Tuesday, November 27, 2012

माध्यम कैसा जिम्मेदार राष्ट्र का?


माध्यम कैसा जिम्मेदार राष्ट्र का?
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मात्र एक पुरस्कार को वंचित
देख दुःख वंचित पुत्र के 
आया पिता को रोना बहुत
क्यों न हो , वह ह्रदय पिता का

वर्षों कर प्रशंसा गरीब राष्ट्र ने
दी प्रसिध्दी और बहुत संपत्ति 
स्वयं रहते आधे भरे पेट और
खरीद टिकट देखते सिनेमा वे

वंचित जीवन मूल सुविधा से
ऐसे देश के आधे नागरिक 
उनके प्रति दायित्व था होता
ना करते उन्हें दिग्भ्रमित तो 

यही बहुत सम्मान होता उनका 
गर दिखाते सच्चा जीवन सपना
हित साधने अपने अपने दिया 
उन्हें आडम्बर का थोथा सपना 

माध्यम कैसा जिम्मेदार राष्ट्र का?
बना दिया भ्रम प्रचार फैला कर
कोई कहे महान पिता उन्हें तो  
मुझे या अन्य को नहीं आपत्ति 

पर जब सब कहें महानायक तो
मुझे ना लगती बात वह सच्ची
महानायक वह त्यागे हित स्वयं के 
अपमान शब्द का दें गर ऐसों को
 




प्रेम मूल मन्त्र सुखी समाज लिए होता

प्रेम मूल मन्त्र सुखी समाज लिए होता
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प्रेम एक अति मधुर प्रचलित शब्द
जो प्रथम दृष्टया मिश्री घोलता
मीठे में कीड़े लगने की आशंका
अतः कठिन प्रेम सम्हालना होता

प्रेम डालता प्रेमियों पर जिम्मेदारी
जब ले रहे प्रेम को सीमित अर्थ में

प्रेम भाव प्रमुखतः ह्रदय से होता
किन्तु आज इसे मात्र तन से जोड़ते

पति-पत्नी मध्य जो प्रेम है होता
वह मन अतिरिक्त तन साथ होता
अन्य संबंधों में प्रेम ह्रदय में होता
अति विस्तृत प्रेम की सीमा होती

जहाँ प्रेम वहां सामीप्य में प्रसन्नता
प्रसन्न ह्रदय आत्म विश्वास जगाता
जिनमें प्रेम उनमें आदर भाव जागता
अतः बैर मिटाने प्रेम एक आवश्यकता

जहाँ प्रेम वहां रक्षक भाव भी होता
रक्षा हेतु आती एकता और वीरता
जिससे प्रेम उस पर यदि आता संकट
करुणा,त्याग भाव तब ह्रदय में आता

पवित्रता ,मधुरता,विश्वास , प्रसन्नता
रक्षा , त्याग, करुणा ,एकता और वीरता
जहाँ प्रेम वहां सब अस्तित्व में होते
प्रेम मूल मन्त्र सुखी समाज लिए होता

बहु प्रचारित किया अर्थ आज प्रेम का
प्रेम को जकड़ा सीमित अर्थ में
जब जगती वासना किसी साथ में
उसे बताया जाता प्रेम उनके बीच में

वासना फिसलती वह अति चंचल होती
अतः कई साथ छल करने का कारण होती
प्रेम भाव और प्रेम शब्द अति पावन होता
पर वासना ,छल में छद्म प्रेम बताया होता

प्रेम मिटाता शत्रुता पर बना अब कारण बैर का
मिटाता बैर ,वह प्रेम भारतीय होता
पाश्चात्य प्रभाव से प्रेम छद्म हो लाता बैर
राजेश चाहे उपाय भारतीय प्रेम प्रसार का                                                   

Monday, November 26, 2012

क्षमता सच्चे नायक पहचान की खोते


क्षमता सच्चे नायक पहचान की खोते 

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कौन माता-पिता ऐसे जो संतान से कहते 
ज्यादा धन अर्जन के पीछे न पड़िये
स्वच्छ मार्ग और मेहनत से आ जाये 
उस धन से मित व्ययी हो यापन करिये

यदा कदा जहाँ संस्कार ये दिए जा रहे 
वहां बाहर के वातावरण प्रभाव दिखा रहे 
संतान द्वन्द भ्रम भंवर में पड़ रही
क्योंकि लक्ष्य आडम्बर रख भागते सब दिखते


जिनके भव्य गाड़ी , परिधान और बंगले
अहम् जिनके उपलब्धि कारण बड़े हैं
अहम् और आडम्बर को प्रभाव में ले वे
बाध्य ,मासूमों से बहु शारीरिक सम्बन्ध बनाते

आधुनिक माध्यम यह जीवन सफल बताते
युवा उन्हें आज आदर्श व नायक मानते
फिर प्रयास उसी पथ चलने का करते
क्षमता सच्चे नायक पहचान की खोते

दौड़ ,भाग ,चिंता और तनाव में उलझते
उर्जा बचती नहीं विवेक जगा समझते
संक्षिप्त मार्ग धन अर्जन को तलाशते
भौतिक सामग्रियां एक एक कर जुटाते

वही शिक्षा -संस्कार अपने बच्चों को देते
सम्पति जो स्वयं बनाने में असमर्थ रहते
महत्वाकांक्षा इस अधूरी को उन पर डालते
स्वयं और बच्चों को भोगवादी बना डालते

तीस चालीस वर्ष में ही रोग उन्हें आ घेरते
व्यस्तता ऊपर उपचार हेतु समय कारण से
समय कमी माँ-पिता प्रति कर्तव्य निभाने
न रही अच्छी संतान अब गूँज सब दिशा में

चेताया था वैयक्तिक भोगवाद एक विषधारा
कर रचना पचास वर्ष पूर्व राष्ट्र-कवि ने सबको
'राजेश' करते हुए यह उल्लेख दाद नहीं चाहे
समस्या उन्मूलन हेतु विवेक विचार मात्र चाहे

