Tuesday, August 31, 2021

मैं व्यथित हूँ (4)….

 मैं व्यथित हूँ (4)…. 

मेरे पड़ोस के इस मुस्लिम परिवार से निकट होने के प्रयोग में, मेरा स्वार्थ क्या था उसे यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है। दरअसल मैं 50 वर्ष का हुआ, तब मेरे विचारों एवं कर्मों में एक नई भावना जुड़ने लगी थी। इस मुकाम पर मेरे बच्चे समझदार हो चुके थे। इससे मेरे सीधे उत्तरदायित्व मुझे पूर्ण होते प्रतीत होने लगे थे। तब स्वयं अपने उत्थान को लेकर मेरी महत्वकांक्षाएं घटने लगीं थीं। इस उल्लेख का अर्थ कि मैं महत्वाकांक्षी कम होने लगा था, लेना त्रुटिपूर्ण होगा। 

वास्तव में मैं, पहले से अधिक महत्वाकांक्षी होते जा रहा था। तब मैं अपने जीवन के बाद की सोचने लगा था। मुझे लगता था, किसी दिन जब मैं नहीं रहूँगा, तब भी मेरे बच्चे और फिर आगामी पीढ़ियाँ, भारतमाता की ही गोद में पल्लवित हुआ करेंगी। मैं सोचता था, इन आगामी पीढ़ियों का सुखद जीवन तभी सुनिश्चित हो सकता है जब हमारा समाज वातावरण (परिवेश) हिंसा की आशंकाओं से मुक्त रहे, समाज में बेटी-बेटों दोनों को समान अवसर सुलभ रहें तथा समाज सौहार्द की परंपरा व्यापक हो। 

किसी दिन मुझे यह भी विचार आया था कि हम अपनी चाहरदीवारियों को मजबूत करलें और अपने वैभव में वृद्धि कर लें तब भी जीवन से हमें मिल सकने वाला अधिकतम सुख, हम नहीं उठा पाते हैं अगर हमारे घर की चाहरदीवारियों के बाहर हिंसा, वैमनस्य का चलन हो एवं वंचित लोग, बहुसंख्यक हों। 

अब मेरा ध्येय अपने परिवार एवं बच्चों के हितों से भी आगे, समाज हितों के लिए जीवन समर्पित करने का होने लगा था। तब समाज हित के लिए मेरे पास प्रदान करने के लिए कुछ है भी या नहीं, यह यक्ष प्रश्न, समक्ष उपस्थित हुआ था। निश्चित ही धन इतना नहीं था कि उसके माध्यम से मैं वंचितों की सहायता करता। तब एक ही बात बची कि ‘जीवन दर्शन’ की अपनी समझ मैं, अपनी लेखनी के माध्यम से स्पष्ट करूं और मैं, इससे ही समाज में चलते विचारों को सही दिशा देने के यत्न करूँ। 

मैं यह सोचता हूँ मानसिक सुख, धन कम होने पर भी मिलता है यदि हमारी वैचारिक दिशा सही हो। मैं यह भी मानता हूँ कि किसी की वैचारिकता सही करने में साहित्य बड़ा निमित्त होता है।    

यह तथ्य भी मेरे अनुभव में था कि हमारे इस समाज में मुस्लिम समुदाय भी गुजर बसर करता है। जिसमें आधुनिक शिक्षा और नई अच्छी और वैश्विक मानव समाज परंपरा की ग्राह्यता नहीं है। मेरे में महत्वकांक्षा का स्वरूप तो बढ़ता जा रहा था। इसे मूर्त रूप देने की भावना थी मगर इसकी कर्म परिणिती का अभाव दिखाई देता था। 

ऐसे में सन 2017 में शमीम भाई के परिवार से मेरी निकटता के अवसर आए थे। अल्पसंख्यक कहलाते हुए भी हमारे समाज में, इस्लाम अनुयायियों की बड़ी संख्या है यह सर्वविदित तथ्य है। भारत में आगामी सुखद समाज की मेरी कल्पनाओं में, मुस्लिम बच्चों को भी सर्वहितकारी दृष्टि मिलना आवश्यक लगता था। मैंने शमीम भाई के बच्चों में यह दृष्टि आए इस बारे में सोचना और कोशिश करना शुरू किया था। 

एक दिन जब नफीसा की छोटी बहन (मुन्नी) स्कूल बस के इंतजार में खड़ी थी। तब प्रातः कालीन भ्रमण को निकलते हुए, मैंने उससे जानकारी ली थी। वह कान्वेंट (मदरसे में नहीं) में कक्षा 9 में पढ़ रही थी। कान्वेंट में इसका पढ़ना, इस परिवार का कट्टरपंथ से मुक्त होकर प्रगतिशीलता का जिज्ञासु होना दर्शाता था। 

उन दिनों मैं अर्ली रिटायरमेंट के बारे में सोच रहा था। इसे लेकर मेरे दिमाग में यह प्रश्न भी रहता था कि - मैं सेवानिवृत्त होने के बाद, क्या किया करूंगा?

इस मुस्लिम परिवार से घनिष्टता के प्रयोग एवं सेवानिवृत्ति के बाद की दिनचर्या इन दो बातों को दृष्टिगत रखते हुए, ऐसी ही एक सुबह मुन्नी से मैंने, मेरे द्वारा उसे मैथ्स में गाइडेंस की इच्छा बताई थी। उसने इसकी जानकारी अपने घर में दी थी। फिर उनकी अनुमति से वह, मेरे अवकाश वाले दिनों में, मुझसे गणित पढ़ने आने लगी थी। उसे पढ़ाने के पहले, मुझे पढ़ना भी होता था। अपने उद्देश्य को ध्यान में रख सरल विकल्प, ‘अवकाश में आराम और मनोरंजन’ की जगह तब मैं, इस पर समय दे रहा था। 

अब शमीम भाई से भी, मेरी राह चलते कभी कभी कुछ बातें हो जाती थीं। इन बातों में मुझे ज्ञात हुआ कि वे डायबिटिक हैं। मेरा विश्वास ऐलोपैथी दवाएं अधिक लेने की अपेक्षा स्वास्थ्यबर्द्धक दिनचर्या और खानपान पर अधिक है। अपनी इस धारणा के अधीन मैंने, उन्हें नियमित प्रातःकालीन भ्रमण करने को कहा था। 

तब शमीम भाई कभी कभी प्रातःकालीन भ्रमण पर आते जाते, दिखाई पड़ने लगे थे। यह दुर्भाग्य था कि वे नियमित भ्रमण नहीं कर पाते थे। मुझे समझ आ रहा था कि बच्चों के लालन पालन एवं उनके लिए जिम्मेदारी के निर्वहन में उन्हें वक़्त, अपने व्यवसाय पर अधिक देना होता था। मुन्नी को पढ़ाने और इन्हीं कुछ बातों से, मेरी बहुत तो नहीं मगर कुछ घनिष्टता उनसे हो गई थी। 

तब हमारी सोसाइटी में एक स्ट्रे डॉग (आवारा कुत्ता) कहीं से भटकता हुआ आया था। उसे जिन घरों से खाना मिलता वह, उनके गेट पर दिन रात बैठा रहता था। वह इन घरों के अतिरिक्त अन्य निवासरत लोगों एवं आने जाने वालों पर खतरा हो गया था। 10-12 लोगों को उसने काटा भी था। शिकायत पर नगर निगम कर्मियों ने उसे 2 बार पकड़ कर शहर से दूर छोड़ भी दिया था। मगर दोनों ही बार कुछ ही दिनों में वह वापस आ गया था। लोगों पर उसके गुर्राने और काटने का सिलसिला जारी रहा था। अतः जब फिर शिकायत की गई तो इस बार कुछ लोगों के आपत्ति करने के बावजूद भी, निगमकर्मियों ने पहले उसे बुरी तरह मारा था। फिर उसे दूर मैदान में फेंक दिया था। 

शमीम भाई के घर से भी उसे खाने पीने को मिलता था। वह उनके गेट पर भी बैठा करता था। इससे उन्हें ‘भूरा’ (कुत्ते) से प्रेम हो गया था। शमीम भाई, उसी दिन लगभग मर रहे भूरा को, उठा ले आए थे। उन्होंने अपने गेट पर बोरा बिछा कर, (बेसुध) उसे वहाँ लिटा दिया था। उनकी देखरेख एवं प्रेम ने मर रहे, भूरा में नई जान डाल दी थी। भूरा के घाव, सात दिनों में बहुत भर गए थे। उसमें उसकी आक्रामक प्रवृत्ति पुनः पनपने लगी थी। हालांकि बाद में भूरा, खुफिया तौर पर उठवा लिया गया था और वह फिर वापस नहीं लौटा था। 

इस पूरे घटनाक्रम में, मैं शमीम भाई के व्यवहार से चकित था। मैंने उनसे नहीं कहा लेकिन खुद सोचता था कि शमीम भाई के मूक प्राणियों को लेकर, दो बिलकुल ही विपरीत भाव एवं कर्म थे। एक बकरे को तो वे हलाल कर सकते थे मगर मर रहे एक कुत्ते को पुनः जिला देने वाला प्यार भी वे दे सकते थे। 

