Saturday, November 30, 2019

लड़की है, लड़कियों से कभी, गलती हो जाती है!

लड़की है, लड़कियों से कभी, गलती हो जाती है!


बलात्कार रोज हो रहे हैं दिन में ही कई कई हो रहे हैं लेकिन देश के मीडिया एवं सोशल साइट्स पर कोई कोई प्रकरण ही चर्चा का केंद्र बनता है। जनमानस को जो झकझोरता/आंदोलित करता है।
ऐसा ही हाल ही का प्रकरण #प्रियंका रेड्डी का है जिसने हर घर में, अपनी अपनी बहन/बेटी, पत्नी आदि की अस्मिता रक्षा को लेकर हर किसी को चिंतित किया है। चिंतातुर हममें से हर कोई ऐसे में अपनी अपनी समझ से अपने अपने सुझाव रख रहा है ताकि सभ्यता के इस दौर में ऐसी  पैशाचिक घटनायें, वर्तमान या भविष्य न रहकर इतिहास के काले अध्याय में सिमट जायें।
व्यक्तिगत रूप से ऐसी नृशंस घटनायें जब सुनने/पढ़ने या देखने में आती हैं तो मुझे निस्तब्ध करती हैं। कभी यह भी लगता है कि रोकथाम के सभी उपाय लोगों ने कह/लिख दिए हैं, विरोध भी पुरजोर हो चुका है। शासन/प्रशासन और न्यायालय भी संज्ञान लेकर समुचित कार्यवाही करने में जुट गया है। ऐसे में मेरा कुछ लिखना बनता नहीं है। मगर चूँकि हिंदी लेखक के रूप में सोशल साइट्स पर मेरी सक्रियता रहती आई है। मेरा एक छोटा सा पाठक समूह, इसे लेकर मेरे मन में क्या आया है, इसे जानने को कदाचित उत्सुक होगा। इसे अनुभव कर अपनी अवाक स्थिति से पार पाते हुए मैं लिख रहा हूँ, जो इस समाज के प्रति मेरे उत्तरदायित्व में होना भी मैं सम्मिलित मानता हूँ।
विषय पर लौटते हुए ऐसे क्रूर और घिनौने दुष्कृत्यों के कारण की खोज में निकलता हूँ तो देखता हूँ - मुझे "देश का सारा पुरुष वर्ग" (प्रकट है मेरे सहित) कोई कम या कोई ज्यादा, मुझे दोषी दिखाई देता है। इसे पढ़ने वाले मेरे पुरुष मित्र अगर मुझसे असहमत हो जायें तो मेरा सविनय आग्रह है कि वे सिर्फ निम्न प्रश्नों को लेकर स्वयं आत्मवलोकन करें - 
  • 1. क्या हमने अभिभावक होने की पात्रता के बाद संतान पैदा कीं हैं?
  • 2. संतान जन्मने के विचार से पहले यह विचार किया है कि हमारी कितनी संतान का होना यह देश सहन कर पायेगा?
  • 3. एक पुरुष होकर हमने छोटी या बड़ी छेड़छाड़ किसी लड़की/युवती से क्या कभी नहीं की है?
  • 4. क्या हम बहाने-बहाने से *शराब और देर रात्रि पार्टी के अंग नहीं होते हैं?
  • 5. क्या हम *पॉर्न वीडियो को देखना सामान्य रूप में स्वीकार नहीं कर चुके हैं? ( उपर्युक्त *4. एवं *5. "का व्यापार" मिलने वाले ग्राहक से फला-फूला है. दुर्भाग्य इसने भी रेप बढ़ाये हैं)
  • 6. बेटियों और बेटे को लेकर क्या हमारे विचार/सँस्कार में विचित्र भिन्नता नहीं है?
(प्रश्न और भी हैं मगर मुझे लगता है, इतने ही पर्याप्त हैं जो हममें से लगभग हर पुरुष को स्वतः ही कठघरे में कमोबेश दोषी मान लेने को मजबूर कर देंगे)
बेटे को लेकर कोई कह देता है "लड़के हैं लड़कों से गलती हो जाती है", क्या हमने बेटी को लेकर कभी सुना या स्वीकार किया, "लड़की है लड़कियों से कभी गलती हो जाती है"? लड़की का कुछ क्षम्य नहीं, वह ऑनर किलिंग की शिकार हो जायेगी या दुश्चरित्र कही जायेगी। अगर यही मानदंड हमारे बेटों को लेकर होते और वे भी ऑनर किलिंग के शिकार होते या दुश्चरित्र ठहराए जाते तो बलात्कार का कोई अध्याय इस समाज में लिखा ही नहीं जाता।अगर ऐसा होता तो बलात्कार को लेकर हमारा विरोध मात्र दिखावा सा नहीं लगता और जो यह सिर्फ दिखावा नहीं होता तो बलात्कार की रोकथाम हो जाती। और किसी प्रियंका के जीवन का अंत इस तरह दर्दनाक एवं अकालिक नहीं होता। क्षमा सहित, सभी को अपराधी ठहराने के दुस्साहस के लिए।
और
बेटी प्रियंका रेड्डी, क्षमा आपसे, हम वह देश, वह समाज नहीं हो पाए जिसमें आप अपना अनमोल जीवन पूरा तथा गरिमा से जी लेतीं।  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
01.12.2019
     

Thursday, November 28, 2019

आनंद तुझ में ही समाया भीतर, 'राजेश' पहचान तो जरा
संसार की हर चीज में फिर, नज़र आएगा तेरा आनंद भरा

तू पति - वह पत्नी

कई शिकायतें उससे तुझे

कई उसे भी तुझसे हैं

गर चाहता कहना उससे, उसकी भी तू सुन पूरी

चाहता कि वह बदले, तू भी खुद को बदल दिखा

Tuesday, November 26, 2019

यार का वेश धर कर यहां, लोग बहुत मिलते हैं
दगा खाकर उनसे, हम चारों खाने चित गिरते हैं

वह आदर्श जिसे पढ़ पाना ही होता बहुत मुश्किल
है कल्पना, उसे जी पाना होगा कितना मुश्किल

Monday, November 25, 2019

ज्यूँ ज्यूँ लेख कठिन होते गये
त्यूँ त्यूँ पढ़ने वाले बिरले हुए
आज के युग में रसास्वादन के
अब परंपरा व दिन अतीत हुए 

कदाचित! मै भी पुरुषोत्तम हूँ ....

कदाचित! मै भी पुरुषोत्तम हूँ .... 

अंजान नं. से कॉल आ रहे थे, ट्रू कॉलर में भी नाम नहीं बताया था। वह इन्हें अनदेखा करता रहा था। मगर जब पिछले चार घंटे में पाँचवी बार घंटी आई तो यह सोचते हुए कि कोई आपात स्थिति तो नहीं उसने स्वाइप कर कॉल रिसीव किया था -
दूसरी ओर से : (एक ग्रामीण युवती का स्वर सुनाई पड़ता है) परसोत्तम कहाँ है, उससे बात कराओ!
वह : यह पुरुषोत्तम का नं. नहीं है, आप सही नं. देख के लगाओ! (कहते हुए कॉल काटता है)
यह गलत कॉल परसोत्तम के लिए था, वह निश्चित ही उस युवती का परसोत्तम नहीं था। किंतु इस कॉल से उसका चिंतन ट्रिगर होता है।  "कदाचित! पुरुषोत्तम तो वह है"
फिर, उसका अपने आप से पुरुषोत्तम के मानकों पर परखने की प्रक्रिया यूँ आरंभ होती है।
( मानकों के तरफ के परीक्षण के प्रश्न, उसे 'मानक' रूप में एवं उसके उत्तर 'मैं', में  वर्णित हैं)
मानक : क्या पुरुषोचित कर्तव्य बोध है, तुममें?

मैं : हाँ, मैं परिवार,समाज, देश और मानवता के प्रति अपने कर्तव्य बोध रखता हूँ।
मानक : पुरुष में न्याय प्रियता होती है, है तुममें?

मैं : हाँ, अपनी तर्क क्षमता में मै, सर्व पक्ष परख, न्याय से पेश आता हूँ। 
मानक : तुममें, पुरुषोचित साहस है, नारी रक्षक हो खड़े होने का?

मैं : जी हाँ, मैं नारी दुर्दशा के प्रति संवेदनशील हूँ, मै उसे देखने की समाज दृष्टि लाने की, चेतना के लिए प्रयासरत रहता हूँ।

मानक : कहीं, तुम ईमानदारी पर, अपनी स्वार्थ लोलुपता तो हावी नहीं होने देते?

मैं : जी नहीं, मैं धन अर्जन में नैतिकता का विचार सदा रखता हूँ।
मानक : जीवन में पुरुषार्थ की प्रेरणा क्या तुम ग्रहण करते हो, औरों को भी क्या इस हेतु प्रेरित करते हो?

मैं : जी, पुरुषार्थरत रहने को मैं, जीवन सार्थकता जानता हूँ, अतः इससे स्वयं प्रेरित रहता हूँ , और अन्य को भी प्रेरित करने के उपाय करता हूँ।

"पुरुषोत्तम" होने के लिए इतने परीक्षण एवं उनकी पुष्टि होना उसे संतुष्ट करते हैं। 

वह 'मानदंड' पर, और परखे जाने को, आवश्यक नहीं मानता, तब लिखना आरंभ करता है -
"कदाचित! मै भी पुरुषोत्तम हूँ .... " 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
26.11.2019


 
         

Sunday, November 24, 2019

किसी के बुरे दिन में 'राजेश', वैसा मखौल न उड़ाओ
कि तुम पर आये विपत्ति में, जैसा मखौल सह न पाओ

स्वाभिमान ..

स्वाभिमान ...

