Friday, June 22, 2012

जल्दबाजी में नापसंदगी

जल्दबाजी में नापसंदगी

                                         किसी ने बुराई  हमारी न की हो ,जिसे हम ठीक जानते भी न  हों ,पर किसी की दिख रही भाव-भंगिमा से हम उसे सख्त नापसंद करते हैं .चूँकि हम ठीक तरह उसे जानते नहीं और किसी वजह से प्रारम्भिक तौर पर उसका व्यक्तित्व प्रभावित नहीं कर पाता है पर कभी कभी हमारी उसके प्रति नापसंदगी अस्थायी होती है .ऐसे कई में से कुछ से  अधिक संपर्क के अवसर जीवन में हमारे सामने होते हैं तब  उनमे से कुछ के प्रति हमारी सोच बदल जाती है .वे वैसे बुरे नहीं होते हैं जैसा आरम्भ में उन्हें हमने समझ लिया होता है इनमे कुछ का तो हो सकता है हम बेहद सम्मान भी करने लगते हैं.
                                            मानवीय स्वभाव तो हमेशा ऐसा रहा है देख ने से ही कोई पसंद या नापसंद सा हो जाता है . पर जो किसी को सख्त नापसंद हो वह किसी अन्य को प्रियतम लगता है . फिर आज की व्यस्त जीवन शैली में जहाँ ऐसे अनजानों के प्रति चिंतन का समय ही नहीं है . नापसंद है तो बस है .यहाँ तक आपत्तिजनक कुछ नहीं है हर किसी का नितांत व्यक्तिगत कुछ होता ही है पर गलत और जल्दबाजी की धारणा के वशीभूत ऐसे किसी से हमारा बुरा व्यवहार अच्छी बात नहीं है.हमारे बुरे व्यवहार या बुरे शब्द कहने की इक्छा को हम टाल सकें तो श्रेयस्कर होगा ऐसे अवसर पर उसकी अनदेखी करना बेहतर विकल्प होगा .बेवजह विवाद में पड़ना या अपना समय नष्ट करना और अजनबी को मानसिक पीड़ा पहुँचाना अनुचित होगा और अगर ऐसा कर दिया दिया जाने के बाद उसकी सज्जनता का साक्षात्कार हमें हुए तो व्यर्थ पश्चाताप कारण बन सकता है.  
                                         वास्तव में सामाजिक,पारिवारिक और धार्मिक परिवेश की विभिन्नता से अलग अलग तरह के संस्कार हम सभी के होते हैं .हरेक को मिले शिक्षा के अवसर भी अलग होते हैं .ऐसे में अच्छी प्रतिभा के बाद भी कोई हमसे आर्थिक,सामाजिक या उपाधि की हीन हैसियत में हो सकता है ऐसा मनुष्य हमारी सहानुभूति का पात्र होना चाहिए .अवसर मिलने पर कभी कभी वह हमारी तुलना में कहीं अधिक और महान सिध्द हो सकता है.ऐसा भी होता है कि कहीं  लिपिक कि नौकरी के जिसे लाले पड़े हों वह कालांतर में महान खिलाडी बन प्रसिध्दी और धन उपलब्धि कि बुलंदियों पर पहुँच जाये . जिसे हम मिलना पसंद ना करते रहें हों उससे हाथ मिलाने का अवसर भी कभी पा लें तो जीवन सार्थक हो गया सा लगे .
                                   हमें समाज में स्वस्थ परम्पराएँ लानी हैं किसी को हाशिये में डाल देने के पूर्व सही परख के लिए समान अवसर दें .किसी नतीजे पर पहुँचने के पहले देखें कि कहीं अवसर पा कोई अपनी कमियों को सुधारने में समर्थ हो जाये .हो सकता है वह हमसे अधिक उपलब्धियां पाने लगे हमें ह्रदय कि विशालता से इसे भी स्वीकार करना चाहिए ,क्योंकि हम जीवन या विश्व  में उस उत्कर्ष पर आज भी नहीं हैं जहाँ से थोडा स्थानच्युत होना हमारी स्थिति को बहुत प्रभावित कर देता हो .
                             हम समाज में अनेक से विभिन्न मानदंडों पर बहुत पीछे और हीन हैं (बहुत से, आगे और बेहतर तो निश्चित ही हैं) ऐसे में ज्यादा पात्र कुछ औरों से पिछड़ भी गए तो कोई ज्यादा अन्तर कुछ पड़ता नहीं है ,लेकिन इस सकारात्मक और सामजिक न्याय की भावना आज बिगड़े सामजिक परिद्रश्य को सुधारने कि द्रष्टि से नितांत आवश्यक है.सभी कर्तव्य जिन्हें हम निभाते हैं उनके अतिरिक्त हमारे सामाजिक कर्तव्यों के प्रति हमारी गंभीर जागरूकता आज प्रासंगिक है .हमें बहानेबाजी  छोड़ कुछ समय और परिश्रम इस पवित्र उद्देश्य के लिए आज ही शुरू करना चाहिए.