Saturday, November 24, 2012

'राजेश' का आव्हान 'सरोवर'


'राजेश' का आव्हान 'सरोवर'
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रचते स्वयं वे साहित्य पुष्प हैं 
सजाने एक साहित्य सरोवर को 
पर जब लगाते पुष्प गुच्छ हैं 
वे चुनते अन्य रचित पुष्प हैं 

उनकी भावना उतनी ही पावन
गई थी लिखी अभिलाषा पुष्प की
मुझे तोडना वनमाली तुम और
करना समर्पित मातृभूमि वीर को   

भावना से सजता साहित्य सरोवर
वह उत्कृष्ट और अनुकरणीय होती 
साहित्यकार दे निस्वार्थ योग अपना 
रूप देते निर्मल साहित्य सरोवर का 

ऐसे भाव यदि रखें अन्य भी
अपने अपने कार्यक्षेत्र में 
स्वार्थ रहित कुछ योगदान से
प्रेरणा मिले यदि आज युवा को 

समवेत प्रयास से कुछ साहसी के
तब बनेगे कुछ चिकित्सा सरोवर
न्यायालय निर्मल न्याय सरोवर
होंगे सब धर्मालय ,धर्म सरोवर  

बनेगे कई निर्मल ज्ञान सरोवर
होगा निर्मल एक समाज सरोवर 
कहलायेगा पवित्र राष्ट्र सरोवर 
प्रेरित होगा सम्पूर्ण विश्व सरोवर 

चलें पथ निर्मित करने सरोवर
करें सार्थक यह मनुष्य जीवन 
पछतावा मौत सम्मुख हमें ना 
क्योंकि होंगे पूरे दायित्व हमारे 

'राजेश' का आव्हान 'सरोवर'
निर्मित करें अपने कार्यक्षेत्र में  
सबके कार्य अति महत्वपूर्ण है
संपन्न यदि हो पूर्ण न्याय से  




पाश्चात्य प्रभाव में खोया अर्थ

पाश्चात्य प्रभाव में खोया अर्थ
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पाश्चात्य प्रभाव में खोया अर्थ
प्यार के किस्से जो हुए आम
प्यार शब्द मनो-विकृति पर्याय
प्यार नाम से नित नए धोखे

इस धोखे से कई हो प्रभावित
क्षमता होती जब उच्च जीवन

युवा जाते हैं अवसाद में तब
मै ना करूँ शब्द प्यार उपयोग

जहाँ होता था भाव त्याग का
जहाँ होता था निस्वार्थ लाड़
मै सबसे रखता लाड़ हूँ अतः
नहीं कहूंगा करता प्यार आपसे

असमय मौत नहीं कोई समाधान है

असमय मौत नहीं कोई समाधान है
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किसी मौत पर उत्सव नहीं उचित
मौत मिटाती आशा परिजन ह्रदय की
जिन बुराईयों के होने से किसी की
हमें लगती मौत उत्सव सी उसकी

सब की हो कामना ऐसी ख़त्म उसमें
हों बुराइयाँ जीवन में मौत के पहले ही
...

साथ ही प्रयास निर्मूल वे कारण हों
जिनसे उपजती बुराई ऐसी किसी में

यद्यपि दिखती बुराई मनुष्य छोटे में
जबकि यह असफलता समाज पूरे की
बढ़ने के पहले बुराइयाँ इस सीमा तक
क्यों ना मिलती प्रेरणा पहले रोक की

असमय मौत नहीं कोई समाधान है
उचित करना और प्रेरणा दे सकना
सब का जीवन लक्ष्य हो ,समाधान है
करें साहस नष्ट बुराई विष बीज हों

"कहते ज्ञान खोल देता चक्षु"

 "कहते ज्ञान खोल देता चक्षु"

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छीन के कुछ किसी से कोई
कितने दिन सम्हाल रख पायेगा
या जो नहीं छीना भी किसी ने
कितने दिन कोई सम्हाल पायेगा

बारी जाने की तो बिना छीने
किसी के स्वयं छिन जायेगा
कैसा अंधत्व दिखता रोज पर
होता नहीं स्पष्ट यह सच हमें है

धन लोलुपता में प्राण ले लिए
अमर है क्या? जो धन को इस
अपने पास बचा रख पायेगा
छोड़ यहीं स्वयं वहीँ चला जायेगा

कहते ज्ञान खोल देता चक्षु ऐसे
भेद उचित अनुचित बीच में होवे
और कहते ज्ञान अर्जित कर रहे
आज लोग अपेक्षा पहले से ज्यादा

फिर आज का ज्ञान है ये कैसा ?
उठती दीवार गृह बीच भाइयों में देखी
न मिली खुदाई मोहन जोदड़ों में ऐसी
हीन? विकसित या वह सभ्यता बोलो..

स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें

स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें
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घूम रहे दो व्यक्ति इस तरह
नीयत एक की दिखे कोई सीधा
जिसे कम यत्न से मै ठग लूं
दूजा देखे कौन विपत्ति में
जिसकी सहायता मै कर दूं
दोनों की इन दृष्टि को देखकर
अधिकांश भावना दूजे की सराहें
संस्कार मिले परिजन ,धर्म से
अच्छी बात मन अच्छी माने

फिर जब अपनी करनी पर आयें
क्यों पलड़ा पहले तरफ झुक जाए
स्वार्थवश अपने हित की सोचते
निस्वार्थ सहायता कम कर पाते
सबको इस भांति करते देखते, सुनते
सब ही इसी रास्ते चल पड़ते
फिर दोष समय पर मड़ते
समय ख़राब आया है कहते
किसी को अन्य की चिंता न होती
सबको चिंता अपने भले की होती

हम घर दरवाजे मजबूत बनाते
मूल्यवान घुस चोर न ले जाये
पर कमजोर किये ह्रदय द्वार हमने
अवगुण चोर घुस अन्दर ह्रदय में
मूल्यवान गुणों को हर रहे
जिस तरह मेहनत लगे
मजबूत घर द्वार बनाने
उसी तरह ह्रदय द्वार हेतु भी

संकल्प यदि मजबूती का न करें
तो आएगा समय और ख़राब ही
कहते स्वयं को बच्चों का हितैषी
ख़राब समय यदि लाये बच्चों पर
तो क्या सचमुच हम रहे हितैषी?