गणेश, मैसूर के पास के अब्बूरु गाँव का रहने वाला है। आरंभिक विद्यालयीन शिक्षा उसके गृह ग्राम अब्बूरु में ही और फिर मैसूर में हुई है। कुशाग्र बुध्दि का होने के कारण उसने #CLAT में सफलता के बाद  उसके पापा ने उसे #NLSIU में प्रवेश दिलाया था। पढ़ते हुए ही वह #उत्तर_भारतीय सहपाठी सौम्या के प्रति आकर्षित हुआ था। प्रारंभ में सौम्या की गणेश में कोई रूचि प्रदर्शित नहीं हुई थी। लेकिन गणेश के #इक_दूजे_के_लिये वाले अंदाज में लगे रहने से, कोर्स पूर्ण करने में सफल होते होते वह, सौम्या के हृदय में भी अपने प्रति प्यार का बीज बो देने में सफल हुआ था।
गणेश ने जब हाईकोर्ट में वकालत करनी शुरू की थी, तब सौम्या जज होने की तैयारी में लगी थी। उस समय उन्होंने विवाह करना चाहा था लेकिन दोनों के घर में अपने अपने टैलेंटेड बच्चों के लिए अपने ही जाति में बेहतर रिश्ते होने से, सहसा विवाह को स्वीकृति नहीं मिल रही थी। तब गणेश ने जिस जिद से सौम्या के हृदय में प्यार के पुष्प खिलाये थे, उसी जिद से उसने, अपने एवं सौम्या के घरवालों को विवाह हेतु सहमत किया था।
दोनों का विवाह होने के साथ साथ, सौम्या जज होने में भी सफल हो गई थी। इस तरह प्रेम विवाह की नींव पर इनके  नये परिवार की रचना हुई थी।
दोनों के लालन पालन में #पृष्ठभूमि, #ग्रामीण/नगरीय और उत्तर/#दक्षिण_भारतीय के होने की भिन्नता के अलावा, इस #नवसृजित #दांपत्य के सफल होने के लिए, सारे कारण विध्यमान थे। दोनों #लव_बर्ड इस तरह इक दूजे में खोये थे कि आरंभिक छह मास का बीतना तो इन्हें पता ही न चल सका था। तदोपरांत मगर इक दिन - (आगे की कहानी 3 दृश्य के माध्यम से)

दृश्य-1

#रॉयल_मीनाक्षी_मॉल, के #एलन_सोली शॉप में गणेश और सौम्या जीन्स देख रहे हैं तब :-
 गणेश : सौम्या, तुम जीन्स नहीं कुछ और ले लेना।
सौम्या : (प्रश्नमय दृष्टि से) मेरे, जीन्स क्यूँ नहीं?
गणेश : यहाँ नहीं, इस बारे में घर पर बात करेंगे।
सौम्या के मुख पर एवं कंधे उचकाने से भावभँगिमा में विचित्रता की अनुभूति दर्शित होती है। 

दृश्य-2

रात बेडरूम में गणेश और सौम्या साथ लेटे हुए बात कर रहे हैं :- 
सौम्या : आपने मुझे जीन्स क्यों नहीं लेने दिये?
गणेश : सौम्या, हमारे पापा-मम्मी को, तुम्हें बहू के रूप में  जीन्स टॉप में देखना अच्छा नहीं लगता है।
सौम्या : ऐसा क्यों?
गणेश : वे इसे #नारी_गरिमा के अनुकूल नहीं मानते है।
सौम्या : आप पहनो गरिमा का सवाल नहीं, मैं पहनूं सवाल है, ये अजीब नहीं है? आप तर्क से समझाओ उन्हें।
गणेश : समझो ना, तुम्हारे ऐसे पहनावे पर, गाँव के लोग टीका करते हैं, उन्हें अप्रिय लगता है।   
सौम्या : आप, कॉलेज में मेरे जींस के पहनावे में देख मुझ पर #रीझे थे, #विवाह बाद इतना बदलने क्यों कहते हो? 
गणेश : (रुष्टता से) देखो, तुम यहाँ #जज नहीं बनो!
सौम्या : आप, क्या मुझे अब से ये #ताना दिया करोगे?
गणेश : (गुस्से से करवट दूसरी ओर लेते हुए) यार, सच में औरतों का दिमाग छोटे आकार का होने से छोटा ही होता है!
यह पहली बार उनमें #कडुआहट भरी #अप्रिय घटना का मौका था जिसने सौम्या को अचंभित किया था और रोष में भर दिया था । वह दूसरी ओर करवट लेकर सोने का प्रयास करती है। 

दृश्य-3

 पिछले तीन दिनों से सौम्या, गणेश की हर बात के जबाब में चुप्पी लगा कर #प्रतिरोध दर्शा रही है। गणेश के द्वारा उसे छूने की कोशिश में उसे झटक दे रही है। आज रात वे फिर साथ बेड पर लेटे हैं मगर सौम्या का मुख गणेश से विपरीत दिशा में है।
गणेश : (चिरौरी वाले स्वर में) सौम्या, सॉरी!
सौम्या : ( रुष्ट स्वर में) उस दिन क्या कहा था, आपने औरतों का दिमाग छोटा होता है! 
गणेश : ( खिसियाहट भरी हँसी के साथ, मनाता सा हुआ) हाँ, यह तो 'विज्ञान प्रमाणित सत्य है कि पुरुष की तुलना में स्त्रियों का दिमाग 10% छोटा होता है।' 
(यह सुन सौम्या उठकर बेड के सिरहाने से टिक कर बैठती है, गणेश भी अब उसके सामने बैठ जाता है)
सौम्या : (तर्कपूर्ण स्वर में) आपको पता है?, 'महान वैज्ञानिक #आइंस्टीन का दिमाग, पुरुषों के दिमाग से छोटा था।' 
गणेश : था तो, अपवाद है यह।
सौम्या : मैं यह कहना चाहती हूँ कि 'दिमाग के आकार से उसमें #कुशाग्रता का कोई संबंध नहीं!'गणेश : (सौम्या में आई नरमी से उत्साहित होते हुए) चलो, छोड़ो इसे सौम्या, मैंने पहले ही क्षमा तो माँगी है ना!
सौम्या : #क्षमा तो मैं करुँगी #वकील_साहब आपको, लेकिन विवाद में सही तय करते हुए मुझे फैसला तो देना होगा!
गणेश : (खुश होते हुए, हाथ जोड़कर) मी लार्ड: सुना दीजिये फैसला, मैं अमल करूँगा!
सौम्या : अमल तो आपको करना ही होगा अन्यथा आगे कड़ी सजा निर्धारित होगी।
गणेश : जी, वादा,आप सुनाइये फैसला!
सौम्या : (न्यायालय के जज वाली मुद्रा धारण करते हुए), वाद में पक्ष की दलील और तथ्यों को ध्यान में रख यह #अदालत इस नतीजे पर पहुँची है "कि #मुल्जिम गणेश ने अधूरे #तथ्य के सहारे से अपनी पत्नी को नारी बताते हुए स्वयं को पुरुष होने के नाते उससे ज्यादा दिमागदार बताने का प्रयास किया है। इस तरह #हावी होने की कोशिश की है। जबकि नारी का दिमागी तौर पर प्रदर्शन यदि कहीं कम भी दिखाई पड़ता है तो उसका कारण दुनियादारी में उसे कम #एक्सपोज़र एवं #शिक्षा की कमी होना रही है। अतः यह अदालत गणेश को उसकी पहली गलती मानते हुए माफ़ तो करती है मगर -#नारी जो #सहस्त्रों वर्षों से #आश्रिता होकर जीवन जीते रही है, उसके मन में चतुराई से पुरुष ने अपनी सुविधा के आधार पर, सही-गलत की व्याख्या करते हुए #धारणायें बिठाने में सफल रहा है, जिसमें नारी भी स्वतः अपने को पुरुष से #हीन मानने लगी थी।  मुल्जिम गणेश जो स्वयं #अधिवक्ता है, यह अदालत उसे आदेशित करती है कि वह अपने #परिवार/#गाँव वालों में #तर्कपूर्ण तथ्य रखते हुए उनमें #चेतना लाये कि नारी #मस्तिष्क की #क्षमता में #पुरुष से कमजोर नहीं है। साथ साथ ही वह अपनी तर्क शक्ति से समाज में व्याप्त ऐसी #भ्रामक धारणाओं को मिटाने का कार्य करे। इसके अतिरिक्त आगे भूल नहीं करते हुए गणेश, अपनी पत्नी को अपने बराबर का मनुष्य मानते हुए उसके #स्वाभिमान को ठेस लगाने का कोई कार्य नहीं करे। "(फिर हथेली से हथोड़े ठोकने की भँगिमा के साथ)  इसके साथ ही यह अदालत स्थगित की जाती है।
सौम्या के इतने कहने के साथ पिछले दिनों में उनमें आई कडुआहट दूर होती है। दोनों खिलखिलाकर हँसते हैं। तब सौम्या, गणेश के निकट सरकते हुए उसके कंधे पर अपना सिर रखती है, गणेश प्यार से उसके माथे का चुंबन लेता है।   

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
24.11.2019
    

Friday, November 22, 2019

कि मैं मनुष्य बनने में असफल रहा हूँ

कि मैं मनुष्य बनने में असफल रहा हूँ ...

आरोपित सिर्फ अन्य को किया जाना सर्वथा अनुचित है. अगर मैं ईमानदार होता हूँ तो आरोप स्वयं पर भी रखता हूँ, कि मैंने इस समाज, इस देश के प्रति, क्या अपने कर्तव्य निभाये हैं? और मेरे आचरण एवं कर्म क्या एक महान देश की अपेक्षा की पूर्ति कर सकें हैं? 

देश और समाज बनाने के आदर्श को जीते हुए हमारे लोगों ने प्राण तक तजे हैं, देश ऐसे जज्बों से बनता है।
हमने उघाड़ उघाड़ अपने दर्द देखें हैं, दूसरों में खामियाँ देखीं हैं और फिर अपने गलत किये को भी सही ठहराया है।

स्वयं पर समालोचक दृष्टि रख मुझे स्वयं अपनी बुराई/कमियाँ और खूबी/अच्छाइयाँ परखनी होंगीं। फिर तराजू के दो पलड़ों में एक पर बुराई/कमियाँ और दूजे पर खूबी/अच्छाइयाँ रख उनकी तौल करनी होगी। फिर मैं क्या हूँ, उसे कहने से पहले मुझे, ऊपर काँटे को निहारना होगा कि वह किस तरफ जा रहा है। काँटा यदि खूबी/अच्छाइयाँ की तरफ जाता है तो यह कहने का मौका औरों को देना होगा और अगर यह बुराई/कमियाँ की तरफ जाता है तो ईमानदारी से मुझे स्वयं कहना होगा कि मैं मनुष्य बनने में असफल रहा हूँ ... 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23.11.2019

Thursday, November 21, 2019

शिकायत की मैंने, कद्र अच्छे इंसान की दिखती नहीं कहीं

अंतर्मन बोला अधीर न हो, प्रेरणा हैं ये इंसानियत इनसे कायम है

उम्र आई 'राजेश' अब #सूरत में #खूबी नहीं बची खूबी कर्म में ला, #स्मृति_शेष तेरे कर्मों की बचेगी

Wednesday, November 20, 2019

एकांकी - क्लॉस मॉनिटर, सेफा (2) ..