अपने स्वभाव अनुसार मैं उन्हें इज्जत देते हुए ‘सर’ कहता था। वे मुझसे कम पढ़े लिखे थे और वस्त्रों की दुकान करते थे। सर, का संबोधन शायद उनके लिए नया था। मुझे पता नहीं उनमें कोई (इस्लाम अनुयायी होने से, तथाकथित काफिर (मुझ) से श्रेष्ठ होने का) अहं भाव था या वे, मुझे अपनी तुलना में कुछ अधिक मानते थे। उनका संकोच बना हुआ था इससे, हममें संबंध सिर्फ राह चलते के रहे थे। परस्पर एक दूसरे के घर आना जाना नहीं होता था। 

फिर एक दिन पढ़ने के समय मुन्नी, अपनी अप्पी के विवाह का कार्ड लेकर आई थी। उनके संकोच क्या थे मुझे पता नहीं, मगर इस विवाह का आमंत्रण मुझे शमीम भाई के द्वारा अपेक्षित था, जो बच्ची के माध्यम से मिला था।  

मेरा प्रयोग जारी था। मैंने अपनी तरफ से जाकर, अप्पी के विवाह का शगुन (भेंट) प्रदान किया था। और उनके द्वारा ना ना करने पर भी विवाह के लिए जाते हुए देर रात, उनके परिवार और रिश्तेदारों में से कुछ को अपनी कार से स्टेशन छोड़ा था। 

फिर वह समय आया जब शमीम भाई का पड़ोस, हमें छोड़ना था। अगले किराए के घर की तलाश में शमीम भाई ने बहुत सहायता की थी। वे चाहते थे कि कहीं करीब ही हमें ठीकठाक घर मिल जाए। उनकी भावना के विपरीत 8 किमी दूर हमें घर मिल पाया था। अतः हममें आए दिन हो सकने वाली बातों के अवसर खत्म हो गए थे। 

इसके एक वर्ष बाद, मैंने ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की थी। जब हमारा, जबलपुर छूट रहा था तब उनसे मुलाकात में उन्होंने, मेरी कार के बारे में पूछा था। अपनी पुरानी कार, हैदराबाद लाना उपयुक्त नहीं था। अतः कार मैंने पहले ही अपनी विभागीय टीम में एक मित्र को देना तय कर लिया था। यह मैंने शमीम भाई को बताया था। तब मैंने उनकी उदासी देखी थी। उन्होंने कहा - आपकी कार, हम रख सकते थे।

यह उनसे रही अंतिम मुलाकात में हुई बात थी। अभी एक वर्ष ही बीता और वे 26 अगस्त को नहीं रहे। उनका इतनी जल्दी चले जाना मुझे अत्यंत दुखी कर गया, मेरे बोझिल एवं व्यथित हृदय में उनके पीछे यह विचार रह गया कि -

काश! मेरी वह कार, मैं उन्हें ही दे आया होता .... 

800 किमी दूर, उनके न रहने का दुखद समाचार मुझे बताया गया था। मुझे इससे प्रतीत होता है कि मेरा प्रयोग कदाचित सफल रहा था। फिर भी नफीसा के भविष्य को लेकर मेरे हृदय में संशय और व्यथा है। शमीम भाई से किसी दिन, मैंने कहा था कि -

आप, नफीसा को मूक बधिरों के लिए समाचार वाचक बनाने की क्यों नहीं सोचते!    

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

31-08-2021

Monday, August 30, 2021

सीजन 2 - मेरे पापा (5)…

 

सीजन 2 - मेरे पापा (5)…

अपनी कल्पनाओं में पुलकित मैं, यात्रा के बाद सबके साथ घर पहुँच गई थी। उस रात सुशांत के कॉल की आशा नहीं थी। विरह में व्यथित मेरा ह्रदय, ‘समय को निष्ठुर’, ठहराने को कर रहा था कि क्यों यह इतने मंथर गति से चल रहा है। मुझे रविवार से बुधवार के तीन दिन ही बिताना, एक जीवनकाल जितने बड़े लग रहे थे। 

बुधवार भी वह जिसमें सुशांत से मिलन संयोग भी नहीं बन रहा था। बस एक तसल्ली होने वाली थी कि ‘सुशांत, फ़्रांस से हमारी भारतमाता - धरती पर सकुशल लौट आए हैं’। 

फिर बिस्तर पर मैंने व्याकुलता में करवट ली थी। इसके साथ मेरे दृष्टिकोण ने भी करवट ली थी। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची थी कि ‘समय को निष्ठुर ठहराना उचित नहीं है’। यह समय ही तो था जिसने इस तुच्छ सी लड़की का (मेरा) सुशांत जैसे उत्कृष्ट युवक से जीवन मिलन का संयोग बनाया था। 

यह मनुष्य मन की वह सहज प्रवृत्ति थी जो मुझमें रहकर, असीम सुख की घड़ी शीघ्र आ जाए ऐसी अभिलाषा करा रही थी। मैं इस हेतु अत्यंत अधीर हो रही थी। समय निर्दोष होता है, वह सदा अपनी गति से गमन करता है। वह सभी को साथ, अपने प्रवाह में लिए चलता है। प्रत्येक प्राणी को कभी दुःख, कभी सुख के दर्शन कराते हुए गुजरता चला जाता है। 

तीन दिन भी अपने इस स्वभाव अनुरूप समय गतिशील रहा था। यह मेरी मनोवृत्ति में कमी थी कि इसे बिताना मुझे पहाड़ सा लगा था। फिर बुधवार भी आया था। इस दिन सुशांत ने कोई कॉल कर सकने का अवसर नहीं पाया था। समाचारों पर लगे मेरे कर्णों एवं आँखों से मुझे पता चल गया था कि पाँच राफेल जेट, अंबाला अर्थात भारत की धरती पर लैंड कर चुके हैं। 

अधीरता से उस रात मैंने सुशांत के कॉल की प्रतीक्षा की थी, मगर कॉल नहीं आया था। किसी अन्य की दृष्टि में जो एक सामान्य घटना थी, वह सुशांत ‘मेरे पतिदेव’ से जुड़ी होने से, मेरे लिए विशेष थी। उनके हर कार्य, मेरी दृष्टि में विशेष होते थे। उनका कॉल नहीं आने से मेरा आशंकित मन, किसी अनहोनी की आशंका से मुझे डरा रहा था। आकुलित मन मैं, बहुत समय करवटें बदलने के बाद ही निद्रा की सौगात पा सकी थी। रात्रि अंतिम पहर में मैंने दुःस्वप्न देखा कि 

“सुशांत, एक फ्रेंच लड़की से मिलकर, उसके मोहजाल में फँस गए थे। फिर वे राफेल लाने वाली टीम के साथ, भारत नहीं लौटे थे अपितु उस फ्रेंच सुंदरी के साथ संसर्गरत फ़्रांस की एक होटल कक्ष में पड़े थे। दुःस्वन के अंत में मैंने, सुशांत का एयरफोर्स से कोर्ट मार्शल होते देखा था।”

अत्यंत व्याकुलित हो जाने से तब मेरी नींद टूट गई थी। देखा तो खिड़कियों से सूर्य-रश्मियाँ, मेरे कक्ष को प्रकाशित कर रहीं थीं। 

मैं चेतन हुई जब मुझे समझ में आया कि यह एक दुःस्वप्न था, तब अच्छा लगा कि यह यथार्थ नहीं था। अगर यह यथार्थ होता तो इसकी भीषण कटुता को मैं, कमजोर लड़की सहन नहीं कर सकती थी। मैंने साइड टेबल पर रखे जल से, भय अतिरक में अपने सूख गए गले को तर किया था। फिर उदासी में ही बिस्तर छोड़ा था। ऑफिस जाना है, इस लाचारी ने मुझे तत्क्षण स्फूर्त किया था। 

मैं तैयार होकर किचन में अपेक्षाकृत विलंब से पहुँची थी। 

मैं प्रतिदिन तो ऐसा नहीं करती मगर देखे दुःस्वप्न के प्रभाव से मुक्त होने के विचार से, आज मैंने पापा, मम्मी जी के बारी बारी चरण छुए थे। पापा ने कहा - सदा सुखी रहो।  

यह सुन मैं प्रसन्न हुई थी मगर, मम्मी जी के आशीर्वाद ने मुझे अधिक हर्षित किया था। उन्होंने कहा - बेटी, अखंड सौभाग्यवती भवः। 

इस छोटे से आशीर्वचन का अर्थ विशाल होता है। इसका फलीभूत होना, मेरे पूरे जीवन काल में मुझे ‘पतिदेव’ सुशांत का साथ सुनिश्चित करने वाला था। 

चूँकि जागने में मुझे आज देर हुई थी। अतः जब मैं आई तो मम्मी जी ने नाश्ता चाय तैयार करके टेबल पर लगा दिया था। हम नाश्ता करना आरंभ कर चुके तब, पापा के मोबाइल पर रिंग बजने लगी थी। मेरी अति जिज्ञासु दृष्टि मोबाइल पर पड़ी तो मैंने जो देखा, उससे मुझे चरम प्रसन्नता मिली थी। जी हाँ, इस घड़ी अनुरूप, यह इनकमिंग कॉल ‘मेरे पतिदेव’ का ही था। 

‘मेरे पापा’ भी अद्भुत व्यक्तित्व के धनी हैं। वे मेरे मन की सब भाँप लेते हैं। उन्होंने समझ लिया था कि मैं सुशांत की झलक और वाणी सुनने को मरी जा रही हूँ। उन्होंने अपने मुँह का कौर चबाना जारी रखते हुए, मुझे कॉल रिप्लाई करने का इशारा किया था। 

बटन प्रेस करते ही सुशांत का स्फूर्त, मन को खुश कर देने वाला सुंदर मुखड़ा दिखाई दिया था। विनोदी स्वभाव के सुशांत ने यहां परिहास का मौका नहीं चूका था। वे बोले - 

पापा, यह आप आज मुझे, अतीव सुन्दर लड़की हुए, कैसे दिखाई पड़ रहे हैं? क्या मुझे अपनी आँखों की जाँच करवानी चाहिए?

