Wednesday, December 10, 2014

प्रतिक्रिया को विवश -नारी

प्रतिक्रिया को विवश -नारी
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जो सद्कर्म नहीं करते उनको स्वयं पर विश्वास ना होना तो उचित और स्वाभाविक ही होता है। किन्तु जो अच्छा आचरण और कर्म करते हैं उनका आत्मविश्वास डिगना उसके लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी चिंता का विषय होता है। 

पिछले लेख का समापन वाक्य यह था -"समतुल्य होने का नारी आत्मविश्वास ही खो दिया। "

नारी , परिजन पुरुषों की आज्ञाकारी हो गृहकार्य में तल्लीन थी। जितनी क्षमता थी उससे ज्यादा शारीरिक श्रम कर रही थी। परिजन जिन आभूषणों या परिधानों में उसे देखना चाहते वह पहन रही थी। परिवार मुखिया की उदरपूर्ती के बाद स्वयं भोज्य ग्रहण करती थी। संक्षिप्त में लिखें तो "जिन सीमाओं में उसे रखा  जा रहा था उसमे जीवन यापन कर रही थी "।  बदले में रक्षक पुरुष से  मिले  प्रेम में  ही अभिभूत रह लेती थी। इसकी पुष्टि वे रूढ़ियाँ करती हैं जिनके अंतर्गत विवाह पूर्व और विवाह उपरान्त नारी अनेक व्रत -उपवास और पूजा- भक्ति तो अपने पति को कई -कई जन्मों में पति रूप पाने लिए करती रही हैं ।

इतनी परोपकारी इतनी सहनशील और त्याग की प्रतिमूर्ति यह नारी आत्मविश्वास ना खोती तो अच्छा था। वह मनुष्य जनसंख्या का आधा हिस्सा थी।  आधी जनसँख्या में स्वयं की इक्छा अनुरूप जीवन यापन का सामर्थ्य और आत्मविश्वास ना होना समाज हितकारी बात नहीं थी। समाज व्यवस्था  सुदृढ़ की जानी चाहिए थी। परिवार ,समाज और धर्म निर्णय पुरुष आधीन थे लेकिन या तो पुरुष  की दृष्टि इतनी वृहद नहीं थी या कुछ अपने स्वार्थ भ्रम ने पुरुष  में यह दोष पैदा किया था, जिससे आधी आबादी के दैनिक विचरण और स्व-निर्णय के अधिकार सीमित थे .पुरुष ऐसी समाज संरचना में सुधार के प्रति उदासीन बना रहा था। जिससे नारी -

शिक्षा अवसर में कमी से पिछड़ती रही और मानसिक तौर पर सशक्त ना रही । शारीरिक शक्ति कम होने से आत्मरक्षा को पूरी तरह समर्थ नहीं थी। असुरक्षा और आशंकाओं में जीवन को विवश रही । जबकि ऐसे में नये आविष्कार और सुविधा  उपाय करने से पहले वे उपाय किये जाते जिससे पुरुष आश्रिता यह नारी स्वतंत्र रूप में भी सुरक्षित हो पाती और समान मस्तिष्क क्षमताओं के कारण शिक्षा के भी समान अवसर प्राप्त करती,  तो वे दूरगामी दृष्टि में पुरुष -नारी के दीर्घ और मधुर संबंध सुनिश्चित करने में सहायता मिलती ।  

पुरुष संकीर्ण सोच और दृष्टि ने इन सामाजिक उपायों को प्रधानता नहीं दी। ऐसा न होने पर भी नारी मन विद्रोह ना करता। लेकिन पुरुष स्वार्थलिप्सा ने नारी को वो कारण दिए या कहिये वे घाव दिए जिनकी पीड़ा सहते उसके मन में विद्रोह बीज शताब्दियों पल्लवित होते रहे।

पुरुष नारी पर तो पतिव्रता अपेक्षा रखता , स्वयं बहुविवाह करता।
विधुर हो जाये तो पुनर्विवाह पुरुष करता , किन्तु विधवा के पुनर्विवाह के उपाय ना करता।
पुरुष ने फुसलाया उसे क्षमा थी , किन्तु फुसलावे में आई नारी के लिए विकट भर्त्सना थी। जबकि फुसलाना ज्यादा निंदनीय होता है।

खेदजनक बात यह भी रही कि पुरुषों ने नारी को माँ ,कुछ हद तक बहन और बेटी  के रूप में यथोचित मान देने का प्रयास तो किया किन्तु नारी के अन्य रूप और रिश्ते को अपनी पिपासा और बुरी दृष्टि से कलंकित करने के यत्न किये ।  पत्नी , जो माँ और पिता जैसी ही निशंक हितैषी होती है,  उसे पुरुष ने उपहास का लक्ष्य बनाया ।

नारी प्रतिक्रिया को विवश हुई , लेकिन उसमें रही आत्मविश्वास की कमी से प्रतिक्रिया में उठे कदम नारी भलाई सुनिश्चित नहीं करते हैं।

लेखक की कपोल कल्पित मनुष्य प्रगति क्रम के आलेख आगे की प्रस्तुतियों में जारी रहेगा  (जिन नारी -पुरुष के अहं को ठेस लगी उनसे क्षमा सहित ) .......

-- राजेश जैन
10-12-2014



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