एकांकी - क्लॉस मॉनिटर, सेफा (2) ..

(कक्षा में, बच्चों को पाठ्यक्रम से बाहर का टॉपिक बहुत रूचिकर लग रहा है, उनकी जिज्ञासा तनुजा मैडम की ओर है कि अब वह क्या कहने वाली हैं, तब)
तनुजा : बच्चों समाज में नफरत एवं बैर का होना प्राचीन काल से होता आया है, लेकिन आज व्याप्त, नफरत का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। 'आज की नफरत' जो हमारे उपमहाद्वीप के लोगों के ह्रदय को झुलसा के रखी हुई है, उसकी बुनियाद, आज से लगभग 72 वर्ष पूर्व अँगेजों के द्वारा रखी गई है। तुम जानते हो बच्चों, अँगेजों ने हमें लगभग दो शताब्दियों तक 'परतंत्रता की जंजीरों' में जकड़ा हुआ था। लेकिन जब 'स्वतंत्रता आंदोलन' से, उनका भारत पर शासन करना मुश्किल हो गया तो उन्होंने हमारे 'संप्रदायगत, भिन्न धार्मिक भावनाओं को कुटिलता से हवा दे दी'। तब धार्मिक उन्माद और कुछ व्यक्तियों की 'शासक बनने की व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं' ने हमारे देश के भोले भाले नागरिकों को 'विभाजन का अभिशाप' झेलने को बाध्य कर दिया। (थोड़ी चुप्पी लेती हैं, तब)
मोबेशिरा : मैडम, विभाजन, 'एक अभिशाप' या 'भीषण नफरत' की बुनियाद कैसे हुआ?
तनुजा : देश में इस विभाजन के बाद, नागरिकों को रहने का विकल्प चयन करना था। एक संप्रदाय के अधिकाँश लोगों ने 'नई खींच दी गई सीमा' के उस पार जाने का विकल्प चुना, वहाँ के इस संप्रदाय से अलग लोगों ने सीमा के इस पार आना चाहा था।
शालीन : इसमें बुरा कैसे हो गया?
तनुजा : दुर्भाग्य, इधर आने और उधर जाने के क्रम में अब तक, एक ही देश के, वासी रहे 'हमारे ही लोगों पर, कुछ शैतान लोगों ने अत्याचार, लूट एवं दुष्कृत्य बरपा कर एक कलंकनीय इतिहास बना डाला''नारी अस्मिता जो हर संप्रदाय को एवं हर परिवार में अपने पारिवारिक सम्मान, प्रतिष्ठा का प्रश्न होता है, उस पर लक्ष्य एक-दूसरों ने किया।' जिसका स्मरण आज तक भुलाये नहीं, भूलता और यही हादसे, आज भी, आपस में भीषण नफरत व्याप्त होने के कारण होता हैं।
अनन्या : यह नारी अस्मिता क्या होती है।
तनुजा : इसे कुछ बड़े हो जाने पर तुम समझोगी। अभी के लिए इसे यूँ समझो कि 'नारी अस्मिता ही मनुष्य समाज को जानवरों से भिन्न बनाता है, कहने को तो यह नारी अस्मिता है, मगर पुरुषों को भी अपनी मर्यादा में रहने को प्रेरित करती है, ऐसे कि वह अपने परिवार की नारी अस्मिता के महत्व को स्मरण रखे और स्वयं अन्य परिवार की नारी अस्मिता पर आँच आते कोई कृत्य ना करे। 'अमन : मैडम आपने पहले कहा है स्वतंत्रता के बाद खुशहाली का वातावरण, देश विभाजन के कारण नहीं बन सका, दो देश बन गए और अब 70 साल से अधिक हो गए तब खुशहाली में अड़चन क्या है?
तनुजा : (प्रशंसा से) अच्छा प्रश्न है अमन! कारण यह है कि विभाजित हुए दूसरे देश के शासक, अपना शासक होना सुनिश्चित करने के लिए, वहाँ के अशिक्षित लोगों को, 'बँटवारे के समय किए गए वहाँ के लोगों के दुष्कृत्यों के बारे में कुटिलता से छिपाते हुए सिर्फ हमारे लोगों का दुष्कृत्य ठहराते हैं', और इसका बदला लेना आवश्यक बताते हैं।
हरदीप : उस देश में वे क्या करते हैं, इससे हम पर दुष्प्रभाव क्या पड़ता है, मैडम ?
तनुजा : सीधे नहीं लड़ सकने की अपनी ताकत वह देश पहचानता है, इसलिए 'धार्मिक उन्माद उकसा कर नवयुवाओं को आतँक फ़ैलाने का प्रशिक्षित करता है, और उनका इस्तेमाल कर उनके प्राणों की कीमत पर हमारे देश में हिंसा और भय का वातावरण निर्मित करता है', जिसे रोकने के लिए हमें अपनी सैन्य ताकत और हथियारों पर अपने देश का बहुत बजट व्यय करना होता है। इस व्यय से हमारे विकास के कार्यों के लिए धन उपलब्धता कम हो जाती है। ऐसे स्वतंत्र होकर भी हम स्वतंत्र हो जाने के बाद की खुशहाली से वंचित रहते हैं। (थोड़ी चुप्पी ले कर विद्यार्थियों को निहारती हैं, फिर प्रश्न की मुद्रा में कहती हैं) बच्चों, समझ आया?     (कक्षा में समवेत स्वर गूँजता है, जी मैडम, तब सेफा की ओर लक्ष्य करते हुए, पूछती हैं) सेफा, क्या इस चर्चा का सार कह सकोगी?
सेफा : जी मेम, (कहते हुए खड़ी होती है, और कहती है) - "भारत पर शासन छोड़ने की कुंठा वश अंग्रेजों ने कुटील चाल चली और कुछ लोगों की शासन करने की महत्वाकाँक्षा जागृत कर दी, जिससे देश के विभाजन का दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय हुआ। इससे भी ज्यादा उपमहाद्वीप का दुर्भाग्य, यह रहा कि कुछ लोगों पर वहशियत सवार हुई जिन्होंने उधर से इधर और इधर से उधर आते परिवारों पर लूट,हत्या और दुष्कृत्यों को अंजाम दिया। 'पहले के मानव ज्यादा भले होते थे, हमारी इस धारणा के विपरीत', उनके अपने परिवार के लिए नारी अस्मिता कितनी महत्वपूर्ण होती है उसे भूल ,उन्होंने देश बदल रहे परिवारों की नारी की अस्मिता तार तार कर दी। ये हत्यायें और ये दुष्कृत्य भुला सकना निश्चित ही बहुत कठिन था। इसलिए इसका दुःखदाई स्मरण आज भी दोनों संप्रदाय को नफरत से भर देता है। किंतु उन हादसों को 70 साल से अधिक हुए हैं, जिन्होंने वे घिनौने कृत्यों को स्वयं अपने परिवार पर होते देखा और भुगता है, वे बेचारे अब इस दुनिया में रहे भी नहीं हैं। ऐसे में अपने पक्ष की  करतूतों को भुला देना और दूसरे की याद रख कर बैर और नफरत के बहाने , आतँक का तांडव और युध्द का आसन्न संकट बनाये रखना, उनकी अब की संतति/पीढ़ी के साथ अन्याय है जो जीना चाहती है, जीवन मिला है उसे सार्थक करने की चाहत रखती है, जिसका विभाजन पर हुए वहशीपने से कोई वास्ता नहीं है। (विचार पूर्वक सेफा की भृकुटियों पर बल पड़ते हैं आवाज और बुलंद होती है) अगर अपने किये को भुला दिया है तो कोई बात नहीं अब समय अन्य के किये को याद रख नफरत में जलने/जलाने का नहीं अपितु उसे भी भुला देने का है। ताकि आतँक और युध्द के खतरे से निश्चिंत रह कर आज की पीढ़ी इस महाद्वीप के जीवन को उच्च मानवीय संवेदनाओं सहित संमझने में समर्थ हो और एक दूसरे के लिए खतरा न बनते हुए सहयोगी कार्यों से यहाँ भी पाश्चात्य देशों सा विकास ,व्यवस्था और खुशहाली देने में समर्थ हो सके। "   
(तनुजा सहित पूरी कक्षा सेफा का ओजस्वी कथन, मंत्रमुग्ध सी सुनती है, सेफा के चुप होने पर, तालियों से कक्षा तब गुंजायमान हो उठती है)
तनुजा : (भावाभिभूत होते हुए, तालियाँ रुकने पर ) कहती है, वाह, सेफा में धन्य हुई हूँ, तुमने मेरी 'बात को नई पीढ़ी की अभिलाषाओं से मिलाते हुए' कितना अच्छा सार निकाल कक्षा के सम्मुख रखा है.

(क्रमशः जारी)
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
21.11.2019

Tuesday, November 19, 2019

आवश्यक नहीं 'राजेश', बहुतों को पसंद आये वह लिखो
आवश्यक है कि विनम्रता से, अच्छा हो तुम वह लिखो 

एकांकी - क्लॉस मॉनिटर, सेफा .. ..

एकांकी - क्लॉस मॉनिटर, सेफा .. ..