करें मंथन अगर लगे उचित तो
आसक्तियों पर लगायें पाबंदी
करें त्याग बांटे मिठास थोड़ी
अन्य भी चख सके जीवन मीठा
देखें जब अन्य ऐसा करते आपको
प्रेरणा शायद ले सकें वे थोड़ी
तब आने वाला समय शायद
नहीं होगा ख़राब आज सा
बच्चे हो सकें निहाल जिसमें
और दे सकें अच्छे संस्कार भी
होने वाले अपने बच्चों को
अगर जो हो सकें हम
अच्छे माता-पिता अपने बच्चों के
तब ही वे हो सकेंगे ऐसे
अपने बच्चों के लिए भी
यह थी इस माटी की परम्पराएँ
स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें
स्वार्थ वशीभूत न इसे मिटायें

Saturday, November 17, 2012

आँखें मेरी भर आती हैं

आँखें मेरी भर आती हैं
 
धन की सत्ता बढ़ी यूँ है
मानव मन बेखबर यूँ है
करुण दृश्य दिखते यूँ हैं
आँखें मेरी भर आती हैं

आये कोई भोजनालय में
थोडा खा उठे पर भूखा ही
भूख तो रह गई अभी शेष 
पास चुकाने धन नहीं शेष

उपचार कराने जाता रोगी
सुन कीमत उपचार दवा की
लौटे इलाज अधूरा कराये कि
पास चुकाने धन नहीं शेष 
     
देखते करुण दृश्य आसपास
पीड़ा अनुभव कर पाते नहीं
धन अभाव में रोगी व भूखे
बाध्य हो नित यूँ जी रहे हैं

जीवन मोह रहता है शेष                         
उदर क्षुधा रहती है शेष         
उठे यों बीच से कोई जब     
आँखें मेरी भर आती हैं

सम्मोहित हो आडम्बर में
अग्रसर दयाहीन दिशा में
समाज यूँ दिग्भ्रमित जब                           
आँखें मेरी भर आती हैं

मस्तिष्क विवेकशील जब                             
भूल अनुभव करेगा क्या
मन में है ये विश्वास मेरे
आएगा सही पथ ये समाज

जीवन न राजेश बहुत शेष
रहेगी क्या ये जिज्ञासा शेष
या हो सकेगी ये भूल सुधार
आँखें मेरी भर आती हैं

(संपादित)
--  राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
28.04.2020


                     ऑंखें मेरी भर आती है ----------
        
        धन की सत्ता यों बढ़ी है
                                               मानव मन बेखबर यों है
        करुणा दृश्य दिखते यों हैं
                                              ऑंखें मेरी भर आती है
        आये कोई भोजनालय में
                                              पर उठे भूखा खा थोडा ही 
        भूख तो रह गई अभी शेष   
                     पास चुकाने धन शेष

                      रोगी जाता उपचार कराने
                               कीमत सुन दवा उपचार की
          लौटे अधूरा उपचार कराये
                               पास चुकाने धन  शेष           दृश्य देखते आसपास जन
                               नहीं कर पाते अनुभव पीड़ा
          धन अभाव में रोगी भूखे
                               बाध्य यों हैं नित हो रहे
           जीवन मोह रहता शेष है                              उदर क्षुधा रह गई शेष है          उठता बीच से यों कोई है    
                               ऑंखें मेरी भर आती है.
           सम्मोहित हो आडम्बर में
                              अग्रसर दयाहीन दिशा में
          दिग्भ्रमित होता समाज है                              ऑंखें मेरी भर आती है.
           मनु मस्तिष्क विवेकशील                              भूल अनुभव करेगा वह
          है विश्वास मन में मेरे
                            आएगा सही पथ ये समाज
          जीवन राजेश बहुत शेष
                             जाऊंगा रख जिज्ञासा शेष
         कब होगी यह भूल सुधार?
                             ऑंखें मेरी भर आती है 


                               --  राजेश जैन


                                 



 

Monday, November 12, 2012

मेरी प्रतिष्ठा सब दिशा फैले



मेरी प्रतिष्ठा सब दिशा फैले


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मेरी प्रतिष्ठा सब दिशा फैले
मै उन्नति करूँ सबसे ज्यादा
मेरी पत्नी हो सबसे सुन्दर
वह हो चरित्रवान सुशीला भी


मेरे बच्चे हों कुशाग्र व सुन्दर
हम सब हों स्वस्थ ,दीर्घायु
हो वैभव मेरा बहुत ही ज्यादा
ना हो कोई बराबर मेरे ,हमारे


हम हों सबसे अच्छे व निराले
ऐसी रखता कामना जीवन भर
प्रार्थना ले रोज मंदिर हूँ जाता
हर तरह पूजा व भक्ति करता

सदाकाल से रीत चली आ रही
हर ह्रदय में रहती भावना ऐसी
वशीभूत हो उपाय सभी करते
लेकिन रहती कामनाएं शेष


हम देखते असफल होते सबको
तब भी ना लेते सबक जीवन में
दोहराते भूल वही सब जो करते
होते खेद खिन्न स्व-भावना से


आठ अरब मनुष्य विश्व में
सबके होती एक सी भावना
कैसे ? इतने सब एक साथ
हो सकते हैं सर्वश्रेष्ठ सारे


मेरे हमारे की चिंता छोड़कर
हम करें चिंता थोड़ी अन्य की
अवसर होने पर तब अन्य भी
करें वैसी ही चिंता हमारी


थी रीत संस्कृति भारतीय की
सहज था इसलिए जीवन पहले
दीवाली के इस शुभ दिन से
संकल्प लें समाज सुधार का


रखें आचरण व कर्म अच्छे तो
स्वतः बढेगी प्रतिष्ठा अपनी
आलोकित ह्रदय हो दीवाली दीप से
शुभकामना इस दीपावली मेरी

Saturday, November 10, 2012

स्वार्थ तुम्हे क्यों मौत ना आती ?


