सकता . आचरण और कर्म में यदि हम कोई कमी रखेंगे तो बच्चों को अच्छा कहा और समझाया  जाना अपर्याप्त सिध्द होगा . उसके संस्कारहीन बनने की सम्भावना बनेगी . भले ही लौकिक शिक्षा कितनी भी अच्छी क्यों ना हासिल कर ले वह .
आज देश /विश्व और समाज में बहुत बुराई और समस्याएँ हैं . इन्हें दूर करने के लिए हर घर के बच्चे के संस्कार अच्छे हों यह आवश्यक है . तब ही आने वाली पीढ़ी सुखी भी हो सकेगी और समाज से बुराई और समस्या कम करने में सफल भी हो सकेगी.

Zozila to Rohtang -- यात्रा वृतांत - एक कल्पना (भाग एक )

Zozila to Rohtang -- यात्रा वृतांत - एक कल्पना (भाग एक )
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प्रदर्शनी में प्रदर्शित छायाचित्र जिसमें जंगल ,पहाड़ सरिताओं और झीलों के अतीव सुन्दर दृश्य , भारतीय सेना के साहस के कारनामों को कहते प्रेरक चित्र और कारगिल , लद्दाख और वादियों के स्थानीय जीवन को दर्शाते चित्रों को एकसाथ इतनी अधिक मात्रा में तथा इतने सुन्दर चित्रांकन को देखने का बहुत अच्छा अवसर हमें मिला . हमने नयनाभिराम प्राकृतिक छटा को देख आयोजक , प्रवास करने वाले अपने मित्रों की ह्रदय से प्रशंसा भी की . पर हम में से अधिकतर उसके पीछे के कुछ तथ्यों पर सोचने का वक्त ना  निकाल सके होंगे .. तनिक कल्पना मैंने की है जो निम्नानुसार है .
 
चार मित्र प्रवास शौकीन एक शाम तय करते हैं . किसी रोचक यात्रा पर जाया जाए . एक मित्र कश्मीर की वादियों में पूर्व में दुर्गम स्थानों की सैर कर साहसिक कारनामा पूर्व में ही कर चुका है . और उनके इस साहस का जिक्र लिम्का बुक में भी दर्ज हो चुका है . वे अन्य अपने मित्रों को उन्ही स्थानों  पर चलने का प्रस्ताव करते हैं . कुछ सोच विचार के बाद तय हो जाता है . परिवार को बच्चों की शिक्षा की दृष्टि से साथ ले जाना ठीक नहीं लगता . तय किया जाता है लक्सरी  निजी गाडी मर्जी से चलने और रूक लेने की दृष्टि से उचित होगी .
 
यात्रा   आरम्भ करने का समय आ जाता है .. गाड़ी बारी बारी से एक एक मित्र के द्वार उन्हें लेने के लिए पहुँच रही है .. यात्री साजो सामान के साथ गाड़ी में बैठते हैं . द्वार पर विदा करने , माँ -पिता , भाई , पत्नी बच्चे खड़े होते हैं . इन्हें 10 दिनों की लम्बी अवधि के लिए विदा करते हुए , वह भी दुर्गम स्थानों की सैर के लिए , आखों में अश्रु आने को आतुर होते हैं . पर विडम्बना उन्हें अन्दर ही रोकने का लगभग असंभव यत्न किया जाता है . विदा करते हुए अपने अश्रु दिखा वे यात्रियों के साहस को कम जो नहीं होने देना चाहते . चारों घरों के द्वारों पर लगभग यह दृश्य उत्पन्न होता है . अपनों की इस शंका और विछोह के दुःख को समझते , ये चारों साहसी पत्नी और बच्चों से आँखे चुराते गाड़ी में आ बैठते हैं .. 
 
10 दिनों घर परिवार में उनकी अनुपस्थिति में भी सर्व कुशलता बनी रहे यह ख्याल उन पलों में प्रमुख रूप से ह्रदय में है , यात्रा की रोचकता और कल्पना से जो मन पुलकित रहा है इस घडी वह दब गया है . चारों ही इस समय चर्चा करने के स्थान पर खामोश हैं   ...
 
जबलपुर शहर की सीमा से बाहर गाड़ी आ गयी है .. और गंतव्य की दिशा में तेज गति से फर्राटा भरने लगी है ....
 