अवकाश प्राप्त, प्रथम श्रेणी अधिकारी रहीं तनुजा, अब अतिथि शिक्षक की तरह, स्कूल जाया करती हैं। आज वे शासकीय शाला में कक्षा आठ के विद्यार्थियों की नैतिक शिक्षा का विषय ले रहीं हैं। कक्षा में लगभग 40 छात्र-छात्रायें हैं वो कोर्स से अलग इंटरैक्टिवली एक टॉपिक लेना चाहती हैं।

तनुजा: बच्चों, आज हम 'जनसँख्या एक समस्या' पर चर्चा करेंगे, यह पाठ्यक्रम में नहीं है इसलिए मैं बताती जाऊँगी और उस पर आपमें से जिसके मन में जो प्रश्न आएगा वो मुझसे पूँछ लेगा, समझे?
समवेत स्वर गूँजता है, 'जी मैडम'!
तनुजा: बच्चों मालूम है, लगभग सत्तर साल पहले जब देश स्वतंत्र हुआ था, आबादी सिर्फ 30 करोड़ थी और आज कितनी है? (प्रश्नवाचक निगाहें क्लास पर करती हैं) .
मोबेशिरा : खड़े होकर, जी मैडम 1 अरब 30 करोड़!
तनुजा: बच्चों यह भी एक कारण है, जिससे हमें मिली स्वतंत्रता में हमें जैसा खुशहाल वातावरण बनाना था, वैसा हम अब तक बना न सके हैं।
अमन : और अन्य कारण क्या हैं मैडम कि हम खुशहाल न हो सके?
तनुजा: अमन, देश का विभाजन होना, दूसरा बड़ा कारण है, लेकिन पहले  यहाँ जनसँख्या पर  केंद्रित रहेंगे। जानते हो बच्चों हमारा देश विश्व की पूरी जनसँख्या में 17.71% की हिस्सेदारी रखता है जबकि देश का भौगोलिक क्षेत्रफल विश्व का मात्र 2.4%  है।

अनन्या : इसका अर्थ हम क्या लें, मैडम?
तनुजा : अनन्या, तुम्हारा घर और तुम्हारी सहेली का घर बराबर है, और दोनों घर की आमदनी समान है, मगर तुम 2 भाई-बहन हो और सहेली, 5 भाई-बहन हैं तो क्या होगा? सोच सकती हो?
अक्षय : जी मैडम, अनन्या के घर में पढ़ने को अलग कक्ष मिलेगा, सहेली को नहीं। और अनन्या के कपड़े,खाना, कार आदि सहेली से अच्छी होंगी।
अनन्या : और मैडम , मेरी मम्मी काम से थकेंगी नहीं मेरे पापा को अनैतिक रूप से कमाई करने का दबाव भी नहीं होगा।
तनुजा : सही समझा तुमने, सभी बच्चों को समझ आया?
समवेत स्वर गूँजता है, जी मैडम जी।
राजीव : मगर मैडम, मेरे पापा को इतनी सरल बात की समझ क्यूँ नहीं रही?, हम छह भाई-बहन हैं! 

तनुजा : बेटा ये अशिक्षित होने से होता है। धर्म के नाम राजनीति करने वाले अपने सम्प्रदाय की जनसँख्या बढ़ाने के लिए उकसाते हैं, जिसे शिक्षा के अभाव में तर्क बुद्धि नहीं होने से अशिक्षित समझ नहीं पाते हैं कि ऐसा करने पर उन्हें क्या अभाव रहेंगे और देश पर कितना भार पड़ेगा !

हरदीप : (शरारत से चिढ़ाते हुए) राजीव, के इतने सारे भाई-बहन!
(क्लॉस में बच्चों की हँसी, गूँजती है)
तनुजा: (हाथ के इशारे से चुप कराती हैं, फिर कहती हैं) देखो बच्चों, किसी को इस तरह चिढ़ाना ठीक नहीं होता, विशेषकर उन बातों के लिए, जिन में उनका स्वयं का कोई दोष नहीं होता। हमारे इस तरह चिढ़ाने से राजीव के मन में बैर, नफरत का बीज पड़ सकता है।
राजीव : (हरदीप की बात और हँसी को अनसुना करते हुए पूछता है) मैडम, अनन्या ने अनैतिक कमाई की जो बात की है, क्या ये सिर्फ कमजोर परिस्थिति के लोग ही करते हैं?
तनुजा: (खुश होते हुए) देखो बच्चों, राजीव ने हरदीप से, और हँस रही क्लॉस से चिढ़ते या उकसावे में नहीं आते हुए, कितना अच्छा प्रश्न उठाया है, इसे कहते हैं शिक्षा से तर्क बुध्दि ग्रहण करना, (फिर निर्देश के स्वर में) सब बच्चों राजीव के लिए क्लैपिंग करो।

(क्लास में तालियों की आवाज गूँजती है. फिर तालियाँ थमती है, तब)
वसीम : मैडम आपने, मन में बैर, नफरत के बीज का उल्लेख किया हमारे देश में यह बहुत पाया जाता है, इसका क्या कारण है?
तनुजा : ( थोड़ी चकित होते हुए) बच्चों, आपसे जो प्रश्न आ रहे हैं, वे थोड़ी बड़ी कक्षाओं के स्तर के हैं लेकिन इन्हें मैं सरलता से समझाने का प्रयास करुँगी, ये हैं 

1. अनैतिक धन अर्जन क्या सिर्फ अभाव ग्रस्त लोग करते हैं?, और  

2. देश में नफरत बैर की व्यापकता के कारण। 

लेकिन पहले मैं पूछती हूँ, हमने अब तक चर्चा की है आप बच्चों ने उसका सार क्या समझा है?  (फिर - सेफा के तरफ ऊँगली के इशारे के साथ) सेफा, तुम क्लॉस मॉनिटर हो तुम बताओ।

सेफा :  (खड़ी होती है, फिर विचारपूर्वक कहती है) मेम, "हमारे देश का विस्तार, दुनिया के भूभाग के सिर्फ 2.4 हिस्से में होते हुए, इसमें दुनिया की आबादी का 17.71 हिस्सा निवास करता है। जिससे हम, भारत के नागरिक, समस्याओं में जीवन यापन करते हैं। अशिक्षा से, और स्वार्थी उकसावों में आकर हम, तार्किक सोच नहीं रखते हुए, स्वयं अपने परिवार पर अभाव आमंत्रित करते हैं। फिर अनैतिकता से कमाते हुए समाज पर अन्य समस्यायें थोपते हैं। हम अपने मनोविनोद, हँसने के लिए औरों की कमजोरी को लक्ष्य कर ताने देकर, उनके मन में घृणा और नफरत के बीज डालते हैं, फिर उस वातावरण में सौहार्द्र नहीं होने से जीवन में मिल सकने वाले सुख से वंचित रहते हैं और अपने साथ ही, औरों के आनंद को भी क्षीण करते हैं।"

(कह कर सेफा चुप होती है, बच्चों की तालियों की गड़गड़ाहट में स्वयं तनुजा ताली बजाती हैं फिर)

तनुजा : (अचरज से, तथा प्रशंसनीय दृष्टि से निहारते हुए) सेफा, तुम क्यों क्लॉस मॉनिटर हो, तुमने अपनी इतनी सटीक व्याख्या से इसे सिध्द किया है, मैं स्वयं ऐसे स्टूडेंट्स के बीच होने से गौरव अनुभव कर रहीं हूँ, मुझे उत्साह मिला है कि मैं चर्चा में उभरे प्रश्न के उत्तर में आप सब को समझाऊँ।         


(क्रमशः जारी) 
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
19.11.2019

Monday, November 18, 2019

लिफाफा ..

लिफाफा ..

स्कूटी पंक्चर देखी थी, ऑफिस के लिए लेट हो जाएगी बनवाने के चक्कर में, इसलिए घर से मीनाक्षी, ऑटो से जाने के इरादे से पैदल निकल गई थी। चौराहे पर ऑटो देख रही थी तभी एक बलेनो उसके ठीक बाजू में आ रुकी थी। ड्राइवर ने साथ वाली सीट का गेट खोलते हुए कहा था - चलिए मै छोड़ देता हूँ ऑफिस। यह 28-30 साल का युवा, राघवन था, जो एक सप्लायर के प्रतिनिधि बतौर ऑफिस में आता था। ऑफिस को देरी न हो जाए इस दबाव में अनचाहे ही मीनाक्षी कार में बैठ गई थी। राघवन के हँस हँस के मृदुलता से बात करने से समय का पता नहीं चला था, और ऑफिस आ गया था। रास्ते में राघवन द्वारा पूछने पर, मीनाक्षी टाल न सकी थी और अपना मोबाइल नं. उसे दे दिया था।
मीनाक्षी एक सरकारी ऑफिस में चीफ इंजीनियर के स्टेनो के रूप कार्यरत थी, अभी उम्र 26 थी। उसके कार्यालय से सड़कों और ब्रिज के करोड़ों के कॉन्ट्रैक्ट जारी होते थे। उस दिन के बाद राघवन के व्हाट्सएप्प संदेश उसे आने लगे थे। फिर यूँ ही कॉल भी आने लगे। वह बात मधुरता से करता जिससे मीनाक्षी को लगने लगा था कि, हो न हो वह उसे चाहने लगा है।
कोई महीने भर बाद एक दिन मोबाइल पर राघवन ने कार्यालयीन ऐसी जानकारी पूछी जो गोपनीय थी, लेकिन मालूम नहीं कैसे मीनाक्षी ने उसे बता दी थी। उसके 15 दिनों बाद उसे अकेला देख राघवन उसके कक्ष में आया था और उसने एक लिफाफा उसे थमाया था। जब तक कुछ समझ पाती, राघवन हँसते हुए आकर्षक एक मुस्कुराहट दे जा चुका था। लिफाफे पर मीनाक्षी लिखा हुआ था। चोरी जैसा छिपाते हुए, जिसे मीनाक्षी ने अपने बेग के हवाले कर दिया था, क्या है उसमें उसे देखने का साहस उस समय वह नहीं कर पाई थी। 
फिर रात घर में उसने लिफाफा खोल के देखा था। उसमें 1000 रु थे। तब पहली बार अपनी तरफ से राघवन को उसने कॉल किया था, बात हुई थी -
मीनाक्षी: यह क्यों?
राघवन : (हँसते हुए)  मीनाक्षी जी हमारी कं. मदद का शुल्क अदा करती है, हमें किये फेवर के लिए हैं यह।
मीनाक्षी: (हड़बड़ाते हुए) अच्छा!
तभी मीनाक्षी ने, पापा को सामने आया देख इतना कह सकी थी, फिर कॉल खत्म कर दिया था। रात बिस्तर पर अकेले में उसकी आँखे नम थी। प्यार का भ्रम था, जो टूट गया था। उससे रिश्वत लेने का पाप भी हो गया था।
अगला दिन आज रविवार है। अवसाद से भरी मीनाक्षी ने मानसिक सहारे के लिए अपने 'आदर्श प्रेमी' एवं शिक्षक, पापा से दोपहर में राघवन को लेकर कल तक की सारी बातें बताई है। जिस पर पापा को क्रोध आता है किंतु दो तरह से छली गई बेटी के इस समय के मनोविज्ञान को समझते हुए स्वयं पर नियंत्रण करते हैं, समझाते हुए कहते हैं -
"मीनू, हमारा देश, भ्रष्टाचार के जबड़े में फँसा हुआ है, रिश्वत ने हमारे सेवाकर्मियों और राजनेताओं को अपने मोहजाल में अजीब तरह से फँसा रखा है, रिश्वत लेते हुए इन्हें बेहद ख़ुशी होती है लेकिन देते हुए बहुत बुरी लगती है। मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है कि मनुष्य में 'नारी' की तुलना में 'पुरुष', बुरा संस्करण है। ऐसे में जब युवतियाँ नौकरी और राजनीति में ज्यादा आने लगीं थीं तो मुझे आशा थी कि इनके हाथों से भ्रष्टाचार के अभिशाप से हमारे देश को कुछ राहत मिलने लगेगी। तुम्हारा लालन पालन मेरे परिवार में हुआ है, इससे मुझे आशा है कि तुम मेरी तरह धन लालच के दुष्प्रभाव में अन्य जैसी बुरी नहीं बनोगी ,अपितु तुम पर यदि प्रभाव किसी बात का पड़ेगा तो निश्चित ही वह अच्छाई ही होगी। इसका प्रमाण यह है कि जब तुम्हें राघवन ने प्रेम का भ्रम देकर अपने स्वार्थ  तथा मंतव्य पूरा किया है तो उसमें तुम्हें ग्लानि हुई है और मुझसे इस संबंध में मार्गदर्शन चाहती हो। "थोड़ा चुप होकर पापा फिर विचारते हुए कहते हैं
"संभवतः राघवन धन के दुष्प्रभाव और प्रेम के भ्रम में रख आगे तुम्हें और कर्तव्यच्युत करे और दैहिक शोषण का प्रयास भी करे।  बिना ज्यादा क्षति के अभी ही भूल सुधारने का उचित समय है। तुम ज़माने की नकल में खुद के अस्तित्व को विलीन नहीं होने दो। तुम स्वच्छता से कार्य में भी इतना अर्जित कर सकोगी कि जीवन यापन हो जाएगा। तुम अपना वह अस्तित्व बनाये रखो जिससे नारी पुरुष से श्रेष्ठ मनुष्य होती है। "इस तरह समझा कर पापा ने मीनाक्षी का ग्लानि बोध मिटा दिया था।
अगले दिन मीनाक्षी ने ऑफिस में कॉल कर राघवन को बुलाया था उसका लिफाफा उसे वापिस किया था। ऐसा फिर करने को दृढ़ता से मना किया था। और बाद में उसके नं. को ब्लॉक कर दिया था .... 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
18.11.2019