स्वार्थ तुम्हे क्यों मौत ना आती ?

छल-कपट तुम्हारी ऐसी की तैसी
तुम उठा रहे विश्वास समाज से
धोखा तुम जा गड़ो पाताल में 
ताकि लौटे विश्वास समाज में  

स्वार्थ तुम्हे क्यों मौत ना आती ?
तुम मरते तो परोपकार लौटता 
अंधी कामवासना धिक्कार तुम्हे है 
तुम पनपा रहे व्यभिचार विश्व में 

लोभ-लालच हो सर्वनाश तुम्हारा 
बड़ा दी तुमने बहुत धन की महिमा 
हिंसा तुम बहुत क्रूर व निंदनीय 
पीढ़ियों तक उपजाती वैमनस्य हो

ढोंग तुम बहुत निष्ठुर व निकम्मे 
शिकार शंका के सच्चे संत ,तुम्हारे 
निम्न स्तर की नहीं दे रहा गालियाँ
साहित्यिक अपशब्द तुम सभी को मेरे

हमारा जीवन कटता है जैसे तैसे
मगर हमें सख्त नापसंद यह कल्पना  
आने वाली मनु संतति हो इसी हाल में 
तुम जाओ तो आये शांति -सुरक्षा 

क्या? स्वाभिमान है बचा सभी ,तुम्हारा 
क्या? जाओगे नहीं मनुष्य समाज से 
निर्दयी तुम सब दया सीखो धर्म से
विदा लो इस सभ्य मनुष्य समाज से  

निष्कलंक सभ्यता वह कहलाती 
जहाँ तुम्हारा अस्तित्व ना होता
परस्पर प्रेम ,शांति ,करुणा जहाँ बसती
सज्जनता दिखती सभ्य समाज में     

Friday, November 9, 2012

पीड़ा मुझे हो जाती है

पीड़ा मुझे हो जाती है

जब देखता चलकर बहुत, थक जाता है कोई पथिक

पैदल चलने के सिवा नहीं, पास उसके कोई विकल्प 

व्यय नहीं कर सकता वह, लेने कोई वाहन सेवा में 

प्रतिदिन देख कई दृश्य ऐसे, पीड़ा मुझे हो जाती है

सार्वजनिक स्थलों में विक्षिप्त, दिखते कई पड़े, घूमते 

हो जाने पर अवस्था ऐसी, त्यागा उन्हें स्वयं अपनों ने 

ठण्ड में सिकुड़े पड़े किसी कोने में, तब भी रहें ठिठुरते ही

भूखे ही शायद वे हों द्रष्टव्य इनसे, पीड़ा मुझे हो जाती है

मासूम कई किशोरवय में ही, भटकते हैं प्लेटफार्मों पर

जन्मे कोख से नारी के, शिकार हुई किसी कामी की जो

 या अनाथ हो अबोध उम्र में ,चल बसने से माता पिता के

शोषण होता देख इन मासूमों का, पीड़ा मुझे हो जाती है

गीतकार कामना में धन की, रचना देते हलके अर्थ की

रचते गीत नाम प्रयोग कर, शीला,मुन्नी और चमेली

निकले जब गृह से नारी, लेकर प्रयोजन घर बाहर के

गाते मजनूँ लक्ष्य कर नारी को, पीड़ा मुझे हो जाती है

सजती हैं दुकानें, भव्य एवं सुन्दर कई सामग्रियों से

आता कोई क्रय करने जब, जरुरत पर इन्हें अपनों की

सुनता जब कीमत पसंद होने पर, लौटे वह मनमसोसे

विवशता पर ऐसे क्रयकर्ता की, पीड़ा मुझे हो जाती है

ये हैं उदाहारण कुछ थोड़े, पर दृश्य उत्पन्न रोज अनेक

विश्व में मानव संस्कृति विकसित हो गई जब इतनी

हैरान समाज व्यवस्था वंचित कोई क्यों? इस हद तक

बदल सकूँ सामर्थ्य नहीं अतः, पीड़ा मुझे हो जाती है

'राजेश', कहते हैं लेखनी में कवि की ताकत बहुत है 

इसलिए मै बना कवि, क्या मिलता सामर्थ्य मुझे है?

बदले इस परिदृश्य को, जगा सकता हूँ ऐसी चेतना?