उनका यह कहना सब देख-सुन रहे हैं, यह बोध होने से मैं बुरी तरह लजाई थी। सुशांत अपने मंतव्य में सफल हुए थे। उन्होंने मेरे चेहरे पर उभरता प्राकृतिक ‘रंग श्रृंगार’ का दर्शन कर लिया था। मेरे मुख से सिर्फ - ‘धत्त’ निकला था। मैंने सिर झुका कर मोबाइल पापा को दे दिया था। 

अपनी मीठी मीठी अनुभूतियों के बीच, मैं पापा एवं पतिदेव की बातें सुन रही थी। जिससे पता चल गया था कि सुशांत कल ही राफेल लेकर आ चुके थे। आने के बाद उन्हें भारत एवं फ़्रांस में समय अंतर के कारण ‘जेट लैग’ (लंबी विमान यात्रा से हुई थकान) रहा था। इस कारण वे कॉल नहीं कर पाए थे।  

मुझे ऑफिस जाना था। अतः पापा- मम्मी जी एवं सुशांत में बातें चल रहीं थीं तब ही मैंने टेबल छोड़ दी थी। तब तक मेरे मन में सुखद आशा का संचार हो गया था। निश्चित ही आज रात मेरी सुशांत से मधुर बातें हो पाएंगी, यह विचार मन में रख मैं ऑफिस पहुँची थी। प्रसन्नता से भरे हृदय से, उस दिन ऑफिस में मेरी कार्य क्षमता में वृद्धि परिलक्षित हुई थी। उस दिन मैंने सामान्य दिनों की अपेक्षा बहुत अधिक काम निपटाए थे। मैं उस शाम ऐसी ही उल्लासित घर लौटी थी। 

मन पर छाए आनंद में, मैंने मम्मी जी से कहा - मम्मी जी, अभी आपका रसोई प्रवेश वर्जित है। आज का पूरा डिनर, मैं ही तैयार करूंगी। 

उन्हें अच्छा लगा था। मुझ पर भेदपूर्ण दृष्टि डालते हुए उन्होंने हामी भर दी थी। मैंने सुशांत और पापा दोनों को प्रिय लगने वाली रसोई तैयार की थी। 

रात डिनर भोज्य देख कर पापा अत्यंत प्रसन्न हुए थे। मुझसे कहा - क्या बात है बेटी! दाल, बाटी, चूरमा एवं बेसन के गट्टे! आज तो आनंद आ जाएगा खाने में!

यद्यपि यह लंच में बनाया जाने वाला भोज्य है। तब भी हर्ष अतिरेक की मनःस्थिति में मैंने, इसे अभी के लिए बनाया था। सबने रस लेकर भोजन किया था। स्वादिष्ट होने से सबकी ओवर ईटिंग भी हुई थी। मैं सोच रही थी कि अपने परिजनों के ऐसे खाते देखने से ही, रसोई बनाने वाले को तृप्ति मिलती है। 

समय पर, मैं आनंद की घड़ी के आगमन की प्रत्याशा में बिस्तर पर आ लेटी थी। आगे जो उल्लेख कर रही हूँ वह सुनने पढ़ने वाले को बड़ा विचित्र सा लगेगा। दिन भर रही मेरी उमंगपूर्ण भावदशा ने लेटते ही पलटा खाया था। 

एकमात्र यह मन के विचार ही होते हैं जो प्रकाश से भी अधिक गति से चल सकते हैं। एकाएक मुझे दुःस्वप्न का स्मरण पुनः आ गया था। इस कारण पतिदेव के प्रति श्रद्धानत रहने वाले मेरे हृदय में, इससे बिलकुल ही विपरीत शंकालु भाव ने स्थान ले लिया था। शंकालु विचार चाहने पर भी मन से जा नहीं रहा था। ऐसी स्थिति में, मैं अभी, किसी और से नहीं स्वयं से ही परेशान हो रही थी। 

तभी सुशांत का कॉल आया था। वे आत्मविश्वास और गर्व से भरे अत्यंत प्रसन्न थे। यह देख मैं सतर्क हो गई कि मैं कुछ भी ऐसा नहीं कहूँ कि इनका अच्छा मूड स्पॉइल हो जाए। 

मुझे पूछना तो यह चाहिए था कि - ‘आप घर कब आ रहे हैं?’ इसकी ही उतावली मुझे, इन दिनों सबसे अधिक रही थी मगर शंकालु विचार के आधीन मैंने इससे अलग प्रश्न किया था। यद्यपि चतुराई से अपने शब्दों को परिष्कृत करते हुए मैंने पूछा था - 

सुनिए जी मुझे एक बात बताइये कि आप फ़्रांस गए थे, वहां तो एक से एक सुंदर लड़कियां होती हैं, उन्हें देखकर क्या आपके मन में, उनके लिए प्रेम उत्पन्न नहीं होता था? क्या अभी की ट्रिप में कोई ऐसी लड़की आपके संपर्क में आई है?

सुशांत जैसे इन प्रश्नों के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने तपाक से कहा - 

हाँ निकी, आप सही कह रही हो। पेरिस में, जिन्हें सुंदरता की मूर्ति कहना सर्वदा उपयुक्त है, ऐसी अनेक लड़कियाँ हैं। उनमें से कुछ से आमना सामना मेरा भी हुआ है। 

सुशांत इतना कह कर रुक गए थे। ‘सुंदरता की मूर्ति’ शब्द किन्हीं और लड़कियों के लिए कहे जा रहे हैं, उनके मुख से यह सुनकर मेरे अंग-प्रत्यंग जल भुन गए थे। अधीर हो मैंने कहा - जी बात अधूरी कही है, आपने!

सुशांत ने मेरे मन में संदेह के कीड़े को देख-समझ लिया था। फिर भी वाणी को मृदुल और प्रेम से ओत-प्रोत रखते हुए उन्होंने कहा - 

रमणीक, ऐसी हर लड़कियों को छूकर आईं प्रकाश किरणें, मेरे मन दर्पण से परावर्तित होने के बाद, आपकी ही छवि निर्मित करती थीं। तब मेरी आँखों के सामने आप ही आप दिखाई पड़ती थीं। आप सच मानो मेरे हृदय में ‘सुंदरता की एकमात्र प्रतिमा’ तुम ही विराजित हो। तुमसे ही मेरा जीवन और तुमसे ही मेरी दुनिया है। 

आहा! आहा! पतिदेव के मुखारविंद से गूँज रहीं वाणी, उनका एक एक शब्द, मुझे अभूतपूर्व तृप्ति प्रदान कर रहा था। मेरा वश चलता तो मैं समय को इसी घड़ी पर रोक लेती। मेरे मुख से अब कुछ नहीं निकल रहा था। कई मिनटों तक मैं सम्मोहित, इन्हें ही देखती रही थी। मैं उन्हें अपनी आँखों के रास्ते हृदय में ऐसे बसा लेना चाहती थी कि अब इस छवि के अतिरिक्त जीवन में, मेरी दुनिया में कुछ और ना दिखे। 

सुशांत, मेरी प्रसन्नता में विघ्न उत्पन्न करने वाले पतिदेव नहीं थे। मुझे, स्वयं को देखता अनुभव करते हुए, वे धैर्य पूर्वक मुझे देखते रहे थे। 

इस रात, आगे के मेरे प्रश्न और पतिदेव के उत्तर छोटे छोटे रहे थे। 

मैंने फिर पूछा था - 

सुनिए जी, विवाह के कुछ वर्षों बाद पतियों को अपनी पत्नी, सुंदर दिखाई नहीं देती। क्या हममें भी यह होगा?

सुशांत ने कहा - 

नहीं, निकी तुम, मुझे इतनी ही सुंदर तब भी लगा करोगी। तब तो तुम, एक पापा कहने वाली हमारी संतान भी मुझे दे चुकी होगी। हममें बांड की स्ट्रेंथ तब दोगुनी नहीं हो जाएगी? 

प्रसन्नता की अनुभूति ने फिर मेरे मन में आहा! आहा! वाला स्वर फिर सुनाई दिया था। अब मुझे ज्ञात हो गया था, हमारे बच्चे की बात सिर्फ मेरे मन में नहीं इनके मन में भी है। 

अगला प्रश्न मेरा, इनसे यह हुआ था - आपने एक ही संतान की बात कही है, क्या अपने दो बच्चे अधिक उपयुक्त नहीं रहेंगें?

सुशांत ने कहा - रमणीक इसमें, हमें देश की जनसंख्या की समस्या को समझना चाहिए। साथ ही मैं यह भी समझता हूँ कि किसी पत्नी के माँ बनने के क्रम में प्रसव वेदना अत्यंत कष्टकारी सच्चाई होती है। मैं एक से अधिक बार ऐसा कष्ट सहते आपको देखना नहीं चाहता। 

आहा! आहा! मैं अब हर्षातिरेक में अभिभूत थी। इन्हें कितना ध्यान है मेरा! क्या ऐसे संवेदनशील और भी कोई पति होते होंगे, दुनिया में!

