Friday, June 29, 2018

"समय हूँ मैं" , तेरे साथ अभी - तू मन की कर गुजर
निकल जाऊँ , फिर न कहना - समय ने साथ दिया नहीं

Thursday, June 28, 2018

स्वयं को अच्छी तरह जान लेना

स्वयं को अच्छी तरह जान लेना ...
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ख़ुद अपने को और औरों को यदि समझना/जानना है तो हमारे आसपास खिंचे या औरों ने खींच रखे मानसिक दायरे से हमें बाहर आना होगा। अर्थात हमें अपने किसी भी सुपेरियरटी(उच्चता) या इन्फेरियरटी(हीनता) कॉम्प्लेक्स(बोध) से बाहर निकलना होगा।
मैं जैनी , मैं हिंदू , मैं मुस्लिम या मैं सिक्ख आदि भेद दूर रखना होगा। मैं अमीर या गरीब के विचार को तजना होगा। मैं पुरुष या नारी के बजाय मैं मनुष्य हूँ यह भाव शिरोधार्य करना होगा। मैं भारतीय या मैं अमेरिकन इसे भुला कर सोचना होगा। ऐसे ही अपने इर्द गिर्द की बहुत सी सीमाओं से बाहर निकलना होगा।
वास्तव में हम हैं तो मनुष्य किंतु अपना जीवन हम अपने को मनुष्य से कम दर्जे में रख कर जी रहे हैं. मनुष्य के जन्मने और मरने के तरीके एक जैसे हैं। मरने और जन्मने के कारण सभी के एक हैं। तात्पर्य यह है कि सभी मनुष्य जन्मते और मरते बिना किसी दायरे (भेदभाव) में हैं । मगर ज़िंदगी को सब अपने भीतर मानसिक रूप से स्थापित दायरों में रखकर जीते हैं। अपने को अच्छा औरों को कम अच्छा या बुरा इन्हीं मानसिक कसौटी पर परखते हैं। यही वजह है हम ना तो स्वयं को समझ पाते हैं और इसलिए ही औरों को नहीं समझ पाते हैं। अगर सभी दायरों से निकल कर विचार करें तो हम जानेंगे कि सभी जीवित शरीर में एक आत्मा (या रूह) विद्यमान होती है। जो अरुपी यानि न तो रूपवान है , न ही बदसूरत। इसका कोई जेंडर नहीं। यह अमीर या गरीब नहीं , बूढी-जवान या बालक नहीं। मनुष्य शरीर के भीतर विद्यमान जब तक यह है इसकी हरेक में चाहत एक सी होती है। इसे सुख अच्छा लगता है और दुःख बुरा।
किसी एक-आध घंटे के विचार में जब हम इतना जान लेते हैं तब समझिये कि हमने खुद को जाना और इस तरह और सभी को जान लिया है। ऐसे ही जब हम इस विचार को अपने अभ्यास या अपने आचरण में ले आते हैं तो कह सकते हैं कि हम इंसान होकर ज़िंदगी जीते हैं अन्यथा जो ज़िंदगी हम जीते हैं वह एक इंसान से कमतर क्षमता से जीते हैं।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
29-06-2018
किसी की ज़िंदगी पर बन आती है - जिससे
वह बात लोगों को ज़िंदगी में - मज़ा लगती है

जब अपनी ज़िंदगी चाहती ख़ुशी से जीना
तब औरों की खुशियाँ क्यूँ बुरी लगती हैं

 

Tuesday, June 26, 2018

बदलाव

बदलाव
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दुनिया में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। मज़हब , जाति , नस्ल भेद मिट रहे हैं। अब जो जितना कट्टर बना रहेगा वह उतना पिछड़ता जाएगा। बदलाव को रोकने की कोशिश यदि परिवार के बड़े करेंगें , तो उस परिवार के बच्चे औरों से पिछड़े रहेंगे. जरूरत बदलाव के विरोध की नहीं है। जरूरत कौनसे बदलाव मंजूर कर लेना उचित है , उसकी पहचान करने की है। निश्चित ही आ रहे सभी बदलाव अच्छे नहीं हैं। निश्चित ही बहुत से बदलाव बच्चों को खराबी की और दुष्प्रेरित करते हैं।

लेकिन मजहबी कट्टरता , इससे उत्पन्न कौमी नफ़रत , नारी के पढ़ने लिखने और उसके जॉब (अर्निंग होने) पर रोक , उन पर परिधान विशेष पर पाबंदी , उनके मनचाहे पसंद के युवक/युवती से गैर जातीय आधार पर विवाह की बंदिशें और ज्यादा बच्चों वाला परिवार अब पिछड़ी सोच और दकियानूसी होने की सूचक हैं। इनमें बदलाव जितने जल्दी स्वीकार कर लेंगे , घर परिवार में कलह को कम कर सकेंगे। अपनी नई पीढ़ी की उन्नति के मार्ग प्रशस्त कर सकेंगे। आज जो खुली सोच वाले कर रहे हैं , दस बीस साल बाद अधिकाँश लोग कर रहे होंगे। मगर आज हम उपरोक्त बदलाव स्वीकार करेंगे तो समय के साथ माने जाएंगे अन्यथा समय से पिछड़े , कोई दस-बीस और कोई पचास साल पीछे।

हो रहे बदलाव कोई रोक नहीं सकेगा क्योंकि नई पीढ़ियाँ अब सब्र से नहीं तेजी से बदलाव चाहती है , ताकि अपनी ज़िंदगी में वे बंदिशों , अवसाद और मन मसोस के जीने को मजबूर न हों

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

27-06-2018

 
#नाकाफी_प्रयास
नफरत आज इस तरह दिलो-दिमाग पर हावी है
नफ़रत मिटाने के प्रयास से भी उपजती नफ़रत है

मोहब्बत जब होती - तब सिर्फ मोहब्बत होती है
आबाद-बर्बाद देखना तो - ज़माने का नज़रिया है

मोहब्बत के लगाए पौधे में - हैरानी यह देख हमें हुई
मोहब्बत के नहीं - उसमें नफ़रत के फूल खिल रहे हैं
 

Sunday, June 24, 2018

मोहब्बत में हम - क्यूँ उससे उम्मीदें करने लगते हैं
मोहब्बत तो - उसे ख़ुशहाल रखने के लिए होती है

हम किसी से ईर्ष्या करते हैं
अपना समय बर्बाद करते हैं
जब किसी की मदद करें तो
समय का सदुपयोग करते हैं

मैं सौ तुम्हारे लिए करूँ - तुम एक मेरे लिए कर देना
मोहब्बत है तुमसे , तुम्हें एहसानमंद देखना नापसंद है मुझे



 

Saturday, June 23, 2018

जब मर जाना है इकदिन - फिर मौत से घबराना कैसा
है ज़िंदगी जब तक - सबसे रहे हमारा , दोस्ताना जैसा
 
 
उसकी मोहब्बत में ये करिश्मा हुआ हम पर
कि याद में बेकली-सुकून का फर्क मिट गया

यूँ मुहँ मोड़ लेने से - कोई ज़िंदगी से मायूस ना हो जाए
गुज़ारिश कि - मुहँ मोड़ने से पहले इतना ख़्याल कर लेना

औरों में - जिसकी शिकायत होती है
खुद में - वह बात बदलता कोई नहीं

 
 
 

आप उन चंद इंसानों में शुमार हैं ..