जारी क्रमशः ----

Thursday, February 7, 2013

अच्छा हमारा घर-परिवार

अच्छा हमारा घर-परिवार
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50-60 वर्ष पहले के सफल सिनेमा घराने जिनका वर्चस्व हिंदी सिनेमा में था . वे जिस तरह दूसरे परिवार की नारियों को परदे पर चित्रित करते थे . वह स्वयं उन्हें नारी मर्यादाओं के अनुकूल नहीं लगता था . इसलिए घर के पुरुष परदे पर आते थे . अपनी बहनों ,पत्नी और बेटियों को परदे पर आने नहीं देते थे .
जिस तरह वे अपने बच्चों का जीवन सुनिश्चित करना चाहते थे , उस तरह का समाज बनाने /व्यवस्था बनाने के प्रति उदासीन रहे . उन्होंने अपने घर में स्वस्थ परम्परा और मर्यादा के प्रयत्न किये पर समाज और देश में स्वस्थ परम्परा और मर्यादा के लिए अपने कर्तव्य भुलाए रखे . सिनेमा में कुछ भी अच्छा नहीं था कहना ठीक नहीं होगा . लेकिन सभी अच्छा भी नहीं था . व्यावसायिक लाभ के लिए जो चित्रित किया गया . उसके दर्शन और वैसी नक़ल से नई पीढ़ियों में स्वछन्दता बढ़ी . आचरण विपरीत हुए और उनके सोच और सपने स्थापित मर्यादाओं से अलग होने लगे . विशेष कर युवा आधुनिकता के नाम पर जो देखने और करने लगे उससे समाज बदलता गया . समाज में बुराई बढ़ी तो चपेट में फिल्मकारों के घर भी आये .आसपास की बुराइयाँ घर के भीतर घुसपैठ करते गई .
पुरानी पीढ़ी के अधिकाँश फ़िल्मकार अब कई जीवित नहीं हैं ( कुछ हैं भी ) . वे अपने परिवार नारी सदस्या को जो करते, बनते नहीं देखना चाहते थे , उनके घरों की बेटियों और बहुओं ने करना आरम्भ किया . वे सिनेमा पर्दों पर उस तरह आने लगीं , जैसे अन्य परिवार की नारियों को उनके बुजुर्ग चित्रित करते थे (और ऐसा अपनी नारियों के लिए नापसंद करते थे ).
सहस्त्रों वर्षों से अपेक्षित पारिवारिक चरित्र यहाँ के जनमानस में ऐसा ही रचा बसा है . इससे विपरीत हमेशा से संघर्ष और विषाद की सम्भावना उत्पन्न करता है .
सिध्द यह होता है जैसा हम परिवार में चाहते हैं . वह वातावरण अगर देश समाज में नहीं बनायेंगे तो देश ,समाज में व्याप्त बुराइयों से अपने घर को निरापद नहीं रख सकेंगे . अतः सब अपने घर को भी अच्छा रखें यत्न करें कि पास पड़ोस के घर भी उतने ही अच्छे रहें . इससे समाज अच्छा बनेगा . तब बाहर से कोई बात घर के अन्दर आएगी तो वह भी अच्छी ही होगी .
उपाय कठिन सा लगता है , पर सभी की सच्ची भूमिका निभा लेने से सरल बन सकता है . दूसरों का अवलोकन कम कर हुए , आत्म-अवलोकन अधिक कर आचरण और कर्म करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है . नित दुखी और विचलित कर देने वाले हादसों से यही मन्त्र मुक्त करा सकेगा . यही मन्त्र प्रभावकारी होगा .
 

Wednesday, February 6, 2013

स्व-आलोचक


स्व-आलोचक
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कुछ वर्षों के घटनाक्रम पर दृष्टि डालें . देश कुछ हादसों /आन्दोलन का प्रत्यक्ष-दृष्टा बना जब , महानगरों से लेकर दूरस्थ ग्रामों के महत्वपूर्ण से लेकर अति साधारण नागरिकों तक ने जिस पर गंभीर चिंतन -चर्चा और सक्रिय भागीदारी और जागरूकता प्रदर्शित की . ये थे
* घुसपैठी आंतकियों द्वारा मुंबई में होटल ताज़ ,रेलवे-स्टेशन और अन्य स्थानों पर अंधाधुंध फायरिंग (गोलियाँ बरसा कर ) सैकड़ों निर्दोषों की जान ले ली और अपनी... भी गंवाई .