अंत में मैंने पूछा - अब आप बताइये कि कब आप साक्षात आकर, अपनी इस पुजारन को दर्शन देने वाले हैं?

सुशांत ने कहा - जी अपने धर्म (पत्नी) के दर्शन करने के लिए, यह पुजारी चार घंटे बाद ही एयरपोर्ट के लिए निकलने वाला है। 

मुझे ऐसा लगा मेरा ईश्वर, मेरे मन की समझ मेरे बिना माँगे ही वरदान प्रदान कर रहा है। उनका कल ही होने वाले आगमन का विचार, अब मुझे सुखद आश्चर्य प्रदान कर रहा था …       

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

30-08-2021


Sunday, August 29, 2021

मैं व्यथित हूँ (3)….

 मैं व्यथित हूँ (3)…. 

नफीसा का, मुझे बुलाने का रहस्य क्या है, सोचते हुए कुछ पल बीते थे। तब कमरे से निकलते हुए नफीसा की अम्मी एवं आपा दिखाई पड़ी थीं। नफीसा की अम्मी मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गईं थीं, उनके मुख पर पीड़ा की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं। अप्पी (नफीसा की दीदी) बैठी नहीं खड़ी ही रही थी। पीछे नफीसा भी आ खड़ी हुई थी।  

उन (अम्मी) का वेदना की अधिकता से हुआ करुण स्वर, मुझे सुनाई पड़ा था। वे अटक अटक कर बोल रहीं थीं - 

पूरी रात सो नहीं पाईं हूँ। कई बार उल्टियाँ हुईं हैं। पेट में बहुत अधिक दर्द हो रहा है। नफीसा के अब्बू, बाहेर गए हुए हैं। समझ नहीं आ रहा है, क्या करूं। 

मैं सोच रहा था कि नफीसा को मुझे बुला लाने के लिए उसे, शायद किसी ने नहीं कहा था। यह नफीसा की अपनी ही समझ थी कि उसने मुझे बुलाया था। बोलने सुनने में असमर्थ वह, शायद बॉडी लैंगएज समझती थी। अम्मी के तकलीफ के इस समय में शायद उसे, मैं उसकी अम्मी के कष्ट के समय में मददगार हो सकने वाला हितैषी लगा था। 

अम्मी चुप हुईं तो अप्पी ने कहना आरंभ किया - 

अपने कॉन्टेक्ट्स से मैं सुबह 4 बजे से ही बात कर रही हूँ। आज संडे है, कोई भी डॉक्टर नहीं मिल पा रहा है। 

मैंने पूछा - क्या यह तकलीफ पहले भी हुई है? घर में किसी को हुई तकलीफ का इलाज किस डॉक्टर से लिया जाता है?

अप्पी ने बताया - इतनी तकलीफ कभी पहले नहीं हुई है। हम, जिस डॉक्टर के यहाँ जाते हैं, उनसे मोबाइल पर बात नहीं हो पा रही है? 

समस्या गैस्ट्रोएन्टरालजी की थी। पूर्व में पचपेढ़ी में रहने से, डॉ कर्नल आनंद से हम सामान्य उपचार लिया करते थे। मुझे पता था कि वे गैस्ट्रोएन्टरालजिस्ट हैं। मेरा उनसे परिचय डॉ.- पेशेंट वाला ही था। मुझे आत्मविश्वास नहीं था कि आज रविवार के दिन मैं, इन्हें, उनसे कोई फेवर दिला पाऊंगा, मगर रोगी की मनःस्थिति समझ कर उन्हें आश्वस्त कराना मैंने उचित समझा था। मैंने कहा -   

डॉ कर्नल आनंद, ऐसी समस्याओं के विशेषज्ञ हैं। मेरा मोबाइल घर पर है, मैं घर जाकर उनसे बात करता हूँ।  

अप्पी ने कहा - डॉ आनंद का नाम, हमने भी सुन रखा है। उनके क्लिनिक कभी गए नहीं हैं। 

मैं घर आने के लिए उठ गया था। मैंने भरोसा तो उन्हें दिला दिया था मगर स्वयं ही अनिश्चय की स्थिति में था। घर आकर प्रिस्क्रिप्शन ढूँढते हुए, सब बातें रचना को बताईं थी।  

उन्होंने कहा - नासमझ नफीसा के बुला ले जाने पर आपका वहां जाना, उन्हें पसंद भी आया होगा? ये लोग अपने आप में रहते हैं, विशेषकर उनकी बेटियां, औरतें!

मैंने कहा - अभी यह नहीं सोचना है, उन्हें इलाज दिलवा पाएं अभी यह ही उचित होगा। 

मैंने पर्चे से डॉ. आनंद के नंबर देखे थे। रविवार क्लिनिक तो खुलता नहीं है, विचार करते हुए उनके निवास के लैंडलाइन फोन पर, मैंने अल्पविश्वास से कॉल किया था। तब फोन अटेंड किया गया था इससे मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। खुद डॉ. आनंद फोन पर थे। मैंने उन्हें पूरी बात बताई थी। उन्होंने कहा - 

आज क्लिनिक तो बंद रहना है। मैं, जबलपुर हॉस्पिटल में एक घंटे के राउंड पर जाता हूँ। आप पेशेंट को लेकर 8 बजे वहाँ आ जाएं। मैं वहां जाँच कर लूँगा। 

मुझे लॉटरी लगने वाली ख़ुशी अनुभव हुई थी। मुझे लग रहा था, मैं नफीसा की अपेक्षा पर खरा उतर पा रहा था। 

मैं वापस उनके घर गया था। मैंने, अप्पी को बताया - अभी 8 बजे, अम्मी को लेकर जबलपुर हॉस्पिटल पहुँचना है। 

फिर मुझे रचना की बात का विचार आया था, अब्बू की अनुपस्थिति में, अब आगे यह मेरी मदद लेना मुनासिब भी समझेंगे या नहीं? मैंने पूछा - 

आप हॉस्पिटल स्वयं चले जाएंगे या मैं साथ लिए चलूँ? 

अप्पी ने उत्तर दिया - 

अंकल, आपको समय हो तो हम आपके साथ ही चलते हैं। 

अभी आधा घंटा समय था, मैंने कहा - 

अम्मी को कुछ हल्का खिला दो ताकि उन्हें चलने की शक्ति मिल जाए। तब आप उनके साथ तैयार मिलना, मैं आधे घंटे में आता हूँ। 

मैं घर वापस आते हुए सोच रहा था, शायद मैं, अपनी ऐसी जरूरत पर डॉ. से फेवर लेने की हिम्मत नहीं कर पाता। यह मुझ पर परहित की भावना हावी थी जिससे संकोची मैं, यह काम आत्मविश्वास जुटाकर संभव कर पाया था। 

फिर आठ बजे पिछली सीट पर उन्हें बैठाकर, कार चलाते हुए मैं अस्पताल पहुँच गया था। थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद डॉ. आनंद ने उनकी जाँच की थी। जाँच किए जाते समय मैं, उनके साथ किसी परिजन की भांति, जाँच कक्ष में नहीं गया था। मुस्लिम महिलाओं के कुछ अधिक ही संकोची होने की जानकारी मुझे थी। 

डॉ. ने दवाएं और परीक्षण लिखे थे। कहा था दवाएं अभी से शुरू करनी है। जाँच रिपोर्ट, कल 10 बजे मेरे क्लिनिक में आकर दिखा दीजिए। 

तब मैंने, उन्हें दवाई दिलवाई और पैथोलॉजी में उन्हें लेजा कर, उनसे जाँच के लिए सैंपल देने कहा था। मैं खुद अपनी कार में आकर उनकी प्रतीक्षा करने लगा था। बाहर गर्मी बहुत थी। मैंने कार का एसी चालू किया था कि उनके आते तक कुछ ठंडक हो जाए। 

कुछ समय में अप्पी का सहारा लेते हुए, उनकी अम्मी बाहर आईं थीं। मैंने रास्ते में उनसे कहा डॉ. आनंद बहुत अच्छे डॉ. हैं। आपको इन दवाओं से निश्चित ही आराम मिल जाएगा। उनके घर के दरवाजे पर मैंने कार रोकी थी। अम्मी, शुक्रिया कहते हुए उतरीं फिर गेट खोलकर भीतर चलीं गईं थीं। मेडिसिन और फीस के लिए जो भुगतान मैंने किया था, अप्पी ने कार में बैठे रहकर मुझसे उसका विवरण पूछा था। परोपकार के विचार से चिकित्सा पर किया गया खर्च मैं, उनसे लेना नहीं चाहता था। फिर भी अप्पी के आदेशात्मक स्वर को अनुभव कर, न बताने का विकल्प नहीं है, मैंने समझा था। 

जब वह अपने पर्स में से रूपये गिनने लगी तब मैंने कहा - 

इसकी जल्दी क्या है मैं, आपके पापा के आने पर उनसे ले लूंगा। 

अप्पी ने मंजूर नहीं किया था। मेरे बताए गए रुपए उसने मुझे दिए थे। मैंने कहा - कल, आप जाँच रिपोर्ट दिखाने खुद चली जाएंगी या मैं आऊं?