आप उन चंद इंसानों में शुमार हैं ..

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आपके अच्छा करने के प्रयास सारे विफल होते हैं , ऐसा मान कर अच्छा करने का प्रयास मायूसी में छोड़ देना अनुचित है। दरअसल समाज और दुनिया में मानवीयता (इंसानियत) जिस तीव्रता से घट रही है , आपके ऐसे प्रयास सर्वप्रथम उसके कम होने(घटने) की गति को रोकते हैं। उसके बाद वे (अच्छे प्रयास) , कुछ अच्छा बदलाव प्रेरित करते/लाते हैं। यह जरूर है कि ये बदलाव इतने धीमे होते हैं कि कल और आज में कोई दिखाई दे सकने वाला बदलाव होता नहीं है। लेकिन बदलाव कुछ होता अवश्य है। स्मरण रहे कि यह दुनिया 8 अरब इंसानों की दुनिया है , जिसमें अधिकाँश को सिर्फ अपनी और अपने कुछ अजीज की ही परवाह है। ऐसे में अगर आप समाज और दुनिया के लिए अपनी ज़िंदगी लगाने वालों में से हैं तो ऐसे इंसानों की संख्या अत्यंत कम है। इसलिए इस बड़ी इंसानी तादाद पर अच्छाई के प्रयास/कार्य बेअसर से होते लगते हैं। समाज भलाई के आपके प्रयास , आपको अपर्याप्त से लग सकते हैं। बदलाव विज़िबल नहीं होता देख मायूसी आ सकती है। लेकिन मायूसी से अपने को उबार लीजिये।

आप जितना कुछ कर देंगे वह इंसानियत की दृष्टि से तारीफ़ के काबिल तो होगा ही , ज्यादा तारीफ़ की बात यह होगी कि आप उन चंद इंसानों में शुमार होंगे , जिनसे समाजिक सदभाव -सौहाद्र और मोहब्बत की परंपरा कायम चली आ रही है। अगर आप ही हताश हो गए तो परंपरा की यह डोर टूट जायेगी। फिर नफरत , धोखे , कपट और वासना के खेल बेशर्मी से होंगे। यह स्मरण रखिये कि हम मायूस हुए तो आने वाली आगामी पीढ़ी जिनमे हमारे खुद के भी बच्चे होंगे , को मिलने वाला समाज या दुनिया , उनकी खुशहाली की ज़िंदगी सुनिश्चित नहीं कर सकेगी।

राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

Friday, June 22, 2018

नज़रिया

नज़रिया
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ऊँची तालीम हासिल सफल मुस्लिम युवक , जब गैर मुस्लिम किसी युवती से शादी करता है तो एक मुस्लिम युवती की ख़ुशनसीबी और उसकी बीबी हो जाने के हक़ से उसे वंचित करता है। यूँ तो खुले ख्याल से देखा जाए तो इंसान या तो पुरुष या नारी (अपवाद छोड़ें) होता है। इसलिए ज़िंदगी में उच्च पदस्थ , सफलता पर पहुँचे किसी पुरुष के साथ किसी नारी का पत्नी बन जुड़ना (या उलट) उसकी खुशनसीबी होती है। फिर चाहे पुरुष या नारी किसी कौम के हों महत्वहीन होता है। किंतु मानव सभ्यता यात्रा आज जिस मुक़ाम पर है , वहाँ मज़हबी ठेकेदारों ने कई हदें आपस में बनाई हैं। ये हदें नरम भी नहीं , बेहद सख्त हैं। जब आजीविका प्राप्त करने की दृष्टि से बेहतर तालीम प्राप्त कर कोई मुस्लिम युवक जॉब में जाता है तो उसके आसपास की युवतियों से प्रेम संबंध होने की संभावना होती हैं  , जिसमें से कुछ उनकी शादी में तब्दील होते हैं। मुस्लिम युवतियों को शिक्षा के अवसर कम हैं अतः जाहिर है यह संबंध प्रायः गैर मुस्लिम युवती से होते हैं।

यहाँ एक रिश्ता जो एक पुरुष और नारी का पति-पत्नी होने का स्वाभाविक होता है , किंतु तथाकथित मज़हबी ठेकेदार इसे आपस में आन-बान-और शान के रूप में देखते हैं , एक को आपत्ति यह कि उनकी कौम की लड़की , गैर मजहब की बना ली गई , वे इसे कलंक की तरह देखते हैं और मुस्लिम , इसे लव ज़िहाद का नाम दे कर प्रचारित करके दूसरों के अवसाद की अग्नि को हवा देकर , आपसी नफरत को और मजबूती देते हैं। इस तरह किसी शादीशुदा जोड़े को ज़िंदगी के सहज खुशहाली के मंसूबे की राह में रोड़ा बनते हैं।
इसलिए बहाने देख देख नफ़रत पैदा कर देने वाले मजहबी ठेकेदार या सियासत करने वालों को कोई यह मौका नहीं दे। अगर दो गैर-संप्रदाय के युवक युवती की शादी मोहब्बत का नहीं नफरत का कारण बनती है तो अपनी कौम में ही शादी कर लें। इससे जो बात अच्छी होगी वह यह कि एक मुस्लिम युवती को वह तालीम प्राप्त योग्य युवक शौहर रूप में मिल सकेगा जिसका सपना , किशोरी से युवती होते हुए उसके दिल में बस रहा होता है।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23-06-2018


Thursday, June 21, 2018

जरा इक फ़र्क कि कोई हिंदू ,
कोई मुस्लिम परिवार में नहीं जन्मा
समंदर इतनी नफरत का बन गया कि -
डूब जिसमें कई मर रहे हैं

 
कुछ कर देने की कीमत वसूल ली - वह एहसान नहीं होता
और जो एहसान करना नहीं जानता - वह इंसान नहीं होता

लोग अपनी पहचान बनाने को ज़िंदगी कहते हैं
एक नारी को अपना चेहरा तक छुपाना पड़ता है

पीछा उसका छोड़ दे जिसे - तेरा पीछे होना परेशान करता है
समझ कि परेशान कोई करता तो - तुझे अच्छा नहीं लगता है

पीछा कर कर के तूने - दिल में उनके जगह बनाई है
अब न हट तू उनके पीछे से - उन्हें बर्दाश्त नहीं होगा




 