Wednesday, June 20, 2012

समस्या अपनी ही है

समस्या अपनी ही है

                                                  दुर्भाग्य से बस्ती की किसी दुकान या मकान में आग  भड़क जाए तो आग पर काबू पाना सिर्फ उसके मालिक की ही अकेले चिंता होगी ? चूँकि आग की चपेट में उसकी संपत्ति है अतः सर्वप्रथम समस्या उसकी है . पर उसके उपाय या प्रयास से आग काबू न की जा सकी तो आस पास के मानव चिंता न करेंगे? अग्नि भीषण हुयी तो सभी चिंता करेंगे क्योंकि वह उनका भी नुकसान कर सकती है .अतः प्रारंभ में व्यक्तिगत सी लगती समस्या एक नहीं बहुतों की होती है. 
                                              समाज में जिधर तिधर समस्याओं की छोटी या बड़ी चिंगारियां सुलग रहीं हैं.इन्हें हम परायी मानने का खतरा न उठायें तो अच्छा होगा .आज या कल ये हमें भी चपेट में ले सकतीं हैं .ये चिंगारी जब तब भीषण अग्नि में तब्दील होती रहीं हैं .भीषण हो जाने पर इनको काबू करना अत्यंत कठिन हुआ है ,और नियंत्रित करने तक काफी क्षति भी उठानी पड़ी है.जन हानि ,संपत्ति हानि से बढकर इन सामाजिक समस्याओं की ज्वाला ने समाज के बड़े वर्ग को ऐसा भावनात्मक ठेस /आघात पंहुचाया है जिससे मानव ह्रदय इस बुरी तरह झुलसा है जिससे उनका  जीवन ही सिर्फ प्रभावित नहीं हुआ है अपितु उनकी कई कई पीढ़ियों की भावना और मानसिकता प्रभावित रही है.
                                             ऊपर से सामान्य दिखने वाले मानवों के मनो -मस्तिष्क में इन कटु स्मर्तियों की विद्यमानता किसी सामान्य से दिखने वाले प्रश्न के सर्वमान्य हल में बाधक हो जाती है . सामाजिक अव्यवस्था और समस्याओं का इतिहास पुराना है, इनके उपायों में महामानवों ने जीवन समर्पित किया है पर मिला जनसमर्थन बहुत होने पर भी अपर्याप्त रहा है ,कई बार त्याग और बलिदान का असर तो हुआ है पर उसका असर सामयिक सिध्द हुआ है ,और कालांतर में पुनः वही समस्या  फिर और कभी उससे भी विकट स्वरुप में उभर सामने आई हैं . रोग की भांति ही समस्या भी हैं ,जो पुरानी होने से कष्टकर और कष्ट-साध्य  हो जाती हैं.इससे यह भी सिध्द होता है कि कुछ मानवों का जागरूक हो जाना और उनका प्रयत्न सर्वकालिक निदान की द्रष्टि से अपर्याप्त होताहै .अतः समग्र जागरूकता और सामूहिक प्रयत्न आवश्यक होते हैं ,अगर हम इसे गंभीरता से  ले कोई समाधान नहीं निकालते हैं तो ये समस्याएँ 1 और पीढ़ी पुरानी हो जाएँगी और आगामी पीढ़ी को और अधिक जटिल विरासत होंगी ,वह नई पीढ़ी हमारी ही तो संतानें होंगी.
                            हमें समस्याओं को अन्य की बताने या अपने लिए ही कुछ बचाव के उपाय करने की संकीर्णता से निकल इन्हें अपनी मानना और जागरूकता लाने के लिए हर मनुष्य में आत्मचिंतन और आत्मावलोकन की की प्रवत्ति बढ़ानी होगी , इन तरीकों से ही मनुष्य स्वयं के गुण-दोषों को सही पहचानता सकता है और अन्य के द्वारा दोषारोपण से अपमानित होने के भाव से मुक्त रहकर दोष अनुभव कर सुधारने के प्रयास कर धीरे धीरे आचरण से दोष मुक्त हो सकता है .
                              हर मानव यदि अरुचिकर घटनाएँ/यादें अपने मन में रख खेद करता रहे तो अपने वर्तमान और भविष्य की प्रगति में स्वयं बाधक बनता है .आवश्यकता है उन्हें धीरे धीरे विस्मृत कर उनकी कटुता से अपने ह्रदय का बचाव कर अपनी ऊर्जा अपने और अन्य के विकास में लगाये.हम रातोंरात बदल जायेंगे ऐसी खुशफहमी ना रखनी होगी .पहले कुछ मानव स्वयं के आत्ममंथन से बदलेंगे फिर वे दूसरों को प्रेरणा दे उनमे परिवर्तन लाने का कार्य करेंगे इस क्रम को जारी रख कुछ वर्षों में समाधान की दिशा में मानव समाज अग्रसर हो समस्याओं का स्थायी हल प्राप्त कर सकेगा.मनुष्यों के व्यवहार और आचरण में इस तरह होने वाले परिवर्तन सर्व व्यापी होने से खुशहाली बढ़ेगी
                               आज दुनिया में हर कहीं मानव आचरण व्यवस्था लागू  कर नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है. नियम विपरीत कार्यों के लिए दण्डित करने के प्रावधान होते हैं अतः भय से कुछ अनुशासित रहते हैं पर कुछ चतुराई से बचते हुए अपने स्वार्थ सिध्द कर लेते हैं ,अगर वे कभी पकडे भी जाते हैं तो उसके पूर्व वे अपने कई कृत्यों से दूसरों को (इस तरह समाज को ) क्षति पहुंचा चुकते हैं .इस प्रकार व्यवस्थाएं कुछ हद तक तो प्रभावकारी हो सकतीं हैं पर समस्याओं के अस्तित्व से मिटाने में कारगर नहीं हो पाती .अपने आप में धीरे धीरे ही सही पर हरेक को परिवर्तन लाना ही हमारे उस स्वप्न को पूरा कर सकता है जिसमे हम या हमारे बच्चे या कोई भी दुनिया में कहीं भी किसी भी समय बेखटके विचरण कर सकता है .
                              न्यायसंगत या नैतिकता की द्रष्टि से वर्जित अपनी लालसाओं से हमें संकल्प ले मुक्त होना होगा . जब हम अपने आचरणों में बदलाव ला लेंगे तो हमें देखते हमारी नक़ल करते हमारे बच्चों में सही संस्कारों की सुनिश्चितता होगी .और कल का समाज बेहतर संभावनाओं का होगा .हम नहीं पर हमारी संतति ज्यादा सुरक्षित तथा बेहतर मानवीय जीवन का सुख तो ले सकेंगी .