अप्पी ने कहा - जी, अंकल मैं खुद जाकर डॉ. को दिखा दूंगी। आपका कल ऑफिस रहेगा। 

मैं मुस्कुराया था। कार से उतरकर, अप्पी ने हाथ हिलाकर बाय किया था। अपने घर के सामने कार पार्क करते हुए मैं सोच रहा था, इमरजेंसी तो निबट ली गई है। अब उनसे, इससे अधिक करीब का मेरा भाव (Gesture) उचित नहीं है। 

इस घटना से ही मुझे लग रहा था कि शमीम भाई के लिए, अंतिम साबित हुई 25 अगस्त 2021 की रात, उन्हें मेरी याद आई होगी। 

एहसान, कौन किसी का रखना चाहता है। नफीसा की अम्मी ठीक हो गईं थीं। तीन दिन बाद शमीम भाई लौट आए थे। अम्मी, साढ़े छह वर्षों में पहली बार हमारे घर आईं थीं। उन्होंने रचना को लीची देते हुए कहा, नफीसा के पापा, बिहार से आए हैं और लीची लाए हैं। रचना ने उनकी लाई लीची में से थोड़ी ले लीं थीं। 

वहाँ रहने के बाद के दिनों में, यह हमारे पारिवारिक संबंधों की शुरुआत बनी थी। 

मैं फेसबुक पर मुस्लिम-गैर मुस्लिम की पोस्ट, कमेंट्स आदि में परस्पर नफरत एवं कोसने वाले अप्रिय अपशब्द एवं गालियों के आदान प्रदान देखा करता था। कट्टरपंथियों की हमें काफिर मानने और इस्लामिक राष्ट्रों, विशेषकर पाकिस्तान का हमें, दुश्मन देखने के तथ्य से भी मैं परिचित था। मुस्लिम-गैर मुस्लिम में जब तब होती हिंसा भी मुझे व्यथित करती थी। लव जिहाद में, एकतरफा गैर मुस्लिम लड़कियों का लक्ष्य करना भी मुझे, उनकी और अपनी लड़कियों पर अन्याय लगता था। 

तब भी, जिसे हमारे लोग मूर्खता कहेंगे, मैंने वह काम करना आरंभ किया था। मैं, शमीम भाई के परिवार से नजदीकी बढ़ाने के कार्य करने लगा था। 

यह सिलसिला मेरा सोचा समझा एक प्रयोग था। मैं सोचता था कि इस परिवार के साथ, मैं इतनी आत्मीयता से पेश आऊँ कि भविष्य में जब कभी, इस परिवार का कोई सदस्य मुस्लिम-गैर मुस्लिम के बीच हिंसा में उद्वेलित हो और इनकी तलवार किसी गैर मुस्लिम (तथाकथित काफिर) पर वार करने लगे, तब इन्हें मेरा विचार आ जाए। तब मेरे व्यवहार की याद कर, गैर मुस्लिम लोग काफिर नहीं होते हैं विचार करके ये अपनी तलवार नीचे कर लें। खुद हिंसक होने से ये स्वयं को रोक लें। 

मेरा मानना है कि हिंसा की प्रतिक्रिया, हिंसा ही होती है। इस प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया भी हिंसा ही होती है। और ऐसी प्रतिक्रियाओं के सिलसिले का कोई अंत नहीं होता है। 

मेरा यह भी मानना है कि जब क्रिया, प्रतिक्रिया, और उसकी प्रतिक्रियाओं का सिलसिला थमने वाला नहीं होता है, तब क्रिया अहिंसा होनी चाहिए। इसकी प्रतिक्रिया भी अहिंसा की हो सकती है। अहिंसा प्रतिक्रिया, इस वास्तविकता के कारण आवश्यक होती है कि जगत में जन्मा हर जीव, जीवन चाहता है, अकाल मौत नहीं! ….                      

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

29-08-2021


Saturday, August 28, 2021

सीजन 2 - मेरे पापा (4)…

 

सीजन 2 - मेरे पापा (4)…

डूबते को तिनके का सहारा मिला जैसे, मेरी दम तोड़ती कामनाएं पुनः जी उठी थीं। वे आ रहे हैं इस कल्पना से रोमाँचित, अगली सुबह मैं किचन में पहुँच कर काम करते हुए गुनगुना रही थी - 

‘हम जब सिमट कर आपके बाँहों में आ गए, लाखों हसीन ख्वाब निगाहों में आ गए’

मम्मी जी ने मेरा ऐसे गुनगुनाना सुना था। वे भेदपूर्ण ढंग से मुस्कुरा रहीं थीं। मैंने कनखियों से यह देख लिया था फिर भी अनदेखा करते हुए, अपने सपनों को उमंगों के घोड़े पर सवार रहने दिया था। 

नाश्ते की टेबल पर जब सब चाय पी रहे थे। तब मेरे मोबाइल पर, सुशांत का कॉल आता दिखाई दिया। यह समय पापा या मम्मी जी को, सुशांत के कॉल करने का होता है। मैंने सशंकित होकर वॉइस कॉल लिया था। सुशांत कह रहे थे - 

सॉरी निकी, अभी तुरंत ही मैं नहीं आ पाऊंगा। अचानक ही मुझे, फ़्रांस से राफेल लाने वाली टीम में शामिल कर लिया गया है। अब इस काम के हो जाने पर ही मैं, अवकाश लेकर आ पाऊंगा। 

यह सुनते ही मेरे सपने चूर चूर हो गए थे। मरे से स्वर में मैंने कहा - जी, ड्यूटी फर्स्ट!

मेरी वाणी में दर्द से सुशांत समझ गए थे कि आगे उन्होंने कुछ कहा तो मैं, फोन पर ही रो पडूँगी। उन्होंने बाय कहा था। मेरा मुखड़ा बुझ गया था। देखने वालों को मेरे मुखड़े को देखकर यह लगता कि दमकते सूर्य के सामने अचानक काले बादल छा गए हैं। जिसमें सूर्य का दमकते दिखना अब रह नहीं पाया है। 

यह कॉल खत्म कर उन्होंने, पापा को कॉल किया था। पापा एवं उनमें बात होने लगी थी। इस मनोदशा में भी पापा के रिप्लाई सुनते हुए, मुझे समझ आ रहा था कि सुशांत, उन्हें अपने फ्रांस जाने की बात बता रहे हैं। फिर नैराश्य अतिरेक में उनमें क्या बात हो रही है उसके प्रति मैं उदासीन हो गई थी। 

मम्मी जी ने कुछ ही मिनट के अंतराल में मेरी दो बिलकुल ही विपरीत भाव-भंगिमाएं देखीं थीं। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि रात, सुशांत और मुझमें, उनके घर आने की बात हुई थी। अतः उन्हें कुछ समझ नहीं आ पाया था। 

जब पापा की कॉल पर बात पूरी हुई तो वे हर्षित हो बता रहे थे - पता है सारिका! तुम्हारा बेटा, राफेल जेट लाने के लिए फ़्रांस जा रहा है। 

कहने के साथ ही, पापा ने मुझे देखा था। निराशा का श्याम रंग, मेरे मुख पर देख, उन्होंने अनुमान लगाया था कि शायद, सुशांत के फ्रांस जाने से मैं, डर रही हूँ। उन्होंने मुझे ढाढ़स देने के लिए कहा - बेटी, इतना महत्वपूर्ण कार्य सुशांत को मिलना, हमारे लिए गर्व की बात है। इसमें डरने जैसी कोई बात नहीं है। 

पापा को मैं क्या कहती! यह तो कह नहीं सकती कि कल ही उन्होंने, मेरे मन में मिलन तथा उसके फलस्वरूप हमारे बेबी के होने की आशा जगाई थी। मैं डर नहीं रही थी, मैं टूट रही थी। मगर मुझे समझ आ रहा था कि आर्मी अफसर की पत्नी के लिए ऐसी आशा-निराशा में जीना, सब सहज-सामान्य बातें थीं। 

निर्भाव ही मैंने कहा - जी, पापा यह गर्व की बात है। 

पापा ने हँस कर कहा - बेटी, गर्व की बात ऐसे नहीं कही जाती है। 

कहते हुए वे नाटकीय ढंग से खड़े हो गए थे। फिर सीने को 56 इंच फुलाकर कहा - ऐसे कहो, 

‘पापा, आपको पता है? मेरे पतिदेव राफेल जेट लेने फ्रांस जा रहे हैं।’ 

पापा के ऐसे अभिनय पर, अनायास ही मैं हँस पड़ी थी। मम्मी जी भी हँसने लगी थीं। पापा, मुझे हँसा देने की अपनी कोशिश में सफल रहे थे। 

उस दिन ऑफिस में भी, निराशा मेरे मन पर हावी रही थी। और दिनों की अपेक्षा मैं अपने काम पर ध्यान कम ही केंद्रित कर पाई थी। उस रात डिनर के बीच पापा ने मुझसे कहा - 

रमणीक, इस वीक एन्ड में हम, तुम्हारी मम्मी को लेकर, तुम्हारी दीदी के घर चलते हैं। 

मैं समझ रही थी कि पापा के मन में इस टूर का विचार, मेरे उदास मन को प्रफुल्लित करने के लिए आया है। यह बात भी मुझे, पुलकित नहीं कर पा रही थी, मगर कुछ और कहकर मैंने पापा को दुःख पहुंचाना ठीक नहीं समझा था। अपने मनोभावों को नियंत्रित करते हुए मैंने स्वयं को खुश दिखाते हुए कहा - 