Wednesday, June 20, 2018

#स्वाभाविक_है
 उस जैसा हम कर और सोच नहीं सकते तो
 वह भी हमारे जैसा कर और सोच नहीं सकता

#इंसानियत_है
करें आप और हम अपनी अपनी मर्जी का
बस
किसी की ज़िंदगी या ख्वाहिशें , हमारी मर्जी के नीचे न दब जायें

जो स्व-कर्मों से गौरवांवित न हुआ - उसे जीवन कैसे कहें
बेहतर तो वो पत्थर - जो शहीदों की समाधि में लगते हैं

खुदा ने गर बेवफाओं की दूसरी दुनिया बसाई होती
मेरे दोस्त इस दुनिया में बस हम ही रहे होते

मुश्किलों से दो चार हुई - उससे सहानुभूति होती है
चुनौतियों से लड़ती वो - ज़िंदगी अलग मज़ा देती है

यहाँ बेवफा हो या ना हो कोई मगर
इल्ज़ाम बेवफ़ाई का सब पर लगता है

मैं मान लूँ या ना मानूँ खुद को बेवफा - क्या महत्व है
जिन्हें मुझसे है वफ़ा की उम्मीद - बेवफ़ा वे तो ना कहें



 

Tuesday, June 19, 2018

अश्रुना

अश्रुना

 

 अपने भाई-बहन उसे बहुत प्यारे हैं। पापा और माँ का लाड़-दुलार उसे भरपूर मिला है , सात भाई-बहनों में अश्रुना सबसे बड़ी है। पाँच बहनों के बाद दो सबसे छोटे जुड़वाँ भाई हैं , उसके। सभी अश्रुना दीदी को बहुत प्यार आदर करते हैं। अश्रुना - इस अगस्त में 24 की हो जायेगी। बहुत कुछ भरपूर मिला है जीवन में अब तक उसे। किंतु प्यारे पापा की आय 7 बच्चों के परिवार के लिए पर्याप्त नहीं है। खुद माँ - पापा बहुत पढ़े लिखे नहीं हैं। इस कारण और और कम माली हालत की वजह से , अश्रुना और सभी बच्चों को पढ़ाया तो गया / (जा रहा) है  लेकिन वह पढ़ाई 1 ठीकठाक आजीविका की दृष्टि से कम पड़ती है. अश्रुना की माँ , सीधी साधी उच्च कोटि की इंसान हैं। अश्रुना ने बचपन से उन्हें बच्चों और पापा के लिए दिन रात काम करते , सेवा सुश्रुषा करते पाया है। वे अपनी तकलीफ़ कहने में भी सकुचाती हैं , कि अश्रुना के पापा और बच्चों पर मानसिक दबाव बढ़ेगा।

सत्रह वर्ष के ऊपर की हुई खुद सहित पाँच खूबसूरत बहनों के कारण कुछ वर्षों से अतिरिक्त चिंतायें माँ पापा पर परिलक्षित दिखती हैं। समाज में खूबसूरत जवान लड़कियों पर कितने खतरे हैं , उन्हें बाहर जाने दें तो चिंता और पढ़ने लिखने के लिए बाहर न भेजें तो उचित नहीं। कभी उस पर और बहनों पर पाबंदियाँ और कभी खुले विचार के कारण छूट , यह धर्मसंकट उन्हें हर समय तनावग्रस्त रखता है। अश्रुना स्वयं कुछ कमा लेने के लिए घर से ही कुछ काम करती है , पर उससे भी आय 2-3 हजार से ज्यादा नहीं होती। इन सब परिस्थितियों में तथा  बड़ी हुईं बेटियों के विवाह की चिंता में , माँ-पापा असमय ज्यादा बूढ़े दिखने लगे हैं। अब दोनों अक्सर बीमार भी पड़ जाते हैं , जिससे दवाओं और डॉक्टर के खर्चे भी बढ़ गए हैं।
अश्रुना के विवाह की बातें भी चलने लगीं हैं। अपने माँ-पापा के ऊपर , इस बड़े परिवार का दबाव उसने होश संभालने के बाद हमेशा अनुभव किया है . इसलिए वह ऐसे लड़के से विवाह करना चाहती है , जो इतना प्रगतिशील विचार को हो कि ज्यादा बच्चे पैदा करने को उसे मजबूर न करे। उसे यद्यपि अपने ज्यादा बहन-भाई के होने से कम कपड़े , पसंदीदा खानपान के अभाव और साधारण शिक्षा मिलने के कारण कोई शिकायत नहीं  माँ - पापा से। पर सब की इक्छाओं की पूर्ति में आर्थिक अक्षमता के कारण माँ-पापा का मन मसोस के रह जाना , उनके चेहरे पर उदासी और चिंता की लकीरें देखना उसे बहुत व्यथित करता है। इसलिए वह चाहती है कि खुली सोच वाला उसे हस्बैंड मिले। जिससे , वह और उसकी बहनें जैसे पिछड़ गईं हैं आज की अन्य लड़कियों से , उनकी आगे की पीढ़ी इस तरह न पिछड़े।
मगर अफ़सोस अश्रुना को इस तरह के मौके भी नहीं कि जिससे विवाह की बातें चले , उससे इतना सब डिसकस करने के लिए उसे 2-4 महीनों का समय मिले।

#नारी_लाचारी
पर्दा और बुर्क़ा इस तरह लादा गया है - उन पर कि
नारी , डीपी तक में - शक्ल न दिखाने को मजबूर हैं

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
20-06-2018

Monday, June 18, 2018

मुसलमान बुरा नहीं होता

मुसलमान बुरा नहीं होता ..

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पास पड़ोस में गुजर करने पर कभी वह हालात आते हैं , जब मदद की गुहार एक दूसरे में होती है। कभी ऐसा भी होता है जब किसी की खूबियाँ मन मोहती हैं। ऐसे में ही हममें -उनमें पारिवारिक , वैचारिक करीबी बढ़ती है।

दो यह परिवार अलग कौमों से थे। दोनों के मज़हब कितने दूर थे , उन्हें मालूम न था , क्यूंकि एक दूसरे के मज़हब को दोनों ने ही समझने की कोशिश ही नहीं की थी। किंतु दोनों ही जानते थे कि देश / समाज में उनकी कौमों के बीच अविश्वास , बैर और साथ ही नफ़रत बहुत थी। ऐसे में कई वर्षों से नज़दीक ही रहते हुए , कई "ईद उल फितर" के फेस्टिवल आये और चले गए थे।