Tuesday, June 19, 2012

आधुनिकता के नाम के उकसावे लाते हैं- अपसंस्कृति

आधुनिकता के नाम के उकसावे लाते  हैं -अपसंस्कृति


                                     एक  प्रसंग अभी उल्लेखित किया देखा जिसमे बताया गया है कि स्त्री-जात बचपन में पिता,युवावस्था में पति और वृध्दावस्था में पुत्र के संरक्षण में जीवन गुजारते कब सुखी होती है? इस पर एक पंक्ति की मेरी टीप थी , " नारी चरित्रवान होने पर तीनों के संरक्षण में सुखी है अन्यथा दुखी ".
                         प्राचीन समाज में जब मानव विकसित हो एक घर और परिवार में रहने लगा तो परिस्थितियां प्रारंभ में ऐसी होती थी की नारी (और एक हद तक पुरुष भी  ) चरित्रवान रहते अपनी जीवन यात्रा पूरी कर लेते थे . और साधारण प्रकार की सतर्कता से चरित्र रक्षा हो जाती थी .शिक्षा ,संस्कारों और धर्म सभाओं और शास्त्रों से अपनी वैचारिकता और दर्शन में पारंगतता प्राप्त कर नारी चरित्रवान होने के महत्त्व को समझते हुए चरित्र रक्षा के यत्न करती थी ,उपरोक्त तरह की नारियों के लिए  चरित्रवान शब्द मेरी टीप में प्रयुक्त किया गया है.नारी अनुकूल परिस्थिति में भी बिना ज्यादा सोच समझ कर चरित्रवान रहती थी ऐसी नारी भी घर परिवार और समाज में श्रध्दा योग्य थी .चरित्रवान दोनों ही प्रकार की नारियां थी पर एक पंक्ति की टीप से असहमति न हो इस हेतु सूक्ष्म भेद उल्लेखनीय है .उस नारी (या पुरुष भी) जिसने ज्ञान और दर्शन का यह स्तर प्राप्त कर पाया था ,"चरित्रवान रहना जीवन की सार्थकता है " वे इस सूत्र में मनुष्य जीवन के स्वरुप को समझ गए थे उनकी योग्यता ऐसी हो जाती थी कि वे प्रतिकूल और वेदना कि परिस्थिति को अपने ज्ञान से महत्वहीन और हल्का समझ लेने में समर्थ हो अपने को ज्यादा दुखी नहीं मानते थे ,जबकि ऐसी योग्यता न होने पर इनमें  क्लेश  कर दुखी होते थे .योग्य उपरोक्त तरह कि नारी पुरुष के किसी भी (पुत्र,पति या पिता)  रूप में संरक्षण में सुखी होती बल्कि बिना पुरुष संरक्षण भी सुखी थीं.और तो और वे पुरुष को संरक्षण दे पाने में समर्थ होती .जो नारी अनुकूल परिस्थिति में  चरित्रवान थी वह भी जिस पुरुष   (पुत्र,पति या पिता) संरक्षण  होती उन्हें इतनी मानसिक अनुकूलता उपलब्ध कराती कि आश्रित ऐसी नारी के कारण कभी मानसिक दबाव नहीं होने से पुरुष  अपने जीवन दायित्वों को सुगमता से निभा पाता था . यहाँ भी (संरक्षण में ) तुलनात्मक रूप से नारी कम ही दुखी होती .
                                 अपवाद में जब नारी अपने चरित्र रक्षा में असमर्थ होती ,वहां संरक्षक पुरुष ,सामाजिक उलाहनों और तिरस्कार से विचलित हो स्वयं एवं आश्रित नारी को सुखी न रख पाता था. मानवों में अन्य प्राणियों  की क्रियाएं कुछ तरह की विकृति पैदा करती रही हैं ( जानवर एक से अधिक विपरीत लिंगी से सम्बन्ध रखते हैं, अपने से कमजोर पर गुर्राते हैं ,अपने से कमजोर को मार डालते हैं) ,ये विकृतियाँ पुरुष और नारी के चारित्रिक पतन के कारण होते थे . एक का चरित्रहीन होना कई को चपेट में लेता रहा है.ऐसे दुर्भाग्यशाली स्वयं और दूसरों के सुख में खतरा पैदा करते आये हैं .
                            नारी पूर्व में ग्रहों की चारदीवारियों में ज्यादा जीवन व्यतीत करती थी तब कुछ तरह के खतरों से बची हुयी थी .आधुनिक जीवनशैली में उसे बाहर कदम बढ़ाने पड़े हैं ,इससे कुछ तरह की समर्थता तो निश्चित ही उनकी बढ़ी है . पर पुरुषों के बहलाने एवं उनके द्वारा ललचाये जाने के लिए बाहर अकेली नारी को पाने के अवसर आसान हो गए हैं.आधुनिकता के नाम उकसा कर चालाकी से परिस्थिति पैदा कर तरह तरह से नारी शोषण के प्रकरण बढ़ गए हैं .शोषित ऐसी नारी में से कुछ इस मनोविज्ञान के चलते " एक आँख गवां देने वाला चाहता है की अन्य सभी भी एक आँख गवां दे " पुरुष के अन्य नारी के शोषण के मंसूबों  में साधन बन अन्य नारी के शोषण में इस्तेमाल की जाती हैं.
                           ठीक यही मनोविज्ञान ने वैश्विक परिद्रश्य बदल दिया है.अपने को जो संयत न रख पाए ,अपनी कुत्सितता के वशीभूत जिन्होंने सदाचार की सीमाएं लाँघ लीं उन्हें जब अलग थलग पड़ने का ख़तरा नज़र आया तो उन्होंने अपसंस्कृति पर आधुनिकता का भ्रामक लेप लगा प्रस्तुत किया . हमें सही आधुनिकता क्या है यह समझना आवश्यक है ताकि अपना बचाव कर सकें और भटक गए को सही राह बता सकें या कम से कम और भटकाव कम कर सकें .
                             मनुष्य जहाँ सुख नहीं वहां सुख की तलाश कर दुखी हो ,अपना अनमोल मनुष्य जीवन व्यर्थ न गवाए ,ऐसा परिद्रश्य निर्मित करना सभी मानव का जन्म सिध्द कर्त्तव्य है.

 