पापा, यह तो अत्यंत ही ख़ुशी की बात है। दीदी से मिले मुझे, बहुत दिन हो गए हैं। 

परिवार के बीच रहने में उचित-अनुचित की कितनी चिंता करनी होती है, यह जीवन में मिले अनुभवों ने मुझे पूर्व में ही समझा रखा था। मैं खुश हूँ या नहीं इससे परे रहकर मुझे पापा, मम्मी जी की ख़ुशी का विचार रखना ही था। आखिर, मैंने 11 वर्ष पहले खो दिए ‘मेरे पापा’ को इन पापा में पुनः जो पाया था। यह एहसास मुझमें सदा बना रहता था। 

रात सुशांत ने कॉल पर बताया था - 

रमणीक, फ्रांस के टूर पर रहते हुए, फ़्रांस और भारत के समय में जो अंतर होता है, उस कारण मैं, आपसे बहुत बात नहीं कर पाऊंगा। अब विस्तृत बातें, हममें मेरे भारत लौटने पर ही हो पाएंगीं।  

ऊपर से मैं प्रसन्न दिखने का भरसक प्रयास कर रही थी। सुशांत तो मुझे, मुझसे अधिक जानने लगे थे। उन्हें मेरे आहत मनोवेग का भली भांति भान था। उन्होंने उपाय रूप में मुझे प्रसन्न करने के लिए तरह तरह की भावभंगिमाएं एवं बातें बनाई थी। प्रकट में मैं, स्वयं को प्रसन्न होते दिखा भी रही थी। फिर भी सच कुछ और था। मुझे अब प्रसन्नता सिर्फ सुशांत के अंश का, अपने गर्भ में आने से मिलने वाली थी। मन में पलने लगे इस सपने को मैंने अब तक उनसे भी नहीं कहा था।  

अगले दिन सुशांत, फ्रांस रवाना हो गए थे। फिर शनिवार तक उनके कुछ ही कॉल आए थे। जिसमें वे संक्षिप्त में अपनी कुशलक्षेम हमें बता दिया करते थे ताकि हम सभी उनको लेकर चिंता न करें। 

तय नियोजित प्लान अनुसार रविवार को 3 घंटे तक, चलने के बाद हम सुबह 8.30 बजे दीदी के घर पहुँच गए थे। इस समय में पापा कार चलाते रहे थे, मम्मी जी को झपकी लग गई थी और मैं, जीजू को लेकर सोच रही थी। जीजू की कॉउंसलिंग करने का विचार, मेरे मन में अपने विवाह के पहले से चलता आया था। अभी जब जीजू, शुभ समाचार देने के लिए घर आए थे तब मैंने अपने इस विचार को स्थगित रखा था। जीजू तब, हमारे घर अतिथि थे। विवाह के बाद मैं यह जिम्मेदारी समझने लगी थी कि हमारे घर से सभी को आदर मिले। वहाँ अपनी बात मैं कहती तो जीजू, बुरा मानकर हो सकता है हमारे घर कभी न आने की कसम ले लेते। हमारे घर से उनका ऐसा वैमनस्य हो जाना मैं नहीं चाहती थी।अभी मैं सोच रही थी कि आज अगर अकेले में अवसर मिले तो मैं अपने विचार को क्रियान्वित करूंगी।   

हमें आया देखकर तथा हम सभी से मिलकर दीदी अत्यंत प्रसन्न हुईं थीं। 

जीजू ने कहा - गर्भ में पल रहे शिशु की दृष्टि से, इनका खुश रहना जरूरी है। आप लोग यहीं रहें तो ये खुश रहेंगी। जन्म लेने वाले बच्चे की दृष्टि से यह हितकर होगा। 

पापा हँसते हुए बोले थे - रमणीक का जॉब नहीं होता तो हम भी यहीं रहना चाहते, इससे हमें भी बहुत ख़ुशी मिलती। 

मैं समझ रही थी ये सब कहने सुनने में अच्छी लगने वाली बातें थीं। 

यह प्रसन्नता की बात यहथी कि मेरे विवाह वाले दिन से मैं, जीजू में अच्छा परिवर्तन होते देख रही थी। उस दिन जीजू की भी छुट्टी थी अतः सभी साथ मिलकर खाते-पीते आनंद उठा रहे थे। 

दीदी का पेट हल्का सा उभर आया था। मैं कभी उनके पेट पर हाथ रखती, कभी अपने कान लगाती और कभी उस पर चूम लेती थी। इससे बेबी की कुछ हरकतें, मुझे अनुभव होती थीं। 

दीदी बनावटी गुस्सा दिखला कर मुझे डाँटते हुए कहती - निकी तू यह बात याद रख, मुझ से मजाक करेगी तो तेरे बच्चे के समय मैं भी तुझे छोडूंगी नहीं। 

तब इस कल्पना से मैं रोमांचित हुई जा रही थी। मैंने हँसकर, दीदी को उत्तर दिया - 

हाँ, दीदी आप खूब मजाक कर लेना, मुझे तो बहुत आनंद आएगा। आखिर तब मेरे पेट में, सुशांत का अंश जो पल रहा होगा। 

दीदी ने अभिनय करते हुए मुझे झिड़क दिया - निकी, ऐसी निर्लज्ज तो तुम पहले कभी नहीं थी! 

मैं कहती - दीदी, सुशांत मेरे पतिदेव हैं, उनसे गर्भवती होने में भले, लज्जा का क्या कारण होगा?

दीदी ने हार मान ली और कहा - निकी, बहुत तेज हो गई हो, अपने आर्मी अफसर पति की संगत में। 

रुआँसी दिखते हुए मैंने कहा - दीदी, अभी मुझे, पूरी संगत कहाँ मिल पाई है उनकी!  

हमें पाँच बजे लौटना था। तीन बजे जीजू, पापा से कहते दिखाई दिए - पापा जी, मैं आधे-पौन घंटे में बाजार से आता हूँ। 

मैंने यह सुनते ही अपने लिए अवसर अनुभव किया और कहा - जीजू, मैं भी आपके साथ चलती हूँ। यहाँ का मार्किट थोड़ा मैं भी तो देखूँ कि कैसा है। 

मैं अब सुशांत की पत्नी, आत्मविश्वास से भरी कार में जीजू की साथ वाली सीट में बैठी थी। कार ड्राइव करते हुए जीजू ने मुझसे कहा - 

निकी, सॉरी। मैंने तब तुमसे, बहुत ही निकृष्ट बात कही थी। 

चौंकते हुए मैंने पूछा - 

आप अपनी इस गलती को कैसे रियलाइज कर पाए हैं? 

जीजू कार चलाते हुए बताने लगे थे - 

तुम्हारे विवाह तय करते समय, मेरी कही बातों के बाद, तुम्हारी दीदी ने मुझसे अकेले में कहा था 

‘आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? पापा के नहीं होने से, निकी हमारी भी जिम्मेदारी है। उसके लिए जब अनायास ही इतना अच्छा रिश्ता आया है तब आप उस पर आपत्ति क्यों जाता रहे हैं? मम्मी ने इतने स्पष्ट शब्द में जब कह दिया है कि पापा, आर्मी में नहीं थे तब भी तो उन्हें, अपने पति (हमारे पापा) को खो देना पड़ा था। ऐसे में सुशांत से निकी के विवाह होने से उन्हें कोई भय नहीं है। अब जब वे निकी की सहमति से निर्णय कर चुकी हैं तब आप अपनी ही जिद चलाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं।’

तुम्हारी दीदी की इन बातों ने तब मुझे विचार करने को प्रेरित किया था। तब ही मैंने अनुभव किया कि मेरे भीतर का निकृष्ट मानव छुप नहीं पा रहा है। इनके दिखाए दर्पण में, मैंने अपना कुरूप अंतर्मन देखा था। तब से मैं अपने को परिवर्तित करने के संकल्प पर काम करता रहा हूँ। 

जब मिष्ठान भंडार आया तो जीजू ने कार उसके सामने रोकी थी। मुझे यहाँ मार्केट देखने में कोई रूचि नहीं थी, यह जीजू से अकेले में बात करने का सिर्फ बहाना था। जीजू कार से उतरते हुए, मुझे भी साथ आने कह रहे थे। मैंने कहा - 

जीजू, यह काम आप ही कर लीजिए। 

जीजू के मुख पर असमंजस के भाव दिखे थे। वे कुछ समझ न सकने पर अपने दोनों कंधे उचकाते हुए, मिठाई लेने चले गए थे। तब अकेले कार में बैठी, मैं सोच रही रही थी कि दीदी भी तो मेरे पापा की ही बेटी थी। पापा से मिले संस्कार थे जिस कारण दीदी ने इतनी सूझबूझ भरी बातों से जीजू में सुधार प्रेरित कर दिया था।

जो मैं कह कर जीजू को आगाह करने का विचार रखती आई थी। वह काम मेरे बिना कहे ही दीदी पहले ही कर चुकीं थीं। मुझे यह भी मानना पड़ा था कि जीजू भी उतने बुरे, अपात्र व्यक्ति नहीं थे। जो कुछ अमर्यादित उन्होंने, मुझसे कहा था वह, समाज में अभी चल रही दूषित मानसिकता का, उन पर दुष्प्रभाव हुआ मुझे प्रतीत हो रहा था। सुबह के भूले, जीजू शाम को घर लौट आए थे। यह हमारे पारिवारिक एवं रिश्ते के हित में संतोष की बात थी। 

जो मिठाई जीजू लेकर आए थे वह हमारे लौटते समय, हमारे साथ रखी गईं थीं। वापसी की यात्रा में पापा जब कार चला रहे थे तब सुशांत का कॉल उनके मोबाइल पर आया था। इसे, पापा ने मुझे सुनने के लिए कहा था। मैंने अपने हृदय पर हाथ रखते हुए कॉल रिसीव किया था। 