 ऐसे ही इस 'ईद उल फितर' का दिन भी गुजरने को था तब कुछ संकोच से उबरते हुए उन्होंने , सिंवई आप खायेंगे क्या? , पूछा। शायद हमें इस ईद उल फितर पर इसी पेशकश का इंतजार था , हमने देर किये बिना हाँ , कह दिया। उनके कुछ संकोच अब भी रहे - उन्होंने घर अपने नहीं बुलाया , सिंवई हमें भिजवाई। लेकिन हमें लगा कि सिर्फ सिंवई खा लेने से ईद कहाँ पूरी होगी। बाद में , हम सभी को ईद मुबारक कहने उनके घर पहुँचे।
जो पहले नहीं हुआ , उस दिन ऐसा सब होना हमारे लिए खुशगवार तो था। किंतु इस सबके साथ हम पर जिम्मेदारी थी। देश और समाज में व्याप्त दो कौमों के बीच की दूरी का अहसास रखते हुए हमें दोनों परिवारों में नज़दीकी रहे इस हेतु ज्यादा सोचना,समझना और करना था। हमें इस तरह चलना था कि उनके मन से हमारे प्रति और हमारे मन में उनके प्रति भरोसा बने रहे , उसमें इजाफा हो। इसे सुनिश्चित करने के लिए हमें मदद के सारे काम करने थे , बोलने एवं मिलने पर मधुरता की सावधानी रखनी थी। और जिस बात में तनिक भी खतरा हो कि भरोसा टूट सकता है , नफ़रत के कारण पैदा हो सकते हैं , उसे कतई बीच में नहीं लानी थी।
हम पर अब जिम्मेदारी थी कि ज़िंदगी भर कि मोहब्बत दो परिवारों में कायम रहे। वे कहीं और बातें करें और हम कहीं और बातें करें तो यह बात कह सकें कि

'हिंदू या इस देश के बाशिंदें अच्छे हैं , हम कह सकें कि मुसलमान बुरा नहीं होता है। '

 

"जैसा सुना था वैसा नेक है भारत
सब मुल्कों से भला एक है भारत"

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

19-06-2018
उनकी चुप्पी को दोस्त - हाँ समझना ठीक नहीं
हाँ में उन्हें संकोच तो - ना कहने से वे डरती हैं

तेरा मन यह जानता कि - मैं आश्रिता रह खुश हूँ
मेरा मन जानता कि - इसमें गुलामों सी मजबूरी है

#मानव_सभ्यता
आश्रिता रूप में एक नारी में जज़्बात सिसकते हैं
नारी को स्वावलंबन के अवसर दिए जाने चाहिए

हमें मोहब्बत है तुमसे - मर्जी हम पे चला लो
औरों पे न चले शायद - मर्ज़ी चलने की ख़ुशी हम से ले लो


 #कश्मीर
ख़ूबसूरत दिल है मगर - चैन उसमें नहीं
काश चैन होता - ख़ूबसूरती होती या नहीं

जब ढ़लने को आया - ठहरता सूरज कैसे?
सँवरना ही था तो - शाम नहीं दोपहर सँवरती
 

Sunday, June 17, 2018

एक ही सवाल का सही निदान - सभी समस्या का समाधान
पैदा हुआ आज का इंसान - इंसान की तरह क्यों नहीं रहता?

#नारी
मूल में है कायनात के - किसी उन्वान की अहमियत क्या उनको
वज़ूद जिनका है , वज़ूद से उनके - बेग़ैरत गर वे तो क्या कहिये?

भड़काऊ शब्द सिर्फ - नफरत को सीचेंगे

भड़काऊ शब्द सिर्फ - नफरत को सीचेंगे
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भारत में रहने वाले ज्यादातर मुस्लिम , हम और आप जैसे ही हैं जिनकी पूर्व पुश्तों ने मुगलकालीन बर्बरताओं में मजबूर होकर मज़हब बदल लिया था। इसलिए उनका डीएनए हमसे कोई अलग नहीं मिलेगा। मजहब बदलने के बाद , वे किसी भी मज़हब को निभाना चाहे उसकी उन्हें आज़ादी होनी चाहिए।
हमारी समस्या मजहब नहीं है - समस्या 'नफ़रत की अग्नि' है , जिसे भड़काने में आहुति सभी तरफ से दी जा रही है। हिंदू होना , मुस्लिम होना , अन्य मजहब का होना या बिना मजहब का होना गुनाह नहीं है। किंतु जिस भी मज़हब के हम हैं उसके आदर्शों पर अगर हम चलें तो नफ़रत उत्पन्न/व्याप्त होने की कोई संभावना ही नहीं होती है। किसी भी धर्म को उसके सच्चे स्वरूप से समझने/पालन करने वाले के दिल में मोहब्बत ही निवास करती है। वह समाज और दुनिया में सिर्फ मोहब्बत की राह प्रशस्त करता है। वह दुनिया में अमन और ख़ुशहाली का पैरोकार होता है। ईर्ष्या , द्वेष और व्याप्त आज की हिंसा उसके स्वभाव में नहीं होती।
"हमें वे शब्द प्रयोग नहीं करने चाहिए जो नफरत उगलते हैं
शब्द हमारे ऐसे होने चाहिए जो मोहब्बत के पौधे सींचते हैं"
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
17-06-2018
बुराई करते वक़्त - लब पर मुस्कुराहट नहीं होती
और हमें शौक है - मुस्कुराते हुए ज़िंदगी जीने का

#रखिये_नाम_अब_औरंगजेब
औरंगजेब नाम को एक ने कलंकित किया
औरंगजेब नाम की दूसरे ने शान बढ़ाई

#fathers_day_2018
मैं भी एक पापा हूँ। मेरी ख़ुशी इसमें कि मैं दो गुण-प्रतिभा संपन्न बेटियों का पापा

एक सवाल
 अगला जन्म गर नारी रूप हो तब किन कारणों से आपका जीवन कष्टमय होगा? इस दृष्टि से आज समाज-दुनिया में क्या बदलाव लाना चाहेंगे?

रात कल ईद के चाँद के साथ जमीं का चाँद था
ईद के चाँद को देखा तो हमें साथ आप दिख गए

सरल सवालों के जबाब खोजने की फुर्सत नहीं
 यह पीढ़ी - जटिल सवाल क्या हल कर पाएगी

ज़िद थी कि पहले खुशियाँ तुम्हें दिलाएंगे
फिर तुम्हारी खुशी में हम खुश हो जायेंगे
 ज़िद हमारी पूरी हो न सकी
 यूँ खुशी हमें हासिल हो न सकी

आइना भी अब बन चुका है - तस्वीर तुम्हारी
सामने होते हम मगर - दिखते हो तुम उसमें

#आपकी_ख़ुशियाँ_अहम_हैं
हमारे होने से मिले खुशियाँ तो शरीक हैं हम
नहीं तो रह हमसे बेफिक्र खुशियाँ मनालो तुम

असमंजस है कि
 बचे थोड़े दिन हैं - उनमें भी दुनिया की तरह चल दूँ
 या
 धन मोह त्याग - सबमें सकारात्मक प्रेरणायें भर दूँ
 