Monday, June 18, 2012

प्रभावित हुआ है समाज ,सयुंक्त परिवार टूटने से

 प्रभावित हुआ है समाज ,सयुंक्त परिवार टूटने से

                                             मनुष्य ने पाषाण काल से सभ्यता का क्रम बनाया हुआ था ,हजारों वर्ष हुए जब मनुष्य अपना घर बना अपने परिवार और बच्चों के साथ समाज/नगर में रहने लगा .पिछली सदी के पूर्व तक इन घरों में उसकी कई-कई पीढियां जिसमे दादा-दादी ,ताऊ-ताई,चाचा-चाची परदादा-परदादी और भी सब मिलकर ५० -६० से ज्यादा सदस्य जीवन यापन कर लेते थे  .ज्यादातर परिवार  कृषक या व्यवसायी होते थे .पिछली शताब्दी से बल्कि ५०-६० वर्षों से सरकारी तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी कर आजीविका चलाने की प्रवत्ति बढ़ गयी. ऐसे में घर के सदस्यों को बाहर रहकर जीवन यापन करने की मजबूरी पेश आई और एकल परिवार जिसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे होते अस्तित्व में आने लगे.इन परिवारों में स्वतंत्रता और उपभोग आधिक्यता की गंध पा ऐसे सयुंक्त परिवार भी टूटने लगे जहाँ नौकरी के कारण प्रथक रहने की कोई बाध्यता नहीं थी.सयुंक्त परिवार में पहले रसोई अलग होने लगी,फिर घरों के बीच दीवारें उठने लगीं और जब इन में भी कलह शांत न हुयीं तो दूर जा बसने का सिलसिला चला .
                                   एक ही कुटुंब के सदस्य वैमनस्यता के स्तर पर पहुंचे जहाँ अपना ही भाई या करीबी जानी दुश्मन सा लगने लगा .दूसरों की प्रगति तो शायद भली लगती लेकिन   अपना जब ज्यादा सुखी ,उन्नत या विख्यात लगता तो इर्ष्या तन मन जलाती .हालत ये हो गए कि तीन पीढ़ी तक साथ रह लेने वाले परिवार गिनती के दिखने लगे .हजारों वर्ष की पारिवारिक बुनियाद पिछली सदी में ढहनी आरम्भ हुयी और लगता है अगले ५० -६० वर्षों में सयुंक्त परिवार इतिहास की वस्तु रह जाएगी.
                               थोड़ी स्वतंत्रता और उपभोग आधिक्यता के लोभ में हमने क्या गवायाँ यह देखें .अपने और बड़ों का स्नेह ,अपनत्व देखरेख और अनुभव जनित मार्गदर्शन से हम वंचित हुए.बच्चे दादा-दादी ,ताऊ-ताई,चाचा-चाची परदादा-परदादी और अपने चचेरे बड़े भाई बहनों की अपेक्षा नौकरों के सानिध्य में पलने लगे. घरों के पीढ़ियों के संस्कार छूटे और पालने वाले नौकरों के (जिन्हें सुसंस्कार हम दे सकते थे ) उनसे ग्रहण कर बच्चों के संस्कारों का मिश्रण हो गया .सयुंक्त  परिवारों में कई सदस्य होते उनमे अच्छाई और बुराइयों को सहने की आदत होती जब साथ ये नहीं रहे तो सहनशीलता एवं सहनशक्ति  हमारी कम हो गयी .एकल परिवार में बच्चा बेहद जिद्दी होने लगा .सयुंक्त परिवार में पलते हुए बच्चे को आदत होती कि जो खेलने,पहनने खाने पीने और पढने या मनोरंजन की साम्रगियाँ घर में आती उन्हें मिल जुल कर ख़ुशी ख़ुशी उपयोग करते और आवश्यक होने पर एक दुसरे की ख़ुशी के लिए त्याग भी करते ,इस तरह दूसरों के लिए त्याग की हमारी आदत भी जाती रही .त्याग कर क्या ख़ुशी मिल सकती है ऐसी अनुभूति न बची . घर में सदस्यों की बहुत संख्या रहते कुछ के बाहर जाने से सुरक्षा की कोई चिंता न होती .एकल परिवार में कुछ या सभी बाहर जाते तो घर और रहने वाले सदस्य सुरक्षा को ले चिंतित रहने लगे अर्थात मानसिक प्रष्ठभूमि में सुरक्षा का अहसास सयुंक्त परिवार के साथ जाता रहा. जीवन में अनचाहे कई विपत्तियाँ आती हैं सयुंक्त परिवार में इन विपत्तियों को एकजुट ताकत से तुलनात्मक सरलता से निबट लिया जाता लेकिन ऐसे मौकों पर एकल परिवार नानी याद करते नज़र आने लगे .विपत्तियाँ गहन अवसाद को साथ लाने लगी .
                                           पिछली सदी से हुए इस पारिवारिक संरचना में परिवर्तन का प्रभाव समाज में द्रष्टिगोचर हुआ .अब समाज में परस्पर सहयोग,त्याग ,अपनापन लुप्त हो रहा है. ईर्ष्या और अपनी मनमानी (जिद) की प्रवत्ति बढ़ने लगी है.एकमत और एकजुट प्रयासों से अच्छे कर्म और लक्ष्य को प्राप्त करने की इक्छाशक्ति नहीं रही है. हर सामाजिक समस्या को बहाने से दूसरों पर  दोषारोपित कर खुद के त्याग और सहनशील आचरण से बच जाने की प्रवत्ति दर्शित होती है.अगर सयुंक्त परिवार चला पाना मुश्किल हुआ था तो फर्क न पढता पर हमने उसके साथ उसकी अच्छाइयों को भी छोड़ दिया .हम किसी न किसी बहाने बहुत सी अच्छी परम्पराओं को भी बदल रहे  हैं जो अंततः हमारी खुशहाली की कीमत ले लेती है .हमें नए अच्छे आयामों को स्थान देने के साथ सावधानी से ही पुरानी परम्पराओं को बदलना होगा अन्यथा हम स्वस्थ विरासत नहीं छोड़ेंगे अपनी संततियों के लिए.