Friday, November 15, 2019

सुकून तो खुद में रहा, मैं ढूँढता रहा उसे दरख्तों में
दरख्त देते आबोहबा, इंसानियत की बयार बहाने को

कहने के पहले उचित-अनुचित सोचना बहुत पड़ता है
कुछ नहीं कह कर मैं, अनुचित कहने से बच जाता हूँ 

आरुषि, मेरी बेटी है ...

आरुषि, मेरी बेटी है ...

भाई आशीष, बहन आरुषि, से  दस वर्ष बड़ा था। आरुषि ने बचपन से ही मम्मी (लता), पापा, आशीष और स्वयं के बीच अत्यंत अनुराग और परस्पर विशेष देखरेख का अत्यंत सुखद वातावरण देखा था। आशीष के विवाह के समय आरुषि 15 की वर्ष थी। आरुषि ने, अनुभा भाभी के आने के बाद कभी कभी लता और अनुभा में कटु वाद-विवाद होते देखे थे। ऐसे दृश्य घर में पहले कभी न होते थे। इन विवादों से लता-अनुभा में कई बार अनबोला हो जाता था। सदा प्रसन्नचित्त रहने वाले भैय्या के मुख पर ऐसे हर मौकों पर, आरुषि चिंता की लकीरें देखा करती थी। अनुभा, नारी विषयक पत्रिकायें पढ़ती थी। कभी कभी लगातार पढ़ाई से ऊब हो जाने पर, आरुषि भी इन पत्रिकाओं को पढ़ लिया करती थी। उनमें पढ़े गए लेख-कहानियों से जितनी समझ आरुषि को मिली थी, उसमें, मम्मी और भाभी के बीच के विवादों में उसे, मम्मी की खराबी ज्यादा दिखती थी। कभी आरुषि ने इस कारण भाभी के पक्ष में कुछ बोलना भी चाहा था तो मम्मी की तीखी दृष्टि उसे चुप रहने को बाध्य कर देती थी।
पापा इन झगड़ों के बीच में कभी न पड़ते थे। भैय्या भी धर्मसंकट में पड़ कर चुप ही रहते थे। दिन ऐसे ही बीतते जा रहे थे। इन्हीं सब के बीच अनुभा ने एक बेटी और एक बेटे को भी जन्मा था। घर में नए बच्चों सहित सभी सदस्यों में बेहद अपनापन होता था। परायापन बस अनुभा के प्रति ही मम्मी के बोलचाल एवं व्यवहार में देखने में आता था। 

आरुषि जब बीस वर्ष की हुई थी तब से भाभी, कभी कभी अपने मन की व्यथा उसे कह देती थी। मम्मी की ओर से अकारण भाभी को सताये जाने को लेकर आरुषि का मन सहानुभूति से भर जाता था। मम्मी के प्रधानता से हावी रहने के स्वभाव के कारण, कलह बढ़ने का खतरा भाँप, उनसे कोई भी कुछ कहने से बचता था। सासु माँ वाले अपने व्यवहार का प्रभाव बेटी के मन पर क्या पड़ता था लता, इससे अनभिज्ञ ही थी। 

ऐसे ही आरुषि की पढ़ाई पूर्ण हुई थी और उसे जॉब करते हुए जब 1 वर्ष भी हो गए, तब उसके विवाह की बातें होने लगीं थीं। उस समय आरुषि की कल्पना में, अपनी मम्मी का अनुभा के प्रति व्यवहार दृष्टिगोचर होता था। वह, अपनी सासु माँ द्वारा खुद से, ऐसे ही व्यवहार की कल्पना से विवाह के नाम से डर जाया करती थी। वह विवाह के लिए ना-नुकुर करती रही थी, मगर इसे, उसका सहज संकोच माना गया था। फिर अनचाहे ही उसका विवाह साहित्य से हुआ था। अपने परिवार में साहित्य एकलौती संतान थे। साहित्य के पापा का देहांत, आरुषि के ब्याह के तीन वर्ष पूर्व हो चुका था अतएव ससुराल में साहित्य और उसकी माँ नयना ही साथ रहती थीं।

आरुषि को साहित्य के रूप में न केवल एक बहुत नेक पति मिले थे वरन उसकी कल्पना से सर्वथा विपरीत नयना के रूप में माँ के ही समकक्ष लाड़-दुलार करने वाली सासु माँ भी मिली थीं। मोबाइल पर बातों में और मायके जाने पर घर में, सभी से आरुषि, इनकी अच्छाइयों का बखान करती तो सभी बहुत खुश होते थे। आरुषि विशेषकर लता से नयना के माँ रूप वाले स्नेह की चर्चा प्रमुखता से करती जिस पर लता गदगद होतीं। किंतु जिस आशय से आरुषि बताया करती थी उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती थी। मम्मी के भाभी के प्रति बर्ताव में कोई परिवर्तन नहीं होता था।
पलक झपकते तीन वर्ष बीते थे, जिसमें सब कुछ ठीक के बीच आरुषि के दो बार आरंभिक महीनों में ही गर्भपात हो जाना ही थोड़ी चिंता और परेशानी का विषय बना था। अब जाँच से आरुषि को, पुनः डेढ़ माह के गर्भ की पुष्टि हुई थी। डॉ. ने अगले दो महीने पूर्ण आराम तथा नियमित अंतराल में जाँच कराने को कहा था। उसे झटके से उठने बैठने, तेज चलने आदि की मनाही की गई थी।
--दृश्य 1 --
मायके में ज्ञात होने पर, बेटी के लिए समुचित व्यवस्थाओं की सुनिश्चितता की दृष्टि से लता बेटी के ससुराल आईं हैं। आरुषि अपने शयनकक्ष में बिस्तर पर सिरहाने के सहारे अधलेटी है। नयना एवं लता पास ही कुर्सियों पर बैठी हैं। उनमें वार्तालाप चल रहा है। तभी आरुषि की मुखाकृति देख नयना त्वरित रूप से उठती हैं, पलंग के समीप रखे कवर्ड पॉट को खोल कर आरुषि के मुख के निकट रखती हैं, आरुषि उसमें कै करती है, तब तक नयना उसके सिर और पीठ पर स्नेहिल हाथ फेरतीं हैं। उपरान्त, आवाज देतीं हैं -
नयना : सेविका, इधर आओ जरा!
सेविका : हाँ, मेडम जी (कहते हुए बाहर से कक्ष में प्रवेश करती है) .
नयना : (पॉट कवर करते हुये उसे देतीं हैं) यह लो तुम और बेटी को वॉशरूम तक जाने में मदद करो.
आरुषि, नयना के सहारे से पलंग के पास खड़ी होती है फिर सेविका जिसके हाथ में पॉट है के साथ कक्ष में लगे हुए वॉशरूम में जाती है। इधर
लता :  (कृतज्ञ भाव सहित) समधन जी, आप तो किसी माँ से बढ़कर, बहू की देखरेख कर रहीं हैं।
नयना : जीजी, ( लता उनसे बड़ी हैं) मेरी कोई बेटी नहीं थी, आपने मुझे एक सँस्कारित, गुणवान बेटी दे दी है। सब की दृष्टि में आरुषि हमारी बहू है, मगर मेरा हृदय जानता है, 'आरुषि, मेरी बेटी है'
लता सुन कर प्रसन्न दिखाई देतीं हैं। कुछ कहना चाहती हैं, तभी वॉशरूम से हाथ-मुहँ धो कर आरुषि वापिस आती दिखाई देती है। नयना आगे बढ़ कर उसे सहारा देते हुए वापिस बेड पर व्यवस्थित लेटने में सहायता करतीं हैं।
फिर और भी बातें उनमें होती है, जी शाँत हो जाने से अब आरुषि भी उसमें भाग लेती है।
--दृश्य 2 --
कल सुबह लता को वापिस जाना है। अभी रात के 10 बजे हैं। साहित्य एवं आरुषि अपने शयनकक्ष में जा चुके हैं। सेविका भी लगे हुए, सर्वेंट क्वार्टर में जा चुकी है। नयना के शयनकक्ष में, नयना और लता बेड पर ही बैठ बातें कर रहीं हैं।
लता : समधन जी, आप बहुत भली स्त्री हैं। आरुषि को बहुत स्नेह दुलार से रखतीं हैं। आरुषि के लिए, आपको और साहित्य को पाकर हमें लगता है हम अत्यंत सौभाग्यशाली हैं।
नयना : (मुस्कुराते हुए) जीजी, हम माँ'यें ही जानती हैं कि अपनी अनुकूलताओं से अधिक बच्चों की ख़ुशी में हमें हार्दिक सुख मिलता है।
लता : (हाँ मिलाते हुए) , जी वो तो है।
नयना : आरुषि और साहित्य को आप देखिये, उन्हें अपने जॉब में और घर के बाहर रहते हुए, उनकी मानसिक सुख-शाँति को कितनी चुनौतियों होतीं हैं।
लता : सही है, आपकी भलमनसाहत की तारीफ़ है, आप आरुषि का नाम ले रही हैं, साहित्य के पहले!
नयना : (अनसुना सा करते हुए, अपनी बात जारी रखती हैं) ऐसे में "हम माँ का कर्तव्य होता है कि उनकी मानसिक सुख-शाँति के लिए हम अपने किसी व्यवहार से चुनौती न बनें। हमारी पसंद-नापसंद उन पर लादने से उनकी कठिनाई ही बढ़ती हैं।" साहित्य के पापा से हमारा साथ भूतकाल हुआ है। हम भी अभी हैं कल नहीं होंगे। जबकि "आरुषि और साहित्य दोनों में साथ आज वर्तमान और कल भविष्य भी है। दोनों बच्चे एक दूसरे पर जान छिड़कते हैं, अत्यंत प्यार से रहते हैं। ऐसे में, मैं बहुत सतर्क रहती हूँ कि मुझे लेकर या मेरी किसी बात, व्यवहार को लेकर उनमें कोई मतभेद या धर्मसंकट की स्थिति निर्मित न हो।"
लता : (विचार करते हुए) जी!
नयना : (बाहर से उदासीन दिख रही हैं एवं स्वयं में तन्मय, तल्लीन हैं, मुहँ से अनायास ऐसे स्वर प्रस्फुटित हैं) अनंत (साहित्य के पापा) के जाने के बाद, अनुभव हुआ है कि "पति-पत्नी का साथ कितना महत्व रखता है। मेरे लिए आरुषि,साहित्य तो बच्चे हैं मगर वे आपस में पति-पत्नी हैं। मेरे शेष जीवन का सुख इन्हीं दोनों की ख़ुशी में है।" दुनिया वाले आरुषि को मेरी बहू कहें मगर मेरा हृदय उसे बेटी कहता है। "हम पर दायित्व होता है भली परंपरा देने का। एक पली बड़ी किसी और परिवार से हमारे घर आई, एक बेटी को हम अपने बेटे से कम प्यार नहीं दें तो कल वे भी अपनी संतान को ऐसा ही सिखाने को प्रेरित होंगे। और यही समाज में नारी दशा को सुधारने में सहायक भी होगा।"
यह सुन कर लता विचार को बाध्य होतीं हैं. फिर नयना-लता एक दूसरे से शुभ रात्रि कहतीं हैं। लता अतिथि कक्ष में जाती हैं। लता, सोने की चेष्टा करतीं हैं। 