Thursday, June 14, 2018

चाहे कितने ही दक़ियानूसी हों - हम पढ़ें

चाहे कितने ही दक़ियानूसी हों -  हम पढ़ें
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"नारी , पुरुष जैसी और समान ही एक मनुष्य है" , इस प्रगतिवादी विचार पर लिखीं पोस्ट अवश्य पढ़ें उन पर चिंतन करें. निश्चित है कि मानव यात्रा सभ्यता की दिशा में ही बढ़ना है। अतः इस यात्रा में वह मुक़ाम भी आएगा जहाँ यह सच सभी को स्वीकार्य होगा। इसलिए यह तय है कि हम दकियानूसी और अपनी जिद में इसे स्वीकार करें या न करें लेकिन इसे हमारे बच्चे या उनके बच्चे इस प्रगतिशील - न्यायसंगत , सत्य को स्वीकार कर लेंगे. हम चाहें तो अपनी समझदारी में ज़माने से पहले इसे मंजूर कर सकते हैं।
वैसे तो इंसानों में अनेक भेद हैं जिसमें अपने से भिन्न कर हम औरों को देखते समझते हैं। दरअसल किंतु यह सब हमारे मज़हबी या सामाजिक संकीर्णतायें हैं। प्रकृति से मनुष्य में सिर्फ एक ही भिन्नता मिली है जो लिंगीय अर्थात पुरुष और नारी में शारीरिक (जिस्मानी) बस होती है। यह प्राकृतिक भिन्नता भी मात्र संतति क्रम चलाये रखने के लिए की गई है। बाकि अन्य सभी दृष्टि से पुरुष और नारी समान हैं। जब भी या जिस दिन भी हम सभी यह समझ लेंगे उस दिन मानव निर्मित मज़हबी या सामाजिक सारे भेद या उनमें व्याप्त कटुतायें अस्तित्व में नहीं रह जायेगीं। मानव सभ्यता अपनी पूर्णता पर पहुँचेगी - जिसमें सभी मनुष्य को समानता से देखा/समझा जाएगा ।
हम समझदार बन सकते हैं , प्रगतिवादी कहला सकते हैं यदि हम -
"नारी को समान इंसान मानें , उन्हें आदर दें , उन्हें सुरक्षा मुहैय्या करें , उन्हें समान अवसर दें - उन्हें गृहहिंसा से मुक्त करें , उन पर जबर्दस्ती न करें और उन्हें उनकी मनमर्जी से ज़िंदगी जीने के हालात दें" , तो।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
15-06-2018
https://www.facebook.com/narichetnasamman/
एक तुम हो पसंद - फिर जो तुम्हें पसंद
तुम्हें वह हासिल होते देखना - हमें पसंद

हर बहाने हसरत तेरी कि - हो महबूब की दीद
फिर क्या सुबह , क्या शाम या चाहे हो ईद

Wednesday, June 13, 2018

न कर वैभव से अत्यधिक मीठी ज़िंदगी अपनी
कि उसमें कीड़े पड़ जायें
मिली भली है इक ज़िंदगी तुझे
जो औरों के किसी काम की न रह जाये

ज़िंदगी में जब ख़ुशहाल बहुत होगा - ख़ुद में मशग़ूल तू होगा
होंगी मुश्किलें जब कुछ - औरों की मुश्किलों ख्याल तुझे होगा


 

Tuesday, June 12, 2018

नहीं देखा कभी नफ़रत - प्रेरणा बनती हुई कोई
रख दिल में मोहब्बत - ख़ुशहाली ला सकती है

रख नफ़रत देखी - ख़ुश मैं था ना किसी को ख़ुश कर सका
फिर दिल में मोहब्बत रख देखी  - मिला नतीजा अच्छा था

नफ़रत का नतीज़ा हमने - ख़ून खराबा होते देखा है
जबकि आता हर कोई है - यहाँ ज़िंदगी जीने के लिये

इंसान को चीज समझती - इस तालीम को क्या अच्छा कहिये
वे अपढ़ ही भले होते थे - जो इंसान को इंसान समझते थे






 

Monday, June 11, 2018

मेरे लिए मेरी माँ,बहनों, पत्नी और बेटियों ने किये का ऋण अनुभव करता हूँ
इसलिए नारी के बेहतर जीवन की सामाजिक प्रेरणा हेतु लिखता हूँ

पुरुष सत्ता . .


पुरुष सत्ता . .

नारी को लेकर एक सोच परंपरागत , पुरुष सत्ता वाली है , जो नारी के पूर्व के तरह के जीवन को ही न्यायसंगत सिध्द करने में लगी होती है , जो अपनी बातों को कभी धर्म से कभी इतिहास हवाले से साबित करने की कोशिश में रहती है। दूसरी सोच जिसे नारीवाद बताया जाता है - आज के परिवेश में नारी-पुरुष जीवन को परखती है। इसलिए कितने ही तर्क के बाद ये दोनों परस्पर विपरीत विचार किसी बात पर आपस में सहमत नहीं होते हैं। परंपरागत , पुरुष सत्ता यह सोचती है कि उसने उदार रुख अख़्तियार किया तो उसके सामाजिक / धार्मिक अधिकारों में कमी होगी। अपने लिए कमी स्वीकार करना एक साहासिक कार्य होता है। समाज का हर व्यक्ति इतना साहसी नहीं होता।

जहाँ तक नारी पक्ष की बात है - नारी को इस बात की अब परवाह नहीं कि इतिहास या पूर्व धार्मिक रिवाजों में उसे क्या सुख थे। आज की नारी यह जानती है कि उसे पुरुष की अपेक्षा ज्यादा बंदिशों में ज़िंदगी गुजारनी होती है। अब उसे एकतरफा मर्यादा , जिसमें सब बंदिशें नारी पर हैं मंजूर नहीं। अगर समाज में मर्यादा ही जरूरी है तो वह पुरुष और नारी पर एकसी लागू हों। जो बात नारी के लिए कलंक , उसी कलंक में शामिल पुरुष पर कलंक होना चाहिए।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12-06-2018

Sunday, June 10, 2018

नारी के लिए दुनिया और ज़िंदगी अलग क्यों?

नारी के लिए दुनिया और ज़िंदगी अलग क्यों?