* दिल्ली में , भारत के बाहर भेजा गया कालाधन ( बैंक में जमा किया गया ) , को वापस भारत लाये जाने की मांग के साथ भारत के विभिन्न हिस्से से आंदोलनरत नागरिकों ने प्रदर्शन किया उत्पन्न संघर्ष से घायल एक महिला को जान तक गंवानी पड़ी .

* बढ़ गए भ्रष्टाचार के रोकथाम के लिए दोषियों पर कार्यवाही की नीयत से दिल्ली में लाखों नागरिकों ने इकट्ठे हो कई दिनों तक शांतिपूर्ण आन्दोलन किया .

* दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में दुस्साहिक रूप नारी शोषण का घिनौना कृत्य (बहुत पुराना घोर निंदनीय अपराधिक प्रकरण की दुखद पुनरावृति ) किया गया . पीडिता जीवन से संघर्ष करते तेरहवें दिन हार गई . उसकी अकाल मौत से पाषाण ह्रदय मानस के नयन भी अश्रुपूरित हुए  . ( देश के विभिन्न हिस्से में ये कुकृत्य प्रतिदिन दोहराए जा रहे हैं )

* देश की सीमा पर तैनात (देश के ग्रामीण क्षेत्रों के ) दो साहसी फौजियों को दुश्मन के द्वारा न केवल निर्दयता से मार डाला अपितु उनके शव के साथ भी पैशाचिकता प्रदर्शित करते उनके सर सहित विभिन्न अंगों को धड़ से पृथक कर गायब कर दिया गया . पूरा देश पुनः उद्वेलित हुआ . दो सैनकों के शव का असम्मान हरेक को स्वयं अपना अपमान भी लगा . परिवार और हर सच्चे मनुष्य को , सभ्यता के इस काल में इस तरह के उत्पन्न कारुणिक दृश्य से गहन मानसिक वेदना हुई .

सभी उपरोक्त बातें , अलग अलग मंचों से अलग अलग विचारकों से और विभिन्न पक्षों से अपने अपने पूर्वाग्रहों अनुसार विभिन्न तरह से निरुपित और चर्चा में रही हैं और आगे भी रहेंगी . इस तरह या इस से भिन्न पर इतनी ही दुष्प्रभाव /प्रभाव कारी घटनाएं पहले भी हुईं हैं . हमारा दुर्भाग्य/भाग्य आगे भी घटित होती जायेंगी .

दुर्भाग्य यह भी है , कुछ लोग कितनी भी गंभीर और दुखद घटना हो , अपने हित आग्रहों अनुसार उसे सही भी ठहराते देखे जा सकते हैं . साफ़ है अपने पूर्वाग्रहों , अन्धविश्वास , अंध-श्रध्दा और अज्ञानता के कारण उन्हें  दोष उनमें दिखाई देगा जो निर्दोष है .

इसे हम मानसिक रोग कहेंगे . वह अस्वस्थ आचार -विचार मन में घर किये हुए हैं . जिसके कारण दूसरों की प्रताड़ना से स्वयं हर्षित होते हैं (sadism ) .

तमाम इस तरह के दुखद घटनाक्रमों के उपाय अपने अपने तरह से सब सुझाव रूप में सामने लाते हैं . सही भी है . जिस तरह घाव कोई हो जाए . हम उपचार करते हैं . पहले घाव की ड्रेसिंग ( सफाई ) की जाती है . फिर उसपर मलहम का कपास रखा जाता है . फिर पट्टी (बेंडेज ) बांध दी जाती है . खाने को दवाई भी साथ दी जाती है . गंभीरता अनुसार इंजेक्शन भी लग सकते हैं . नियमित अन्तराल में घाव को जांच और पुनः पट्टी बदलना भी पड़ सकता है .