क्योंकि दयनीय ये दृश्य देख, पीड़ा मुझे हो जाती है


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
09.11.2012

Thursday, November 8, 2012

इक्कीसवीं सदी के भाग्यशाली बच्चे


इक्कीसवीं सदी  के भाग्यशाली बच्चे 
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बच्चों मेरे प्रिय तुम बच्चों
तुम जन्मे इक्कीसवीं सदी में 
जो कहाती अति आधनिक सदी है
इस तरह तुम अति भाग्यशाली हो
खोलीं तुमने आँखें अति साधनों बीच है
ऐ सी ,फ्लाईट ,मोबाईल ,नेट सुलभ हैं 
मिलते ट्वॉय इलेक्ट्रॉनिक तुम्हें हैं 
खाने मिल रहे पिज़्ज़ा ,नुडल्स ,कुरकुरे हैं 
और भी भोज्य अति स्वादिष्ट तुम्हारे हैं 
शिक्षा तीन वर्ष में तुम्हारी होती प्रारंभ है    
पढने जाते बस और कारों में तुम हो
यूनिफार्म  रंग बिरंगी तुम्हारी है 
जल्दी तुम करते दक्षता अंग्रेजी में हो
एक या दो तुम "आँखों  के तारे "
पलते घर में अति लाड दुलार बीच हो
जिद तुम्हारी पूरी सभी हों 
पिता माँ रखते यह ख्याल बहुत हैं
इसलिए माँ भी जाती है कमाने 
पर मेरे प्रिय तुम बच्चों 
मै संशय में बहुत ही रहता 
ऊपर की जिन बातों से तुम्हे हैं 
सब मानते भाग्यशाली तुम्हे हैं 
उनमे ना जाने क्यों मुझे संशय है
मुझे लगता हीन भाग्य तुम्हारा 
आज की सुख सुविधा बीच में तुम
पलते आया की गोद में तुम हो
माँ जो खिलाती थी हमें खाना    
वह बनाती स्वयं हाथों से अपने 
जिसमें पौष्टिकता और स्नेह था होता
पकवान ढेर घर में ही बनते 
शुध्द घी और गुड मावे में 
यद्यपि ना थे टी वी  सुलभ बहुत
इसलिए खेला करते बच्चे घर आँगन में 
परिश्रम से खेल आउट डोर के 
बच्चे होते स्वस्थ ,गठीले शरीर के
पलते जब थे सयुंक्त परिवारों में 
सुलभ थी गोद दादा दादी , ताऊ ताई की
तुम पाते संस्कार ,भारतीय संस्कृति के
मिलता ध्यान बड़ों का अधिक था 
घर के बाहर बच्चे थे निकलते 
मिलते उन्हें आस पड़ोस के बड़े थे 
सब होते बहन ,भैय्या चाची और चाचा 
ना बच्चे ना पिता और माँ थे 
जैसे आज होते अति व्यस्त सभी हैं 
घर पड़ोस में रहती तसल्ली थी
जीवन जीते अति सहज सभी थे 
जैसा आज आडम्बर ना होता तब था 
पढ़कर यह पुरातन मुझे ना कहना 
सब इतने के बाद भी तुमको 
मै कहना भाग्यशाली तुम्हे चाहता 
गर ले सको संस्कार उच्च से
पढ़कर प्रेरणात्मक साहित्य स्वयं से
गर लौटाओ भारतीय संस्कृति अपनी
सब आधुनिक साधनों बीच में 
ह्रदय से करता कामना ऐसी
तुम बनो भाग्यशाली ऐसे 
श्रेय मिले ढूँढने संस्कृति का तुम्हें
जो खोई विरासत थी हमने 
तब होंगे तुलना में हीन  वे बच्चे 
जिन्होंने ली प्रथम श्वांस पिछली सदी में 
 कर दो सिध्द यह मेरे बच्चों तुम
तुम हो भाग्यशाली ,अति भाग्यशाली 
भाग्यशाली मेरे तुम प्यारे बच्चों ..............

Tuesday, November 6, 2012

भारतीय संस्कृति और मानवता का बचाव

भारतीय संस्कृति और मानवता का बचाव                                                 

                          

                              मनुष्य का शरीर , शरीर का बनाव ,श्रृंगार तथा वस्त्र हार्डवेयर रूप में , और ह्रदय (मनो-मस्तिष्क ) में जगह करने वाले सिध्दांत ,विचार को सॉफ्टवेयर रूप में देखें .तो भारतीयता और भारतीय संस्कार के लिए , हार्डवेयर का महत्व ज्यादा नहीं होता है ,सॉफ्टवेयर अवश्य ही भारतीय संस्कृति अनुमोदित रहने से समाज और विश्व में भारतीय संस्कृति ,परम्पराओं और मर्यादाओं को पुनः स्थापित कर मानवता की भलाई की जा सकती है.

                             भारतीय संस्कृति क्या है ? इसका सबको अपने तरह का विवरण और ज्ञान होगा. जिन्होंने (विशेषकर नव-युवाओं ) इसके अर्थ के तरफ कभी चिंतन मनन नहीं कर पाया है ,संक्षिप्त में उन्हें यह उल्लेख करना उचित होगा .भारतीय संस्कृति को जो मानते रहे हैं उनके ह्रदय में उमड़ने वाले विवेक विचारों में निम्न बातों की प्रमुखता होती है .1. उदारता 2. करुणा 3. परस्पर स्नेह 4. परस्पर विश्वास 5. न्याय 6.सत्य .7 अहिंसा 8.चरित्र 9.आडम्बर मुक्त 10 आत्म विश्वास .... और भी कुछ अन्य .सामाजिक वातावरण पाश्चात्य प्रभाव में प्रभावित हुआ . और भारतीय ह्रदय में सॉफ्टवेयर (विश्वास-विचार) डिगने लगे .प्रभाव हर क्षेत्र में धीरे धीरे दिखने लगे .

                            20-25 वर्ष पूर्व किसी संस्थान से वरिष्ट पदों पर आसीन अधिकारी रिटायर होते समय यह सोचता था , उसने संस्थान में कार्यरत रहते अपने परिवार का भरण पोषण कर लिया , बच्चों को उचित शिक्षा दिलवा दी , अपने लिए कुछ मान सम्मान अर्जित कर लिया , कुछ धन भी संग्रह कर लिया . इस सबके साथ जीवन का शेष समय सुविधा से कट जायेगा। अब मै ऐसा कुछ कर लूं , जिससे संस्थान आगे भी उन्नति कर सके और संस्थान जिस प्रकारकी सर्विस जुड़े उपभोक्ता / नागरिकों को देता है वह इससे बेहतर तरीके से जारी रह सके .इससे अभी जो हैं और बाद में जुड़ने वालों का जीवन भी मेरी जैसी सरलता से इसको साथ देते और इसके सहारे से व्यतीत होता रहे .परिस्थितियां बदली आज रिटायर हो रहे ऐसे वरिष्ट की चिंता कुछ इस तरह होने लगी , मेरे थोड़े से दिन बचे हैं कैसे सुविधा से निकाल लूं , कैसे कुछ और धन बना लूं , जिससे आगे आसानी हो और फिर बाद संस्थान को जो होना हो होता रहे .