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भारतीय परिवेश में देखें तो इक शताब्दी पूर्व तक नारी होने का अर्थ-  वस्त्र की परतों में छिपी रहना , घर की सीमा में बँधी होना और चूल्हा चौका , बच्चों की देखभाल तथा घर के बड़ों और पुरुषों की सेवा में रत रहना होता था। बाहर और परिवार के लिए किये जाने निर्णयों में प्रत्यक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं था। उनका बाहर - धर्म / मंदिर , पास पड़ोस में सुख-दुःख के महिला आयोजनों एवं घर की आवश्यकता के लिए कुयें , जलाशय से जल भर लाना होता था। मध्यम और उच्च वर्ग की महिलायें , आजीविका अर्जन के लिए बाहर नहीं निकलती थीं। लेकिन गरीब घरों की स्त्रियाँ , झाड़ू ,कपड़े ,बर्तन और अन्य सेविका के कार्यों से धन अर्जन को विवश होती थीं। हर नई पीढ़ी की पैदा होने वाली बेटियाँ , अपनी माँ और अन्य बड़ी औरतों को यह सब करते देख , इसे ही नारी के जीवन के तौर पर स्वीकार करती थीं , यानि मानसिक रूप से इन ही दायित्वों में सिमटने और इस तरह के बंधन में रहने के लिए उनका प्रगट विरोध नहीं होता था। यह सब विचित्र तो था लेकिन किसी को विचित्र नहीं लगता था। जबकि तन की रचना सिर्फ अलग थी पर मन की रचना से नारी कहीं भी पुरुष से भिन्न नहीं थी।

हम पर ही सारे बंधन क्यों और पुरुष अपने मन की करने को स्वच्छंद क्यों ? यह नारीवादी , समाज व्यवस्था से विद्रोह का प्रश्न पिछले सौ वर्षों से ज्यादा पुराना नहीं है। पाश्चात्य देशों में बेहतर कानून व्यवस्था के कारण , नारी की शारीरिक निर्बलता के बाद भी उन के विरुध्द अपराधों पर नियंत्रण होने से , वहाँ की नारी गृह सीमा से पहले बाहर निकली , उसने शिक्षा हासिल करने की नई परंपरा रखी और धन अर्जन में पुरुष की तरह ही भागीदारी करना आरंभ किया। पश्चिम के बदलाव की यह हवा भारतीय उप महाद्वीप में भी पहुँची। यहाँ भी सदियों या कहें सभ्यता के आरंभ ही से दबा यह तर्क कि नारी भी एक मनुष्य होने नाते पुरुष से समानता रखती है , मुखर होना आरंभ हुआ। पहले कम फिर क्रमशः नारीवाद का यह स्वर बुलंद होता गया। समाज के प्रगतिशील पुरुषों ने इसे न्यायप्रियता से लेकर अपने घर परिवार की नारी के लिए समानता के अवसर देना आरंभ किया। कुछ की देखादेखी और भी पुरुष और नारी इस बदलाव को स्वीकार करते चले गए। शिक्षा और धन अर्जन की नारी क्षमता , उन्हें परिवार और परंपरागत आर्थिक निर्भर नारी से ज्यादा औचित्यपूर्ण लगी।

 

इन हालात में जरूरत है कि बदलाव के इस काल में दकियानूसी परंपराओं को लागू रखने में अपनी शक्ति खर्च करने की जगह , उन व्यवस्थाओं और अपने मन परिवर्तन पर शक्ति लगाना चाहिए। साबित यह हुआ है कि कोई भी प्रगतिशील परिवर्तन रुकता नहीं है।  कोई देश , कोई समाज या कोई संप्रदाय उसे बीस-पचास साल टाल तो सकता है किंतु रोक नहीं सकता। वैसे भी नारी आबादी लगभग 50 फ़ीसदी होती है। लगभग आधे इंसान के दिल में उभर रहे सवाल की अनदेखी उचित नहीं होती है।  क्या अब तक सही नहीं था को भूलकर , क्या सही किया जाए इस नज़रिये से हमें देखना चाहिए। जो पूरा समाज 50 साल बाद करेगा , उसे आज हम आरंभ करें तो बुध्दिमानी ही होगी। नारी पर बर्बरता के प्रतिबंध लगे रहेंगे तो वह प्रतिक्रिया में ज्यादा विद्रोह करेगी। मगर उसके समानता की परिस्थिति निर्मित करेगें तो वह सहजता में ज्यादा जिम्मेदार होगी। उस पर वस्त्रों के , संबंधों की जबरन पाबंदी नहीं होगी तो उसे खुद ज्ञान रहेगा कि उसकी और परिवार का हित किन आचरण में है।

प्रतिक्रिया में वह यदि अर्धनग्न दिखना चाहती है तो सहजता में शालीनता को पसंद करेगी। जो कार्य पुरुष के करने पर कलंक नहीं उसे नारी के करने पर कलंक के तौर पर देखना प्राकृतिक न्याय के विपरीत है। प्राकृतिक न्याय को स्वीकार करते हुए नारी को अपनी ज़िंदगी , अपनी ख़ुशी से जीने की राह प्रशस्त करना अब लाजिमी होगा.
अपने कानून व्यवस्था , धार्मिक रिवाजों और समाज में यह प्रावधान हमें कर देना चाहिए कि हमारे परिवार / समाज / मज़हब की नारी के दिल/जेहन में गुलामों जैसी पाबंदियों के विरुध्द उमड़ता आक्रोश शांत हो। अब का समय नारी के मन में उसी के प्रति आदरभाव पैदा करेगा जो उसे अपने समान इंसान के रूप में देखेगा , उनसे व्यवहार करेगा।
https://www.facebook.com/narichetnasamman/

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
11-06-2018

 

मिज़ाज मेरा - अगर बुरा किसी का नहीं करता
मुख़्तलिफ़ हो औरों से - तो भी बुरा नहीं होता

ख़ुद तो हम हैं ही और ख़ुदा है हर जगहा
तलाश ज़िंदगी की जिसे जीने में है मज़ा

 

डिवोर्स के पहले


डिवोर्स के पहले

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 भारतीय परिवेश में डिवोर्स क्यों उपयुक्त नहीं इस पर ऐसे विचार करने की जरूरत है -