सामाजिक बुराइयाँ भी समाज के अधिकाँश सदस्यों के मन में विभिन्न तरह के ख़राब विचारों , स्वार्थ-लिप्सा , सुविधा-लोलुपता और वैयक्तिक भोगवाद की लालसा के कारण एक रोग के भांति हैं . विभिन्न स्तर और प्रकार से रोकथाम इन मानसिक अस्वस्थता के लिए जरुरी है . व्यवस्था में सुधार , कड़े क़ानूनी प्रावधानों और दंड प्रावधानों से तो की ही जा सकेगी . परन्तु साथ साथ ही मनुष्य ह्रदय स्व-सोच में से ये रोगी विचार , तर्क ,लालसाएं और जीवन शैली का कम किये जाने के उपाय भी करने होंगे .
इसके लिए प्रत्येक को आत्म-अवलोकन करना होगा गलत सिध्दांत , गलत सोच या छद्म नायकों जिनका अनुशरण करने से ये बुराइयाँ पनप रहीं हैं .उन्हें तजने की वीरता दिखाए बिना हम आज की सामाजिक बुराइयों और दुखद घटनाक्रमों से मुक्त नहीं हो सकते .
हमें यह सोचना होगा जिस तरह हम अपने बच्चों को अच्छा घर उनके जीवन के लिए सुनिश्चित करना चाहते हैं , उसी तरह एक समाज बनाना /व्यवस्था बनाना भी सुनिश्चित करें . कितना भी अच्छा घर यदि वह एक स्वस्थ समाज (आसपास यही है ) में नहीं विद्यमान है तो उसमें निवासरत हम और बच्चे बेखटके जीवन यापन नहीं कर सकते . आसपास की बुराइयाँ जब तब इस घर के भीतर घुसपैठ करती रहेंगी . और हम जब-तब दुखी होते रहेंगे .
हमें अपने हित के साथ समाज के हित की भी चिंता करनी होगी . इसके लिए हमें जो प्रिय (जो सामाजिक दृष्टि से अप्रिय हैं ) अपनी आदतों को स्वतः तजने का साहस प्रदर्शित करना होगा .
पर -आलोचक तो हम सभी हैं . हमें स्व-आलोचक भी स्वयं बनना होगा . तभी समाज से बुराइयाँ कम की जा सकेगी . अन्यथा बारी बारी बुराइयों के दुष्प्रभाव भुगतते रहना होगा . चाहे जितने भी सुरक्षित भवनों में हम रहते हों .

Saturday, February 2, 2013

पत्नी का यथोचित सम्मान बुराईयों की रोकथाम

पत्नी का यथोचित सम्मान बुराईयों की रोकथाम 
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कल के लेख में नारी के पत्नी रूप के महत्वपूर्ण चरित्र और उनके समुचित सम्मान के एक अजीब (इस तरह कम पढने सुनने मिलता है , इसलिए अजीब  ) दृष्टिकोण  से अपने विचार रखे थे . उसी के विस्तार में जाने से ऐसा लगता है कि जिस दिन हम पत्नी  के ऐसे सहयोग और त्याग को समझ नत मस्तक होंगे सामजिक बहुत सी बुराइयाँ कम हो जायेंगी ...

हम पत्नी का रिश्ता जब स्वीकारते हैं , तो पति-पत्नी के बीच कुछ आपसी समझ और वचन लिए-दिए जाते हैं , पति अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण सम्मान रखेगा तो स्वतः  ही वह दूसरी स्त्री से दैहिक समबन्ध को उत्सुक ना होगा . इस तरह  दुष्कर्म और अवैध संबंधों के कारण उत्पन्न कटुता , वैमनस्य और संघर्षों के अप्रिय प्रसंग में कमी आएगी .

ज्यादातर देखा गया है , जोर जबरदस्ती का नारी शोषण , अविवाहित कम विवाहित पुरुष ज्यादा करते हैं . जिस दिन अपनी पत्नी के प्रति सम्मान रख वह इस तरह की दगाबाजी अपनी पत्नी से ना करेगा तो इस तरह के अपराध स्वयं घटेंगे .

हमारा देश अपने नारी नागरिक के साथ विदेशी नारियों के लिए भी सुरक्षित होगा ..

जो मानवता भी है और समाज हित भी सिध्द होगा  ... 


पत्नी भी नारी के अति सम्मानजनक अवतारों में से एक


पत्नी भी नारी के अति सम्मानजनक अवतारों में से एक
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हास्य बनाने या हीन दिखाने की  नियत से , जोक्स के माध्यम से या कुछ लेख करने के लिए चाहे या अनचाहे ( जो चलन में है उसकी नक़ल करते ) हम जाति विशेष या समूह विशेष पर उस जाति या समूह को पूरा सम्मिलित करते हुए (जनरलायीज ) लक्ष्य की प्रवृत्ति रखते हैं . जो उचित नहीं होती . इस लक्ष्य से कहे जाने का किसी किसी संवेदनशील निर्दोष (सच्चे ) के मन पर बुरा प्रभाव पढ़ता है .