अगली सुबह वापसी को रवाना हो जाती हैं।

--दृश्य 3 --
कुछ दिनों बाद आरुषि को अनुभा भाभी का वीडियो कॉल आता है, ज्यादा खुश दिखती हैं, भाभी कह रहीं हैं, 'आरुषि, मम्मी जी जब से तुम्हारे यहाँ से वापिस लौटीं हैं, बहुत बदली बदली अनुभव हो रहीं हैं'  ....    


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
15.11.2019






   



Friday, November 8, 2019

अलविदा ..

अलविदा .. 

मोनिका सिंह, ग्रामीण परिवेश के कृषक परिवार में बड़ी बेटी थी। उसके पापा एवं माँ - कम पढ़े लिखे सीधे सरल लोग थे। उनका परिवार ग्राम में कुछ ही धन-धान्य संपन्न परिवारों में से एक था। 
स्कूल में पढ़ते हुए अन्य लड़के-लड़कियों की देखा देखी उसने भी 17 वर्ष की उम्र में ही सन 2011 में फेसबुक आईडी बना ली थी। लड़कियों के फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट की भरमार होती है, वैसे ही मोनिका के साथ भी हुआ था। ऐसी ही रिक्वेस्ट उसे  उसे एक दिन दिवाकर गर्ग के नाम के एक व्यक्ति से भी आई थी। मोनिका ने ना जाने किस भावना से प्रेरित उसे एक्सेप्ट कर लिया था। फिर कुछ ही दिनों में दिवाकर की ओर से उसकी पोस्ट में कमेंट आने लगे थे। दिवाकर के कभी कभी मैसेंजर पर शुभ-कामनाओं के संदेश भी उसे मिलते थे। 
जिज्ञासावश एक दिन मोनिका ने दिवाकर की आईडी खंगाली थी। उपलब्ध विवरण दिवाकर को अवकाश प्राप्त उच्च सरकारी अधिकारी बताते थे। उनके घर-परिवार के पिक्चर्स सभी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के साक्षी थे। 
थोड़े कुछ दिनों में मोनिका का दिवाकर पर विश्वास बढ़ा था।  ऐसे में उसने अपने निजी व्दंद, उलझनें और समस्यायें दिवाकर से मैसेंजर पर शेयर करनी आरंभ कर दीं थीं। 
दिवाकर ने इनके प्रत्युत्तर देता और ऐसी शेयरिंग हेतु मोनिका को प्रोत्साहित किया करता था। दिवाकर के प्रभाव में आकर मोनिका ने अपने पारिवारिक और परिवेश का पूरा विवरण उन्हें स्पष्ट कर दिया था। दिवाकर उसकी हर उत्सुकता और उलझनों का उचित समाधान और मार्गदर्शन करते थे। यह सब मोनिका अपने एकांत में किया करती थी। मगर कभी कभी उसके मैसेंजर संदेश पर दिवाकर के प्रत्युत्तर कुछ समय अंतराल से मिलते थे। ऐसे में कभी कभी वह समय होता, जब वह परिवार में या अपनी फ्रेंड्स के बीच स्कूल में होती थी। यूँ तो यह कोई छिपाने वाला कोई अवैध काम नहीं था मगर उसके परिवेश में ऐसी बातों के बतंगड़ भी हो जाते थे, इसलिए मोनिका सतर्कता से इसे छुपे तौर पर करती थी।  
यूँ  ही दिन बीतते गए थे। 
इस बीच मोनिका, दिवाकर में अपने पापा की छवि देखने लगी थी। ना जाने कब यह परिवर्तन हुआ कि मोनिका, उन्हें दिवाकर जी से संबोधित करने  स्थान पर सादर उन्हें सर और कभी अंकल का संबोधन करने लगी थी। 
मोनिका को दिवाकर से पढ़ाई से लेकर, उम्र जनित लड़के-लड़कियों वाले आकर्षण एवं चक्कर, फिर हॉस्टल में और कॉलेज कैंपस में स्टूडेंट्स में फैली बुराई तक सब पर और हर तरह की उलझनों पर उचित निदान एवं मार्गदर्शन मिलने लगे थे। दिवाकर से संदेशों के आदान प्रदान से मोनिका के अवसाद जल्द दूर हो जाते थे। उनसे उसे सच्चाई पर चलने का मनोबल मिलता था। 
कदाचित यही कारण रहा कि मोनिका अपने ग्राम की अन्य लड़कियों की अपेक्षा ज्यादा शैक्षणिक योग्यता करने में सफल रही। अब से एक साल पहले, उसने चार्टर्ड अकाउंटेंट की पढ़ाई में सफलता प्राप्त कर ली। और अब एक सीनियर सी ए के कार्यालय में जॉब करने लगी थी। दिवाकर से मैसेज के क्रम अब भी अनवरत जारी थे, मगर विशेषता यह थी कि मोनिका ने इसे सबसे गोपनीय ही रखा हुआ था। 
उसे स्मरण था कि, किसी समय 
फेसबुक पर अपरिचितों पर विश्वास करने के प्रश्न पर दिवाकर ने, मोनिका को यह लिखा था कि अति विश्वास तो मोनिका का स्वयं दिवाकर पर भी नहीं करना चाहिए। 
मगर दिवाकर पर मोनिका का यकीन निरंतर बढ़ता गया था। तथा इन तमाम वर्षों में, किसी भी मौके पर मोनिका को दिवाकर पर शंका करने का कोई कारण नहीं मिला था। 
चार महीने हुए मोनिका के पापा ने अपने जाति में एक प्रतिष्ठित परिवार में एक सी ए लड़के जगजीत सिंह से मोनिका का विवाह करवा दिया। मोनिका ने इस सब की जानकारी भी दिवाकर को दी थी।  
दिवाकर से अपने संदेशों के सिलसिले को मोनिका ने जगजीत को भी अवगत नहीं कराया था। ऐसे में कभी कभी ऐसा अवसर होता कि जगजीत होते और दिवाकर के मैसेज मिलते, ऐसे में वह असहज हो जाती थी। ऐसे कुछ मौके पर उसकी असहजता को जगजीत ने नोटिस कर लिया था।
दिवाकर के ऐसे संदेश प्राप्ति के समय एक दिन जगजीत ने असहज हुई मोनिका की मुखाकृति को देखते हुए पूछ लिया, मोनिका क्या है? जरा बताओ अपना मोबाइल! 
तब, अब तक राज रहा दिवाकर से संदेशों का सिलसिला मोनिका को अपने हस्बैंड से कहना पड़ा था। इस पर जगजीत ने न पूछा एवं न ही ज्यादा कुछ जाना था तथा आसाराम, राम रहीम तथा नारायण दत्त तरह के रंगीन तबियत के लोगों का हवाला देते हुए, मोनिका से दिवाकर को ब्लॉक करवा दिया। 
आठ वर्ष के किसी परिचित से ज्यादा हितैषी, इस अपरिचित व्यक्ति से अनाम रिश्ते का यूँ अंत, मोनिका के लिए वेदनादायी था। किंतु मोनिका को दिवाकर जी से ही हर परिस्थिति में खुश एवं संतुष्ट रहने की प्रेरणा मिली हुई थी। अतः जगजीत के सामने उसकी ये वेदना उजागर नहीं हुई.थी। आज मोनिका मायके आई हुई थी, किसी समय उसने दिवाकर से उनका मोबाइल न. लिया हुआ था जो एक पुरानी डायरी में उसे लिखा हुआ मिला था। मोनिका ने उस नं. पर कॉल किया था, दिवाकर जी ने इसे रेस्पॉन्ड किया था.
मोनिका ने बताया था, सर, मैं मोनिका बोल रही हूँ, यह सुन दिवाकर जी प्रसन्नता दर्शाई थी। तब, मोनिका ने सारी बातें बताई थीं। दिवाकर जी ने अपने को ब्लॉक किये जाने को उचित बताया था. उसे यह भी विश्वास दिलाया था कि उसमें यह योग्यता आ चुकी है कि खुद के विवेक पर चलते हुए अपनी खुशहाली, वह स्वयं तय कर सकती है। 
अंत में उन्होंने कहा था -
"मोनिका सद्प्रेरणा और अनुभव उस सरित प्रवाह सदृश्य है, जो सतत बहता है। मनुष्य जितना उपयोगी हो उसमें से ग्रहण करता है, जो शेष रह जाता है बहता हुआ वह सागर में जा मिलता है।"
ऐसे ही प्रवाह की परंपरा तुम जारी रखना मेरा शुभाशीष एवं हार्दिक शुभकामनायें, अलविदा ....  