बेटी को विदा करने और इक नए सदस्य को परिवार में बहू के रूप में लाने के पूर्व दोनों ही परिवार को बहुत साहस जुटाना होता है। ज़ाहिर है कि बहुत पड़ताल के बाद , विवाह होता है। दोनों ही पक्ष एक बहुत बड़ा खर्च (जो क्षमता से कहीं अधिक होता है) विवाह आयोजन पर करते हैं। अगर ऐसा नहीं है और विवाह - इश्क होने के बाद प्रेमी युगल के बीच होता है तो इस प्रेम संबंध में धन के रूप में बहुत नहीं किंतु समय के रूप में ज़िंदगी का बेशक़ीमती वक़्त जाया किया गया होता है। दोनों ही तरह के विवाह इसलिए अलग अलग नज़रिये से बहुत महँगे होते हैं। ऐसे में अगर दो-चार साल में यह संबंध विच्छेद की नौबत आ जाए तो यह साफ प्रतीत होता है कि कम से कम एक में समझ की कमी है। दूसरे शब्द में लिखें तो उसमें पति (या पत्नी) होने की काबिलियत ही नहीं होती। उन्हें यह समझना जरूरी है कि विवाह परिवार और समाज दोनों ही दृष्टि से बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। यह वह शपथ होती है जिसे कुछ बातों के कारण तोड़ना - सिवाय मूर्खता के कुछ नहीं होता । हमारे समाज में डिवोर्स लड़का और लड़की सहित दो परिवारों की प्रतिष्ठा पर भी प्रश्न चिन्ह अंकित कर देता है। डिवोर्स - ईगो की अधिकता का द्योतक होता है , जिसके कारण आँखों पर चढ़ा चश्मा यह देख नहीं पाता है कि दूसरे पक्ष पर इसके बुरे प्रभाव क्या हो सकते हैं। यह साबित होता है कि जिससे इश्क़ और ज़िंदगी भर का साथ निभाने का वादा था , उसे थोड़े से अर्से में ही दगा दिया जा रहा है. यह सिध्द करता है कि पति-पत्नी और परिवार में ज़िंदगी की चुनौतियों और नित होते बदलाव के साथ सामंजस्य बिठाने की समझदारी का अभाव है। यह अति आशावाद है कि डिवोर्स के बाद ज़िंदगी के कष्ट मिट जायेंगे। समझने के जरूरत यह है कि अभी कुछ मुश्किलें हैं तो तलाक के बाद मुश्किलें और भी होंगी , क्या हर मुश्किलों का सामना , दायित्वों से पलायन कर देना अनुचित नहीं ?

कोई भी हो उसे डिवोर्सी नहीं जिम्मेदार होने की जरूरत है , कोई और ज़िंदगी के फ़लसफ़े समझाये उससे बेहतर खुद समझने की जरूरत है। हमें दयनीय या उपहास रूप में औरों के सामने जाने की जरूरत नहीं , अपितु परिवार की प्रतिष्ठा के रक्षक के रूप में नज़र आने की जरूरत है। इस खुशफ़हमी को खत्म करना भी नितांत जरूरी है कि तलाक के बाद फिर विवाह में कोई बहुत अच्छा साथ ही मिल जाएगा। हो सकता है , पछतावा रहे कि इससे बेहतर तो वह थे/थी। निभाने की मजबूरी आगे भी संभावित अगर हो तो बुध्दिमानी से अभी के दाम्पत्य को ही निभा लिया जाना चाहिए । परस्पर समझदारी से उन कारणों को दूर करने के उपाय कर लिए जाने चाहिए जिनसे संबंधों पर यह संकट आया है।

अगर आप डिवोर्स के फ़ैसले के पूर्व समझदारी से अपना दाम्पत्य बचा लेते हैं तो -  अपने उपहास से बचते हैं , अपने को जिम्मेदार साबित करते हैं , अपनी प्रतिष्ठा बचा लेते हैं , दो परिवारों को परस्पर बैरी हो जाने से बचा लेते हैं , अपने इश्क़ के वादे को निभा लेते हैं अथवा अपने विवाह पर किये गए व्यय को व्यर्थ नहीं जाने देते हैं। अगर आपका कोई बच्चा हो गया है तो बड़ा-समझदार होकर आपको धिक्कारेगा इस संभावना से आप बचते हैं। स्मरण रखें कि आपके  जीवनकाल के लगभग 18000 दिन ही अभी बाकि बचते हैं , तलाक़ मिलने के लिए लग जाने वाले 1000 दिन आप व्यर्थ तनावों या चिंताओं में नहीं जाने दें , इसके बाद के कई और दिन इन पछतावे में नहीं जाने दें कि व्यर्थ गुस्से या ईगो में आपने बड़ी भूल की है। छोटी सी ज़िंदगी का हर दिन बेशक़ीमती है उसे अपनी और औरों की ख़ुशी के लिए व्यतीत करना चाहिए . कोई भी दिन अवसाद में व्यर्थ नहीं किया जाना चाहिए।

तलाक दे देना वीरोचित नहीं होता , हर परिस्थिति में अपने विवाह ( पूर्व निर्णय ) को निभा लेना साहासिक कार्य होता है।

अतः उचित है कि डिवोर्स को अंतिम विकल्प के तौर पर देखा जाना चाहिए।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
10-06-2018

Saturday, June 9, 2018

#फ़र्ज
एहसास जो दुनिया को मोहब्बत से भर दें
अल्फाज़ उन्हें देकर हम पैग़ाम जरूर कह दें

#आरजू
साधारण वेश में भी - इंसान बेमिसाल तू इसलिए है
कि
आरजू तेरी - दुनिया को नफ़रत से निज़ात दिलाने की है

पथरीले रास्तों में - पीठ पर लिए चल सकते हैं
भरोसा अग़र करे कोई कि - हम नेक इंसान हैं

#सभ्य
ऐसे तक़दम हुआ - आज का इंसान है
एक पर दूसरे को - भरोसा नहीं होता

ऐसे मज़बूर तो नहीं करती , तू ज़िंदगी हमें कि
मुश्क़िलें हैं ज़िंदगी में - लिखने की भी इजाज़त नहीं

ये सोच कर हमने - ज़ब्त किए दर्द अपने कि
हमदर्द कोई दुःखी न हों - हमें ख़ुश समझ लिया

याद न रहती तो - ज़िंदगी में मज़ा क्या होता
मिला था कभी इक इंसान - भुला दिया होता

उन ख़्वाबों जिसमें तुम - उम्मीद चलती है
कभी हक़ीक़त होंगे - यूँ ज़िंदगी गुजरती है

जर्रे जर्रे में है - तो पत्थर में , ख़ुदा है
बेवफ़ा अल्फ़ाज़ में भी - यार , वफ़ा है











 

Friday, June 8, 2018

रूह से मोहब्बत तुझे जब होगी
हर शख़्स से तुझे मोहब्बत होगी

ज़िस्म में मोहब्बत - ढूँढता रहा तू
ज़िस्म का हश्र - बाद मालूम हुआ तुझे

प्यार से अपने लिए ख्वाहिशें? - प्यार समझा ही नहीं तुमने
प्यार जब हमें हुआ - ख़ुद के लिए हसरतें जाती रहीं

ये लव रिएक्शन - मेरा होता तेरी रूह के लिए
अजीब मगर कि - रूह के कोई दिल होता नहीं

 

Thursday, June 7, 2018

हक़ीक़त में जो मिलते - उतने हसीं नहीं
खूबसूरत हसीं ख़्वाब - हम देखते क्यों हैं

ख़्वाब और हक़ीक़त अगर बेमेल है इतनी
ख़्वाब सी मेल की हक़ीक़त बनाते क्यों नहीं


देखते तो हैं ख़्वाब में - हम मोहब्बत को अपनी
हक़ीक़त में मगर देना दगा - अज़ीब नहीं लगता

तेरी तरह ही इंसान है - ये तेरी मोहब्बत
अपने लिए नापसंद - तू दगा उसे देता क्यूँ है?