                                   यह सब हार्डवेयर के बदलाव से नहीं हुआ है। हमारे अन्दर बदल रहे सॉफ्टवेयर से हो रहा है। सॉफ्टवेयर एक दो या कुछ में बदल गया होता तो सरलता से ठीक किया जा सकता था . पर यह अधिकांश में बदल गया . ऐसे बहुसंख्य बदलाव संकेत करता है आज का वातावरण (ENVOIRNMENT) कुछ ऐसा हो गया है जो अधिसंख्य भारतीय नागरिकों के अन्दर का सॉफ्टवेयर सुलभता से बदले जाने में सहायक हो रहा है . वातावरण बदलने के आरोपित कारण का विस्तृत वर्णन और लेखों में किया गया है . संक्षिप्त में रोज हम क्या देख रहे हैं , किस से प्रेरणा ले रहे हैं . क्या पढने में ज्यादा समय लगा रहे हैं . वह हममें बदलाव ला रहा है . और अधिसंख्य भी जब वही सब कर रहे हैं तो पूरा वातावरण ही बदल जा रहा है . जब वातावरण ही कुछ दूसरे प्रकार का हो गया है ऐसे में पुराने सॉफ्टवेयर के साथ अपवाद कुछ रहना भी चाहें तो SERVIVAL ( बचाए रखा जाना ) कठिन हो रहा है . भारतीय संस्कार तो विश्व के अन्य क्षेत्र के मनुष्य (हार्डवेयर ) के अन्दर डाले जा सकते हैं . लेकिन हो उल्टा रहा है उनका सॉफ्टवेयर भारतीय मनुष्य के अन्दर के संस्कृति का स्थान ले रहा है .

                                  ऐसे में भारतीय संस्कृति अनुमोदित संस्कार कैसे दिए जा सकते हैं , और दिए जाएँ तो ग्रहण करने वालों को किन चुनौतियों से दो चार होना पढ़ेगा . कल्पना की जा सकती है।ऐसा संक्षिप्त रास्ता ढूंढना कि मै तो छुप कर या प्रकट में जो मन मर्जी हो करूँ पर दूसरे सुसंस्कारित रहते हुये व्यवहार करें / या संस्कृति का ध्यान और चिंता रखें . यह आचरण समस्या नहीं सुलझा सकेगा . क्यों कि अगर इसमें मजा हम को आता है तो दूसरा कोई अलग माटी का तो शायद ही होगा जिसे इसमें नहीं , बल्कि अच्छी बात अच्छी लगेगी . आशय यह है कि जिस आचरण से संस्कृति बचाई या पुनर्जीवित नहीं की जा सकती वैसा आचरण त्यागना होगा . कोई दूसरा त्यागे उससे पहले आरम्भ अपने से करना होगा .


                                 यही मार्ग दिखाई पढता है। अगर यह त्याग हम नहीं कर सकते हैं . तो हम दूसरी एक बात त्याग करें . वह है " हम संस्कृति के ख्याल को मन से विदा कर दें , उसके संबंध में चिंता अपनी चर्चाओं और अपने लिखने पढने से दूर कर दें " . हम अपने मन के राजा हो कर जियें . हमारे बच्चे एक कदम और आगे बढ़ाएंगे . हमें यह भी चिंता छोड़ देनी चाहिए। हमें अलग कर अगर कोई और संस्कृति को महत्व देगा और आचरण , इक्छा शक्ति उसमें या उनमें ज्यादा होगी तो संस्कृति बचा ली जाएगी . अन्यथा अन्य भी सब आदत से लाचार होंगे तो पूरे विश्व में वैयक्तित भोगवाद की संस्कृति चलेगी , वैश्विक होगी वह . कोई भारतीय या पाश्चात्य नहीं रह जाएगी भेद ख़त्म होगा .


                                पढने में यदि बुरा लगता है तो गंभीरता से सोचना और करना होगा उपाय . नहीं तो बहुत सरल है , सब मजे में रहेंगे जिसका जितना प्रभाव , ताकत और इक्छा में प्रबलता होगी उस अनुसार उपभोग करता जायेगा. कभी एक दूसरे से भोग के रास्ते में टकराव होगा तो जो शक्तिशाली होगा दूसरे पर काबू कर अपना मंतव्य सिध्द करेगा . जो आज दूसरे द्वारा काबू कर लिया गया है , अपने समय (बारी ) की प्रतीक्षा कर लेगा। अक्सर बारी जीवन में सभी की आ ही जाती है. कभी नाव नदी पर होती है कभी नदी नाव पर हो जाती है . क्रम चलेगा . जी हाँ जानवर विमान ना तो चला रहा होगा , ना उसमें चल रहा होगा . वह ना ही भव्य / आलीशान महलों में भी निवास कर रहा होगा . लेकिन उसके जैसे भोज्य की चाह ( जिसे पसंद किया शिकार किया और भोजन बनाया ) , जितने और जब जब मिले उनसे रति सम्बन्ध बनाये . और जब आयु पूर्ण हुई चले गए . यह हैवानियत हम मनुष्य में निवास करने लगेगी . आदि काल का मानव से तब हम भिन्न होंगे , वह नग्न और जंगलों में रहता था , जानवर जैसा विचरण करता और अमर्यादित था . हम वस्त्रों में होंगे ,भवनों में रहेंगे विचरण भले विमानों में करेंगें पर अमर्यादित वैसे ही हो जायेंगे।

                             अभी भी मानव समाज का बचाओ भारतीय संस्कृति की ओर वापस आने पर किया जा सकता है . अभी भी भारत में रह रहे व्यक्ति के ह्रदय से सॉफ्टवेयर पूरी तरह नहीं बदला है .अभी भी वह क्षमता बाकि है जिससे रोलबैक (वापस लौटना) संभव है .