Friday, June 15, 2012

सराहना की अपेक्षा

सराहना की अपेक्षा


                                            हमारे हर कार्य के पीछे प्रयोजन और अपेक्षाएं निहित होती हैं.हमारे कार्य के प्रयोजन स्वयं के साथ अन्य के भलाई के होने चाहिए.गलत प्रयोजनों से किये जाने वाले कार्य आत्मनियंत्रण रख हमें रोक लेने चाहिए .अपेक्षाएं भी हमारा प्रयोजन किसी  कर्म के पीछे हो सकती हैं .
                                              हम दुकान पर बैठते हैं हमारी अपेक्षा ग्राहक से लेनदेन में आर्थिक लाभ की होती है.अच्छे व्यापारी का इस अपेक्षा के साथ यह प्रयोजन भी होता है की उचित कीमत पर गुणवत्ता पूर्ण सामग्री देकर अपने ग्राहकों की संतुष्टि सुनिश्चित करे. हम धर्मालय जाते हैं अपेक्षा पुण्य कार्य  से जीवन में अनुकूलताएँ पाने की होती है.हम विद्यालय जाते हैं अपेक्षा ज्ञानार्जन की होती है.खेल और दूरदर्शन  के दर्शक बनते हैं अपेक्षा मनोरंजन की होती है.इस तरह अन्य और लगभग सभी कार्य अपेक्षा रख किये जाते हैं .कुछ अपेक्षाएं सोची समझी होती हैं जबकि कुछ हमारी पृष्ट चेतना में छिपी होतीं हैं,जिनका ठीकठाक ज्ञान कभी -कभी हमें ही नहीं होता है.मनुष्य परोपकार और समाज सेवा के कार्य भी करता है.यहाँ उसकी अपेक्षाएं अत्यंत कम हो सकतीं हैं लेकिन अपनी सराहना और सम्मान की अपेक्षा कुछ न कुछ मात्रा में होती है.जैसे कोई रक्तदान करता है (बदले में कोई पैसा कमाना नहीं चाहता ) किसी के जीवन रक्षा की  की पवित्र अपेक्षा के साथ अपने नाम का उल्लेख और प्रशंसा की भी थोड़ी कुछ अपेक्षा कई बार नहीं रोक पाता है.
                                        आज के मानव के ज्यादा कार्य स्वार्थपरक  हैं. हम एक दूसरे को स्वार्थी बताते कई आलोचना युक्त चर्चाएँ भी करते हैं. स्वार्थ की अधिकता से किये जाने वाले कार्य समाज में कई तरह की बुराइयों के कारक हैं . निस्वार्थ हो समाज और व्यवस्थाओं में हमारा योगदान क्रमश शून्यता की तरफ जा रहा है.जो सामाजिक समस्याओं को और बढ़ाने वाला है.हमें उन कुछ मनुष्यों की वह भावना बनाये रखने में सहायक होना चाहिए जिसके अंतर्गत वे बहुत कार्य कम स्वार्थ भावना से करते हैं. उनका उत्साहवर्धन किया जाना चाहिए .साथ ही जो ज्यादा स्वार्थी हो कर्म कर रहे हैं उन्हें इस हेतु प्रेरित करना चाहिए कि वे स्वार्थ अपेक्षा धीरे- धीरे थोड़ी -थोड़ी कम करते चलें.ज्यादातर निस्वार्थ हो कर्म करने के  आदी मानवों में से कुछ को ऐसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए जिससे भलाई के उनके कर्मों के बदले अपनी सराहना के अपेक्षा ना निहित हो .निस्वार्थी और इस तरह के मानव समाज की धारा और दिशा मोड़ने की द्रष्टि  से आवश्यक हैं. आज हम सामाजिक और व्यवस्थागत समस्याओं से पीड़ित हैं और उन्हें देख और भुगत हमारा ह्रदय आहत है.हम वास्तव में इससे सहमत हैं तो हमें ही स्वयं को आत्मनियंत्रित हो कर्म करने के लिए स्वप्रेरित करना है और भले ही कठिनता लगे और थोडा त्याग भी करना पड़े तो भी इस पवित्र उद्देश्य और कर्मों से विचलित नहीं होना चाहिए.
                                 शारीरिक स्वास्थ्य लिपिड प्रोफाइल और अन्य तरह के परिक्षण  के बाद पाए गए आवश्यक तत्वों का हमारे शरीर तंत्र में विद्यमान स्तर से ज्ञात कर लिया जाता है.जांच के परिणामों अनुसार उपाय और चिकित्सा से आवश्यक होने पर इन्हें सुधार लिया जाता है . पर हमारे ह्रदय में समाज उपयोगी तत्वों के साथ भावनाएं और सोचविचार का उचित स्तर विद्यमान है या नहीं , इस हेतु कोई पध्दति ज्यादा कोई चलन में नहीं हैं . इसकी प्रक्रियाएं और मानदंड बनाये जाने चाहिए जिससे इनका आवश्यक स्तर किसी भी मनुष्य में बनाये रखने के उपाय कर सकें .किसी मनुष्य का शारीरिक स्वास्थ्य तो सिर्फ उस मनुष्य विशेष और उसके परिजनों को प्रभावित करता है किन्तु उसकी मानसिक अवस्था समाज के बड़े वर्ग को प्रभावित कर सकती है.
                                 हमारे कर्म और आचरण यदि हम 40 के आसपास या उससे अधिक के हो गए हैं, तो धीरे-धीरे दिशा बदलते हुए सही तरफ बढ़ाने चाहिए.हमारा ऐसा परिवर्तन और त्याग हमारी अगली पीढ़ियों का उचित पथ प्रदर्शन कर सकेगा और सामाजिक समस्याओं का स्थायी और दीर्घकालिक समाधान का मार्ग प्रशस्त करेगा .आइये हम अपने कर्म और आचरण में अपने लिए सराहना तक की अपेक्षा छोड़ना प्रारम्भ करें.