सुशांत बता रहे थे कि वे, 29 जुलाई को राफेल लेकर भारत वापस पहुँचने वाले हैं। मैंने उन्हें बताया था कि पापा कार चला रहे हैं। हम अभी दीदी के घर से वापसी के रास्ते में हैं। यह सुनकर सुशांत ने कॉल जल्दी पूरा किया था। मैंने पापा सहित सभी को यह बात बता दी थी। 

29 जुलाई को तो तीन दिन ही बचे थे। इस विचार से अब मेरी अधमिंची आँखों में सुदूर क्षितिज में अपने एवं सुशांत के साथ के रोमांटिक दृश्य दिखाई देने लगे थे। जल्द ही अब हमारे मिलन का संयोग बनेगा यह सोचते हुए मेरे होंठों पर स्मित एवं हृदय में उल्लास छा गया था। अब मेरा रोम रोम पुलक रहा था ….                                                               --राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

28-08-2021

Wednesday, August 25, 2021

सीजन 2 - मेरे पापा (3)…

 

सीजन 2 - मेरे पापा (3)…

मेरा प्रफुल्लित मुखड़ा ऐसा था जैसे उस पर लिखा हो कि रात, मेरी सुशांत से बात हुई है। हुआ यूँ था कि अगली सुबह जब मैं नाश्ते के लिए टेबल पर पहुँची तो मेरे पापा ने कदाचित यह बात मेरे मुख पर से पढ़ ली थी। उन्होंने मुझे देखते ही पूछा - बेटी, सुशांत से तुम्हारी बात हुई है क्या? 

मैंने इसे समझते हुए, उनके पैर छुए थे। फिर सीधा उत्तर नहीं देते हुए कहा था - पापा, रात अधिक हो गई थी इसलिए उन्होंने मुझे बताया था कि वे सुबह आपसे बात करेंगे। अब तक क्या, उनका कॉल नहीं आया है?

मैं इतना ही कह पाई थी तभी पापा के मोबाइल पर, सुशांत की तस्वीर सहित रिंग बज उठी थी। पापा ने मुझे मुस्कुरा कर देखा, कहा - लो आ गया, बेटे का फोन! 

कहने के साथ उन्होंने कॉल रिसीव किया था। वे बात करने लगे थे। तब मैंने किचन में जाकर मम्मी जी के चरण छुए थे। उन्होंने मुझे अपने गले लगा लिया था। 

फिर कहा था - तुम दोनों, जुग जुग जियो, मेरे बेटे!

उनके आशीर्वचन में मम्मी जी ने, सुशांत को मेरे साथ जोड़ा था। इसे सुनकर मेरी  आनंद अनुभूति चरम पर पहुँच गई थी। मैं सोचने लगी थी, जैसे मम्मी जी के आशीर्वचन में, सुशांत मेरे साथ हैं वैसे ही जीवन में सदा वे मेरे साथ रहें। 

मैंने, उन्हें बताया - मम्मी जी वीडियो कॉल पर पापा, सुशांत से बात कर रहे हैं। आप भी उन्हें जॉइन कर लीजिए। मैं टेबल पर जलपान लगाती हूँ। 

यह सुनकर मम्मी जी, खुश होकर टेबल पर पहुँच गईं थीं और मैं, बनाए जा रहे नाश्ते-चाय का काम करने लगी थी। जब सब तैयार हो गया तो मैंने टेबल पर जलपान लगा दिया था। मम्मी-पापा, दोनों ही अब तक, सुशांत से बात करने में व्यस्त थे। मुझे देखकर, पापा ने सुशांत से कहा - 

बेटे लो तुम, रमणीक के दर्शन कर लो। देखो तो मेरी बेटी, आज साड़ी में कितनी दमक रही है। इसके मुख पर कांति यूँ विद्यमान है ज्यूँ साक्षात किसी देवी पर देदीप्यमान होती है।

पापा की बात सुनकर मुझे लाज आ गई थी। मेरे मुखड़े की आभा ने गुलाबी रंगत ले ली थी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सुशांत के, मेरे मुखड़े की इस रंगत को पसंद करने के राजदार, ‘मेरे पापा’ भी हैं। इस कारण उन्होंने, इंटेंशनली यह कहा है। 

आज मैं इतनी प्रसन्न थी कि अपने लजाने के भाव को नियंत्रित करने की मैंने, कोई कोशिश नहीं की थी। मैंने लजाते हुए ही पापा के द्वारा मेरी ओर बढ़ाया गया  मोबाइल लिया था। मुझे यूँ लजाता देखकर सुशांत, हर्षातिरेक से हँस रहे थे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर, मुझे नमस्कार कहा था। 

आज उदित हुए सूरज की नव किरणें मुझ पर भिन्न तरह का असर कर रहीं थीं। मैं सबके बीच लजा तो रही थी मगर संकोच मुझे तनिक भी नहीं हो रहा था। मैंने मोबाइल टेबल पर ऐसे रखा था कि मैं, सुशांत को अच्छे से दिखाई दे पाऊँ। तब मैंने, उन्हीं की तरह दोनों हाथ जोड़े थे और कहा था - प्रणाम, मेरे पतिदेव! 

देव दर्शन के मेरे इस अभिनय पर सुशांत सहित सब खिलखिलाकर हँस रहे थे। सबकी हँसी थमी तब पापा ने कहा - 

हमारी भाषा में, पतिदेव शब्द से पति को देव बता दिया गया है मगर इसमें पत्नी शब्द के साथ ऐसा कोई प्रत्यय (Suffix) नहीं है। 

सुशांत कॉल पर बने हुए थे। वे हमारी बातें सुन रहे थे। सुशांत और मैं पापा की कही बात पर विचार करने लगे तब मम्मी जी ने कहा - 

देखिए जी, आप भाषा में दोष निकाल कर साधारण बात को, फेमिनिज्म का रंग नहीं दीजिए। हमारी संस्कृति में सामान्यतः वर, वधु से आयु में बड़ा होता है। इसलिए जैसे बड़ों के लिए आदरपूर्ण संबोधन होते हैं, यथा - बड़ी बहन एवं बड़े भाई के लिए दीदी, भाईसाहब, वैसे ही पति के लिए पतिदेव शब्द है। 

मम्मी जी के तर्क से हम सहमत हो रहे थे। तब सुशांत कहते दिखाई दिए - पापा, पापा!

मैंने समझते हुए कि सुशांत, पापा जी से कुछ कहना चाहते हैं, मोबाइल पापा जी के सामने कर दिया। तब सुशांत कहते सुनाई दिए -

पापा, मम्मी तो सही कह रही हैं मगर आप भूल कर रहे हैं। आप किसी को मम्मी का परिचय कराते हैं, याद कीजिए तब यही कहते हैं ना, ये, मेरी ‘धर्म’पत्नी हैं। आपके ऐसा कहने में गूढ़ अर्थ होता है कि ‘मेरा धर्म, पत्नी है’, अर्थात पत्नी में ही बस मेरी श्रद्धा है। 

मैंने सुशांत का साथ देते हुए आगे कहा - पत्नी के साथ भाषा में उपसर्ग (Prefix) ‘धर्म’ है।  

हम दोनों की बात पर सब हँसने लगे थे। पापा ने अपनी हँसी पर काबू करते हुए कहा - ये लो शरारतियों, तुम दोनों भी मम्मी की टीम में शामिल होकर मेरी लेग पुलिंग करने लग गए हो। 

ऐसी हँसी ठिठोली के बीच अंत में सुशांत ने कहा - रमणीक, मैं आपसे बाद में बात करूंगा। अभी मुझे ड्यूटी पर जाना है। 

फिर ‘शुभ दिन’ कामना के आदान प्रदान के बाद कॉल खत्म किया गया था। आज बहुत दिनों बाद घर में हर्ष, उल्लास व्याप्त था। हमने आनंद पूर्वक नाश्ता किया था। फिर सब दैनिक कार्यों में लग गए थे। मैं भी ऑफिस जाने की तैयारी करने, अपने कक्ष में आ गई थी। 

अब दिन, प्रतिदिन भारत और चीन के बीच एलएसी पर स्थिति सुधरते जा रही थी। मुझे, सुशांत के कॉल, पूर्व की भांति नियमित आने लगे थे। रात्रि सोने के समय तो उनका कॉल आ ही जाता था। हम सभी के मन में से आशंकाएं एवं भय छँट गए थे। तब भी ‘मेरे सईया बिना की सेज’, मुझे अखरती थी। अब तो मेरा तन-मन सुशांत से मिलने को अत्यंत व्याकुल रहता था। मगर मुझे उनसे मिलने का, कोई उपाय नहीं सूझता था। 

ऐसे में ही एक दिन समाचार आया कि फ्रांस से भारत को पाँच नए राफेल मिल रहे हैं। उस दिन मेरे ऑफिस में इसे लेकर चर्चा गरम थी। 

हमारा विवाह कोरोना काल में सीमित अतिथियों की उपस्थिति में सादगी में हुआ था। यद्यपि मेरे विवाह हो जाने की जानकारी ऑफिस में थी। तब भी मेरे पतिदेव एयरफोर्स में हैं, यह कोई नहीं जानता था। दोपहर बाद, मैं जब कैंटीन में कॉफी ले रही थी, तब पास की टेबल पर मेरे चार सहयोगी भी राफेल को लेकर चर्चा कर रहे थे। राफेल का नाम सुनते ही मेरे कान उनकी बातों पर लग गए थे। 