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
08.11.2019

Wednesday, November 6, 2019

सही, क्या है? ...

सही, क्या है? ... 

ब्राह्मण परिवार में जन्मी अनुराधा के घर में सदस्य, माँ गुणमाला और एक छोटा भाई थे। पापा का तीन वर्ष पूर्व निधन हो गया था। उनके रहते तक अनुराधा को क्या सही क्या गलत है, का स्पष्ट मार्गदर्शन उनसे मिल जाता था। ऐसे ही को-एड में पढ़ने का उसे, कॉलेज में जब पहला मौका आया, कॉलेज में प्रवेश दिलाते समय पापा ने कहा था, अनु तुम्हें यहाँ की शिक्षा के माध्यम से अपना अच्छा भविष्य सुनिश्चित करना है।  यहाँ लड़कों से प्यार व्यार के चक्कर में नहीं पड़ना है। तुम्हारी योग्यता हो जाने बाद अच्छे लड़के बहुत मिलेंगे। यह याद रखना कि दुनिया में सिर्फ उतने लड़के नहीं जितने कॉलेज में तुम्हें दिखेंगे। अनुराधा ने, पापा के इन निर्देशों का भली प्रकार पालन किया था। परिणाम स्वरूप वह अब एक वर्ष से एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत थी। 
अनुराधा को आज समस्या सही एवं गलत में पहचान करने में आ रही थी। बात ऐसी थी कि अनुराधा की कंपनी में उससे वरिष्ठ दो लड़के थे। उसे, जिनसे प्यार कहने से ज्यादा उसका दोस्ताना कहना उचित होगा।  इनके नाम आसिफ और अक्षय थे। आसिफ और अक्षय आपस में खास परिचित नहीं थे। पिछले एक महीने में दो अलग अलग मौकों पर अनुराधा से दोनों ने विवाह का प्रस्ताव किया था। बुध्दिमान अनुराधा रूपवान तो थी ही गुणी भी थी। अतः ऐसे प्रस्ताव उसके लिए प्रत्याशित ही थे। अनुराधा इन दिनों इनमें से किसका प्रस्ताव सहमत करे, इस उलझन में थी। कौन उसके लिए सही होगा उसे पशोपेश था। उसे, किसी दृष्‍टिकोण से निहारते जो बात सही लग रही थी अन्य दृष्‍टिकोण से वही गलत प्रतीत हो रही थी। यक्ष प्रश्न यह उपस्थित हो रहा था, कि सही क्या है! 
दोनों की यदि तुलना की जाए तो, आसिफ की कदकाठी और नयन नक्श अक्षय से बीसे थे। और अगर उनकी योग्यता को देखें तो दोनों के  उन्नति के अवसर समान थे। दोनों के गुण व्यवहार भी उसे समान मधुर लगते थे। दीपावली छुट्टी में उसे घर जाना था। अतः अनुराधा ने माँ के समक्ष यह बात रखने की दृष्टि से, दोनों से दो अलग दिनों में बारी बारी से डिनर पर चर्चा की थी। डिनर में इस संबंध में बातों के अंश ऐसे थे। 
(आसिफ और अनुराधा के बीच वार्तालाप) -
अनुराधा : आसिफ, आप लोगों में कुर्बानी पर उत्सवपूर्वक एक मूक पशु की जान ली जाती है, जबकि प्राण याचना के लिए उनके मिमियाने पर हम लोगों में करुणा उत्पन्न होती है। 
आसिफ : जैसे आपकी कुछ धार्मिक मान्यतायें हैं, वैसी कुछ हमारी हैं। यह दृश्य बार बार हम लोगों के सामने होता है इसलिए असहज हमें कुछ नहीं लगता। 
अनुराधा : दूसरी बात, आप लोगों में औरतों को बुर्के में रखना पसंद किया जाता है?
आसिफ : अनुराधा, कुछ वर्ष पूर्व तक आपमें भी बड़े बड़े घूँघट होते थे।    
अनुराधा : आपमें कट्टरता के बारे में क्या विचार है? मुझे लगता है प्रगतिशील बातें भी जिद से ग्रहण नहीं की जाती हैं। 
आसिफ : हममें अच्छाई ही होगी ना! तब तो इस्लाम के मानने वाले दुनिया में दूसरी बड़ी सँख्या में हैं।  
(डिनर के बाद इन बातों पर अनुराधा ने मंथन किया था। आसिफ के नज़रिये से देखें तो उसके तर्क सही थे।) 
(1 अन्य दिन में अक्षय के साथ डिनर में, उनके मध्य हुईं बातों के अंश यूँ थे)  
अनुराधा : आप अति संपन्न परिवार से हैं, ऐसे में आपको कई अच्छी लड़कियों के प्रस्ताव होंगे आपकी रूचि मुझमें ही क्यों है?
अक्षय : मेरा किसी को अच्छा मानना धन की अपेक्षा गुणों से है, आपमें मुझे गुणवती संगिनी होना दिखाई पड़ता है। 
अनुराधा : आप माहेश्वरी, मैं ब्राह्मण आपके घर में पसंद होगा ऐसा रिश्ता?
अक्षय : यह प्रश्न तो मुझे करना चाहिए, वर्ण आधार पर श्रेष्ठ आपके परिवार में क्या हमारे विवाह को स्वीकृति मिलेगी?
अनुराधा : (इस पर अवगत कराते हुए) मेरे पापा नहीं हैं, और ब्राह्मण में ही रिश्तों में दहेज की अपेक्षा होगी, जिससे मुझे घबराहट होती है। 
इन बातों के साथ उस रात डिनर हुई थी।
फिर अनुराधा दीपावली में अवकाश लेकर अपने घर आई थी। उत्सव मना चुकने के बाद एक दिन घर की बैठक में अनुराधा ने माँ गुणमाला से आसिफ और अक्षय के प्रस्तावों के बारे में बताया था। आसिफ के व्यक्तित्व को लेकर उसके तरफ, अपना ज्यादा आकर्षित होना भी उन्हें बताया था। और दोनों से डिनर पर हुईं चर्चा भी ज्यूँ के त्यूँ सुनाई थी। अनुराधा ने माँ से इन प्रस्तावों पर निर्णय करने को कहा था।  
तब गुणमाला ने उसके सिर पर हाथ फिराते हुए कहा था : अनु, हमारे कोई भी रिश्ते अच्छे या बुरे किसी दूसरे पर ही निर्भर नहीं होते, अपितु इस बात पर निर्भर करते हैं कि हममें कितनी क्षमता है कि हम अपनी प्रेरणा से किसी की कितनी बुराई दूर कर, अच्छाई पर चलने को प्रेरित करते हैं। यह तुम्हें पहचानना है कि तुम कितनी ऐसी चुनौतियाँ लेने में समर्थ हो। अनेक बार किसी को गलत लगते हमारे निर्णय भी अपनी बुध्दिमत्ता से रहते हुए हम उनके सामने सही साबित करते हैं। 
माँ को ऐसा कहते सुन अनुराधा को प्रतीत हुआ -  'जैसे माँ के श्रीमुख से पापा कह रहे हैं'। माँ ने स्पष्ट नहीं कहते हुए उसे हिंट बस दी थी। अनुराधा ने विचार किया था- आसिफ से शादी करने पर, आसिफ के परिवार और नाते रिश्तेदारों में अपनी जगह बनाने के लिए अनुराधा के समक्ष उनमें प्रगतिशीलता अपनाने को प्रेरित करना बड़ी चुनौती होगी। 
अवकाश बाद अनुराधा लौटी थी। एक दिन लंच में अनुराधा ने आसिफ को, उसके प्रस्ताव को अस्वीकार करने की सूचना दी थी। आसिफ ने नाराजी दिखाते हुए कहा था - मुझे इसका पूर्वाभास था कि तुम अपनी कौम जनित संकीर्णता से उबर न सकोगी। तब अपने स्वर को संयत रखते हुए आसिफ से कहा था, आसिफ, मुझसे ऐसा कहने के स्थान पर आप स्वयं विचार करना कि आपमें, अपनी बहन, बेटियों के अन्य कौमों में शादी के प्रश्न को लेकर कितनी उदारता है!
स्पष्ट था कि आसिफ समझ गया था, दुनिया में क्या हो रहा है, अनुराधा उससे अनजान नहीं। 
फिर लगभग तीन महीने बाद सादे समारोह में दोनों पक्षों के बहुत करीबी नाते रिश्तेदारों के आर्शीवाद की छत्रछाया में अनुराधा-अक्षय का विवाह हुआ था। अब आगे, माँ गुणमाला की सीख स्मरण रखते हुए आगामी जीवन में अनुराधा के लिए, अक्षय से विवाह के निर्णय को सबके समक्ष सही सिध्द करने की चुनौती थी।   

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
06.11.2019
 

Sunday, November 3, 2019

रूढ़ियाँ - जेनेरशन गेप ...

रूढ़ियाँ - जेनेरशन गेप ... 

रूढ़ियाँ, युवावस्था में चुभती हैं. रूढ़ियाँ, प्रौढ़ावस्था में प्रिय हो जाती हैं. युवा ह्रदय, रूढ़ियों को तोड़ने को व्यग्र होता है. मगर युवावस्था में जो कोई जिन रूढ़ियों को तोड़ नहीं पाता है, प्रौढ़ावस्था/वृध्दावस्था में उन्हें ही निभाने की बाध्यता अपनी संतान पर लादने के प्रयत्न करता है. जेनेरशन गेप यही कहलाता है. जो प्रौढ़/वृध्द कभी कभी अपने युवा समय के मन का स्मरण करता रहता है वह अपने बच्चों द्वारा त्याग दी जा रही रूढ़ियों के लिए, उनका स्वागत करता है. ऐसे परिवर्तन की स्वीकारोक्ति ही, 'मानव सभ्यता के विकास' में नए मुकाम सुनिश्चित करती है। 
इतनी बात के बाद अब यह उल्लेख उचित होगा कि - वृध्द/प्रौढ़ और युवाओं को सतर्कता पूर्वक देखना यह होता है कि तोड़ी जा रही चीज रूढ़ियाँ ही हों, स्वस्थ परंपरायें या अनुकरणीय मर्यादायें नहीं हों.
उदाहरण - 'शाकाहार' एवं 'मदिरा/धूम्रपान निषेध', स्वस्थ परंपरा है. इन्हें रूढ़ि मान तोड़ना अनुचित है. माँसाहार एवं मदिरा/धूम्रपान सेवन कई बार मर्यादा तोड़ने का कारण बनता है. 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04.11.2019

Friday, November 1, 2019

प्यार तो मैं तुम्हें ही करता हूँ, ना!