                             अन्य क्षेत्र से मानवता की भलाई में अग्रणी बनने या नेतृत्व की आशा नहीं की जा सकती है. मनुष्य पाश्चात्य क्षेत्रों में यांत्रिक हो गया है . भारतीय संस्कृति में उल्लेखित विशेषताओं पर कोई विशेष चिंतन वहां बचा नहीं है . अपना बचाओ सभी चाहते हैं . उनका इस हेतु समाधान व्यवस्था रूप में ढूँढने का है . अर्थात मनुष्य के ह्रदय में सॉफ्टवेयर (विवेक-विचार ) से किसी को कुछ लेना देना नहीं है . आदत और आचरण व्यवस्थाओं के भय से कोई भी दुरुस्त रखे यह उनके लिए पर्याप्त है. भोगवाद प्रमुख है . मनुष्य जीवन का यही प्रयोजन है . धन की महिमा बढ़ी कर ली है. अपनी चालाकी से , यह अधिकतर प्रकृति प्रदत्त संसाधनों पर अपना वर्चस्व उन्होंने किया है. धन की ताकत से अच्छे से अच्छा क्रय करने की क्षमता उत्पन्न कर ली है . विश्व के किसी भी हिस्से में वह सामग्री जो उनके उपभोग में प्रिय है उन तक इस क्षमता के होने से पहुँच जाती है. रति सम्बन्ध मन-बहलाने का एक प्रमुख स्त्रोत बना है. प्रचुरता से उसकी सामग्री /वीडियो/लेख/कहानियां में उपलब्ध की जा रही है . यही देख दिखला कर 10-12 वर्ष के बालक बालिकाओं को भी इस हेतु प्रवृत और सम्मोहित किया जा रहा है. उनके मन में यही सॉफ्टवेयर डाला जा रहा है. यही जीवन और मौज मजा है .भारत में यह सब नहीं होता था . यहाँ जान बूझकर लाया जा रहा है . अगर हम भी इसमें लिप्त हो जाएँ या कामना ही ऐसी रखने लगें तो विरोध और आलोचना का खतरा उनके लिए नहीं रह जाने वाला है.

                          हमारे धार्मिक विश्वास अलग रहे हैं . हमने जीवन समाप्त होता है पर जीव अनश्वर है (जो सर्व काल रहने वाला है) माना है . किसी ने किसी रूप में शरीर में हमारे अन्दर की आत्मा अस्तित्व में हमेशा रही है रहेगी . हमारे जीवन में अनुकूलताएँ /प्रतिकूलताएं हमारे जन्म-जन्मान्तर के पुण्य और पापों के अनुरूप आती जाती हैं. संस्कृति से हमें संस्कार ऐसे ही मिलते आयें हैं . तभी हम आज भी सम्मोहित तो भोगवाद -प्रमुख पाश्चात्य दर्शन से हो रहे हैं . फिर भी उनकी व्यभिचार प्रवृति का अनुकरण करते भी हैं तो डर-छिपकर . ऐसा जब कर भी लेते हैं तो एक अपराध बोध मन में कभी आता है ,आत्मग्लानि भी उत्पन्न होती है . यह अपराध बोध और आत्मग्लानि भारतीय ह्रदय से निकालना पाश्चात्य यांत्रिक मनुष्य चाहता है. जबकि यह ही वह आशा की किरण अभी बाकि है , जिसके कारण हम अपनी संस्कृति बचा सकते हैं . मानवता को बचा सकते हैं . इसका नेतृत्व करते हुए पुनः भारत की पुरातन गरिमा और महत्व को बचा कर शेष विश्व का भी विनाशकारी मार्ग /पतन की ओर अग्रसर मानव अस्तित्व को बचा सकते हैं .

                       वास्तव में अपनी संस्कृति के लिए किसी भाषा विशेष या पाठ्यक्रम विशेष की शिक्षा अनिवार्य नहीं है . किसी भी भाषा का जानकार ,ह्रदय में संस्कृति अनुमोदित विचार और विवेक धारण कर सकता है . जिन्हें आचरण में लाये जाने के लिए भी भाषा कोई सीमा नहीं है. यह अवश्य उल्लेख करना होगा कठिनाई एकमात्र यह है , आज सब जिस दिशा में चल रहे हैं , उससे अलग होकर दिखना और चलना पड़ेगा . कुछ अवश्य ही इस मार्ग के पथिक मिल जायेंगे . जब संख्या बढे और ये कुछ , कुछ अधिक हो जाएँ तो समझिये मनुष्य फिर मानवता के पथ पर चल पड़ेगा . नेतृत्व हमेशा थोड़े लोग करते हैं , जो अनुशरण करने वालों को भी सही मंजिल पर पहुंचाते है. अगर आपको कोई इस मार्ग पर मार्गदर्शन   देने वाला नहीं मिल रहा है तो आप ही आगे आयें . आपको नेतृत्व का दायित्व ग्रहण कर दूसरों को यह (मार्गदर्शन ) देना है . 
मनुष्य यह जीवन शेष रहते  सब कुछ हम पर ही है।

Monday, November 5, 2012

 वक्तव्य -----
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                      सभी आयु वर्ग के लोग और वह भी एक मनोरंजन के लक्ष्य से उपस्थित ऐसे में उदबोधन की औपचारिकता के दुष्कर कार्य , मै  निभाने की कोशिश करता हूँ , अगर शांति से सुना जाता देखूंगा तो १० मिनट तक लूँगा .