मेरा एक सहकर्मी जिसका और मेरा प्रोजेक्ट एक ही था वह, मुझे विचित्र बात कहता सुनाई पड़ा - 

भारत, फ़्रांस से इतने कीमती राफेल क्रय तो कर रहा है, मगर पता है यह पाकिस्तान को डराने का प्रोपेगेंडा मात्र है। चीन इससे डरने वाला नहीं है। चीन जानता है कि अभी राफेल जेट, भारत के लिए फ्रेंच पॉयलट ही उड़ा रहे हैं। जो युद्ध होने की स्थिति में भारत के लिए नहीं लड़ेंगे। 

यह सुनकर मेरे मन में जो प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई थी। उसे शब्द रूप में शेष तीन सहयोगी में से एक ने कह दिया था - 

सुन यार, तेरे तरह के लोगों को मैं अच्छे से जानता हूँ। तुम ऐसे लोग हो जिसे भारत के समर्थ, शक्तिशाली और विकसित होने की बात पसंद नहीं आती है। आप तरह के लोग, भारत के लिए चीन और पाकिस्तान से बड़े शत्रु हैं। यह तथ्य जानकर भी भारत, तुम लोगों को सम्मान और उन्नति के समान अवसर देता है। हम आशा करते हैं कि कभी तो तुम जैसे लोग सुधरेंगे। अपनी मातृभूमि के लिए कभी तो तुममें श्रद्धा जाग्रत होगी।  

मुझे लगा कि यह बात उनमें चल रही बहस को गर्म कर देगी। अतः मैंने कॉफी का अंतिम घूँट लेकर तुरंत टेबल छोड़ी थी। कैंटीन से बाहर निकलते हुए, मैंने अपने सहकर्मी की बात सुनी थी - 

मैं समझ रहा हूँ कि तुम कहना क्या चाहते हो। मुझे सीधे गद्दार कहते हुए तुम्हें डर लग रहा है, है ना? 

अपने क्यूबिकल की ओर बढ़ते हुए मैं सोच रही थी कि ऐसे भी लोग होते हैं, ‘चित और पट’ दोनों, उनकी ही होती है। ये लोग भारत के वीरों की क्षमता और साहस को नकारने में सुख पाते हैं। ये ऐसे भारतीय होते हैं जो अपने छोटे छोटे मंतव्यों के लिए, भारत का समग्र विकास एवं सुखद समाज देखना पसंद नहीं कर पाते हैं। तिस पर कोई इन्हें ऐसा बता दे तो ये अपने को पीड़ित (Victim) बताने लगते हैं। मैं सोच रही थी कि अच्छा है यहाँ के लोग, यह नहीं जानते हैं कि भारत के पराक्रमी राफेल पॉयलेटों में से एक, सुशांत मेरे पतिदेव हैं। 

उस रात कॉल पर अपने सहकर्मी की बात, सुशांत से कहते कहते मैंने अपने को रोक लिया था। मैंने तब सोचा था कि ‘नहीं’, यह समय उन्हें ऐसी बातें बताने का नहीं है। इसे सुनकर कहीं उन्हें, यह विचार व्यथित न कर दे कि अपने प्राण दाँव पर लगाकर, वे ऐसे भारतीयों की भी रक्षा करते हैं, जिनके हृदय में राष्ट्रप्रेम या अपनी मातृभूमि के लिए आदर नहीं होता है। 

फिर क्रमशः दिन व्यतीत होते जा रहे थे। एक रविवार मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि मेरे जीजू और मम्मी, हमारे घर आए थे। पापा एवं मम्मी जी उनकी आवभगत कर रहे थे। मैं मम्मी के चरण स्पर्श एवं जीजू का अभिवादन कर हँसते हुए उनके साथ थी। तब मम्मी बता रहीं थीं कि - 

जीजू, एक शुभ समाचार के मिष्ठान लेकर यहाँ आए हैं।  

पापा और मम्मी जी ने, मम्मी के आगे कहे बिना समझ लिया था। वे मम्मी एवं जीजू को बधाई देने लगे थे। तब नासमझ मैं पूछ बैठी थी - जीजू, समाचार क्या है यह भी तो बताइए? 

जीजू ने उत्तर में बताया - तुम्हारी दीदी, आगामी नए साल में, हमारे बच्चे को जन्म देने वाली है। 

इसे सुनकर दीदी की सोचते हुए, मैं अत्यंत प्रसन्नता अनुभव कर रही थी। मैंने जीजू से कहा - 

बधाई जीजू, मैं दीदी से लड़ाई करुँगी कि कॉल पर बात कर उन्होंने इतना शुभ समाचार मुझे पहले क्यों नहीं बताया। 

सब हँसने लगे थे। जीजू ने कहा - हाँ निकी, अवश्य लड़ाई करना। यह तुम्हारा अधिकार है, मगर तुम मुझसे न लड़ो, मेरा तो तुम आदर सत्कार करो। तुम्हारे विवाह के बाद यहाँ मैं पहली बार आया हूँ। 

उत्तर पापा ने दिया - जी, अवश्य ही आपका सत्कार किया जाएगा। पहली बार ही नहीं हर बार आपके आगमन पर, हमें हार्दिक प्रसन्नता होगी। 

फिर वे सब बातें करने लगे थे। मैं किचन में आ गई थी। यह समाचार मेरे अंतर्मन में रही अभिलाषा को बल प्रदान करने वाला हुआ था। मैं किचन में काम करते हुए अपनी कल्पनाओं में खो गई थी। अभी, मैं चाहने लगी थी कि सुशांत जितनी शीघ्रता से घर आ सकें आ जाएं। मैं यद्यपि प्रसव वेदनाओं के सुने गए किस्सों से, बच्चे को जन्म देने की बात से, अब तक डरती आई थी। मेरे पतिदेव सुशांत जैसे, अतिवीर अत्यंत भले व्यक्ति हैं सोचकर मुझमें यह भावना जाग्रत होने लगी थी कि मैं उनका अंश पाकर अपने गर्भ में, हमारे बच्चे को पोषित करूं। दीदी का गर्भवती होना सुनकर भी, मेरे सभी भय मिट रहे थे। अब मुझमें माँ बनने की भावना बलवती हो रही थी।   

ऊपर से सामान्य दिख रही मैं, मगर मन ही मन मुझमें यही कामना चलती रही थी। सुशांत के बच्चे की माँ होने की, मेरे मन में उतावली मच रही थी। इस बीच मम्मी एवं जीजू सबके साथ बड़ी आत्मीयता से रहकर, संध्या के समय चले गए थे। उनके जाने के बाद मैं रात होने की प्रतीक्षा कर रही थी। ताकि सुशांत से मेरी कॉल पर बात हो और मैं अपनी हार्दिक कामना, उनसे कह पाऊँ। 

रात बिस्तर पर लेटे हुए मैं अपनी अभिलाषा को लेकर विचार में पड़ी हुई थी। मैं सोच रही थी कि क्या सुशांत का मन पापा होने को नहीं करता होगा। पहले कभी मैंने इस गंभीरता से इस विषय पर नहीं सोचा था मगर आज मेरा मन चाह रात था कि हमारा छोटा सा एक बेबी हो जो सुशांत को पापा और मुझे तुतला कर मम्मा सा कुछ कहे।

फिर मेरे मन में विचारों ने करवट ली थी। अब मैं सोचने लगी कि सुशांत जब दूर लद्दाख में देश की रक्षा में लगे हुए हैं, ऐसे समय में उनको अपनी अभिलाषा बताना क्या उचित है। क्या, इससे देश रक्षा के उनके कर्तव्य के मार्ग में कोई रुकावट तो खड़ी नहीं हो जाएगी। मैंने तय किया कि मुझे भावनाओं में ऐसे नहीं बहना होगा। इस राष्ट्र विपत्ति के समय में सुशांत के कर्तव्य में, मुझे आड़े नहीं आना होगा। कॉल पर न कह कर, अपनी इस अभिलाषा को सुशांत से कहना मैं, उनके यहाँ आने तक स्थगित रखूंगी। मैं यह सोच रही थी तभी सुशांत का कॉल आया था। हममें सामान्य, वियोग श्रृंगार की बातें हुईं थीं। फिर सुशांत ने मुझसे पूछा - 

निकी, एक बात बताओ कि मुझे, अभी दस दिनों के लिए या दिसंबर में महीने भर के अवकाश पर, तुम्हारे पास आना चाहिए।  

अब मुझे सुखद अचरज हो रहा था। यह शायद टेलीपैथी का चमत्कार था कि मेरे मनोवेग बिन कहे उनको मिल रहे थे। मैं उनसे मिलन की कल्पना में खो गई थी। बात वियोग से संयोग श्रृंगार की बनते दिखाई देने लगी थी। आशा की किरणों से मेरा मनोमस्तिष्क आलोकित हो रहा था। सुशांत की कोमल वाणी सुनकर मैं सपने से यथार्थ में लौटी थी। वे कह रहे थे - उत्तर तो दो, रमणीक!  

मैं सपनों में खोई हुई सी कह रही थी - चार माह हमारे विवाह को हो गए। हम सिर्फ 5 दिन साथ रह पाए हैं। दिसंबर तक चार और माह यूँ बिना मिले रहने का मेरा मन नहीं होता। संभव हो तो आप अभी दस दिनों के लिए आ जाइए, प्लीज …                                          

 --राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

25-08-2021