प्यार तो मैं तुम्हें ही करता हूँ, ना! 

आज व्यथित आफरीन अतीत के कुछ साल याद कर रही थी। बेपनाह खूबसूरती थी आफरीन में यही कारण था कि शाहरुख़, जो उच्च न्यायालय में वकालत करते थे, अपने परिवार सहित खुद उससे निकाह का प्रस्ताव लेकर आये थे। उनकी रईसी से प्रभावित, आफरीन के अब्बा ने उसकी 20 की उम्र में ही निकाह को मंजूर कर लिया था। लड़कपन की उम्र अभी गई ही नहीं थी कि 28 साला शाहरुख़, आफरीन के आज़ाद मन पर हावी हो गए थे। आफरीन की खूबसूरती पर लट्टू वह, उसे यूँ तो प्यार शिद्दत से करते थे मगर उनका, अपने पर मालिकाना सा व्यवहार आफरीन को अखरता था। जब वह पढ़ने कॉलेज आई थी सोशल साइट पर आफरीन ने आईडी बनाई थीं। तारीफ़ पसंद आफरीन ने जिन पर, अपनी खूबसूरती झलकाती अल्हड़ तस्वीरें पोस्ट कर रखीं थीं, उन्हें शाहरुख़ ने डीएक्टिवेट करवा दिया था। सोशल साइट की नई आईडी के साथ उसे प्रयोग की अनुमति तो थी, मगर अपनी खूबसूरती लिए, अब वह अपने परिचितों के बीच नहीं आ सकती थी। खुद खूबसूरत और जहीन होते हुए अपनी डीपी में तस्वीरें उसे अपने से कम खूबसूरत टीवी एक्ट्रेस जेनिफर विंगेट की डालनी होतीं थीं। आरंभ में यह पज़ेसिवनेस आफ़रीन को उतनी नहीं अखरी थीं। शाहरुख़ के घर में अमीरी के कारण सुख सुविधा कपड़े खानपान सब उसे मायके से बेहतर मिले थे. शाहरुख़ अक्सर कीमती तोहफे भी लाया करते थे. शाहरुख़ से, रात बिस्तर पर भी उसे कल्पनातीत सुख मिलता था। इन सबके बीच तीन वर्षों में ही एक बेटा और एक बेटी को आफरीन ने जन्म दिया था। दोनों बार उसके गर्भावस्था में डॉक्टर ने एहतियात रखने की सलाह दी थी। तब संबंधों के कम रखने के कारण शाहरुख़, बिस्तर पर अधलेटा, लेपटॉप लिए नेट सर्फिंग करता और 55 इंच के टीवी पर देखा करता था, जिसमें उसकी रूचि, आधुनिक पहनावों में सजी-सँवरी सुंदर लड़कियों के वीडियो और तस्वीरों के दर्शन में केंद्रित होती थी।  आफ़रीन को यह अजीब लगता था. आफरीन जो स्वयं बला की खूबसूरत थी, उसके लिए तो शाहरुख़ ऐसे पहनावे मंजूर नहीं करते थे मगर इन आधुनिक पहनावों में सजी लड़कियों को सम्मोहित और मुग्धता से  फॉलो करते थे। गर्भावस्था और बच्चों के थोड़े बड़ा होने तक तो आफ़रीन इसे नज़रअंदाज करती रही थी। लेकिन आफ़रीन ने, छोटी बेटी के पहले जन्मदिन पर पहनने के लिए शाहरुख़ से आधुनिक परिधानों को दिलाने की फरमाइश की थी। शाहरुख़, इन परिधानों में सजी लड़कियों को  नेट पर सम्मोहित हो देखा करते और आफरीन के रूप को अनदेखा करते थे। इस पर आफ़रीन की भावनाओं का ख्याल किये बिना ही शाहरुख़ ने सपाट शब्दों में यह कहते हुए कि 'हमारे यहाँ इन पहनावों की इजाजत नहीं' ऐसे वस्त्रों के लिए इंकार कर दिया।  आफरीन को इससे बेहद मानसिक पीड़ा हुई थी। बाद में मॉल/एयरपोर्ट आदि में उसकी मानसिक वेदना यह देख और बढ़ने लगी थी, जहाँ साथ आफरीन तो बुर्के में होती मगर शाहरुख़ का ध्यान (एवं नज़र), आफरीन और बच्चों से अलग वहाँ होतीं मॉडर्न और आकर्षक युवतियों में होता। यह सब सोचते हुए आफरीन ने, शाहरुख़ से सीधे बात करने की ठानी थी। रात जब बच्चे सो चुके तो आफरीन ने शाहरुख़ से बात आरंभ की थी-
आफरीन : जी, आप मुझे वे वस्त्र क्यूँ नहीं दिलाते, जिन्हें पहने, आपको और लड़कियाँ अच्छी लगतीं हैं।
शाहरुख़ : हमारे में इन वस्त्रों की इजाजत नहीं।
आफरीन : मुझे, आपका ऐसी दूसरी लड़कियों में खो जाना अच्छा नहीं लगता। अगर मैं इन्हें पहनूँ तो आप मुझ में खोयेंगे यह मुझे अच्छा लगेगा।
शाहरुख़ (कुछ रुष्ट से) : मैं, देखता बस हूँ प्यार तो मैं तुम्हें ही करता हूँ, ना!
आफरीन (तर्क की मुद्रा में) : अगर ऐसे ही मैं, गैर मर्दों को देखूँ और प्यार तुम्हें ही करूं तो?
शाहरुख़ (झल्लाते हुए) : आफरीन, औरतों को ऐसी इजाजत हमारी सँस्कृति नहीं देती। (फिर बड़बड़ाता हुआ करवट दूसरी तरफ करता है), सारा मूड ही ख़राब कर दिया इसने। 
आशा विपरित संक्षिप्त में और कडुआहट में बात खत्म हुई थी. आफरीन, शाहरुख़ के इस व्यवहार से मानसिक रूप से बेहद आहत और क्षुब्ध हुई थी। शाहरुख़ ने खुद ही चाहा था और आफरीन को निकाह कर लाया था। क्या इसलिए कि उसकी भावनाओं की उपेक्षा करे? और उसे घर बिठाये रखे यह कहते हुए कि औरत को इस बात की या उस बात की इजाजत नहीं !
तीन दिन बाद अम्मी से मिलने पर एकांत में उसने रोते हुए इस सबकी शिकायत की थी। मगर उनने उम्मीद के विपरीत शाहरुख़ के रुख का समर्थन करते हुए, आफ़रीन को ही पाबंदियों में रहना सीखने की ताकीद की थी। आफ़रीन को बेहद निराशा हुई थी। उसे अब आशा सिर्फ आपा से बची थी कि वह उसका साथ दे और शाहरुख को पाबंदियों को कम करने तथा आफ़रीन से प्यार से पेश आने को समझाये। इस वाकिये के लगभग दस दिनों बाद आपा आईं थीं। अकेले में आफ़रीन ने उन्हें हमराज किया था, सब कुछ विस्तार से बताया था। उसे दुखद आश्चर्य तब हुआ जब अंत में आपा कहने लगी - आखिर तुझे तकलीफ क्या है?, तुझे सारे सुख सुविधा मुहैय्या हैं. शाहरुख़ प्यार भी तुझे करता ही है। तुझे समझना होगा दो बच्चों के बाद वैसा प्यार तो होगा नहीं जो नई नवेली दुल्हन से होता है। तू अपने बच्चों में मन लगा उनकी सही परवरिश कर। जहाँ गम है नहीं उसमें तू बेकार गमगीन क्यूँ रहती है भला ? औरतों पर पाबंदी निर्धारित करने वाला शाहरुख़ नहीं है । सब पहले से चली आ रही रीत-रिवाज हैं। हमारी सँस्कृति है, जिसके कारण हम-तुम पर पाबंदियाँ हैं। तू भूल जा सब कुछ, तुझे औरों से ज्यादा अनुकूलतायें हैं उन्हें समझ और ख़ुशी से रहना सीख।   
आपा समझा कर चली गईं थीं. कहीं से साथ नहीं मिलने का आफ़रीन को बहुत अफ़सोस हुआ। उसके मन में विद्रोही विचार आने लगे, उसका मन तर्क करने लगा - 
'सामने सीने और जाँघों के बीच की थोड़ी संरचना के भिन्न हो जाने मात्र से पुरुष आजाद और औरत पर अनेकों पाबंदियाँ! पक्षपातपूर्ण ये भेदभाव क्यों? नारी जीवन को यूँ अभिशापित सा रखना, कौनसी सभ्यता? कहाँ की मानवता? मर्द, मनमर्जी को स्वतंत्र और औरत/लड़कियाँ गुलामी को विवश !'
सब सोचते हुए उसके दिमाग में दिवा दुःस्वप्न सा एक दृश्य कौंधा जिसमें 15-17 वर्ष बाद, आफरीन ख़ुद अपनी बेटी से यह कहती दिखाई पड़ रही है - 'दिया' (नाम), लड़कियों/ औरतों को इजाज़त नहीं अपनी मनमर्जी अनुसार ज़िंदगी जीने की .. 

(नोट - लेखक का अनुरोध, यह किसी कौम विशेष की कहानी नहीं, अपितु नारी-पुरुष की व्यापक कथा है, अपनी सुविधा अनुसार इसे, शाहरुख़ को चेतन, आफरीन को सुरीना, निकाह को विवाह, बुर्के को ओढ़नी,अब्बा को पापा, अम्मी को मम्मी, आपा को दीदी आदि शब्दों में बदल पढ़ा जा सकता है)  
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
02.11.2019

   





जलवे हर तरफ फैले, 'राजेश' लुफ़्त लेना औकात नहीं
आदत बदल अपनी, तेरा यूँ ललचाया जीना ठीक नहीं