जैसे -

शारीरिक दोष या असुंदर व्यक्ति को अंधा , लूला ,लंगड़ा बहरा इत्यादि कहना .

जोक्स .. में जाति विशेष के पात्र रख उपहास उड़ाना .

या किसी खराबी के लिए किसी समूह पर हर समय दोषी बताना .

पत्नी भी ऐसी एक जाति (या समूह) है , जिस पर ढेरों जोक्स , या अपने किसी भी असफलता या अपने सुख की राह में रोड़ा जैसा बताने का एक चलन है . कुछ पत्नी से सच में दुखी हो सकते हैं . पर जो पत्नी के रूप में बहुत ही सच्चा साथ भी पाने का भाग्य रखते हैं भी चलन में पत्नी को इस तरह से लक्ष्य करते पाए जाते हैं .

इस तरह के प्रसंग में कभी हम भी हास्य या सहमती में हिस्सेदार हो मजे लेते हैं . पर पत्नी एक अस्तित्व पर इस तरह लक्ष्य  अन्याय लगता है .

भारत में परिवार में नारी के पुरुष से रिश्ते में , माँ ,बहन और बेटी (बहन और बेटी छोटी होने पर भी ) पूज्यनीय रिश्ता है . पर पत्नी से पुरुष का रिश्ता ऐसा है जिसमें उसे प्रत्यक्षतः  हीनता बोध के साथ देखा जाता है . जबकि पत्नी योग्यता में भी पति से बेहतर भी देखने मिल सकती है . पत्नी वह रिश्ता भी है जो शायद 95 % से अधिक पुरुष जीवन में स्वयं सहर्ष जोड़ते भी हैं . पर एक बार वह अपना माँ -पिता का परिवार छोड़ जो आ जाती है तो अपने ऊपर एक समस्या सी ही देखी और बताई जाने लगती है . लेकिन गौर करें तो सारे खुशहाल परिवारों में पत्नी , अपने पति का साथ नारी के समस्त रूपों में निभाती है .

स्पष्ट लिखा जाए तो .. दैहिक रूप से पति-पत्नी का रिश्ता निराला और पहले 
दो अजनबी रहे विपरीत लिंगी व्यक्तियों  को जोड़ने वाला तो होता ही है . पर मुझे लगता है पत्नी इस महत्वपूर्ण साथ के अतिरिक्त अपने पति की जिस प्रकार देखभाल , चिंता और आवश्यकता की पूर्ती करती है , वह माँ ,बहन और बेटी के दायित्वों   जैसे भी होते हैं .

माँ , जैसा लाड दुलार भी उसके आचार -व्यवहार और कर्मों में अपने पति के लिए होता है (माँ जैसे गर्भ में तो नहीं पाला होता है , पर अपने पति के बच्चों को ऐसा पाल वह बराबरी कर देती है ) .

बहन , जैसा स्नेह और त्याग पति के लिए कर रही होती है .

बेटी , जैसी चिंता और सम्मान भी करती है .

इस तरह पत्नी एक अकेली नारी .. पुरुष के नारी से रिश्ते के सभी रूपों का निर्वहन करती ही है .

साथ ही पति की माँ , बहन और उसकी बेटी के साथ भी पति तुल्य दायित्व भी निभाने का प्रयत्न भी करती है .

पुरुष अपनी कमी का दोषारोपण भी पत्नी पर  करता है .. जैसे पत्नी के कारण वह माँ से विलग होता है , या बहन से मधुर रिश्ता नहीं निभा पाता . कुछ प्रकरणों में यह दोष सही भी हो पर अधिकांश में ऐसा नहीं होता है .

इसलिए पत्नी को सम्मान पूर्ण तरीके से पति और उसका परिवार भी देखे तो यह पत्नी के प्रति न्याय होगा .

और कई तरह की सामाजिक बुराईयाँ हमारे इस सच्चे दृष्टिकोण से कम हो सकेंगी .

पत्नी भी नारी के अति सम्मानजनक अवतारों में से एक है यद्यपि समाज में उसकी सच्ची पहचान नहीं प्रचलित है