Thursday, June 14, 2012

प्रस्तावित नई विधि से आत्महत्या

प्रस्तावित नई विधि से आत्महत्या

                                            कल एक चर्चा सुनी कि एक किशोरी ने अपनी कम सुन्दरता से हीनता के कारण स्वयं को जलाकर आत्महत्या कर ली .दुखदायी इस तरह की बातें  व्यथित करने वाली होती हैं .आगे पूरा जीवन (60-70) वर्ष का गुजारना  शेष होता है .धैर्य खो बच्चे और युवा छोटी-छोटी बातों से असमय जीवन समाप्त कर लेते हैं .इसके उलट हम देखते हैं जीवन ललक उन वृध्दों में जो रोग से अपनी आसन्न मृत्यु से बचने ,कुछ वर्ष और जीवन जी लेने के लिए तरह तरह के उपाय और उपचार करते हैं.उम्र के इस पड़ाव में उन्हें मालूम रहता है कि एक बार खो देने के बाद मनुष्य जीवन का यह संस्करण कभी न लौट सकेगा .
                                            तमाम शोधों के बाद मनुष्य ने मनुष्य जैसा यंत्र (रोबोट ) तो बना पाया है लेकिन कल पुर्जों से उसमे जीव या चेतना का संचार नहीं हो सका है. ऐसा असंभव सा जीव जो मनुष्य रूप में सहज पाया हुआ होता है जिसे किशोर या युवा अवस्था तक ला देने के लिए पालकों या माता -पिता ने अपने को युवा से अध- बूढ़ा कर लिया होता है .ऐसे में पाल्य या बच्चे को मनुष्य जीवन की ख़ुशी  और व्यक्तित्व की संभावनाओं की जो उत्सुकता उनके ह्रदय में होती है ,नासमझी से कायरता की यह हरकत एकबारगी उनकी आशाओं को नष्ट कर उन्हें घोर निराशा के काले सागर में डुबा देती है.ऐसे किशोर या युवा जीवन के महत्त्व को समझे बिना सर्वस्व ही खो देते हैं.
                                    भ्रमण में एक सज्जन 55-56 वर्ष के होंगे उन्हें देखता हूँ .आँखे नामालूम किस  दुर्घटना या रोग में गवां बैठे हैं .राह में लकड़ी टेकते आते हैं ,जो उन्हें जानते हैं उनकी आवश्यकता को समझ उनकी लकड़ी थामते हैं फिर 5-6 किमी का भ्रमण अपनी गति और चर्चाओं में उनका दैनिक रूप से पूरा करवा देते हैं. उनका सहारा ले इस तरह वे अपनी फिटनेस और वैचारिकता को पुष्ट कर अपनी इतनी बड़ी कमजोरी को बेहद धीरता और बुध्दिमत्ता से निभाते अपना जीवन सफ़र आगे बढा रहे हैं .आत्महत्या को छोटी छोटी कमियों के कारण बाध्य होते हमारे बच्चे और युवा अगर इन सज्जन  को देखें और समझें और उनसे प्रेरणा ले आत्महत्या से बचें तो दुखद ये हादसे जो परिजनों को जीते जी मार देते हैं और अनमोल स्वयं के मनुष्य जीवन का हनन कर लेने वाली पुनराव्रतियाँ समाज को न देखनी पड़ेंगी.
                                95 % score करने वाला अपने प्रतिद्वंदी से पिछड़ने पर, कोई प्रेम में असफल होने पर, रूप हीनता या गरीबी से त्रस्त कोई,
छोटी से डांट फटकार से व्यथित कोई गुस्से में आकर और किसी के तानों उलाहनों से दुखी हो कोई,  आत्महत्या करता है जबकि उन्हें शारीरिक सम्पूर्णता मिली हुई होती है. कम वय /युवा होने से जीवन ऊर्जा भी अधिकतम स्तर पर होती है. यह देख और पढ़ कर कैसा अनुभव करते होंगे वे विकलांग जो दुर्भाग्य-वश शारीरिक कमी पाते हैं पर जो जीवन कामनाओं को बरक़रार रख, इन हालातों में भी, जो संभव है वह जीवन सुख पा लेना चाहते हैं और अपने सामर्थ्य अनुसार समाज को अपना योगदान दे देना चाहते हैं.
                            इन जीवन यथार्थ को समझे बिना जीवन कामनाएं खोता कोई भी मनुष्य धीर चिंतन -मनन से यह समझे कि  कितनी भी बिगड़ी जीवन परिस्थितियां बन गयीं हों, कितना भी कुछ खो दिया हो, पर शरीर में जीव विद्यमान है तो हमेशा बहुत संभावनाएं  शेष रहती हैं. क्षति के बाद भी कुछ न कुछ हासिल हमेशा होता है. जो जीवन स्वयं खोने की तुलना में हमेशा अधिक होता है. कुछ न  हुआ, तो भी कुछ अधिक वर्षों का मनुष्य जीवन और उसका साक्षात्कार मिलता ही  है.
                             हम वे मानव, जिन्होंने उत्कृष्ट मानसिक संतुलन की उपलब्धि पाई हुई है, का भी दायित्व है कि पुनर्विचार/विश्लेषण  करें कठिन उन प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थितियों के बनने के कारणों का, जिसमें अत्यंत प्रतिभावान भी इस हद तक अवसादग्रस्त और निराशा में चले जाते हैं. भौतिकता और उपभोग के प्रति इतना आसक्त होते ज़माने  से तिरस्कार और उपेक्षा पाने की हीनता युवाओं में जीवन नष्ट कर लेने तक को प्रेरित कर डालती है. अपने परिजनों एवं साथी मानवों के मनोविज्ञान को यथा रूप समझाने का और उचित पथ प्रदर्शन का दायित्व हमारा ही है, जो किसी को निराशा के इस बिंदु तक जाने से रोक दे. यह बिंदु जहाँ आगे जीवन बचता नहीं है, कम अनुभवी इन बच्चों और युवाओं की पहुँच से हमें दूर कर देना है.
                                       हमारे तमाम उपायों के व्यर्थ होने पर भी कोई आत्महत्या के नतीजे पर पहुँच जाता है तो उससे हमारी मार्मिक अपील है "करो आत्महत्या पर वैसी नहीं, जिसमें मनुष्य जीवन ही समाप्त हो जाता है". यहाँ आत्म हत्या का नया ढंग प्रस्तावित है जिसमें अपना जीवन अस्तित्व बचाए रखना है, अपनी आत्मिक अपेक्षाओं कि हत्या कर लेना है , इसे आत्महत्या मान अब जो बचा है उसे नया मनुष्य जन्म जिसमें स्वार्थ अपेक्षाएं शून्य हो गयी मिला मान लेना है. उसे अब समर्पित करना है दूसरों कि लाठी बन जाने में. मनुष्य समाज में बहुत ही ज़रूरत मंद हैं जो दूसरों से सहारा अपेक्षित करते, हर समय, हर स्थान पर मिल जाते हैं. जो भी आपका सामर्थ्य है, पूरा कर सकने का उस अनुसार ज़रूरतमंद थोड़ी ही तलाश में आपको मिल जायेंगे. ऐसों कि निस्वार्थ सेवा आपको करना और उनका सहारा बनना है. कुछ ही समय लगेगा जब आपको इस जीवन यथार्थ कि समझ आ जाएगी कि आत्महत्या को प्रवृत्त होते समय जो सम्भावना शून्यता आप समझ रहे थे वैसा नहीं है. जिन ज़रूरतमंद को आपकी सेवाओं और सहारे से लाभ मिलेगा उनके आँखों में आपके प्रति कृतज्ञता और सम्मान के भाव आप में स्वाभिमान पैदा कर देंगे. इससे जिनके जीवन में आत्महत्या का विचार कभी नहीं आया हो, ऐसों की जीवन कामनाओं से बढ़कर आपमें जीवन ललक उत्पन्न हो सकती है.
                          इन सहयोगात्मक आपके कार्य के लिए ना तो खास उपाधि, ना ही रूप सौंदर्य और ना ही धन बहुत जरुरी होगा. खास भाषा ज्ञान भी आवश्यक नहीं होगा. ज़रूरतमंद और आपके बीच सहयोग आँखों और चेहरे के हावभाव से मूक ही समझा जा सकेगा. दूसरों के निस्वार्थ सेवा सहयोग संपन्न करने  के लिए. आपको सम्मानीय और प्रतिष्ठित होने की भी कोई शर्त नहीं मिलेगी. 
                                          किसी भी तरह की आत्महत्या के प्रोत्साहन (उपरोक्त कथित भी नहीं)  और  सलाह किसी को हमें नहीं देना है. लेकिन जीवन समाप्ति पर ही कोई तुल जाये तो उसे यह सलाह बाध्यता में देना है, संपूर्ण रूप से मनुष्य निस्वार्थ हो यह काल्पनिक ही हो सकता है हकीक़त नहीं. अवसाद ग्रस्त ऐसे बच्चे/युवा अगर आत्महत्या को इस तरह परिवर्तित करें और 1000 भी ऐसी आत्महत्या परिवर्तित पूरे विश्व में प्रति वर्ष हुयीं तो अगले 20 वर्ष में विश्व मानव परिदृश्य में अच्छी दिशा में परिवर्तन परिलक्षित होगा .
                                          आज आव्हान ऐसे कमज़ोर पल देखने वाले हर मनुष्य से है. समाज में निस्वार्थ योगदान अत्यंत अपेक्षित है. बहुत स्कोप है. जिसमे जितना सामर्थ्य और समय है लगा दें. सामाजिक परिस्थितियां थोड़ी भी बदलीं तो आप आत्महत्या नहीं समाज हत्या बचाने वाले सिध्द होंगे.