अपने लिए नापसंद - औरों से करता तू वह है
तुझे इंसान लिखूँ या - कोई और हर्फ़ मैं लिखूँ


 

Wednesday, June 6, 2018

या तो इश्क़ ही कर लो
या हासिल कुछ कर लो

Monday, June 4, 2018

दुश्मन भी ऐसा हो - मेरे सपनों का संसार है
इक तुम्ही नहीं दोस्त मेरे - ऐसा हर इंसान हो

एक बार पूछ तो लो उससे ....

एक बार पूछ तो लो उससे ....
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"इक तुम्हें मिली - इक उसे मिली ज़िंदगी
तुमने तो जी ली - उसे मर मर के जीने दी"

किस सोच से ? , किस उद्देश्य से ? या क्या जस्टिफिकेशन है? पुरुष की कई कई औलादें पैदा करने के पीछे इसमें हमें जाना नहीं है। यहाँ सवाल कई कई बार प्रसव की वेदना सहती बेचारी नारी के मनोभाव का है। एक छोटी सी तकलीफ जिसमें रिस्क ज़िंदगी की होती है अगर स्वयं अपने पर आती है तो हम सब भयाक्रांत हो जाते हैं किंतु एक नारी को गर्भवस्था के दौरान ऐसे कितनी बार ज़िंदगी का भय सताता है , किसी को यह सोचने की परवाह नहीं । चलो माना पैदा भी कर दिए मजबूरी में 6-8 बच्चे उसने , किंतु उसकी दयनीय करुणाजनक मनोस्थिति का अंत यहीं नहीं हो जाता है। इसके बाद बारी और भी ज्यादा गहन कष्टों की आती है। हमारे समाज के घर-परिवार में अभावों का बसेरा होता है।  बच्चे कपड़े को लालायित रहते हैं , अच्छे भोजन को तरसते हैं , शिक्षा की गंभीरता बताने वाला उन्हें कोई नहीं और संस्कारों एवं उचित आचरण की प्रेरणा देने वाला उन्हें कोई नहीं होता है। अपने बच्चों की अपूरणीय मंसूबों को देखना , समाज के उन्नत परिवारों के बच्चों से उन्हें पिछड़ते देखना , यह करुणामयी किसी माँ के हृदय पर कितना बड़ा दबाव होता है , किसी को समझना नहीं है। उसकी चिंता उसके दुःख की मनोस्थिति उसकी नियति होती है। अभावों और शिक्षा संस्कारहीनता में पले बढ़े , बच्चे बड़े होकर , चोर - जेबकतरे हो सकते हैं। अपने तरफ किसी लड़की को आकृष्ट नहीं होते देख जोर जबरदस्ती और दुराचार को उन्मुक्त हो सकते हैं। कोई और सिर झुकाने वाले काम उनसे हो जाए - तब भी दोष इस बेचारी माँ पर आता है कि किस माँ का जना है यह दुष्ट। इस देश के पुरुषों , मेहरबानी कर इस समाज - इस देश पर इतनी करो कि 'एक बार पूछ तो लो उससे' कि कितनी औलाद ख़ुशी से वह पैदा कर सकती है। कितना है घर में कि कितने बच्चों की परवरिश वह ख़ुशी से कर सकती है ? कितने बच्चे को उचित शिक्षा-संस्कार के लिए उसके पास वक़्त होगा ? जितना घर परिवार और बच्चों पर देने के बाद थोड़ा वक़्त अपनी निजी ख़ुशी के लिए भी निकाल सकेगी।
 ज्यादा औलादों की सब तरह की अपेक्षाओं की पूर्ति के दबाव में नारी , चाहे वह किसी भी संप्रदाय की हो उम्र से पहले बूढी होती है , और ज़िंदगी को समझे बिना दुनिया से रुखसत होती है। नारी के लिए ज़िंदगी का मायने इतने बस में सीमित न करो , उसे ज़िंदगी का हक़ ज्यादा नहीं दे सको तो कोई बात नहीं , अपने बराबर का तो उपलब्ध कराओ।
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04-06-2018

रोज़ा-उपवास

रोज़ा-उपवास
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अभी बच्चे और नवयुवा जिन्हें भूखे रहने का अभ्यास ही नहीं उन पर रोजा-उपवास की पाबंदी से किसी को धर्म लाभ नहीं मिलता , अपितु उल्टा होता है। मजहब के नाम पर किसी को भूख से तरसाना - उनका दिल दुखाना है। दिल दुखाना , मज़हब नहीं होता। बच्चे-नवयुवा , पढ़ने- जॉब में मन लगायें या भूख से व्याकुल रोजा या उपवास खोलने के वक़्त का बेसब्री से इंतजार करें? चिकित्सा विज्ञान भी पेट ,पाचन और स्वास्थ्य की दृष्टि से इसे उचित नहीं कहता। लंबे समय भूखे रहना और फिर गरिष्ठ भोजन पर टूट पड़ना अजीब है. धर्म गुरुओं को दकियानूसी रिवाजों को बदलने के लिए आगे आना चाहिए। अब वक़्त दसवीं - बारहवीं सदी का नहीं जहाँ कुछ को करते देखने की नकल करना बाकि उचित मानते थे। अब हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं , जहाँ अंधविश्वासों को जगह नहीं होनी चाहिए। अब हमारे सामने उन्नत विज्ञान है , हम पढ़े-लिखें हैं हमें तर्क संगत बातें करना चाहिए तर्क संगत आचार-व्यवहार करना चाहिए। मैं जानता हूँ - रोजा रखवाने के चक्कर में माँ-बीबी सारी रात जागा करती हैं , दिन में भी सो पाना मयस्सर नहीं होता। मज़हब से क्या मिलेगा पता नहीं किंतु तय है कि स्वास्थ्यगत समस्यायें तो उनकी बढ़ेंगी ही।
किसी भी धर्म मजहब में - नेक इंसान होना सबसे पहली जरूरत है। मज़हब के प्रति आदर है तो पहली कोशिश अच्छे इंसान बनने की होना चाहिए , इससे हमें धर्म लाभ मिलता है , हमारा समाज देश अच्छा होता है। फिर रोज़े उपवास भी ख़ुद से मन में आएं तो ही किसी को रखना चाहिए। संकोच,नकल या जोर जबरदस्ती से नहीं रखे जाने चाहिए।
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04-06-2018

Saturday, June 2, 2018

किसी वक़्त अज़ीज लगा करते थे
वक़्त हुआ अब अजनबी से हो गए हैं

'तारीख़ ए वफ़ा' में कुछ ही नाम मिलते हैं
खुशकिस्मती कि उसमें जिक्र हमारा होगा

Friday, June 1, 2018

जिसने रोज नए सबक न दिए - वह ज़िंदगी भी क्या है
जी तो लिए हम मगर - कैसे जीते हैं 'और' पता क्या है