                    विषय  बच्चे और आज की चुनौतियां लेकर कहूँगा .......   बच्चे भी हैं , और उनके भविष्य संवरता देखने वाले माता-पिता और बड़े भाई और बहिन भी हैं... परिवेश मध्यम वर्ग  अधिकतर का है . बच्चे के आगामी जीवन का सपना इससे बेहतर उच्च वर्ग में जीवन यापन का है . उन्नति बुरी नहीं है . महत्वाकांक्षा उन्नति दिला सकती है . पर अति महत्वाकांक्षा कई समस्याएँ उत्पन्न कर सकती हैं .घर में गाइडेंस कहीं पर्याप्त है . कहीं व्यस्ततावश बच्चे की इस आवश्यकता को समझ नहीं पाने से इस बात के लिए बच्चे मित्रों और अन्य साधनों से जुटाने का यत्न करते हैं .जो धोखा न दे और सच में हितैषी है वह तो घर-परिवार में ही होते हैं .  भाग्यशाली हम हों तो कुछ सच्चे शुभ-चिन्तक   बाहर भी मिलते हैं . पर वे वास्तविक    शुभ-चिन्तक हैं या नहीं कई बार धोखा खा चुकने के पहले तक तय नहीं हो पाता . ऐसे हालातों में क्या करे बच्चा ? उसे तो बड़ा बनना हैं . ऐसी स्थिति में बच्चे वह करने लगते हैं जो अन्य सब भी कर रहे हैं . अर्थात कुछ भी वह सिर्फ इसलिए करते जाते हैं क्योंकि उनके साथ पढने वाले और मित्र करते हैं . मै भी यही कहूँगा जी हाँ, कीजिये तैयारी अच्छे चिकित्सक , ca  , अधिवक्ता या इंजिनियर और सफल व्यवसायी बनने की . इस हेतु जाइये कोचिंग , कीजिये नेट ,रखिये मोबाईल और बाइक भी , यदि घर की आय पर्याप्त हो तो . पर ध्यान रखिये , अच्छी हर चीज के साथ अरुचिकर या हानिकारक  भी कुछ  होता है . आधुनिक हर साधन में ढेरों गुण हैं तो उनके सही प्रयोग न करने के ढेरों नुकसान भी हैं . इसे एक उदाहरण से समझना होगा . आम सभी को अच्छा लगता है . लेकिन जब आप आम खाते हैं तो उसका छिलका नहीं खाते ,खाने के बाद गुठली अलग कर देते हैं , और खाते हुए इस बात का ध्यान भी रखते हैं  कि सडा खाने में ना आ जाये . आशय साफ है आम अच्छा होता है तब भी उसमे से भी हमने लाभदायी और मीठी लगने वाला अंश ग्रहण किया है . इसी तरह सभी आज अच्छे साधन प्रयोग कर रहे हैं . पर उन साधनों का लाभदायी और प्रगति दिलाता ढंग ही हमें उपयोग करना चाहिए . 

                           मोबाईल ही लें .. जरुरत से ज्यादा बातें बिल बढ़ाएगी , साथ ही समय भी खर्च होगा . फालतू के sms ध्यान भी भटकायेंगे. नेट पर .. जानकारी के साथ vulgarity बहुत उपलब्ध है . जो उपयोगी ज्ञान /जानकारी  की तुलना में आसानी से नेट पर उपलब्ध मिल जाती है . parents समझ रहें हैं बच्चे नेट पर सीख रहे हैं . जबकि बच्चे समय और चरित्र गवां रहे होते हैं .
                         कॉलेज /कोचिंग और स्कूल में पढने की कम फ़िक्र करते हैं  लड़के /लड़कियों के पीछे भटकते पिछड़ जाते हैं .... फिर  चाहने पर भी उनसे विवाह करने अच्छे रिश्तों का  अभाव होता है.   इन सबसे बचाते यदि हर साधन चाहे कोचिंग/स्कूल या कॉलेज हो .... नेट हो .. मोबाईल हो का उपयोग आम के सेवन जैसी सावधानी से किया जाये तो हमारे बच्चे सिर्फ हेड़ चाल को follow  न करते हुए हर साधन का लाभदायी अंश ग्रहण कर सकते हैं और सड़े और अलाभकारी हिस्से से दूर रहकर ऐसा    लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं , जहाँ उनका स्वयं का स्वप्न तो पूरा होता ही है . साथ ही उनकी सफलता वृध्द हो चले  उनके माँ पिता को वह गौरवमयी अनुभूति देता है  . जिस से उनके अशक्त होते शरीर और मन में नयी चेतना और आत्मविश्वास भर देता है . उनका जीवन और स्वास्थ्य बच्चे की उपलब्धियों से बढ़ता है . फिर बच्चों को जीवन साथी उन में से चुनने का विकल्प होता है जिनके पीछे अन्य भागते हुए पिछड़ गए होते हैं . पीछे भागने वालों से दूर हो ये आपको वरण करने के इक्छुक मिलते हैं . 

                 आप सभी ने जो दस कीमती मिनट दिए हैं उसका आभार व्यक्त करते हुए सिर्फ इतना अनुरोध करता हूँ ...... आधुनिक हर साधन और वस्तु लाभकारी तो है  पर तब ही जब हम उसके अलाभकारी हिस्से को आम भांति उसके  छिलके /गुठली और यदि कोई सडा हिस्सा हो तो उसे पृथक करते हुए सिर्फ लाभकारी अंश का सेवन कर अपना व्यक्तित्व निर्माण करें .

                 इसमें स्वयं का , परिवार    का  , सर्व समाज का , देश का और सर्व मानवता का उपकार होने वाला है. क्योंकि तब आप वह विभूति बनते हैं जो दूसरों को भी सच्चा  पथ-प्रदर्शन दे सकते हैं