Monday, June 4, 2012

न्यायसंगत

न्यायसंगत        

                                           पृथ्वी पर हजारों प्रजाति के वृक्ष पाए जाते हैं लेकिन आबादी क्षेत्र में मनुष्य ने ऐसे वृक्ष प्रधानता  से लगाये हैं जो छायादार , स्वास्थ्यवर्धक ,फलदायक और सुगंध बिखेरते पुष्पदायक होते  हैं.इन विशेषता से विहीन वृक्ष जंगलों में एवं वीरानों में सीमित रह गए हैं.   ये  वृक्ष हमसे भले हैं .चलने में तो असमर्थ हैं इसलिए एक जगह खड़े रह जाते हैं पर जो उनके आश्रय आता है उसे छाया ,शीतलता  फूल और फल  देते हैं ,हम बेदर्दी से पत्थर या हंसिया भी चलावें तो भी फल दे देते हैं ,कुछ तरह के प्राणियों को अपने पर आशियाना भी बना लेने देते हैं. 
                                             मनुष्य गुणग्राहक है अतः जिसमें अच्छे गुण देखे उसे समीप रखा और अल्प- गुणी  और दुर्गुणी को अपने से दूर किया,मनुष्य इस हेतु प्रशंसा का पात्र है. प्रशंसा सभी को प्रिय होती है .गुण ग्राहकता के कारण अपने लिए अनुकूलताएँ और अपने मित्रों   को अपने आसपास एकत्रित करता है. ऐसे मित्र  मुक्त कंठ प्रशंसा तो करते हैं पर भय या लिहाज के कारण उसके अवगुणों का उल्लेख और आलोचना से बचते हैं .ऐसे में समालोचक न होने  से उसे अपने गुणी होने की भ्रान्ति होती है और एक गुरुर उसके व्यव्हार में दर्शित होने लगता  है जैसे की उससे बड़ा समझदार कोई नहीं है.दूसरों की भावना की  क़द्र और अपेक्षाएं भूलने लगता  है .
                                                      एक ऐसे को दूर से निहार और उसे सुखी मान कुछ ने उसकी नक़ल करना प्रारंभ कर दिया और फिर और ऐसे मानव  बढ़ जाने पर  उसका  एक अलग वर्गीकरण हो गया .ऐसे मानव वर्ग से ये वृक्ष बेहतर हैं .जिन्हें चलने का सामर्थ्य होने पर ये जगह-जगह घूम सिर्फ अपने लिए फल तलाशने में और अपनी शीतल छाया की व्यवस्था को ही भटकते अपना जीवन व्यय कर देते हैं.  चलने फिरने का सामर्थ्य था दिमाग भी था पर अपनी लालसाओं से मुक्त हो पाते तो कुछ अपने उपजाए फल दूसरों को देते. अपने व्यक्तित्व  को बड़ा बना दूसरों पर अपने आशीर्वाद और प्रेरणा की छाया  ,और मेहरबानियाँ  की वर्षा कर सकते थे .उसके   धन्यवाद  के पात्र बनते जिसने मानव रूप कृति पृथ्वी-लोक  को दी थी .
                                                   गलती कोई भी हो हुई हो ,मनुष्य के लिए उसका सुधार लेना कोई कठिन बात नहीं होती है .मनुष्य के अन्दर विद्यमान विवेक रुपी सूर्य का ,स्वार्थ और भोगलिप्सा के बादलों के आड़ में आ जाने से प्रकाश की मात्रा में आई कमी बादलों को परे धकेलने से पुनः जगमग हो जाता है ,स्व-ज्ञान से प्रकाशित आचरण पवित्र हो जाते हैं और ऐसे में कुछ तरह के तर्क ही भूल सुधार में पर्याप्त होते हैं जैसे ...
हम दूसरों में अच्छाई देख उसका अनुमोदन करते हैं (और चाहते हैं उसमें  बनी रहे) ,  एवं बुराई  देख उसकी निंदा करते हैं  (अपेक्षा करते हैं की  वह उसे त्याग दे  ) .लेकिन जब प्रश्न अपना आता है तो वह अच्छाई स्वयं के आचरण में लाने  एवं बुराई अपने आचरण से दूर करने में विफल होते हैं. क्या हमें अपना मानसिक नियंत्रण मजबूत नहीं करना चाहिए ? जिससे  हम अच्छे और बुरे दोनों को जैसा दूसरों में पसंद या नापसंद करते हैं वैसा ही पालन खुद में भी कर सकें. ऐसी प्रेरणा और द्रढ़ता हममें आने से संपर्क में अन्य मानव भी हमसे प्रेरणा ले पाएंगे और धीरे -धीरे  परिणाम अच्छे मिलने लगेंगे क्योंकि हमारी संगत का प्रभाव हम पर सदैव होता आया है हम अच्छे बनेंगे तो हमारी संगत में कुछ और अच्छे बनने लगेंगे जिससे समाज में अच्छों की संख्या बढ़ने से समाज ही खुशहाल बनेगा

अहसानों का विज्ञान

अहसानों का विज्ञान


                                            हम मनुष्य रूप जब जन्मते हैं तो सब को अलग अलग परिवेश मिले होते हैं. कुछ को अत्यंत ज्यादा कुछ को कामचलाऊ अनुकूलता मिलती हैं तो कुछ को प्रतिकूलताएं मिलती हैं .   कुछ की तो  प्रतिकूलताएं इतनी ज्यादा होती हैं कि वह सोचने लगता है कि जन्म देने वाले ने उसको पैदा ही क्यों किया .ऐसे हालातों में जो अनुकूलताओं से वंचित होते हैं उसे पाने कि दिशा में मेहनत और कर्म करते हैं .सिर्फ इन इमानदार प्रयत्नों से कुछ लोग सफलता प्राप्त करते हैं .लेकिन अधीरता से कुछ बीच में ही मेहनत छोड़ देते हैं और कुछ बेईमानी का संक्षिप्त मार्ग से जल्दी ही अनुकूल परिस्थिति अपने जीवन में ला लेना चाहते हैं.
                                            ऐसे लोग समर्थ लोगों से संपर्क करने का प्रयास करने लगते हैं . इसमें सफल होने पर उनसे अपेक्षा और याचना के साथ मिलने लगते हैं.समर्थ दो तरह के हो सकते हैं एक जो समर्थता के साथ चरित्रवान भी होते हैं .दूसरों का चरित्र ,सिध्दांत और ईमानदारी पर कम विश्वास होता है ,वे स्वार्थी ,बेईमान और दुश्चरित्र हो सकते हैं. जब अपेक्षा से  कोई इनके संपर्क में आता है तो चतुरता से ये विश्लेषण करते हैं कि उससे अपने किस तरह के स्वार्थ कि पूर्ती कर सकते हैं या किन जरूरतों के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं.जरूरतमंद उनके चरित्र से अंजन हो सकता है और सिर्फ आर्थिक हैसियत से प्रभावित हो अपनी अपेक्षा कि पूर्णता चाहता है.उसकी  अज्ञानता  और अपने प्रति आदर का प्रयोग धूर्तता से कर पहले कुछ सहायता और कुछ अहसान इस पर करते हैं.और जब लगता है अहसान से वह इतना लद गया है कि अब विद्रोह न कर पायेगा तो उसका तरह-तरह का शोषण प्रारंभ करते हैं .कुछ को धूर्तता से ये इतने मानसिक भ्रम में डालते हैं  कि वे इसी में अपना हित देखने लगते हैं .कुछ यह जान जाते हैं कि उनका इस्तेमाल वस्तु कि तरह उपभोग में किया जा रह है.कुछ शर्मवश इस शोषण कि चर्चा न कर किसी तरह इन्ही हालातों से समझौता कर लेते हैं या धीरे धीरे अपना रास्ता अलग कर लेते हैं. कुछ विद्रोह करने कि हिम्मत जुटाते हैं पर समर्थ अपने प्रभावों का प्रयोग कर उनकी चलने नहीं देते हैं और उनकी हिम्मत कि कमर तोड़ देते हैं.
                                              जब इस तरह के किस्से बहुतायत में हैं तो कौन और कितनों कि मदद सम्भव हो पायेगी . प्रत्येक मनुष्य को स्वयं के बल पर अपनी सहायता करनी होगी .बात बात पर याचक भाव और अहसान स्वीकार कर लेने की प्रवत्ति छोडनी होगी .सफलता के लिए अधीरता छोडनी होगी कड़ा परिश्रम और जीवन की विपरीतताओं को हिम्मत से जूझना होगा 
                                      फालतू  किस्म  की  नारेबाजी  से  अप्रभावित रहना होगा जैसे कुछ चर्चित तर्क सुनने मिलते हैं ---"मज़े न किये  तो क्या किया जीवन में "  और दूसरा " जीवन में उपभोग के वगैर मरे तो भगवान  कहेगा  उपभोग कर ने वापस जाओ धरती पर और वापस लौटा देगा  ". ऐसे नारे समाज में अपसंस्कृति बढ़ाते हैं . समझना होगा की मनुष्य जीवन इतनी हलकी सम्भावना वाला नहीं है .मनुष्य का ज्ञान और विवेक की शक्ति असीमित है .सच्चे इरादों से और और संकल्पों से जूझने पर जीवन में वह हासिल होता है जिसके सम्मुख उपभोग , सुविधा ,भोगलिप्सा और यहाँ तक की प्रसिध्दी बहुत हलकी बातें लगने लगती हैं. शोषित हो विलाप करना अश्रु बहाना अच्छा नहीं .अपने को कमजोर ,निर्धन मानके भी अश्रु बहाना अच्छा नहीं .जिन्होंने बेकार में अश्रु बहाने और विलाप की प्रवत्ति छोड़ी . उनमें बहुत अपंग हो गए बहादुर मनुष्यों ने उपलब्धियों के कीर्तिमान ऐसे प्रस्तुत किये हैं जो कई बार बलिष्ठ शारीरिक गठन वाले न कर सके.
                                                   हमारे अश्रु अवश्य बहें जब अबलाओं (नारियों ) या निर्दोष (पर गरीब ) या लाचारों पर ज़ुल्म और अत्याचार देखने मिलें ,हमें इस बात पर भी अश्रु बहा लेने चाहिए कि ऐसी घटनाएँ हमारे समाज में होती हैं और हम रोकने के लिए प्रयास न कर सकें , खुद में और दूसरों में जाग्रति  न जगा सकें .अश्रु तब भी बहाने चाहिए जब पछतावा हो कि वृध्दावस्था आ गयी अब ज्यादा सामर्थ्य नहीं रह गया बाकी, पर जब सामर्थ्य  था तब न कर सका अपनी चेष्टा समाज कि इन अस्वस्थ परम्पराओं और दूषित वातावरण को बदलने में.
                                यहाँ भावना यह है कि ऐसे पछतावे का समय न देखना पड़े किसी को ,ऐसे समय के पहले ही हमें अपने आप और संपर्क के मानवों की सुविधा लिप्सा की निद्रा से झिझोंड़कर जगा देना  चाहिए .कहाँ याचना कर झुकने जाते हो क्यों अहसानों का बोझ अपने पर ले उसके नीचे दबे चले जाते हो .अगर जीवन में विपरीतता मिली है तो यह अवसर उपलब्ध है आपके समक्ष  कि महापुरुष हो सकते हो इनसे जूझ कर क्योंकि कुंदन निखरता है प्रखर अग्नि कि आंच में तपकर .
 हमें प्राप्त   ऐसे अवसर को व्यर्थ नहीं गवां चाहिए.